सौ अजान और एक सुजान/१

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट
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पहला प्रस्ताव

खोटे को सँग-साथ, हे मन, तजो अँगार ज्यों;
तातो जारै हाथ, सीतल हू कारो करै।

बरसात का अंत है। दुर्व्यसनी के धन-समान मेघ आकाश मे सिमिट-सिमिट लोप होने लगे है। शरत् का आरंभ हो गया। शीत अपना सामान धीरे-धीरे इकट्ठा करने लगी। कुँआर का महीना है। उजाली रात है। ग्यारह बजे का समयहै। सन्नाटा छाया हुआ है, मानो प्रकृतिदेवी दिन-भर की दौड़-धूप के उपरांत थकी-थकाई विश्राम के लिये छुट्टी लिया चाहती है। चंद्रमा सोलहो कला से पूर्ण होने में कुछ ऐसा ही नाम-मात्र का अंतर रखता हुआ अपनी प्रेयसी निशा की मुखच्छवि पर निहाल हो मानो हँस-सा रहा है, जिसकी सब ओर छिटकी हुई चाँदनी सम-विषम भू-भाग को एक आकार दरसाती हुई चक्रवर्ती राजा की आज्ञा-समान सर्वत्र व्याप रही है। मानो वितान रूप नीले आकाश-शामियाने के नीचे सफेद फर्श बिछा दिया गया हो। मालूम होता है, शरत की सहायता पाय धरती आकाश के साथ होड़ लगाए हुए है। वहाँ निर्मल आकाश में मोती-से चमकते [ ११ ]
हुए तारे अपने स्वामी निशानाथ के प्रसन्न करने को निशा-वधूटी के लिये उपहार बन रहे हैं। यहाँ कन्या के सूर्य के प्रचंड आतप में कीचड़-पानी सूख जाने से स्वच्छ हो, छिटकी हुई चाँदनी के मिस हँसती-सी धरती फूले हुए कल्हार, गुलनार, कुई, कुंद आदि भाँति-भाँति के फूलों का गहना सजे, उसी निशा नई दुलहिन को मुँह-देखाई देने को प्रस्तुत है। ऐसे समय अरबी घोड़े पर सवार एक आदमी देख पड़ा, भेष इसका सिपाहियाना था; उमर में यद्यपि ५० के ऊपर डाँक गया था, पर डीलडौल से ४० के भीतर मालूम होता था। बाल इसके दो-एक कहीं-कहीं पर पक गए थे सही, किंतु उतने से यह किसी को नहीं बोध होता था कि यह तरुनाई से ढुलक चला है। नई उमर का जोश, साहस, हिम्मत और दिलेरी में यह चढ़ती उमरवाले जवानों के भी आगे बड़ा था, और ये ही सब बाते मानो साखी भर रही थीं कि कचलपटी और छिछोरपन से यह कहाँ तक दूर हटा हुआ है। पढ़ा-लिखा यह कुछ न था, पर जैसी कुछ मुस्तैदी इसमें देखी जाती थी, उससे स्वामिभक्ति इसके चेहरे से झलक रही थी। चौड़ी छाती और बदन की मजबूती से यह क्षत्रिय मालूम होता था, और डील का न बहुत नाटा था न बहुत लंबा। कुछ ऊंघता अलसाता-सा काग़ज का एक पुलिंदा हाथ में लिए लंबे-चौड़े पक्के मकान के फाटक पर आकर यह खटखटाने लगा। दासी ने आय किवाड़ खोल कहा---"बाबू सोवत हैं।" इसने [ १२ ]
कहा-"बड़ा जरूरी काग़ज़ है। सोकर उठे, तो यह पुलिंदा उन्हें दे देना।" पुलिंदा दासी के हाथ में पकड़ाय आप चल दिया। दासी ने किवाड़ बंद कर लिया और भीतर चली गई।