सेवासदन/६

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

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सुमन के घर के सामने भोली नाम की एक वेश्या का मकान था। भोली नित नये सिंगार करके अपने कोठे के छज्जेपर बैठती। पहर रात तक उसके कमरे से मधुर गान की ध्वनि आया करती। कभी-कभी वह फिटन पर हवा खाने जाया करती। सुमन उसे घृणा की दृष्टि से देखती थी।

सुमन ने सुन रखा था कि वेश्याएं अत्यन्त दुश्चरित्र और कुलटा होती है। वह अपने कौशल से नवयुव को को अपने मायाजाल में फंसा लिया करती है। कोई भलामानुस उनसे बातचीत नही करता, केवल शोहदे रात को छिपकर उनके यहाँ जाया करते है। भोली ने कई बार उसे चिककी आड़ में खड़े देखकर इशारे से बुलाया था, पर सुमन उससे बोलने मे अपना अपमान समझती। वह अपने को उससे बहुत श्रेष्ठ समझती थी। मैं दरिद्र सही, दीन सही पर अपनी मर्यादा पर दृढ़ [ २१ ] हूँ, किसी भलेमानुस के घर से मेरी रोक तो नही, कोई मुझे नीच तो नहीं समझता। वह कितना ही भोग-विलास करे पर उसका कही आदर तो नही होता। बस, अपने कोठे पर बैठी अपनी निर्लज्जता और अधर्म का फल भोगा करे। लेकिन सुमन को शीघ्र ही मालूम हुआ कि मैं इसे जितनी नीच समझती हूँ, उससे वह कही ऊंची है।

आषाढ के दिन थे। गरमी के मारे सुमन का दम फूल रहा था सन्ध्या को उसे किसी तरह न रहा गया। उसने चिक उठा दी और द्वार पर बैठी पंखा झल रही थी। देखती क्या है कि भोली बाई के दरवाजे पर किसी उत्सव की तैयारियाँ हो रही है। भिश्ती पानी का छिड़काव कर रहे थे। आगंन मे एक शामियाना ताना जा रहा था। उसे सजाने के लिए बहुत से फूल-पत्ते रखे हुए थे। शीशे के सामान ठेलो पर लदे चले आते थे। फ़र्श बिछाया जा रहा था। बीसो आदमी इधर-से-उधर दौडते फिरते थे, इतने में भोली की निगाह उस घर पर गई। सुमन के समीप आकर बोली, आज मेरे यहाँ मौलूद है। देखना चाहो तो परदा करा दूँ।

सुमन ने बेपरवाही से कहा--मै यही बैठे-बैठे देख लूगी।

भोली-—देख तो लोगी, पर सुन न सकोगी। हर्ज क्या है, ऊपर परदा करा दूँ?

सुमन--मुझे सुनने की उतनी इच्छा नही है।

भोली ने उसकी ओर एक करुण सूचक दृष्टि से देखा और मन में कहा, यह गँवारिन अपने मन में न जाने क्या समझे बैठी है। अच्छा, आज तू देख ले कि मैं कौन हूँ? वह बिना कुछ कहे चली गयी।

रात हो रही थी। सुमन का चूल्हे के सामने जाने को जी न चाहता था। बदन मे योंही आग लगी हुई है। आँच कैसे सही, जायगी, पर सोच-विचार कर उठी। चूल्हा जलाया खिचड़ी डाली और फिर आकर वहाँ तमाशा देखने लगी। आठ बजते-बजते शामियाना गैस के प्रकाश से जगमगा उठा। फूल-पत्तो की सजावट उसकी शोभा को और भी बढ़ा [ २२ ] रही थी। चारो ओर से दर्शक आने लगे। कोई वाइसिकिल पर आता था, कोई टमटम पर, कोई पैदल, थोड़ी देर में दो तीन फिटने भी आ पहुंची और उनमें कई बाबू लोग उतर पड़े। एक घण्टे में सारा आंगन भर गया। कई से मनुष्यो का जमाव हो गया। फिर मौलाना साहब की सवारी आई। उनके चेहरे से प्रतिभा झलक रही थी। वह सजे हुए सिंहासन-पर मसनद लगाकर बैठ गये और मौलूद होने लगा। कई आदमी मेहमानो का स्वागत-सत्कार कर रहे थे। कोई गुलाब छिड़क रहा था, कोई खास दान पेश करता था। सभ्य पुरुषो का ऐसा समूह सुमन ने कभी न देखा था।

नौ बजे गजाधर प्रसाद आये। सुमन ने उन्हें भोजन कराया। भोजन करके गजाधर भी जाकर उसी मण्डली में बैठे। सुमन को तो खाने की भी सुझ न रही। बारह बजे रात तक वह वही बैठी रही-यहाँ तक कि मौलूद समाप्त हो गया। फिर मिठाई बँटी और बारह बजे सभा विसर्जित हुई। गजाधर घर मे आये तो सुमन ने कहा, यह सब कौन लोग बैठे हुए थे?

गजाधर-में सबको पहचानता थोड़े ही हुँ। पर भले-बुरे सभी थे। शहर के कई रईस भी थे।

सुमन- क्या यह लोग वेश्या के घर आने मे अपना अपमान नही समझते?

गजाधर—अपमान समझते तो आते ही क्यों?

सुमन-तुम्हें तो वहाँ जाते हुए संकोच हुआ होगा?

गजाधर-जब इतने भले मानुस बैठे हुए थे तो मुझे क्यो संकोच होने लगा। वह सेठजी भी आये हुए थे जिनके यहाँ मै शाम को काम करने जाया करता हूँ।

सुमन ने विचार पूर्ण भाव से कहा,-मैं समझती थी कि वेश्याओ को लोग बडी घृणा की दृष्टि से देखते हैं।

गजाधर—हाँ, ऐसे मनुष्य भी है, गिने-गिनाये। पर अंगरे जी शिक्षा ने लोगों को उदार बना दिया है। वेश्याओ का अब उतना तिरस्कार नही किया जाता। फिर भोली वाई का शहर मे बड़ा मान है। [ २३ ]आकाश मे बादल छा रहे थे। हवा बन्द थी। एक पत्ती भी न हिलती थी। गजाधर प्रसाद दिन भर के थके हुए थे। चारपाई पर जाते ही निद्रा में निमग्न हो गये पर सुमन को बहुत देर तक नीद न आई।

दूसरे दिन सन्ध्या को जब फिर चिक उठाकर बैठी तो उसने भोली को छज्जेपर बैठे देखा। उसने बरामदे मे निकलकर भोली से कहा रात तो आपके यहाँ बड़ी धूम थी।

भोली समझ गई कि मेरी जीत हुई! मुस्कुराकर बोली, तुम्हारे लिए शीरनी भेज दूं? हलवाई की बनाई हुई है। ब्राह्मण लाया है। सुमन ने संकोच से कहा भिजवा देना।