सेवासदन/५५

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २५७ ] झुककर दूसरे को झुका सकते है, पर तनकर किसी को झुकाना कठिन है।

विट्ठलनाथ—शायद सदनसिंह को कुछ मालूम हो। जरा उन्हें बुलाइए।

शर्मा—वह तो रात से ही गायब है। उसने गंगा के किनारे एक झोपड़ा बनवा लिया है, कई मल्लाह लगा लिये है और एक नाव चलाता है। शायद रात वही रह गया।

विट्ठल-सम्भव है, दोनो बहने वही पहुँच गई हो, कहिए तो जाऊँ?

शर्मा—अजी नहीं, आप किस भ्रम में है। वह इतना लिबरल नहीं है। उनके साये से भागता है। अकस्मात् सदन ने उनके कमरे मे प्रवेश किया। पद्मसिंह ने पूछा, तुम रात कहाँ रह गये? सारी रात तुम्हारी राह देखी।

सदनसिंह ने धरती की ओर ताकते हुए कहा, मैं स्वयं लज्जित हूँ। ऐसा काम पड़ गया कि मुझे विवश होकर रुकना पड़ा। इतना समय भी न मिला कि आकर कह जाता। मैंने आपसे शर्म के मारे कभी चर्चा नहीं की, लेकिन इधर कई महीने से मैंने एक नाव चलाना शुरू किया है। वही नदी के किनारे एक झोपड़ा बनवा लिया है मेरा विचार है कि इस काम को जमकर करूँ। इसलिए आपसे उस झोपड़े में रहने की आज्ञा चाहता हूँ।

शर्मा—इसकी चर्चा तो लाला भगतराम ने एक बार मुझसे की, लेकिन खेद यह है कि तुमने अब तक मुझसे इसे छिपाया, नहीं तो मैं भी कुछ सहायता करता। खैर, मैं इसे बुरा नहीं समझता, बल्कि तुम्हें इस अवस्था मे देखकर मुझे बड़ा आनन्द हो रहा है, लेकिन मैं यह कभी न मानूँगा कि तुम अपना घर रहते हुए अपनी हाँडी अलग चढाओ। क्या एक नाव का और प्रबन्ध हो तो अधिक लाभ हो सकता है?

सदन-—जी हाँ, में स्वयं इसी फिक्र में हूँ। लेकिन इसके लिए मेरा घाटपर रहना जरूरी है।

शर्मा- भाई, यह शर्त तुम बुरी लगाते हो। शहर मे रहकर तुम मुझसे अलग रहो, यह मुझे पसन्द नहीं। इसमे चाहे कुछ हानि भी हो, लेकिन मैं न मानूँगा। [ २५८ ] सदन——नहीं चाचा, आप मेरी यह प्रार्थना स्वीकार कीजिये; मैं बहुत मजबूर होकर आपसे यह कह रहा हूँ।

शर्मा——ऐसी क्या बात है जो तुम्हे मजबूर करती है? तुम्हें जो संकोच हो वह साफ साफ क्यों नहीं कहते?

सदन——मेरे इस घरमे रहने से आपकी बदनामी होगी। मैंने अब अपने उस कर्तव्य के पालन करने का संकल्प कर लिया हूँ, जिसे में कुछ दिनों तक अपने अज्ञान और कुछ समयतक अपनी कायरता और निन्दा के भयसे टालता आता था। में आपका लड़का हूँ। जब मुझे कोई कष्ट होगा, आपका आश्रय लूँगा, कोई जरूरत पड़ेगी तो आपको सुनाऊँगा, लेकिन रहूँगा अलग अीर मुझे विश्वास है कि आप मेरे प्रस्ताव को पसन्द करेंगे।

विट्ठलदास भी बात की तह तक पहुँच गये। पूछा, कल सुमन और शान्ता से तो तुम्हारी मुलाकात नहीं हुई?

सदन के चेहरे पर लज्जा की लालिमा छा गई, जैसे किसी रमणी के मूँख पर से घूँघट हट जाय। दबी जबान से बोला, जी हाँ।

पद्मसिंह बडे धर्म संकट में पड़े। न ‘हाँ’ कह सकते थे, न ‘नहीं' कहते बनता था। अब तक वह शान्ता के सम्बन्ध में अपने को निर्दोष समझते थे। उन्होंने इस अन्याय का सारा भार अपने भाई के सिर डाल दिया था और सदन तो उनके विचार में काठ का पुतला था। लेकिन अब इस जाल मे फंसकर वह भाग निकलने की चेष्टा करते थे। संसार का भय तो उन्हे नहीं था, भय था कि कही भैया यह न समझ ले कि यह सब मेरे सहारे से हुआ है, मैंने ही सदन को बिगाड़ा हूँ। कही यह सन्देह उनके मन में उत्पन्न हो गया तो फिर वह कभी मुझे क्षमा न करेगें।

पद्मसिंह कई मिनट तक इसी उलझन में पड़े रहे। अन्त में वह बोले, सदन, यह समस्या इतनी कठिन है कि मैं अपने भरोसे पर कुछ नहीं कर सकता। भैया की राय लिए बिना 'हाँ' या 'नहीं’ कैसे कहूँ? तुम मेरे सिद्धान्त को जानते हो। मैं तुम्हारी प्रशंसा करता हूँ और प्रसन्न हूँ कि ईश्वर ने तुम्हें सद्बुद्धि दी। लेकिन मै भाई साहब की इच्छा को सर्वोपरि [ २५९ ] समझता हूँ। यह हो सकता है कि दोनों बहनों के अलग रहने का प्रबन्ध कर दिया जाय जिसमे उन्हें कोई कष्ट न हो। बस यही तक। इसके आगे मेरी कुछ सामर्थ्य नहीं है। भाई साहब की जो इच्छा हो वही करो।

सदन——क्या आपको मालूम नहीं, कि वह क्या उत्तर देगे?

पद्म——हाँ, यह भी मालूम है।

सदन——तो उनसे पूछना व्यर्थ है। माता-पिता की आज्ञा से में अपनी जान दे सकता हूँ, जो उन्हीं की दी हुई है, लेकिन किसी निरपराध की गर्दन पर तलवार नहीं चला सकता।

पद्म——तुम्हें इसमें क्या आपत्ति है कि दोनों बहनें एक अलग मकान में ठहरा दी जायँ।

सदन ने गर्म होकर कहा, ऐसा तो मैं तब करूँगा, जब मुझे छिपाना हो। में कोई पाप करने नहीं जा रहा हूँ, जो उसे छिपाऊँ। यह मेरे जीवन-का परम कर्त्तव्य है उसे गत रखने की आवश्यकता नहीं है। अब तक विवाह के जो संस्कार नहीं पूरे हुए है वह कल गंगा के किनारे पूरे किये जायँगे। यदि आप वहाँ आने की कृपा करेगे तो मैं अपना सौभाग्य समझूँगा, नहीं तो ईश्वरके दरबार में गवाहो के बिना भी प्रतिज्ञा हो जाती है।

यह कहता हुआ सदन उठा और घर में चला गया। सुभद्रा ने कहा, वहाँ, खूब गायब होते हो, सारी रात जी लगा रहा। कहाँ रह गए थे?

सदन ने रात का सारा वत्तान्त चाची से कहा। चाची से बातचीत करने में उसे वह झिझक न होती थी जो शर्मा जी से होती थी। सुभद्रा ने उसके साहस की बड़ी प्रशसा की। बोली, माँ बाप के डर से कोई अपनी व्याहता को थोड़े ही छोड़ देता है। दुनिया हँसेगी तो हँसा करे। उसके डर से अपने घर के प्राणी की जान ले ले? तुम्हारी अम्मा से डरती हूँ, नहीं तो उसे यही रखती।

सदन ने कहा, मुझे अम्मा दादा की परवाह नहीं है।

सुभद्रा——बहुत परवाह तो की। इतने दिनों तक बेचारी को घुला[ २६० ] शर्मा--वहाँ लच्छेदार बातों और तीव्र समालोचनाओें के सिवा और क्या रखा है?

५०

सदन सिंह का विवाह संस्कार हो गया? झोपड़ा खूब सजाया गया था। वही मंडप का काम दे रहा था, लेकिन कोई भीड़ भाड़ न थी।

पद्मसिंह उसी दिन घर चले गये और मदनसिंह से सब समाचार कहा। वह यह सुनते ही आग हो गये, बोले, मैं उस छोकरे का सिर काट लूँगा, वह अपने को समझता क्या है? भामा ने कहा, मैं आज ही जाती हूँ उसे समझाकर अपने साथ लिवा लाऊँगी। अभी नादान लड़का है। उस कुटनी सुमन की बातों मे आ गया है। मेरा कहना वह कभी न टालेगा।

लेकिन मदनसिंह ने भामा को डाँटा और धमका कर कहा, अगर तुमने उधर जाने का नाम लिया तो मैं अपना और तुम्हारा गला एक साथ ही घोंट दूंँगा। वह आग में कूदता है कूदने दो। ऐसा दूध पीता नादान बच्चा नहीं है। यह सब उसकी जिद्द है। बच्चू को भीख मगाकर न छोड़ूँ तो कहना। सोचते होगे दादा मर जायेंगे तो आनन्द करेगा। मुंँह घो रखें, यह कोई जायदाद नहीं है। यह मेरी अपनी कमाई है। सब-की-सब कृष्णार्पण कर दूँगा। एक फूटी कौड़ी तो मिलेगी ही नहीं।

गाँव में चारो ओर बतकहाव होने लगा। लाला बैजनाथ को निश्चय हो गया कि संसार से धर्म उठ गया। जब लोग ऐसे-ऐसे नीच कर्म करने लगे तो धर्म कहांँ रहा? न हुई नवाबी, नहीं तो आज बचूकी धज्जियाँ उड़ जाती। अब देखें कौन मुँह लेकर गाँव में आते है।

पद्मसिंह रात को बहुत देरतक भाई के साथ बैठे रहे, लेकिन ज्योंही वह सदन का कुछ जिक्र छेड़ते, मदनसिंह उनकी ओर ऐसी आग्नेय दृष्टिय देखते कि उन्हें बोलने की हिम्मत न पड़ती। अन्त में जब वह सोने चले तो पद्मसिंह ने हताश होकर कहा, भैया, सदन आपसे अलग रहे तब भी आपका लड़का ही कहलावेगा। वह जो कुछ नेक बद करेगा उसकी बदनमी हम सब पर आवेगी। जो लोग इस अवस्था को भलीभाँति जानते है, वह चाहे [ २६१ ] हम लोगों को निर्दोष समझे, लेकिन जनता सदन में और हम में कोई भेद नहीं कर सकती, तो इससे क्या फायदा कि साँप भी न मरे और लाठी भी टूट जाय। एक ओर दो बुराइयाँ है, बदनामी भी होती है और लड़का भी हाथ से जाता है। दूसरी ओर एक ही बुराई है, बदनामी होगी, लेकिन लड़का अपने हाथ में रहेगा। इसलिए मुझे तो यही उचित जान पड़ता है। कि हमलोग सदन को समझाने और यदि वह किसी तरह न माने तो .....

मदनसिंह ने बात काटकर कहा, तो उस चुड़ैल से उसका विवाह ठान दे? क्यों यही न कहना चाहते हो? यह मुझसे न होगा। एकबार नहीं, हजार बार नहीं।

यह कहकर वह चुप हो गये। एक क्षण के बाद पद्मसिंह को लांछित कर के बोले, आश्चर्य यह है कि यह सब कुछ तुम्हारे सामने हुआ और तुम्हें जरा भी खबर न हुई। उसने नाव ली, झोपड़ा बनाया, दोनों चुड़ैलो से साँठ गाँठ की और तुम आँखे बन्द किये बैठे रहे। मैंने तो उसे तुम्हारे ही भरोसे भेजा था। यह क्या जानता था कि तुम कान में तेल डाले बैठे रहते हो। अगर तुमने जरा भी चतुराई से काम लिया होता तो यह नौबत न आती। तुमने इन बातों की सूचना तक मुझे न दी नहीं तो मैं स्वयं जाकर उसे किसी उपाय से बचा लाता। अब जब सारी गोटियाँ पिट गई, सारा खेल बिगड़ गया तो चले हो वहाँ से मुझसे सलाह लेने। मैं साफ-साफ कहता हूँ कि तुम्हारी आनाकानी से मुझे तुम्हारे ऊपर भी सन्देह होता है। तुमने जान-बूझकर उसे आग मे गिरने दिया। मैंने तुम्हारे साथ बहुत बुराईयाँ की थी, उनका तुमने बदला लिया खैर; कल प्रात काल एक दान-पत्र लिख दो। तीन पाई जो मौरूसी जमीन है। उसे छोड़कर में अपनी सब जायदाद कृष्णार्पण करता हूँ। यहाँ न लिख सको तो वहाँ से लिखकर भेज देना। मैं दस्तखत कर दूँगा और उसकी रजिस्ट्री हो जायगी।

यह कहकर मदनसिंह सोने चले गये। लेकिन पद्मसिंह के मर्म-स्थान पर ऐसा बार कर गये कि वह रातभर तड़पते रहे। जिस अपराघ से बचने के [ २६२ ] लिए उन्होंने अपने सिद्धान्तों की भी परवाह न की और अपन सहवर्गियों में बदनाम हुए, वह अपराध लग ही गया। इतना ही नहीं, भाई के हृदय उनकी ओर से मैल पड़ गई। अब उन्हें अपनी भूल दिखाई दे रही थी। निस्संदेह अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया होता तो यह नौवत न आती। लेकिन इस वेदना में इस विचार से कुछ सन्तोष होता था कि जो कुछ हुआ सो हुआ एक अबला का उद्धार तो हो गया।

प्रातःकल जब वह घर से चलने लगें तो भामा रोती हुई आई और बोली, भैया, इनका हठ तो देख रहे हो, लड़के की जान ही लेने पर उतारू है, लेकिन तुम जरा सोच-समझकर काम करना। भूल चूक तो बड़े बड़ो से हो जाती है, वह बेचारा तो अभी नादान लड़का है। तुम उसकी ओर से मन न मोटा करना। उसे किसी की टेढ़ी निगाह भी सहन नहीं है। ऐसा न हो, कहीं देश विदेश की राह ले तो तो मैं कही की न रहूँ, उसकी सुध लेते रहना। खाने पीने की तकलीफ न होने पाये। यहाँ रहता था तो एक भैंस का दूध पी जाता था, उसे दाल में घी अच्छा नहीं लगता, लेकिन में उससे छिपाकर लोदे के लोदे दाल में डाल देती थी। अब इतना सेवा जतन कौन करेगा। न जाने बेचारा कैसे होगा? यहाँ घर पर कोई खानेवाला नहीं, वहाँ वह इन्हीं चीजों के लिए तरसता होगा। क्यों भैया, क्या अपने हाथ से नाव चलाता है।

पद्म--नहीं, दो मल्लाह रख लिए है।

भामा--तब भी दिनभर दौड़-धूप तो करनी ही पड़ती होगी। मजूर बिना देख-भाले थोड़े ही काम करते है मेरा तो यहाँ कुछ बस नहीं है, उसे तुम्हें सौंपती हैं। उसे अनाथ समझकर खोज खबर लेते रहना। मेरा रोंआ रोंआ तुम्हे आशीर्वाद देगा। अबकी कार्तिक-स्नान उसे जरूर से देखने जाऊँगी। कह देना, तुम्हरी अम्माँ तुम्हे बहुत याद करती थी, बहुत रोती थीं। यह सुनकर उसे ढाढस हो जायगा। उसका जी बड़ा कच्चा है। मुझे याद करके रोज रोता होगा। यह थोड़े से रुपये है, लेते जाओ, उसके पास भिजवा देना। [ २६३ ] पद्म--इसकी क्या जरूरत है? मैं तो वहाँ हूँ ही मेरे देखते उसे किसी बात की तकलीफ न होने पावेगी।

भामा--नहीं भैया, लेते जाओ, क्या हुआ। इस हाँडी में थोडा सा घी है, यह भी भेजवा देना। बाजारू घी घर के घी को कहाँ पाता है, न वह सुगन्ध न वह स्वाद। उसे अमावट की चटनी बहुत अच्छी लगती है, मैं थोड़ी सी अमावट भी रखे देती हूँ। मीठे-मीठे आम चुनकर रस निकाला था। समझाकर कह देना, बेटा, कोई चिन्ता मत करो। जब तक तुम्हारी माँ जीती है, तुमको कोई कष्ट न होने पावेगा। मेरे तो वही एक अन्धे की लकड़ी है। अच्छा है तो, बुरा है तो, अपना ही है। संसार की लाज से आँखो से चाहे दूर कर दूँ, लेकिन मन से थोड़े ही दूर कर सकती हूँ।

५१

जैसे सुन्दर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुन्दर रंगो से चित्रों में उसी प्रकार दोनों बहनो के आने से झोपड़े में जान आ गई है। अन्धी आँखों में पुतलियाँ पड़ गई है।

मुरझायी हुई कली शान्ता अब खिलकर अनुपम शोभा दिखा रही है। सूखी हुई नदी उमड़ पड़ी है। जैसे जेठ वैसाख की तपन की मारी हुई गाय सावन में निखर जाती है और खेतों में किलोलें करने लगती है, उसी प्रकार विरह की सताई हुई रमणी अब निखर गई है, प्रेम में मग्न है।

नित्यप्रति प्रातःकाल इस झोपड़े से दो तारे निकलते है और जाकर गंगा में डूब जाते है? उनमें से एक बहुत दिव्य और द्रुतगामी है, दूसरा मध्यम और मन्द। एक नदी में थिरकता है, नाचता है, दूसरा अपने वृत्त से बाहर नहीं निकलता। प्रभात की सुनहरी किरणों मे इन तारों का प्रकाश मन्द नहीं होता, वे और भी जममगा उठते हैं।

शान्ता गाती है, सुमन खाना पकाती है, शान्ता अपने केशों को सँवारती है, सुमन कपड़े सीती है, शान्ता भूखे मनुष्य के समान भोजन के थालपरट्ट पड़ती है सुमन किसी रोगी के सदृश सोचती है कि मैं अच्छी हूँगी या नहीं। [ २६४ ] सदन के स्वभाव में भी अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनन्द भोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घण्टों नहाता है, बाल संवारता है, कपड़े बदलता है, मुगन्ध मलता है। नौ बजे से पहले वह अपनी बैठक में नहीं आता और आता भी है तो जमकर बैठता नहीं, उसका मन कहीं और रहता है। एक-एक पल में भीतर जाता है और अगर बाहर किसी से बात करने में देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ता ने उस पर वशीकरण मन्त्र डाल दिया है।

सुमन घर का सारा काम भी करती है और बाहर का भी। वह घड़ी रात रहे उठती है और स्नान-पूजा के बाद सदन के लिए जलपान बनाती है। फिर नदी के किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजेतक यहाँ से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब सब लोग सोने चले जाते है, तो वह पढ़ने बैठ जाती है, तुलसी की विनय पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानन्द के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवनचरित्रों को बड़े चाव से पढ़ती है। मीरा पर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा धार्मिक ग्रन्य ही पढ़ती है। लेकिन जानकी अपेक्षा भक्ति में उसे अधिक शांति मिलती है।

मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बड़ा आदर है, वह उनके झगड़े चुकाती है, किसी के बच्चे के लिए कुर्ता टोपी सीती है, किसी के लिए अर्जन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है तो उसके घर जाती है और दवा दारू की फिक्र करती है वह अपनी गिरी दिवाल को फिरसे उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते है और उसका यश गाते है। हाँ, अगर आदर नहीं है तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घर का सारा बोझ सँभाले हुए हैं, लेकिन मदन के मुँह से कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नहीं समझती। दोनों के दोनों उसकी ओर से निश्चिन्त है, मानो वह घर की लौंडी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके [ २६५ ] सिर में दर्द होने लगता है, कभी दौड़ धूप से बुखार चढ़ आता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह कभी-कभी एकान्त में अपनी इस दीन दशा पर घंण्टो रोती रहती है, पर कोई ढाढ़स देने वाला, कोई आँसू पोंछने वाला नहीं।

सुमन स्वभाव से ही मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहाँ कही रही थी रानी बनकर रही थी। अपने पति घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलास नगर में वह जबतक रही उसी का सिक्का चलता रहा, आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहाँ इस हीनावस्था में रहना उसे असहय था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हाँ में हाँ मिलाती, उसका मन बहलाती तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनो प्रमियों को अपनी तरग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तु पर रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही हाल होता है।

लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेमलिप्सा के ही कारण थी, इसमें सन्देह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुप्ट रोगी से बचते है, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जाने की हिम्मत नहीं रखते। शान्ता उस पर अविश्वास करती थी, उसके रूपलावण्य से डरती थी। कुशल यही थी कि सदन स्वयं सुमन से आँखे चुराता था, नहीं तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनो चाहते थे कि यह आस्तीन का साँप आँखो से दूर हो जाय, लेकिन संकोच वश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।

सुमन पर यह रहस्य शनैं• शनै• खुलता जाता था।

एक बार जीतन कहार शर्मा जी के यहाँ से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अबकी जीतन की निगाह उस पर पड़ गई। सदन के स्वभाव में भी अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनन्द भोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घण्टो नहाता है, बाल सँवारता है, कपडे बदलता है, सुगन्ध मलता है। नौ बजेसे पहले वह अपनी बैठक में नही आता और आता भी है तो जमकर बैठता नही, उसका मन कही और रहता है। एक-एक पलमें भीतर जाता है और अगर बाहर किसी से बात करनेमें देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ताने उसपर वशीकरण मन्त्र डाल दिया है।

सुमन घरका सारा काम भी करती है और बाहरका भी वह घडी रात रहे उठती है और स्नान-पूजाके बाद सदनके लिए जलपान बनाती है। फिर नदीके किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजे तक यहाँ से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब सब लोग सोने चले जाते है, तो वह पढ़ने बैठ जाती है, तुलसी की विनय पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानन्द के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवनचरित्रों को बडे चावसे पढ़ती है। मीरापर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा धार्मिक ग्रन्थ ही पढ़ती है। लेकिन ज्ञानकी अपेक्षा भक्तिमे उसे अधिक शांति मिलती है।

मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बडा आदर है, वह उनके झगड़े चुकाती है, किसीके बच्चे के लिए कुर्सी टोपी सीती है, किसीके लिए अञ्जन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है तो उसके घर जाती है और दवा दारूकी फिक्र करती है। वह अपनी गिरी दिवाल को फिरसे उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते है और उसका यश गाते है। हाँ, अगर आदर नही है तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घरका सारा बोझ संभाले हुए है,लेकिन सदनके मुहसे कृतज्ञता का एक शब्द भी नही निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नही समझती। दोनों के दोनों उसकी ओर से निश्चिन्त है, मानो वह घर की लड़ी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके
सिर में दर्द होने लगता है,कभी दौड़ धूप से बुखार चढ़ आता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह कभी-कभी एकान्तमे अपनी इस दीन दशापर घण्टो रोती रहती है, पर कोई ढाढस देनेवाला, कोई आँसू पोंछने वाला नहीं।

सुमन स्वभाव से ही मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहाँ कही रही थी रानी बनकर रही थी। अपने पति के घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलास नगर मे वह जबतक रही उसी का सिक्का चलता रहा, आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहाँ इस हीनावस्था मे रहना उसे असहय था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हाँ में हाँ मिलाती, उसका मन बहलाती तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनों प्रेमियों को अपनी तरंग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तुपरक रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही हाल होता है।

लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेमलिप्साके ही कारण थी, इसमे सन्देह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुष्ठ रोगी से बचते है, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जानेकी हिम्मत नही रखते। शान्ता उसपर अविश्वास करती थी, उसके रूपलावण्य से डरती थी। कुशल यही थी कि सदन स्वयं सुमन से आँखे चुराता था, नही तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनों चाहते थे कि यह आस्तीन का सांप आँखो से दूर हो जाय, लेकिन संकोचवश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।

सुमनपर यह रहस्य शनैः शनैः खुलता जाता था।

एक बार जीतन कहार शर्माजी के यहाँ से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अबकी जीतन की निगाह उसपर पड़ गई।[ २६८ ] फिर क्या था, उसके पेट में चूहे दौड़ने लगे। वह पत्थर खाकर पचा सकता था, पर कोई बात पचाने की शक्ति उसमे न थी। मल्लाहों के चौधरी के पास चिलम पीने के बहाने गया और सारी रामकहानी सुना आया। अरे! यह तो कस्त्रीन है, खसम ने घर से निकाल दिया तो हमारे यहाँ खाना पकाने लगी, वहाँ से निकाली गई तो चीकमे हरजाईपन करने लगी, अब देखता हूँ तो यहाँ विराजमान है। चौधरी सन्नाटे में आ गया, मल्लाहिनों में भी इशारेबाजियाँ होने लगी। उस दिन से कोई मल्लाह सदन के घर का पानी न पीता, उनकी स्त्रियों ने सुमन के पास आना जाना छोड़ दिया। इसी तरह एक बार लाला भगतराम ईटों की लदाई का हिसाब करने आये। प्यार से मालूम हुई तो मल्लाह से पानी लाने को कहा। मल्लाह कुएँ से पानी लाया। सदन के घर में बैठे हुए बाहर से पानी मँगाकर पीना सदन की छाती में छुरी मारने से कम न था।

अन्त में दूसरा साल जाते जाते यहाँ तक नौवत पहुँची कि सदन जरा-जरा सी बात पर सुमन से झुँझला जाता और चाहे कोई लागू बात न कहे, पर उसके मन के भाव झलक ही पड़ते थे।

सुमन को मालूम हो रहा था कि अब मेरा निर्वाह यहाँ न होगा। उसने समझा था कि यही बहन-बहनोई के साथ जीवन समाप्त हो जायगा। उनकी सेवा करुँगी, एक टुकड़ा खाऊँगी और एक कोने में पड़ी रहूँगी। इसके अतिरिक्त जीवन में अब उसे कोई लालसा नहीं थी। लेकिन हा शोक! यह तख्ता भी उसके पैरो के नीचे से सरक गया और अब यह निर्दयी लहरों की गोद में थी।

लेकिन सुमन को अपनी परिस्थिति पर दु:ख चाहे कितना ही हुआ हो, उसे सदन या शान्ता से कोई शिकायत न थी। कुछ तो धार्मिक प्रेम और कुछ अपनी अवस्था के वास्तविक ज्ञान से उसे अत्यन्त नम्र विनीत बना दिया था। वह बहुत सोचती कि कहाँ जाऊँ, जहाँ अपनी जान-पहचान का कोई आदमी न हो लेकिन उसे ऐसा कोई ठिकाना न दिखाई देता। अभी तक उसकी निर्बल आत्मा कोई अवलम्ब चाहती थी। बिना [ २६९ ] किसी सहारे के संसार मे रहने का विचार करके उसका कलेजा काँपने लगता था। वह अकेली असहाय, संसार-संग्राम में आने का साहस न कर सकती थी। जिस संग्राम में बड़े-बड़े कुशल, धर्मशील, दृढ संकल्प मनुष्य मुँह की खाते हैं, वहाँ मेरी क्या गति होगी। कौन मेरी रक्षा करेगा? कौन मुझे सँभालेगा? निरादर होने पर भी यह शंका उसे यहाँ से निकलने न देती थी।

एक दिन सदन दस बजे कही से घूमकर आया और बोला, भोजन में अभी कितनी देर है, जल्दी करो। मुझे पंण्डित उमानाथ से मिलने जाना है। चाचा के यहाँ आये हुए है।

शान्ता ने पूछा, वह यहाँ कैसे आये?

सदन--अब यह मुझे क्या मालूम? अभी जीतन आकर कह गया है कि वह आये हुए है और आज ही चले जायेंगे। यहाँ आना चाहते थे, लेकिन (सुमन की ओर इशारा करके) किसी कारण से नहीं आए।

शान्ता--तो जरा बैठ जाओ, यहाँ अभी घण्टों की देर है।

सुमन ने झुँझलाकर कहा, देर क्या है, सब कुछ तो तैयार है। आसन बिछा दो, पानी रख दो, मैं थाली परसती हूँ।

शान्ता--अरे, तो जरा ठहर ही जायेंगे तो क्या होगा? कोई डाक गाड़ी छूटी जाती है? कच्चा-पक्का खाने का क्या काम?

सदन--मेरी समझ नहीं आता कि दिनभर क्या होता रहता है! जरा-सा भोजन बनाने में इतनी देर हो जाती है।

सदन जब भोजन करके चला गया, तब सुमन ने शान्ता से पूछा, क्यों शान्ता, सच बता, तुझे मेरा यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? तेरे मन में जो कुछ हैं वह मैं जानती हूँ, लेकिन तू जब तक अपने मुँह से मुझे दुत्कार न देगी, मैं जाने का नाम न लूँगी। मेरे लिए कही ठिकाना नहीं है।

शान्ता--बहन, कैसी बात कहती हो, तुम रहती हो तो घर संभला हुआ है, नहीं तो मेरे किए क्या होता?

सुमन--यह मुँह देखी बात मत करो, मैं ऐसी नादान नही हूँ। मैं तुम दोनों आदमियों को अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ पाती हूँ। [ २७० ] शान्ता-तुम देखती हो, तुम्हारी आँखो की क्या बात है, वह तो मन तक की बात देख लेती है।

सुमन-आँखे सीधी करके बोली, क्या जो कुछ मैं कहती हूँ, झूठ है?

शान्ता—जब तुम जानती हो तो पूछती क्यों हो?

सुमन-इसलिए कि सब कुछ देख कर आँखो पर विश्वास नहीं आता। संसार मुझे चाहे कितना ही नीच समझे, मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है, वह मेरे मन का हाल नहीं जानता, लेकिन तुम सब कुछ देखते हुए भी मुझे नीच समझती हो, इसका आश्चर्य है। मैं तुम्हारे साथ लगभग दो वर्ष से हूँ, इतने दिनों में तुम्हें मेरे चरित्र का परिचय अच्छी तरह हो गया होगा।

शान्ता-नहीं बहन, मैं परमात्मा से कहती हूँ, यह बात नही हैं। हमारे ऊपर इतना बड़ा कलंक मत लगाओ। तुमने मेरे साथ जो उपकार किये है, वह मैं कभी न भूलूँगी। लेकिन बात यह है कि उनकी बदनामी हो रही है। लोग मनमानी बातें उड़ाया करते है। वह (सदनसिंह) कहते थे कि सुभद्रा जी यहाँ आने को तैयार थी, लेकिन तुम्हारे रहने की बात सुनकर नहीं आई और बहन बुरा न मानना, जब संसार में यही प्रथा चल रही है तो हम लोग क्या कर सकते है।

सुमन ने विवाद न किया। उसे आज्ञा मिल गई। अब केवल एक रुकावट थी। शान्ता थोड़े ही दिनों में बच्चे की माँ बनने वाली थी। सुमन ने अपने मन को समझाया; इस समय छोड़कर चली जाऊँगी तो इसे कष्ट होगा। कुछ दिन और सह लूँ, जहाँ इतने दिन काटे हैं, महीने दो महीने और सही। मेरे ही कारण यह इस विपत्ति में फँसे हुए है। ऐसी अवस्था में इन्हें छोड़कर जाना मेरा धर्म नहीं है।

सुमन का यहाँ एक-एक दिन एक-एक साल की तरह कटता था, लेकिन सब्र किये पड़ी हुई थी।

पापहीन पक्षी पिंजरबद्ध रहने में ही अपना कुशल समझता है।

५२

पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुपयोग का यह फल हुआ [ २७१ ] कि २०-२५ वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी सम्पत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दो, पाँच वेश्याएँ निकाह करने पर राजी हो गई। सच्ची हिताकांक्षा कभी निष्फल नहीं होती। अगर समाज को विश्वास हो जाय कि आप उसके सच्चे सेवक हैं, आप उनका उद्धार करना चाहने है, आप निःस्वार्थ है तो वह आपके पीछे चलने को तैयार हो जाता है। लेकिन यह विश्वास सच्चे सेवाभावके बिना कभी प्राप्त नहीं होता। जब तक अन्त करण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिम्ब दूसरी पर नहीं डाल सकता। पद्मसिंह में सेवाभाव का उदय हो गया था। हममें कितने ही ऐसे सज्जन है जिनके मस्तिष्क से राष्ट्र की कोई सेवा करने का विचार उत्पन्न होता है, लेकिन बहुधा वह विचार ख्याति लाभ की आकाक्षा से प्रेरित होता है। हम वह काम करना चाहते हैं जिसमे हमारा नाम प्राणिमात्र की जिव्हा पर हो, कोई ऐसा लेख अथवा ग्रन्थ लिखना चाहते है, जिसकी लोग मुक्त कण्ठ से प्रशसा करे, और प्रायः हमारे इस स्वार्थ प्रेम का कुछ न कुछ बदला भी हमको मिल जाता है, लेकिन जनता के हृदय में हम घर नहीं कर सकते। कोई मनुष्य चाहे वह कितने ही दुःख में हो, उस व्यक्ति के सामने अपना शोक प्रकट नहीं करना चाहता जिसे वह अपना सच्चा मित्र न समझता हो।

पद्मसिंह को अब दालमण्डी में जाने को बहुत अवसर मिलता था और वह वेश्याओं के जीवनका जितना ही अनुभव करते थे उतना ही उन्हें दु:ख होता था। ऐसी-ऐसी सुकोमल रमणियों को भोगविलास के लिए अपना सर्वस्व गँवाते देखकर उनका हृदय करुणा से विव्हल हो जाता था, उनकी आँखो से आँसू निकल पड़ते थे। उन्हें अवगत हो रहा था कि यह स्त्रियाँ विचारशून्य नहीं, भावशून्य नहीं, बुद्धिहीन नहीं, लेकिन मायाके हाथों- में पड़कर उनकी सारी सद्वृतियाँ उल्टे मार्गपर जा रही है, तृष्णाने उनकी आत्माओं को निर्बल, निश्चेष्ट बना दिया है। पद्मसिंह इस माया-जाल को तोड़ना चाहते थे, वह उन भूली हुई आत्माओं को सचेत किया [ २७२ ] चाहते थे, वह उनको इस अज्ञानावस्था से मुक्त किया चाहते थे, पर माया जाल इतना दृढ़ था और अज्ञानबन्धन इतना पुष्ट तथा निद्रा इतनी गहरी थी कि पहले छः महीनो में उससे अधिक सफलता न हो सकी, जिसका ऊपर वर्णन किया जा चुका है। शराब के नशे में मनुष्य की जो दशा हो जाती है वही दशा इन वेश्याओं की हो गयी थी।

उधर प्रभाकरराव और उनके मित्रों ने उस प्रस्ताव के शेष भागों के फिर बोर्ड में उपस्थित किया। उन्होंने केवल पद्मसिंह से द्वेष हो जाने के कारण उन मन्तव्यों का विरोध किया था, पर अब पद्मसिंह का वेश्यानुराग देखकर वह उन्हीं के बनाये हुए हथियारों से उनपर आघात कर बैठे। पझसिंह उस दिन बोर्ड नहीं गये, डाक्टर श्यामाचरण नैनीताल गये हुए थे, अतएव ने दोनों मन्तव्य निर्विघ्न पास हो गये।

बोर्ड की ओर से अलईपुर के निकट वेश्याओं के लिये मकान बनाये जा रहे थे। लाला भगतराम दत्तचित्त होकर काम कर रहे थे। कुछ कच्चे घर थे, कुछ पक्के, कुछ दुमजल, एक छोटा-सा बाजार, एक छोटा-सा औपवालय और एक पाठशाला भी बनाई जा रही थी। हाजी हाविम ने एक मसजिद बनवानी आरभ की थी और सेठ चिम्मनलाल की ओर से एक मन्दिर बन रहा था। दीनानाथ तिवारी ने एक बाग की नीबडाल दी थी। आशा तो थी कि नियत समय के अन्दर भगतराम काम समाप्त कर देगें, मिस्टर दत्त और पंडित प्रभाकरराव तथा मिस्टर शाकिर बेग उन्हें चैन न लेने देते थे। लेकिन काम बहुत था, और बहुत जल्दी करने पर भी एक साल लग गया। बस इसी की देर थी। दूसरे ही दिन वेश्याओं को दालमण्डी छोड़कर इन नये मकानो में आबाद होने का नोटिस दे दिया गया।

लोगों को शंका थी कि वेश्याओं की ओर से इसका विरोध होगा पर उन्हें यह देखकर आमोदपूर्ण आश्चर्य हुआ कि वेश्याओं ने प्रसन्नतापूर्वक इस आज्ञा का पालन किया। सारी दालमण्डी एक दिन में खाली हो गई। जहाँ निशिबासर एक श्री-सी बरसती थी वहाँ सन्ध्या होते सन्नाटा छा गया? [ २७३ ] महबूब जान एक धनसम्पन्न वेश्या थी। उसने अपना सर्वस्व अनाथालय के लिये दान कर दिया था। सन्ध्या समय सब वेश्याएँ उसके मकान पर एकत्रित हुई, वहाँ एक महती सभा हुई। शाहजादी ने कहा, बहनों, आज हमारी जिंदगी का एक नया दौर शुरू होता है। खुदाताला हमारे इरादे में बरकत दे और हमे नेक रास्ते पर ले जाय। हमने बहुत दिन बे-शर्मी और जिल्लतकी जिन्दगी बसर की, बहुत दिन शैतान की कद में रही। बहुत दिनों तक अपनी रूह (आत्मा) और ईमान का खून किया और बहुत दिनों तक मस्ती और ऐश परस्ती में भूली रही। इस दालमण्डी की जमीन हमारे गुनाहो से सियाह हो रही है। आज खुदाबंद करीम ने हमारी हालत पर रहम करके कदगुनाहसे निजात् (मुक्ति) दी है, इसके लिये हमे उसका शुक्र करना चाहिये। इसमें शक नहीं, कि हमारी कुछ बहनों को यहाँ से जलावतन होने का कलंक होता होगा, और इसमें भी शक नहीं है कि उन्हें आनेवाले दिन तारीक नजर आते होंगे। उन बहनो से मेरा यही इल्तमास है कि खुदाने रिज्क (जीविका) का दरवाजा किसी पर बन्द नहीं किया है। आपके पास वह हुनर है कि उसके कदरदाँ हमेशा रहेगें। लेकिन अगर हमको आइन्दा तकलीफें भी हों तो हमको साबिर व शाकिर (शान्त) रहना चाहिये। हमे आइन्दा जितनी ही तकलीफें होगी उतना ही हमारे गुनाहों का बोझ हलका होगा। मैं फिर खुदा से दुआ करती हूँ कि वह हमारे दिलों को अपनी रौशनी से रौशन करे और हमें राहे नेक पर लाने की तौफीक (सामर्थ) दे।

रामभोली बाई बोली, हमे पंण्डित पद्मसिंह शर्मा को हृदय से धन्यबाद देना चाहिये, जिन्होंने हमको धर्म मार्ग दिखाया है। उन्हे परमात्मा सद सुखी रखे।

जहराजान बोलो, मैं अपनी बहनों से यही कहना चाहती हूँ कि वह आइन्दा से हलाल हराम का ख्याल रखें। गाना बजाना हमारे लिये हलाल है। इसी हुनर में कमाल हासिल करो। बदकार रईसों की शुरूवत (कासातुरता) का खिलौना बनना छोड़ना चाहिये। बहुत दिनों तक [ २७४ ] की इच्छा न होती थी। अकस्मात् कुत्तों के भूँकने से किसी नये आदमी के गाँव आने की सूचना दी। मदनसिंह की छाती धड़कने लगी। कही सदन तो नहीं आ रहा है। किताब बन्द करके उठे तो पद्मसिंह को आते देखा। पद्मसिंहने उनके चरण छूए फिर दोनो भाइयों में बातचीत होने लगी ।

मदन-—सब कुशल हैं?

पद्म-—जी हाँ, ईश्वर की दया है।

मदन-भला उस बेईमान की भी कुछ खोज-खबर मिली है?

पद्म-—जी हाँ, अच्छी तरह है। दसवें-पाँचवें मेरे यहाँ आया करता है। में कभी-कभी हाल-चाल पुछवा लेता हूँ। कोई चिन्ता की बात नहीं है।

मदन-—भला वह पापी कभी हम लोगों की भी चर्चा करता है या बिल्कुल मरा समझ लिया? क्या यहाँ आने की कसम खा ली है। क्या हमलोग मर जायँगे तभी आवेगा? अगर उसकी यही इच्छा है तो हम लोग कहीं चले जायें। अपना घर द्वार ले अपना घर संभाले। सुनता हूँ, वहाँ मकान बनवा रहा है। वह तो वहाँ रहेगा और यहाँ कौन रहेगा। यह मकान जिसके लिये छोड़े देता है।

पद्म-—जी नहीं, मकान वकान कहीं नहीं बनवाता, यह आपसे किसी ने झूठ कह दिया। हाँ, चूने की कल खड़ी कर ली है और यह भी मालूम हुआ है कि नदी पार थोड़ी सी जमीन भी लेना चाहता है।

मदन--तो उमसे कह देना, पहले आकर इस घर में आग लगा जाय तब वहाँ जगह जमीन ले।

पद्म--यह आप क्या कहते हैं, वह केवल आप लोगों की अप्रसन्नता के भय से नहीं आता। आज उसे मालूम हो जाय कि आपने उसे क्षमा कर दिया तो सिर के बल दौड़ा आवे। मेरे पास आता है तो घण्टों आप ही की बातें करता रहता है। आपकी इच्छा हो तो कल ही चला आवे।

मदन--नहीं, मैं उसे बुलाता नहीं। हम उसके कोन होते है जो यहाँ आयेगा। लेकिन यहाँ आवे तो कह देना जरा पीठ मजबूत कर रखें। उसे देखते ही मेरे सिरपर शैतान सवार हो जायगा और मैं ठण्डा