सेवासदन/५६

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २६२ ] लिए उन्होंने अपने सिद्धान्तों की भी परवाह न की और अपन सहवर्गियों में बदनाम हुए, वह अपराध लग ही गया। इतना ही नहीं, भाई के हृदय उनकी ओर से मैल पड़ गई। अब उन्हें अपनी भूल दिखाई दे रही थी। निस्संदेह अगर उन्होंने बुद्धिमानी से काम लिया होता तो यह नौवत न आती। लेकिन इस वेदना में इस विचार से कुछ सन्तोष होता था कि जो कुछ हुआ सो हुआ एक अबला का उद्धार तो हो गया।

प्रातःकल जब वह घर से चलने लगें तो भामा रोती हुई आई और बोली, भैया, इनका हठ तो देख रहे हो, लड़के की जान ही लेने पर उतारू है, लेकिन तुम जरा सोच-समझकर काम करना। भूल चूक तो बड़े बड़ो से हो जाती है, वह बेचारा तो अभी नादान लड़का है। तुम उसकी ओर से मन न मोटा करना। उसे किसी की टेढ़ी निगाह भी सहन नहीं है। ऐसा न हो, कहीं देश विदेश की राह ले तो तो मैं कही की न रहूँ, उसकी सुध लेते रहना। खाने पीने की तकलीफ न होने पाये। यहाँ रहता था तो एक भैंस का दूध पी जाता था, उसे दाल में घी अच्छा नहीं लगता, लेकिन में उससे छिपाकर लोदे के लोदे दाल में डाल देती थी। अब इतना सेवा जतन कौन करेगा। न जाने बेचारा कैसे होगा? यहाँ घर पर कोई खानेवाला नहीं, वहाँ वह इन्हीं चीजों के लिए तरसता होगा। क्यों भैया, क्या अपने हाथ से नाव चलाता है।

पद्म--नहीं, दो मल्लाह रख लिए है।

भामा--तब भी दिनभर दौड़-धूप तो करनी ही पड़ती होगी। मजूर बिना देख-भाले थोड़े ही काम करते है मेरा तो यहाँ कुछ बस नहीं है, उसे तुम्हें सौंपती हैं। उसे अनाथ समझकर खोज खबर लेते रहना। मेरा रोंआ रोंआ तुम्हे आशीर्वाद देगा। अबकी कार्तिक-स्नान उसे जरूर से देखने जाऊँगी। कह देना, तुम्हरी अम्माँ तुम्हे बहुत याद करती थी, बहुत रोती थीं। यह सुनकर उसे ढाढस हो जायगा। उसका जी बड़ा कच्चा है। मुझे याद करके रोज रोता होगा। यह थोड़े से रुपये है, लेते जाओ, उसके पास भिजवा देना। [ २६३ ] पद्म--इसकी क्या जरूरत है? मैं तो वहाँ हूँ ही मेरे देखते उसे किसी बात की तकलीफ न होने पावेगी।

भामा--नहीं भैया, लेते जाओ, क्या हुआ। इस हाँडी में थोडा सा घी है, यह भी भेजवा देना। बाजारू घी घर के घी को कहाँ पाता है, न वह सुगन्ध न वह स्वाद। उसे अमावट की चटनी बहुत अच्छी लगती है, मैं थोड़ी सी अमावट भी रखे देती हूँ। मीठे-मीठे आम चुनकर रस निकाला था। समझाकर कह देना, बेटा, कोई चिन्ता मत करो। जब तक तुम्हारी माँ जीती है, तुमको कोई कष्ट न होने पावेगा। मेरे तो वही एक अन्धे की लकड़ी है। अच्छा है तो, बुरा है तो, अपना ही है। संसार की लाज से आँखो से चाहे दूर कर दूँ, लेकिन मन से थोड़े ही दूर कर सकती हूँ।

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जैसे सुन्दर भाव के समावेश से कविता में जान पड़ जाती है और सुन्दर रंगो से चित्रों में उसी प्रकार दोनों बहनो के आने से झोपड़े में जान आ गई है। अन्धी आँखों में पुतलियाँ पड़ गई है।

मुरझायी हुई कली शान्ता अब खिलकर अनुपम शोभा दिखा रही है। सूखी हुई नदी उमड़ पड़ी है। जैसे जेठ वैसाख की तपन की मारी हुई गाय सावन में निखर जाती है और खेतों में किलोलें करने लगती है, उसी प्रकार विरह की सताई हुई रमणी अब निखर गई है, प्रेम में मग्न है।

नित्यप्रति प्रातःकाल इस झोपड़े से दो तारे निकलते है और जाकर गंगा में डूब जाते है? उनमें से एक बहुत दिव्य और द्रुतगामी है, दूसरा मध्यम और मन्द। एक नदी में थिरकता है, नाचता है, दूसरा अपने वृत्त से बाहर नहीं निकलता। प्रभात की सुनहरी किरणों मे इन तारों का प्रकाश मन्द नहीं होता, वे और भी जममगा उठते हैं।

शान्ता गाती है, सुमन खाना पकाती है, शान्ता अपने केशों को सँवारती है, सुमन कपड़े सीती है, शान्ता भूखे मनुष्य के समान भोजन के थालपरट्ट पड़ती है सुमन किसी रोगी के सदृश सोचती है कि मैं अच्छी हूँगी या नहीं। [ २६४ ] सदन के स्वभाव में भी अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनन्द भोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घण्टों नहाता है, बाल संवारता है, कपड़े बदलता है, मुगन्ध मलता है। नौ बजे से पहले वह अपनी बैठक में नहीं आता और आता भी है तो जमकर बैठता नहीं, उसका मन कहीं और रहता है। एक-एक पल में भीतर जाता है और अगर बाहर किसी से बात करने में देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ता ने उस पर वशीकरण मन्त्र डाल दिया है।

सुमन घर का सारा काम भी करती है और बाहर का भी। वह घड़ी रात रहे उठती है और स्नान-पूजा के बाद सदन के लिए जलपान बनाती है। फिर नदी के किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजेतक यहाँ से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब सब लोग सोने चले जाते है, तो वह पढ़ने बैठ जाती है, तुलसी की विनय पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानन्द के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवनचरित्रों को बड़े चाव से पढ़ती है। मीरा पर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा धार्मिक ग्रन्य ही पढ़ती है। लेकिन जानकी अपेक्षा भक्ति में उसे अधिक शांति मिलती है।

मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बड़ा आदर है, वह उनके झगड़े चुकाती है, किसी के बच्चे के लिए कुर्ता टोपी सीती है, किसी के लिए अर्जन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है तो उसके घर जाती है और दवा दारू की फिक्र करती है वह अपनी गिरी दिवाल को फिरसे उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते है और उसका यश गाते है। हाँ, अगर आदर नहीं है तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घर का सारा बोझ सँभाले हुए हैं, लेकिन मदन के मुँह से कृतज्ञता का एक शब्द भी नहीं निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नहीं समझती। दोनों के दोनों उसकी ओर से निश्चिन्त है, मानो वह घर की लौंडी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके [ २६५ ] सिर में दर्द होने लगता है, कभी दौड़ धूप से बुखार चढ़ आता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह कभी-कभी एकान्त में अपनी इस दीन दशा पर घंण्टो रोती रहती है, पर कोई ढाढ़स देने वाला, कोई आँसू पोंछने वाला नहीं।

सुमन स्वभाव से ही मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहाँ कही रही थी रानी बनकर रही थी। अपने पति घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलास नगर में वह जबतक रही उसी का सिक्का चलता रहा, आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहाँ इस हीनावस्था में रहना उसे असहय था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हाँ में हाँ मिलाती, उसका मन बहलाती तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनो प्रमियों को अपनी तरग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तु पर रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही हाल होता है।

लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेमलिप्सा के ही कारण थी, इसमें सन्देह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुप्ट रोगी से बचते है, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जाने की हिम्मत नहीं रखते। शान्ता उस पर अविश्वास करती थी, उसके रूपलावण्य से डरती थी। कुशल यही थी कि सदन स्वयं सुमन से आँखे चुराता था, नहीं तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनो चाहते थे कि यह आस्तीन का साँप आँखो से दूर हो जाय, लेकिन संकोच वश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।

सुमन पर यह रहस्य शनैं• शनै• खुलता जाता था।

एक बार जीतन कहार शर्मा जी के यहाँ से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अबकी जीतन की निगाह उस पर पड़ गई। सदन के स्वभाव में भी अब कायापलट हो गया है। वह प्रेम का आनन्द भोग करने में तन्मय हो रहा है। वह अब दिन चढ़े उठता है, घण्टो नहाता है, बाल सँवारता है, कपडे बदलता है, सुगन्ध मलता है। नौ बजेसे पहले वह अपनी बैठक में नही आता और आता भी है तो जमकर बैठता नही, उसका मन कही और रहता है। एक-एक पलमें भीतर जाता है और अगर बाहर किसी से बात करनेमें देर हो जाती है, तो उकताने लगता है। शान्ताने उसपर वशीकरण मन्त्र डाल दिया है।

सुमन घरका सारा काम भी करती है और बाहरका भी वह घडी रात रहे उठती है और स्नान-पूजाके बाद सदनके लिए जलपान बनाती है। फिर नदीके किनारे आकर नाव खुलवाती है। नौ बजे भोजन बनाने बैठ जाती है। ग्यारह बजे तक यहाँ से छुट्टी पाकर वह कोई-न-कोई काम करने लगती है। नौ बजे रात को जब सब लोग सोने चले जाते है, तो वह पढ़ने बैठ जाती है, तुलसी की विनय पत्रिका और रामायण से उसे बहुत प्रेम है। कभी भक्तमाल पढ़ती है, कभी विवेकानन्द के व्याख्यान और कभी रामतीर्थ लेख। वह विदुषी स्त्रियों के जीवनचरित्रों को बडे चावसे पढ़ती है। मीरापर उसे असीम श्रद्धा है। वह बहुधा धार्मिक ग्रन्थ ही पढ़ती है। लेकिन ज्ञानकी अपेक्षा भक्तिमे उसे अधिक शांति मिलती है।

मल्लाहों की स्त्रियों में उसका बडा आदर है, वह उनके झगड़े चुकाती है, किसीके बच्चे के लिए कुर्सी टोपी सीती है, किसीके लिए अञ्जन या घुट्टी बनाती है। उनमें कोई बीमार पड़ता है तो उसके घर जाती है और दवा दारूकी फिक्र करती है। वह अपनी गिरी दिवाल को फिरसे उठा रही है। उस बस्ती के सभी नर-नारी उसकी प्रशंसा करते है और उसका यश गाते है। हाँ, अगर आदर नही है तो अपने घर में। सुमन इस तरह जी तोड़कर घरका सारा बोझ संभाले हुए है,लेकिन सदनके मुहसे कृतज्ञता का एक शब्द भी नही निकलता। शान्ता भी उसके इस परिश्रम का कुछ मूल्य नही समझती। दोनों के दोनों उसकी ओर से निश्चिन्त है, मानो वह घर की लड़ी है और चक्की में जुते रहना ही उसका धर्म है। कभी-कभी उसके
सिर में दर्द होने लगता है,कभी दौड़ धूप से बुखार चढ़ आता है, तब भी वह घर का सारा काम रीत्यानुसार करती रहती है। वह कभी-कभी एकान्तमे अपनी इस दीन दशापर घण्टो रोती रहती है, पर कोई ढाढस देनेवाला, कोई आँसू पोंछने वाला नहीं।

सुमन स्वभाव से ही मानिनी, सगर्वा स्त्री थी। वह जहाँ कही रही थी रानी बनकर रही थी। अपने पति के घर वह सब कष्ट झेलकर भी रानी थी। विलास नगर मे वह जबतक रही उसी का सिक्का चलता रहा, आश्रम में वह सेवा-धर्म पालन करके सर्वमान्य बनी हुई थी। इसलिए अब यहाँ इस हीनावस्था मे रहना उसे असहय था। अगर सदन कभी-कभी उसकी प्रशंसा कर दिया करता, कभी उससे सलाह लिया करता, उसे अपने घर की स्वामिनी समझा करता या शान्ता उसके पास बैठकर उसकी हाँ में हाँ मिलाती, उसका मन बहलाती तो सुमन इससे भी अधिक परिश्रम करती और प्रसन्नचित्त रहती। लेकिन उन दोनों प्रेमियों को अपनी तरंग में और कुछ न सूझता था। निशाना मारते समय दृष्टि केवल एक ही वस्तुपरक रहती है। प्रेमासक्त मनुष्य का भी यही हाल होता है।

लेकिन शान्ता और सदन की यह उदासीनता प्रेमलिप्साके ही कारण थी, इसमे सन्देह है। सदन इस प्रकार सुमन से बचता था, जैसे हम कुष्ठ रोगी से बचते है, उस पर दया करते हुए भी उसके समीप जानेकी हिम्मत नही रखते। शान्ता उसपर अविश्वास करती थी, उसके रूपलावण्य से डरती थी। कुशल यही थी कि सदन स्वयं सुमन से आँखे चुराता था, नही तो शान्ता इससे जल ही जाती। अतएव दोनों चाहते थे कि यह आस्तीन का सांप आँखो से दूर हो जाय, लेकिन संकोचवश वह आपस में भी इस विषय को छेड़ने से डरते थे।

सुमनपर यह रहस्य शनैः शनैः खुलता जाता था।

एक बार जीतन कहार शर्माजी के यहाँ से सदन के लिए कुछ सौगात लाया था। इसके पहले भी वह कई बार आया था, लेकिन उसे देखते ही सुमन छिप जाया करती थी। अबकी जीतन की निगाह उसपर पड़ गई।[ २६८ ] फिर क्या था, उसके पेट में चूहे दौड़ने लगे। वह पत्थर खाकर पचा सकता था, पर कोई बात पचाने की शक्ति उसमे न थी। मल्लाहों के चौधरी के पास चिलम पीने के बहाने गया और सारी रामकहानी सुना आया। अरे! यह तो कस्त्रीन है, खसम ने घर से निकाल दिया तो हमारे यहाँ खाना पकाने लगी, वहाँ से निकाली गई तो चीकमे हरजाईपन करने लगी, अब देखता हूँ तो यहाँ विराजमान है। चौधरी सन्नाटे में आ गया, मल्लाहिनों में भी इशारेबाजियाँ होने लगी। उस दिन से कोई मल्लाह सदन के घर का पानी न पीता, उनकी स्त्रियों ने सुमन के पास आना जाना छोड़ दिया। इसी तरह एक बार लाला भगतराम ईटों की लदाई का हिसाब करने आये। प्यार से मालूम हुई तो मल्लाह से पानी लाने को कहा। मल्लाह कुएँ से पानी लाया। सदन के घर में बैठे हुए बाहर से पानी मँगाकर पीना सदन की छाती में छुरी मारने से कम न था।

अन्त में दूसरा साल जाते जाते यहाँ तक नौवत पहुँची कि सदन जरा-जरा सी बात पर सुमन से झुँझला जाता और चाहे कोई लागू बात न कहे, पर उसके मन के भाव झलक ही पड़ते थे।

सुमन को मालूम हो रहा था कि अब मेरा निर्वाह यहाँ न होगा। उसने समझा था कि यही बहन-बहनोई के साथ जीवन समाप्त हो जायगा। उनकी सेवा करुँगी, एक टुकड़ा खाऊँगी और एक कोने में पड़ी रहूँगी। इसके अतिरिक्त जीवन में अब उसे कोई लालसा नहीं थी। लेकिन हा शोक! यह तख्ता भी उसके पैरो के नीचे से सरक गया और अब यह निर्दयी लहरों की गोद में थी।

लेकिन सुमन को अपनी परिस्थिति पर दु:ख चाहे कितना ही हुआ हो, उसे सदन या शान्ता से कोई शिकायत न थी। कुछ तो धार्मिक प्रेम और कुछ अपनी अवस्था के वास्तविक ज्ञान से उसे अत्यन्त नम्र विनीत बना दिया था। वह बहुत सोचती कि कहाँ जाऊँ, जहाँ अपनी जान-पहचान का कोई आदमी न हो लेकिन उसे ऐसा कोई ठिकाना न दिखाई देता। अभी तक उसकी निर्बल आत्मा कोई अवलम्ब चाहती थी। बिना [ २६९ ] किसी सहारे के संसार मे रहने का विचार करके उसका कलेजा काँपने लगता था। वह अकेली असहाय, संसार-संग्राम में आने का साहस न कर सकती थी। जिस संग्राम में बड़े-बड़े कुशल, धर्मशील, दृढ संकल्प मनुष्य मुँह की खाते हैं, वहाँ मेरी क्या गति होगी। कौन मेरी रक्षा करेगा? कौन मुझे सँभालेगा? निरादर होने पर भी यह शंका उसे यहाँ से निकलने न देती थी।

एक दिन सदन दस बजे कही से घूमकर आया और बोला, भोजन में अभी कितनी देर है, जल्दी करो। मुझे पंण्डित उमानाथ से मिलने जाना है। चाचा के यहाँ आये हुए है।

शान्ता ने पूछा, वह यहाँ कैसे आये?

सदन--अब यह मुझे क्या मालूम? अभी जीतन आकर कह गया है कि वह आये हुए है और आज ही चले जायेंगे। यहाँ आना चाहते थे, लेकिन (सुमन की ओर इशारा करके) किसी कारण से नहीं आए।

शान्ता--तो जरा बैठ जाओ, यहाँ अभी घण्टों की देर है।

सुमन ने झुँझलाकर कहा, देर क्या है, सब कुछ तो तैयार है। आसन बिछा दो, पानी रख दो, मैं थाली परसती हूँ।

शान्ता--अरे, तो जरा ठहर ही जायेंगे तो क्या होगा? कोई डाक गाड़ी छूटी जाती है? कच्चा-पक्का खाने का क्या काम?

सदन--मेरी समझ नहीं आता कि दिनभर क्या होता रहता है! जरा-सा भोजन बनाने में इतनी देर हो जाती है।

सदन जब भोजन करके चला गया, तब सुमन ने शान्ता से पूछा, क्यों शान्ता, सच बता, तुझे मेरा यहाँ रहना अच्छा नहीं लगता? तेरे मन में जो कुछ हैं वह मैं जानती हूँ, लेकिन तू जब तक अपने मुँह से मुझे दुत्कार न देगी, मैं जाने का नाम न लूँगी। मेरे लिए कही ठिकाना नहीं है।

शान्ता--बहन, कैसी बात कहती हो, तुम रहती हो तो घर संभला हुआ है, नहीं तो मेरे किए क्या होता?

सुमन--यह मुँह देखी बात मत करो, मैं ऐसी नादान नही हूँ। मैं तुम दोनों आदमियों को अपनी ओर से कुछ खिंचा हुआ पाती हूँ। [ २७० ] शान्ता-तुम देखती हो, तुम्हारी आँखो की क्या बात है, वह तो मन तक की बात देख लेती है।

सुमन-आँखे सीधी करके बोली, क्या जो कुछ मैं कहती हूँ, झूठ है?

शान्ता—जब तुम जानती हो तो पूछती क्यों हो?

सुमन-इसलिए कि सब कुछ देख कर आँखो पर विश्वास नहीं आता। संसार मुझे चाहे कितना ही नीच समझे, मुझे उससे कोई शिकायत नहीं है, वह मेरे मन का हाल नहीं जानता, लेकिन तुम सब कुछ देखते हुए भी मुझे नीच समझती हो, इसका आश्चर्य है। मैं तुम्हारे साथ लगभग दो वर्ष से हूँ, इतने दिनों में तुम्हें मेरे चरित्र का परिचय अच्छी तरह हो गया होगा।

शान्ता-नहीं बहन, मैं परमात्मा से कहती हूँ, यह बात नही हैं। हमारे ऊपर इतना बड़ा कलंक मत लगाओ। तुमने मेरे साथ जो उपकार किये है, वह मैं कभी न भूलूँगी। लेकिन बात यह है कि उनकी बदनामी हो रही है। लोग मनमानी बातें उड़ाया करते है। वह (सदनसिंह) कहते थे कि सुभद्रा जी यहाँ आने को तैयार थी, लेकिन तुम्हारे रहने की बात सुनकर नहीं आई और बहन बुरा न मानना, जब संसार में यही प्रथा चल रही है तो हम लोग क्या कर सकते है।

सुमन ने विवाद न किया। उसे आज्ञा मिल गई। अब केवल एक रुकावट थी। शान्ता थोड़े ही दिनों में बच्चे की माँ बनने वाली थी। सुमन ने अपने मन को समझाया; इस समय छोड़कर चली जाऊँगी तो इसे कष्ट होगा। कुछ दिन और सह लूँ, जहाँ इतने दिन काटे हैं, महीने दो महीने और सही। मेरे ही कारण यह इस विपत्ति में फँसे हुए है। ऐसी अवस्था में इन्हें छोड़कर जाना मेरा धर्म नहीं है।

सुमन का यहाँ एक-एक दिन एक-एक साल की तरह कटता था, लेकिन सब्र किये पड़ी हुई थी।

पापहीन पक्षी पिंजरबद्ध रहने में ही अपना कुशल समझता है।

५२

पंडित पद्मसिंह के चार-पांच मास के सदुपयोग का यह फल हुआ [ २७१ ] कि २०-२५ वेश्याओं ने अपनी लड़कियों को अनाथालय में भेजना स्वीकार कर लिया। तीन वेश्याओं ने अपनी सारी सम्पत्ति अनाथालय के निमित्त अर्पण कर दो, पाँच वेश्याएँ निकाह करने पर राजी हो गई। सच्ची हिताकांक्षा कभी निष्फल नहीं होती। अगर समाज को विश्वास हो जाय कि आप उसके सच्चे सेवक हैं, आप उनका उद्धार करना चाहने है, आप निःस्वार्थ है तो वह आपके पीछे चलने को तैयार हो जाता है। लेकिन यह विश्वास सच्चे सेवाभावके बिना कभी प्राप्त नहीं होता। जब तक अन्त करण दिव्य और उज्ज्वल न हो, वह प्रकाश का प्रतिबिम्ब दूसरी पर नहीं डाल सकता। पद्मसिंह में सेवाभाव का उदय हो गया था। हममें कितने ही ऐसे सज्जन है जिनके मस्तिष्क से राष्ट्र की कोई सेवा करने का विचार उत्पन्न होता है, लेकिन बहुधा वह विचार ख्याति लाभ की आकाक्षा से प्रेरित होता है। हम वह काम करना चाहते हैं जिसमे हमारा नाम प्राणिमात्र की जिव्हा पर हो, कोई ऐसा लेख अथवा ग्रन्थ लिखना चाहते है, जिसकी लोग मुक्त कण्ठ से प्रशसा करे, और प्रायः हमारे इस स्वार्थ प्रेम का कुछ न कुछ बदला भी हमको मिल जाता है, लेकिन जनता के हृदय में हम घर नहीं कर सकते। कोई मनुष्य चाहे वह कितने ही दुःख में हो, उस व्यक्ति के सामने अपना शोक प्रकट नहीं करना चाहता जिसे वह अपना सच्चा मित्र न समझता हो।

पद्मसिंह को अब दालमण्डी में जाने को बहुत अवसर मिलता था और वह वेश्याओं के जीवनका जितना ही अनुभव करते थे उतना ही उन्हें दु:ख होता था। ऐसी-ऐसी सुकोमल रमणियों को भोगविलास के लिए अपना सर्वस्व गँवाते देखकर उनका हृदय करुणा से विव्हल हो जाता था, उनकी आँखो से आँसू निकल पड़ते थे। उन्हें अवगत हो रहा था कि यह स्त्रियाँ विचारशून्य नहीं, भावशून्य नहीं, बुद्धिहीन नहीं, लेकिन मायाके हाथों- में पड़कर उनकी सारी सद्वृतियाँ उल्टे मार्गपर जा रही है, तृष्णाने उनकी आत्माओं को निर्बल, निश्चेष्ट बना दिया है। पद्मसिंह इस माया-जाल को तोड़ना चाहते थे, वह उन भूली हुई आत्माओं को सचेत किया [ २७२ ] चाहते थे, वह उनको इस अज्ञानावस्था से मुक्त किया चाहते थे, पर माया जाल इतना दृढ़ था और अज्ञानबन्धन इतना पुष्ट तथा निद्रा इतनी गहरी थी कि पहले छः महीनो में उससे अधिक सफलता न हो सकी, जिसका ऊपर वर्णन किया जा चुका है। शराब के नशे में मनुष्य की जो दशा हो जाती है वही दशा इन वेश्याओं की हो गयी थी।

उधर प्रभाकरराव और उनके मित्रों ने उस प्रस्ताव के शेष भागों के फिर बोर्ड में उपस्थित किया। उन्होंने केवल पद्मसिंह से द्वेष हो जाने के कारण उन मन्तव्यों का विरोध किया था, पर अब पद्मसिंह का वेश्यानुराग देखकर वह उन्हीं के बनाये हुए हथियारों से उनपर आघात कर बैठे। पझसिंह उस दिन बोर्ड नहीं गये, डाक्टर श्यामाचरण नैनीताल गये हुए थे, अतएव ने दोनों मन्तव्य निर्विघ्न पास हो गये।

बोर्ड की ओर से अलईपुर के निकट वेश्याओं के लिये मकान बनाये जा रहे थे। लाला भगतराम दत्तचित्त होकर काम कर रहे थे। कुछ कच्चे घर थे, कुछ पक्के, कुछ दुमजल, एक छोटा-सा बाजार, एक छोटा-सा औपवालय और एक पाठशाला भी बनाई जा रही थी। हाजी हाविम ने एक मसजिद बनवानी आरभ की थी और सेठ चिम्मनलाल की ओर से एक मन्दिर बन रहा था। दीनानाथ तिवारी ने एक बाग की नीबडाल दी थी। आशा तो थी कि नियत समय के अन्दर भगतराम काम समाप्त कर देगें, मिस्टर दत्त और पंडित प्रभाकरराव तथा मिस्टर शाकिर बेग उन्हें चैन न लेने देते थे। लेकिन काम बहुत था, और बहुत जल्दी करने पर भी एक साल लग गया। बस इसी की देर थी। दूसरे ही दिन वेश्याओं को दालमण्डी छोड़कर इन नये मकानो में आबाद होने का नोटिस दे दिया गया।

लोगों को शंका थी कि वेश्याओं की ओर से इसका विरोध होगा पर उन्हें यह देखकर आमोदपूर्ण आश्चर्य हुआ कि वेश्याओं ने प्रसन्नतापूर्वक इस आज्ञा का पालन किया। सारी दालमण्डी एक दिन में खाली हो गई। जहाँ निशिबासर एक श्री-सी बरसती थी वहाँ सन्ध्या होते सन्नाटा छा गया? [ २७३ ] महबूब जान एक धनसम्पन्न वेश्या थी। उसने अपना सर्वस्व अनाथालय के लिये दान कर दिया था। सन्ध्या समय सब वेश्याएँ उसके मकान पर एकत्रित हुई, वहाँ एक महती सभा हुई। शाहजादी ने कहा, बहनों, आज हमारी जिंदगी का एक नया दौर शुरू होता है। खुदाताला हमारे इरादे में बरकत दे और हमे नेक रास्ते पर ले जाय। हमने बहुत दिन बे-शर्मी और जिल्लतकी जिन्दगी बसर की, बहुत दिन शैतान की कद में रही। बहुत दिनों तक अपनी रूह (आत्मा) और ईमान का खून किया और बहुत दिनों तक मस्ती और ऐश परस्ती में भूली रही। इस दालमण्डी की जमीन हमारे गुनाहो से सियाह हो रही है। आज खुदाबंद करीम ने हमारी हालत पर रहम करके कदगुनाहसे निजात् (मुक्ति) दी है, इसके लिये हमे उसका शुक्र करना चाहिये। इसमें शक नहीं, कि हमारी कुछ बहनों को यहाँ से जलावतन होने का कलंक होता होगा, और इसमें भी शक नहीं है कि उन्हें आनेवाले दिन तारीक नजर आते होंगे। उन बहनो से मेरा यही इल्तमास है कि खुदाने रिज्क (जीविका) का दरवाजा किसी पर बन्द नहीं किया है। आपके पास वह हुनर है कि उसके कदरदाँ हमेशा रहेगें। लेकिन अगर हमको आइन्दा तकलीफें भी हों तो हमको साबिर व शाकिर (शान्त) रहना चाहिये। हमे आइन्दा जितनी ही तकलीफें होगी उतना ही हमारे गुनाहों का बोझ हलका होगा। मैं फिर खुदा से दुआ करती हूँ कि वह हमारे दिलों को अपनी रौशनी से रौशन करे और हमें राहे नेक पर लाने की तौफीक (सामर्थ) दे।

रामभोली बाई बोली, हमे पंण्डित पद्मसिंह शर्मा को हृदय से धन्यबाद देना चाहिये, जिन्होंने हमको धर्म मार्ग दिखाया है। उन्हे परमात्मा सद सुखी रखे।

जहराजान बोलो, मैं अपनी बहनों से यही कहना चाहती हूँ कि वह आइन्दा से हलाल हराम का ख्याल रखें। गाना बजाना हमारे लिये हलाल है। इसी हुनर में कमाल हासिल करो। बदकार रईसों की शुरूवत (कासातुरता) का खिलौना बनना छोड़ना चाहिये। बहुत दिनों तक [ २७४ ] की इच्छा न होती थी। अकस्मात् कुत्तों के भूँकने से किसी नये आदमी के गाँव आने की सूचना दी। मदनसिंह की छाती धड़कने लगी। कही सदन तो नहीं आ रहा है। किताब बन्द करके उठे तो पद्मसिंह को आते देखा। पद्मसिंहने उनके चरण छूए फिर दोनो भाइयों में बातचीत होने लगी ।

मदन-—सब कुशल हैं?

पद्म-—जी हाँ, ईश्वर की दया है।

मदन-भला उस बेईमान की भी कुछ खोज-खबर मिली है?

पद्म-—जी हाँ, अच्छी तरह है। दसवें-पाँचवें मेरे यहाँ आया करता है। में कभी-कभी हाल-चाल पुछवा लेता हूँ। कोई चिन्ता की बात नहीं है।

मदन-—भला वह पापी कभी हम लोगों की भी चर्चा करता है या बिल्कुल मरा समझ लिया? क्या यहाँ आने की कसम खा ली है। क्या हमलोग मर जायँगे तभी आवेगा? अगर उसकी यही इच्छा है तो हम लोग कहीं चले जायें। अपना घर द्वार ले अपना घर संभाले। सुनता हूँ, वहाँ मकान बनवा रहा है। वह तो वहाँ रहेगा और यहाँ कौन रहेगा। यह मकान जिसके लिये छोड़े देता है।

पद्म-—जी नहीं, मकान वकान कहीं नहीं बनवाता, यह आपसे किसी ने झूठ कह दिया। हाँ, चूने की कल खड़ी कर ली है और यह भी मालूम हुआ है कि नदी पार थोड़ी सी जमीन भी लेना चाहता है।

मदन--तो उमसे कह देना, पहले आकर इस घर में आग लगा जाय तब वहाँ जगह जमीन ले।

पद्म--यह आप क्या कहते हैं, वह केवल आप लोगों की अप्रसन्नता के भय से नहीं आता। आज उसे मालूम हो जाय कि आपने उसे क्षमा कर दिया तो सिर के बल दौड़ा आवे। मेरे पास आता है तो घण्टों आप ही की बातें करता रहता है। आपकी इच्छा हो तो कल ही चला आवे।

मदन--नहीं, मैं उसे बुलाता नहीं। हम उसके कोन होते है जो यहाँ आयेगा। लेकिन यहाँ आवे तो कह देना जरा पीठ मजबूत कर रखें। उसे देखते ही मेरे सिरपर शैतान सवार हो जायगा और मैं ठण्डा [ २७५ ] लेकर पिल पडूँगा। मूर्ख मुझसे रूठने चला है। तब नहीं रूठा था जब पूजा के समय पोयी पर राल टपक़ाता था। खाने की थाली के पास पेशाब करता था। उसके मारे कपड़े साफ न रहने पाते थे उजले कपड़ों को तरस के रह जाता था। मुझे साफ कपड़े पहने देखता तो बदन में धूल मिट्टी लपेटे आकर सिरपर सवार हो जाता! तब क्यों नहीं रूठा था। आज रूठने चला है। अबकी पाऊँ तो ऐसी कनेठी दूँ की छठी का दूध याद आ जायगा।

दोनों भाई घर गये। भामा बैठी गाय को भूसा खिला रही थी और सदन की दोनों बहने खाना पकाती थी। भामा देवर को देखते ही खड़ी हो गई और बोली, भला तुम्हारे दर्शन तो हुए। चार पगपर रहते हो और इतना भी नहीं होता कि महिने में एक बार तो जाकर देख आवे--घरवाले मरे कि जीते है। कहो, कुशल से तो रहे?

पद्म--हाँ, सब तुम्हारा आशीर्वाद है। कहो, खाना क्या बन रहा हैं? मुझे इस वक्त खीर, हलुवा और मलाई खिलाओ तो वह सुख संवाद सुनाऊँ कि फड़क जाओ। पोता मुबारक हो।

भामा के मलिन मुखपर आनन्द की लालिमा छा गई और आँखो की पुतलियाँ पुष्प के समान खिल उठी। बोली, चलो, घी-शक्कर के मटके में डूबा दूँ, जितना खाते बने खाओ।

मदनसिंह ने मुँह बनाकर कहा, यह तो तुमने बुरी खबर सुनाई। क्या ईश्वर के दरबार में उल्टा न्याय होता है? मेरा बेटा छिन जाय और उसे बेटा मिल जाय। अब वह एक से दो हो गया, मैं उससे कैसे जीत सकूँगा। हारना पड़ा। वह मुझे अवश्य खींच ले जाएगा। मेरे तो कदम अभी से उखड़ गये। सचमुच ईश्वर के यहाँ बुराई करनेपर भलाई होती है। उल्टी बात है कि नहीं। लेकिन अब मुझे चिन्ता नहीं है। सदन जहाँ चाहे जाय, ईश्वर ने हमारी सुन ली। कै दिन का हुआ है?

पद्म--आज चौथा दिन है, मुझे छुट्टी नहीं मिली नहीं तो पहले ही दिन आता। [ २७६ ]मदन--क्या हुआ छठी तक पहुँच जायग, घूमधाम से छठी मनायेगे। बस कल चलो।

भामा फूली न समाती थी। हृदय पुलकित हो रहा था। जी चाहता था कि किसे क्या दे दूँ? क्या लुटा दूँ? जी चाहता था घर में सोहर उठे, दरवाजे पर शहनाई बजे, पडोसिने बुलाई जायँ। गाने बजाने की मंगल ध्वनि से गाँव गूँज उठे। उसे ऐसा ज्ञात हो रहा था, मानो आज संसार में कोई असाधारण बात हो गई है, मानो सारा संसार सन्तानहीन है और एक में ही पुत्र पौत्रवती हूँ।

एक मजदूर ने आकर कहा, भीजी एक साधु द्वारपर आये है। भामा ने तुरन्त इतनी जिन्स भेज दी जो चार साधुओं के खाने से भी न चुकती।

ज्यों ही लोग भोजन कर चुके, भामा अपनी दोनों लड़कियों के साथ मोल लेकर बैठ गई और आधी राततक गाती रही।

५५

जिस प्रकार कोई मनुष्य लोभ के वश होकर आभूषण चुरा लेता है, पर विवेक होनेपर उसे देखने में भी उसे लज्जा आती है, उसी प्रकार सदन भी सुमन से बचता फिरता था। इतना ही नहीं, वह उसे नीची दृष्टि से देखता था और उसकी उपेक्षा करता था। दिन भर काम करने के बाद सया को उसे अपना यह व्यवसाय बहुत अखरता, विशेष करके चूने के काम में उसे बड़ा परिश्रम करना पड़ता था। वह सोचता, इसी सुमन के कारण से यो घर से निकाला गया हैं। इसी ने मुझे यह वनवास दे रखा है। कैसे आराम से घरपर रहता था। न कोई चिन्ता थी ने कोई झंझट चैन से खाता था और मौज करता था। इसी ने मेरे सिर यह मुसीबत ढा दी। प्रेम की पहली उमंग में उसने उसका बनाया हुआ भोजन सा लिया था, पर अब उसे बड़ा पछतावा होता था। वह चाहता था कि किसी प्रकार इससे गला छूट जाय। यह वही सदन है जो सुमन पर जान देता था, उसकी [ २७७ ]मुस्कानपर, मधुर बातोपर, कृपाकटाक्षपर अपना जीवनतक न्यौछावर करनेको तैयार था। पर सुमन आज उसकी दृष्टिमे इतनी गिर गयी है। वह स्वयं अनुभव करके भी भूल जाता था कि मानव प्रकृति कितनी चंचल है।

सदनने इधर वर्षों से लिखना-पढना छोड़ दिया था और जबसे चूनेकी कल ली, तो वह दैनिक पत्र भी पढनेका अवकाश न पाता था। अब वह सझता था कि यह उन लोगोका काम है, जिन्हें कोई काम नही है, जो सारे दिन पड़े मक्खियाँ मारा करते है । लेकिन उसे बालोंको सँवारने हारमोनियम बजानेके लिये न मालूम कैसे अवकाश मिल जाता था।

कभी-कभी पिछली बातोका स्मरण करके वह मनसे कहता है, मै उस समय कैसा मुर्ख था,इसी सुमनके पीछे लट्टू हो रहा था? वह अब अपने चरित्रपर घण्मड करता था। नदी के तटपर वह नित्य स्त्रियों को देखा करता था, पर कभी उसके मनमे कुभाव न पैदा होते थे। सदन इसे अपना चरित्रबल समझता था।

लेकिन जब गांभणी शान्ताके प्रसूतका समय निकट आया,और वह बहुधा अपने कमरे में बन्द, मलीन, शिथिल पड़ी रहने लगी तो, सदन को मालूम हुआ कि मैं बहुत धोखे में था। जिसे मै चरित्रबल समझता था। वह वास्तवमे मेरे तृष्णाओं के सन्तुष्ट होने का फलमात्र था। अब वह कामपर से लौटता तो शान्ता मधुर मुस्कान के साथ उसका स्वागत न करती, वह अपनी चारपाई पर पडी रहती। कभी उसके सिर में दर्द होता, कभी शरीर में,कभी ताप चढ़ आता, कभी मतली होने लगती, उसका मुखचन्द्र कान्तिहीन हो गया था, मालूम होता था शरीर में रक्त ही नही है। सदन को उसकी यह दशा देखकर दुःख होता, वह घण्टों उसके पास बैठ कर उसका दिल बहलाता रहता, लेकिन उसके चेहरे से मालूम होता था कि उसे वहाँ बैठना अखर रहा है। वह किसी-न-किसी ‌बहाने से जल्द ही उठ जाता। उसकी विलासतृष्णाने मन को फिर चंचल करना शुरू किया, कुवासनाएँ उठने लगी। वह युवती मल्लाहिनों से हँसी करता,
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थी । स्वयं इस कल्पित बारातका दूल्हा बना हुआ सदन यहाँ से जाति सेवाका संकल्प करके उठा और नीचे उतर आया। वह अपने विचारों में ऐसा लीन हो रहा था कि किसी से कुछ न बोला। थोड़े ही दूर चला था कि उसे सुन्दर वाईके भवनके सामने बहुत से मनुष्य दिखाई दिये। उसने एक आदमी में पूछा, यह कैसा जमघट है? मालूम हुआ कि आज कुंवर अनिरुद्धसिंह यहाँ एक "कृषि सहायक सभा" खोलनेवाले है। सभा का उद्देश्य होगा, किसानों को जमीदारों के अत्याचार से बचाना। सदनके मन में अभी-अभी कृषकों के प्रति जो सहानुभूति प्रकट हुई थी वह मन्द पड़ गई। वह जमीदार था और कृषकों पर दया करना चाहता था, पर उसे मंजूर न था कि कोई उसे दवायें और किसानों को भड़काकर जमींदारो के विरुद्ध खड़ा कर दे। उसने मन से कहा, यह लोग जमींदारो सत्वों को मिटाना चाहते है। देवभाव से हो प्रेरित होकर इन लोगो ने यह संस्था खोलने का विचार किया है, तो हम लोगोंको भी सतर्क हो जाना चाहिये,हमको अपनी रक्षा करनी चाहिये। मानव प्रकृति को दबाव से कितनी घृणा है। सदनने यहांँ ठहरना व्यर्थ समझा। नौ बज गये थे। वह घरको लौटा।

५६

संध्याका समय है। आकाशपर लालिमा छाई हुई है और मन्द-वायु गंगाकी लहरोंपर क्रीड़ा कर रही है,उन्हें गुदगुदा रही है। वह अपने करुण नेंत्रोसे मुस्कराती है और कभी-कभी खिलखिलाकर हंँस पड़ती है,तब उसके मोती के दाँत चमक उठते है सदनका रमणीय झोपड़ा आज फूलों और लताओं से सजा हुआ है। दरवाजे पर मल्लाहो की भीड़ है। अन्दर उनकी स्त्रियांँ बैठी सोहर गा रही है। आंँगनमें भट्ठी खुदी हुई है और बड़े-बड़े हण्डे चढ़े हुए है। आज सदनके नवजात छठी है,यह उसीका उत्सव है।

लेकिन सदन बहुत उदास दिखाई देता है। वह सामनेके चबूतरे
[ २७९ ] पर बैठा हुआ गंगा की ओर देख रहा है। उसके हृदय में भी विचार की लहरे उठ रही है। ना! वह लोग न आवेगे। आना होता तो आज छः दिन बीत गये, आ न जाते? यदि मैं जानता कि वे न आवेगे तो मैं चचा से भी यह समाचार न कहता। उन्होंने मुझे मरा हुआ समझ लिया है, वह मुझसे कोई सरोकार नहीं रखना चाहते, मै जीऊँ-या मरूँ, उन्हें परवाह नहीं है। लोग ऐसे अवसर पर अपने शत्रुओं के घर भी जाते, है, प्रेम से न आते, दिखावे के ही लिये आते, व्यवहार के तौर-पर आते, मुझे मालूम तो हो जाता कि संसार में मेरा कोई है। अच्छा न आवे, इस काम से छुट्टी मिली तो एक बार मैं स्वयं जाऊँगा और सदा के लिये निपटारा कर आऊँगा। लड़का कितना सुन्दर है, कैसे लाल-लाल ओठ है, बिल्कुल मुझी को पड़ा है, हाँ, आँखे शान्ता की है। मेरी ओर कैसे ध्यान से युक-टुक ताकता था। दादा को तो मैं नहीं कहता, लेकिन अम्मा उसे देखे तो एक बार गोद में अवश्य ही ले ले। एकाएक सदन के मन में यह विचार हुआ, अगर मैं मर जाऊँ तो क्या हो? इस बालक का पालन कौन करेगा? कोई नहीं, नहीं, मैं मर जाऊँ तो दादा को अवश्य उसपर दया आवेगी। वह उतने निर्दय नहीं हो सकते। जरा देखें, सेविंग बैंक में मेरे कितने रुपये है। अभी एक हजार भी पूरे नहीं। ज्यादा नहीं, अगर ५०) महीना भी जमा करता जाऊँ तो सालभर में ६००J हो जायेगे। ज्योंही दो हजार पूरे हो जायेगें घर बनवाना शुरू कर दूँगा। दो कमरे सामने, पाँच कमरे भीतर, दरवाजे पर मेहराबदार सायवान पटावके ऊपर दो कमरे हों तो मकान अच्छा हो। कुरसी ऊँची रहने से घर की शोभा बढ़ जाती है। मैं कम-से कम पाँच फटकी कुरसी दूँगा।

सदन इन्हीं कल्पनाओं का आनन्द ले रहा था। चारों ओर अन्धेरा छाने लगा था कि इतने में उसने सड़क की ओर से एक गाड़ी आती देखी। उसकी दोनों लालटेने बिल्ली की आँखी की तरह चमक रही थीं। कौन आ रहा है?, चाचा साहब के सिवा और कौन होगा? मेरा और है ही कौन? इतने में गाड़ी निकट आ गई और उसमें से मदनसिंह उतरे। [ २८० ] इस गाड़ी के पीछे एक और गाड़ी थी। सुभद्रा और भामा उसमें उतरी। सदन को दोनों बहने भी थीं। जीतन कोचबक्स पर से उतरकर लालटेन दिखाने लगा। सदन इतने आदमियों को उतरते देखकर समझ गया कि घर के लोग आ गये पर वह उनसे मिलने के लिये नहीं दौड़ा। वह समय बीत चुका था जब वह उन्हें मनाने जाता। अब उसके मान करने का समय आ गया था। वह चबूतरे पर से उठकर झोपड़े में चला गया, मानों उसने किसी को देखा ही नहीं। उसने उनमें कहा, ये लोग समझते होगे कि इनके बिना में बेहाल हुआ जाता हूँ, पर उन्हे जैसे मेरी परवाह नहीं, उसी प्रकार में भी इनकी परवाह नहीं करता।

सदन झोपड़े में जाकर ताक रहा था कि देखें यह लोग क्या करते है। इतने में उसने जीतन को दरवाजे पर आकर पुकारते हुए देखा। कई मललह इधर-उधर से दौड़े। सदन बाहर निकल आया और दूर से ही अपनी माता को प्रणाम करके एक किनारे खड़ा हो गया।

मदनसिंह बोले, तुम तो इस तरह खड़े हो मानों हमें पहचानते ही नहीं। मेरे न सहीं, पर माता के चरण छूकर आशीर्वाद तो ले लो।

सदन-मेरे छू लेने से आपका धर्म बिगड़ जायेगा।

मदनसिंह ने भाई की ओर देखकर कहा देखते हो इसकी बात। मैं तो तुमसे कहता था कि लोगों को भूल गया होगा, लेकिन तुम खींच लाये। अपने माता पिता को द्वारपर खड़े देखकर भी इसे दया नहीं आती।

भामा ने आगे बढ़कर कहा, बेटा सदन! दादा के चरण छुओ, तुम बुद्धिमान होकर ऐसी बातें करते हो!

सदन अधिक मान न कर सका। आँखों में आँसू भरे पिता के चरणों पर गिर पड़ा। मदनसिंह भी रोने लगे।

इसके बाद वह माता चरणों पर गिरा। भामा ने उठा कर छाती से लगा लिया और आशीर्वाद दिया।

प्रेम, भक्ति और क्षमा कैसा मनोहर, कैसा दिव्य, कैसा आानन्दमय दृश्य है माता पिता का हृदय प्रेम से पुलकित हो रहा है और पुत्र के [ २८१ ] हृदय सागर में भक्ति की तरंगे उठ रही है। इसी प्रेम और भक्ति की निर्मल ज्योति से हदय को अँधेरी कोठरियाँ प्रकाश पूर्ण हो गई है। मिथ्या भिमान और लोकलज्जा या भयरूपी कीट पतंग वहाँ से निकल गये है। अब वहाँ न्याय, प्रेम और सव्यवहार का निवास है।

आनन्द के मारे सदन के पैर जमीन पर नहीं पड़ते। वह अब मल्लाहों को कोई-न-कोई काम करने का हुक्म देकर दिखा रहा है कि मेरा यहाँ कितना रोब है। कोई चारपाई निकालने जाता है, कोई बाजार दौड़ा जाता है। मदनसिंह फूले नहीं समाते और अपने भाई के कानों मे कहते हैं, सदन तो बड़ा चतुर निकला। मैं तो समझता था, किसी तरह पड़ा दिन काट रहा होगा, पर यहाँ तो बड़ा ठाठ है।

इधर भामा और सुभद्रा भीतर गईं। भामा चारो ओर चकित होकर देखती थी। कैसी सफाई है! सब चीजे ठिकाने से रखी हुई है। इसकी बहन गुणवान मालूम होती है।

वह सौरीगृह में गई तो शान्ता ने अपनी दोनों सासो के चरण स्पर्श किये। भामाने बालक को गोद में ले लिया। उसे ऐसा मालूम हुआ मानों वह कृष्ण का ही अवतार है। उसकी आँखों से आनन्द के आँसू बहने लगे।

थोड़ी देर में उसने मदनसिंह से आकर कहा, और जो कुछ हो पर तुमने बहू बड़ी रूपवती पाई है। गुलाब का फूल है और बालक तो साक्षात भगवान का अवतार ही है।

मदन--ऐसी तेजस्वी न होता तो मदनसिंह को खीच कैसे लाता?

भामा--बहू बड़ी सुशील मालूम होती है।

सदन-—तभी तो उसके पीछे माँ बाप को त्याग दिया था।

सब लोग अपनी अपनी धुन मे मगन थे, पर किसी को सुधि न थी कि अभागिनी सुमन कहाँ है।

सुमन गंगा तटपर सन्ध्या करने गई थी। जब वह लौटी तो उसे झोपड़े के द्बार पर गाड़ियाँ खड़ी दिखाई दी। दरवाजे पर कई आदमी बैठे थे। पद्मसिंह को पहचाना समझ गई कि सदन के माता-पिता आ [ २८२ ] गये। वह आगे न बढ़ सकी। उसके पैरो में बेड़ी-सी पड़ गई। उसे मालूम हो गया कि अब यहाँ मेरे लिये स्थान नहीं, है, अब यहाँ से मेरा नाता टूटता है। वह मूर्तिवत खड़ी सोचने लगी कि कहाँ जाऊँँ?

इधर एक मास से शान्ता और सुमन में बहुत मनमुटाव हो गया था। वही शान्ता तो विधवा आश्रम में दया और शान्ति की मूर्ति बनी हुई थी, अब सुमन को जलाने और रुलाने पर तत्पर रहती थी। उम्मेदवारी के दिनो में हम जितने विनयशील और कर्तव्यपरायण होते है, उतने ही अगरजगह पाने पर बने रहे तो हम देवतुल्य हो जायँ। उस समय शान्ता को सहानुभूति की जरूरत थी, प्रेम की आकांक्षा ने उसके चित्त को उदार, कोमल, नम्र बना दिया था, पर अब अपना प्रेमरत्न पाकर किसी दरिद्र से घनी हो जाने वाले मनुष्य की भाँति उसका हृदय कठोर हो गया था। उसे यह भय खाये जाता था कि सदन कही सुमन के जाल में न फँस जाय। सुमन के पूजा पाठ, श्रद्धा-भक्ति का उसकी दृष्टि में कुछ भी मूल्य न था। वह इसे पाखण्ड समझती थी। सुमन सिर में तेल मलने या साफ कपड़ा पहनने के लिये तरस जाती थी, शान्ता इसे समझती थी। वह सुमन के आचार व्यवहार की बड़ी तीव्र दृष्टि से देखती रहती थी। सदन से जो कुछ कहना होता सुमन शान्ता से कहती, यहाँ तक कि शान्ता भोजन के समय भी रसोई में किसी न किसी बहाने आ बैठती थी। वह अपने प्रसवकाल से पहले सुमन को किसी भाँति वहाँ से टालना चाहती थी, सौरीगृह हमे बन्द होकर बह सुमन की देख-भाल न कर सकेगी। उसे और सब कष्ट सहना मंजूर था, पर यह दाह न सही जाती थी।

लेकिन सुमन सब कुछ देखते हुए भी न देखती थी, सब कुछ सुनते हुए भी कुछ न सुनती थी। नदी में डूबते हुए मनुष्य के समान वह इस तिनके के सहारे को भी छोड़ न सकती थी। वह अपना जीवन मार्ग स्थिर न कर सकती थी, पर इस समय सदन के माता पिता को यहाँ देखकर उसे यह सहारा छोड़ना पड़ा, इच्छा शक्ति जो कुछ न कर सकती थी वह अवस्था में कर दिखाया। [ २८३ ]वह पाँव दबाती हुई, धीरे-धीरे झोपड़े के पिछवाड़े आई और कान लगाकर सुनने लगी कि देखूँ यह लोग मेरी कुछ चर्चा तो नहीं कर रहे है? आधे घण्टे तक वह इसी प्रकार खड़ी रही। भामा और सुभद्रा इधर-उधर की बात कर रही थी। अन्त मे भामा ने कहा, क्या अब इसकी बहन यहाँ नहीं रहती?

सुभद्रा — रहती क्यों नहीं, वह कही जाने वाली है?

भामा—दिखाई नहीं देती।

सुभद्रा—किसी काम से गई होगी। घर का सारा काम तो वही सभाले हुए है।

भामा—आवे तो कह देना कि कही बाहर लेट रहे। सदन उसी का बनाया खाता होगा।

शान्ता सौरीगृह से बोली, नहीं अभी तक तो मैं ही बनाती रही हूँ, आज कल वह अपने हाथ से बना लेते है।

भामा—तब भी घड़ा बरतन तो वह छूती ही रही होगी। यह घड़ा फेकवा दो, बरतन फिर से धुल जायँगे।

सुभद्रा—बाहर कहाँ सोने की जगह है?

भामा—हो चाहे न हो, लेकिन यहाँँ से उसे सोने न दूँँगी। वैसी स्त्री का क्या विश्वास?

सुभद्रा—नहीं दीदी, वह अब वैसी नहीं है। वह बड़े नेम धरम से रहती है।

भामा—चलो, वह बड़ी ने नेम-धरम से रहने वाली है। सात घाट का पानी पीके आज नेमवाली बनी है। देवता की मूरत टूटकर फिर नहीं जुड़ती। वह अब देवी बन जाय तब भी मैं उसका विश्वास न करूँ।

सुमन इससे ज्यादा न सुन सकी। उसे ऐसा मालूम हुआ मानो किसी ने लोहा लाल करके उसके हृदय में चुभा दिया। उल्टे पाँँव लौटी और उसी अन्धकार में एक ओर चल पड़ी।

अन्धेरा खूब छाया था, रास्ता भी अच्छी तरह न सूझता था, पर [ २८४ ] सुमन गिरती-पड़ती चली जाती थी, मालूम नहीं कहाँ, किधर? वह अपने होश में न थी। लाठी खाकर घबराये हुए कुत्ते के समान वह मूर्छावास्था में लुढ़कती जा रही थी। सँभलना चाहती थी, पर सँभल न सकती थी। यहाँ तक कि उसके पैरों में एक बड़ा-सा काटा चुभ गया। वह पैर पकड़कर बैठ गई। चलने की शक्ति न रही।

उसने बेहोशी के बाद होश में आने वाले मनुष्य के समान इधर-उधर चौंककर देखा। चारों ओर सन्नाटा था, गहरा अन्धकार छाया हुआ था, केवल सियार अपना राग अलाप रहे थे। यहाँ मैं अकेली हूँ, यह सोचकर सुमन के रोए खड़े हो गये। अकेलापन किसे कहते हैं, यह उसे आज मालूम हुआ। लेकिन यह जानते हुए भी कि यहाँ कोई नहीं है। मैं ही अकेली हूँ। उसे अपने चारों ओर नीचे ऊपर नाना प्रकार के जीव आकाश में चलते हुए दिखाई देते थे। यहाँ तक कि उसने घबड़ाकर आँखे बन्द कर लीं। निर्धनता कल्पना को अत्यंत रचनाशील बना देती है।

सुमन सोचने लगी, मैं कैसी अभागिनी हूँ। और तो और अपनी सगी बहन भी अब मेरी सूरत नहीं देखना चाहती। उसे कितना अपनाना चाहा, पर वह अपनी न हुई। मेरे सिर कलंक का टीका लग गया और वह अब धोने से नहीं धुल सकता। मैं उसको या किसी को दोष क्यों दूँ? यह सब मेरे कर्मों का फल है। आह! एड़ी में कैसी पीड़ा हो रही है। यह काँटा कैसे निकलेगा? भीतर उसका एक टुकड़ा टूट गया कैसा टपक रहा है। नहीं, मैं किसीको दोष नहीं दे सकती। बुरे कर्म तो मैंने किये, उनका फल कौन भोगेगा? विलास लालसा ने मेरी यह दुर्गति की। मैं कैसी आन्धि हो गई थी, केवल इन्द्रियों के सुखभोग के लिये अपनी आत्मा का नाश कर बैठी। मुझे कष्ट अवश्य था। मैं गहने को तरसती थी, अच्छे भोजन को तरसती थी, प्रेम को तरसती थी, उस समय मुझे अपना जीवन दुखमय दिखाई देता था, पर वह अवस्था भी तो मेरे पूर्व जन्म के कर्मो का ही फल था और क्या ऐसी स्त्रियाँ नहीं