सेवासदन/१०

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सेवासदन  (1919) 
द्वारा प्रेमचंद

[ ३२ ]

१०

दूसरे दिन सुमन नहाने न गई। सवेरे ही से अपनी एक रेशमी साडी की मरम्मत करने लगी।

दोपहर को सुभद्रा की एक महरी उसे लेने आई। सुमन ने मन में सोचा था, गाड़ी आवेगी। उसका जी छोटा हो गया। वही हुआ जिसका उसे भय था।

वह महरी के साथ सुभद्रा के घर गई और दो-तीन घण्टे तक बैठी रही। उसका वहाँ से उठने को जी न चाहता था। उसने अपने मैके का रत्ती-रत्ती हाल कह सुनाया पर सुभद्रा अपनी ससुराल की ही बाते करती रही।

दोनों स्त्रियों में मेल-मिलाप बढ़ने लगा। सुभद्रा जब गंगा नहाने जाती तो सुमन को साथ ले लेती। सुमन को भी नित्य एक बार सुभद्रा घर गये बिना कल न पडती थी।

जैसे बालू पर तडपती हुई मछली जलधरा में पहुँचकर किलोले करने लगती है, उसी प्रकार सुमन भी सुभद्रा की स्नेहरूपी जलधारा में अपनी विपत्ति को भूलकर आमोद-प्रमोद में मग्न हो गई।

सुभद्रा कोई काम करती होती तो सुमन स्वंय उसे करने लगती। कभी पण्डित पद्मसिंह के लिए जलपान बना देती, कभी पान लगाकर भेज देती। इन कामो में उसे जरा भी आलस्य न होता था। उसकी दृष्टि में [ ३३ ] सुभद्रा-सी सुशील स्त्री और पद्मसिह सरीखे सज्जन मनुष्य संसार में और न थे।

एकबार सुभद्रा को ज्वर आने लगा। सुमन कभी उसके पास से न टलती। अपने घर एक क्षण के लिए जाती और कच्चा-पक्का खान बनाकर फिर भाग आती पर गजाधर उसकी इन बातो से जलता था। उसे सुमन पर विश्वास न था। वह उसे सुभद्रा के यहां जाने से रोकता था, पर सुमन उसका कहना न मानती थी।

फागुन के दिन थे। सुमन को यह चिन्ता हो रही थी कि होली के लिए कपडो का क्या प्रबन्ध करे? गजाधर को इधर एक महीने से सेठजी ने जवाब दे दिया था। उसे अब केवल पन्द्रह रुपयो का ही आधार था। वह एक तजेब की साडी और रेशमी मलमलकी जाकेट के लिए गजाधर से कई बार कह चुकी थी, पर गजाधर हूं-हाँ करके टाल जाता था। वह सोचती यह पुराने कपड़े पहनकर सुभद्रा के घर होली खेलने कैसे जाऊँगी?

इसी बीच सुमन को अपनी माता के स्वर्गवास का शोक समाचार मिला। सुमन को इसका उतना शोक न हुआ जितना होना चाहिए था, क्योकि उसका हृदय अपनी माता की ओर से फट गया था। लेकिन होली के लिए नये और उत्तम वस्त्रों की चिन्ता से निवृत्त हो गई। उसने सुभद्रा से कहा- बहूजी, अब में अनाथ हो गई। अब गहने कपडे की तरफ ताकने को जी नही चाहता। बहुत पहन चुकी। इस दु:ख ने सिंगार-पटार की अभिलाषा ही नही रहने दी। जो अधम है, शरीर से निकलता नही, लेकिन हृदय पर जो कुछ बीत रही है वह मैं ही जानती हूं। अपनी सहचरियो से भी उसने ऐसी ही शोकपूर्ण बाते की। सब की सब उसकी मातृभक्ति की प्रशंसा करने लगी।

एक दिन वह सुभद्रा साथ बैठी हुई रामायण पढ़ रही थी कि पद्मसिंह प्रसन्नचित्त घर में आकर बोले आज वाजी मार ली।

सुभद्रा ने उत्सुक होकर कहा-—सच?

पद्मसिह—अरे क्या अबकी भी सन्देह था? [ ३४ ] सुभद्रा-अच्छा तो लाइये मेरे रुपये दिलवाइये वहाँ आपकी बाजी थी, यहाँ मेरी बाजी है।

पद्म--हॉ,हाँ तुम्हारे रुपये मिलेंगे, जरा सब्र करो। मित्र लोग आग्रह कर रहे है कि धूमधाम से आनन्दोत्सव किया जाय।

सुभद्रा-—हाँ, कुछ न कुछ तो करना ही पड़ेगा और यह उचित भी है।

पद्म-मैने प्रीतिभोज का प्रस्ताव किया, किन्तु इसे कोई स्वीकार नहीं करता। लोग भोली वाई का मुजरा कराने के लिए अनुरोध कर रहे है।

सुभाद्रा-—अच्छा तो उन्ही की मान लो, कौन हजारो का खर्च है। होली भी आ गई है, बस होली ही के दिन रक्खो। एक पन्य दो काज हो जायगा।

पद्म-—खर्च की बात नही, सिद्धान्त की बात है।

सुभद्रा-भला, अबकी बार सिद्धान्त के विरुद्ध ही सही।

पद्म-विट्ठलदास किसी तरह राजी नही होते। पीछे पड़ जायेंगे।

सुभद्रा-उन्हें बकने दो। संसार के सभी आदमी उनकी तरह थोड़े ही हो जायेंगे।

पण्डित पद्मसिंह आज कई वर्षो के विफल उद्योग के बाद म्युनिसिपैलिटी के मेम्बर बनने में सफल हुए थे। इसी के आनन्दोत्सव की तैयारियाँ हो रही थी। वे प्रीतिभोज करना चाहते थे, किन्तु मित्र लोग मुजरे पर जोर देते थे। यद्यपि वे स्वयं बडे आचारवान् मनुष्य थे, तथापि अपने सिद्धान्तों पर स्थिर रहने को सामर्थय उनमे नही थी। कुछ तो मुरोवत से कुछ अपने सरल स्वभाव और कुछ मित्रो की व्यगोविन के भय से, वह अपने पक्षपर अड़ न सकते थे। बाबू विट्ठलदास उनके परम मित्र थे। वह वेश्या नाच गानके कट्टर शत्रु थे। इस कुप्रथा को मिटाने के लिए उन्होने एक सुधारक संस्था स्थापित की थी। पण्डित पद्मसिंह उनके इने-गिने अनुयायियो में थे। पण्डितजी इसीलिए विट्ठलदास से डरते थे। लेकिन सुभद्रा के बढावा देने से उनका संकोच दूर हो गया। [ ३५ ]वह अपने वेश्याभक्त मित्रो से सहमत हो गए। भोली बाई का मुजरा होगा, यह बात निश्चित हो गई।

इसके चार दिन पीछे होली आई। उसी रात को पद्मसिंह की बैठक ने नृत्यशाला का रूप धारण किया। सुन्दर रंगीन कालीनों पर मित्रवृन्द बैठे हुए थे और भोली बाई अपने समाजियो के साथ मध्य में बैठी हुई भाव बता-बताकर मधुर स्वर में गा रही थी। कमरा बिजली की दिव्य बत्तियो से ज्योतिर्मय हो रहा था। इत्र और गुलाब की सुगधि उड़ रही थी। हास्य-परिहास, आमोद-प्रमोद का बाजार गर्म था।

सुमन और सुभद्रा दोनों झरोखे मे चिककी आड़ से यह जलसा देख रही थी। सुभद्रा को भोली का गाना नीरस फीका मालूम होता था। उसको आश्चर्य मालूम होता था कि लोग इतने एकाग्रचित होकर क्या सुन रहे है? बहुत देर के बाद गत के शब्द उसकी समझ मे आये। शब्द अलकारो से दब गये थे। सुमन अधिक रसञा थी। वह गाने को समझती थी और ताल स्वर का ज्ञान रखती थी। गीत कान में आते ही उसके स्मरण पटपर अंकित हो जाते थे। भोलो बाई ने गाया---

ऐसी होली में आग लगे,
पिया विदेश में द्वारे ठाढी, धीरज कैसे रहे?
ऐसी होली में आग लगे,

सुमन ने भी इस पद को धीरे-धीरे गुनगुनाकर गाया और अपनी सफलता पर मुग्ध हो गई। केवल गिटकिरी न भर सकी। लेकिन उसका सारा ध्यान गानपर ही था। वह देखती थी कि सैकड़ो आंख भोली बाई की ओर लगी हुई है। उन नेत्रो से कितनी तृष्णा थी। कितनी विनम्रता, कितनी उत्सुकता! उनकी पुतलियाँ भोलो के एक-एक इशारे पर एक-एक भाव पर नाचती थी, चमकती थी। जिस पर उसकी दृष्टि पड़ जाती थी वह आनन्द से गद्गद् हो जाता और जिससे वह हंसकर दो एक बात कर लेती उसे तो मानो कुबेर का धन मिल जाता था। उस [ ३६ ] भाग्यशाली पुरुष पर सारी सभा की सम्मान दृष्टि पडने लगती। उस सभा मे एक से एक धनवान, एक से एक विद्वान् एक से एक रूपवान सज्जन उपस्थित थे, किन्तु सबके सब इस वेश्या हाव-भावपर मिटे जाते थे। प्रत्यक मुख इच्छा और लालसा का चित्र बना हुआ था।

सुमन सोचने लगी, इस स्त्री में कौन सा जादू है!

सौन्दर्य? हाँ, हाँ, बह रूपवती है, इसमें सन्देह नही। मगर में भी तो ऐसी बुरी नही हूं। वह सवली है, मैं गोरी हूँ। वह मोटी है, मै दुबली हुँ।

पण्टितजी के कमरे में एक बड़ा शीशा था। सुमन इस शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गई और उसमें अपना नखसे शिखतक देखा। भोली बाई के अपने हृदयांकित चित्र से अपने एक-एक अंग की तुलना की। तब उसने आकर सुभद्रा से कहा, बहूजी एक बात पूछूँ बुरा न मानना। यह इन्द्र की परी क्या मुझसे बहुत सुन्दर है?

सुभद्रा ने उसकी ओर कौतूहल से देखा और मुस्कराकर पूछा, यह क्यो पूछती हो?

सुमन शर्म से सिर झुकाकर कहा कुछ नही, योही। बतलाओ?

सुभद्र ने कहा उसका सुखका शरीर है, इसलिए कोमल है लेकिन रंग रूप में वह तुम्हारे बराबर नही।

सुमन ने फिर सोचा, तो क्या उसके बनाव सिंगापर, गहने कपड़े पर लोग इतने रीझे हुए है? मैं भी यदि वैसा बनाब चुनाव करूँ, वैसे गहने कपडे पहनूँ, तो मेरा रंग-रूप और न निखर जायगा, मेरा यौवन और न चमक जायगा? लेकिन कहां मिलेंगे?

क्या लोग उसके स्वर लालित्य पर इतने मुग्ध हो रहे है? उसके गले में लोच नही, मेरी आवाज उससे बहुत अच्छी है। अगर कोई महीने भर भी सिखा दे तो मैं उससे अच्छा गाने लगूँ। मैं भी बक्र नेत्रो से देख सकती हूँ। मुझे भी लज्जा से आखे नीची करके मुस्कराना आता है।

सुमन बहुत देर तक वहां बैठी कार्य मे कारण का अनुसंधान करती रही। [ ३७ ] अन्त मे वह इस परिणाम पर पहुंची कि वह स्वाधीन है, मेरे पैरो मे बेडियाँ है। उसकी दुकान खुली है इसलिए ग्राहको की भीड़ है, मेरी दुकान बन्द है, इसलिए कोई खडा़ नही होता। वह कुत्तो के थूकने की परवाह नही करती, में लोकनिन्दा से डरती हूँ। वह परदे के बाहर है, मै परदे के अन्दर हूँ। वह डालियो पर स्वच्छदता से चहकती है, मैं उसे पकड़े हुए हुँ। इसी लज्जा ने, इसी उपहास भय ने मुझे दूसरे की चेरी बना रक्खा है।

आधी रात बीत चुकी थी। सभा विसर्जित हुई। लोग अपने-अपने घर गये। सुमन भी अपने घर की ओर चली। चारो तरफ अंधकार छाया हुआ था। सुमन के हृदय में भी नैराश्यका कुछ ऐसा ही अन्धकार था। वह घर जाती तो थी, पर बहुत धीरे-धीरे जैसे घोड़ा बमकी तरफ जाता है। अभिमान जिस प्रकार नोच़ता से दूर भागता है उसी प्रकार उसका हृदय उस घर से दूर भागता था।

गजाधर नियमानुसार नौ बजे घर आया। किवाड बन्द थे। चकराया कि इस समय सुमन कहाँ गई? पड़ोस मे एक विधवा दर्जीन रहती थी, जाकर उससे पूछा। मालूम हुआ कि सुभद्र के घर किसी काम से गई है। कुंजी मिल गई आकर किवाड़ खोले, खाना तैयार था। वह द्वार पर बैठकर सुमन की राह देखने लगा। जब दस बज गये तो उसने खाना परोसा लेकिन क्रोध में कुछ खाया न गया। उसने सारी रसोई उठाकर बाहर फेंक दी आर भीतर से किवाड़ बन्द करके सो रहा। मन मे यह निश्चय कर लिया कि आज कितना ही सिर पटके किवाड़ न खोलूगा, देखें कहाँँ जाती है। किन्तु उसे बहुत देर तक नींद नही आयी। जरा सी भी आहट होती तो वह डंडा लिये किवाड़ के पास आ जाता। उस समय यदि सुमन उसे मिल जाती तो उसकी कुशल न थी। ग्यारह बजने के बाद निद्रा का देव उसे दवा बैठा।

सुमन जब अपने द्वार पर पहुंची तो उसके कान में एक बजने की आवाज आई। वह आवाज उसकी नस नस मे गूंज उठी, वह अभी तक दसग्यारह के धोखे में थी। प्राण सूख गये। उसने किवाड़ की दरारोसे झांका, ढेबरी [ ३८ ] जल रही थी, उसके धुंए से कोठरी भरी हुई थी और गजाधर हाथ मे डण्डा लिये चित्त पडा़ जोर से खराठे ले रहा था। सुमन का हृदय काँप उठा किवाड खटखटाने का साहस न हुआ।

पर इस समय जाऊँ कहाँ? पद्मसिंह के घर का दरवाजा भी बन्द हो गया होगा, कहार सो गये होगे। बहुत चीखने-चिल्लाने पर किवाड तो खुल जायगी, लेकिन वकील साहब अपने मन में न जाने क्या समझे नहीं, वहाँ जाना उचित नही, क्यो न यही बैठी रहूँ। एक बज ही गया है, तीन चार घण्टे मे सबेरा हो जायगा। यह सोचकर वह बैठ गई, किन्तु यह घडका लगा हुआ था कि कोई मुझे इस तरह यहाँ बैठे देख ले तो क्या हो? समझेगा कि चोर है, घातमें बैठा है। सुमन वास्तव मे अपने ही घर में चोर बनी हुई थी।

फागुन में रात को ठंडी हवा चलती है। सुमन की देहपर एक फटी हुई रेशमी कुरती थी। हवा तीर के समान उसकी हड्डियो में चुभी जाती थी। हाथ-पाँव अकड़ रहे थे। उसपर नीचे की नाली से ऐसी दुर्गध उठ रही थी कि साँस लेना कठिन था। चारो ओर तिमिर मेघ छाया हुआ था, केवल भोली बाई के कोठे पर से प्रकाश की रेखाएँ अन्धेरी गली की तरफ दया की स्नेह-रहित दृष्टि से ताक रही थी।

सुमन ने सोचा मै कैसी हतभागिनी हूँ। एक वह स्त्रियाँ है जो आराम से तकिये लगाये सो रही है, लौंडियाँ पैर दवाती है। एक में हैं कि यहाँ बैठी हुई अपने नसीव को रो रही हूँ। मै यह सब दुःख क्यो झेलती हूँ? एक झोपड़ी में टूटी खाटपर सोती हूँ, रूखी रोटियाँ खाती हूं, नित्य घुडकियाँ सुनती हूं, क्यो? मर्यादा पालन के लिए ही न? लेकिन संसार मेरे इस मर्यादा-पालन को क्या समझता है? उसकी दृष्टि में इसका क्या मूल्य है? क्या यह मुझ से छिपा हुआ है? दशहरे के मेले में, मोहर्रम के मेले में फूनवाग में, मन्दिरो में, सभी जगह तो देख रही हूँ। आजतक मैं समझती थी कि कुचरित्र लोग ही इन रमणियो पर जान देते है, किन्तु आज मालूम हुआ कि उनकी पहुंच सुचरित्र और सदाचारशील पुरुषों मे भी कम नही [ ३९ ] है। वकील साहब कितने सज्जन आदमी है, लेकिन आज वह भोलीबाई पर कैसे लट्टू हो रहे थे?

इस तरह सोचते हुए वह उठी कि किवाड़ खटखटाऊँ जो कुछ होना है हो जाय। ऐसा कौन सा सुख भोग रही हूँ जिसके लिए यह आपत्ति सहूँ? यह मुझे कौर सोने के कौन खिला देते है, कौन फूलो की सेज पर सुला देते है। दिन भर छाती फाड़कर काम करती हूं, तब एक रोटी खाती हूँ। उस पर यह धोस, लेकिन गजाधर के डंडे को देखते ही फिर छाती दहल गई। पशु बल ने मनुष्य को परास्त कर दिया।

अक़स्मात् सुमन ने दो कान्स्टेबलो को कन्धे पर लट्ठ रखे आते देखा। अन्धकार मे वह बहुत भयंकर दीख पड़ते थे। सुमन का रक्त सूख गया, कही छिपने की जगह न थी। सोचने लगी कि यदि यही बैठी हूँ तो यह सब अवश्य ही कुछ पूछगे तो क्या उत्तर दूँगी। वह झपटकर उठी और जोर से किवाड़ खटखटाया। चिल्लाकर बोली, दो घड़ी से चिल्ला रही हूँ, सुनते हो नही।

गजाधर चौका। पहली नींद पूरी हो चुकी थी। उठकर किवाड़ खोल दिये। आवाज में कुछ भय था, कुछ घबराहट। सुमन ने कृत्रिम क्रोध स्वर में कहा, वाह रे सोनेवाले! घोड़े बेचकर सोये हो क्या? दो घडी से खड़ी चिल्ला रही हूँ, मिनकते ही नही। ठण्ड के मारे हाथ-पांव अकड़ गये।

गजाधर निशक होकर बोला, मुझसे उडो़ मत, बताओ सारी रात कहाँ रही?

सुमन निर्भय होकर बोली, कैसी रात नौ बजे सुभद्रा देवी के घर गई थी। दावत का बुलावा आया था। दस बजे उनके यहाँ से लोट आई। दो घण्टे से तुम्हारे द्वार पर खड़ी चिल्ला रही हूँ। बारह बजे होगे तुम्हे अपनी नींद में कुछ सुधि भी रहती है?

गजाधर—तुम दस बजे आई थी?

सुमन ने दृढ़ता से कहा, हाँ, हॉ, दस बजे। [ ४० ]गजाधर--बिलकुल झूठ है, बारह का घंटा अपने कानो से सुनकर सोया हूँ

सुमन--सुना होगा, नींद मे सिर पैर की खबर ही नहीं रहती, घण्टे गिनने बैठे थे।

गजाधर-अब यह धाँवलो एक न चलेगो। साफ-साफ बताओ, तुम अब तक कहां रही। में तुम्हारा रंग ढंग आजकल देख रहा हूँ। अन्धा नही हूँ। मैं ने भो त्रियाचरित पढा है। ठीक-ठीक बता दो, नही तो आज जो कुछ होना है हो जायगा।

सुमन-एक बार तो कह दिया कि में दस-ग्यारह बजे यहाँ आ गई। अगर तुम्हें विश्वास नही आता, न आवे। जो गहने गढ़ाते हो मत गढाना। रानी रूठगी अपना सुहाग लेगी। जब देखो म्यान से तलवार बाहर ही रहती है, न जाने किस विरते पर!

यह कहते-कहते सुमन चौक गई। उसे ज्ञात हुआ कि में सीमा से बाहर हुई जाती हूं। अभी द्वार पर बैठे हुए उसने जो जो बात सोची थी और मन में जो बात स्थिर की थी, वह सब उसे विस्मृत हो गई। लोकाचार और हृदय में जमे हुए विचार हमारे जीवन में आकस्मिक परिवर्तन नही होने देते।

गजाधर सुमन की यह कठोर बाते सुनकर सन्नाटे मे आ गया। यह पहला ही अवसर था कि सुमन यो उसके मुँह आई थी। क्रोधोन्मत्त होकर बोला, क्या तू चाहती है कि जो कुछ तेरा जी चाहे किया करे और मै कुछ न करुँ? तु सारी रात न जाने कहाँ रही, अब जो पूछता हूँ तो कहती है मुझे तुम्हारी परवा नही है, तुम मुझे क्या कर देते हों? मुझे मालूम हो गया कि शहर का पानी तुझे भी लगा, तूने भी अपनी सहेलियों का रंग पकडा। बस अब मेरे साथ तेरा निबाह न होगा। कितना समझाता रहा कि इन चुडैलो के साथ न बैठे, मेले-ठेले मत जा, लेकिन तूने न सुना न सुना। मुझे तु जब तक बता न देगी कि तू सारी रात कहाँ रही, तब तक मै तुझे घर मे पैठने न दूँगा। न बतावेगी तो समझ ले कि आज से तू मेरी कोई नही, तेरा जी जहाँ चाहे जा, जो मन में आवे कर। [ ४१ ] सुमन ने कातर भाव से कहा, वकील साहब के घर को छोड़कर में और कही नही गई, तुम्हें विश्वास न हो तो आप जाकर पूछ लो। वही चाहे जितनी देर लगी हो। गाना हो रहा था, सुभद्रा देवी ने आने नही दिया।

गजाधर ने लांछनायुक्त शब्दो मे कहा, अच्छा, तो अब वकील साहब से मन मिला है, यह कहो, फिर भला मजूर की परवाह क्यो होने लगी?

इस लांछना ने सुमन के हृदय पर कुठाराघात का काम किया। झूठा इलजाम कभी नही सहा जाता। वह सरोष होकर बोली, कैसी बातें मुंह से निकालते हो, हक-नाहक एक भले मानस को बदनाम करते हो। मुझे आज देर हो गई है मुझे जो चाहो कहो, मारो, पीटो, वकील साहब को क्यो बीच में घसीटते हो? वह बेचारे तो, जबतक मै घर में रहती हूँ अन्दर कदम नही रखते।

गजाघर बोला, चल छोकरी, मुझे न चरा, ऐसे-ऐसे कितने भले आदमियों को देख चुका हूँ। वह देवता है, उन्ही के पास जा। यह झोपड़ी तेरे रहने योग्य नही है। तेरे हौसले बढ़ रहे है। अब तेरा गुजर यहाँ न होगा।

सुमन देखती थी कि बात बढती जाती है। यदि उसकी बात किसी तरह लोौट सकतीं तो उन्हें लौटा लेती, किन्तु निकला हुआ तीर कहाँ लौटता है? सुमन रोने लगी और बोली, मेरी आंखें फूट जाएँ, अगर मैंने उनकी तरफ ताका भी हो। मेरी जीभ गिर जाय अगर मै ने उनसे एक बात की हो। जरा मन बहलाने सुभद्रा के पास चली जाती हूंँ, अब मना करते हो, न जाऊँगी।

मन में जब एक बार भ्रम का प्रवेश हो जाता है तो उसका निकलना कठिन हो जाता है। गजाधर ने समझा कि सुमन इस समय केवल मेरा क्रोध शान्त करने के लिए यह नम्रता दिखा रही है। कटुतापूर्ण स्वर से बोला, नही, जाओगी क्यों नहीं। वहाँ ऊँची अटारी सैर को मिलेगी, पकवान खाने को मिलेंगे, फूलों की सेज पर सोओगी, नित्य राग-रंग की घूम रहेगी।

व्यंग और क्रोध में आग और तेल का संबंध है। व्यंग हृदय को इस प्रकार विदीर्ण कर देता है जैसे छेनी बर्फ के टुकड़े को। सुमन क्रोध से विह्वल [ ४२ ] होकर बोली, अच्छा तो जवान संभालो, बहुत हो चुका। घंटे भर से मुह मे जो अनाप-शनाप आता है बकते जाते हो। मैं तरह देती जाती हूँ, उसका यह फल है। मुझे कोई कुलटा समझ लिया है?

गजाधर—मै तो ऐसा ही समझाता हूँ।

सुमन-तुम मुझे मिथ्या पाप लगाते हो, ईश्वर तुम से समझेगे।

गजाधर-चली जा मेरे घर से, राँड़! कोसती है?

सुमन—हाँ, यों कहो कि तुझे रखना नही चाहता। मेरे सिर पाप क्यों लगाते हो? क्या तुम्ही मेरे अन्नदाता हो? जही मजूरी करूँगी वही पेट पाल लूँगी।

गजाधर—जाती है कि खडी गालियाँ देती है?

सुमन जैसी सगर्वा स्त्री इस अपमान को सह न सकी। घर से निकालने को उनकी भयकर इरादो को पूरा कर देती है।

सुमन बोली, अच्छा लो, जाती हूँ।

यह कहकर उसने दरवाजे की तरफ एक कदम बढ़ाया, किन्तु अभी उसने जाने का निश्चय नहीं किया था।

गजाधर एक मिनट तक कुछ सोचता रहा, फिर बोला, अपने गहने-कपड़े लेती जा, यहाँ कोई काम नही है।

इस वाक्य ने टिमटिमाते हुए आशा रूपी दीपक को बुझा दिया। सुमन को विश्वास हो गया कि अब यह घर मुझसे छूटा। रोती हुई बोली, मैं लेकर क्या करूँगी।

सुमन ने सन्दूकची उठा ली और द्वार से निकल आई, अभी तक उसकी आस नही टूटी थी। वह समझती थी कि गजाधर अब भी मनाने आवेगा। इसलिये वह दरवाजे के सामने सड़़क पर चुपचाप खड़ी रही। रोते-रोते उसका आँचल भीग गया था। एकाएक गजाधर ने दोनो किवाड़ जोर से बन्द कर लिये। यह मानो सुमन की आशा का द्वार था जो सदैव के लिये उसकी ओर से बन्द हो गया। सोचने लगी, कहाँ जाऊँ? उसे अब ग्लानि और पश्चात्ताप के बदले गजाधर पर क्रोध आ रहा था। उसने [ ४३ ] अपनी समझ में ऐसा कोई काम नही किया था,जिसका ऐसा कठोर दण्ड मिलना चाहिये था। उसे घर आने में देर हो गयी थी इसके लिए दो-चार घुडकियाँँ बहुत थीं। यह निर्वासन उसे घोर अन्याय प्रतीत होता था। उसने गजाधर को मनाने के लिये क्या नही किया? विनती की, खुशामद की, रोई, किन्तु उसने सुमन का अपमान ही नहीं किया, उसपर मिथ्या दोषा-रोपण भी किया। इस समय यदि गजाधर मनाने भी आता तो सुमन राजी न होती। उसने चलते-चलते कहा था, जाओ अब मुँँह मत दिखाना। यह शब्द उसके कलेजे में चुभ गये थे। मैं ऐसी गई बीती हूँ कि अब वह मेरा मुँह भी देखना नही चाहते, तो फिर क्यों उन्हें मुँँह दिखाऊँ? क्या संसार में सब स्त्रियों के पति होते है? क्या अनाथाएँ नही है? मैं भी अब अनाथा हूँ। वसन्त के समीर और ग्रीष्म की लू में कितना अन्तर है! एक सुखद और प्राणपोषक, दूसरी अग्निमय और विनाशिनी। प्रेम बसन्त-समीर है, द्वेष ग्रीष्म की लू। जिस पुष्प को बसन्त समीर महीनो में खिलाती है, उसे लू का एक झोका जलाकर राख कर देता है। सुमन के घर से थोड़ी दूर पर एक खाली बरामदा था। वहाँ जाकर उसने सन्दूकची सिरहाने रक्खी और लेट गई। तीन बज चुके थे। दो घण्टे उसने यह सोचने में काटे कि कहाँ जाऊँ। उसकी सहचरियो मे हिरिया नामकी एक दुष्ट स्त्री थी, वहाँ आश्रय मिल सकता था, किन्तु सुमन उधर नही गई। आत्मसम्मान का कुछ आश अभी बाकी था। अब वह एक प्रकार से स्वच्छन्द थी और उन दुष्कामनाओं को पूर्ण कर सकती थी जिनके लिये उसका मन बरसों से लालायित हो रहा था। अब उस सुखमय जीवन के मार्ग मे कोई बाधा न थी। लेकिन जिस प्रकार बालक किसी गाय या बकरी को दूर से देखकर प्रसन्न होता है,पर उसके निकट आते ही भय से मुँँह छिपा लेता है, उसी प्रकार सुमन अभिलाषाओ के द्वार पर पहुँचकर भी भीतर प्रवेश न कर सकी। लज्जा, खेद, घृणा, अपमान ने मिलकर उसके पैरों में बेड़ी सी डाल दी ।उसने निश्चय किया कि सुभद्रा के घर चलूँ, वही खाना पका दिया करूँगी, सेवा टहल करूँगी और पड़ी रहूँँगी। आगे ईश्वर मालिक है। [ ४४ ] उसने सदूकची आचंल में छिपा ली और पड़ित पद्मसिंह के घर आ पहुँची। कई मुवक्किल हाथ-पांव धो रहे थे। कोई आसन बिछाये ध्यान करता था और सोचता था, वही मेरे गवाह न बिगड़ जायें। कोई मालाफेरत था, मगर उसके दानों से उन रुपयों का हिसाब लगा रहा था जो आज उसे व्यय करने पड़ेंगे। मेहतर खड़ा रात की पूड़ियाँ समेट रहा था। सुमन को भीतर जाते हुए संकोच हुआ लेकिन जीतन कहार को आते देखकर वह शीघ्रता से अन्दर चली गयी। सुभद्रा ने आश्चर्य मे पूछा-घर से इतने सवेरे कैसे चली?

सुमन ने कुण्डित स्वर से कहा, घर से निकाल दी गई हूं।

सुभदा-—अरे! यह किस बात पर?

सुमन-—यही कि रात मुझे यहाँ जाने में देर हो गई।

सुभद्रा-—इस जरा सी बात का इतना बतंगड़ देखो, मै उन्हें बुलवाती हुँ, विचित्र मनुष्य है।

सुमन-—नहीं नही, उन्हें न बुलाना, मै रो-धोकर हार गई। लेकिन उस निर्दयी को तनिक भी दया न आई। मेरा हाथ पकड़़कर घर से निकाल दिया। उसे घमंड है कि मै ही इसे पालता हूं। में उसका यह घमंड तोड़ दूँगी।

सुभद्रा--चलो, ऐसी बातें न करो, मैं उन्हें बुलवाती हूं।

सुमन-—मै अब उसका मुंह नही देखना चाहती।

सुभद्रा-—तो क्या ऐसा बिगाड़ हो गया है?

सुमन-—हां, अब ऐसा ही है। अब उससें मेरा कोई नाता नही।

सुभद्रा ने सोचा, अभी क्रोध में कुछ न सूझेगा, दो-एक रोज में शान्त हो जायगी। बोलो, अच्छा मुंह हाथ तो धो डालो, आंखें चढी हुई है, मालूम होता है, रातभर सोई नही हो। कुछ देर सो लो, फिर बातें होंगी।

सुमन-—आराम से सोना ही लिखा होता तो क्या ऐसे कुपात्र से पाला पड़ता। अब तो तुम्हारी शरण आई हूं। शरण दोगी तो रहेंगी, नही कहीं मुंह में कालिग लगाकर डूब मरूँगी। मुझे एक कोने मे थोडी़-सी जगह दे [ ४५ ] दो, वही पड़ी रहूँगी। अपने से जो कुछ हो सकेगा तुम्हारी सेवा-टहल कर दिया करुँगी।

जब पडितजी भीतर आये तो सुभद्रा ने सारी कथा उनसे कही। पंडितजी बडी चिन्ता में पड़े। एक अपरिचित स्त्री को उसके पति से पूछे बिना अपने घर मे रखना अनुचित मालूम हुआ। निश्चय किया कि चलकर गजाधर को बुलवाऊँ और समझाकर उसका क्रोध शान्त कर दूँ। इस स्त्री का यहाँ से चला जाना ही अच्छा है।

उन्होंने बाहर आकर तुरन्त गजाधर के बुलाने को आदमी भेजा, लेकिन वह घर पर न मिला। कचहरी से आकर पण्डितजी ने फिर गजाधर को बुलवाया, लेकिन फिर वही हाल हुआ।

उधर गजाधर को ज्योही मालूम हुआ कि सुमन पद्मसिंह के घर गई है, उसका सन्देह पूरा हो गया। वह घूम-घूमकर शर्माजी को बदनाम करने लगा। पहले विट्दाठलदास के पास गया। उन्होने उसकी कथा को वेद-वाक्य समझा। यह देश का सेवक और सामाजिक अत्याचारों का शत्रु-उदारता और अनुदारता का विलक्षण संयोग था, उसके विश्वासी हृदय में सारे जगत् के प्रति सहानुभूति थी, किन्तु अपने वादी के प्रति लेशमात्र भी सहानुभूति न थी। वैमनस्यमें अन्ध-विश्वास की चेष्टा होती है। जबसे पद्मसिंह लने मुजरे का प्रस्ताव किया था विट्ठलदास को उनसे द्वेष हो गया था। वे यह समाचार सुनते ही फूले न समाये। शर्माजी के मित्र और सहयोगियो के। पास जा-जाकर इसकी सूचना दे आये। लोगो से कहते, देखा आपने! मैं कहता न था कि यह जलसा अवश्य रंग लायेगा। एक ब्राह्मणी को उसके घर से निकालकर अपने घर मे रख लिया। बेचारा पति चारों ओर रोता फिरता है। यह है उच्च शिक्षा का आदर्श! में तो ब्राह्मणी को उसके यहाँ देखते ही भाँप गया था कि दाल में कुछ काला है। लेकिन यह न समझता था कि अन्दर ही अन्दर यह खिचड़ी पक रही है।

आश्चर्य तो यह था कि जो लोग शर्माजी स्वभाव से भली भाति परिचित थे उन्होंने भी इस पर विश्वास कर लिया। [ ४६ ] दूसरे दिन प्रातकाल जीतन किसी काम से बाजार गया। चारों तरफ यही चर्चा सुनी। दूकानदार पूछते थे, क्यों जीतन नयी मालकिन के क्या रंग-ढंग है? जीतन यह आलोचनापूर्ण बाते सुनकर घबराया हुआ घर आया और बोला, भैया, बहूजी ने जो गजाधर की दुलहिन को घर ठहरा लिया है, इस पर बाजार मे बडी़ बदनामी हो रही है। ऐसा मालूम होता है कि यह गजाधर से लड़कर आई है।

वकील साहब ने यह हाल सुना तो सन्नाटे में आ गये। कचहरी जाने के लिए अचकन पहन रहे थे, एक हाथ आस्तीन मे था, दूसरा बाहर। कपड़े पहनने की भी सुधि न रही। उन्हे जिस बात का भय था वह हो ही गई। अब उन्हे गजाधर की लापरवाही का मर्म ज्ञात हुआ। मूर्तिवत् खडे़ सोचते रहे कि क्या करूँ? इसके सिवा और कौन-सा उपाय है कि घर से निकाल दूँ। उस पर जो बीतनो हो बीते, मेरा क्या वश है? किसी तरह बदनामी से तो बचुँ। सुभद्रा पर जी मे झुझलाये। इसे क्या पड़ी थी कि उसे अपने घर में ठहराया। मुझ से पूछताछ नही। उसे तो घर में रहना है, दूसरों के सामने आँखे तो मेरी नीची होगी। मगर यहाँ से निकाल दूँगा तो बेचारी जायगी कहाँ? यहाँ तो उसका कोई ठिकाना नही मालूम होता। गजाधर अब उसे शायद अपने घर में रखेगा, आज दूसर दिन है, उसने खबर तक नही ली। इससे तो यह विदित होता है कि उसने उसे छोड़ने का निश्चय कर लिया। दिल में मुझे दयाहीन और क्रूर समझेगी। लेकिन बदनामी से बचने का यही एकमात्र उपाय है। इसके सिवा और कुछ नही हो सकता। यह विवेचना करके वह जीतन से बोले, तुमने अबतक मुझ से क्यों न कहा?

जीतन--सरकार मुझे आज ही तो मालूम हुआ है, नही तो जान लो भैया, मैं बिना कहे नहीं रहता।

शर्म्मा जी—अच्छा तो घर मे जाओ और सुमन से कहो कि तुम्हारे यहाँ रहन से उनकी बदनामी हो रही है। जिस तरह बन पड़े आज ही [ ४७ ] यहाँ से चली जाय। जरा आदमी की तरह बोलना, लाठी मत मारना। खूब समझाकर कहना कि उनका कोई वश नही है।

जीतन बहुत प्रसन्न हुआ। उसे सुमन से बड़ी चिढ़ थी, जो नौकरों को उन छोटे मनुष्यों से होती है, जो उनके स्वामी के मुंह लगे होते है। सुमन की चाल उसे अच्छी नही लगती थी। बुड्ढे लोग साधारण बनाव-सिंगार को भी सन्देह की दृष्टि से देखते है। वह गँवार था। काले को काला कहता था, उजले को उजला, काले को उजला कहने का ढंग उसे न आता था। यद्यपि शर्म्माजी ने समझा दिया था कि सावधानी से बातचीत करना, किन्तु उसने जाते-ही जाते सुमन का नाम लेकर जोर से पुकारा। सुमन शर्म्माजी के लिए पान लगा रही थी। जीतन की आवाज सुनकर चौक पडी़ और कातर नेत्रो से उसकी ओर ताकने लगी।

जीतन ने कहा, ताकती क्या हो, वकील साहब का हुक्म है कि आज ही यहाँ से चली जाओ। सारे देशभर में बदनाम कर दिया। तुमको लाज नही है, उनको तो नाम की लाज है। बाँड़ा आप गये चार हाथ की पगहिया भी लेते गये।

सुभद्रा के कान में भी भनक पडी़। आकर बोली, क्या है जीतन? क्या कह रहे हो?

जीतन--कुछ नही, सरकार का हुक्म है कि यह अभी यहां से चली जायें। देशभर से बदनामी हो रही है।

सुभद्रा--तुम जाकर जरा उन्ही को यहां भेज दो।

सुमन की आंखो मे आँसू भरे थे। खड़ी होकर बोली, नही बहूजी। उन्हें क्यों बुलाती हो? कोई किसी के घर में जबर्दस्ती थोड़े ही रहता है, मैं अभी चली जाती हूं। अब इस चौखट के भीतर फिर पाँव न रखूँगी। विपत्ति मे हमारी मनोवृत्तियाँ बडी प्रबल हो जाती है। उस समय बेमुरौवती घोर अन्याय प्रतीत होती है और सहानुभूति असीम कृपा। सुमन को शर्म्माजी से ऐसी आशा न थी। उस स्वाधीनता के साथ जो आपत्तिकाल मे हृदय पर अधिकार पा जाती है उसने शर्म्माजी को दुरात्मा, भीरु, दयाशून्य [ ४८ ] तथा नीच ठहराया। तुम आज अपनी बदनामी को डरते हो, तुम को इज्जत बड़ी प्यारी है! अभी कल एक वेश्या के साथ बैठे हुए फूले न समाते थे उसके पैरों तले आँख बिछाते थे, तब इज्जत न जाती थी! आज तुम्हारी इज्जत में बट्टा लगा जाता है!

उसने सावधानी से सन्दूकची उठा ली और सुभद्रा को प्रणाम करके घर से चली गई।