मानसरोवर १/स्वामिनी

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(स्वामिनी से अनुप्रेषित)
मानसरोवर १  (1947) 
द्वारा प्रेमचंद
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स्वामिनी

शिवदास ने भण्डारे की कुञ्जी अपनी बहू रामप्यारी के सामने फेंककर, अपनी बूढ़ी आँखों में आँसू भरकर कहा-बहू, आज से गिरस्ती की देख-भाल तुम्हारे ऊपर है। मेरा सुख भगवान् से नहीं देखा गया, नहीं तो क्या जवान बेटे को यों छोन लेते! उसका काम करनेवाला तो कोई चाहिए। एक हल तोड़ दूँ तो गुजारा न होगा। मेरे ही कुकरम से भगवान् का यह कोप आया है, और मैं ही अपने माथे पर उसे लूँगा। बिरजू का हल अब मैं ही सँभालूँगा। अब घर की देख-रेख करनेवाला, धरने-उठानेवाला तुम्हारे सिवा दूसरा कौन है? रोओ मत बेटा, भगवान् की जो इच्छा थी, वह हुआ; और जो इच्छा होगी, वह होगा। हमारा तुम्हारा क्या बस है? मेरे जीते-जी तुम्हें कोई टेढ़ी आँख से देख भी न सकेगा। तुम किसी बात का सोच मत करो। बिरजू गया, तो मैं तो अभी बैठा ही हुआ हैं।

रामप्यारी और रामदुलारी दो सगी बहनें थीं। दोनों का विवाह-मथुरा और बिरजू-दो सगे भाइयों से हुआ। दोनों बहनें नैहर की तरह ससुराल में भी प्रेम और आनन्द से रहने लगीं। शिवदास को पेंशन मिली। दिन-भर द्वार पर गप-शप करते। भरा-पूरा परिवार देख-देखकर प्रसन्न होते और अधिकतर धर्म-चर्चा में लगे रहते थे; लेकिन दैवगति से बड़ा लड़का बिरजू बीमार पड़ा और आज उसे मरे हुए पन्द्रह दिन बीत गये। आज क्रिया-कर्म से फुरसत मिली और शिवदास ने सच्चे कर्मवीर की भाँति फिर जीवन-संग्राम के लिए कमर कस ली। मन में उसे चाहे कितना ही दुःख हुआ हो, उसे किसी ने रोते नहीं देखा। आज अपनी बहू को देखकर एक क्षण के लिए उसकी आँखें सजल हो गईं; लेकिन उसने मन को सँभाला और रुद्ध कण्ठ से उसे दिलासा देने लगी। कदाचित् उसने सोचा था, घर की स्वामिन बनकर विधवा के आँसू पुँछ जायँगे, कम-से-कम उसे इतना कठिन परिश्रम न करना पड़ेगा; इसलिए उसने भण्डारे की कुञ्जी बहू के सामने फेंकी थी। वैधव्य की व्यथा को स्वामित्व के गर्व से दबा देना चाहता था।

रामप्यारी ने पुलकित झण्ठ से कहा-यह कैसे हो सकता है दादा, कि तुम [ ११२ ]
मेहनत - मजूरी करो और मैं मालकिन बनकर बैहूँ ? काम-धन्धे में लगी रहूंगी, तो मन बहलता रहेगा, बैठे-बैठे तो रोने के सिवा और कुछ न होगा। शिवदास ने समझाया --- बेटा, दैवगति से तो किसी का बस नहीं, रोने-धोने से हलकानी के सिवा और क्या हाथ आयेगा ? घर में भी तो नीसा काम हैं। कोई साधु-सन्त आ जायें, कोई पाहुना ही आ पहुँचे, उनके सेवा-सत्कार के लिए किसी को तो घर पर रहना ही पड़ेगा।

बहू ने बहुत-से होले किये, पर शिवदास ने एक न सुनी।

( २ )

शिवदास के बाहर चले जाने पर रामप्यारो ने कुली उठाई तो उसे मन में अपूर्व गोरख और उत्तरदायित्व का अनुभव हुआ। जरा देर के लिए पति-वियोग का दुःख उसे भूल गया। उसकी छोटी बहन और देवर दोनों काम करने गये हुए थे। शिवदास बाहर था। घर बिलकुल खाली था। इस वक वह निश्चित होकर भण्डारे को खोल सकती है। उसमें क्या-क्या सामान है, क्या-क्या विभूति है; यह देखने के लिए उसका मन लालायित हो उठा। इस घर में वह कभी न आई थी। जब कभी किसी को कुछ देना या किसी से कुछ लेना होता था, तभो शिवदास आकर इस कोठरी को खोला करता था। फिर उसे बन्द कर वह ताली अपनी कमर में रख लेता था। रामप्यारी कभी-कभो द्वार को दराजों से भीतर झांकतो थो; पर अँधेरे में कुछ न दिखाई देता था। सारे घर के लिए वह कोठरी कोई तिलिस्म या रहस्य था जिसके विषय में भाति-भांति की कल्पनाएँ होती रहती थीं। आज रामप्यारी को वह रहस्य खोलकर देखने का अवसर मिल गया। उसने बाहर का द्वार बन्द कर दिया कि कोई उसे भण्डार खोलते न देख ले, नहीं सोचेगा, बेज़रत इसने क्यों खोला। तब आकर काँपते हुए हाथों से ताला खोला। उसकी छाती घड़क रही थी कि कोई द्वार न खटखटाने लगे। अन्दर पांव रखा तो उसे कुछ उसो प्रकार का, लेकिन उससे कहीं तीन भानन्द हुभा जो से अपने गहने-कपड़े को पिटारी खोलने में होता था। मर्को में गुरु, शकर, गेहूं, जो आदि चीजें रखी हुई थी। एक किनारे बड़े-बड़े बर्तन धरै थे, जो शादी-ब्याह के अवसर पर निकाले जाते थे, या मांगे दिये जाते थे। एक भाले पा मालगुजारी को रसोदे और लेन-देन के पुरजे बँधे हुए रखे थे। कोठरी में एक विभूति-सी छाई थो, मानो लक्ष्मी अज्ञात रुप से विराज रही हो। टस विभूति क
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छाया में रामप्यारी भाध घण्टे तक बैठी अपनी आत्मा को तृप्त करती रही। प्रतिक्षण उसके हृदय पर ममत्व का नशा-सा छाया जा रहा था। जब वह उस कोठरी से निकली, तो उसके मन के संस्कार बदल गये थे, मानों किसी ने उस पर मन्त्र डाल दिया हो

उसी समय द्वार पर किसी ने आवाज़ दी। उसने तुरन्त भण्डारे का द्वार बन्द किया और जाकर सदर दरवाज़ा खोल दिया। देखा तो पड़ोसिन झुनिया खड़ी है और एक रुपया उधार मांग रही है।

रामप्यारी ने रुखाई से कहा --- अभी तो एक पैसा घर में नहीं है जीजी, क्रिया- कर्म में सब खरच हो गया।

झुनिया चकरा गई। चौधरी के घर में इस समय एक रुपया भी नहीं है, यह विश्वास करने की बात न थी। जिसके यहाँ सैकड़ों का लेन-देन है, वह सब कुछ क्रिया-धर्म में नहीं खर्च कर सकता। अगर शिवदास ने बहाना किया होता, तो उसे, आश्चर्य न होता। प्याची तो अपने सरल स्वभाव के लिए गांव में मशहूर थी। अक्सर शिवक्षास की आंखें बचाकर पड़ोसियों को इच्छित वस्तुएँ दे दिया करती थी। अभी कल हो उसने जानकी को सेर-भर दृध दिया। यहाँ तक कि अपने गहने तक मांगे है देशी थी। कृपण शिवदास के घर में ऐसी सखरच बह का आना गाँववाले अपने सौभाग्य की बात समझा थे।

झुनिया ने चकित होकर कहा --- ऐसा न हो जीजी, बड़े गाढे में पड़कर आई हूँ, नहीं तुम जानती हो, मेरो आदत ऐसी नहीं है। बाकी का एक रुपया देना है। प्यादा द्वार पर खड़ा चक-मक रहा है। रुपया दे दो, तो किसी तरह यह विपत्ति टले। मैं आज के आठ दिन आकर दे जाऊँगी। गांव में और कौन घर है, जहाँ माँगने जाऊ ?

प्यारी टस से मस न हुई।

उसके जाते हो प्यारी सौद के , लिए रसोई-पानी का इन्तजाम करने लगी। पहले चावल-दाल बिनना अपाद लगता था और रसोई में जाना तो सूली पर चढ़ने से कम न था। कुछ देर दोनों बहनों में माव-झाव होती, तब शिवदास आकर कहते क्या आज रसोई न बनेगी, तो दो में से एक उठती और मोटे-मोटे टिकड़ लगाकर रख देती, मानों बैलों का रातिब हो। आज प्यारी तन-मन से रसोई के प्रबन्ध में लगी हुई है। अब वह घर को स्वामिनी है।
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तब उसने बाहर निकलकर देखा, कितना कूड़ा करकट पड़ा हुआ है। बुढ़ऊ दिन-भर मक्खो मारा करते हैं, इतना भी नहीं होता कि जरा झाड़ू ही लगा दें। अब क्या इनसे इतना भी न होगा ? द्वार ऐसा चिकना चाहिए कि देखकर भादमी का मन प्रसन्न हो जाय। यह नहीं कि पकाई भाने लगे। अभी कह दूं, तो तिनक उठेंगे। अच्छा, यह मुन्नी नींद से अलग क्यों खड़ी है?

उसने मुन्नी के पास जाकर नाद में झांका। दुर्गन्ध आ रही थी । ठोक ! मालूम होता है, महोनों से पानी हो नहीं बदला गया। इस तरह तो गाय रह चुकी। अपना पेट भर लिया, छुट्टी हुई, और किसी से क्या मतलब ? हाँ, दूध सबको अच्छा लगता है। दादा द्वार पर बठे चिलम पी रहे हैं, मगर इतना नहीं होता कि चार घड़ा पानी नांद में डाल दें। मजूर रखा है, वह भी तोन को ही का। खाने को डेढ़ से काम फरते नानी मरतो है। आज आते हैं तो पूछती हूँ, नांद में पानी क्यों नहीं बदला। रहना हो, रहे, या जाय। आदमी बहुत मिलेंगे। चारों ओर तो लोग मारे-मारे फिर रहे हैं।

आखिर उससे न रहा गया। घड़ा उठाकर पानी लाने चली।

शिवदास ने पुकारा --- पानी क्या होगा बहू ? इसमें पानी भरा हुआ है।

प्यारी ने कहा --- नाद का पानी सड़ गया है। मुन्नी भूसे में मुंह नहीं डालती। देखते नहीं हो, कोस-भर पर खड़ी है।

शिवदास मार्मिक भाव से मुस्कराये और आकर बह के हाथ से घड़ा ले लिया।

( ३ )

कई महीने बीत गये। प्यारी के अधिकार में आते ही उस घर में जैसे वसन्त आ गया। भोतर-बाहर जहाँ देखिए, किसो निपुण प्रान्धक के इस्त-कौशल, सुविचार और सुरुचि के चिह दौलते थे।' प्यारी ने गृहयन्त्र को ऐसी चाभी कस दो थी कि समी पुरजे ठोक-ठोक चलने लगे थे। भोजन पहले से अच्छा मिलता है और समय पर मिलता है। दूध ज्यादा होता है, पी ज्यादा होता है, और काम ज्यादा होता है। प्यारी न खुद विश्राम लेतो है, न दूसरों को विश्राम लेने देती है। घर में कुछ ऐसी बरकत आ गई है कि जो चीज़ मांगों, घर ही में निकल आती है। आदमो से लेकर जानवर तक सभी स्वस्प दिखाई देते हैं। अब वह पहले की-सी दशा नहीं है कि कोई चोमड़े लपेटे धूम रहा है, किसी को गहने की पुन सवार है। हाँ, भार
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कोई रुग्ण और चिन्तित तथा मलिन वेष में है, तो वह प्यारी है। फिर भी सारा घर उससे जलता है। यहाँ तक कि बूढे शिवदास भी कभी-कभी उसकी बदगोई करते हैं। किसी को पहर रात-हे उठना अच्छा नहीं लगता। मेहनत से सभी जी चुराते हैं। फिर भी यह सब मानते हैं कि प्यारी न हो तो घर का काम न चले। और तो और, दोनों बहनों मे भी अब उतना अपनापन नहीं है।

प्रातःकाल का समय था। दुलारी ने हाथों के कड़े लाकर प्यारी के सामने पटक दिये और धुन्नाई हुई बोली --- लेकर इसे भी भण्डारे में बन्द कर दे।

प्यारी ने कड़े उठा लिये और कोमल स्वर में कहा --- कह तो दिया, हाथ में रुपये आने दे, अनवा दूंगी। अभी तो ऐसा घिस नहीं गया है कि आज हो उतारकर फेक दिया जाय।

दुलारी लड़ने को तैयार होकर आई थी। बोली --- तेरे हाथ में काहे को कभी रुपये आयेंगे और काहे को कड़े बनेंगे। जोड़-जोड़ रखने में मजा आता है न ?

प्यारी ने हँसकर कहा --- जोड़-जोड़ रखती हूँ, तो तेरे ही लिए कि मेरे कोई और बैठा हुआ है, कि मैं सबसे ज्यादा खा-पहन लेती हूँ। मेरा अनन्त कब का टूटा

दुलारी --- तुम न खामो-पहनो, जस तो पाती हो। यहाँ खाने-पहनने के सिवा और क्या है ? मैं तुम्हारा हिसाब-किताब नहीं जानती, मेरे कड़े आज बनने को भेज दो।

प्यारी ने सरल विनोद के भाव से पूछा --- रुपये न हों, तो कहाँ से लाऊँ ?

दुलारी ने उद्दण्डता के साथ कहा -मुझे इससे कोई मतलब नहीं। मैं तो कड़े चाहती हूँ। इसी तरह घर के सब आदमी अपने-अपने अवसर पर प्यारी को दो-चार खोटो- सरी सुना जाते थे, और वह गरीब सबकी धौंस हंसकर सहती थी। स्वामिनी का तो यह धर्म ही है कि सबको धाँस सुन ले और करे वही, जिसमें घर का कल्याण हो। स्वामित्व के कवच पर धौंस, ताने, धमकी-किसी का असर न होता। उसकी सामिनी कल्पना इन आघातों से और भी स्वस्थ होतो थी। वह गृहस्थी को सचा- टिका है। सभी अपने-अपने दुःख उसी के सामने रोते हैं, पर जो कुछ वह करती है वही होता है। इतना, उसे प्रसन्न करने के लिए काफ़ी था। [ ११६ ]

गाँव में प्यारी को सराहना होती थी। अभी उम्र हो क्या है, लेकिन सारे घर को सँभाले हुए है। चाहती तो सगाई करके चैन से रहती। इस घर के पीछे अपने को मिटाये देती है। कभी किसी से हसतो-बोलतो भी नहीं। जैसे कायापलट हो गई।

कई दिन बाद दुलारी के कड़े पनकर आ गये। प्यारी खुद सुनार के घर दोह- दौड़ गई।

सन्ध्या हो गई थी। दुलारी और मथुरा हार से लोटे। प्यारी ने नये कड़े दुलारी को दिये। दुलारी निहाल हो गई। चटपट कड़े पहने और दौड़ी हुई वरीठे में जाकर मथुरा को दिखाने लगो। प्यारी वरीठे के द्वार पर छिपी खड़ी यह दृश्य देखने लगी। उसको आँखें सजल हो गई। दुलारी उससे कुल तीन हौ साल तो छोटी है। पर दोनों में कितना अन्तर है। उसकी आँखें मानों उस दृश्य पर जम गई, दम्पति का वह सरल आनन्द, उनका प्रेमालिंगन, उनको मुग्च भुद्रा - प्यारी को टकटकी सी बँध गई, यहाँ तक कि दीपक के धुंधले प्रकाश में वे दोनों उसकी नज़रों से गायब हो गये और अपने ही अतीत जीवन को एक लीला भाखों के सामने बार-बार नये-नये रूप में भाने लगी।

सहसा शिवदास ने पुकारा --- बड़ी बहू ! एक पैसा दो। तमाखू मैंगवाऊँ।

प्यारी की समाधि टूट गई। आँसू पोछती हुई भण्डारे में पैसा लेने चली गई।

( ४ )

एक-एक करके प्यारी के गहने उसके हाथ से निकलते जाते थे। वह चाहती थी, मेरा घर गाँव में सबसे सम्पन्न समझा जाये, और इस महत्त्वाकांक्षा का मूल्य देना पड़ता था। कभी घर की मरम्मत के लिए कभी चैलों को नई गोई खरीदने के लिए, कभी नातेदारों के व्यवहारों के लिए, कभी बीमारों को दवा-दारू के लिए साये को जरूरत पड़ती रहती थी, और जब बहुत कतरोत करने पर भी काम न चलता, तो वह अपनी कोई-न-कोई चीज़ निकाल देती। और चीज़ एक बार हाथ से निकलकर फिर न लौटती थी। वह चाहती, तो इनमें से कितने ही खचों को टाल जाती; पर जहाँ इज्जत की बात आ पड़ती थी, वह दिल खोलकर खर्च करती। अगर गांव में हेठी हो गई, तो क्या बात रही लोग उसी का नाम तो धरेंगे। दुलारो के पास भी गहने थे। दो-एक चीतों, मथुरा के पास भी थी लेकिन प्यारी उनकी चीज़े न छूती। उनके खाने-पहनने के दिन है, वे इस मजाल में क्यों फँसे। [ ११७ ]दुलारी के लड़का हुआ, तो प्यारो ने धूम से जन्मोत्सव मनाने का प्रस्ताव किया। शिवदास ने विरोध किया --- क्या फायदा ? जब भगवान् की दया से सगाई-न्याह के दिन आयेंगे, तो धूम-धाम कर लेना। प्यारी का हौसलों से भरा दिल भला क्यों मानता। बोली --- कैसी बात कहते हो दादा ! पहलौंठो लड़के लिए भी धूम-धाम न हुआ तो कब होगा ? मन तो नहीं मानता। फिर दुनिया क्या कहेगी। नाम पड़े, दर्शन थोड़े। मैं तुमसे कुछ नहीं मांगती। अपना सारा सरजाम कर लूंगी।

'गहनों के माथे जायगी, और क्या।' --- शिवदास ने चिन्तित होकर कहा- इस तरह एक दिन धागा भी न बचेगा। कितना समझाया, बेटा, भाई-भौजाई किसी के नहीं होते। अपने पास दो चीज़ रहेंगी, तो सब मुंह नोहेंगे, नहीं कोई सोधे बात भी न करेगा।

प्यारी ने ऐस! मुँह बनाया, मानों वह ऐसो वूड़ी बातें बहुत सुन चुकी है, और बोली --- जो अपने हैं, वे बात भी न पूछे, तो भी आने ही रहते हैं। मेश धरम मेरे साथ है, उनका धाम उनके साथ है। मर जाऊँगी, तो क्या छाती पर लाद आऊंगी ?

धूम-धाम से जन्मोत्सव मनाया गया। बरही के दिन सारी बिरादरी का भोज हुआ। लोग खा-पीकर चले गये, तो प्यारी दिन-भर की थकी-मांदी आंगन में एक टाट का टुकड़ा निछाकर कमर सोधी करने लगी। आँखें झपड़ गई। मथुरा उसो वक घर में आया। नवजात पुत्र को देखने के लिए उसका चित्त व्याकुल हो रहा था। दुलारी सौर-गृह से निकल चुकी थी। गर्भावस्था में उसकी देह क्षीण हो गई थी, मुँह भी उतर गया था। पर आज स्वस्थता की लालिमा मुख पर छाई हुई थी। मातृत्व के गर्व और आनन्द ने अंगों में सजीवनी-सी भर रखी थी। सौर के संयम और पौष्टिक भोजन ने देह को चिकना कर दिया था। मथुरा उसे आंगन में देखते हो समीप आ गया, और एक बार प्यारी की और ताककर उसके निद्रामग्न होने का निश्चय करके उसने शिशु को गोद में ले लिया और उसका मुँह चूमने लगा।

आहट पाकर प्यारी की आँखें खुल गई। पर उसने नींद का बहाना किया और अधखुली आँखों से यह आनन्द कड़ा देखने लगी। माता और पिता दोनों बारी-बारी से बालक को चूमते, गले लगाते और उसके मुख को निहारते थे। कितना स्वर्गीय
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आनन्द था। प्यारी की तृषित लालसा एक क्षण के लिए स्वामिनो को भूल गई। जैसे लगाम से मुखबध्द, बोझ से लदा हुआ, हांकनेवाले की चाबुक से पीड़ित, दौड़ते-दौड़ते बेदम तुरंग हिनहिनाने की आवार सुनकर कनौतियां खड़ी कर लेता है और परिस्थिति को भूलकर एक दची हुई हिनहिनाइट से उसका जवाब देता है कुछ वही दशा प्यारी की हुई। उसका मातृत्व जो पिंजरे में वन्द, मूग, निश्चेष्ट पड़ा हुआ था, समीप से आनेवाली मातृत्व को चहकार सुनकर जैसे जाग पड़ा और चिन्ताओं के उस पिंजरे से निकलने के लिए पख फड़फड़ाने लगा।

मथुरा ने कहा --- यह मेरा लड़का है।

दुलारी ने बालक को गोद में चिमटाकर कहा --- हाँ, है क्यों नहीं। तुम्हों ने तो नौ महीने पेट में रखा है ! सांसत तो मेरी हुई, बाप कहलाने के लिए तुम कूद पड़े।

मथुरा --- मेरा लड़का न होता, तो मेरी सूरत का क्यों होता । चेहरा-मोहरा, रग- रुप सब मेरा ही-सा है कि नहीं ?

दुलारी --- इससे क्या होता है। बोज बनिये के घर से आता है। खेत किमान का होता है। उपज बनिये को नहीं होती, किसान को होती है।

मथुरा --- बातों में तुमसे कोई न जीतेगा। मेरा लड़का बड़ा हो जायगा, तो मैं द्वार पर बैठकर मजे से हुक्का पिया करूँगा।

दुलारी --- मेरा लइका पढे-लिखेगा, कोई बड़ा हुद्दा पायेगा। तुम्हारी तरह दिन- भर बैल के पीछे न चलेगा। मालकिन से कहना है, कल एक पालना बनवा दें।

मथुरा --- अब बहुत सवेरे न उठा करना और छाती फारकर काम भी न करना।

दुलारी --- यह महरानी जीने देगी?

मथुरा --- मुझे तो बेचारी पर दया आती है। उसके कौन बैठा हुआ है। हमी लोगों के लिए तो मरती है। भैया होते, तो अब तक दो तीन बच्चों की मां हो गई होती।

प्यारी के कण्ठ में आसुओं का ऐसा वेग उठा कि उसे रोकने में सारी देह कांप उठो। अपना वचित जीवन उसे मरुस्थल सा लगा, जिसको सूबो रेत पर वह हरा-भरा आग लगाने को निष्फल चेष्टा कर रही थी।

सहसा शिवदास ने भीतर आकर कहा-बड़ी बहू, क्या सो गई। बाजेवालों को

सभी परोसा नहीं मिला। क्या कह दूं ? [ ११९ ]

( ५ )

कुछ दिनों के बाद शिवदास भी मर गया। उधर दुलारी के दो बच्चे और हुए। वह भी अधिकतर बच्चों के लालन-पालन में व्यस्त रहने लगी। खेत का काम मजूरों पर आ पड़ा। मथुरा मज़दूर तो अच्छा था, संचालक अच्छा न था। उसे स्वतन्त्र रूप से काम लेने का कभो अवसर न मिला था। खुद पहले भाई को निगरानी में काम करता रहा। बाद को बाप की निगरानी में करने लगा। खेती का तार भी न जानता था। वही मजूर उसके यहाँ टिकते थे, जो मेहनती नहीं, खुशामद करने में कुशल होते थे ; इसलिए प्यारी को अब दिन में दो चार चक्कर हार का भी लगाना पड़ता। कहने को तो वह ब भी मालकिन थी, पर वास्तव में घर-भर की सेविका थी। मजूर भी उससे योरिया बदलते, जमीदार का प्यादा भी उसी पर धौंस जमाता। भोजन में भी किफायत करनी पड़ती। लरकों को तो जितनी बार मांगें उतनी बार कुछ-न-कुछ चाहिए ! दुलारी तो लड़कोरी थी, उसे भी भरपूर भोजन चाहिए, मथुरा घर का सरदार था, उसके इस अधिकार को कौन छीन सकता था। मजूर भला क्यों रिआयत करने रगे थे। सारी कसर बेचारी प्यारी पर निकलती थी। वही एक फालतू चोन थी , अगर आधा ही पेट खाय. तो किसी को कोई हानि न हो सकती थी तीस वर्ष की अवस्था में उसके बाल पक गये, कमर झुक गई, आँखों की जोतः कम हो गई। मगर वह प्रसन्न थी। स्वामित्व का गौरव इन सारे जख्मों पर मरहम का काम करता था।

एक दिन मथुरा ने कहा --- भाभी, अब तो कही परदेश जाने का जी होता है। यहाँ तो कमाई में कोई बरक्कत नहीं। किसी तरह पेट की रोटिया चल जाती हैं। वह भी रो-धोकर कई आदमी पुरब से आये हैं वे कहते हैं, वहाँ दो-तीन रुपये रोज़ की मजूरी हो जाती है। चार-पांच साल भा रह गया, तो मालोमाल हो जाऊँगा। अभ भागे लड़के-गले हुए, इनके लिए कुछ तो करना ही चाहिए।

दुलारी ने समर्थन किया --- हाथ में चार पैसे होंगे, लड़कों को पढायेंगे-लिखायेंगे। हमारी तो किसी तरह कट गई, लड़कों को तो आदमी बनाना है।

प्यारी यह प्रस्ताव सुनकर अवाक रह गई उनका मुंह ताकने लगी। इसके पहले इस तरह की बात-चीत कभी न हुई थी। यह धुन कैसे सवार हो गई। उसे सन्देह हुआ, शायद मेरे कारण यह भावना उत्पन्न हुई है। बालो. मैं तो आने को न कहूँगी, मागे जैसी तुम्हारी इच्छा हो। लड़कों को पढ़ाने-लिखाने के लिए यहाँ भी
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तो मदरसा है। फिर क्या नित्य यही दिन बने रहेंगे तीन साल भी खेती बन गई, तो सब कुछ हो जायगा।

मथुरा --- इतने दिन खेती करते हो गये, जब अब तक न बनो, तो अम क्या बन जायगी। इसी तरह एक दिन चल देंगे, मन-की-मन में रह जायगी। फिर अब पौरुख भी तो थक रहा है। यह खेती कौन संभालेगा। लड़कों को मैं इस चक्को में जोतकर उनकी ज़िन्दगी नहीं खराब करना चाहता।

प्यारी ने आँखों में आंसू लाकर कहा --- भैया, घर पर जब तक आधी मिले, सारी के लिए न धावना चाहिए, अगर मेरी और से कोई बात हो तो अपना घर-बार अपने हाथ में करो, मुझे एक टुकड़ा दे देना, पड़ी रहूंगी।

मथुरा आद्रकण्ठ होका बोला --- भाभी, यह तुम क्या कहती हो, तुम्हारे ही सँभाले यह घर अब तक चला है, नहीं रसातल को चला गया होता। इस गिरस्ती के पीछे तुमने अपने को मिट्टी में मिला दिया, अपनी देह धुला कालो। मैं अन्धा नहीं हूँ। सय कुछ सममता हूँ। हम लोगों को जाने दो। भगवान् ने चाहा तो घर फिर संभल जायगा। तुम्हारे लिए हम बरावर खरच-बरच भेजते रहेंगे।

प्यारी ने कहा --- तो ऐसा ही है तो तुम चले जाव, बाल-बच्चों को कहा --- कहाँ बांधे फिरोगे?

दुलारी बोली --- यह कैसे हो सकता है बहन, यहाँ देहात में लड़के क्या पढ़ें- लिखेंगे। बच्चों के बिना इनका जी भी वहां न लगेगा। दौड़-दौड़ घर आयेंगे और सारी कमाई रेल खा जायगो। परदेश में अकेले जितना खरच होगा, उतने में सारा घर आराम से रहेगा।

प्यारी बोली --- तो मैं ही यहाँ रहकर क्या करूँगी ? मुझे भी लेते चलो।

दुलारी उसे साथ ले चलने को तैयार न थी। कुछ दिन जीवन का आनन्द उठाना चाहती थी, अगर परदेश में भी यह बन्धन रहा तो जाने से फायदा हो क्या? बोली --- बहन, तुम चलती तो क्या बात थी, लेकिन फिर यहाँ का सारा कारो- बार तो चौपट हो जायगा। तुम तो कुछ-न-कुछ देख-भाल करतो ही रहोगी।

प्रस्थान के तिथि के एक दिन पहले हो रामप्यारी ने रात-मर जागकर हलुवा और पूनियाँ पकाई। जब से इस घर में आई, कभी एक दिन के लिए भी अकेले रहने का अवसर नहीं पाया। दोनों बहनें सदेव साथ रही। आज उस भयंकर
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अवसर को सामने आते देखकर प्यारी का दिल बैठा जाता था। वह देखती थी, मथुरा प्रसन्न है, दुलारी भी प्रसन्न है, बाल-वृन्द यात्रा के आनन्द में खाना-पीना तक भूले हुए है, तो उसके जो में आता, वह भी इसी भांति निन्द्र रहे, मोह और ममता को पैगें से कुचल डाले, किन्तु वह ममता जिस खाद्य को खा-खाकर पलो थी, उसे अपने सामने से हटाये जाते देखकर क्षुब्ध होने से न रुकती थी। दुलारी तो इस तरह निश्चिन्त होकर बठी थी, मानों कोई मेला देखने जा रही है। नई-नई चीजों को देखने, नई दुनिया में विचरने को उत्सुकता ने उसे क्रियाशून्य-सा कर दिया था। प्यारी के सिर सारे प्रबन्ध का भार था। धोबी के घर से सब कपड़े आये हैं या नहीं, कौन-कौन से बर्तन साथ जायेंगे, सफर खर्च के लिए कितने रुपयों को जरूरत होगी, एक बच्चे को खाँसो आ रही थी, दूसरे को कई दिन से दस्त आ रहे थे, उन दोनों की औषधियों को पोसना-कूटना आदि सैकड़ों ही काम उसे व्यस्त किये हुए थे। लड़कोरी न होकर भी वह बच्चों के लालन-पालन में दुलारी से कुशल थी। 'देखो, बच्चों को बहुत मारना-पोटना मत, मारने से बच्चे जिद्दी और बेहया हो जाते हैं। बच्चों के साथ आदमी को बच्चा बन जाना पड़ता है, कभी उनके साथ खेलना पड़ता है, कभी हंसना पड़ता है। जो तुम चाहो कि हम आराम से पड़े रहें और बच्चे चुपचाप बैठे रहें, हाथ-पैर न हिलायें, तो यह हो नहीं सकता। बच्चे तो स्वभाव के चञ्चल होते हैं। उन्हें किसी न किसी काम में फंसाये रखो। धेले का एक खिलौना 'इज़ार धुड़कियों से बढ़कर होता है।' दुलारी उपदेशों को इस तरह बेमन होकर सुनती थी, मानों कोई सनककर बक रहा हो।

बिदाई का दिन प्यारी के लिए परीक्षा का दिन था। उसके जी में आता था, कहीं चली जाय, जिसमें वह दृश्य न देखना पड़े। हा ! घड़ी-भर में यह घर सूना हो जायगा ! वह दिन-भर घर में अकेलो पड़ी रहेगी। किससे हँसेगी-बोलेगो ? यह खोचकर उसका हृदय कॉप जाता था। ज्यों-ज्यों समय निकट आता था, उसको वृत्तियां शिथिल होती जाती थी। वह कोई काम करते-करते जैसे खो जाती थी और अपलक नेत्रों से किसी वस्तु को ओर ताकने लगती थी। कभी अवसर पाकर एकान्त में जाकर थोड़ा-सा रो आती थी। मन को समझा रही थी, वह लोग अपने होते तो क्या इस तरह चले जाते ? यह तो मानने का नाता है। किसी पर कोई जबरदस्तो है ? दूसरों के लिए जितना हो मरो, तो भी अपने नहीं होते। पानी तेल में कितना हो मिले,
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फिर भी अलग ही रहेगा। बच्चे नये-नये कुरते पहने, नवाब भने घूम रहे थे। प्यारी उन्हें प्यार करने के लिए गोद में लेना चाहती, तो रोने का-सा मुँह बनाकर छुड़ाकर भाग जाते। वह क्या जानती थी कि ऐसे अवसर पर बहुधा अपने बच्चे भी निठुर हो जाते हैं।

दस बजते-बजते द्वार पर बैलगाड़ी आ गई। लड़के पहले हो से उस पर जा बैठे। गांव के कितने स्त्री-पुरुष मिलने आये। प्यारी को इस समय उनका आना बुरा लग रहा था। वह दुलारी से थोड़ी देर एकान्त में गले मिलकर रोना चाहती थी, मथुरा से हाथ जोड़कर कहना चाहती थी, मेरी खोज-खबर लेते रहना, तुम्हारे सिवा मेरा ससार में कौन है; लेकिन इस भम्सड़ मे उसको इन बातों मौका न मिला। मधुरा और दुलारी दोनों गाड़ी में जा बैठे और प्यारी द्वार पर रोती खड़ी रह गई ! वह इतनी विह्वल थी कि गांव के बाहर तक पहुंचाने की भो उसे सुधि न रहो।

( ६ )

कई दिन तक प्यारी मूछित-सी पड़ी रही। न घर से निकली, न चूल्हा जलाया, न हाथ मुंह धोया। उसका हलवाहा जो बार-बार आकर कहता -- 'मालकिन, उठो, मुंह-हाथ धोओ, कुछ खाओ-पियो। कल तक इस तरह पड़ी रहोगी ?' इस तरह की तसाली गांव की और स्त्रियाँ भी देती थीं। पर उनकी तसल्ली में एक प्रकार की या का भाव छिपा हुआ जान पड़ता था। जोखू के स्वर में सच्ची सहानुभूति झलकती थी। जोखू कामचोर मातूनी और नशेबाज था। प्यारी उसे वावर दाटती रहती थी। दो-एक बार उसे निकाल भी चुकी थी पर मथुग के आग्रह से फिर रख लिया था। आज भी मौख की सहानुभूति-भरी माते सुनकर प्यारो झुमलाती, यह काम करने क्यों नहीं जाता, यहाँ मेरे पीछे क्यों पड़ा हुआ है , मगर उसे झिड़क देने को जी न चाहता था। उसे इस समय सहानुभूति की भूख थी। फल क कांटेदार वृक्ष से भी मिले, तो क्या उन्हें छोड़ दिया जाता है ?

धीरे धोरे क्षोभ का वेग कम हुमा। जीवन के व्यापार होने लगे। अब खेती का सारा भार प्यारी पर था। लोगों ने सलाह दी, एक हल तोड़ दो और खेतों को उठा दो; पर प्यारी का गर्व यों ढोल बजाकर अपनी पराजय स्वीकार न कर सकता था। सारे काम पूर्ववत् चलने लगे। उधर मथुरा के चिट्ठी-पत्रो न भेजने से उसके अभिमान को और भी उत्तेजना मिली। वह समझता है, मैं उसके पासरे बैठी हूँ
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यहाँ उसको भी खिलाने का दावा रखती हूँ। उसके चिट्ठी भेजने से मुझे कोई निधि न मिल जाती। उसे अगर मेरी चिन्ता नहीं है तो मैं कब उसकी परवाह करता हूँ।

घर में तो अब विशेष कोई काम रहा नहीं, प्यारी सारे दिन खेती-बारी के कामों में लगी रहती। खर्बुजें बोये थे। वह खूब फले और खूब बिके। पहले सारा दूध घर में खर्च हो जाता था, अब विकने लगा। प्यारी की मनोवृत्तियों में भी एक विचित्र परिवर्तन आ गया। वह अम साफ-सुथरे कपड़े पहनतो, मांग-चोटी की ओर से भी उतनी उदासीन न थी। आभूषणों में भी रुचि हुई। रुपये हाथ में आते ही उसने सपने गिरवी गहने छुड़ाये और भोजन भी सयम से करने लगी ! सागर पहले खेतों को सींचकर खुद खाली हो जाता था। अब निकास की नालियां बन्द हो गई थी। सागर में पानी जमा होने लगा और अव उसमें हलकी-हलकी लहरें भी थीं, खिले हुए कमल भी थे।

एक दिन जोखू हार से लौटा, तो अँधेरा हो गया था। प्यारी ने पूछा --- अब तक वहाँ क्या करता रहा ?

जोखू ने कहा --- चार क्यारियां बच रही थी। मैंने सोचा, दस मोट और खींच दूं। कल का झंझट कौन रखे।

जोखू अब कुछ दिनों से काम में मन लगाने लगा था। जब तक मालिक उसके सिर पर सवार रहते थे, वह हौले-बहाने करता था। अब सब-कुछ उसके हाथ में था। प्यारी सारे दिन हार में थोड़े ही रह सकती थी , इसलिए अब उसमें ज़िम्मेवारी आ गई थी।

प्यारी ने लोटे का पानी रखते हुए कहा-अच्छा, हाथ-मुँह धो डालो। आदमी जान रखकर काम करता है, हाय-हाय करने से कुछ नहीं होता। खेत आज न होते, कल होते, क्या जल्दी थी।

जोखू ने समझा, प्यारी बिगड़ रही है। उसने तो अपनी समझ में कारगुज़ारी को थी और समझा था, तारीफ़ होगी। यहाँ आलोचना हुई। चिढ़कर बोला-माल. किन, तुम दाइने-बायें दोनों ओर चलती हो। जो बात नहीं समझती हो, उसमें क्यों कूदती हो। कल के लिए तो उँचवा के खेत पड़े सूख रहे हैं। आज बड़ी मुसकिल से कुआं खाली हुआ । सवेरे मैं न पहुँचता, तो कोई और भाकर न छेक लेता ? फिर -अठवारे तक राह देखनी पड़तो। तब तक 'तो सारी ऊख बिदा हो जाती। [ १२४ ]प्यारी उसकी सरलता पर हंसकर बोली --- अरे तो मैं तुझे कुछ कह थोड़ी रही हूँ, पागल ! मैं तो यह कहती हूँ कि जान रखकर काम कर । कहीं बीमार पड़ गया, तो लेने के देने पड़ पायेंगे।

जोखू --- कौन बीमार पड़ जायगा, मैं ? बोस साल में कभी सिर तक तो दुखा नहीं, आगे की नहीं जानता। कहो रात-भर काम करता रहूँ।

प्यारी --- मैं क्या जानें, तुम्ही अंतरे दिन बैठ रहते थे, और पूछा जाता था, तो कहते थे-जुर भा गया था, पेट में दरद था।

जोखू झेंपता हुआ बोला --- वह वाते जब थीं, जब मालिक लोग चाहते थे कि इसे पीस डालें। अब तो जानता हूँ, मेरे हो माधे हैं। मैं न करूंगा तो सब चौपट हो जायगा।

प्यारी में क्या देख-भाल नहीं करती ?

जोखू --- तुम बहुत करोगी, दो बेर चलो जावगी। सारे दिन तुम वहाँ बैठी. नही रह सकती।

प्यारी को उसके निष्कपट व्यवहार ने मुग्ध कर दिया। बोली --- तो इतनी रात गये चूल्हा जलाओगे। कोई सगाई क्यों नहीं कर लेते ?

जोखू ने मुँह धोते हुए कहा -तुम भो खूब कहतो हो मालकिन । अपने पेट-भर को तो होता नहीं, सगाई कर लूँ। सवा सेर खाता हूँ एक जून-पूरा सवा सेर ! दोनों जून के लिए दो सेर चाहिए।

प्यारी --- अच्छा, आज मेरी रसोई में खाओ, देखू कितना खाते हो !

जोखू ने पुलकित होकर कहा --- नहीं मालकिन, तुम अनाते-बनाते थक जावगी। हाँ, माध-आध सेर के दो रोट बनाकर खिला दो, तो खा लूं। मैं तो यही करता हूँ। क्स, आटा सानकर दो लिट बनाता हूँ और उपले पर सेंक लेता हूँ। कभी मठे से, कभी नमक से, कभी प्याज से खा लेता हूँ और आकर पड़ रहता हूँ।

प्यारी --- मैं तुम्हें आज फुलके खिलाऊँगी।

जोखू --- तब तो सारी रात खाते ही बीत जायगी।

प्यारो --- वको मत, चटपट आकर बैठ जाओ।

जोखू --- जरा बैलों को सानी-पानी देता आऊँ तो बैठूँ । [ १२५ ]

( ७ )

जोखू और प्यारी में ठनी हुई थी।

प्यारी ने कहा --- मैं कहती हूँ, धान रोपने की कोई जरूरत नहीं। झड़ी लग जाय, तो खेत डूब जाय। बर्खा बन्द हो जाय, तो खेत सूख जाय। जुआर, बाजरा, सन, अरहर सब तो हैं, धान न सही।

जोखू ने अपने विशाल कन्धे पर फावड़ा रखते हुए कहा --- जब सबका होगा, तो मेरा भी होगा। सबका डूब जायगा, तो मेरा भी डूब जायगा। मैं क्यों किसी से पीछे रहूँ। बाबा के जमाने में पांच बीघे से कम नहीं रोपा जाता था, विरजू भैया ने उसमें एक-दो बीघे और बढ़ा दिये। मथुरा ने भो थोड़ा-बहुत हर साल रोपा, तो मैं क्या सबसे गया-बंता हूँ ? मैं पाच बीधे से कम न लगाऊँगा।

'तब घर के दो जवान काम करनेवाले थे।'

'मैं अकेला उन दोनों के बराबर खाता हूँ। दोनों के बराबर काम क्यों न काँगा?

'चल, झूठा कही का ! कहते थे, दो सेर खाता हूँ, चार सेर खाता हूँ। आध सेर में रह गये।

'एक दिन तौलो तब मालूम हो।'

'तौला है। बड़े खानेवाले ! में कहे देती हूँ, धान न रोपो। मजूर मिलेंगे नहीं, अकेले हलाकान होना पड़ेगा।'

'तुम्हारी बला से। मैं ही हलाकान हूँगा न ? यह देह किस दिन काम आयेगी ?

प्यारी ने उसके कंधे पर से फांवड़ा ले लिया और बोली --- तुम पहर रात से पहर रात तक ताल में रहोगे, अकेले मेरा जी ऊबेगा।

जोखु को जी ऊबने का अनुभव न था। कोई काम न हो, तो आदमी पड़कर सो रहे। जी क्यों ऊबे ? बोला --- जी ऊबे तो सो रहना। मैं घर रहूँगा, तब तो और जो उवेगा। मैं खाली बैठता हूँ, तो बार-बार खाने को सूझती है। बातों में देर हो रही है और बादल घिरे आते हैं।

प्यारी ने हारकर कहा --- अच्छा, कल से जाना, आज बैठो।

जोखु ने मानों बन्धन में पड़कर कहा --- अच्छा, बैठ गया, कहो, क्या कहती हो ?

प्यारी ने विनोद करते हुए पूछा --- कहना क्या है, मैं तुमसे पूछती हूँ, अपनी
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सगाई क्यों नहीं कर लेते ? अकेली मरती हूँ। तब एक से दो हो जाऊँगी।

जोखू शरमाता हुआ बोला -- फिर वही बेबात-की बात छेड़ दो, मालकिन। किससे सगाई कर लूँ यहाँ ! मैं ऐसी मेहरिया लेकर क्या काँगा, जो गहनों के लिए मेरी जान खाती रहे।

प्यारी --- यह तो तुमने बड़ी कड़ी शर्त लगाई। ऐसी औरत कहाँ मिलेगो, जो गहने भी न चाहे ?

जोखू --- यह मैं थोड़े ही कहता हूँ कि वह गहने न चाहे, हाँ, मेरी जान न खाय। तुमने तो कभी गहनों के लिए हठ न किया बल्कि अपने सारे गहने दूसरों के ऊपर लगा दिये।

प्यारी के कपोलों पर हल्का-सा रंग आ गया। बोली --- अच्छा, और क्या चाहते हो ?

जोखू --- मैं कहने लगूंगा, तो बिगड़ जावगी।

प्यारी की आँखों में लज्जा को एक रेखा नज़र आई, बोली --- बिगड़ने की बात कहोगे, तो जहर बिगड़ेगी।

जोखू --- तो मैं न कहूँगा।

प्यारी ने उसे पीछे की ओर ढकेलते हुए कहा --- कहोगे कैसे नहीं, मैं कहलाके छोड़ूँगी।

जोखू --- मैं चाहता हूँ कि वह तुम्हारो तरह हो, ऐसौ ही गंभीर हो, ऐसी ही बातचीत में चतुर हो, ऐसा ही अच्छा खाना पकाती हो, ऐसी हो किफायती हो, ऐसी ही हसमुख हो। बस, ऐसी औरत मिलेगी, तो करूँगा, नहीं इसी तरह पड़ा रहूँगा।

प्यारी का मुख लज्जा से आरक्त हो गया। उसने पीछे हटकर कहा --- तुम बड़े नटखट हो। हँसी-हँसी में सब-कुछ कह गये।

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