हिंदी निबंधमाला-१/आपत्तियों का पर्वत-श्रीयुत केशवप्रसाद सिंह

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हिंदी निबंधमाला

पहला भाग

(१) आपत्तियों का पर्वत

एक स्वप्न

जगत्प्रसिद्ध तत्त्वज्ञानी महात्मा सौक्रेटीज का मत था कि यदि संसार के मनुष्य मात्र की आपत्तियाँ एक ठौर एकत्र की जायँ और फिर सबको बराबर बराबर हिस्सा बाँट दिया जाय तो इस प्रबंध से भी उन मनुष्यों को संतोष नहीं हो सकता जो पहले अपने को अत्यंत अभागा वा विपद्ग्रस्त समझते थे, क्योंकि वे शीघ्र ही यह विचारने लगेंगे कि मेरी पूर्व दशा ही अच्छी थी। इसका कारण यह है कि जो दशा अच्छी वा बुरी विधना की ओर से हमें मिली है वह या तो (१) हमारी सहन-शक्ति के योग्य होती है, या (२) उसमें रहने से हम उसके सहन करने में अभ्यस्त हो जाते हैं, और इस कारण दोनों अवस्थाओं में से कोई भी हमें नहीं खलती। महाकवि होरेस भी इस विषय में सौक्रेटीज से सहमत थे। इन्होंने यहाँ [  ]
तक लिखा है कि जिन कठिनाइयों वा यातनाओं में हम पिसते रहते हैं वे उन आपत्तियों की अपेक्षा बहुत ही न्यून हैं जो हमको अपनी दशा दूसरे से परिवर्तन करने में मिल सकती हैं।

मैं अपनी आरामकुरसी पर बैठा उक्त दो कथनों पर विचार कर रहा था और अपनी मानसिक तरंगों में निमग्न था, कि मुझे कहों झपकी सी आ गई और मैं तुरंत खर्राटे लेने लग गया। सोया सोया देखता क्या हूँ कि मैं एक रमणीक मैदान में जा पहुँचा हूँ जिसके चारों ओर ऊँचे ऊँचे पर्वत श्रेणीबद्धक्षखड़े हैं। इन पर्वतों ने हरी वनस्पतियों से अपने प्रत्येक अंग को ऐसा ढक रखा है कि क्या मजाल जो कहीं भी खुला दिखाई दे जाय। इनके ढाल पर छोटे छोटे वृक्षों के बीच में कहीं कहीं कोई बड़ा वृक्ष देखने में बहुत भला लगता था। यद्यपि प्रकृति रूपी माली ने इस मैदान में एक भी बड़ा वृक्ष रहने नहीं दिया है, पर मैदान की हरी हरी घास वायु के हिलोरों में लहलहाती हुई कैसी प्यारी लग रही है! मैं इन्हों मानसिक भावों की तरंगों में अपने आपको भूल प्रकृति की अनुपम शोभा देख रहा था कि सहसा मुझे कुछ शब्द सुनाई पड़े। ध्यान देकर सुनने से जान पड़ा कि जैसे कहीं ढिंढोरा पिटता हो। पास के एक मनुष्य से पूछने पर मालूम हुआ कि भगवान् चतुरानन ने आज्ञा दी है कि मनुष्य मात्र आकर अपनी अपनी आपत्तियाँ इस स्थान में फेंक जाय। इस कार्य के लिये यह मैदान नियत किया गया है। यह सुन मैं भी एक
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कोने में खड़ा हो इस कौतुकमय लीला को देखने के लिये प्रस्तुत हो गया। यह देखकर मुझे एक प्रकार की प्रसन्नता होती थी कि सारे मनुष्य क्रमशः आ आकर अपनी अपनी विपचि की गठरी मैदान में फेंक रहे हैं। यह ढेर थोड़ी ही देर में इतना बड़ा हो गया कि आकाश को छता दिखाई पड़ने लगा। इस भीड़भाड़ में एक दुबली पतली चंचला स्त्रो बड़ा उत्साह दिखा रही थी। ढीला ढाला वस्त्र पहने हाथ में भ्यागनीकाइंग ग्लास लिए वह इधर उधर घूमती दिखाई दे रही थी। में प्रेत के मनःकल्पित चित्र बेल बूटों में कढ़े थे।

जब उसका वस्त्र वायु में इधर उधर उड़ता तब बहुत सी विचित्र ढंग की हास्यजनक एवं भयानक कलित मूर्तियाँ उसमें दिखाई पड़तों। इसकी चेष्टा से उन्माद तथा विह्वलता के कुछ चिह्न झलक रहे थे। लोग इसे भावना कहकर पुका- रते थे। मैंने देखा कि यह चंचला प्रत्येक मनुष्य को अपने साथ ढेर के पास ले जाती, बड़ी उदारता से उनकी गठरी कंधे पर उठवा देती और अंत में उसके फेंकने में भी पूरी सहायता देती है। मेरा हृदय यह दृश्य देख, कि सभी मनुष्य अपने विपद्भार के नीचे दब रहे हैं, भर आया। आपत्तियों का यह पर्वत देखके मेरा चित्त और भी चलायमान हो रहा था।

इस स्त्री के अतिरिक्त और कई एक मनुष्य इस भीड़ में मुझे विचित्र दिखाई पड़े। एक को देखा कि वह चीथड़ों की
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एक गठरी अपने लबादे के भीतर बड़ी सावधानी से छिपाए हुए आया है। जब उसे फेंकने लगा तब मैंने देखा कि अपने दारिद्रव को फेंक रहा है। एक दूसरे को देखा कि बड़े पाश्चात्ताप के साथ अपनी गठरी फेंककर चलता हुआ। मैंने उसके जाने पर उसकी गठरी खोलकर देखी तो मालूम हुआ कि दुष्ट अपनी अर्धांगिनी को फेंक गया है जिससे उसको सुख की अपेक्षा अति दुःख प्राप्त होता था। इसके अनंतर दिखाई दिया कि बहुतेरे प्रेमीजन अपनी अपनी गुप्त गठरी लिए आ रहे हैं।

पर सबसे आश्चर्यजनक बात यह थी कि यद्यपि ये लोग अपनी अपनी गठरियाँ फेंकने के हेतु लाए थे, और उनके दीर्घ निःश्वास से जान पड़ता था कि उनका हृदय इस बोझ के नीचे दबकर चूर चूर हुआ जाता है, पर उस ढेर के निकट पहुँचने पर उनसे फेंकते नहीं बनता।

ये लोग कुछ काल तक खड़े न जाने क्या सोचते रहे। उनकी चेष्टा से अब ऐसा जान पड़ने लगा कि उनके चित्त में मानों बड़ा संकल्प विकल्प हो रहा है। फिर शीघ्र ही उनका मुख प्रफुल्ल दिखाई पड़ने लगा और वे अपनी अपनी गठरी ज्यों की त्यों लिए वहाँ से चलते दिखाई दिए। मैं समझ गया। इन लोगों ने तर्क वितर्क के पश्चात् यही निश्चय किया कि अपनी अपनी बला अपने पास ही रखना भलमनसाहत है इसी से ये सब अपनी गठरियाँ अपने घर लिए जा रहे हैं। मैंने
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देखा कि बहुत सी मनचली बूढ़ी स्त्रियाँ, जिनके मन की अभी सुख-संभोग से तृप्ति नहीं हुई थी और जो चाहती थों कि हम सदा नवयौवना ही बनी रहें, अपनी झुर्रियाँ फेंकने के लिये आ रही हैं। बहुतेरी अल्पवस्यका छोकड़ियाँ अपना काला वर्ण फेंक रही हैं और यह चाहती हैं कि मेरा रंग गोरा हो जाय। किसी ने अपनी बड़ो नाक, किसी ने नाटा कद और किसी ने अपनी बड़ी पेटी फेंक दी है और यह प्रार्थी हुई हैं कि मेरी तोंद की परिधि कुछ कम हो जाय या यदि रहे भी तो कुछ उँचाई अधिक मिल जाय। किसी ने अपना कुबड़ापन प्रसन्नतापूर्वक ढेर में फेंक दिया है। इसके पश्चात् रोगियों का दल आया जिसने अपना अपना रोग अलग कर दिया। पर मुझे सबसे आश्चर्यजनक यह जान पड़ा कि मैंने इन सब मनुष्यों में किसी को भी अब तक ऐसा नहीं देखा जो अपने दोषों वा अपनी मूर्खता से अलग होने आया हो। मैंने पहले सोचा था कि मनुष्य मात्र इस समय अवसर पा अपना अपना मनोविकार फेंक जायेंगे।

अब मैंने देखा कि कोई कोई मनुष्य पत्र के बंडल बगल में दबाए बड़ी व्यग्रता से फेंकने को दौड़े आ रहे हैं। क्यों भाई! यह पत्रों का बंडल कैसा? मालूम हुआ कि यह दफा १२४ ए० है जिसने इन महाशयों को चिंताकुल कर रखा है, एवं इनके व्यापार में बाधा डाल रखी है। इसके अनंतर एक मूर्ख को देखा कि वह अपने अपराधों को बंडल में बाँधकर
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फेंकने ले आया है, किंतु अपराधों को फेंकने के बदले अपनी चेतना शक्ति को फेंके देता है। एक दूसरे महापुरुष अविद्या के स्थान में नम्रता को पटककर भागे जाते हैं।

जब इस प्रकार मनुष्य मात्र अपने अवगुणों की गठरियाँ फेंक चुके, तब वह चंचला युवती फिर दिखाई पड़ी, पर इस बार वह मेरी ओर आ रही है। यह देख मेरे जी में अनेक प्रकार के विचार उठने लगे। पर उसकी मदमाती चाल कुछ ऐसी भली मालूम हुई कि मैं एकटक उसी ओर देखता रहा। उसके अंग अंग मे ऐसी चंचलता भरी थी कि चलने में एक एक अंग फड़कता था। मैं यह देख ही रहा था कि वह आ पहुँची और जैसे कोई किसी को दर्पण दिखावे, उस ने अपने बृहद्दर्शक यंत्र को मेरे सम्मुख किया। मैं अपने चेहरे को उसमें देखकर चौंक पड़ा। उस की अपरिमित चौड़ाई पर मुझे बड़ी ग्लानि हुई और उस को उपमुख के समान उतारकर मैंने भी फेंक दिया। संयोग से जो मनुष्य मेरी बगल में खड़ा था उसने अभी कुछ देर पहले अपने बेढब लंबे चेहरे को अलग कर दिया था। मैंने सोचा कि मुझे अपने लिये दूसरा चेहरा कहीं दूर खोजने नहीं जाना पड़ेगा और उसने भी यही सोचा कि उसे भी पास ही अपने योग्य सुडौल चेहरा मिल जायगा। मनुष्य मात्र अपनी आपत्तियाँ फेंक चुके थे। इस कारण अब उन सबको अधिकार था कि अपने लिये जो चाहें ढेर मे से ले सकते हैं।
[ १२ ]वास्तव में मुझे यह देख बड़ी प्रसन्नता होती थी कि संसार के सब मनुष्यों ने अपनी अपनी विपद फेंक दी है। उनकी आकृति से संतुष्टता का लक्ष्य हो रहा था। अपने कार्य से छुट्टी पा सभी इधर उधर टहल रहे थे। पर अब मुझे यह देख आश्चर्य हो रहा था कि बहुतों ने जिसे अपत्ति समझकर अलग कर दिया था उसी के लिये बहुतेरे मनुष्य टूट रहे थे, एवं मन ही मन यह कहते थे कि ऐसे स्वर्गीय पदार्थ को जिसने फेंक दिया है वह अवश्य कोई मूर्ख होगा। अब भावना देवी फिर चंचल हुई और इधर उधर दौड़ धूप करने लगीं। सबको फिर बहकाने लगी कि तू अमुक पदार्थ ले, अमुक वस्तु न ले।

इस समय सारी भीड़ में जो कोलाहल मच रहा था उसका वर्णन नहीं हो सकता। मनुष्य मात्र में एक प्रकार की खलबली फैल रही थी। क्या बालक, क्या वृद्ध, सभी अपने अपने मनोवांछित पदार्थ के ढूँढ़ निकालने में दत्तचित्त हो रहे थे।

मैंने एक वृद्ध को, जिसे अपने एक उत्तराधिकारी की बड़ी चाह थी, देखा कि एक बालक को उठा रहा है। इस बालक को उसका पिता उससे दुखी होकर फेंक गया था। मैंने देखा कि इस दुष्ट पुत्र ने कुछ देर बाद उस वृद्ध का नाकों में दम कर दिया। वह बेचारा अंत में फिर यही विचारने लगा कि मेरा पूर्व क्रोध ही मुझे मिल जाय । संयोग से इस बालक के पिता से उसकी भेंट हो गई। इस वृद्ध ने उससे सविनय कहा कि महाशय! आप अपना पुत्र ले लीजिए और मेरा
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क्रोध मुझे लौटा दीजिए। पर अब ऐसा करने में वह समर्थ ना था ।एक जहाजी नौकर ने अपनी बेड़ी फेंक दी थी और बदले में वात रोग की गठरी उठा ली। पर इससे उसका स्वरूप ऐसा विचित्र हो गया था कि देखते नहीं बनता था। इसी प्रकार सभी ने कुछ न कुछ हेरा फेरी की। किसी ने अपने दारिद्रव के पलटे में कोई रोग पसंद किया, किसी ने तुधा देकर अजीर्ण उठा लिया। बहुतेरों ने अपनी पीड़ा के बदले कोई चिंता ले ली। पर सबसे अधिक स्त्रियाँ ही इस हेरा फेरी में दिखाई देती थीं। इन्हें अपने नाक, कान वा चेहरे मोहरे के चुनने में बड़ी कठिनाई मालूम पड़ती थी। कोई अपने मुख पर के तिल से लंबे लंबे केश बदल रही हैं, किसी ने पतली कमर के बदले चौड़ा सीना लेने की इच्छ प्रकट की है। किसी ने अपनी कुरूपता देकर वेश्यावृत्ति ग्रहण करना ही सस्ता समझ लिया है। जो हो, पर ये अबलाएँ अबला होने के कारण वा अपनी तीक्ष्णता के कारण अपनी नवीन दशा को शीघ्र ही समझ जायँगी एवं अपनी पूर्व दशा को प्राप्त होने और नवीन के त्यागने में सबसे पहले तत्पर हो जायेंगी ।

मुझे सबसे अधिक दया उस कुबड़े पर आती है जिसने अपना कुबड़ापन बदलकर पैर का लँगड़ापन पसंद किया था।

अब मैं अपना वृत्तांत सुनाता हूँ। मैं पहले कह चुका हूँ कि मेरे बगलवाले मनुष्य ने मेरा छोटा मुख अपने लिये चुन रखा था। उसने अवसर पाते ही मेरा चेहरा उठा लिया और
[ १४ ]प्रसन्नतापूर्वक अपने चेहरे पर लगा लिया। मेरा गोल चेहरा लगाते ही वह ऐसा कुरूप तथा हास्यजनक दिखाई पड़ने लगा कि मैं हँसी न रोक सका। वह भी मेरी हँसी ताड़ गया और अपने किए पर अपने मन में पछताने लगा। अब मेरे मन में भी यह विचार उठा कि कहीं मैं भी वैसा ही बेढङ्गा न दिखाई पड़ता होऊँ। नवीन चेहरा पोकर मैंने अपना माथा खुरचने के लिये हाथ बढ़ाया तो माथे का स्थान भूल गया। हाथ होठों तक पहुँच कर रुक गया । नाक के स्थान का भी ठीक ठीक अनुभव न था। इसी से उँगलियों की कई बार ऐसी ठोकर लगी कि नेत्रों में जल भर आया। मेरे पास ही दो मनुष्य ऐसी बेढब सूरतवाले खड़े थे जिन्हें देख देख मैं मन ही मन हँस रहा था।

वह सारा ढेर इस प्रकार मनुष्यों ने आपस में बाँट लिया पर वास्तविक संतुष्टता को वे तिस पर भी न प्राप्त हुए। जो बुद्धिमान थे उन्हें अपनी मूर्खता का बोध पहले होने लगा। सारे मैदान में पहले से अधिक विलाप और भनभनाहट का शब्द सुनाई देने लगा। जिधर दृष्टि पड़ती थी उसी ओर लोग बिलख रहे थे और ब्रह्मा की दुहाई दे रहे थे जब ब्रह्मा ने देखा कि अब बड़ा हाहाकार मच गया है और यदि शीघ्र इनका उद्धार न किया गया तो और भी हाहाकार मच जायगा, तब उन्होंने फिर आज्ञा दी कि मनुष्य मात्र फिर अपनी अपनी आपत्तियाँ फेंक दें, उनको उनकी पुरानी आपत्ति दी जायगी। [ १५ ]
यह आज्ञा सुन सबके जी में जी आया। सभी लोग जो उप- स्थित थे मुग्ध हो गए, एवं जयध्वनि करने लगे। सबने पुनः अपनी अपनी गठरी फेंक दी। इस बार एक विशेषता देखने में आई। वह यह थी कि ब्रह्मा ने उस चंचला स्त्री को आज्ञा दी कि वह तत्क्षण वहाँ से चली जाय । भावना देवी यह आज्ञा पाते ही वहाँ से चल दी। उसका वहाँ से जाना था कि एक दूसरी स्त्री आती दिखाई पड़ी। पर इसकी उसकी आकृति में इतना अधिक भेद था कि दोनों की तुलना करना कठिन है। पर हाँ, दो चार मोटी मोटी बातों पर विवेचना करके उनका अंतर दिखा देना हम आवश्यक समझते हैं। पहली स्त्री के चंचल नेत्र तथा चाल ढाल ऐसी मनमोहनी थी कि एक अन- जान भोले भाले चित्त को मुट्ठी में कर लेना कोई बड़ी बात न थी, पर इस नई स्त्री की आकृति कुछ और ही कह रही थी। इसके देखते ही चित्त में भय तथा सम्मान का संचार उत्पन्न हो आता था और चित्त यही चाहता था कि घंटों इसे खड़े देखा करें। जिस प्रकार विधना ने उसके अंग में चंचलता कूट कूटकर भर दी थी, उसी प्रकार इसके प्रत्येक अंग से शांति तो गंभीरता बरस रही थी। यदि उसे आप शिशुवत् चंचला कहिए तो इसे आपको अवश्य ही शांति देवी की मूर्ति कहना पड़ेगा। इसके चेहरे से यद्यपि गंभीरता के भाव का लक्ष्य होता था, पर साथ ही एक मंद मुसकान दिखाई देती थी जिसका चित्त पर बड़ा दृढ़ प्रभाव पड़ता था। ज्योंही यह देवी
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मैदान में पहुँची, समस्त नेत्र उसकी ओर आकर्षित हो गए। वह धीरे धीरे आपत्तियों के पर्वत पर चढ़ गई । उसका उस ढेर पर चढ़ना था कि वह ढेर पहले की अपेक्षा तिगुना कम दिखाई देने लगा। न जाने इसमें क्या भेद था कि जितनी आपत्तियाँ थीं, सभी कठोरता-रहित और कोमल दिखाई पड़ने लगी। मैं अति व्यग्र हो इस देवी का नाम पूछने लगा। इस पर एक दयावान ने झिड़ककर उत्तर दिया, रे मूर्ख ! तू क्या इनसे परिचित नहीं है ? इन्हीं का नाम धीरता देवी है। अब ये देवी प्रत्येक मनुष्य को उसका पूर्व भाग बाँटने लगी और साथ ही साथ सबको समझाती जाती थीं कि इस संसार में किस प्रकार अपनी अपनी आपत्तियों को धैर्यपूर्वक सहन करना उचित है। जो मनुष्य उनकी वक्तृता सुनता, वह संतुष्ट हो वहाँ से जाता दिखाई देता था। मैं इस रूपक के देखने में ऐसा निमग्न था कि सारी मनुष्यजाति अपनो अपना भाग ले अपने अपने निवास-स्थान को सिधारी, पर मैं वहीं ज्यों का त्यों खड़ा सब लीला देखता रहा, यहाँ तक कि जब उस स्त्री के पास जाने और अपना विपत्ति-भाग लेने की मेरी बारी आई तब भी मैं अपने स्थान से नहीं टसका। इस पर एक आदमी मेरी ओर आता दिखाई पड़ा । मेरे पास आते ही पहले तो वह मुझसे कहने लगा कि "तुम वहाँ क्यों नहीं जाते ?" इस पर मैं कुछ उत्तर दिया ही चाहता था कि ऊँ ऊँ ऊँ करके उठ बैठा और नींद खुल गई। नींद खुलते ही नेत्र फाड़ फाड़कर
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इधर उधर देखने लगा। न तो कहाँ वह रमणीक स्थान था,न कहीं वह स्त्री थी, केवल मैं अपनी शय्या पर पड़ा था। मैं इस विचित्र स्वप्न पर विचार करने लगा। अंत में मैंने यही सारांश निकाला कि वस्तुतः इस संसार में मनुष्य के लिये धैर्यपूर्वक अपनी आपत्तियों का सहन करना, कभी किसी अन्य पुरुष की दशा को ईर्ष्या की दृष्टि से न देखना ही सुख का मूल है।


——केशवप्रसाद सिंह