स्वदेश/ब्राह्मण

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ब्राह्मण।

बको मालूम है कि अभी हाल में (सन् १९०१ ई॰ में) किसी महाराष्ट्र ब्राह्मण को उस के मालिक ने जूता मारा था। इसका मुकद्दमा हाईकोर्ट तक पहुँचा, और अन्त को जज साहब ने मामले को मामूली बात कहकर मिटा दिया।

बात इतनी लज्जा की है कि मैं इस मासिक पत्र में (बंग-दर्शन में) इसकी चर्चा कभी न करता। मार खाकर मारना उचित है या रोना, अथवा नालिश करना—इन बातों की आलोचना समाचार पत्रों में हो चुकी है। मैं इन बातों की चर्चा करना भी नहीं चाहता। मगर इस घटना को देखकर मेरे मन में जो तरह तरह के विचार उठ रहे हैं, उन्हें प्रकट कर देने का यही ठीक समय है।

विचारक ने इस घटना को एक साधारण घटना बतलाया। मैं देखता हूँ कि इस घटना को समाज ने भी साधारण ही समझ लिया। इसलिए विचारक ने जो कहा सो सच ही कहा। जो कुछ हो; इस घटना के तुच्छ माने-जाने से यह मालूम हो गया कि हमारे समाज का विकार बड़ी तेजी से बढ़ रहा है।

अँगरेज लोग जिसे प्रेस्टिज, अर्थात् अपना राज-सम्मान, कहते हैं उसे वे बहुत कीमती समझते हैं। क्यों कि उनका यह प्रेस्टिज बहुधा एक फौज का काम देता है। उनकी यह नीति है कि जिसको [ ७५ ]अपने हुक्म पर चलाना है उस पर प्रेस्टिज रखना चाहिए। बोअरों से जब लड़ाई हो रही थी, और उसके आरम्भ ही में अँगरेज साम्राज्य मुट्ठी भर किसानों के हाथ से बार बार अपमानित हो रहा था उस समय अँगरेज लोग भारतवर्ष में जितना संकोच कर रहे थे उतना और कहीं नहीं। उस समय सभी हिन्दुस्तानी समझ रहे थे कि अब अँगरेजों का बूट जूता इस देश में पहले की तरह जोर से नहीं मचमचाता।

हमारे देश में एक समय ब्राह्मणों का भी वैसा ही एक प्रकार का प्रेस्टिज था। क्योंकि समाज-सञ्चालन का भार ब्राह्मणों ही के ऊपर था। जब-सक समाज में उनका प्रेस्टिज था तबतक किसी ने इस पर ध्यान ही नहीं दिया कि ब्राह्मण लोग ठीक ठीक समाज की रक्षा करते हैं कि नहीं, और समाज की रक्षा करने वाले में जिन जिन निःस्वार्थ श्रेष्ठ गुणों का होना जरूरी है वे उनमें हैं कि नहीं। अँगरेजों के लिए उनका प्रेस्टिज जैसे बहुमूल्य है वैसे ही ब्राह्मणों के लिए उनका प्रेस्टिज भी है।

हमारे देश में समाज का संगठन जिस ढंग से हुआ है उससे समाज को इसकी जरूरत भी है। और इसके आवश्यक होने के कारण ही समाज ने ब्राह्मणों को इतना सम्मान दिया था। हमारे देश का समाजतन्त्र एक विराट् व्यापार है। इसी ने सारे देश को नियमवद्ध करके धारण कर रक्खा है। यही विशाल लोक-सम्प्रदाय को अपराध और अधःपतन से बचाने की चेष्टा करता आ रहा है।यदि ऐसा न होता तो अँगरेज लोग अपनी पुलिस और फौज के द्वारा ऐसी आश्चर्यजनक शान्ति यहाँ कभी न स्थापित कर पाते। नवाबों और बादशाहो की अमलदारी में भी, अनेक प्रकार की राजकीय अशान्ति रहने पर भी, सामाजिक शान्ति वैसी ही चली आती थी। उस समय भी हमारा लोकव्यवहार शिथिल नहीं हुआ था, लेनदेन और व्यवहार में सफाई और सचाई का [ ७६ ]ख़याल रहता था, झूठी गवाही देना निन्दित समझा जाता था, कर्जदार महाजन को अँगूठा नहीं दिखाता था और साधारण धर्म के सब नियमों पर सब लोगों को सहज सरल विश्वास था।

पूर्वी स्वभाव के अनुकूल यह समाज की व्यवस्था यदि निन्दनीय न समझी जाय तो इसके आदर्श को सदा विशुद्ध बनाये रखने का–– इसका सिलसिला या क्रम ठीक रखने का भार किसी एक खास सम्प्रदाय को अवश्य ही सौंपना पड़ता है। उस सम्प्रदाय के लोगों से यह आशा की जाती है कि वे अपने निर्वाह के ढंग को यथा संभव सरल और विशुद्ध बनाकर––जरूरतों को घटाकर––पढ़ने पढ़ाने और यजन-याजन को ही अपने जीवन का व्रत समझकर––देश के उच्चतम आदर्श को सब तरह की दूकानदारी के दूषित स्पर्श से बचाकर अपने को उस सम्मान का यथार्थ अधिकारी बनावेंगे जो उन्हें समाज से प्राप्त हुआ है।

अपने दोष से ही लोगों को अपना असली अधिकार गँवाना पड़ता है। अँगरेजों के सम्बन्ध में भी यही बात देखी जाती है। देशी आदमी पर अन्याय करके जब कोई अँगरेज प्रेस्टिज की दुहाई पर दण्ड से छुटकारा चाहता है तब वह वास्तव में अपने को सच्चे प्रेस्टिज के अधिकार से वञ्चित करता है। न्यायनिष्ठा का प्रेस्टिज सब प्रकार के प्रेस्टिजों-से बड़ा है। उसके आगे हमारा मन आप ही आप सिर झुकाता है। और, भय का प्रेस्टिज जबरदस्ती गरदन पकड़कर सिर झुकवाता है। इस प्रकार जबरदस्ती सलाम कराने की बेइज्जती के विरुद्ध हमारा मन भीतर ही भीतर विद्रोही बने बिना नहीं रह सकता।

ब्राक्षणों ने भी जब अपने कर्तव्य को छोड़ दिया है तब वे केवल बदन के जोर से, परलोक का भय दिखाकर समाज के सर्वोच्च आसन पर अपने को नहीं रख सकते। [ ७७ ]कोई सम्मान बेदाम का नहीं होता। मनमाने काम करके सम्मान कायम नहीं रक्खा जा सकता। जो राजा सिंहासन पर बैठता है वह दूकान खोलकर व्यापार नहीं कर सकता। जो सम्मान पाने का अधिकारी है उसे सब ओर से अपनी इच्छा को दबाकर चलना पड़ता है। हमारे देश में घर के और और लोगों की अपेक्षा घर के मालिक और मालकिन को ही सांसारिक सुख-भोग से, अधिक वञ्चित रहना पड़ता है। घर की मालकिन सबके पीछे भोजन करती है। यदि मालिक या मुखिया बनने में कुछ भी स्वार्थ त्याग न हो तो कोरे रोबदाब से ही हुकूमत नहीं चलाई जा सकती––सम्मान नहीं रह सकता। सम्मान भी लोगे और उसका कुछ मूल्य भी न दोगे; यह जबरदस्ती बहुत दिनोंतक कभी नहीं चल सकती।

हमारे समाज के आधुनिक ब्राह्मणों ने बिना दाम दिये सम्मान प्राप्त करने का ढंग पकड़ा था। इसका फल यह हुआ कि समाज में उनका सम्मान दिनों-दिन घटकर अब जबानी जमाखर्च के रूप में रह गया है। इतना ही नहीं, ब्राह्मणलोग समाजके जिस उच्च कर्म पर नियुक्त थे उसमें शिथिलता आजाने से समाज के जोड़ भी खुलते जाते हैं।

यदि पूर्वी भाव से ही हमारे देश में समाज की रक्षा करनी हो––यदि यूरोपियन ढंगसे इस बहुत दिनोंके बड़े समाज को जड़ से बदल देना संभव या मुनासिब न हो––तो यथार्थ ब्राह्मण-सम्प्रदाय की बड़ी जरूरत है। वे गरीब होंगे, पण्डित होंगे, धर्म में निष्ठा रखनेवाले होंगे, सब प्रकार से वर्णाश्रम-धर्म के आदर्श, आधार और गुरु होंगे।

जिस समाज का एक दल धन और मान की पर्वा नहीं रखता, भोग-विलास को धृणा की दृष्टि से देखता है, निःस्वार्थ भाव से ज्ञानका उपार्जन करके निःस्वार्थ भाव से ही औरों को ज्ञान-प्रदान किया करता है, आचार[ ७८ ]विचार में शुद्ध और धर्म-निष्ठा में दृढ़ है,––पराधीनता या गरीबी से उस समाज की कोई बेइज्जती नहीं है। समाज जिन लोगों को सच्चा सम्मान देता है उन्हीं से वह सम्मानित होता है।

सभी समाजों में मान्य व्यक्ति ही––श्रेष्ठ लोग ही अपने अपने समाज के स्वरूप हैं। इँग्लेंड को जब हम धनी कहते हैं तब वहाँ के असंख्य गरीबों की गिनती नहीं करते। यूरोप को जब हम स्वाधीन कहते हैं तब उसके असंख्य साधारण मनुष्यों की पराधीनता पर ध्यान नहीं देते। वहाँ ऊपर के कुछ ही आदमी धनी हैं, उच्च श्रेणी के कुछ आदमी ही स्वाधीन हैं, ऊपर के कुछ आदमी ही पशुपने से बरी हैं। ये ऊपर के कुछ आदमी जबतक नीचे के बहुत से लोगों को सुख स्वास्थ्य और ज्ञान, धर्म देने के लिए अपनी इच्छा का प्रयोग और अपने सुख भोग को संयत बनाये रखते हैं तब तक उस सभ्य समाज को कुछ भय नहीं है।

यूरोपियन समाज इसी तरह चलता है कि नहीं, इसकी आलोचना व्यर्थ मालूम हो सकती है; किन्तु वह बिलकुल व्यर्थ नहीं है।

जहाँ चढ़ा ऊपरी के मारे पास के आदमी को पीछे करके आगे निकल जाने की अत्यन्त प्रबल इच्छा में हर एक को हर घड़ी भिड़ना पड़ता है वहाँ कर्तव्य के आदर्श को विशुद्ध बनाये रखना बहुत ही कठिन है। और, वहाँ किसी एक सीमा पर आकर आशा को सँभालना या रोकना भी मनुष्य के लिए दुःसाध्य हो जाता है।

यूरोप के बड़े बड़े साम्राज्य एक दूसरे से आगे बढ़ जाने के लिए जी जान से चेष्टा कर रहे हैं। ऐसी अवस्था में यह बात किसी के मुँह से नहीं निकल सकती कि हम पिछड़ कर प्रथम श्रेणी से दूसरी श्रेणी में भले ही आ जायँगे, परन्तु अन्याय नहीं करेंगे। ऐसी बात किसी के [ ७९ ]मनमें आही नहीं सकती कि हम जल और स्थल की सेना कम करके राजकीय शक्ति में परोसी के निकट छोटा बनना भले ही स्वीकार कर लेंगे, परन्तु समाज के भीतर सुख-सन्तोष और ज्ञान-धर्म का अधिकाधिक प्रचार अवश्य करेंगे। चढ़ा ऊपरी या लागडाँट के आकर्षण में जो जोश उत्पन्न होता है वह सोचने विचारने का अवकाश नहीं देता––बराबर हाँ के चला जाता है। यूरोप इसी अंधाधुंध गति से चलने को ही उन्नति कहता है। हम लोगों ने भी इसी को उन्नाते कहना सीख लिया है।

किन्तु जो चाल पग पग पर थमने के द्वारा नियमित नहीं उसको उन्नति नहीं कह सकते। जिस छन्द में विश्राम नहीं वह छन्द ही नहीं हो सकता। समाज के पैरों के पास भले ही सागर लहरें मारा करे––फेन फेका करे, मगर समाज के सर्वोच्च शिखर पर शान्ति और स्थिति का सनातन आदर्श नित्य विराजमान रहना चाहिए।

उस आदर्श को कौन लोग अटल और सुरक्षित रख सकते हैं? इसका उत्तर यही है कि जो लोग पीढ़ी-दर-पीढ़ी से स्वार्थ की पर्वा नहीं रखते, पैसा पास न होना ही जिनकी प्रतिष्ठा है, मङ्गल के–पुण्य के–कामों को जो लोग बाजारू सौदा नहीं समझते, विशुद्ध ज्ञान और उन्नत धर्म में जिनका चित्त रमा रहता है, और अन्य सब छोड़कर समाज के सर्वोच्च आदर्श की रक्षा करने के महान् भाव ने जिनको पवित्र और पूजनीय बनाया है वे ही उस आदर्श को अटल और सुरक्षित रख सकते हैं।

यूरोप में भी, विश्राम रहित कर्म की हलचल में, बीच बीच में एक दो ऐसे विचारशील बुद्धिमान् देख पड़ते हैं जो धुमनी के उन्मत नशे में स्थिति के आदर्श, लक्ष्य के आदर्श और उन्नति या परिणति के आदर्श को पकते हैं। किन दो घड़ी खड़े होकर उनकी सुनेगा कौन? सम्मिालेत सुवृहत् [ ८० ]स्वार्थ के प्रचण्ड वेग को इस प्रकार के दो-एक आदमी उँगली उठाकर कैसे रोक सकते हैं? व्यापारी जहाज की 'पाल' में उनचासों पवन लग रहे हैं। यूरोप के मैदान में उन्मत्त दर्शकों के बीच कतार बाँधे जंगी घोडो की दौड़ हो रही है। इस समय घड़ी भर के लिए कौन ठहरेगा?

हमारे मन में भी यह कल्पना उठती है कि इस उन्मत्त-भाव में–– इस प्रकार जी-जान से अपनी शक्ति को एकदम उन्मुक्त कर देने में आध्यात्मिक भाव का जन्म हो सकता है। इस वेग का आकर्षण अत्यन्त अधिक है। वह हम लोगों को लुभाता है। हम लोगों को यह सन्देह ही नहीं होता कि यह वेग प्रलय की ओर भी जा सकता है।

यह वेग या जोश किस प्रकार का है? यह उसी तरह का है जैसे गेरुए कपड़े पहने हुए फकीरों का एक दल, जो अपने को साधु और साधक बतलाता है, गाँजे के नशे को आध्यात्मिक आनन्द-लाभ की साधना समझता है। यह सच है कि नशे से एकाग्रता और उत्तेजना भी होती है, किन्तु उससे आध्यात्मिक आनन्द-लाभ कैसा, उलटे आध्यात्मिक स्वाधीन सब लता की मात्रा घटती जाती है। और सब कुछ छोड़ा जा सकता है; मगर यह नशे की उत्तेजना नहीं छोड़ी जा सकती। धीरे धीरे मन का स्वाभाविक बल जितना घटता जाता है उतना ही नशे की मात्रा बढ़ानी पड़ती है। हिलडुलकर, नाचकर, या जोर से बाजा बजाकर अपने को बदहवास और मूच्छित सा बनाकर जिस धर्मोन्माद का सुख भोगा जाता है वह भी बनावटी है।उसका अभ्यास बढ़जाने पर, वह, अफीम के नशे की तरह, थकावट के समय केवल एक प्रकार की ताड़ना किया करता है। यह बात सर्वथा सत्य है कि आत्मगत एकनिष्ठ साधना के बिना यथार्थ स्थायी और कीमती [ ८१ ]कोई चीज नहीं मिलती; और, न किसी स्थायी और कीमती चीज की रक्षा ही की जा सकती है।

किन्तु उत्तेजना के बिना काम, और काम के बिना समाज, नहीं चल सकता। इसी कारण भारतवर्ष ने अपने समाज में गति और स्थिति का सामञ्जस्य रखना चाहा था। क्षत्रिय, वैश्य आदि जो लोग अपने हाथ से समाज का काम करते हैं उनके कर्म की सीमा निश्चित और नियत थी। इसी से क्षत्रियलोग क्षात्र-धर्म के आदर्श की रक्षा करते हुए अपने कर्तव्य की गिनती धर्म में कर सकते थे। स्वार्थ और प्रवृत्ति के ऊपर धर्म रूप कर्तव्य को स्थापित करने से कर्म में भी विश्राम और आध्यात्मिकता पाने का अवकाश मिलता है।

यूरोपियन समाज जिस नियम से चलता है वह नियम, गति से पैदा हुए एक विशेष झोंक की ओर ही समाज के अधिकांश लोगों को ठेल देता है। वहाँ, दिमाग से काम करने वाले लोग राष्ट्रीय मामलों की ओर ही झुक पड़ते हैं है––साधारण लोग धन कमाने में ही जुट जाते हैं। वर्तमान समय में साम्राज्य-लोभ ने सबको ग्रस लिया है और जगत् भर को बाँट लेने की काररवाई चल रही है। ऐसा भी समय आना आश्चर्य नहीं है, जब विशुद्ध ज्ञान-चर्चा में काफी आदमी मन न लगावें। ऐसा भी समय आ सकता है, जब जरूरत पड़ने पर भी सैनिक न मिलें। क्योंकि प्रवृत्ति के प्रबल वेग को कौन रोक सकेगा? जो जर्मनी एक दिन पण्डित था वह जर्मनी यदि बनिया बनकर बैपार-की ओर ही झुक पड़े तो उसके पाण्डित्य का उद्धार कौन करेगा? जिन अँगरेजों ने एक दिन क्षत्रिय-भाव से आर्त की रक्षा करने का व्रत ग्रहण किया था, वे जब शरीर के बल से चारों ओर अपनी दुकानदारी चलाने को दौड़ पड़े हैं, तब कौन शक्ति उनसे उनके उस पुराने क्षत्रिय-भाव को लौटा लावेगी? [ ८२ ]इस झोंक पर ही सब कुछ करने-धरने का भार न डालकर संयत सुशृंखला-युक्त कर्तव्य-व्यवस्था पर करने-धरने का भार देना ही भारतवर्ष के समाज का नियम या ढंग है। समाज यदि सजीव रहे , बाहरी आघात से बदहवास न हो जाय तो इसी नियम या ढंग से सब समय समाज में सामञ्जस्य बना रहता है––उसमें एक ओर खलबली मच जाने से वह दूसरी ओर शून्य नहीं हो जाता। समाज के सभी लोग अपने आदर्श की रक्षा करते हैं और अपना काम करके उसी में अपना गौरव समझते हैं।

किन्तु काम में एक प्रकार की झोंक होती ही है। उस झोंक में आदमी अपने परिणाम को भूल जाता है; अर्थात् यह नहीं सोचता कि इसका नतीजा क्या होगा। काम ही उस समय लक्ष्य बन जाता है। केवल कर्म के वेग की धारा में अपने को छोड़ देने में एक प्रकार का सुख होता है। इसी कारण कर्म का भूत कामकाजी आदमी को पाकर उसके सिर पर सवार हो बैठता है।

केवल यही नहीं। काम का पूरा करना ही जब अत्यन्त प्रधान या आवश्यक बन जाता है, तब उपाय का विचार धीरे धीरे गायब हो जाता है। तब काम करनेवाले को संसार के साथ––उपस्थित आवश्यकता के साथ-तरह तरह से निपटेरा करके चलना पड़ता है।

अतएव जिस समाज में कर्म है, उस समाज में कर्म को संयत रखने की–कर्म के वेग को सँभाले रखने की–व्यवस्था रहनी चाहिए। ऐसा सावधान पहरा रहना चाहिए जिसमें अन्ध कर्म ही मनुष्यत्व के ऊपर कर्तृत्व न पास के। कामकाजी मनुष्यों के दल को बराबर ठीक रास्ता दिखाने के लिए कर्म के कोलाहल में विशुद्ध 'सुर' को बराबर ज्यों का त्यों बनाये रखने के लिए–एक ऐसे दल की आवश्यकता है जिसके [ ८३ ]आदमी अपने को यथासंभव कर्म और स्वार्थ से अलग रक्खें। वे ही लोग हमारे यहाँ के ब्राह्मण हैं।

ये ब्राह्मण ही यथार्थ स्वाधीन हैं। ये ही लोग यथार्थ स्वाधीनता के आदर्श को, निष्ठा के साथ, अनेक कठिनाइयों का सामना करते हुए, समाज में बनाये रखते हैं। समाज इनको ऐसा करने का अवसर, सामर्थ्य और सम्मान देता है। इनकी यह मुक्ति ही समाज की मुक्ति है। ये लोग जिस समाज में अपने को मुक्त भाव से रखते हैं उस समाज को क्षुद्र पराधीनता से कुछ भय नहीं है––विपत्ति नहीं है। वह समाज अपने एक अंश––ब्राह्मणों––में सर्वदा अपने मन की, अपने आत्मा की स्वाधीनता का अनुभव कर सकता है। हमारे देश के वर्तमान ब्राह्मण लोग यदि दृढ़ता धारण कर लोभ-शून्य हो उन्नत भाव से समाज के इस श्रेष्ठ धन की रक्षा करते तो आज समाज इस तरह ब्राह्मण का अपमान कभी न होने देता और विचारक के मुख से भी ऐसी बात कभी न निकलती कि भद्र ब्राह्मण को जूता मारना एक साधारण बात है। विदेशी होने पर भी विचारक महाशय सम्मानित ब्राह्मण के मान की मर्यादा स्वयं समझ सकते।

किन्तु जो ब्राह्मण साहब के आफिस में सिर झुकाकर नौकरी करता है, जो ब्राह्मण अपने समय को बेचता है––अपने महान् अधिकार को तिलाञ्जलि दे देता है, जो ब्राह्मण विद्यालय में विद्या का बेपार करता है––विचारालय में विचार का रोजगार करता है, जो ब्राह्मण पैसा कमाने के आगे ब्रह्मतेज को लात मार देता है, वह अपने आदर्श की रक्षा कैसे करेगा? समाज की रक्षा कैसे करेगा? हम श्रद्धापूर्वक उसके निकट धर्म की व्यवस्था लेने कैसे जायेंगे? वह तो सर्वसाधारण के साथ, उन्हीं की तरह, छीनाझपटी और धक्कमधक्के के काम में भिड़ा हुआ पसीने में तर हो रहा है। वह ब्राह्मण तो भक्ति के द्वारा समाज को ऊपर नहीं खींचता––नीचे ही गिराता है। [ ८४ ]हम यह मानते हैं कि किसी भी सम्प्रदाय का हर एक आदमी विशुद्ध भाव से अपने धर्म की रक्षा नहीं कर सकता। उनमें से कितनों ही का पैर फिसल जाता है। पुराणों में इस तरह के उदाहरण पाये जाते हैं कि बहुतों ने ब्राह्मण होकर भी क्षत्रियों और वैश्यों के समान आचरण किये हैं। किन्तु, तथापि, यदि सम्प्रदाय में आदर्श सजीव रहे; धर्म-पालन की चेष्टा या निष्ठा बनी रहे; और यह दूसरी बात है कि कोई आगे बढ़ जाय और कोई पिछड़ रहे, परन्तु सब लोग एक ही पथ पर चलें; और, यदि इस आदर्श का प्रत्यक्ष दृष्टान्त बहुतों में अधिकांश लोगों में-देख पड़े, तो उसी चेष्टा के द्वारा, उसी साधना के द्वारा, और उन्हीं सफलता को पाये हुए व्यक्तियों के द्वारा सारा सम्प्रदाय सार्थक होता है।

हमारे आधुनिक ब्राह्मण-समाज में वह आदर्श ही नहीं है। यही कारण है कि ब्राह्मण के लडके अँगरेजी सीखते ही अँगरेजी ठाट करने लगते हैं और उनके पिता उन पर नाराज नहीं होते। एम. ए. पास किये हुए मिसिर जी और विज्ञान के विद्वान् सुकुल जी ने जो विद्या प्राप्त की है उसे क्या वे विद्यार्थियों को घर में बुलाकर, आसन पर बैठकर नहीं पढ़ा सकते? वे क्यों अपने को और ब्राह्मण समाज को शिक्षा-ऋण से सारे समाज को ऋणी बनानेके गौरव से वञ्चित करते हैं?

प्राचीन काल में, जब केवल ब्राह्मण ही 'द्विज' नहीं कहलाते थे, क्षत्रिय और वैश्य भी द्विज-सम्प्रदाय में शामिल थे, जिस समय ब्रह्मचर्य व्रत धारण करके उपयुक्त शिक्षा प्राप्त करने के लिए क्षत्रिय और वैश्य का यज्ञोपवीत होता था, उसी समय इस देश में ब्राह्मण का आदर्श उज्ज्वल था। क्यों कि जिस समय चारों ओर का समाज अवनत होता है उस समय उसके बीच का कोई विशेष सम्प्रदाय अपने को उन्नत नहीं रख सकता धीरे धीरे नीचे का आकर्षण उसे नीचे उतार लेता है। [ ८५ ]

भारतवर्षमें जब एक ब्राह्मण ही द्विज रह गये, जब उनको उनके आदर्शका स्मरण करा देनेके लिए––उनके निकट ब्राह्मणत्व का दावा करनेके लिए––और कोई कहीं नहीं रहा (अर्थात् "तुमको ब्राह्मणत्व बनाये रखना होगा" यह कहनेवाला और कोई नहीं रहा), तब उनके द्विजत्वका विशुद्ध कठिन आदर्श शीघ्रताके साथ भ्रष्ट होने लगा। उस समय ब्राह्मण लोग ज्ञान, विश्वास और रुचिमें क्रमशः निकृष्ट अधिकारियों के दल में आकर दाखिल होगये। जहाँ चारोँ ओर घास के झोपड़े हैं वहाँ अपनी विशेषता बनाये रखने के लिए एक खपरैलका घर बना लेना ही यथेष्ट होता है। वहाँ पर सतमंजिला महल बनानेका खर्च और परिश्रम उठाने की प्रवृत्ति न होना ही स्वाभाविक है।

प्राचीन समयमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, तीनों वर्ण द्विज थे; अर्थात् सारा आर्य-समाज ही द्विज था। शूद्र शब्द से जिनका बोध होता था वे संथाल, भील, कोल और धाँगड़ आदि अनार्य-दलके लोग थे। शिक्षा, रीति-नीति और धर्म आदि बातोंमें आर्यसमाज के साथ उनका मेल होना बिलकुल ही असम्भव था। किन्तु इससे कोई हानि नहीं थी; क्यों कि साराका सारा आर्य-समाज द्विज था––अर्थात् सम्पूर्ण-समाजकी शिक्षा एक ही तरहकी थी। भेद था केवल कर्म में। शिक्षा एक ही रहनेके कारण, आदर्शकी शुद्धता बनाये रखने में एक दूसरेकी अनुकूलता या सहायता करते थे। क्षत्रिय और वैश्य ब्राह्मणको ब्राह्मण होनेमें सहायता करते थे और ब्राह्मण भी क्षत्रिय और वैश्य को क्षत्रिय और वैश्य होनेमें सहायता करते थे। सारे समाजकी शिक्षाका आदर्श एक या समान उन्नत हुए बिना ऐसा कभी नहीं हो सकता।

वर्त्तमान समाजको भी यदि एक 'सिर'की आवश्यकता हो, उस सिरको यदि ऊँचा करनेकी इच्छा हो, और यदि वह समाजका सिर [ ८६ ]ब्राह्मण ही माने जायँ, तो, उसके कन्धे और गरदन को जमीन से मिला देने से काम नहीं चलेगा। याद रखना चाहिए कि समाज-शरीर के उन्नत हुए बिना उसका सिर ऊँचा नहीं हो सकता। और, समाज-शरीर को उन्नत कर रखना ही उस सिर का काम है।

हमारे वर्तमान समाज की भद्र जातियाँ हैं वैद्य, कायस्थ, वणिक्-सम्प्रदाय[१]। समाज अगर इनको द्विज न माने तो फिर ब्राह्मणों के ऊपर उठने की कोई आशा नहीं है। समाज बगले की तरह एक टाँग से खड़ा नहीं रह सकता।

वैद्यों ने तो जनेऊ पहन लिया है। बीच बीच में रह रहकर कायस्थ भी कहते हैं कि हम क्षत्रिय हैं। वैसे ही वणिक्-सम्प्रदाय भी वैश्य होने का दावा करता है। मुझे इस पर विश्वास न करने का कोई कारण नहीं देख पड़ता। सूरत-शकल, बुद्धि और योग्यता––अर्थात् आर्य होने के जो लक्षण हैं उन्हें देखते इनमें और वर्तमान ब्राह्मणों में कोई भेद नहीं है। बंगाल की किसी सभा में जनेऊ देखे बिना ब्राह्मण, कायस्थ और वणिक् सम्प्रदाय को अलग करना सर्वथा असंभव है। परन्तु असली अनार्य अर्थात् भारत की जंगली जातियों में से इन आर्य जातियों को अलग कर देना या पहचान लेना बहुत ही सहज है। [ ८७ ]विशुद्ध आर्य-रक्त में अनार्य-रक्त मिल गया है। हम लोगों के रंग से, चेहरे से, धर्म से, आचार से और वर्तमान मानसिक दुर्बलता से यह बात स्पष्ट मालूम होती है। किन्तु यह मिलावट ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य, सभी जातियों में हुई है।

जो कुछ हो। शास्त्रोक्त क्रिया-कर्म की रक्षा के लिए, विशेष आवश्यकता होने के कारण ही, समाज को विशेष चेष्टा करके ब्राह्मणों का सम्प्रदाय अलग स्थापित करना पड़ा था। वंगदेशीय हिन्दू-समाज में क्षत्रियों और वैश्यों को, उस तरह विशेष रूपसे, उनके पुराने आचार-विचार की कड़ाई में बाँध रखने की कोई आवश्यकता नहीं थी। जिसकी खुशी हो युद्ध करे, जिसकी खुशी हो बनिज-बेपार करे, उससे समाज की कुछ विशेष हानि या लाभ नहीं था। इसके सिवा जो लोग युद्ध-वाणिज्य-खेती शिल्प आदि में लगे हुए थे उन्हें खास खास चिह्नों के द्वारा अलग करने की भी कोई जरूरत नहीं थी। लोग अपने प्रयोजन के अनुसार ही व्यवसाय करते हैं। वे उसके लिए किसी विशेष व्यवस्था की अपेक्षा नहीं करते। किन्तु धर्मके सम्बन्ध में यह नियम नहीं है––वह प्राचीन नियमों से बँधा हुआ है। हम अपनी इच्छा के अनुसार उसका प्रबन्ध नहीं कर सकते, उसकी रीतिनीति नहीं बदल सकते।

हमारा सारा समाज प्रधानतः द्विज-समाज है। यदि ऐसा नहीं है अगर हमारा समाज शूद्र-समाज है तो केवल कुछ थोड़े से ब्राह्मणों को लेकर वह यूरोपियन आदर्श से भी गिरेगा और भारतवर्ष के आदर्श से भी भ्रष्ट होगा।

सभी उन्नत समाज समाज के लोगों से प्राण का दावा करते हैं। जो समाज अपने को निकृष्ट मानकर, अपने अधिकांश लोगोंको आराम से जड़ता का सुख भोगने देता है वह समाज मर जाता है। और, यदि वह न भी मरे तो उसका मरना ही अच्छा है। [ ८८ ]यूरोप, कर्म की उत्तेजना में––प्रवृत्ति की उत्तेजना में––सदा प्राण देने के लिए तैयार है। हम भी अगर धर्म के लिए प्राण देने को तैयार न हो तो उस प्राण (जन-समूह) का अपमान होनेपर अभिमान प्रकट करना हमें शोभा नहीं देता।

यूरोप का सिपाही युद्धानुराग की उत्तेजना, वेतन के लोभ और गौरव की आशा से प्राण देता है। किन्तु हमारे यहाँ का क्षत्रिय उत्तेजना और वेतन का अभाव होने पर भी युद्ध में प्राण देने के लिए तैयार रहता है। इसका कारण यही है कि युद्ध समाज का एक अत्यन्त आवश्यक कर्म है। एक सम्प्रदाय यदि अपना धर्म समझकर ही उस कठिन कर्तव्य को स्वीकार करे तो कर्म के साथ धर्म की रक्षा होती है। यदि देश भरके सभी लोग युद्ध के लिए कमर कस लें तो मिलिटरिज्म अर्थात् युद्धानुराग की प्रबलता से देश का भारी अनिष्ट हो सकता है।

समाज की रक्षा के लिए बनिज-बेपार अत्यन्त आवश्यक कर्म है। इस सामाजिक आवश्यकता को पूरा करने के काम को यदि एक जाति अपना जातीय कर्म––अपना खानदानी गौरव समझकर स्वीकार करे, तो फिर वाणिज्यानुराग या बनियाईकी वृत्ति सर्वत्र व्याप्त होकर समाज की अन्यान्य शक्तियों को प्रस नहीं लेती। इसके सिवा, कर्म के बीच धर्म का आदर्श सदैव जीता जागता रहता है।

धर्म और ज्ञान का उपार्जन, युद्ध और राजकाज, बनिज और शिल्प की चर्चा––समाज के ये तीन आवश्यक कर्म हैं। इनमें से कोई भी छोड़ा नहीं जा सकता। इनमें से हर एक को, धर्म का गौरव और कुल का गौरव देकर, खास खास सम्प्रदाय के हाथ में सौंपने से वह सीमावर भी हो जाता है और उसकी विशेष उन्नति करने का अवसर भी मिलता है। [ ८९ ]

भारत को यह खटका था कि कर्म की उत्तेजना ही पीछे से कर्ता बनकर हमारे आत्मा को अपने वश में न कर ले। इसी कारण भारत वर्ष में सामाजिक मनुष्य युद्ध और बनिज करता है, परन्तु वह हर घड़ी या जन्मभर केवल सिपाही या बनिया नहीं बना रहता। कर्म को कुल-व्रत बना देने से, कर्म को सामाजिक धर्म बना देने से कर्म-साधन भी होता है और वह कर्म, अपनी सीमाकों लाँघकर, समाज के सामञ्जस्य को नष्ट कर, मनुष्य की सारी मनुष्यता को घेरकर, आत्मा के राजसिंहासन पर अधिकार नहीं कर लेता।

जो द्विज हैं उनको एक समय कर्म-त्याग करना पड़ता है। उस समय वे न ब्राह्मण हैं, न क्षत्रिय हैं और न वैश्य हैं। उस समय वे नित्यकाल के मनुष्य हैं। उस समय कर्म उनके लिए धर्म नहीं रहता। इस लिए थे उसको अनायास ही छोड़ सकते हैं। इस तरह हमारे यहाँके द्विज-समाज ने विद्या और अविद्या दोनों की रक्षा की थी। उन लोगों ने कहा था, "अविद्यया मृत्युं तीर्त्वी विद्ययाऽमृतमश्नुते।" अर्थात् अविद्या से मृत्यु के पार जाकर विद्या से अमृत प्राप्त किया जाता है। यह संसार ही मृत्युलोक है; यही अविद्या है। इसके पार जाने के लिए इसी के भीतर होकर जाना होता है। किन्तु इस तरह जाना होता है कि यही चरम लक्ष्य न हो जाय। कर्म को ही एकदम प्रधानता देने से संसार ही चरम लक्ष्य हो जाता है––अमृत प्राप्त करने की और लक्ष्य ही नहीं रहता, उसके लिए अवकाश ही नहीं रहता। इसी कारण हमारे यहाँ कर्म को एक सीमा के भीतर कर रक्खा है; कर्म को धर्म में मिला दिया है; कर्म को प्रवृत्ति के हाथ में, उत्तेजना के हाथमें, गति के भारी झोंके के हाथ में नहीं छोड़ दिया है। इसी कारण भारतवर्ष में भिन्न भिन्न कामों को भिन्न भिन्न लोगों की श्रेणियों में बाँट दिया है। [ ९० ]

धर्म और कर्म का सामञ्जस्य रखने का, और मनुष्य के चित्त से कर्म के अनेक बन्धनों को ढीला करके उसको एक ओर संसार-व्रत में तत्पर और दूसरी ओर मुक्ति का अधिकारी बनाने का, और कोई उपाय तो मुझे नहीं देख पड़ता।

इस सम्बन्ध में यह आपत्ति की जा सकती है कि समाज को इस तरह जकड़ कर अपने को उसके भीतर बंद कर देने से मनुष्य की स्वाधीन प्रकृति पीड़ित होती है। मनुष्य को छोटा करके समाज को बड़ा बनाने के कुछ माने नहीं है। मनुष्य के मनुष्यत्व की रक्षा के लिए ही समाज है।

इसके उत्तर में यही कहना है कि भारतवर्ष ने समाज के भीतर बँधे रहने के लिए समाज को नियमबद्ध और सरल नहीं बनाया। उसने अपने को सैकड़ों विभागों में बँटी हुई अन्ध-चेष्टा में अस्तव्यस्त न करके अपनी मिली हुई शक्ति को अनन्त की ओर एकाग्र करने के लिए ही जान बूझकर इच्छापूर्वक बाहरी विषयों में सङ्कीर्णता स्वीकार की थी। उसका यही उद्देश्य था कि नदी के तट-बन्धन की तरह समाज का बन्धन उसे वेग देगा, कैद नहीं कर रक्खेगा। इसी से भारतवर्ष के सब अनुष्ठानों और कार्यों में सुख-शान्ति-सन्तोष के बीच मुक्ति का आवाहन है। आत्मा के परमानन्दमय ब्रह्म में विकसित करने के लिए ही भारत ने समाज पर अपनी जड़ जमाई थी। यदि हम उस लक्ष्य से भ्रष्ट हो जायँ––जड़ता के कारण उस परिणाम की उपेक्षा करें तो वह बन्धन कोरा बन्धन ही रह जाता है। तब अत्यन्त क्षुद्र सन्तोष और शान्ति का कुछ अर्थ ही नहीं रहता। किन्तु भारतवर्ष का लक्ष्य क्षुद्र या साधारण नहीं है। इस बात को भारतवर्ष ने इन शब्दों में स्वीकार किया है––"भूमैव सुखं नाल्पे सुखमस्ति"; अर्थात् महान् में ही सुख है, थोड़े या क्षुद्र में सुख नहीं है। भारत की ब्रह्मवादिनी ने कहा है––"येनाहं नामृता स्यां किमहं तेन [ ९१ ]

कुर्य्याम्", अर्थात् जिससे अमर नहीं हो सकती उसे लेकर मैं क्या करूँ। हम लोग केवल परिवार के सुप्रबन्ध और समाज की सुव्यवस्था से अमर नहीं हो सकते––उससे ही हमारे आत्माका विकास नहीं होगा। अच्छा तो फिर समाज यदि हमको सम्पूर्ण रूप से कृतकृत्य नहीं कर सकता––हमारे जन्मको सार्थक नहीं बना सकता, तो वह हमारा कौन है? समाजको रखनेके लिए हमको वञ्चित होना चाहिए––यह बात स्वीकार नहीं की जा सकती। यूरोप भी कहता है कि जो समाज individual को अर्थात् व्यक्तित्वको लँगड़ा बनाता और दबाता है उस समाजके विरुद्ध विद्रोह न करना हीनता स्वीकार करना है। भारतवर्ष ने भी निःसङ्कोच और निर्भय होकर कहा है कि "आत्मार्थे पृथिवीं त्यजेत्", अर्थात् अपनी भलाई और उन्नतिके लिए सारी पृथ्वी को छोड़ना पड़े तो उसका भी त्याग कर देना उचित है। समाज को मुख्य मानना मानों उपायको उद्देश्य बनाना है। भारतवर्ष ने वह करना नहीं चाहा। इसी कारण उसका बन्धन जैसा दृढ़ है उसका त्याग भी वैसा ही सम्पूर्ण है। भारतवर्ष ने अपनेको सांसारिक परिपूर्णता से घेर नहीं रक्खा था; जकड़ नहीं रक्खा था। उसने इसके विपरीत ही किया था। जिस समय सब संचित हो गया, भण्डार भरपूर होगया, पुत्रने बालिग होकर ब्याह कर लिया, जब ऐसी पूर्ण प्रतिष्ठित गृहस्थीमें आराम करनेका भोग करनेका अवसर उपस्थित हुआ, ठीक उसी समय हमारे यहाँ संसार त्यागनेकी व्यवस्था है। हमारे यहाँ ऐसा नियम है कि जबतक परिश्रम करना है तबतक तुम हो; जब परिश्रम बंद हुआ तब आरामसे फल भोग करके जड़ बनना मना है। संसार का काम पूरा होते ही संसार से छुट्टी मिल गई। उसके बाद आत्माकी अनन्त-गति में कोई बाधा नहीं। वह निश्चेष्ट भाव या निठल्लापन नहीं है। संसार की [ ९२ ]दृष्टि से वह जड़ता जान पड़ती है, परन्तु वास्तव में वह जड़ता नहीं है। जैसे पहिये के अत्यन्त घूमते रहने पर वह दिखाई नहीं पड़ता वैसे ही आत्मा की वह अनन्त-गति निश्चेष्टता सी जान पड़ती है। आत्मा की उस गतिको—उस वेगको—चारों ओर तरह तरह से व्यर्थ नष्ट न करके उस शक्ति को जगा देना ही हमारे समाज का काम था। हमारे समाज में प्रवृत्ति को दबाकर नित्य निःस्वार्थ मङ्गल-साधन करने की जो व्यवस्था है, उसे ब्रह्मलाभ का सोपान मानकर ही हम उससे अपना गौरव समझते हैं। वासना या प्रवृत्ति को छोटा करना ही आत्मा को बड़ा करना है। इसी से हम लोग वासना को दबाते हैं—सन्तोष का अनुभव करनेके लिए नहीं। यूरोप मरने को भी राजी है, किन्तु वासना को छोटा करना नहीं चाहता। हम भी मरने को राजी हैं, किन्तु आत्माको उसकी परम गति—परम सम्पत्ति से—वश्चित करके छोटा बनाना नहीं चाहते। परन्तु अभाग्यवश इस दुर्गति के दिन में हम यह भूल गये हैं। हमारा समाज अब भी वही है, किन्तु उसके भीतर से ब्रह्माभिमुखी—मोक्षाभिमुखी बेगवती प्रवाह-धारा 'येनाहं नामृता स्या किमहं तेन कुर्याम्' की ध्वनिके साथ नहीं निकलती।—

"माला हुती तिहिके सब फूल गये झरि, बाकी रही अब डोरी।"

यही कारण है कि हमारा इतने दिनों का समाज हम को बल नहीं देता, गौरव नहीं देता, आध्यात्मिकता की ओर हमको अग्रसर नहीं करता। उसने हमको चारों ओर से मानों जकड़ रक्खा है।

किन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि जब हम सचेत होकर इस समाजके महान् उद्देश्य को समझेंगे और उस उद्देश्य को सम्पूर्ण सफल करने के [ ९३ ]लिए जब कमर कसकर उठ खड़े होंगे, तभी दमभर में बड़े हो जायँगे, मुक्त हो जायँगे, अमर हो जायँगे। उस समय जगत् में हमारी प्रतिष्ठा होगी––प्राचीन भारत के तपोवन में महातपा महर्षियों ने जिस यज्ञ का अनुष्ठान किया था वह सफल होगा। और, हमारे पूर्वज पितामहगण हम लोगों के द्वारा कृतार्थ होकर हम को आशीर्वाद देंगे।


  1. लेखक महाशय यहाँ पर बंगाल ही की बात कर रहे हैं। वहाँ साधारणतः केवल ब्राह्मण और शूद्र दो ही वर्णों का अस्तित्व माना जाता है, और अबतक केवल ब्राह्मण ही यज्ञोपवीत धारण करते थे। बंगाल में वैधनाथ की एक जूदी ही जाति है। प्रतिष्ठा में पहला आसन ब्राह्मण का, दुसरा वैध का, तीसरा कायस्थ का, उसके बाद अन्यान्य जातियों का है। किन्तु कायस्थ भी और प्रान्तों की तरह वहाँ शूद्र ही समझे जाते हैं। वणिक् कहने से खासकर सुनारों का बोध होता है। बंगाल की तरह अन्य प्रान्तों के भी कायस्थ अपने को क्षत्रिय कहते हैं। अन्यान्य वर्ण वैश्य होने का दावा करते हैं।––अनुवाद।