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सेवासदन/७

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सेवासदन
प्रेमचंद

इलाहाबाद: हंस प्रकाशन, पृष्ठ २३ से – २५ तक

 

सुमन को ससुराल आये डेढ़ साल के लगभग हो चुका था, पर उसे मैके जाने का सौभाग्य न हुआ था। वहीं से चिट्ठयाँ आती थी। सुमन उत्तर में अपनी माँ को समझाया करती, मेरी चिन्ता मत करना, मैं बहुत आनन्द से हूं, पर अब उसके उत्तर अपनी विपत्ति की कथाओ से भरे होते थे। मेरे जीवन के दिन रो-रोकर कट रहे है। मैने आप लोगो का क्या विगाडा़ था कि मुझे इस अन्धे कुएँ में ढकेल दिया। यहाँ न रहने को घर है, न पहिनने को वस्त्र, न खाने को अन्न। पशुओं की भांति रहती हुँ।

उसने अपनी पडोसिनो से मैके का बखान करना छोड़ दिया। कहाँ तो उनसे अपनी पति की सराहना किया करती थी, कहाँ अब उसकी निन्दा करने लगी। मेरा कोई पूछने वाला नही है। घरवालो ने समझ लिया कि मर गई। घर में सब कुछ है, पर मेरे किस काम का? वह समझते होगे, यहाँ में फूलों की सेज पर सो रही हुँ और मेरे ऊपर जो बीत रही है बह में ही जानती हूं।

गजाधरप्रसाद साथ उसका बर्ताव पहले से कही रूखा हो गया। वह उन्ही को अपनी इस दशा का उत्तरदाता समझती थी। वह देर मे सोकर उठती, कई दिन घरों झाडू़ नहीं देती। कभी कभी गजाधर को बिना भोजन किए काम पर जाना पड़ता। उसकी समझ मे न आता कि यह क्या मामला है, यह कायापलट क्यो हो गई है।

सुमन को अपना घर अच्छा न लगता। चित्त हर घडी उचटा रहता। दिन दिनभर पड़ोसिनो के घर बैठी रहती।

एक दिन गजाधर आठ बजे लौटे तो घर का दरवाजा बन्द पाया। अन्धेरा छाया हुआ था। सोचने लगे रात को वह कहाँ गई है? अब यहाँ तक नौबत पहुँच गई? किवाड खटखटाने लगे कि कही पड़ोस मे होगी तो सुनकर चली आवेगी। मन मे निश्चय कर लिया था कि आज उसकी खबर लूँगा। सुमन उस समय भोली बाई के कोठे पर बैठी हुई बातें कर रही थी। भोली ने आज उसे बहुत आग्रह करके बुलाया था। सुमन इनकार कैसे करती? उसने अपने दरवाजे का खटखटाना सुना तो घबराकर उठ खड़ी हुई और भागी हुई अपने घर आई। बातो मे उसे मालूम ही न हुआ कि कितनी रात चली गई। उसने जल्दी से किवाड खोले चटपट दीया जलाया और चूल्हे में आग जलाने लगी। उसका मन अपना अपराध स्वीकार कर रहा था। एकाएक गजाधर ने बुद्ध भाव से कहा तुम इतनी रात तक वहाँ बैठी क्या कर रही थी? क्या लाज शर्म बिलकुल घोलकर पी ली है?

सुमन ने दीन भाव से उत्तर दिया-उसने कई बार बुलाया तो चली गई। कपड़े उतारो अभी खाना तैयार हुआ जाता है। आज तुम ओर दिनो से जल्दी आये हो।

गजाधर—खाना पीछे बनाना, मैं ऐसा भूखा नही हूँ। पहले यह बताओ कि तुम वहाँ मुझसे पूछे बिना गई क्यो? क्या तुमने मुझे बिलकुल मिट्टी का लोदा ही समझ लिया है?

सुमन-—सारे दिन अकेले इस कुप्पी में बैठा भी तो नही रहा जाता।

गजाधर--तो इसलिए अब वेश्याओ से मेलजोल करोगी? तुम्हे अपनी इज्जत आवरू का भी कुछ विचार है? सुमन-—क्यों, भोली के घर जाने में कोई हानि है? उसके घर तो बड़े-बड़े लोग आते है, मेरी क्या गिनती है।

गजाधर—बड़े बड़े भले ही आवे,लेकिन तुम्हारा वहाँ जाना बड़ी लज्जा की बात है। मैं अपनी स्त्री को वेश्या से मेलजोल करते नही देख सकता। तुम क्या जानती हो कि जो बड़े-बड़े लोग उसके घर आते है यह कौन लोग हैं? केवल धन से कोई बड़ा थोड़े ही हो जाता है? धर्म का महत्व कहीं धन से बढ़कर है। तुम उस मौलूद के दिन जमाव देखकर धोखे मे आ गई होगी, पर यह समझ लो कि उनमें से एक भी सज्जन पुरुष नही था। मेरे सेठजी लाख धनी हों पर उन्हे मैं अपनी चौखट न लांघने दूँगा। यह लोग धनके घमण्ड में धर्म की परवाह नही करते। उनके आने से भोली पवित्र नही हो गई है। मैं तुम्हे सचेत कर देता हूँ कि आज से फिर कभी उधर मत जाना, नही तो अच्छा न होगा।

सुमन के मन मे बात आ गई ठीक ही है, मै क्या जानती हूँ कि वह कौन लोग थे। धनी लोग तो वेश्याओ के दास हुआ ही करते है। यह बात रामभोली भी कह रही थी। मुझे बड़ा धोखा हो गया था।

सुमन को इस विचार से बड़ा सन्तोष हुआ। उसे विश्वास हो गया कि वे लोग नीच प्रकृति के विषय-वासनावाले मनुष्य थे। उसे अपनी दशा अब उतनी दुःखदायी न प्रतीत होती थी। उसे भोली से अपने को ऊंचा समझने के लिए एक आधार मिल गया था।