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स्वदेश/पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता

विकिस्रोत से
स्वदेश
रवीन्द्रनाथ टैगोर, अनुवादक महावीर प्रसाद गहमरी

बंबई: हिंदी रत्नाकर कार्यालय, पृष्ठ ६२ से – ७३ तक

 

पूर्वी और पश्चिमी सभ्यता।

रासीसी विद्वान् गिजो ने यूरोपियन-सभ्यता की प्रकृति के सम्बन्ध में जो कुछ कहा है, वह हमलोगों के विचार और आलोचना करने की चीज है। पहले उन्हीं का मत नीचे लिखा जाता है।

वह कहते हैं कि इस नई यूरोपियन सभ्यता के पहले, क्या एशिया में और क्या अन्यत्र, यहाँ तक कि ग्रीस रोम में भी, तत्कालीन सभ्यता में एक प्रकार का एक-मुखी भाव दिखाई देता है। जान पड़ता है, जैसे हर एक सभ्यता एक ही मूल से निकली है और हर एक सभ्यता एक ही भाव के आधार पर टिकी हुई है। समाज के भीतर, उसके हर एक काम में, आचार-विचार में और उसके अङ्गों के विकास में, उसी एक स्थायी भाव का प्रभाव देख पड़ता है।

जैसे, ईजिप्त देश में एक पुरोहितों का शासन सारे समाज पर अधिकार जमाये बैठा था। उसके आचार-व्यवहार में, उसके कीर्ति-स्तम्भों में केवल पुरोहितों के शासन का ही प्रभाव देख पड़ता है। वैसे ही भारतवर्ष में ब्राह्मणो के शासन ने सारे समाज को एक ही भाव से संगठित कर दिया था।

यह नहीं कहा जा सकता कि समय समय पर, इन दोनों देशों के समाज में, भिन्न भिन्न शक्तियों में परस्पर विरोध नहीं उपस्थित हुआ; किन्तु उन शक्तियों को उक्त शासन-कर्ताओं के आगे हार ही माननी पड़ी। इस प्रकार एक भाव की हुकूमत से एक देश को एक तरह का तो दूसरे देश को दूसरी तरह का फल मिला है। सारे समाज में इसी भाव की एकता होने के कारण ग्रीस ने ऐसी तेजी से ऐसी अपूर्व उन्नति कर ली कि देखनेवाले दंग रह गये। पृथ्वी की और कोई जाति इतने थोड़े समय में इतना नहीं चमक सकी। किन्तु ग्रीस देश अपनी उन्नति की अन्तिम सीमा तक पहुँचते ही पहुँचते मानों बूढ़ा हो गया। उन्नति के समान उसकी अवनति भी बहुत ही जल्द हो गई। जिस मूल-स्वरूप एक-भाव ने ग्रीक-सभ्यता में जान डाली थी वह मानों जाता रहा––समाप्त हो गया। और किसी नवीन शक्ति ने आकर उसे बल नहीं दिया; न उसका स्थान ही ग्रहण किया।

दूसरी ओर, भारतवर्ष में क्या हुआ? ईजिप्त और भारतवर्ष की सभ्यता का मूलभाव एक होने पर भी भारत में उसका और ही फल हुआ। भारतवर्ष के उस एक मूल-भाव ने समाज को अचल-अटल बना रक्खा। उस मूल-भाव की सरलता से सब कुछ जैसे एक ही ढंग का, सबसे निराला, हो गया। देश का ध्वंस नहीं हुआ, समाज कायम रहा; किन्तु कुछ भी आगे नहीं बढ़ा। सारा का सारा समाज एक जगह पर मानो जकड़ गया।

जितनी प्राचीन सभ्यतायें हैं उनमें किसी एक का एकछत्र राज्य था । वह और किसी को अपने पास आने नहीं देता था। वह अपने चारों ओर मानों एक तरह का 'बेड़ा' बाँध रखता था। यह एकता, यह सरलता का भाव, साहित्य में तथा सब लोगों की बुद्धि और चेष्टा में भी अपना शासन जमाये रहता था। इसी कारण प्राचीन आर्यो के धर्म और चरित्र-सम्बन्धी ग्रंथो में, इतिहास में और काव्यों में, सब जगह एक ही चेहरा–एक ही ढंग–दिखाई पड़ता है। उनका ज्ञान, उनकी कल्पना, उनका जिन्दगी बिताने का ढंग और उनके कामकाज मानो एक ही साँचे में ढले हुए हैं। यहाँ तक कि ग्रीस में भी, वहाँ ज्ञान और बुद्धि का बहुत विस्तार हो जाने पर भी, उसके साहित्य और शिल्प में एक प्रकार का अद्भुत एकमुखी भाव देखा जाता है।

किन्तु यूरोप की आधुनिक नई सभ्यता ठीक इससे उलटी है। इस यूरोप की सभ्यता पर एक बार नजर डालो, देखोगे, वह बहुत ही विचित्र, पेचीली और क्षोभ को प्राप्त अर्थात् चञ्चल है। उसके भीतर समाज-तन्त्र के सभी प्रकार के मूल-तत्त्व मौजूद हैं। लौकिक शक्ति भी है और आध्यात्मिक शक्ति भी है। उसमें पुरोहित-शासन, राजशासन, प्रधान-शासन, प्रजाशासन, समाज-पद्धति के सभी सिलसिले––सभी अवस्थायें एक में जुड़ी हुई दिखाई पड़ती हैं। उसमें स्वाधीनता, ऐश्वर्य, और क्षमता (सामर्थ्य के) के सब दोंने क्रम से अपना स्थान ग्रहण कर लिया है। किन्तु ये सब विचित्र शक्तियाँ अपने अपने स्थान पर स्थिर नहीं हैं। ये आपस में बराबर लड़भिड़ रही हैं। तथापि इनमें से कोई भी शक्ति ऐसी प्रबल नहीं है जो और सब शक्तियों को दबा कर आप अकेले सारे समाज पर अपना अधिकार जमा सके। एक ही समय में एक ही जगह, पास ही पास ये सब विरोधी शक्तियाँ अपना अपना काम कर रही हैं। किन्तु इन सब शक्तियों में परस्पर इतनी विभिन्नता रहने पर भी इनके भीतर एक पारिवारिक सदृशता देख पड़ती है। ये सब यूरोपियन कहकर अपना परिचय देती हैं।

यूरोपके चरित्र में, मत में और भाव में भी इसी प्रकार की विचि- त्रता और विरोध है। यूरोप की ये शक्तियाँ नित्यप्रति परस्पर लाँघने की चेष्टा करती हैं, धक्का देती हैं और सीमाबद्ध करती हैं। एक दूसरी का रूप बदल देती हैं और एक दूसरी में घुसती हैं। एक ओर स्वतन्त्रता की अनन्त तृष्णा है और दूसरी ओर एकान्त अनुगामिता की शक्ति है। एक ओर मनुष्य मनुष्य में परस्पर अद्भुत विश्वास बन्धन है और दूसरी ओर सब बन्धनों से छूटकर संसार के और किसी की ओर न देखकर अकेले अपनी इच्छा के अनुसार चलने की उत्कट लालसा है। यूरोप का समाज जैसा विचित्र है वैसा ही उसका मन भी विचित्र है।

उसके साहित्य में भी वैसी ही विचित्रता है। यूरोप के साहित्य में मनुष्य के मन की चेष्टा बहुत तरह से बँटी हुई है। उसके विषय विविध प्रकार के हैं। उसकी गंभीरता दूर तक जानेवाली है। यही कारण है कि यूरोप के साहित्य का बाहरी आकार और आदर्श प्राचीन साहित्य की तरह विशुद्ध, सरल और सम्पूर्ण नहीं है। साहित्य और शिल्प में भाव की अभिव्यक्ति, सरलता और एकता से ही रचना का सौन्दर्य पैदा होता है। किन्तु वर्तमान यूरोप में भाव और भावना की बेहद बहुतायत से रचना की इस बड़ी विशुद्ध सरलता की रक्षा करना दिनों दिन कठिन होता जाता है।

आजकल की इस नई यूरोपियन-सभ्यता के हरएक अंगप्रत्यंग में हम इस विचित्र प्रकृति को देख पाते हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस विचित्रता में असुविधा भी है। इसके किसी एक अंश या अंग को अलग करके देखने से संभव है कि हम प्राचीनसमय के मुकाबले में छोटा देख पावें। किन्तु समप्रभाव से देखने पर अवश्य ही हमको इसका ऐश्वर्य जान पड़ेगा।

यूरोप की सभ्यता डेढ हजार वर्ष से टिकी हुई है और बराबर आगे बढ़ रही है। यह सच है कि ग्रीक-सभ्यता की तरह वैसी तेजी से यह नहीं चल सकती; किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि पग पग पर नई नई ठोकरें खाकर भी यह अबतक आगे ही को दौड़ रही है। दूसरी सभ्यताओं में, एकही भाव––एक ही आदर्श के एकाधिपत्य ने अधीनता का बन्धन खड़ा कर दिया। परन्तु यूरोप में, कोई भी एक सामाजिक शक्ति दूसरी शक्तियों को पूर्णरूप से दबा नहीं सकती––सब शक्तियाँ परस्पर धातप्रतिघात से सचेत और संयत बनी रहती हैं। इस कारण यूरोप की सभ्यता से स्वाधीनता की सृष्टि हुई है। सदा का झगड़ा देखकर उन सब परस्पर विरोधी शक्तियों ने, आपस में कुछ समझौता करके, समाज के भीतर अपना अपना स्थान नियत कर लिया है। यही कारण है कि वे शक्तियों, एक दूसरी की, जड़ उखाड़ने की चेष्टा में नहीं लगी रहतीं। वहाँ अनेक तरह के परस्पर विरुद्ध दल अपनी स्वतन्त्रता बनाये रहकर काम कर सकते हैं।

यही इस नई यूरोपियन-सभ्यता की मूल-प्रकृति है और यही इसकी श्रेष्ठता है।

गिजो महाशय यह भी कहते हैं कि इस विचित्रता या विभिन्नता का संग्राम सारे विश्व ही में चल रहा है। यह तो स्पष्ट रूप से प्रकट है कि किसी भी एक ही नियम ने, एक ही प्रकार से संगठन करने की शक्तिने, एक ही सरल भा वने या एक ही विशेष शक्ति ने ऐसी क्षमता नहीं पाई कि यह सारे विश्व पर अकेले अपना अधिकार जमाकर––उसे एक ही कठिन साँचे में ढालकर––सारे विरोधी प्रभावों को हटाकर शासन कर सके। विश्व में देखिए, अनेक शक्तियाँ, अनेक तत्व, अनेक शासन-सन्त्र जुटकर युद्ध करते हैं––परस्पर एक दूसरे को संगठित करते हैं। कोई किसी को पूर्णरूप से नहीं दबाता और न आप ही दबता है।

तथापि उन सब संगठन-शक्तियों, तत्त्वों और भावों की विचित्रता––उनका संग्राम और गति एक ही लक्ष्य-एक ही आदर्श–की ओर है। आधुनिक यूरोपियन–सभ्यता इसी विश्व-शासन का प्रतिबिम्ब कही जा सकती है। यह संकुचितरूप से सीमाबद्ध नहीं है, एकनिष्ठ नहीं है और स्थिर भी नहीं है। जगत में यह पहला ही अवसर है कि सभ्यता अपने विशेष रूप को छोड़कर इस तरह दिखाई पड़ी है। जगत् में यह पहली ही बार विश्वलीला के विकास की तरह बहुविभक्त, विपुल और बहुचेष्टा-सम्पादित सभ्यता का सुन्दर विकास हुआ है। यूरोपियन सभ्यता ने इस प्रकार सनातन सत्य की राह पाई है। उसने जगदीश्वर की कार्यप्रणाली का ढंग पकड़ा है। ईश्वर ने जो मार्ग बनाया है उसी पर यह सभ्यता आगे बढ़ रही है। इस सभ्यता की श्रेष्ठता इस सत्य के ऊपर निर्भर है।

हमने यह गिजोका मत आपको सुना दिया।

इसमें सन्देह नहीं कि यूरोपियन सभ्यता ने इस समय बहुत बड़ा आकार धारण कर लिया है––अर्थात् दूर तक फैली हुई है। यूरोप, अमेरिका और आस्ट्रेलिया, ये तीन महादेश इस सभ्यता का पालन-पोषण करनेवाले हैं। इतने भिन्नभिन्न अनेक देशों में एक महा-सभ्यता की स्थापना–ऐसी अद्भुत विराट् घटना–अब से पहले कभी नहीं हुई। तब फिर किसके साथ तुलना करके इसका विचार करें? किस इतिहास की साक्षी लेकर इसके परिणाम का निर्णय करें? और सब सभ्यतायें तो एक ही देश की, एक ही जाति की हैं। जो जाति जब तक ईंधन जुटाती रही तबतक उसकी सभ्यता धधकती, अपना प्रकाश फैलाती रही, उसके बाद या तो वह बुझ गई और या राख के नीचे दब गई है। यूरोपियन सभ्यता यज्ञ के लिए लकड़ी जुटाने का भार अनेक देशों और अनेक जातियों ने अपने ऊपर लिया है। इसीसे नहीं कहा जा सकता कि यह यज्ञ की भाग बुझ जायगी अथवा फैलकर सारी पृथ्वी को ग्रस लेगी। किन्तु इस सभ्यता के भीतर भी एक ऐसी शक्ति या एक ऐसा भाव है जो सब पर कर्तृत्व कर रहा है––हुकूमत चला रहा है। कोई भी सभ्यता बिना आकार-प्रकार की नहीं हो सकती। इसीसे कहते हैं कि इसके मूल में भी अवश्य ऐसी एक शक्ति है जो इसके सब अङ्ग-प्रत्यङ्गों को चला रही है। उस शक्ति के बढ़ने-घटने पर ही इस सभ्यता की उन्नति या विनाश निर्भर है। वह शक्ति क्या है? इस सभ्यता की अनेक विचित्र चेष्टा और स्वतन्त्रता के भीतर वह एक-शासन कहाँ पर है?

यूरोपियन सभ्यता को हरएक देश में अलग अलग खण्ड खण्ड करके देखने से और सभी बातों में उसकी स्वतन्त्रता या विभिन्नता देख पड़ती है; केवल एक ही मामले में उसका एकमुखी भाव या एकता पाई जाती है। वह मामला है राष्ट्र के स्वार्थ का––राष्ट्र के हानि लाभ का।

चाहे इंग्लेंड में हो, चाहे फ्राँस में; और सभी मामलों में सर्व साधारण एकमत शायद नहीं हो सकते––एक दूसरे पर विश्वास नहीं कर सकते। मगर इसमें कहीं भी, कुछ भी, मतभेद न होगा कि अपने राष्ट्र के स्वार्थ की रक्षा जी जान से करनी चाहिए।यूरोपियन लोग इसी जगह पर एकाग्र हैं। यहीं पर वे प्रबल हैं, निष्ठुर हैं। राष्ट्रीय स्वार्थ को धक्का पहुँचते ही सारा देश एक हो जाता है––भिड़ने के लिए, प्रतीकार करने के लिए, कमर कसकर खड़ा हो जाता है। जाति की रक्षा करने का संस्कार जैसे हमारी अस्थि मज्जा में बस गया है वैसे ही राष्ट्र के स्वार्थ की रक्षा करना यूरोप-निवासी सर्व साधारण का जातीय भाव हो गया है।

यह निर्णय करना कठिन है कि इतिहास के किस निगूढ़ नियम से किस देश की सभ्यता ने किस भाव को ग्रहण किया; किन्तु यह अच्छी-तरह से निश्चित है कि जब वह (सभ्यता का) भाव अपने से ऊँचे भाव का गला घोटने लगता है तब उसपर टिकी हुई सभ्यता का नाश निकट आने लगता है।

हरएक जाति का जैसे एक जातिधर्म होता है, वैसे ही, जातिधर्म से भी बड़ा एक श्रेष्ठ धर्म भी होता है। वह श्रेष्ठ-धर्म एक ही जाति का नहीं, सम्पूर्ण मनुष्य मात्र का धर्म है। हमारे देश के वर्णाश्रम धर्म ने जब उस श्रेष्ठ-धर्म को–सर्वसाधारण के धर्म को–हानि पहुँचाई तब उसने भी इस पर चोट चलाई। कहा ही है:––

धर्म एव हतो हन्ति धर्मों रक्षति रक्षितः।

एक समय आर्य-सभ्यता ने ब्राह्मण आदि द्विजों और शूद्रों के बीच एक दुर्लद्धय दीवार खड़ी कर दी थी। किन्तु धीरे धीरे उस दीवार ने वर्णाश्रम धर्म से भी ऊँचे धर्म को सताना या हानि पहुँचाना शुरू किया। वर्णाश्रम धर्म ने अपनी रक्षा करने की चेष्टा की; किन्तु उस श्रेष्ठधर्म की रक्षा पर कुछ ध्यान नहीं दिया। उसने जब शूद्र को ऊँचे दरजे के मनुष्यत्व की चर्चा से एकदम वञ्चित करना चाहा, तब धर्म ने उसका बदला लिया। उस समय ब्राह्मण अपने ज्ञानधर्म को लेकर पहले की तरह आगे नहीं बढ़ सके। अज्ञान से जड़ बने हुए शूद्र सम्प्रदाय ने समाज को खूब जोर से पकड़कर नीचे की ओर खींच लिया। ब्राह्मण ने शूद्र को ऊपर चढ़ने नहीं दिया। फल यह हुआ कि शूद्र ने ब्राह्मण को नीचे घसीट लिया। भारतवर्ष में आज भी, वर्णाश्रम-धर्म में ब्राह्मणों की प्रधानता रहने पर भी, निकृष्ट अधिकारियों की अज्ञता में शूद्र-संस्कारों से ब्राह्मण-समाज तक घिरा हुआ और फँसा हुआ है।

अँगरेजों के यहाँ आने पर जब हरएक के लिए ज्ञान प्राप्त करने का द्वार खुल गया, जब सभी मनुष्य मनुष्यत्व प्राप्त करने के अधिकारी समझे जाने लगे तब ब्राह्मणों के भी सचेत होने के लक्षण दिखाई पड़े आज ब्राह्मण से शूद्र तक, सब मिलकर, हिन्दूजाति के अन्तर्निहित आदर्श की विशुद्ध मूर्ति को देखने के लिए चेष्टा करने लगे हैं––सब जाग उठे हैं। शूद्र लोग आज जाग रहे हैं, इसी से ब्राह्मण लोग भी जागने की चेष्टा में आँखें खोल रहे हैं।

जो कुछ हो, हमारे वर्णाश्रम-धर्म के संकुचित भाव ने नित्यधर्म को बहुत जगह पर दबा लिया था। इसी कारण वह वर्णाश्रम-धर्म उन्नति की ओर न जाकर बिगड़ने ही की ओर लुढ़क पड़ा।

हमको यह याद रखना चाहिए कि यूरोपियन सभ्यता का मूल आधार राष्ट्रीय स्वार्थ है, वह राष्ट्रीय स्वार्थ यदि इतना अधिक फैले कि वह नित्य-धर्म की सीमा को लाँघने लगे तो उसमें अवश्य विनाश का छिद्र दिखाई देगा और उसी छिद्र से उस पर 'साढ़साती' सनीचर की दृष्टि पड़ेगी।

स्वार्थ का स्वभाव ही विरोध है। यूरोपियन सभ्यता की हरएक सीमा में वह विरोध दिनों दिन बढ़ता ही जाता है। पृथ्वी के लिए एक समय इन यूरोपियन जातियों में परस्पर धक्कमधक्का और छीना-झपटी होने की सूचना अभी से मिल रही है।

यह भी देख पड़ता है कि इस राष्ट्रीय-स्वार्थपरता अर्थात् खुदगर्जी ने नित्य-धर्म को खुलासा तौर पर नीचा दिखाना––न मानना शुरू कर दिया है। "जिसकी लाठी उसकी भैंस" वाली नीति का अनुमोदन करने में अब वह नहीं शरमाती या सङ्कोच करती।

यह भी स्पष्ट ही देखा जाता है कि यह बात एक प्रकार से सर्व- सम्मत होती जाती है कि जो उदार धर्म नीति व्यक्तिविशेष के लिए ग्राह्य है वही नीति राष्ट्रीय मामलों में, आवश्यकता के अनुरोध से अग्राह्य है। राष्ट्रतन्त्र में मिथ्या आचरण, प्रतिज्ञाभङ्ग और दगाबाजी भी एक प्रकार की पालिसी समझी जाती है। जो जातियाँ, मनुष्य को मनुष्य के साथ सत्य व्यवहार करना चाहिए––इस पक्ष का समर्थन करती हैं, न्याय-पर चलना ही श्रेय समझती हैं वे भी राष्ट्रतन्त्र में धर्मज्ञान को उठाकर अलग आले में रख देती हैं। यही कारण है कि फरासीसी, अँगरेज, जर्मन और रूसी––सब, एक दूसरे को कपटी, धूर्त और दगाबाज आदि कहकर जोर जोर से गालियाँ देते हैं।

इससे यही सिद्ध होता है कि यूरोप की सभ्यता ने राष्ट्रीय स्वार्थ को इतनी अधिक प्रधानता दे डाली है कि अब उसने धीरे धीरे बढ़कर ध्रुव-धर्म के ऊपर हाथ साफ करना शुरू किया है। अब पिछली सदी का 'साम्य' और 'भ्रातृभाव' का मन्त्र यूरोप की दृष्टि में 'दिल्लगी की बात' हो गया है। अब ईसाई पादरियों के मुँह से भी 'भाई' शब्द बेसुरा निकलता है।

प्राचीन ग्रीक और रोमन सभ्यता भी इसी राष्ट्रीय स्वार्थ से संगठित हुई थी। इसी कारण, राष्ट्रीय महत्त्व मिटने के साथ ही, ग्रीक और रोमन सभ्यता का भी अंत हो गया। किन्तु हमारी हिन्दू-सभ्यता राष्ट्र-सम्बन्धी एकेपर नहीं प्रतिष्ठित है। यही कारण है कि "हम, चाहे स्वाधीन रहें; चाहे पराधीन; हिन्दू-सभ्यता को अपने समाज के भीतर फिर वैसी ही सजीव मूर्ति में दिखा सकते हैं।" यह आशा, हमारे लिए, दुराशा नहीं है––'बौने की चाँद पकड़ने की अभिलाषा' नहीं है।

नेशन (Nation) शब्द हमारी भाषा में नहीं है। वह हमारे देश की चीज ही नहीं है। आजकल हम लोगों ने, अँगरेजी शिक्षा के फसले, नेशनल (National), नेशनॅलिटी (Nationality) आदि शब्दों का बहुत अधिक आदर करना सीख लिया है। मगर कमी यही है कि उनका आदर्श हमारे देश में हमारे अन्तःकरण में नहीं है। हमारा इतिहास, हमारा धर्म, हमारा समाज, हमारा घर, कोई भी नेशन गढ़ने की प्रधानता को स्वीकार नहीं करता। यूरोप में स्वाधीनता को जो स्थान मिला है वही स्थान हमारे यहाँ मुक्ति को दिया गया है। हम लोग आत्मा की स्वाधीनता को ही मुख्य मानते हैं। उसके सिवा, अन्य किसी स्वाधीनता को हम नहीं मानते। शत्रु, वह चाहे भीतरी हो या बाहरी, उसके बन्धन में पड़ना ही पराधीनता है। काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं का बन्धन काट डालने पर हम लोग बड़े बड़े राजा महाराजाओं से भी श्रेष्ठ पद पा जाते हैं। हमारे यहाँ हरएक गृहस्थ यह सोचता है कि सारे संसार के प्रति कुछ-न-कुछ मेरा कर्तव्य है। वह अपने नित्य के कार्यों से ही जगत् का कार्य करता है। हमने घर के भीतर ही सारे ब्रह्माण्ड और उसके स्वामी की स्थापना कर ली है। हमारे सबसे प्रधान कर्तव्य का उल्लेख या आदर्श इसी एक मन्त्र में कह दिया गया है:––

ब्रह्मनिष्ठो गृहस्थ: स्यात् तत्त्व-ज्ञान-परायणः।
यत् यत् कर्म प्रकुर्वीत तत् ब्रह्मणि समर्पयेत्॥

(अर्थ––तत्त्व अर्थात् सत्य के ज्ञान में लगा रहकर, गृहस्थ और ब्रह्मनिष्ठ होकर, जो कुछ काम करे वह ब्रह्मार्पण कर दे।)

इस आदर्श को ठीक ठीक बनाये रखना नेशनल कर्तव्य से कहीं अधिक कठिन और बड़ा है। इस समय यह आदर्श हमारे समाज में सजीव नहीं है। इसी कारण हम यूरोप की सभ्यता को सतृष्ण दृष्टि से देख रहे हैं। यदि हम अपने इस आदर्श को अपने घरों में सजीव-भाव-से स्थापित कर सकें तो फिर हमको तोप, बन्दूक और गोलागोली की सहायता से बड़े होने की जरूरत न पड़ेगी। तब हम वास्तव में स्वाधीन और स्वतन्त्र होंगे––अपने विजेताओं से किसी बात में घटकर नहीं रहेंगे। हमको याद रखना चाहिए कि दर्ख्वास्त या अर्जी देकर जो कुछ उनसे पावेंगे उससे हमारा कुछ भी बड़प्पन न होगा। पन्द्रह-सोलह शताब्दी कुछ बहुत अधिक समय नहीं है। नेशन ही जिसका विकास है उस पाश्चात्य सभ्यता की पूरी परीक्षा अभी तक नहीं हुई। इसी बीच में देख पड़ता है कि उसके चरित्र या चालचलन का आदर्श श्रेष्ठ नहीं है। वह अन्याय, अविचार और मिथ्या में डूबी हुई है और उसकी नस-नस में एक प्रकार की भयानक निठुराई लहरा रही है।

इस नेशनल आदर्श को ही अपना आदर्श मानने से हम लोगों में भी मिथ्या का प्रभाव बढ़ता जाता है। हमारी राष्ट्रीय सभाओं में अनेक प्रकार के झूठों का प्रादुर्भाव हो रहा है––जालसाजी और अपने को छिपाने की चेष्टा हो रही है। हम सच बात को साफ साफ कह देना भूलते जाते हैं। हम लोग आपस में कानाफूसी करने लगे हैं कि अपने, व्यक्तिगत, स्वार्थ के लिए जो दूषण है वहीं राष्ट्रीय स्वार्थ के लिए भूषण है।

असल बात यह है कि हरएक सभ्यता का एक-न-एक मूल या आधार अवश्य है। अब विचारना केवल यही है कि वह मूल या आधार धर्म के ऊपर स्थित है या नहीं? यदि वह उदार और व्यापक नहीं है, यदि वह धर्म को हानि पहुँचाता हुआ बढ़ रहा है तो उसकी वर्तमान उन्नति देखकर हमको उस पर लट्टू न हो जाना चाहिए––उसीको एकमात्र अभीष्ट न समझ लेना चाहिए।

हमारी हिन्दू सभ्यता की जड़ समाज है और यूरोपियन सभ्यता की जड़ राष्ट्रनीति है। सामाजिक महत्त्व से भी मनुष्य अपने गौरव को बढ़ा सकता है और राष्ट्रनीतिक महत्त्व से भी। किन्तु यदि हम यह समझें कि यूरोपियन साँचे में 'नेशन' गढ़ लेना ही सभ्यता का स्वभाव और मनुष्यत्व का एकमात्र लक्ष्य है तो वह हमारा भारी भ्रम है।