सौ अजान और एक सुजान/५

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सौ अजान और एक सुजान  (1944) 
द्वारा बालकृष्ण भट्ट

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पाँचवाँ प्रस्ताव
इक भीजें चहलै परै वू.,बहैं हजार;
किते न औगुन जग करै बै-नै बढती बार।

शिशिर की दारुण शीत से जैसे सिकुड़े हुए देह धारियों के एक-एक अंग वसंत की सुखद ऊष्मा के संचार हो ही फैलने लगते हैं,उसी तरह कुसुमबाण की गरमी शरी
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में पैठते ही नव युवा और युवतियो के अग-प्रत्यंग में सलोनापन भीजने लगता है।तन में,मन में, नैन में नई-नई उमंगें जगह करती जाती हैं;एक अनिर्वचनीय शोभा का प्रसार होने लगता है। प्रिय पाठक,नई उमर की मनोहर पुष्प-वाटिका की कुछ अंकथ कहानी है,इसका ढंग ही कुछ निराला है। हमने बसत की सुखद अज्मा के संचार की सूचना पहले आपको दे दी है।नई-नई कलियो को फूटकर विकास पाने का स्वच्छंद अवसर इसी समय मिलता है,अत्यंत कटीले और मुरझाए हुए पेड़,जिनकी ओर बारा का माली कभी झॉकता भी नहीं,एक साथ हरे-भरे हो लहलहा उठते हैं।तव उन नए पौधों का क्या कहना,जो नित्य दूध और दाख-रस से सींचकर बढ़ाए गए हैं।इस समय,जिसका हमारे यहाँ के कवियों ने वयस्संधि नाम रक्खा है,जिसके वर्णन में कालिदास,भवभूति,श्रीहर्ष,मतिराम,बिहारी आदि अपनी-अपनी कविता का सर्वस्व लुटाए बैठे हैं,आज हम भी उसी के गुन-ऐगुन दिखाने के अवसर की प्रार्थना आपसे करते है।हमारे पाठकों में जो सब ओर से लहराते हुए सिंधु-समान इस चढ़ती उमर के उफान को,जिसे ऊपर के दोहे मे कवि ने नै वै कहा है खेकर पार हो गए है.और अब शांति धरे मननशील महामुनि बन बैठे है,वे जान सकते हैं कि यह चढ़ती जवानी क्या बला है,और कैसे-कैसे ढंग पर आदमियों को दुलकाए फिरती है। यह नए-नए हौसलो की [ २९ ]भूलभुलैया में छोड़ हजारो चक्कर दिलाती है;राग-सागर की तरंगों में तरेर फिर उमड़ने ही नहीं देती। हम ऊपर कह पाए हैं,कि इन दोनों बावुओं में न केवल चढ़ती जवानी का जोश उफान दे रहा था,अपितु धन,संपत्ति प्रभुता और स्वतत्रता का पूरा प्रादुर्भाव था,जिसके कारण तरल-तरंगिणी-तुल्य तारुण्य-कुतर्की ने अत्यंत सहायता पाय इन्हें चारों ओर से अपना ताबेदार करने में लव-मात्र भी त्रुटि न की।धन-मद ने भी इस नए पाहुते ने बै की पहुनाई के लिये सब भॉति सन्नद्ध हो सत्संग की श्रद्धा को शिथिल कर डाला।अब इन कुचालियों को महात्मा हीराचंद की दिखाई हुई सुराह पर चलना महा जजाल हो गया।इनके हृदय की आँखों में कुछ ऐसा अनोखा अधकार छा गया कि राहु की छाया-समान उसका आभास इनके यावत् कामों में प्रसार पाने लगा।झूठी-झूठी बातों से मन को लुभानेवाले नुशामदी चापलूसों के ठट्ट-के-ठट्ट जमा हो इन्हें अपने ढग पर उतार लाए। इन्हें इस बात का जान बिलकुल न रहा कि ये सब अपने मतलब के दोस्त है;काम पड़ने पर ये कोई हमारा साथ न देंगे।चिरकाल तक अभ्यसित चंदू के चोखे चुटीले उपदेशों की वासना भी न रही। नए-नए लोग जिनकी बड़े सेठजी के समय कभी सूरत भी न देख पडती थी,वे उनके दिली दोस्त हो गए। इनका रोब और दिमाग देख किसी की हिम्मत न पड़ती थी कि इनसे।इसके लिये कुछ मुह पर लाये। पुराने बूढ़ों में से जिसने कभी [ ३० ]
कुछ कहने का साहस किया. वह इनका जानी दुश्मन बन गया ऐसों का संग करना कैसा,बल्कि उनका नाम सुन चिढ़ उठते थे। ऐसे लोगों से दूर रहना ही इन्हे पसद आता था।नाच-तमाशे, खेल-कूद,सवारी-शिकारी,पोशाक और घर की सजा-वट की ओर अजहद शौक बढ़ा। दोनो बाबू सदा इसी चेष्टा में रहते थे कि इन सब सजावटो मे आस-पास के अमीर,ताल्लुकेदार और बाबुओ मे कोई हमारे आगे न बढ़ने पावे,और इसी चढ़ा-उतरी में लाखो रुपया ठिकरी कर डाला अपनी खूब-सूरती,अपनी पसंद,अपनी बात सबके अपर रहे। इनके कहने को जरा भी किसी ने दूखा कि त्योरी बदल जाती,मिजाज बरहम हो जाता था।दुर्व्यसन के विष का बीज बोनेवाले चापलूस चालाकों की बन पड़ी।एक चापलूस बोला-"बावू साहब,आपके घराने का बड़ा नाम है;आज दिन अवध के रईसो मे आपका औवल दरजा है।बड़े सेठ साहब सीधे-सादे बनिया आदमी थे,इसलिये उनको वही सोहाता था।अब आपका नाम बड़े-बड़े ताल्लुकेदारो और रईसों में है।आपकी रप्त-जन्त और इज्जत बहुत बढ़ी है।नित्य का आना-जाना ठहरा,एक-न-एक तकरीब,जल्से और दरबार हुओं ही करते है। तब आप वैसा सब सामान न कीजिएगा,तो किस तरह बाप-दादों की इज्जत और अपने खानदान की बुजुर्गी कायम रख सकिएगा?" दूसरा बोला-"जी हाँ हुज़र,बहुत ठीक है। सामान तो सब तरह का इकट्ठा [ ३१ ]
करना ही चाहिए।" तीसरा बोला-"इन सजावटों के लिये लाख-पचास हजार रुपए आपके लिये क्या हक़ीकृत हैं। मैं हाल में लखनऊ गया था,एस० वी० कंपनी की दूकान पर शीशे-आलात वगैरह का नया चालान आया है। मैं समझता हूँ,आपके कमरों की सजावट के लिये पंद्रह-बीस हजार,के शीशे काफी होंगे।” बाबू साहब इन धूतों की चापलूसी पर फूल उठते थे। जिसने जो कुछ कहा,तत्काल उसे मंजूर कर लेते थे। आठ बार,नौ तेवहार लगे ही रहते थे। दिन बारा-बगीचों की सैर,यार दोस्तों के मेल-मुलाकात में बीतता था;रात नाच-रंग और जियाफ्तों की धूमधाम में कटने लगी।दिल्ली,घागरा,बनारस,पटना आदि के नामी तायके सदा के लिये अनंतपुर में बुलाकर टिका लिए गए। अपने घर का सब काम-काज देखना-भालना तो बहुत दूर रहा,बड़े बाबू साहब को हुडी-पुरज़ों पर दस्तखत करना भी निहायत नागवार होता था। मुनीम और गुमाश्तों की बन पड़ी। सब लोग अपना-अपना घर भरने लगे। इधर ये दोनो हाथों से दौलत को उलच-उलच फेकते थे,उधर मुनीम-गुमाश्ते तथा और कार्यकर्ता,जिनके भरोसे इन दोनों ने सब काम छोड़ रक्खा था अपना घर भरने लगे।इसी दशा में

हीराचंद के सुकृत धन का हाल सौ जगह से रसते हुए घड़े का-सा हो गया,जो देखने में कुछ नहीं मालूम होवा,किंतु थोड़े ही अरसे में घड़ा छूछे-का-छूछा रह जाता है। सच है[ ३२ ]

समायाति यदा लक्ष्मीर्नारिकेलफलाम्बुवत् ;

विनिर्याति यदा लक्ष्मीर्गजभुक्तकपिन्थवत् ।