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सौ अजान और एक सुजान

विकिस्रोत से
सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
बालकृष्ण भट्ट

पृष्ठ - से – भूमिका तक

 





सौ अजान और एक सुजान




संपादक

सर्वप्रथम देव-पुरस्कार विजेता

श्रीदुलारेलाल

(सुधा-संपादक)

Approved as Supplementary Reader for Cla

A. V. Schools of U. P.


गंगा-पुस्तकमाला का सतहत्तरवाँ पुष्प

सौ अजान और एक सुजान

[एक प्रबंध-कल्पना]

लेखक

स्वर्गवासी पं० वालकृष्ण भट्ट ।


रे जीव सत्सङ्गमवाप्नुहि त्वमसत्प्रसङ्ग त्वरया विहाय,

धन्योऽपि निन्दा लभते कुसमात्सिन्दूरविन्दुर्विधवाललाटे ।

.

मिलने का पता-

गंगा-ग्रंथागार

३६, लाटूश रोड

लखनऊ

.

सातवाँ संस्करण

सजिल्द १।।।)]
[सादी १)
सं० २००१ वि०
प्रकाशक

श्रीदुलारेलाल
अध्यक्ष गंगा-पुस्तकमाला-कार्यालय

लखनऊ
 

अन्य प्राप्ति-स्थान—

  1. दिल्ली—दिल्ली-गंगा-ग्रंथागार, चर्ख़ेवालाँ
  2. प्रयाग—प्रयाग-गंगा-ग्रंथागार, गोविद-भवन

शिवचरणलाल रोड

  1. काशी—काशी-गंगा-ग्रंथागार, मच्छोदरी-पार्क
  2. पटना—पटना-गंगा-ग्रंथागार, मछुआ-टोली
 

मुद्रक

श्रीदुलारेलाल

अध्यक्ष गंगा-फाइनआर्ट-प्रेस

लखनऊ

भूमिका

(छठे संस्करण पर)

स्वर्गीय पं० बालकृष्ण भट्ट वर्तमान युग की हिंदी के जन्मदाताओं में से एक समझे जाते हैं, और भारतेदु बाबू हरिश्चंद्र के समकालीन साहित्यकारों मे उनका ऊँचा स्थान है। भट्टजी के पूर्व-पुरुष मालवा-देश के निवासी थे, किंतु कारण-वश वे बेतवा नदी के तट पर जटकरी-नामक ग्राम में आ बसे। पं० बालकृष्ण भट्ट का जन्म संवत् १९०१ में हुआ था। इनकी माता बड़ी पढ़ी-लिखी और साहित्यानुरागिणी थीं। इसीलिये भट्टजी की शिक्षा-दीक्षा का प्रारंभिक रूप ही सुंदर बन गया, और थोड़े समय मे ही उन्हें पर्याप्त विद्या-ज्ञान की प्राप्ति हुई। कुछ बड़े होने पर भट्टजी के पिता ने यह चाहा कि उनकी रुचि व्यवसाय की ओर आकर्षित की जाय, परंतु ऐसा न हो सका। हमारे चरितनायक विद्याध्ययन की ओर से अपना ध्यान न हटा सके, फिर माता का आदेश भी उनके अनुकूल था। इस प्रकार १५-१६ वर्ष की आयु तक भट्टजी संस्कृत और हिदी की शिक्षा प्राप्त करते रहे।

सन् १८५७ के सिपाही-विद्रोह के पश्चात् भारतवर्ष में क्रमशः अंगरेज़ी-भाषा का प्रचार बढने लगा। माता की प्रेरणा से भट्टजी ने भी अँगरेज़ी पढना शुरू किया, और एक मिशन स्कूल में एंट्रेस-क्लास तक शिक्षा पाई। स्कूल के पादरी से कुछ धार्मिक विवाद हो जाने पर भट्टजी ने स्कूल को तिलांजलि दे दी, क्योंकि उनकी धार्मिक भावनाओं को आघात पहुँच चुका था, और वह पुनः संस्कृत
का अध्ययन करने लगे। कुछ समय के लिये उन्होंने अध्यापन-कार्य भी किया, किंतु उसमें विशेष रुचि न होने के कारण शीघ्र ही नौकरी छोड़ दी। स्वतंत्रता की धुन सवार होने के कारण यह बहुत दिनों तक घर बैठे रहे, और कहीं भी नौकरी न की।

इसी समय उनका विवाह हो गया। गृहस्थी की चिंता से त्रस्त होकर उन्होंने व्यापार करने की ठानी, किंतु उसमें भी सफलता न मिली। पुनः उन्होंने अपने अमूल्य समय को संकल्प-रूप में संस्कृत और हिंदी-साहित्य में लगाया, और उस समय के साप्ताहिक तथा मासिक पत्रों में लेख लिखना प्रारंभ किया। प्रयाग के कुछ उत्साही साहित्यकों के प्रयत्न से 'हिंदी-प्रदीप' नामक पत्र निकलना शुरू हुआ, और हमारे भट्टजी ही उसके संपादक हुए। सरकार ने इसी अवसर पर प्रेस-ऐक्ट निकाला, जिसके प्रभाव से भट्टजी के सह-योगियों ने 'हिदी-प्रदीप' से अपना संबंध-विच्छेद कर लिया। भट्टजी ने अनवरत परिश्रम करके पत्र को चालू रक्खा, और मातृभाषा की सेवा की भावना ने उनको आशातीत सफलता दी। कुछ समय उपरांत भट्टजी ने प्रयाग की कायस्थ-पाठशाला में संस्कृत के अध्यापक का कार्य प्रारंभ किया, किंतु यह नौकरी भी स्थायी न रही। इसके बाद ही 'हिदी-प्रदीप' भी बंद हो गया। फिर काशी-नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित 'हिंदी-शब्द-सागर'-नामक वृहत् कोष के संपादन में भट्टजी ने यथेष्ट सहयोग दिया, और उसे पूर्ण उपयोगी बनाने में पर्याप्त परिश्रम किया।

अचानक ही श्रावण-कृष्णा १३, संवत् १९७१ को श्रापका शरीरांत हो गया! हिंदी-माता के इस सपूत का निधन किस साहित्य-सेवी को शोक-सागर में नहीं डुबोता? पं. बालकृष्ण भट्ट हिंदी के एक सच्चे सेवक और विद्वान् थे। उनका स्वभाव बड़ा ही सरल और उदार था। वह बड़े ही हंसमुख थे। उनकी रहन-सहन सादी और
आडंबर-रहित थी। सनातनधर्म के पक्के अनुयायी होते हुए भी वह कभी अंध-परंपरा के पक्षपाती नहीं रहे। उनकी धर्म-निष्ठा सराहनीय थी।

भट्टजी के लिखे हुए कलिराज का सभा, बाल-विवाह-नाटक, नूतन ब्रह्मचारी, रेल का विकट खेल, जैसा काम वैसा परिणाम, भाग्य की परख, गीता-सप्तशती की आलोचना तथा षट्दर्शन-संग्रह का भाषानुवाद आदि-आदि बड़े ही महत्त्व-पूर्ण समझे जाते हैं। भट्टजी की भाषा उनकी अपनी भाषा है। उसमें मौलिकता है, रस है, और एक अनूठापन है, जो दूसरे लेखकों की रचनाओं में नहीं पाया जाता। उनकी कृतियों में अनुभव, अध्ययन और सरलता की छाप है। गद्य-लेखकों में भट्टजी ने अपनी असामान्य प्रतिभा द्वारा उच्च स्थान अधिकृत कर लिया है। भट्टजी के स्वसंपादित 'हिंदी-प्रदीप' में यदा-कदा प्रकाशित होनेवाले सुंदर लेखों का एक संग्रह 'साहित्य-सुमन' के नाम से, गंगा-पुस्तकमाला में, प्रकाशित हो चुका है। उसमें एक-से-एक बढ़कर २५ चुने हुए ललित लेख हैं। कहना न होगा कि यह संग्रह इतनी लोक-प्रियता प्राप्त कर चुका है, जितनी आधुनिक समय में प्रकाशित विरले ही किसी संग्रह को मिली होगी।

'सौ अजान और एक सुजान' भी भट्टजी की अनूठी कृति है। इसीलिये इसके कई संस्करण हो चुके है। भट्टजी की यह रचना अपनी मौलिकता और उत्कृष्टता के कारण सर्वप्रिय बन चुकी है। एक प्रबंध-कल्पना के रूप में यह कृति अपने विषय की बेजोड़ चीज़ है। भाषा में हास्यरस की सुंदर पुट है। भाव स्पष्ट और गंभीर हैं। भट्टजी की यह रचना व्यंग्यात्मक है, और इसमें मानव-जीवन की सामाजिक परिस्थितियों का सुंदर चित्रण पाया जाता है। शृंखलित कथानक का आश्रय लेकर लेखक ने इस पुस्तक
के विषय को और भी रोचक और सर्वग्राही बना दिया है। उनकी शैली का अनोखापन सहज ही पाठकों को मुग्ध कर लेता है। भट्टजी की प्रस्तुत रचना का आधार और मूल-तत्व उपदेश की भावना और अनुभव-जनित परिणामों का दिग्दर्शन-मात्र ही नहीं है।

इस संस्करण में संस्कृत-पद्यों का अर्थ फुटनोट में दे दिया गया है। आशा है, इस बार हिंदी-संसार इसे और भी अधिक अपनाएगा, और हिंदी-साहित्य की एक स्मरणीय अात्मा के स्वर्गीय संदेश का साहित्य-जगत् में पर्याप्त प्रचार करने में हमारी सहायता करेगा। इसे पाठवें दर्जे में नियत कर देने के लिये यू० पी० की टेक्स्टबुक-कमेटी के हम अभारी हैं। पहले 'हिंदी-साहित्य-सम्मेलन भी इसे पाठ्य पुस्तक नियत किए हुए था। आशा है, इस सुंदर संस्करण को वह फिर अपनाएगा।



कवि-कुटीर दुलारेलाल
लखनऊ, १७।६।३५




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