सेवासदन/९

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ २७ ]

दूसरे दिन से सुमन ने चिकके पास खड़ा होना छोड दिया। खोचे वाले आते और पुकार कर चले जाते। ठेले गजल गाते हुए निकल जाते। चिककी आड़ मे अब उन्हें कोई न दिखाई देती थी। भोली ने कई बार बुलाया, लेकिन सुमन ने बहाना कर दिया कि मेरा जी अच्छा नही है। दो-तीन बार वह स्वयं आई पर सुमन उससे खुलकर न मिली।

सुमन को यहाँ आये अब दो साल हो गए थे। उसकी रेशमी साड़ियाँ फट चली थी। रेशमी जाकटे तार-तार हो गई थी। सुमन अब अपनी मंडली की रानी न थी। उसकी बात उतने आदर से न सुनी जाती थी। उसका प्रभुत्व मिटता जाता था। उत्तम वस्त्रविहीन होकर वह अपने उच्चासन से गिर गई थी। इसलिए वह पडोसिनो के घर भी न जाती। पडोसिनो का आना जाना भी कम हो गया था। सारे दिन अपनी कोठरी में पड़ी रहती। कभी कुछ पढ़ती, कभी सोती।

बन्द कोठरी मे पड़े-पड़े उसका स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। सिर में पीडा़ हुआ करती। कभी बुखार आ जाता, कभी दिल मे धड़कन होने लगती। मन्दारिन के लक्षण दिखाई देने लगे। साधारण कामो से भी जी घबराता, शरीर क्षीण हो गया और कमलका-सा वदन मुरझा गया।

गजाधर को चिन्ता होने लगी। कभी-कभी वह सुमन पर झुझलाता और कहता जब देखो पड़ी रहती है। जब तुम्हारे रहने से मुझे इतना भी सुख नही कि ठीक समय पर भोजन मिल जाय तो तुम्हारा रहना न रहना दोनो बराबर है, पर शीघ्र ही उसे सुमन पर दया आ जाती। वह अपनी स्वार्थपरतापर लज्जित होता। [ २८ ] उसे धीरे-धीरे ज्ञान होने लगा कि सुमन के सारे रोग अपवित्र वायु के कारण है। कहा तो उस चिकके पास खडे होने से मना किया करता था, मेलो में जाने और गंगा स्नान करने से रोकता था, कहाँ अब स्वंय चिक उठा देता और सुमन को गंगा स्नान करने के लिए ताकीद करता। उसके आग्रह से सुमन कई दिन लगातार स्नान करने गई और उसे अनुभव हुआ कि मेरा जो कुछ हल्का हो रहा है। फिर तो वह नियमित रूप से नहाने लगी। मुरझाया हुआ पौधा पानी पाकर फिर लहलहाने लगा।

माघ का महीना था। एक दिन सुमन की कई पडोसिनें भी उसके साथ नहाने चली। मार्ग में, वनो-बाग पड़ता था। उसमें नाना प्रकार के जीव-जन्तु पले हुए थे। पक्षियों के लिए लोहे के पतले तारो से एक विशाल गुम्बद बनाया गया था । लोटती बार सबकी सलाह हुई कि बाग की सैर करनी चाहिए। सुमन तत्काल ही लौट आया करती थी, पर आज सहेलियो के आग्रह से उसे भी बाग में जाना पड़ा। सुमन बहुत देर तक वहाँ के अद्भूत जोववारियो को देखतो रही। अन्त को वह थककर एक। बेंच पर बैठ गयी। सहसा उसके कान मे आवाज आई, अरे यह कौन औरत बेंचपर बैठी है? उठ वहाँ से। क्या सरकार ने तेरे ही लिए बेंच रख दी है?

सुमन ने पोछे फिरकर कातर नेत्रो से देखा। बाग का रक्षक खडा डाँट बता रहा था।

सुमन लज्जित होकर बेंच पर से उठ गई और इस अपमान को भुलाने के लिए चिड़ियो को देखने लगी। मन में पछता रही थी कि कहाँ से में इस बेंच पर बैठी। इतने में एक किराये की गाड़ी आकर चिड़ियाघर के सामने रुकी। बाग के रक्षक ने दौड़कर गाडी़ के पट खोले। दो महिलाएँ उतर पड़ी। उनमे से एक वही सुमन की पडो़सिन भोली थी। सुमन एक पेड़ की आढ में छिप गई और वह नो स्त्रियाँ बाग की सैर करने लगी। उन्होने बन्दरो को चने खिलाये चिड़िवो को दाने चुगाये कछुए की पीठपर खडी हुई, फिर सरोवर में मछलियो को देखने चली गयीं। रक्षक उनके पीछे-पीछे सेवकों की भांति चल रहा था। वे सरोवर के किनारे मछलियो को कीडा़ देख रही [ २९ ] थी; तब तक रक्षक ने दौड़कर गुलदस्ते बनाये और उन महिलाओं को भेट किये। थोड़ी देर बाद वह दोनों आकर उसी बेंच पर बैठ गयी, जिस पर से सुमन उठा दी गई थी। रक्षक एक किनारे अदबसे खड़ा था। यह दशा देखकर सुमन की आँखों से क्रोध के मारे चिनगारियाँ निकलने लगी। उसके एक-एक रोमसे पसीना निकल आया। देह तृण के समान काँपने लगी। हृदय मे अग्निकी एक प्रचंड ज्वाला दहक उठी। वह अञ्चल मे मुँह छिपाकर रोने लगी। ज्योंही दोनो वेश्याएँ वहाँ से चली गयी, सुमन सिंहिनी की भांति लपककर रक्षक के सम्मुख आ खड़ी हुई और क्रोध से काँपती हुई बोली, क्यों जी, तुमने मुझे तो बेंचपर से उठा दिया जैसे तुम्हारे बाप ही की है, पर उन दोनों राड़ों से कुछ न बोले?

रक्षक ने अपमानसूचक भाव से कहा, वह और तुम बराबर! आगपर घी जो कुछ करता है वह इस वाक्यने सुमन के हृदय पर किया। ओठ चबाकर बोली, चुप रह मूर्ख! टके के लिए वेश्याओं की जूतियाँ उठाता है, उसपर लज्जा नहीं आती। ले देख तेरे सामने फिर इस बेंचपर बैठती हूँ, देखूँ तू मुझे कैसे उठाता है।

रक्षक पहले तो कुछ डरा, किन्तु सुमन के बेंचपर बैठते ही वह उसकी ओर लपका कि उसका हाथ पकड़ कर उठा दे। सुमन सिंहनी की भाँति आग्नेय नेत्रोंसे ताकती हुई उठ खड़ी हुई। उसकी एड़ियाँ उछली पड़ती थी। सिसकियों के आवेग को बलपूर्वक रोकने के कारण मुँह से शब्द न निकलते थे। उसकी सहेलियाँ जो इस समय चारों ओर से घूमघामकर चिड़ियाघर के पास आ गई थीं, दूर से खड़ी यह तमाशा देख रही थीं। किसी को बोलने की हिम्मत न पड़ती थी।

इतने में फिर एक गाड़ी सामने से आ पहुँची। रक्षक अभी सुमन से हाथापाई कर ही रहा था कि गाड़ी में से एक भलेमानस उतरकर चौकीदार के पास झपटे हुए आए और उसे जोर से धक्का देकर बोले, क्यों बे, इनका हाथ क्यों पकड़ता है? दूर हट। [ ३० ]चोकीदार हकवकाकर पीछे हट गया। चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगी। बोला, सरकार, क्या यह आपके घर की है?

भद्र पुरुष में क्रोध मे कहा, हमारे घर की हो या न हों, तू इनसे हाथा-पाई क्यों कर रहा था? अभी रिपोर्ट कर दुँ तो नौकरी से हाथ धो बैैठगा।

चोकीदार हाथ पैर जोड़ने लगा। इतने मे गाड़ी में बैठी हुई महिला ने सुमन काे इसारे से बुलाया ओर पूछा, यह तुमसे क्या कह रहा था?

सुमन--कुछ नही, मै इस बेंच पर बैठी थी, वह मुझे उठाना चाहता था। अभी दो वेश्याएँ इसी बेंच पर बैठी थी। क्या मै ऐसी गई बीती हूँ कि यह मुझे वेश्याओ से भी नीच समझे?

रमणीने उसे समझाया कि यह छोटे आदमी जिससे चार पैसे पाते है। उसी की गुलामी करते है। इनके मुँह लगना अच्छा नही।

दोनों स्त्रियो मे परिचय हुआ। रमणीका नाम सुभद्रा था। वह भी सुमन के मुहल्ले मे पर उसके मकान से जरा दूर, रहती थी। उसके पति वकील थे। स्त्री-पुरुष गंगास्नान करके घर जा रहे थे। यहाँ पहुँचकर उसके पति ने देखा कि चौकीदार एक भले घर की स्त्री से झगड़ा कर रहा है तो गाड़ी से उतर पड़े।

सुभद्रा सुमन के रंग-रूप, बातचीत पर ऐसी मोहित हुई कि उसे अपनी गाड़ी में बैठा लिया। वकील साहब कौचवक्सपर जा बैठे। गाड़ी चली। सुमन को ऐसा मालूम हो रहा था कि में विमान पर बैठी स्वर्ग को जा रही हूं। सुभद्रा बहुत रूपवती न थी और उसके वस्त्राभूषण भी साधारण ही थे, पर उसका स्वभाव ऐसा नम्र, व्यवहार ऐसा सरल तथा विनयपूर्ण था कि सुमन का हृदय पुलकित हो गया। रास्ते मे उसने अपनी सहेलियो को जाते देखा खिड़की खोलकर उनकी और गर्व से देखा, मानो कह रही थी, तुम्हें भी कभी यह सोभाग्य प्राप्त हो सकता है? पर इस गर्व के साथ ही उसे यह भय भी था कि कही मेरा मकान देख कर सुभद्रा मेरा तिरस्कार न करने लगे। जरूर यही होगा। यह क्या जानती है कि मै ऐसे फटे हालाे [ ३१ ] रहती हूँ। यह कैसी भाग्यवान् स्त्री है! कैसा देवरूप पुरुष है! यह न आ जाते तो वह निर्दयी चौकीदार न जाने मेरी क्या दुर्गति करता। कितनी सज्जनता है कि मुझे भीतर बिठा दिया और आप कोचवान के साथ जा बैठे! वह इन्हीं विचारो में मग्न थी कि उसका घर आ गया। उसने सकुचाते हुए सुभद्रा से कहा, गाड़ी रुकवा दीजिए मेरा घर आ गया।

सुभद्रा ने गाड़ी रुकवा दी। सुमन ने एकबार भोली बाई के मकान की ओर ताका। वह अपने छज्जेपर टहल रही थी। दोनों की आंँखे मिलीं, भोली ने मानो कहा, अच्छा यह ठाठ है। सुमन ने जैसे उत्तर दिया, अच्छी तरह देख लो यह कौन लोग है। तुम मर भी जाओ तो इस देवी के साथ बैठना नसीब न हो।

सुमन उठ खडी हुई और सुभद्रा की ओर सजल नेत्रो से देखती हुई बोली; इतना प्रेम लगाकर बिसरा मत देना। मेरा मन लगा रहेगा।

सुभद्रा ने कहा नही बहिन, अभी तो तुमसे कुछ बात भी न करने पाई। में तुम्हे कल बुलाऊॅगी।

सुमन उतर पड़ी। गाड़ी चली गई। सुमन अपने घर में गई तो उसे ऐसा मालूम हुआ मानो कोई आनन्दमय स्वपन देखकर जागी है।

गजाधर ने पूछा, यह गाडी किसकी थी?

सुमन-यही के कोई वकील है। बेनीबाग मे उनकी स्त्री से भेट हो गई। जिद्द करके गाड़ी पर बैठा लिया। मानती ही न थी|

गजाधर-—तो क्या तुम वकील के साथ बैठी थी?

सुमन-कैसी बातें करते हो? वह बेचारे तो कोचवान के साथ बैठे थे।

गजाधर—तभी इतनी देर हुई।

सुमन—दोनो सज्जनता के अवतार है।

गजाधर—अच्छा, चल के चूल्हा जलाओ, बहुत बखान हो चुका।

सुमन-—तुम वकील साहब को जानते तो होगे?

गजाधर—इस मुहल्ले मे तो वही एक पद्मसिंह वकील है? वही रहे होगे। [ ३२ ] सुमन-गोरे-गोरे लम्बे आदमी है। ऐनक लगाते है।

गजाधर--हाँ, हाँ, वही है, यह क्या पूरव की ओर रहते है ।

सुमन-कोई बड़े वकील है?

गजाघर--मैं उनका जमाखर्च थोडे ही लिखता हूँ। आते-जाते कभी कभी देख लेता हूँ। आदमी अच्छे है।

सुमन ताड़ गई कि वकील साहब की चर्चा गजाघर को अच्छी नहीं मालूम होती। उसने कपड़े बदले और भोजन बनाने लगी।