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हिंदी रसगंगाधर/विषय-विवेचन

विकिस्रोत से
हिंदी रसगंगाधर
श्रीगोकुलनाथ

इलाहाबाद: इण्डियन प्रेस, पृष्ठ ४१ से – १०६ तक

 

 

विषय-विवेचन

काव्यलक्षण का विवेचन



कवि और काव्य

इस ग्रंथ को स्वयं ग्रंथकर्ता ने 'काव्यमीमांसा'[] कहा है, और सबसे पहले काव्य-लक्षण का ही विवेचन किया है; अत: यह सोचिए कि जिसकी मीमांसा इस ग्रंथ में की जा रही है और जिसका लक्षण सबसे प्रथम लिखा गया है, वह काव्य क्या वस्तु है? अर्थात् काव्य शब्द का वास्तविक अर्थ क्या है? और साथ ही यह भी सोचिए कि वह काव्य-लक्षण अब तक किन किन विवेचकों की टक्करें खाकर किस किस रूप में परिणत हो चुका है।

'काव्य' शब्द का अर्थ, व्याकरण की रीति से, 'कवि[] की कृति' होता है, अर्थात् कवि जो कार्य करता है, उसे 'काव्य' कहा जाता है। तब यह समझने की आवश्यकता होती है कि कवि शब्द का अर्थ क्या है, और वह क्या कार्य करता है। व्याकरण के अनुसार कवि शब्द का अर्थ किसी विषय का कहनेवाला[] अथवा प्रतिपादन करनेवाला होता है और कोषकार उसे पंडित[] शब्द का पर्यायवाची मानते हैं। अतः व्याकरण और कोष दोनों, अथवा यों कहिए कि योग और रूढ़ि दोनों, की दृष्टि से एक साथ विचार करने पर इस शब्द का अर्थ 'किसी विषय का प्रतिपादन करनेवाला विद्वान्' होता है। इसी बात को सीधे शब्दों में यों कह सकते हैं कि कवि उस जानकार का नाम है, जो अपनी जानी हुई बातों का प्रतिपादन कर सके।

शुरू शुरू में यह शब्द इसी अर्थ मे व्यवहृत होता था। अतएव सर्वज्ञ और, वेदों के द्वारा, सब पदार्थों का सूक्ष्म रूप से प्रतिपादन करनेवाले जगदीश्वर के लिये वेदों में इस शब्द का प्रयोग हुआ है—"कविर्मनीषी परिभूः स्वयंभूः" (शुक्लयजुः-संहिता अ॰ ४० मं॰ ८)। इसी प्रकार वेदों के सर्व-प्रथम विद्वान् और प्रकाशयिता ब्रह्मा को भी पुराणों में "आदिकवि" कहा गया है—"तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये (श्रीमद्भागवत १-१-१)। जिस तरह वैदिक वाणी के प्रथम-प्रकाशक ब्रह्मा को यह पदवी प्राप्त हुई, उसी प्रकार लौकिक वाणी में सर्वप्रथम वर्णयिता महर्षि वाल्मीकि भी "आदिकवि" की पदवी से विभूषित किए गए। उनके अनंतर महाभारत जैसे महोपाख्यान और अष्टादश महापुराणों के प्रणेता महामुनि कृष्ण द्वैपायन (वेदव्यास) "कवि" पदवी के अधिकारी हुए। इसी तरह पुराणों के समय तक अन्यान्य विद्वान् वर्णयिताओं को, चाहे उनकी रचनाओं मे सौंदर्य अधिक मात्रा में होता या न होता, कवि कहा जाता था; जैसे राजनीति आदि के लेखक शुक्राचार्य आदि को। कवि शब्द का वह व्यापक अर्थ, जिसके द्वारा प्रत्येक वर्णयिता को कवि कहा जा सकता था, पुराणों के समय तक प्रचलित था। यह बात अग्निपुराण के काव्यलक्षण से स्पष्ट हो जाती है, जिसका वर्णन अभी किया जायगा।

परन्तु पीछे से यह शब्द उन विद्वानों के लिये व्यवहृत होने लगा, जो सौंदर्यपूर्ण विषय का सौंदर्यपूर्ण वर्णन करते थे और जिनके वर्णन को सुनकर मनुष्य मुग्ध हो जाते थे। अतएव व्यास और वाल्मीकि को कवि मान लेने पर भी, किसी ने, मनु, याज्ञवल्क्य अथवा पराशर जैसे विद्वानों को, यद्यपि उन्होने भी छंदोबद्ध ग्रंथ लिखे हैं, कवि नहीं कहा। काव्यलक्षण में अनेक परिवर्तन होते होते भी, शास्त्रीय दृष्टि से, यह शब्द आज दिन भी प्रायः इसी अर्थ मे व्यवहृत होता है।

अच्छा, यह तो हुई कवि की बात। अब यह समझिए कि उसका कार्य क्या है। उसका कार्य, कवि शब्द के साधारण अथवा प्रारंभिक अर्थ के अनुसार 'किसी विषय का प्रतिपादन' और विशेष अथवा आधुनिक अर्थ के अनुसार 'किसी सौंदर्यपूर्ण विषय का सौंदर्यपूर्ण वर्णन' है। प्रतिपादन अथवा वर्णन शब्दों के रूप में होता है, अतः यह समझना भी कठिन नहीं कि वह शब्द ही कवि का कार्य है।[] तब इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्रारंभ में किसी विषय के प्रतिपादन करनेवाले शब्दों को काव्य कहा जाता था।

अब आप देखिए कि काव्य का यह साधारण लक्षण किन किन विवेचकों की कैसी कैसी विचारधाराओं में प्रवाहित हुआ और अनेक टक्करें खाकर आज वह किस रूप में है।

अग्निपुराण (समय अनिश्चित)

सबसे प्रथम 'काव्यलक्षण' प्राप्य ग्रंथों में से अग्निपुराण में मिलता है। वहाँ लिखा है—

संक्षेपाद् वाक्यमिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली।
काव्यम् .. .. .. .. .......॥

अर्थात् संक्षेप से जो वाक्य होता है, उसका नाम काव्य है। और संक्षेप से वाक्य का अर्थ यह है कि जिस अर्थ को कहना चाहते हैं, वह जितने से कहा जा सकता है, उससे न अधिक और न न्यून, इस तरह की पदावली काव्य है। इसका स्पष्ट अर्थ यह है कि "काव्य उस पदावली को कहते हैं, जिसमे, जो कुछ हम कहना चाहते हैं, वह थोड़े में पूर्णतया कह दिया जाय; न तो व्यर्थ का विस्तार हो और न यही हो कि जो बात कह रहे हैं, वही साफ साफ न कही जा सके।

दंडी (छठी शताब्दी, अनुमित)

"काव्यादर्श"कार आचार्य 'दंडी' का भी, जिनको कि प्राचीन आचार्य्यों में माना जाता है, प्रायः यही काव्य-लक्षण है। उन्होंने अग्निपुराण के लक्षण में से 'संक्षेपाद् वाक्यम्' इस भाग को निकालकर केवल उसकी व्याख्या को ही स्वीकार किया है; पर दोनो में भेद कुछ भी नहीं है। वे कहते हैं—"शरीरं तावदिष्टार्थव्यवच्छिन्ना पदावली।"

रुद्रट (वामन[] से पूर्व)

इनके बाद आलंकारिक-शिरोमणि रुद्रट का समय आता है। उन्होंने अथवा उनके पूर्ववर्ती किसी आचार्य ने, अपनी सूक्ष्म दृष्टि से, एक गहरी बात सोची है। वह यों है—

हम पहले कह आए हैं कि काव्य शब्द का वास्तविक अर्थ कवि की कृति है। अब सोचिए कि कवि जिस तरह शब्दों को ढंग से जोड़कर पद्यादिक के रूप में परिणत करता है, उसी तरह वह जिन अर्थों का वर्णन करता है, उनको भी आवश्यकतानुसार नए साँचे में ढाल देता है। यही क्यों, यदि यथार्थ में सोचे तो यह कहा जा सकता है कि कवि के वर्णन किए जानेवाले पदार्थ उसी के होते हैं, वे ईश्वरीय सृष्टि के वास्तविक पदार्थों से पृथक् एवं केवल कविकल्पनाप्रसूत होते हैं। सच पूछिए तो ऐतिहासिक सीता-शकुंतला से भवभूति और कालिदास की सीता-शकुंतला निराली हैं। इसी प्रकार कालिदास का हिमालय और श्रीहर्ष का चंद्र भी लौकिक हिमालय और चंद्र से विलक्षण हैं। थोड़ा और सोचिए; सीता-शकुंतला आदि का तो इतिहास से कुछ संबंध भी है, पर भवभूति के "मालतीमाधव" को लीजिए; वह नाटक नहीं प्रकरण है; और यह सिद्ध है कि प्रकरण का कथानक कल्पित होता है। अब बताइए, उसमें जिन मालवी, माधव तथा अन्यान्य पात्रों का वर्णन है, उन्हें किसने उत्पन्न किया? विवश होकर यही कहना पड़ेगा—कवि ने। बस तो इसी बात को अन्यत्र भी लगाइए और समझिए कि कवि के वर्णनीय अर्थ मानस होते हैं, वास्तविक नहीं; अतः शब्दों की वरह वे भी कवि की कृति ही हैं। अतएव अग्निपुराण के ही शब्दों को लेकर ध्वन्यालोक में लिखा है—

अपारे काव्यसंसारे कविरेव प्रजापतिः।
यथाऽस्मै रोचते विश्वं तथेदं परिवर्त्तते॥

अर्थात् काव्यरूपी जो अनंत जगत् है, उसमें कवि ही प्रजापति[] है—उस जगत् का सृष्टिकर्ता वहाँ है, उसे जिस तरह का संसार पसंद होता है, इस जगत् को उसी प्रकार बदल जाना पड़ता है।

अब तक जो केवल शब्द (पदावली) को काव्य कहा जाता था, वह उन्हें न ‌जँचा और उन्होंने उसके साथ अर्थ को भी जोड़ दिया। उन्होंने कहा—"ननु[] शब्दार्थो काव्यम्।" तात्पर्य यह कि रुद्रट के, अथवा रुद्रट और दंडी के मध्य के, समय में पदावली और उससे वर्णन किए जानेवाले अर्थ दोनों को काव्य कहा जाने लगा।

वामन (नवम शताब्दी के पूर्वाध से पहले)

इनके अनंतर सुप्रसिद्व आलंकारिक वामन का समय आता है। यद्यपि सौंदर्ययुक्त वर्णन को काव्य मानना अग्निपुराण के समय से ही प्रचलित हो गया है; यह बात उसके लक्षण से पूर्णतया सिद्ध न होने पर भी विवेचन से सिद्ध है; तथापि वामन के समय से काव्य में सौंदर्य का प्राधान्य समझा जाने लगा। यह बात उनके अलंकार-सूत्रों से स्पष्ट हो जाती है। वे कहते हैं—"काव्यं ग्राह्यमलंकारात्" और "सौदर्यमलंकारः"; जिसका तात्पर्य यह है कि काव्य को ग्रहण करना उचित है; क्योंकि उसमें सुंदरता होती है।

यहाँ यह भी समझ लेना चाहिए कि वामन के समय में काव्य की सुंदरता का कारण गुणों और अलंकारों को माना जाता था। उन्होंने लिखा हो है—"स दोषगुणालंकारहानादानाभ्याम्"; अर्थात् वह सौंदर्य दोषों के छोड़ देने और गुणों तथा अलंकारों के ग्रहण करने से होता है। अतएव वे पूर्वोक्त सूत्रों की स्वनिर्मित वृत्ति में 'काव्यलक्षण' के विषय मे कहते हैं—"काव्यशब्दोऽयं गुणालंकारसंस्कृतयोः शब्दार्थयोर्वर्त्तते"; अर्थात् जिन शब्दों और अर्थों में काव्य की पुट लगी हो, वे काव्य कहलाते हैं।

पर, उनके ग्रंथ से यह भी स्पष्ट प्रतीत होता है कि शब्द और अर्थ के साथ 'गुणों और अलंकारों से युक्त' विशेषण उनकी अभिनव ही सृष्टि है; क्योंकि वे उसी के साथ लिखते हैं कि "भक्त्या तु शब्दार्थमात्रवचनो गृह्यते।" इसका तात्पर्य यह होता है कि, अब तक जो 'केवल शब्द और अर्थ' को काव्य कहा गया है, वह काव्य स्वरूप का वास्तविक विवेचन न होने के कारण कहा गया है, और अब वह रूढ़ हो गया है; पर उसे काव्य शब्द का मुख्य अर्थ नहीं, किंतु लाक्षणिक अर्थ समझना चाहिए। सो वामन के सिद्धांत के अनुसार काव्य शब्द का अर्थ 'गुणो और अलंकारों से युक्त शब्द और अर्थ' हुआ।

आनंदवर्धनाचार्य (नवम शताब्दी का उत्तरार्ध)

इनके अनंतर भावी व्यंग्यविवेचना के प्रथम प्रवर्त्तक ध्वनिमर्मज्ञ श्री आनंदवर्धनाचार्य ने काव्यलक्षण को स्पष्ट रूप में तो नहीं लिखा है; पर यह अवश्य स्वीकार किया है कि काव्य का शरीर शब्द और अर्थ है। वे एक प्रसङ्ग में कहते हैं कि "शब्दार्थशरीरं तावत् काव्यम्।"

भोज (ग्यारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध)

इनके बाद संस्कृत-साहित्य के सुप्रसिद्ध प्रेमी धाराधराधीश्वर महाराज भोज का नंबर आता है। यद्यपि उन्होंने स्पष्ट रूप से कोई 'काव्यलक्षण' नहीं लिखा है; तथापि उनके "निर्दोषं गुणवत् काव्यमलंकारैरलंकृतम्। रसान्वितं कविः कुर्वन् कीर्त्तिं प्रीतिं च विदति।" इस सरस्वतीकंठाभरणस्थ पद्य से यह सिद्ध होता है कि वे भी शब्द और अर्थ दोनों को ही काव्य मानते हैं। क्योकि एक तो उन्होंने जो काव्य को 'रसान्वितम्' विशेषण दिया है, वह अर्थ को काव्य माने बिना ठीक ठीक नहीं घट सकता; क्योंकि रस का साक्षात् अन्वय केवल शब्दों से नही हो सकता। दूसरे 'अलंकारैः' से भी उन्हें शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनों अभीष्ट हैं; सो अर्थ को काव्य माने बिना अर्थालंकार अलंकृत किसे करेंगे?[]

मम्मट (बारहवीं शताब्दी)

अब आगे चलिए। आगे आलंकारिक जगत् के देदीप्यमान रत्न महामति मम्मटाचार्य का स्थान है। उन्होंने वामन के मत को अपनी आलोचनात्मक दृष्टि से देखा। वामन का 'गुणसहित' कहना तो उनकी समझ में आया; पर अलंकारों पर उतना जोर देना उन्हें न जँचा। बात भी ठीक है; काव्य में अलंकारों का अनिवार्य होना सर्वथा आवश्यक भी नहीं है। सो उन्होंने कहा कि "सब जगह अलंकार रहें; पर यदि कहीं वे स्पष्ट न भी रहे; तथापि दोषरहित और गुणसहित शब्द और अर्थ को काव्य कहा जाना चाहिए"।

वाग्भट (बारहवीं शताब्दी, मम्मट के पीछे)

पर, पीछे के विद्वानों का ध्यान, ध्वनिकार के सिद्धांतों का अच्छा प्रचार हो जाने के कारण, काव्य के जीवन रस की ओर गया। वाग्भट ने देखा, वामन गुणों और अलंकारों सहित शब्द और अर्थ को काव्य, और 'रीति' को काव्य का आत्मा मानते हैं, और काव्यप्रकाशकार दोषरहित और गुणसहित शब्द और अर्थ को काव्य कहते हैं; तथा रस को काव्य का आत्मा कहते हैं; तो लाओ हम इन सभी को लिख डाले। इसलिये उन्होंने "गुण, अलंकार रीति और रससहित तथा दोषरहित शब्द और अर्थ" को काव्य कहना शुरू किया।

पीयूषवर्ष (बारहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध)

इधर पीयूषवर्ष (चंद्रालोककार जयदेव) तो और भी बढ़े। वे वो दोषरहित एवं लक्षण, रीति, गुण, अलंकार, रस और वृत्ति—इन सबसे सहित वाणी को काव्य कहने लगे। अर्थात् अब तक जो कुछ उत्कर्षांधायक, जीवनदायक अथवा शोभाविधायक धर्म उन्हें दिखाई पड़े, उन्होंने उन सबको वाक्य के साथ में लगाकर एक लंबा लक्षण बना डाला। पर, यह बात एक प्रकार से मानी हुई ही है कि उनका लक्षण-निर्माण सरल और हृदयङ्गम होने पर भी उतना विवेचनापूर्ण नहीं है। वही बात यहाँ भी हुई है।

विश्वनाथ (चौदहवीं शताब्दी)

विक्रम की चौदहवी शताब्दी से काव्यलक्षण का रुख फिर से बदला और उसकी लंबाई को कम करने का यत्न होने लगा। जहाँ तक हम समझते हैं, सबसे पहले, सुप्रसिद्ध निबंध 'साहित्यदर्पण' के रचयिता महापात्र विश्वनाथ ने उसे कम किया और कहा कि "जिसकी जीवनज्योति रस-भाव आदि हैं, जो इन्हीं के द्वारा चमत्कारी होता है, उस वाक्य का नाम 'काव्य' है"। उनका अभिप्राय यह है कि वाक्य में चाहे अलंकार आदि कोई उत्कर्षाधायक वस्तु न हो और दोष भी हों, तथापि यदि उससे रस, भाव और उनके आभासों की अभिव्यक्ति होती हो, तो उसे काव्य कहा जा सकता है।

यह बात कुछ नवीन नहीं, बहुत पुरानी है। शौद्धोदनि नामक एक आचार्य ने इस बात को बहुत पहले ही लिख दिया था, महापात्रजी ने प्रायः उसी को उठाकर लिख दिया है। यह बात केशव मिश्र के 'अलंकारशेखर' से स्पष्ट हो जाती है। वे कहते हैं—'अलंकारसूत्र-कार भगवान् शौद्धोदनि ने काव्य का स्वरूप यों लिखा है—"काव्यं रसादिमद्वाक्यं श्रुत सुखविशेषकृत्।" अर्थात् जिस वाक्य में रस आदि हों, उसे 'काव्य' कहा जाता है। 'रस आदि' में जो 'आदि' शब्द है, उससे उन्होंने (केशव मिश्र) अलंकार का ग्रहण किया है और कहते हैं कि रस अथवा अलंकार दोनों में से एक के होने पर वाक्य को काव्य कहा जा सकता है। पर साहित्यदर्पणकार को अलंकारमात्र के होने पर काव्य मानना अभीष्ट नहीं; अतः उन्होंने आदि शब्द को उड़ा दिया और केवल 'रस' शब्द लिखकर उससे रस भाव-आदि आस्वादनीय व्यंग्यों का ग्रहण कर लिया है।

गोविंद ठक्कुर[१०] (सोलहवीं शताब्दी का उत्तरार्ध, अनुमित)

तदनंतर 'काव्यप्रकाश' के मर्मज्ञ 'काव्यप्रदीप'-कार श्रीगोविंद ठक्कुर का समय आता है। उन्होंने 'काव्यप्रकाश' के लक्षण का विवेचन करते हुए यह लिखा है कि—काव्यप्रकाशकार को रस-रहित होने पर और अलंकार के स्पष्ट न होने पर भी शब्द और अर्थ को काव्य मानना अभीष्ट है। पर यह उचित नहीं। क्योकि जहाँ रस न होगा और अलं कार भी स्पष्ट न होगा, तो बताइए, वहाँ चमत्कार किसका होगा? और काव्य में चमत्कार ही असली चीज है, यदि वही न रहा, तो उसे काव्य कहा ही कैसे जायगा? अतः यह मानना चाहिए कि जहाँ, रस हो, वहाँ यदि अलंकार स्पष्ट न हो, तथापि शब्द और अर्थ को काव्य कहा जा सकता है; पर जहाँ रस न हो वहाँ अलंकार का होना आवश्यक है। सो रस और अलंकार—इन दोनों में से किसी एक से भी युक्त शब्द और अर्थ को काव्य कहा जाना चाहिए। इनका यह लक्षण प्रायः केशव मिश्र के लक्षण से मिल जाता है।

पंडितराज (सत्रहवीं शताब्दी)

इनके अनंतर अनुपाद्य ग्रंथ के निर्माता मार्मिक तार्किक श्रीपंडितराज का समय है। उन्होंने इस विषय में जो मार्मिक विवेचन किया है, वह तो आपके सामने है और उस पर जो इस अकिञ्चित्कर की टिप्पणी है, वह भी आपके सम्मुख है। अतः इस विषय में अधिक लिखकर हम आपका समय व्यर्थ नष्ट नही करना चाहते।

उपसंहार

जहाँ तक हमारा ज्ञान है, हम कह सकते हैं कि पंडितराज के अनतर इस विषय का मार्मिक विवेचन किसी ने नहीं किया। अतएव इसी लक्षण को अंतिम समझकर हम पूर्वोक्त लक्षणों का सिंहावलोकन करते हुए इस विषय को समाप्त करते हैं—

यह कहा जा चुका है कि वेदादिक के समय में 'किसी भी अर्थ के वर्णन' को काव्य कहा जाता था। उसके अन्तंर, पुराणों के समय में, लक्षण के प्रायः प्राचीन रूप में रहने पर भी[११] 'कविकल्पित सुंदर अर्थ के सौंदर्ययुक्त वर्णन' को काव्य माना जाता था। यह बात अग्निपुराण के पाठ से पूर्णतया सिद्ध हो जाती है; क्योंकि उसके लक्षण में सौंदर्य पर उतना जोर न दिया जाने पर भी, पदार्थों के वर्णन के लिये जिस सौंदर्य का संपादन अपेक्षित है, उसका उसमें विस्तृत विवेचन किया गया है। यह मत संभवतः दंडी तक चलता रहा।

तदनंतर रुद्रट, अथवा उनके पूर्ववर्ती किसी आचार्य, के समय से 'सुंदर अर्थ और उसके सौंदर्ययुक्त वर्णन' का नाम काव्य हुआ। बाद में, वामन के समय से, 'सौंदर्यपूर्ण अर्थ और उसके सौंदर्यपूर्ण वर्णन' को काव्य कहा जाने लगा। वामन और उनके पूर्व के समय में शब्द और अर्थ दोनों के सौंदर्य का कारण गुणों और अलंकारों को ही माना जाता था।

उनके बाद आनंदवर्धनाचार्य के समय में सौंदर्य का पूर्णतया अन्वेषण हुआ, और तब सौंदर्य के मूल कारण 'रस' का प्राधान्य हो जाने के कारण, अलंकारों का आदर कम हो गया।

काव्यप्रकाशकार ने अलंकारों को गौण कर दिया और गुणों को केवल रस का धर्म मानकर उनको अभिव्यक्त करनेवाली रचना का अधिक सम्मान किया। उनके हिसाब से रस और रचना सौंदर्य का प्रधान कारण थे और अलंकार अप्रधान। तदनुसार वे भी 'सौंदर्यपूर्ण अर्थ और उसके सौंदर्यपूर्ण वर्णन' को काव्य मानने लगे।

वाग्भट और पीयूषवर्ष के लक्षण उतने क्षोदक्षम नहीं हैं; अतः उन पर विचार करने की आवश्यकता नहीं है।

साहित्यदर्पणकार सौंदर्यपूर्ण अर्थ को काव्य नहीं मानते; किंतु उसके वर्णनमात्र को काव्य मानते हैं; और सौंदर्य का कारण एक मात्र रस को समझते हैं। ये महाशय वर्णन के सौंदर्य को आवश्यक मानते हैं; पर अनिवार्य नहीं। अतएव इनके हिसाब से वर्णन की निर्दोषता और सालंकारता सर्वथा अपेक्षित नहीं। यही बात पंडितराज के विषय में भी समझ लीजिए। परंतु पंडितराज के तर्क इस विषय में इनकी अपेक्षा ठोस हैं।

केशव मिश्र और गोविंद ठक्कुर दोनों ही सौंदर्य का कारण रस और अलंकार दोनों को मानते हैं। पर पहले महाशय साहित्यदर्पण के समान 'सौंदर्यपूर्ण अर्थ के वर्णन' को काव्य मानते हैं, और दूसरे काव्यप्रकाश के अनुयायी होने के कारण 'सौंदर्यपूर्ण अर्थ और उसके सौंदर्यपूर्ण वर्णन' दोनों को काव्य मानते हैं।

उनके बाद पंडितराज ने भी 'सौंदर्यपूर्ण अर्थ के वर्णन' को काव्य माना है; पर वे समग्र सौंदर्य की मूलकारणता एक रस को ही दे देना उचित नहीं समझते। उनका कहना है कि चाहे जिस किसी अर्थ के ज्ञान से हमें अलौकिक आनंद, वह थोड़ा हो या तन्मय कर देनेवाला हो, प्राप्त हो जाय, वह प्रत्येक अर्थ सौंदर्य का कारण हो सकता है। उसका रस के साथ सर्वथा संबंध होना आवश्यक नहीं।

रही हमारी टिप्पणी। सो हमसे और पंडितराज से केवल इतना ही मतभेद है कि हम केवल वर्णन को ही कवि की कृति नहीं समझते; किंतु काव्य में वर्णित अर्थों को भी उसी की कृति मानते हैं, जैसा कि रुद्रट का मत लिखते समय हम सिद्ध कर आए हैं।

काव्य का कारण

यह तो हुई काव्य की बात। अब इसके आगे इस ग्रंथ में काव्य के कारण का विवेचन है। 'काव्य का कारण प्रतिभा, जिसे शक्ति भी कहा जाता है, है, इस विषय में तो आज दिन तक न किसी को विप्रतिपत्ति हुई और न आगे कभी हो सकती है। पर मतभेद एक तो इस बात में है कि कुछ विद्वान् केवल प्रतिभा को ही काव्य का कारण मानते हैं और कुछ प्रतिभा के साथ व्युत्पत्ति और अभ्यास को और जोड़ते हैं। अर्थात् कुछ विद्वानों के हिसाब से काव्य का एक कारण है 'प्रतिभा'; और कुछ के हिसाब से तीन हैं—प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास। प्रतिभा क्या पदार्थ है, यह विषय भी विवादग्रस्त है।

अब देखिए, काव्य का एक कारण माननेवालों में रुद्रट, वामन और पंडितराज आदि विद्वान हैं; और तीन माननेवालों में दंडी, मम्मट, वाग्भट और पीयूषवर्ष आदि हैं। अब इन विद्वानों के विचारों को सुनिए और उन पर एक आलोचनात्मक दृष्टि डाल जाइए।

इनमें से प्राचीनतर आचार्य दंडी का कहना है कि—

नैसर्गिकी च प्रतिभा, श्रुतं च बहु निर्मलम्,
अमन्दश्चाऽभियोगोऽस्याः कारणं काव्यसंपदः।

अर्थात् स्वतःसिद्ध प्रतिभा, अत्यंत और निर्दोष शास्त्रअवण—अर्थात् व्युत्पत्ति, तथा अनल्प[१२] अभ्यास—अर्थात् किसी प्रकार की कमी न करते हुए बार बार पद्य बनाते रहना, ये सब काव्य की संपत्ति—अर्थात् उसके उत्कृष्ट होने के कारण हैं। पर साथ ही वे एक और बात कहते हैं, जो अवश्य ध्यान देने योग्य है। वे कहते हैं—

न विद्यते यद्यपि पूर्ववासनागुणानुबन्धिप्रतिभानमअद्भुतम्।
श्रुतेन यत्नेन च वागुपासिता ध्रुवं करोत्येव कमप्यनुग्रहम्॥

अर्थात् यद्यपि पूर्वजन्म की वासना के गुण जिसके पीछे लगे हुए हैं वह संसार को चकित कर देनेवाली प्रतिभा नहीं है, तथापि शास्त्रश्रवण—अर्थात् व्युत्पत्ति और यत्न—अर्थात् अभ्यास—के द्वारा सेवन की हुई वाणी कुछ न कुछ अनुग्रह करती ही है। इससे यह अभिप्राय निकलता है कि यद्यपि काव्य के उत्कृष्ट होने के लिये स्वाभाविक प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास तीनों आवश्यक हैं, पर यदि वैसी प्रतिभा न हो, तथापि यदि व्युत्पत्ति और अभ्यास का बल उत्पन्न किया जाय तो काव्य बनाया जा सकता है। सारांश यह कि विशिष्ट प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास उत्कृष्ट काव्य के कारण हैं; पर साधारण प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास से भी काव्य बन सकता है।

इनके अनंतर रुद्रट एक शक्ति (प्रतिभा) को ही काव्य का कारण मानते हैं और उसका विवेचन करते हुए यों लिखते हैं—

मनसि सदा सुसमाधिनि विस्फुरणमनेकधाऽभिधेयस्य,
अक्लिप्टानि पदानि च विभान्ति यस्यामसौ शक्तिः।

अर्थात् जिसके होने पर, अच्छी तरह एकाग्र किए हुए मन में अनेक प्रकार के अर्थों की स्फूर्ति होती है, और अक्लिष्ट अर्थात् सरल और सुंदर पद सूझ पड़ते हैं, उसका नाम शक्ति है। फिर वे आगे लिखते हैं कि—

सहजोत्पाद्या च सा द्विधा भवति।
उत्पाद्या तु कथञ्चिद् व्युत्पत्त्या जन्यते परया।

अर्थात् वह शक्ति दो प्रकार की होती है—एक सहज—अर्थात् स्वतः सिद्ध, और दूसरी उत्पाद्य—अर्थात् उत्पन्न की जानेवाली। उनमें से सहज शक्ति तो ईश्वरदत्त अथवा अदृष्टजन्य होती है; अतः उसके विषय में तो कुछ कहना है नहीं; पर जो उत्पाद्य शक्ति है, वह अत्यंत उत्कृष्ट व्युत्पत्ति से उत्पन्न की जाती है। इससे यह सिद्ध होता है कि प्रतिभा दो तरह की है; जिनमें से एक का कारण अदृष्ट है और दूसरी का व्युत्पत्ति।

उनके बाद वामन ने भी काव्य का कारण केवल प्रतिभा को ही माना है। वे लिखते हैं कि "कवित्वबीजं प्रतिभानम्" और उसका विवरण यों करते हैं कि "कवित्वस्य बीजं संस्कारविशेषः कश्चित; यस्माद्विना काव्यं न निष्पद्यते, निष्पन्नं वा हास्यायतनं स्यात्"। अर्थात् कविता का कारण एक विशेष प्रकार का संस्कार है, जिसके बिना काव्य नहीं बन पाता, अथवा यों कहिए कि बना हुआ भी हँसी का पात्र होता है, उसे सुनकर लोग उसकी खिल्ली उड़ाते हैं। अब आगे काव्यप्रकाशकार मम्मटाचार्य हैं। वे कहते हैं—

शक्तिनिर्पुणता लोकशास्त्रकाव्याद्यवेक्षणात्।
काव्यज्ञशिक्षयाऽभ्यास इति हेतुस्तदुद्भवे॥

अर्थात् शक्ति (प्रतिभा) और लोकव्यवहार तथा शास्त्रों और काव्यादिकों के विमर्श से उत्पन्न हुई निपुणता—अर्थात् व्युत्पत्ति, एवं जो लोग उत्कृष्ट काव्य का बनाना और विचारना जानते हैं, उनकी शिक्षा से अभ्यास; ये तीनों सम्मिलित रूप में काव्य के कारण हैं। सारांश यह है कि काव्य का कारण तीन वस्तुएँ हैं—शक्ति, व्युत्पत्ति और अभ्यास।

इस श्लोक को हम यदि "नैसर्गिकी च प्रतिभा...." इस पूर्वोक्त दंडी के श्लोक का सुसंस्कृत अनुवाद कहे तो मर्मज्ञ विद्वानों को कुछ भी विप्रतिपत्ति न होगी। हाँ, इतना अवश्य है कि मम्मट ने अपनी व्याख्या में व्युत्पत्ति और अभ्यास का अच्छा विवेचन किया है। पर प्रतिभा की व्याख्या करते हुए उन्होंने जो शब्द लिखे हैं, वे तो ज्यों के त्यों वामन के कहे जा सकते हैं। सो इसे दंडी और वामन दोनों के अभिप्रायों का संकलन कहे तो कोई अत्युक्ति न होगी।

वाग्भट लिखते हैं—

प्रतिभा कारणन्तस्य, व्युत्पत्तिस्तु विभूषणम्।
भृशोत्पत्तिकृदभ्यास इत्यादि कविसंकथा।

अर्थात् प्रतिभा काव्य को उत्पन्न करती है, व्युत्पत्ति उसको सुशोभित बनाती है और अभ्यास उसकी उत्पत्ति को बढ़ाता है, इत्यादि कवि लोगों का कथन है। तात्पर्य यह कि काव्य का, प्रतिभा उत्पादक, व्युत्पत्ति सौंदर्याधायक अर्थात् पोषक और अभ्यासवर्धक कारण है।

इसी बात को पीयूषवर्ष ने दृष्टांत देकर स्पष्ट कर दिया है। वे कहते हैं—

प्रतिभैव श्रुताभ्याससहिता कवितां प्रति।
हेतुर्मृदम्जुसंबद्धबीजोत्पत्तिर्लतामिव॥

अर्थात् व्युत्पत्ति और अभ्यास सहित प्रतिभा कविता का कारण है; जिस तरह कि मिट्टी और जल से युक्त बीज की उत्पत्ति लता का। इसका तात्पर्य यह है कि जिस तरह लता का बीज उत्पादक, मिट्टी पोषक और जल वर्धक कारण है, उसी तरह प्रतिभा, व्युत्पत्ति और अभ्यास काव्य के कारण हैं।

पंडितराज का कथन यह है कि कविता का साक्षात् कारण एकमात्र प्रतिभा है, व्युत्पत्ति और अभ्यास उसके साक्षात् कारण नही, किंतु परंपरा से हैं। अर्थात् व्युत्पत्ति और अभ्यास काव्य के पोषक और वर्धक नहीं, किंतु प्रतिभा के पोषक और वर्धक हैं और उसको पुष्ट तथा विवर्धित करके काव्य को उपकृत करते हैं।

प्रतिभा क्या वस्तु है?

अच्छा, अब इन सब विचारों पर एक आलोचनात्मक दृष्टि डालिए। सबसे पहले यह सोचिए कि प्रतिभा है क्या पदार्थ? वास्तव में प्रतिभा एक प्रकार की बुद्धि का नाम है। अतएव यह कहा जाता है—

बुद्धिर्नवनवोन्मेषशालिनी प्रतिभा मता।

अर्थात् जिसमें नई नई सूझ होती है, उस बुद्धि को प्रतिभा माना जाता है।

अब यह देखिए कि साहित्य के प्राचीन आचार्यों ने प्रतिभा अथवा शक्ति का क्या अर्थ किया है? दंडी तो इस विषय में कुछ विशेष लिखते नहीं, पर उनके दिए हुए प्रतिभा के विशेषणों से कुछ सिद्ध हो जाता है, जिसे हम आगे लिखेंगे। हाँ, रुद्रट ने 'शक्ति' की व्याख्या अवश्य की है, जो पहले लिखी जा चुकी है। उससे यही सिद्ध होता है कि वे एक प्रकार के संस्कार को शक्ति मानते हैं; क्योंकि उनके हिसाब से 'शक्ति' वह पदार्थ है, जो कविता के अनुकूल अर्थों और शब्दों की स्मृति का निमित्त है। इनके बाद वामन और मम्मट ने तो स्पष्ट शब्दों में एक प्रकार के संस्कार का नाम 'शक्ति' स्वीकार किया ही है।

अब देखिए, संस्कार क्या वस्तु है। वास्तव में संस्कार एक प्रकार का स्वतंत्र गुण है, जिसे पूर्वजन्म के ज्ञान की वासना कह सकते हैं। पर 'काव्यप्रदीप' के 'संस्कारविशेषः' शब्द की व्याख्या करते हुए नागेश ने 'उदद्योत' में लिखा है कि शक्ति शब्द से यहाँ एक विशेष प्रकार का अदृष्ट (पूर्वजन्म के कर्मों का फल) लिया गया है। वे लिखते हैं कि

"देवताराधनादिजन्यं विलक्षणादृष्टं 'शक्नोति काव्यनिर्माणायाऽनये'ति योगाच्छक्तिरित्युच्यते।" अर्थात् व्याकरण की रीति से शक्ति शब्द का अर्थ 'जिसके द्वारा काव्य बनाया जा सकता है' यह होता है, तदनुसार देवता के आराधन आदि से उत्पन्न अदृष्ट को 'शक्ति' कहा जाता है। पर दंडी और रुद्रट जिसे प्रतिभा और शक्ति कहते हैं, उसका और नागेश की व्याख्या का परस्पर कुछ भी मेल नहीं मिलता। देखिए, दंडी ने अपने पद्यों में प्रतिभा को दो विशेषण दिए हैं, जिनसे उनका अभिप्राय स्पष्ट हो जाता है कि वे किसे प्रतिभा मानते हैं। उनका एक विशेषण है 'नैसर्गिकी' और दूसरा है, 'पूर्ववासनागुणानुवंधि'; जिनका अर्थ हम पहले कर आए हैं। अब सोचिए कि नागेश के कथनानुसार यदि 'संस्कारविशेष' का अर्थ अदृष्ट माने तो उसे 'स्वाभाविक' विशेषण देना व्यर्थ है; क्योंकि अदृष्ट तो पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न होता है, फिर वह स्वाभाविक कैसा? दूसरे, उनका 'पूर्ववासनागुणानुबंधि' विशेषण भी घटित नहीं हो सकता; क्योंकि अदृष्ट तो पूर्व कर्मों के फल का नाम है, सो वह पूर्वजन्म के संस्कार से उत्पन्न गुणों का अनुगामी नहीं, किंतु जनक हो सकता है। इस कारण, इनके हिसाब से तो 'प्रतिभा' का अर्थ एक प्रकार की बुद्धि ही हो सकता है, न किसी प्रकार का संस्कार और न अदृष्ट।

अब रुद्रट की तरफ चलिए। वे प्रतिभा को सहज और उत्पाद्य दो तरह की मानते हैं, और उत्पाद्य प्रतिभा को व्युत्पत्ति के द्वारा उत्पन्न होनेवाली मानते हैं। क्या आप कह सकते हैं कि व्युत्पत्ति से भी कोई अदृष्ट उत्पन्न होता है और वही प्रतिभा है? यदि नहीं तो बात दूसरी ही है। हमारी समझ में तो वामन और मम्मट के 'संस्कारविशेष' शब्द का अर्थ पूर्वजन्मीय वासना मानना ही उचित है। दंडी भी तो इनके सर्वथा अनुकूल नहीं; क्योंकि वे प्रतिभा को 'वासना' नही, किंतु 'वासनागुणानुबंधि' मानते हैं। रहे रुद्रट, सो उनकी इनकी भी राय एक नहीं हो सकती, क्योंकि वे तो उसे इस जन्म में भी व्युत्पत्ति के द्वारा उत्पन्न हो सकनेवाली मानते हैं, केवल सहज ही नहीं। इस प्रकार इनका मत मिलता नहीं है।

यह तो हुआ इन लोगों का आपस का मतभेद। अब आप यह सोचिए कि वास्तव में काव्य बनाने में कवि को क्या करना पड़ता है? इसका उत्तर यही होगा कि सुंदर पदों और अर्थों की योजना तथा कल्पना। अब आप थोड़ा सा विचार करते ही समझ सकते हैं कि यह काम बुद्धि से होता है। न तो वह हमारी भोग्य वस्तुओं की तरह हमें अदृष्ट के द्वारा सिद्ध रूप में प्राप्त होता है और न संस्कार से ही बन सकता है। तात्पर्य यह कि यह काम बिना बुद्धि के नहीं हो सकता। अदृष्ट और संस्कार यदि कारण हो सकते हैं, तो हमारी बुद्धि को वैसी बनाने के कारण हो सकते हैं, स्वतंत्रतया काव्य के नहीं हो सकते। तब यदि प्रतिभा को काव्य का कारण मानना है, तो उसके सुप्रसिद्ध अर्थ 'नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि' को ही उसका अर्थ स्वीकार करना पड़ेगा, संस्कार अथवा अदृष्ट को नहीं।

इस संबंध में पंडितराज कितना अच्छा कह रहे हैं। वे कहते हैं कि काव्य बनाने के अनुकूल शब्दों और अर्थों की उपस्थिति (याद आ जाने) का नाम प्रतिभा है, जो आपकी वही 'नवनवोन्मेषशालिनी बुद्धि' हुई। और यह भी कहते हैं कि उसको वैसी बनाने का कारण कहीं अदृष्ट होता है और कही व्युत्पत्ति और अभ्यास, जो अनुभव-सिद्ध है। अब इस विषय का शेष विवरण आप अनुवाद और उसकी टिप्पणी में देख सकते हैं।

काव्यों के भेद

इसके आगे प्रस्तुत पुस्तक में काव्यों के भेदों का वर्णन है; पर उनके विषय में हमे विशेष नही लिखना है; क्योंकि, इस विषय में अधिक मतभेद नहीं है। जहाँ तक हमारा ज्ञान है—इस विषय का विशेषरूपेण विवेचन 'ध्वन्यालोक' के तात्पर्यानुसार काव्यप्रकाशकार ने ही किया है। उन्होंने काव्यों के तीन भेद माने हैं; ध्वनि, गुणीभूत व्यंग्य और चित्र; जिन्हें उत्तम, मध्यम और अधम भी कहा जाता है।

पर साहित्यदर्पणकार ने इनमें से पहले दो भेदों को ही काव्य माना है; वे 'चित्रकाव्य' को काव्य मानना नहीं चाहते। इसका कारण यही है कि वे रस आदि के अतिरिक्त गुणों और अलंकारों को सौंदर्य का कारण नहीं मानते; जैसा कि हम 'काव्यलक्षण' के विवेचन में दिखा आए हैं। पर यह बात ठीक नहीं; क्योकि, लक्ष्य के अनुसार लक्षण हुआ करते हैं, लक्षण के अनुसार लक्ष्य नहीं। जब कि सारा संसार आज दिन तक केवल गुणों और अलंकारों से युक्त वर्णन को भी काव्य मानता चला आया है और आज भी वही परिपाटी प्रचलित है, तब आप उन्हें काव्यभेदों में से कैसे निकाल सकते हैं? हाँ, यह हो सकता है कि आप उन्हें अघम अथवा उससे भी नीचे दरजे का मान ले।

'चित्रमीमांसाकार' ने 'काव्यप्रकाश' के भेदों को ही लिखा है, उनमें किसी प्रकार की न्यूनाधिकता नहीं की है।

इनके बाद पंडितराज ने इस विषय पर कलम उठाई है। उन्होंने काव्य-प्रकाशकार के भेदों में एक भेद और बढ़ाकर उन्हें चार कर दिया है, जिसे आप अनुवाद में देख लेंगे। हाँ, इतना कह देना आवश्यक है कि पंडितराज ने जो एक भेद बढ़ाया है वह मार्मिक है, काव्यों के भेदों को समझनेवाले उसका किसी तरह निषेध नहीं कर सकते। दूसरे, काव्यप्रकाशकार की अपेक्षा इन्होंने उसे विशद भी अच्छा किया है और अप्पय दीक्षित के साथ शास्त्रार्थ करके ध्वनि का मर्म समझने की शैली भी स्पष्ट कर दी है।

रस

अब रसों की ओर ध्यान दीजिए। यह इतना गंभीर विषय है कि इस पर आज तक अनेक विद्वानों ने विचार किया है और आगे भी न जाने कहाँ तक होता रहेगा। परंतु हम प्रस्तुत विषय की ओर चलने के पहले आपसे नाटकों (दृश्य[१३] काव्यों) की उत्पत्ति के विषय में कुछ कहना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि रस का अनुभव, श्रव्य-काव्यों की अपेक्षा, दृश्य-काव्यों में ही स्पष्ट रूप से होता है। अतएव आज दिन तक उन्हीं को लेकर इस विषय का विवेचन किया गया है।

जब किसी भी प्राणी को इष्ट (जिसे वह चाहता है, उस) की प्राप्ति और अनिष्ट (जिसे वह नहीं चाहता, उस) की निवृत्ति होती है, तो उसके अंगों में अपने-आप ही एक प्रकार की स्फूर्त्ति उत्पन्न हो जाती है। अर्थात् प्रकृति का नियम है कि आनंदित प्राणी के अंग-उपांग विचलित हो उठते हैं। जो प्राणी गंभीर होते हैं, उनमें वह स्फूर्त्ति केवल मुख-विकास नेत्र-विकास आदि ही करके रह जाती है। पर, जो इतने गंभीर नहीं होते, वे ऐसी घटनाओं के होते ही एकदम उछल पड़ते हैं, और उनका वह आनंद इस तरह सब पर प्रकट हो जाता है। परिणाम यह होता है कि वह आनंद उस व्यक्ति तक ही सीमित नहीं रहता, किंतु जो लोग उसके सुहृत्, संबंधी अथवा हितैषी होते हैं, जिनमें ईर्ष्या-द्वेष की प्रवृत्ति उस आनंद के अनुभव का प्रतिबंध नहीं करती, वे भी आनंदित हो उठते हैं, और उससे सहानुभूति प्रकट करने लगते हैं। बच्चों में यह बात बहुत स्पष्ट रूप से देख पड़ती है। यही उछल-कूद नाट्य की आदि-जननी है। शुरू शुरू में इष्टप्राप्ति अथवा अनिष्टनिवृत्ति के समय उसका प्राप्त करनेवाला और उससे सहानुभूति रखनेवाले लोग इसी तरह उछल-कूद किया करते थे।

पर, प्रकृति का एक नियम और है। मनुष्य को वास्तविक वस्तुओं के देखने में जो आनंद प्राप्त होता है, उससे कही अधिक उसका अनुकरण देखने में प्राप्त होता है। उदाहरण के लिये कल्पना कीजिए कि एक सिटल्लू बनिया आपका पड़ोसी है, जिसे आप सदा देखा करते हैं, और उसकी चालढाल आदि को देखकर आपको कुछ कौतुक भी हुआ करता है; पर उसके देखने में आपको वह आनंद नहीं आ सकता, जिसे कि एक भाँड़ अथवा बहुरूपिया उन्हीं सेठजी की नक़ल दिखलाकर अनुभूत करा सकता है।

इसके बाद एक बात और भी है। वह यह कि वास्तविक एवं वर्त्तमान व्यक्ति के हर्षादि के अनुकरण में हमें सहानुभूति भी नहीं हो सकती। क्योंकि, उसके वर्त्तमान होने से हमारा उसके साथ किसी न किसी प्रकार का राग-द्वेषमूलक संबंध हो जाता है; इसलिये उस अनुकरण को देखकर राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ जग उठती हैं, और वे सहानुभूति में, और कभी कभी तो अभिनय में ही, बाधक हो जाती हैं, और बिना सहानुभूति के आनंद की अभिव्यक्ति होती नहीं। इस कारण, यदि किसी प्राचीन अथवा कल्पित घटना का अनुकरण किया जाय तो उस घटना से संवद्ध व्यक्तियों के साथ हमारा आधुनिक संबंध न होने के कारण हमें अभिनय के द्वारा उद्घोधित आनंद का यथार्थ अनुभव हो सकता है, क्योंकि वहाँ बाधक प्रवृत्तियाँ नहीं रहतीं। अतएव अंततोगत्वा मनुष्यों के मनोरंजन के लिये इस तरह के अनुकरणमूलक अभिनय होने लगे।

इन अभिनयों के लिये कवि लोग प्राचीन अथवा कल्पित घटनाओं को पद्यादिबद्ध कर देते थे, जिससे वे और भी अधिक रोचक हो जायँ, जैसे कि आज-कल भी कई-एक ग्राम्य खेलों में होता है। इन्हीं अभिनयों का विकसित रूप हैं आपके दृश्य-काव्य और आधुनिक नाटक-ड्रामा आदि। बस, दृश्य-काव्यों की बात हम इतनी ही करेंगे; क्योकि हमारे इस प्रकरण से इसका इतना ही संबंध है।

१—प्रारंभ ही प्रारंभ में लोग जब इन अभिनयों को देखने लगे तब उन्हें अनुभव हुआ कि इनमें कुछ आनंद अवश्य है। साथ ही उनमें से जो लोग बुद्धिमान् और तर्कशील थे, उन्होंने सोचना शुरू किया कि इस नाट्य की वस्तुओं में से यह आनंद किस वस्तु में रहता है। फिर क्या था, उसकी खोज प्रारंभ हुई। वही वस्तु साहित्य की परिभाषा में 'रस्यतेऽसौ रसः' इस व्युत्पत्ति के द्वारा 'रस' कही जाती है।

सोचते सोचते पहले पहल वे लोग स्थूल विचार के द्वारा इस परिणाम पर पहुँचे कि जिससे हम प्रेम आदि करते हैं, वह प्रेम आदि का आलंबन नट को अभिनय करते देखकर हमारे ध्यान में आ जाता है, और उसका बार-बार अनुसंधान करने से हमे आनंद का अनुभव होता है; अतः वह प्रेम आदि का आलंबन—वह विभाव ही रस है। वे कहने लगे कि—"भाव्यमानो विभाव एंव रसः"। अर्थात् बार बार अनुसंधान किया हुआ प्रेम-आदि का आलंबन ही रस है। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में नौवाँ है।

२—पर, पीछे से लोगों को इस बात के मानने में विप्रतिपत्ति हुई। उन्होंने सोचा कि यदि प्रेम आदि का आलंबन ही रसरूप हो, तो जब वह प्रेम-आदि के प्रतिकूल चेष्टा करे, अथवा प्रेम आदि के अनुकूल चेष्टाओं से रहित हो, तब भी उसे देखकर हमे आनंद आना चाहिए; क्योंकि आलंबन तो तब भी वही था और अब भी वही है, उसमे कुछ फेर-फार तो हुआ नहीं। पर, ऐसा होता नही। इस बात को एक उदाहरण के द्वारा स्पष्ट कर लीजिए। कल्पना कीजिए कि एक नट ने पहले दिन सीता अथवा शकुंतला का पार्ट लिया था, और उसे देखकर—उसे अपने प्रेम का आलंबन मानकर—सहस्रों सामाजिक (दर्शक) मुग्ध हो गए थे। उसी नट को, यदि कोई, दूसरे दिन, उन वेष-भूषाओं और चेष्टाओं से रहित देखे, तो क्या तब भी वह उसी आनंद को प्राप्त कर सकेगा? कभी नहीं। बस, तो यही समझकर लोगों के विचारों में परिवर्त्तन हुआ और उन्होंने सोचा कि प्रेम आदि का आलंबन रस नहीं, किंतु बार-बार अनुसंधान की हुई उसकी चेष्टाएँ और शारीरिक स्थितियाँ, जिन्हें अनुभाव कहा जाता है, रस हैं। वे कहने लगे कि "अनुभावस्तथा"। अर्थात् बार-बार अनुसंधान की हुई विभाव की चेष्टाएँ और शारीरिक स्थितियाँ रस हैं। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में दसवाँ है।

३—इसके बाद लोग कुछ और आगे बढ़े। उनका ध्यान प्रेम-पात्र की चित्तवृत्तियों की तरफ गया। उन्होंने सोचा कि कोई भी नट या नटी हजार लटका करे; पर यदि वह उस पात्र के अंतःकरण के भावों को दर्शकों के सामने यथार्थ रूप में प्रकट न कर सके, तो कुछ भी मजा नहीं आता। अतः यह मानना चाहिए कि न विभाव रस हैं, न अनुभाव, किंतु प्रेम आदि के आलंबन अथवा आश्रय की जो चित्तवृत्तियाँ हैं, जिन्हें व्यभिचारी भाव कहा जाता है, वे बार बार अनुसंधान करने पर रसरूप बनती हैं। वे कहने लगे कि "व्यभिचार्येव तथा-तथा परिणमति"। अर्थात् प्रेम आदि के आलंबन तथा आश्रय की चित्तवृत्तियाँ ही उस उस रस के रूप में परिणत होती हैं। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में ग्यारहवाँ है।

४—इसके अनंतर उनमें से बहुतेरे लोगों ने पूर्वोक्त मतों की आलोचना आरंभ की। उन्होंने सोचना शुरू किया कि इन तीनों मतों में से कौन ठीक है। अनेक नाट्यों के देखने से उन्हें अनुभव हुआ कि किसी नाट्य में सुंदर और सुसज्जित पात्र, किसी में उनके नयन-विमोहक अभिनय तथा किसी में मनोभावों का मनोहर विश्लेषण मनुष्य को मुग्ध करता है, और किसी में ये तीनों ही रद्दी होते हैं और कुछ मज़ा नहीं आता। तब उन्होंने यह निश्चय किया कि इन तीनों में से जहाँ जो चमत्कारी हो, जो कोई दर्शक के चित्त को आह्लादित कर सके, वहाँ उसे रस कहना चाहिए, और यदि चमत्कारी न हो तो तीनों में से किसी को भी रस कहना उचित नहीं। वे कहने लगे—"त्रिषु य एवं चमत्कारी स एव रसः, अन्यथा तु त्रयोऽपि न"। अर्थात् तीनों में से जो कोई चमत्कारी हो, वही रस है, और यदि चमत्कारी न हों तो तीनों ही रस नही कहला सकते। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में आठवाँ है[१४]

५—अब आगे चलिए। आगे यह बात हुई कि रस का अन्वेषण करते करते जब लोगों की दृष्टि मनो-भावों की तरफ गई तो उनका भी विवेचन होने लगा। विवेचन करने पर विदित हुआ कि उन भावों में से अथवा भाव ऐसे हैं कि जो नाट्य भर में प्रतीत होते रहते हैं; जैसे शृंगार के अभिनय मे प्रेम, करुण के अभिनय में शोक इत्यादि। और शेष ऐसे विदित हुए कि जो कभी प्रतीत होते थे और कभी नहीं; जैसे हर्ष, स्मृति, लज्जा-आदि। जो भाव नाट्य भर में प्रतीत होते रहते थे, उन्हें लोग स्थायी कहने लगे; क्योंकि वे स्थिर थे। और, जो कभी कभी प्रतीत होते थे, उन्हें व्यभिचारी अथवा संचारी कहा जाने लगा; क्योंकि वे व्यभिचरित होते रहते थे अर्थात् कभी प्रेम के साथ रहते थे तो कभी शोक आदि के साथ। जब स्थायी भावो का ज्ञान हो गया तब उन्होंने पूर्वानुभूत रस को उन्हीं के अनुसार नौ भेदों में विभक्त कर दिया, जिनका सविस्तार वर्णन प्रस्तुत पुस्तक में है।

जब यह विमाग हो गया, तब लोगों को पूर्वोक्त चारों मतों की निस्सारता प्रतीत हुई। उनको ज्ञात हुआ कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव, इन तीनों में से किसी एक को (फिर वह चमत्कारी हो अथवा अचमत्कारी) रसरूप मानना सर्वथा भ्रम है। इसका कारण यह था कि जिस तरह व्याघ्र आदि प्राणी भयानक रस के विभाव होते हैं, वैसे ही वीर, अद्भुत और रौद्र रस के भी हो सकते हैं; क्योंकि वे जिस प्रकार भय के आलबन होते हैं, उसी प्रकार उत्साह, आश्चर्य और क्रोध के भी आलंबन हो सकते हैं। इसी प्रकार अश्रुपात आदि भी जैसे शृंगार-रस के अनुभाव होते हैं, वैसे ही करुण और भयानक रस के भी हो सकते हैं; क्योकि ये जिस तरह प्रेम के कारण उत्पन्न होते हैं, उसी तरह शोक और भय के कारण भी उत्पन्न हो सकते हैं। व्यमिचारी भावों की भी यही दशा है; क्योंकि चिंता आदि चित्तवृत्तियाँ जिस तरह शृंगार-रस के स्थायी भाव प्रेम को पुष्ट करती हैं, उसी तरह वीर, करुण और भयानक रसों मे यथाउत्साह, शोक और भय को भी पुष्ट कर सकती हैं। अब यदि इन तीनों में से किसी-एक को रस माना जाय, तो जो प्रेम आदि एक ही चित्तवृत्ति की प्रत्येक नाट्य के पूरे भाग में स्थिर रूप से प्रतीति होती है, वह न बन सके। अतः वे लोग यह मानने लगे—"विभावादयस्रयः समुदिता रसाः"। अर्थात् विभावादिक तीनों इकट्ठे रसरूप हैं, उनमें से कोई एक नहीं। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में सातवाँ है।

६—स्थायी भावों का ज्ञान हो जाने और उसके अनुसार इसका विभाग स्थिर हो जाने के अनंतर विद्वानों ने उस पर फिर विचार किया और उन्हें पूर्वोक्त मत भी न जँचा। उनको विदित हुआ कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव तीनों ही पृथक् पृथक् अथवा सम्मिलित—किसी भी रूप में—रस नहीं हो सकते। क्योंकि जिस वस्तु का हम आस्वादन करते हैं, जिससे हमें यह आनंद प्राप्त होता है, वह ये नहीं, किंतु वही पूर्वोक्त चित्तवृत्ति है, जो भिन्न-भिन्न नाट्यों में भिन्न -भिन्न रूपों में स्थिरतया प्रतीत होती रहती है। अर्थात् यह निर्णीत हुआ कि प्रेम आदि स्थायी भावों का नाम रस है। साथ ही यह भी विदित हुआ कि विभाव उस चित्तवृत्ति को उत्पन्न करते हैं, अनुभाव उसके द्वारा उत्पन्न होते हैं और व्यभिचारी भाव उसके साथ रहकर उसे पुष्ट करते हैं। इसलिये यह सिद्ध हो गया कि इन सब में स्थायी भाव ही प्रधान हैं; क्योंकि ये सब उसके उपकरणभूत हैं; और इन तीनों के संयोग से वह रसरूप बनकर हमें आनंदित करता है। अर्थात् नाट्यादिक में हम इन तीनों से संयुक्त, परंतु इन सब से प्रधान, उसी चित्तवृत्ति का आस्वादन करते हैं।

इसी विमर्श को नाट्य-शास्त्र के परमाचार्य महामुनि भरत ने लिखा है। उन्होंने पूर्वोक्त सिद्धांत को अपने नाट्यशास्त्र में अच्छी तरह स्थिर कर दिया, और—

"विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः।"


यह सूत्र बनाया। यह सूत्र आज दिन तक प्रमाण माना जाता है और अनंतरभावी आचार्यों ने इसी सूत्र पर अपने विचार प्रकट किए हैं। इस सूत्र का अर्थ यों है कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग—अर्थात् मिश्रण—से स्थायी भाव रसरूप बनते हैं। यद्यपि इस सूत्र की अनेक व्याख्याएँ हुई हैं, तथापि हमारी अल्प बुद्धि के अनुसार यह प्रतीत होता है कि भरत मुनि ने इस सूत्र को पूर्वोक्त अर्थ में ही लिखा है; क्योंकि नाट्यशास्त्र में इस सूत्र की जो व्याख्या[१५] लिखी गई है, उससे यही बात सिद्ध होती है।

भरत मुनि ने इस बात को दृष्टांत देकर स्पष्ट करने के लिये जो दो श्लोक लिखे हैं, उन्हें हम यहाँ उद्धृत करते हैं, क्योंकि इनसे उनके विचार विशदरूपेण विदित हो जाते हैं। वे ये हैं—

यथा बहुद्रव्ययुतैर्व्यञ्जनैर्बहुमिर्युतम्।
आस्वादयन्ति भुञ्जाना भक्त भक्तविदो जनाः॥
भावाभिनयसंबद्धान् स्थायिभावांस्तिथा बुधाः।
आस्वादयन्ति मनसा तस्मान्नाट्यरसाः स्मृताः॥

अर्थात् जिस तरह भात के रसज्ञ पुरुष अनेक पदार्थों से तथा अनेक दाल-शाक आदि व्यंजनों से युक्त भाव को खाते हुए उसका आस्वादन करते हैं, उसी प्रकार विद्वान् लोग भावों और अभिनयों से संबद्ध स्थायी भावों का आस्वादन करते हैं। अतः (उन्हें) नाट्य के 'रस' कहा जाता है।

इस तरह यह सिद्ध हुआ कि विभावादिक रसरूप नहीं, किंतु इनसे परिष्कृत स्थायीभाव रसरूप होते हैं[१६]

पूर्वोक्त भरत-सूत्र की सबसे पहली व्याख्या[१७] आचार्य भट्ट-लोल्लट ने लिखी है, जिसे मीमांसा के अनुसार माना जाता है। उन्होंने इस सूत्र की ब्याख्या यों की है—'कामिनी आदि आलंबन विभाव रति आदि स्थायी भावों को उत्पन्न करते हैं, बाग-बगीचे आदि उद्दीपन विभाव उन्हें उद्दीप्त करते हैं, कटाक्ष और हाथों के लटके आदि अनुभाव उनको प्रतीत होने के योग्य बनाते हैं तथा उत्कंठा आदि व्यभिचारी भाव उन्हें पुष्ट करते हैं और तब वे रसरूप बन जाते हैं।' इसके अनंतर उन्होंने इस पर यों विमर्श किया है कि यह सब तो ठीक है; पर यह सोचिए कि वे रति आदि स्थायी भाव, जिन्हें आप रसरूप मानते हैं, रहते किसमे हैं? मान लीजिए कि आप एक ऐसे काव्य का अभिनय देख रहे हैं जिसमें दुष्यंत और शकुंतला के प्रेम का वर्णन है। अब यह बताइए कि वह प्रेम काव्य में वर्णन किए हुए दुष्यंत से संबंध रखता है, अथवा आप जिसका अभिनय प्रत्यक्ष देख रहे हैं, उस नट से? आपको विवश होकर यही कहना पड़ेगा कि दुष्यंत से; क्योकि काव्य में वर्णित शकुंतला का प्रेम नट से तो हो नहीं सकता। पर यदि ऐसा माने तो यह शंका उत्पन्न होती है कि भला, उस दुष्यंत के प्रेम से सामाजिक (दर्शक) लोगों को कैसे आनंद मिल सकता है; क्योकि दुष्यंत तो उनके सामने है नही, है तो नट! इसका समाधान वे यह करते हैं कि सामाजिक लोग नट को उसी रंग-ढंग का देखकर उस पर दुष्यंत का आरोप कर लेते हैं—अर्थात् उसे झूठे ही दुष्यंत समझ लेते हैं। बस, इसी कारण उन्हें आनंद प्राप्त होता है, दूसरा कुछ नहीं। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में पाँचवा है।

७—पर, इसी सूत्र के द्वितीय व्याख्याकार आचार्य श्री-शंकुक को, जिनकी व्याख्यान्यायशास्त्र के अनुसार मानी जाती है, यह बात न जँची। उन्होंने कहा—आप जो यह कह रहे हैं कि "रस मुख्यतया दुष्यंत आदि में रहता है, और नट पर उसका आरोप कर लिया जाता है" सो ठीक नहीं। इसका कारण यह है कि खींच खाँचकर नट पर रस का आरोप कर लेने पर भी दर्शक लोगों से तो उसका कुछ संबंध हुआ नही; फिर बताइए, उन्हें किस तरह आनंद आ सकता है? यदि आप कहें कि उन्हें नट के ऊपर आरोपित रस का ज्ञान होता है—वे उसे जानते हैं; अतः उन्हें आनंद का अनुभव होता है, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि, यदि जान लेने मात्र से ही आनंद प्राप्त होता हो तो यदि कोई रस शब्द बोले और हम उसका अर्थ समझ ले, तब भी हमें वही आनंद प्राप्त होना चाहिए, क्योंकि हमे शब्द के द्वारा रस का ज्ञान तो हो ही गया। पर यदि आप यह युक्ति बतलाएँ कि अनुभाव आदि के विज्ञान के बल से जो नट पर आरोप किया जाता है, उससे आनंदानुभव होता है, केवल शब्दादि के द्वारा ज्ञान से नहीं; तो यह भी उचित नही, क्योंकि चंदनादि के लेप आदि से जो आनंद आता है, उसमे हमे न अनुभाव की आवश्यकता होती है, न विभाव की। केवल स्पर्शेंद्रिय से, अथवा अन्य किसी इंद्रिय से, ज्ञान होते ही आनंद आने लगता है। दूसरे, इस बात में कोई प्रमाण भी नही है कि ऐसी कल्पना की जाय। रही भरत-सूत्र की बात, सो वह दूसरी तरह भी लगाया जा सकता है।

श्री शंकुक ने इस सूत्र का तात्पर्य यों समझाया—"विभावादि के द्वारा नट में अनुमान किया जानेवाला और जिस दुष्यंतादि का अनुकरण किया जा रहा है, उसमें रहनेवाला रति आदि स्थायी भाव रस है।" अर्थात् मुख्यतया रस दुष्यंतादि में ही रहता है; पर नट में उसका अनुमान कर लिया जाता है।

इस बात को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने लिखा है कि जगत् में चार तरह के ज्ञान प्रसिद्ध हैं; सम्यग्ज्ञान, मिथ्याज्ञान, संशयज्ञान और सादृश्यज्ञान। राम के देखनेवाले को जो 'यह राम ही है', 'यही राम है' और 'यह राम है ही' ये तीनों ज्ञान होते हैं, वे सम्यग्ज्ञान कहलाते हैं। इनमें से पहले—अर्थात् 'यह राम ही है' इस ज्ञान में 'इसके राम न होने' का—अर्थात् 'यह राम नहीं है। इस ज्ञान का निवारण होता है। दूसरे—अर्थात् 'यही राम है' इस ज्ञान से 'इसके अतिरिक्त अन्य किसी के राम होने का—अर्थात् 'राम और कोई है' इस ज्ञान का—निवारण होता है। और तीसरे अर्थात् 'यह राम है ही' इस ज्ञान से 'सर्वथा राम न होने का—अर्थात् 'यह राम है ही नहीं' इस ज्ञान का निवारण होता है। इन्हीं तीनों निवारणों को संस्कृत में क्रमशः अयोगव्यवच्छेद, अन्ययोगव्यवच्छेद तथा अत्यंतायोगव्यवच्छेद कहते हैं। मिथ्याज्ञान उसे कहते हैं, जिसमे पहले से 'यह राम है' ऐसा जान पड़ने पर भी पीछे से जान पड़े कि 'यह राम नहीं है'। 'यह राम है अथवा नही' इस परस्पर विरोधी ज्ञान को संशयज्ञान कहा जाता है, और 'यह राम के समान है' इस समानता के ज्ञान को सादृश्यज्ञान कहते हैं।

इन चारों ज्ञानों के अतिरिक्त एक और भी ज्ञान होता है, जो कि जगत् में प्रसिद्ध नहीं है; जैसे किसी घोड़े का चित्र देखकर 'यह घोड़ा है' ऐसा ज्ञान। बस, इसी ज्ञान के द्वारा सामाजिक लोग नट को दुष्यंत आदि समझ लेते हैं, और फिर उन्हे सुंदर काव्य के अनुसंधान के बल से तथा शिक्षा और अभ्यास के द्वारा उत्पन्न की हुई नट की कार्यपटुता से, स्थायी भाव के कारण, कार्य और सहकारी, जिन्हे विभाव अनुभाव और व्यभिचारी भाव कहा जाता है, कृत्रिम होने पर भी स्वाभाविक प्रतीत होने लगते हैं। अर्थात् सामाजिकों को उनके बनावटीपन का बिलकुल खयाल नहीं रहता; और तब वे लोग नट में स्थायी भाव का अनुमान कर लेते हैं। बस, उस अनुमान का नाम ही रस का आस्वादन है; और वह आस्वादन सामाजिकों को होता है; अतः यह कहा जाता है कि रस सामाजिकों में मे रहता है।

पर, यहाँ एक शंका हो सकती है। वह यह कि किसी भी पदार्थ का प्रत्यक्ष होने पर ही आनंद होता है, अनुमान मात्र से नही; अन्यथा हम सुख का अनुमान करने पर भी सुखी क्यों नहीं हो जाते। इसका समाधान वे यों करते हैं कि रति आदि स्थायी भावों में कुछ ऐसी सुंदरता है कि उसके बल से वे हमे अत्यंत अभीष्ट अथवा परम सुखरूप प्रतीत होते हैं; अतः यह मानना पड़ता है कि वे अन्यान्य अनुमेय पदार्थों से विलक्षण हैं, उनमें यह नियम नहीं लगता। तात्पर्य यह कि स्थायी भावों की सुंदरता का सामाजिकों पर ऐसा प्रभाव पड़ता है कि वे उनका अनुमान करने पर भी आनंदित हो उठते हैं और नट को प्रत्यक्ष देखने पर भी यह निश्चय नहीं कर सकते कि यह दुष्यंत नहीं है।

८—भरत-सूत्र के तृतीय व्याख्याकार आचार्य भट्टनायक को, जिनकी व्याख्या सांख्य-सिद्धांत के अनुसार मानी जाती है, यह बात भी न जँची। उन्होंने कहा—श्री शंकुक का यह कहना कि "रस का अनुमान किया जाता है", उचित नहीं। क्योंकि, संसार में जो यह बात प्रसिद्ध है कि प्रत्यक्ष ज्ञान से आनंद प्राप्त होता है, अनुमानादि से नहीं, उसका तिरस्कार करके यह कल्पना करना कि "रति-आदि की सुंदरता के बल से अनुमान करने पर भी आनंद प्राप्त हो जाता है" ठीक नहीं। यदि कहो कि सूत्र का अर्थ इसी तरह अनुकूल होता है, तो यह भी ठीक नहीं; क्योंकि उसका अर्थ दूसरी तरह भी ठीक किया जा सकता है।

अतः यह मानना चाहिए कि काव्य की तीन क्रियाएँ हैं—अर्थात् वह तीन हरकते पैदा करता है। उनमें से एक है अभिधा, जिसके द्वारा काव्य का अर्थ समझा जाता है; दूसरी है भावना—अर्थात् उस अर्थ का अनुसंधान, जिसके द्वारा काव्य में वर्णित नायक-नायिका आदि पात्रों की विशेषता निवृत्त हो जाती है और वे साधारण बनकर हमारे रसास्वादन के अनुकूल हो जाते हैं, और तीसरी है भोग—अर्थात् आत्मानंद में विश्राम, जिसके द्वारा हम रस का अनुभव करते हैं, अथवा जो स्वयं ही रसरूप है। इस तरह काव्य की क्रियाओं से ही हमारा सब कार्य सिद्ध हो जाता है, न आरोप की आवश्यकता रहती है, न अनुमान की। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में दूसरा है।

९—पर, आचार्य अभिनव गुप्त ने, जो 'ध्वन्यालोक' की 'लोचन' नामक व्याख्या के निर्माता हैं, जिनका साहित्यशास्त्र के विद्वानों में बहुत ऊँचा स्थान है और जिन्हें इस सूत्र के चतुर्थ व्याख्या-कार भी कहा जा सकता है, इस मत को भी पसंद न किया। उन्होंने कहा—आपने जो 'भावना' और 'भोग' नामक दो क्रियाओं की कल्पना की है, उसमें कोई प्रमाण तो है नहीं, कोरी मनगढ़ंत है। फिर भला इसे कोई कैसे स्वीकार करेगा?

अतः यो मानना चाहिए कि "विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों से अभिव्यक्त रति आदि स्थायी भावों का नाम रस है।" प्रस्तुत पुस्तक में प्रथम मत के 'क' और 'ख' भागों में इसी सिद्धांत का, किचिन्मात्र मतभेद से, सविस्तर प्रतिपादन किया गया है, सो आप इनका विशेष विवरण वहाँ देख ले। आज दिन तक रस के विषय में यही सिद्धांत प्रामाणिक माना जाता है और मम्मट भट्ट प्रभृति साहित्य-शास्त्र के महाविद्वान् इसे परम-आदरपूर्वक स्वीकार करते हैं।

अब रहा प्रथम मत का 'ग' भाग। उसमें पंडितराज ने यह सिद्ध किया है कि पूर्वोक्त 'क' और 'ख' मतों में रति आदि के साथ आत्मानंद तो आपको भी लगाना ही पड़ता है, उसके लगाए बिना तो छुटकारा नहीं; और यह भी सिद्ध ही है कि रस आनंद से शून्य नहीं है; तब जो श्रुतियों में आनंदमय आत्मा को रसरूप माना गया है, उसके अनुसार, आनंदसहित रति आदि की अपेक्षा, रति आदि से उपहित आनंद को ही रसरूप मानना उचित है। और उनके हिसाब से यही वास्तविक मत है।

इसके अनंतर इस विषय में दो मत और उत्पन्न हुए हैं। उनमें से—

१०—नवीन विद्वानों का कथन है कि रस को आत्मानंद सहित तथा वासनारूप में विद्यमान स्थायी भावों के रूप में मानना ठीक नही; किंतु यों मानना चाहिए कि जब हमें काव्य सुनने अथवा नाट्य देखने से विभाव आदि का ज्ञान हो जाता है, तब हम व्यंजनावृत्ति के द्वारा, शकुंतला आदि के साथ दुष्यंत आदि के जो प्रेम आदि थे, उन्हें जान लेते हैं। उसके अनंतर सहृदयता के कारण हम उन सुने अथवा देखे हुए पदार्थों का बार बार अनुसंधान करते हैं। वही बार बार अनुसंधान, जिसे भावना कहा जाता है, एक प्रकार का दोष है। उसके प्रभाव से हमारा अंतःकरण अज्ञान से आच्छादित हो जाता है, और तब उस अज्ञानावृत अंतःकरण में, सीप में चाँदी की तरह, अनिर्वचनीय रति आदि स्थायी भाव उत्पन्न हो जाते हैं और उनका हमें आत्म-चैतन्य के द्वारा अनुभव होता है। बस, उन्हीं रति आदि का नाम रस है। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में तीसरा है।

और—

११—दूसरे विद्वानों का यह कहना है कि न तो दुष्यंत आदि के रति आदि को समझने के लिये व्यंजनावृत्ति की आवश्यकता है और न अज्ञानावृत्त अंतःकरण में अनिर्वचनीय रति आदि की कल्पना की। किंतु यो मानना चाहिए कि हम नट की अथवा काव्य-पाठक की चेष्टा आदि के द्वारा शकुंतला आदि के साथ जो दुष्यंत आदि का प्रेम था, उसका अनुमान कर लेते हैं, और तब पूर्वोक्त भावनारूपी दोष से हम अपने को दुष्यंत आदि समझने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि हमारे अंतःकरण में ऐसा भ्रम उत्पन्न हो जाता है कि हम शकुंतला आदि से जो व्यक्ति प्रेम आदि रखता है, उससे अभिन्न हैं। बस, इसी भ्रम का नाम रस है। यह मत प्रस्तुत पुस्तक में चौथा है। ये हैं रस के विषय में ११ मत।

अंतिम दो मतों की अमान्यता का कारण

पर, इन अंतिम दोनों मतों का बिलकुल प्रचार नहीं हुआ। इसका कारण यह प्रतीत होता है कि एक तो सभी काव्य सुननेवालों अथवा नाटक देखने-वालों को रस का आस्वादन नही होता; अतः यह मानना ही पड़ता है कि जिनमें वासनारूप से रति आदि विद्यमान होते हैं, उन्हें ही रसानुभव होता है। अतएव लिखा गया है कि—

सवासनानां सभ्यानां रसस्यास्वादनं भवेत्।
निर्वासनास्तु रङ्गान्तःकाष्ठकुढ्याश्मसंनिभाः॥

अर्थात् (नाटकादि देखने पर भी) जो सभ्य वासनायुक्त होते हैं, अर्थात् जिनमें वासनारूप रति आदि भाव रहते हैं, उन्हें ही रस का आस्वादन होता है; और जिन लोगों में वह वासना नही होती, वे वो नाट्यशाला के अंतर्गत लकड़ी, दीवार और पत्थरों के समान हैं, यदि उन्हें कुछ मजा आवे तो इन्हें भी आ सकता है।

उन वासनारूप रति आदि को छोड़कर अनिर्वचनीय रति आदि की कल्पना निरर्थक है। दूसरे, रस को सीप की चाँदी की तरह मानना सहृदयों के हृदय के विरुद्ध भी है; क्योंकि रस की प्रतीति बाधित नहीं है। अर्थात् उसकी प्रतीति होने के अनंतर हमें यह बोध नहीं होता कि अब तक जिन रति आदि और आनंद की प्रतीति हो रही थी, वे कुछ हैं ही नहीं।

इसी तरह रस को भ्रमरूप मानना भी शास्त्र और अनुभव दोनों प्रमाणों से शून्य है; क्योंकि न तो अयथार्थ ज्ञान को किसी शास्त्र में ही आनंदरूप माना गया है और न अनुभव ही इस बात को स्वीकार करता है। सहृदयों के अनुभव से तो यह सिद्ध है कि रस का आनंद के साथ अभेद संबंध मानो चाहे भेद संबंध, पर वह उससे रहित है नहीं।

उपसंहार

अब हम पूर्वोक्त मतों का सिंहावलोकन करते हुए इस विषय को समाप्त करते हैं।

१—लोगों ने प्रारम्भिक दृश्य-काव्यों का अभिनय देखकर सबसे प्रथम यह निश्चय किया कि इन अभिनयों के देखने से हमे जो आनंद प्राप्त होता है, वह रति आदि भावो के आलंबन अर्थात् प्रेमपात्र आदि में, जो नट आदि के रूप में हमारे सामने उपस्थित होते हैं, रहता है।

२—तदनंतर उन्होंने सोचा कि उनके हाव-भावों और चेष्टाओं में, जिन्हें नट आदि प्रकाशित करते हैं, वह रहता है।

३—फिर उन्होंने समझा कि उनकी मनोवृत्तियों में, जो नट आदि के अभिनय के द्वारा ज्ञात होती हैं, वह रहता है।

४—पीछे से विदित हुआ कि इन तीनों में से जो चमत्कारी होता है, उसमें वह रहता है।

५—बाद में पता लगा कि इकट्ठे तीनों में, अर्थात् विभाव, अनुभाव और व्यभिचारीभाव के समुदाय में, वह रहता है।

६—इसके अनंतर भरत मुनि, अथवा उनके पूर्ववर्ती किसी आचार्य, ने यह स्थिर कर दिया कि यह आनंद इन तीनों के अतिरिक्त, जिन्हें स्थायी भाव कहा जाता है, उन चित्तवृत्तियों में रहता है और उनका साथ होने पर ये (विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भाव) भी आनंद देने लगते हैं।

तत्पश्चात् इस मत की व्याख्याएँ होने लगीं। व्याख्याकारों ने इस बात को तो मान लिया कि यह आनंद रति आदि चित्तवृत्तियों में रहता है; पर अब यह खोज शुरू हुई और ये प्रश्न उपस्थित हुए कि वे चित्तवृत्तियाँ किसकी हैं, काव्य में वर्णित नायक-नायिका आदि की अथवा सामाजिकों की? और यदि नायक-नायिका आदि की हैं तो नट को अभिनय करते देखकर सामाजिकों को उनसे कैसे आनंद मिलता है? फिर इन प्रश्नों के प्रत्युत्तरों की बारी आई और पहले पहल पुरःस्फूर्त्तिक दृष्टि से यह समझा गया कि ये चित्तवृत्तियाँ काव्य में वर्णित नायक-नायिका आदि की हैं। इस प्रकार पहले प्रश्न का तो प्रत्युत्तर हो गया। अब रहा दूसरा प्रश्न। उसका प्रत्युत्तर सबसे पहले इस सूत्र के प्रथम व्याख्याकार आचार्य भट्ट-लोल्लट ने यों दिया कि सामाजिक लोग उन चित्तवृत्तियों को नष्ट पर आरोपित कर लेते हैं और उन आरोपित चित्तवृत्तियों के ज्ञान से सामाजिकों को आनंद प्राप्त होता है।

७—श्री शंकुक ने इस मत का खंडन किया और कहा—सामाजिक लोग उन चित्तवृत्तियों का अनुमान कर लेते हैं। पर,

८—भट्टनायक ने इन बातों को स्वीकार न किया; उन्होंने कहा—नहीं, तुम्हारा कहना ठीक नहीं। असली बात यह है कि किसी भी काव्य के सुनने अथवा उसका अभिनय देखने से तीन काम होते हैं—पहले उसका अर्थ समझ में आता है; तदनंतर उस अर्थ का चिंतन किया जाता है, जिसका हमारे ऊपर यह प्रभाव होता है कि हम उसमें सुनी और देखी हुई वस्तुओं के विषय में यह नहीं समझ पाते कि वे किसी दूसरे से संबंध रखती हैं अथवा हमारी ही हैं; और उसके बाद हमारे सत्त्वगुण की अधिकता से रजोगुण और तमोगुण दब जाते हैं और हम आत्मचैतन्य से प्रकाशित एवं साधारण रूप में उपस्थित रति आदि भावों का अनुभव करते हैं। अर्थात् जिन रति आदि भावों के अनुभव से यह आनंद प्राप्त होता है, वे न नायक-नायिका आदि के होते हैं, न सामाजिकों के, वे तो बिलकुल साधारण होते हैं, उनके विषय में सामाजिकों को कुछ ज्ञान नहीं होता कि वे किसके हैं।

९—अभिनवगुप्त और मम्मट-भट्ट को यह बात भी न जँची। उन्होंने भट्टनायक का खंडन करते हुए कहा कि विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के द्वारा एक अलौकिक क्रिया उत्पन्न होती है। उससे, अथवा यों कहिए कि विभावादिकों के आस्वादन के प्रभाव से ही, हमारे आत्मचैतन्य का आवरण—अज्ञान—दूर हो जाता है। तदनंतर यह होता है कि हमारे हृदय में, सांसारिक अनुभवों के कारण, वासना रूप से विद्यमान रति आदि का उस आत्मचैतन्य के द्वारा प्रकाश होता है और उस आनंदरूप आत्मचैतन्यसहित उन रति आदि भावों का यह आनंदानुभव है। अर्थात् यह अनुभव साधारण रूप से हुए रति आदि का नहीं, किंतु आत्मानंद सहित और सामाजिकों के हृदय में वासनारूप से विद्यमान रति आदि का है।

पर, पंडितराज को यह बात भी पसंद न आई। उन्होंने कहा कि और सब बात आपकी ठीक है; पर जब आपने यह स्वीकार कर लिया है कि इस अनुभव में रति आदि का और आत्मानंद का साथ है, तब उस आनंद को गौण और रति आदि को प्रधान मानना उचित नहीं। अतः यह मानना चाहिए, जो श्रुति-सिद्ध भी है, कि यह आनंद आत्मरूप ही है। हाँ, इतना अवश्य है कि वह आनंद रति आदि से परिच्छिन्न होकर प्रतीत होता है, समाधि की तरह अपरिच्छिन्न रूप में नहीं।

इसके अनंतर जो दो मत उत्पन्न हुए हैं, उनमें से एक में—

१०—इस आनंद को आत्मचैतन्य से प्रकाशित और भ्रांति से उत्पन्न रति आदि का माना गया है। और दूसरे में—

११—केवल भ्रमरूप।

गुण

भरत और भामह

अब इसके आगे प्रस्तुत पुस्तक में विवेचनीय विषय हैं गुण। गुणों के विषय में प्रधानतया दो मत हैं—एक प्राचीनों का और दूसरा नवीनों का। प्राचीनों ने श्लेष[१८], प्रसाद, समता, समाधि, माधुर्य, ओज, सुकुमारता, अर्थव्यक्ति, उदारता और कांति ये दश गुण माने हैं। इनके आविष्कारक भरत अथवा उनके पूर्ववर्ती कोई आचार्य हैं। पर भामह[१९] ने अपने ग्रंथ में इनमें से केवल तीन ही गुणों के नाम लिखे हैं, और आगे जाकर काव्यप्रकाशकारादिकों ने प्राचीनों के सब गुणों का इन्हीं में समावेश कर दिया है; वे हैं माधुर्य, ओज और प्रसाद। सो इस सबका सारांश यह हुआ कि दशगुणवाद के आविष्कारक हैं भरत और त्रिगुणवाद के हैं भामह।

प्राचीनों के मतभेद

यद्यपि प्राचीनों को दशगुणवादी कहा जाता है, तथापि उनमें परस्पर बड़ा मतभेद है। सच पूछिए तो काव्यप्रकाशकार के पहले इस विषय में अराजकता ही रही है और जिसकी जैसी इच्छा हुई, उसने उसी प्रकार के लक्षण बनाकर उतने ही गुण मान लिए हैं। उस अराजकता के समय का भी कुछ दिग्दर्शन यहाँ कराया जाता है।

गुणों के विषय में प्राचीनों के पाँच मत विशेषतः प्रसिद्ध हैं और उनके प्रवर्त्तक क्रमशः भरत, अग्निपुराण, दंडी, वामन और भोज हैं। उनमें से भरत के गुण हम गिना चुके हैं।

अग्निपुराण ने श्लेष[२०], लालित्य, गाम्भीर्य, सौकुमार्य, उदारता, सती (?) और यौगिकी (?) इस तरह सात शब्दगुण; माधुर्य[२१], संविधान, कोमलता, उदारता, प्रौढ़ि और सामयिकत्व इस तरह छः अर्थगुण; और प्रसाद[२२], सौभाग्य, यथा संख्य, उदारता, पाक और राग इस तरह छः उभयगुण—अर्थात् शब्द और अर्थ दोनों के गुण; यों सब मिलाकर उन्नीस गुण गिनाए हैं। पर इनमें से कुछ भरतादि के गुणों में समाविष्ट, कुछ अप्रचलित और शुद्ध पुस्तक की अप्राप्ति के कारण अस्पष्ट से हैं; अतः उन्हें प्रपंचित करके हम इस भूमिका का आकार बढाना नहीं चाहते।

दंडी ने नाम और संख्या तो भरत की ही रखी है; पर उनके क्रम और लक्षणों में बहुत कुछ फेर-फार कर दिया है। पर उनमें से भी कुछ अप्रचलित और अधिकांश वामन के गुणों में समाविष्ट हो जाते हैं; अतः उनका विस्तार भी निरर्थक है।

वामन ने इन गुणों का बहुत ही विशद विवेचन किया है और 'काव्यप्रकाशकार' आदि ने उसे ही प्राचीनों का मत माना है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि भरत और दंडी के लक्षित गुणों का उनमें सर्वांश में संग्रह हो जाता है, पर इसमें संदेह नहीं कि अधिकांश में वे उनमें समाविष्ट हो जाते हैं। रसगंगाधर में जो अत्यंत प्राचीनों के दस शब्दगुण और दस अर्थगुण लिखे हैं, वे वामन के मत से ही संगृहीत किए गए हैं। सो उनके लक्षणों और उदाहरणों को आप देख ही लेंगे।

अब रहे भोजराज।[२३] उन्होंने वामन के दस शब्दगुणों के अतिरिक्त उदात्तता, अर्जितता, प्रेयान्, सुशब्दता, सूक्ष्मता, गंभीरता, विस्तर, संक्षेप, संमितत्व, भाविक, गति, रीति, उक्ति और प्रौढि इस तरह चौदह अन्य गुण मानकर इनकी संख्या चौबीस कर दी है। पर इन सब का समावेश प्रायः वामन के गुणों में हो जाता है, अतः इसे आप केवल नाम-भेद सा ही समझिए।

इन सबके अनंतर वाग्भट ने दंडी के, और पीयूषवर्ष ने भरत के, मत का पुनः स्पर्श किया है। उनमें से वाग्भट ने तो प्रायः दंडी के गुणों का अनुवाद कर दिया है, सो उसे तो अतिरिक्त मत कहा ही नहीं जा सकता। हाँ, पीयूषवर्ष ने भरत के दस गुणों में से कांति को शृंगार-रस में और अर्थव्यक्ति को प्रसाद-गुण में समाविष्ट करके उन्हें आठ ही रख लिया है, और एकाध गुण के लक्षण में भेद भी कर दिया है; पर कोई नई बात उसमें भी नहीं है।

इस सबका तात्पर्य यह हुआ कि भरत ने दस गुण माने, अग्निपुराण ने उन्नीस, भामह ने तीन, दंडी ने पुनः दस, वामन ने बीस, भोजदेव ने चौबीस, वाग्भट ने पुनः दस और पीयूषवर्ष ने आठ। इसके अतिरिक्त प्रत्येक आचार्य ने इनके लक्षणों में भी इच्छानुसार फेर-फार कर दिया है। इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि प्राचीनों ने अपने पूर्ववर्ती आचार्यों के विचारों पर यथोचित विमर्श नहीं किया और जिस समय जिसे जो कुछ सूझ पड़ा, तदनुसार वे गुणों में अधिकता, न्यूनता अथवा लक्षण-भेद करते चले गए। पर इन सबने अधिकांश में गुणों का नामकरण भरत के अनुसार ही रखा है; अतः इन्हें दशगुणवादी अथवा भरत के अनुयायी कहा जा सकता है।

मतभेदों की निवृत्ति

बारहवी शताब्दी में काव्यप्रकाशकार महामति मम्मट को यह अराजकता खटकी। उन्होंने खूब विमर्श करके भामह का पक्ष लिया, और उन्हीं तीन गुणों में, उस समय में सर्वाधिकरूपेण प्रचलित, वामन के गुणों में से अधिकांश का समावेश कर दिया और शेष को काट-छाँटकर ठीक-ठाक कर दिया। यह काट-छाँट प्रस्तुत पुस्तक में आ चुकी है, सो आप उसे देख ही लेंगे। परिणाम यह हुआ कि अग्निपुराण का मत तो पहले से ही प्रचलित नहीं था, और भरत से लेकर भोज तक के सब गुण प्रायः वामन के मत में संगृहीत हो चुके थे, सो सबके सब उड़ गए और उन्हीं तीन गुणों का प्रचार रह गया। इसके बाद भी वाग्भट ने दंडी के मत से और पीयूषवर्ष ने भरत के मत से गुणों के लक्षणादि लिखे; पर वे काव्यप्रकाशकार की युक्तिपूर्ण विवेचना के सामने न टिक सके और साहित्यदर्पणकार एवं रसगंगाधरकार ने इसी पक्ष को विमृष्ट करके स्थिर कर दिया।

गुणों का स्थान

यह तो हुई मत-भेद की बात। अब यह सोचिए कि साहित्य-शास्त्र में गुणों का स्थान क्या है? इस विषय में वामन और भोजदेव दोनों कहते हैं—

युवतेरिव रूपमङ्ग! काव्यं स्वदते शुद्धगुणं तदप्यतीव।
विहितप्रणयं निरन्तरामिः सदलङ्कारविकल्पकल्पनामिः॥
यदि भवति वचश्च्युत गुणेभ्यो वपुरिव यौवनवन्ध्यमङ्गनायाः।
अपि जनदयितानि टुर्भगत्वं नियतमलङ्करणानि सअयन्ते॥

अर्थात् काव्य युवती के रूप के समान है; क्योंकि वह भी अच्छे गुणों (लावण्य आदि माधुर्य आदि) से युक्त और एक के बाद एक आए हुए अनेक अलंकारों की कल्पनाओं से संबद्ध होकर आनंद देता है। इसका तात्पर्य यह है कि जिस तरह स्त्री के रूप के लिये लावण्यादि की और आभूषणों की आवश्यकता है, उसी प्रकार काव्य में भी गुणों और अलंकारों की आवश्यकता है। पर यदि कवि की उक्ति गुणों से रहित हो तो कामिनी के यौवन-रहित शरीर की तरह होती है; अतः गुणों का होना काव्य के लिये अत्यावश्यक है। इसके अतिरिक्त भोजदेव ने तो यह भी लिखा है कि—

अलंकृतमपि श्रव्यं न काव्यं गुणवर्जितम्।
गुणयोगस्तयोर्मुख्यो गुणालङ्कारयोगयोः॥

अर्थात् अलंकारों से युक्त भी गुणों से रहित काव्य सुनने के योग्य नहीं होता; अतः काव्य के गुणों और अलंकारों से युक्त होने की अपेक्षा गुणों से युक्त होना मुख्य है।

काव्यप्रकाशकारादिकों का भी यही मत है कि गुण सीधे रसों को उत्कृष्ट बनाते हैं और अलंकार शब्दों और अर्थों के द्वारा, अतः गुण अलंकारों से अधिक अपेक्षित हैं।

इस तरह यह सिद्ध हुआ कि साहित्यशास्त्र में गुणों का स्थान अलंकारों से ऊँचा और रसादि व्यंग्यों से नीचा है, और वे अलंकारों की अपेक्षा अधिक आवश्यक हैं।

गुण क्या वस्तु है

अब हम इस बात का विचार करेंगे कि गुण हैं क्या वस्तु; उन्हें लोग अब तक किस किस रूप मे समझते आए हैं।

महामुनि भरत दोषों का वर्णन करने के अनंतर कहते हैं कि "गुणा विपर्ययादेषाम्।" अर्थात् दोषों के विपरीत जो कुछ वस्तु है, वे गुण हैं।

अग्निपुराण में लिखा है कि "जो[२४] काव्य में बड़ी भारी शोभा को अनुगृहीत करता है, अर्थात् पदावली को शोभा प्रदान करता है, वह शब्दगुण होता है; जो[२५] शब्द से प्रतिपादित की जानेवाली वस्तु को उत्कृष्ट बनाता है, वह अर्थ-गुण होता है; और जो[२६] शब्द और अर्थ दोनों को उपकृत करता है, वह उभयगुण होता है।

दंडी ने इन्हें "विशिष्ट[२७] रचना के प्राण" माना है; और वामन का कहना है कि—"काव्य[२८] में जो शोभा होती है—जिसके कारण काव्य को काव्य कहा जाता है, उस शोभा के उत्पादक धर्मों का नाम गुण है"।

इस सबका तथा इन सब ग्रंथों में विवेचित गुणों के लक्षणादि का निष्कर्ष यह है कि जो वस्तु शब्द को, अर्थ को अथवा उन दोनों को उत्कृष्ट बनाती है, उसका नाम गुण है।

अब इस बात का विवेचन आरम्भ हुआ कि—जब गुण भी शब्द और अर्थ को उत्कृष्ट बनाते हैं और अलंकार भी, तब इन दोनों में भेद क्या है? क्यों न गुणों को भी अलंकार ही समझ लिया जाय? इसका उत्तर दंडी ने यों दिया कि गुण रचना के प्राण हैं और अलंकार काव्य में शोभा को उत्पन्न करनेवाले; अर्थात् गुणों से काव्य में काव्यत्व आता है; और अलंकार उसे शोभित[२९] करते हैं—उसे उत्कृष्ट बनाते हैं। इसी बात को वामन ने स्पष्ट शब्दों में यों लिखा है कि "काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्मा गुणाः; तदतिशयहेतवस्त्वलङ्काराः"; अर्थात् काव्य की शोभा के जनक—काव्य[३०] में काव्यत्व लानेवाले—धर्मों का नाम गुण है, और उस शोभा को—उस काव्यत्व को—उत्कृष्ट बनानेवाले धर्मों का नाम है अलंकार।

पर, जब 'ध्वनिकार' ने काव्य के आत्मा[३१] ध्वनि (व्यंग्यों) का और उनमें से भी प्रधान रस का अन्वेषण करके उसका स्वरूप स्पष्ट कर दिया, तब लोगों के विचारों में परिवर्त्तन हुआ। काव्यप्रकाशकार मम्मट ने प्राचीनों के विचारों पर विप्रतिपत्ति की और कहा कि यदि आप गुणों को ही काव्य मे काव्यत्व लानेवाले मानते हैं, तो जिन काव्यों में ओज आदि गुण तो हों और रसादिक न हो, उन्हें भी काव्य कहा जा सकेगा। उदाहरण के लिये कल्पना कीजिए कि कोई मनुष्य 'इस पहाड़ पर बड़ी आग जल रही है, यह बहुतेरा धुआँ निकल रहा है' इस बात को श्लोक बनाकर यों बोले कि—

'अद्रावत्र प्रज्वलत्यग्निरुचैः प्राज्यः प्रोद्यन्नुल्लसत्प्रेष धूमः।'

तो इस वाक्य में आपके हिसाब से ओज गुण तो हुआ ही; क्योंकि आप रस के साथ तो गुणों का कोई संबंध मानते नहीं, केवल रचना के साथ मानते हैं, सो यहाँ गाढ़ रचना है ही। अतः यह भी काव्य होना चाहिए; क्योंकि जो वस्तु काव्य में काव्यत्व लाती है, वह (ओज गुण) यहाँ भी विद्यमान है। पर, बताइए, कौन सहृदय ऐसा होगा जो केवल रचना के कारण ही इसे काव्य मानने लगे? अतः यो मानना चाहिए कि काव्य में काव्यत्व लानेवाली चीजें तो रसादिक व्यग्य हैं, और उन्हें उत्कृष्ट बनानेवाजे जो धर्म हैं, उनका नाम है गुण; जैसे कि मनुष्य को जीवित बनानेवाला प्रात्मा है, और उसे उत्कृष्ट बनानेवाले हैं शूरवीरता आदि गुण[३२]

ध्वनिकार के अनुयायियों ने काव्य के आत्मादिक का विवरण आलंकारिक भाषा में यों किया है—'शब्द और अर्थ काव्य के शरीर हैं, रस आदि आत्मा हैं, गुण शूर-वीरता आदि की तरह हैं, दोष कानेपन आदि की तरह हैं और अलंकार आभूषणों की तरह।'[३३] इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि रसों के साथ गुणों का अंतरंग संबंध है और अलंकारों का बाह्य; एवं गुण काव्य की आत्मा रस को उत्कृष्ट करते हैं, और अलंकार उसके शरीर रूप शब्द और अर्थ को।

साथ ही गुणों की वास्तविकता का पता लगाने के लिये इस बात का भी अन्वेषण हुआ कि प्राचीन लोग जिन्हें गुण शब्द से व्यवहृत करते आए हैं, उन बीसों में से, यदि नवीन प्रणाली से जिन दोषों का विवेचन किया गया है, उनके प्रभाव रूप गुणों को पृथक कर दिया जाय, तो क्या बच रहता है। सोचने पर विदित हुआ कि शेष सब गुण कोमल, कठोर और स्पष्टार्थक तीन प्रकार की रचनाओं में विभक्त किए जा सकते हैं। इस तरह वे बीस के तीन हुए और उनके नाम भामह की प्रणाली से माधुर्य, ओज और प्रसाद रखे गए।

इसके अनंतर यह भी सोचा गया कि कौन सी रचना किस रस के अनुरूप है? विमर्श करने पर विदित हुआ कि शृंगार, करुण और शांत रसों के लिये कोमल रचना की; वीर, रौद्र और बीभत्स रसों के लिये कठोर रचना की आवश्यकता है; और स्पष्टार्थक रचना का होना तो सभी रसों में अपेक्षित है। जब यह निर्णय हो गया, तब यह खोज हुई कि इन रचनाओं से युक्त उन उन रसों के आस्वादन से अंतःकरण पर क्या प्रभाव होता है? अनुभव से ज्ञात हुआ कि कोमल रचना से युक्त रसों के आस्वादन से चित्त पिघलता है, कठोर रचना से युक्त रसों के आस्वादन से चित्त उद्दीप्त होता है—उसमें जोश आ जाता है, और स्पष्टार्थक रचना से युक्त रसों के आस्वादन से चित्त विकसित होता है। थोड़ा और सोचने पर यह भी पता लगा कि यह काम वास्तव में रसों से होता है, रचनाओं से नहीं; क्योकि यदि मधुर रचना से ही चित्त द्रुत होता हो, तो वैसी रचना से वीर आदि रसों मे चित्त की द्रुति क्यों नहीं होती। अतः यह निर्णय हुआ कि गुण रचना से विलक्षण वस्तु हैं और उनका रसों के साथ संबंध है, रचनाओं के साथ नहीं। अंततोगत्वा काव्यप्रकाशकार ने यह निर्णय किया कि शृंगार, करुण और शांत रस में जो एक प्रकार की आह्वादकता रहती है, जिसके कारण चित्त द्रुत हो जाता है, उसका नाम माधुर्य है; वीर, रौद्र और बीभत्स रसों में जो उद्दीपकता रहती है, जिसके कारण चित्त जल उठता है, उसका नाम ओज है; और जो सूखे[३४] ईंधन में आग की तरह और स्वच्छ[३५] शर्करा अथवा वस्त्रादि में जल की तरह चित्त को रस से व्याप्त कर देता है, उस विकासकत्व का नाम प्रसाद है। अतः यों समझना चाहिए कि गुण मुख्यतया रस के धर्म हैं, और इन्हें जो रचना आदि के धर्म कहा जाता है, सो औपचारिक है।

पर, साहित्यदर्पणकार ने काव्यप्रकाशकार के आशय को बिना समझे ही उसका खंडन कर दिया। उन्होंने पहले तो काव्यप्रकाशकार की इसी बात को लिख दिया कि 'गुण[३६] शौर्यादिक की तरह रस के धर्म हैं; पर आगे जाकर यह निश्चित किया कि द्रुति, दीप्ति और विकासरूपी चित्तवृत्तियों का नाम ही माधुर्य, ओज और प्रसाद है, तथा अपने इस सिद्धांत के अनुसार काव्यप्रकाशकार के विषय में यह कह डाला कि माधुर्य[३७] को जो द्रुति का कारण बताया जाता है, वह ठीक नहीं; क्योकि द्रुति स्वयं रसरूप आह्वाद से अभिन्न है, इस कारण, जैसे रस कार्य नहीं हो सकता, वैसे यह भी कार्य नहीं हो सकती। पर उन्होंने यह सोचने का कष्ट नहीं उठाया कि काव्यप्रकाशकार ने द्रुति को माधुर्य माना कब है? वे तो शृंगारादि में जो द्रुति-जनकता (प्रयोजकता) रहती है, उसे माधुर्य कहते हैं। आपने पहले दो गुणों को रस का धर्म बताया और अब उन्हें चित्तवृत्तिरूप कह रहे हैं। ज़रा सोचिए तो सही कि रति (जो एक प्रकार की चित्तवृत्ति है) रूप रस का धर्म द्रुतिरूप चित्तवृत्ति कैसे हो सकती है? क्या एक चित्तवृत्ति का दूसरी चित्तवृत्ति धर्म होती है? अतः यह सब अविचारिताभिधान है।

इसके बाद पंडितराज ने गुणों के स्वरूप का प्रामाणिक रूप से निर्णय करके यह स्थिर कर दिया कि वास्तव में द्रुती, दीप्ति और विकास नामक चित्तवृत्तियों के नाम ही माधुर्य, ओज और प्रसाद हैं; और शृंगारादिक रस उनके प्रयोजक हैं, अतः उन्हें मधुर आदि कहा जाता है। सो यह मानना चाहिए कि गुण रसों के धर्म नहीं किंतु स्वतंत्र चित्तवृत्तियाँ हैं, और वे उन उन शब्दों, अर्थों, रसों और रचनाओं से प्रयुक्त होकर रस को उत्कृष्ट बनाती हैं।

भाव

प्रस्तुत पुस्तक के इस भाग में केवल व्यभिचारी भाव रह जाते हैं; पर उनके विषय में इस समय कुछ विशेष वक्तव्य नहीं है, क्योंकि उनके विषय में विशेष मतभेद नहीं है; वे भरत के समय से आज-दिन तक तेंतीस के तेंतीस ही हैं, न किसी ने उन्हें घटाया, न बढ़ाया। प्रस्तुत पुस्तक में लक्षण, स्वरूप तथा कार्य-कारण आदि सब बातों का स्पष्टरूपेण विवरण कर दिया गया है। हाँ, इतना कह देना आवश्यक है कि इस तरह से प्रत्येक भाव को पृथक्-पृथक् समझने के लिये उनके भेदक धर्म और कार्य-कारण अन्यत्र नहीं समझाए गए हैं।

 

इति शुभम्।

 
वैशाख शुक्ला ८ शुक्रवार
संवत् १९८५
पुरुषोत्तमशर्मा चतुर्वेदी
जयपुर
ता॰ २७ अप्रैल सन् १९२८
 

  1. मननतरितीर्णविद्यार्णवो जगनाथपंडितनरेंद्रः। रसगंगाधरनान्नीं करोति कुतुकेन काव्यमीमांसाम्।—प्रथमानन, ७ श्लोक।
  2. 'गुणवचनब्राह्मणादिभ्यः कर्मणि च' इति कर्मणि प्यञ्।
  3. 'कुङ्-शब्दे' कवते इति कविः, 'कबृवर्णे' इत्यनेन तु नेदं सिध्यति, तस्य पवर्गीयोपधत्वात्।
  4. 'संख्यावान् पंडितः कविः' इत्यमरः।
  5. यद्यपि शब्दों की योजना कवि का कार्य्य है, तथापि जिस तरह कुम्हार का काम घड़े का निर्माण हो जाने पर भी घड़ा माना जाता है, उसी तरह शब्द भी कवि का कार्य्य कहलाता है। तात्पर्य यह कि यहाँ कर्म शब्द से की जानेवाली चीज ली गई है, करना नहीं और यह बात शास्त्रसिद्ध एवं विद्वत्संमत है।
  6. यद्यपि रुद्रट का समय पूर्णतया निश्चित नहीं हो सका है, तथापि अलंकारसर्वस्वकार ने, जो कि काव्यप्रकाशकार से प्राचीन हैं, उन्हें वामन से प्राक्तन आचार्यों में समझा है, सो हमने भी वही समय स्वीकृत किया है।
  7. 'स्रष्टा प्रजापतिवैधा.' इत्यमरः।
  8. "पृष्टप्रतिवाक्ये ननुः" इति तट्टीकाकर्तुर्नमिसाधोहृदयम्।
  9. वामनाचार्य झलकीकर ने काव्यप्रकाश की भूमिका में जो यह लिखा है—"निर्दोषं गुणालंकाररसवद् वाक्यं कान्यमिति भोजमतम्" सो प्रतीत होता है कि पुरःस्स्फूर्त्तिक है।
  10. ये यद्यपि व्याख्याकार है, तथापि हम इन्हें आचार्यों में मानते है और हमें विश्वास है कि 'प्रदीप' के मर्मज्ञों को इसमें विप्रतिपत्ति नहीं हो सकती।
  11. 'अग्निपुराण' में ऐतिहासिक व्यक्तियों को भी प्रबंध (आख्यायिका आदि) के अनुरूप बना लेने की अनुमति है। और थोड़ा भी फेर-फार होने पर ऐतिहासिकता नष्ट हो जाती है, क्योकि इतिहास में कल्पना को किंचित् भी स्थान नहीं। अतः हमने अर्थ को 'कविकल्पित' विशेषण लगाया है। इसी—अर्थात् वर्णनीय अर्थों को इच्छानुसार चित्रित कर डालने के ही—कारण, हमने, काव्य में वर्णित ऐतिहासिक और अनैतिहासिक सभी अर्थों को 'कल्पित' माना है; क्योंकि वे यथास्थित पदार्थों से पृथक् हो जाते हैं। सो इस विशेषण को 'काव्य लक्षण' में सर्वत्र अनुस्यूत समझिए।
  12. 'अभियोगः पौनःपुन्येनाऽनुसन्धानम्' इति बीकानेरराजकीय। पुस्तकालयस्था लिखिता काव्यादर्शव्याख्या। स चाऽभ्यास एवेत्यस्मदुक्तेऽर्थे न वाचन विप्रतिपत्तिः।
  13. काव्य की पुस्तकें दो विभागों में विभक्त हैं—एक दृश्य और दूसरे श्रव्यदृश्य-काव्य उन्हें कहते हैं, जिनमें वर्णित चरित्रों का अभिनय किया जाता है—जैसे शाकुन्तल आदि। और श्रव्य-काव्य उनका नाम है, जिनका अभिनय नहीं होता, किन्तु लोग उसे सुनकर ही आनन्द उठा लेते हैं जैसे—रघुवंश आदि।
  14. पंडितराज इस मत के अनुसार भी भरत-सूत्र (विभावानुभावव्यभिचारिसयोगाद्रसनिष्पत्तिः) की व्याख्या करते हैं। यदि यह मत भरत-सूत्रों के बनने के अनंतर चला हो, तो मानना पड़ेगा कि इस समय जो 'नाट्यशास्त्र' प्राप्त होता है, वह भरत का बनाया हुआ नहीं है; क्योकि उसमें स्थायी भावों को रसरूप मानने का विस्तृत विवरण है और विभाव, अनुभाव अथवा व्यभिचारी भाव इन तीनों में से किसी एक को रस मानने का तो कहीं नाम भी नहीं है। और यदि यही नाट्यशास्त्र भरत-निर्मित है तो कहना पड़ेगा कि यह व्याख्या कल्पित है। पर, इस झगड़ें को ऐतिहासिकों पर छोड़ देने के सिवाय, इस समय, हमारे पास और कोई उपाय नहीं है।
  15. "को दृष्टांतः? अत्राह—यथा नानाव्यञ्जनौषधिद्रव्यसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः। यथा हि गुडादिभिर्द्रव्यैर्व्यञ्जनैरोषधिमिश्च षाडवादयो रसा निर्वर्त्यन्ते, तथा नानाभावोपगता अपि स्थायिनो भावा रसत्वमाप्नुवन्तीति।" इसका तात्पर्य यह है कि जिस तरह गुड़ वगैरह वस्तुओं, मसालों और धनिया-पोदीना वगैरह से चटनी वगैरह तैयार की जाती है, उसी तरह अनेक भावों से मिश्रित भी स्थायी भाव रस बन जाते हैं।
  16. यद्यपि इसके आगे हमें अग्निपुराण का रस-विवेचन लिखना चाहिए था, क्योकि भरत के अनंतर वही क्रम प्राप्त है; तथापि शुद्ध पुस्तक प्राप्त न होने के कारण हम उस पर विशेष विवेचन न कर सके। इस कारण, जो कुछ हमें उपलब्ध हुआ उस भाग को और उसके यथामति भावार्थ को हम टिप्पणी में दे रहे है। आशा है कि विद्वान् लोग इसका यथामति उपयोग करेंगे। उसमें लिखा है—

    अक्षरं ब्रह्म परम सनातनमजं विभुम्।
    वेदान्तेषु वदन्त्येकं चैतन्य ज्योतिरीश्वरम्॥
    आनन्दः सहजस्तस्य व्यज्यते स कदाचन।
    व्यक्तिः सा तस्य चैतन्यचमत्काररसाह्वया॥
    आद्यस्तस्य विकारो य. सोऽहङ्कार इति स्मृतः।
    ततोऽभिमानस्तत्रैदं समाप्तं भुवनत्रयम्॥
    अभिमानाद्रतिः सा च परिपोषमुपेयुषी।
    व्यभिचार्यादिसामान्याच्छृद्गार इति गीयते॥
    तद्भेदाः कामभितरे हास्याथा अप्यनेकशः।
    स्वस्वस्थायिविशेषोथ(स्थ) परिधो(पो)षस्वलक्षयाः॥
    सत्त्वादिगुण्सन्तानाज्जायन्ते परमात्मनः।
    रागाद्भवति शृङ्गारो रौद्रस्तैक्ष्ण्यात्प्रजायते॥
    वीरोऽवष्टम्भजः सङ्कोचभूर्बीभत्स इष्यते।
    शृङ्गाराज्जायते हासो रौद्रात्त करुणो रसः॥

  17. वीराच्चाद्भुतनिष्पत्तिः स्याद् वीभत्साद्भयानकः।
    शृङ्गारवीरकरुणरौद्रवीरभयानकाः॥
    बीभत्साद्भुतशान्ताख्याः स्वभावाक्षतुरो (?) रसाः।
    लक्ष्मीरिव बिना त्यागान्न वाणी भाति नीरसा॥


    अर्थात् जिसे वेदान्तो में अविनाशी, नित्य, अजन्मा, व्यापक, अद्वितीय, ज्ञानरूप, स्वत प्रकाशमान अथवा तमोनिवर्त्तक और सर्वसमर्थ परब्रह्म कहा गया है उसमें स्वतःसिद्ध आनंद विद्यमान है। वह आनंद किसी समय प्रकट हो जाया करता है और उस आनंद की वह अभिव्यक्ति, चैतन्य, चमत्कार अथवा रस नाम से पुकारी जाती है। उसी (आनंद की अभिव्यक्ति) का जो पहला विकार है, उसे अहंकार माना जाता है। उस अहंकार से अभिमान अर्थात् ममता उत्पन्न होती है, जिसमें यह सारी त्रिलोकी समाप्त हो गई है। तात्पर्य यह कि त्रिलोकी में एक भी वस्तु ऐसी नहीं है, जो किसी न किसी की ममता की पात्र न हो। उसी अभिमान—अथवा ममता—से रति अर्थात् प्रेम अथवा अनुराग उत्पन्न होता है। वही रति व्यभिचारी आदि भावों की समानता से—अर्थात् समान रूप में उपस्थित व्यभिचारी आदि भावों से—परिपुष्ट होकर शृंगार-रस कहलाती है। उसी के हास्यादिक अन्य भी अनेक भेद है। (वही रति सत्वादि गुणों के विस्तार से राग, तीक्ष्णता, गर्व और संकोच इन चार रूपों में परिणत होती है; उनमें से) राग से शृंगार की, तीक्ष्णता से रौद्र की, गर्व से वीर की और संकोच से बीभत्स की उत्पत्ति मानी जाती है। स्वभावतः ये चार ही रस हैं। पर, बाद में, शृंगार से हास्य, रौद्र से करुण, वीर से अद्भुत और बीभत्स से भयानक की उत्पत्ति हुई। (और रति—अथवा अनुराग के अभाव रूप निर्वेद से शांत रस की उत्पत्ति हुई; अर्थात् रति-भाव से पाठ रसों की और रति के अभाव से एक रस की उत्पत्ति हुई।) इस तरह रसों के शृंगार, हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत और शान्त ये नौ नाम हुए। जिस तरह किसी के पास लक्ष्मी—अर्थात् संपत्ति—हो, पर वह किसी भी काम में उसका त्याग—अर्थात् व्यय अथवा दान—न करता हो, तो वह शोभित नहीं होती, लोगों पर उसका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ता, ठीक वही दशा बिना रस की वाणी की होती है। अर्थात् नीरस वाणी कृपण के धन के समान निरुपयोगी और प्रभावशून्य होती है, और उसका होना न होना समान है।
    १—यहाँ से चार मतों के क्रम आदि काव्यप्रकाश तथा काव्यप्रदीप से लिए गए है।

  18. श्लेष. प्रसादः समता समाधिर्माधुर्यमोजः पदसौकुमार्यम्।
    अर्थस्य च व्यक्तिरुदारता च कान्तिश्च काव्यार्थगुणा दशैते॥—नाट्यशास्त्र

  19. 'माधुर्यमभिवान्छृन्त. प्रसादं च सुमेधसः। समासवन्ति भूयांसि न पदानि प्रयुञ्जते। केचिदाजोऽभिधित्सन्तः समस्यन्ति बहून्यपि।' (भामह का 'काव्यालङ्कार')
  20. श्लेषो लालित्यगाम्भीर्ये सौकुमार्यमुदारता। सत्येव (?) यौगिकी (?) चेति गुणाः शब्दस्य सप्तधा।
  21. माधुर्ये संविधानं च कोमलत्वमुदारता। प्रौढिः सामयिकत्वं च तद्भेदाः षट् चकासति।
  22. तस्य प्रसादः सौभाग्यं यथासंख्यमुदारता। पाको राग इति प्राज्ञैः षट् (प्र) पञ्च (?ॎः) प्रपञ्चिताः।
  23. श्लेषः प्रसादः समता माधुर्य सुकुमारता।
    अर्थव्यक्तिस्तथा कान्तिरुदारवमुदात्तता॥
    ओजस्तथाऽन्यदौर्जित्यं प्रेयानथ सुशब्दता।
    तद्वत् समाधिः सौक्षम्यं च गाम्भीर्यमथ विस्तरः॥
    संक्षेपः संमितत्वं च भाविकत्वं गतिस्तथा।
    रीतिरुक्तिस्तथा प्रोढिः.. ..... .........॥

    —सरस्वतीकंठाभरण।

  24. 'य काव्ये महतीं छायामनुगृह्णात्यसौ गुण।'
  25. 'उच्यमानस्य शब्देन यस्य कस्यापि वस्तुनः।
    उत्कर्षमावहन्नर्थों गुण इत्यभिधीयते।'

  26. 'शब्दार्थावुपकुर्वाणो नाम्नोभयगुणः स्मृतः।'
  27. 'एते वैदर्भमार्गस्य प्राणा दश गुणाः स्मृताः।'—काव्यादर्श।
  28. 'काव्यशोभायाः कर्त्तारो धर्मा गुणाः'—अलंकारसूत्र।
  29. 'काव्यशोभाकरान् धर्मानलङ्कारान् प्रचक्षते।'—काव्यादर्श।
  30. काव्यप्रकाश के अनुसार इस सूत्र की यही व्याख्या है।
  31. काव्य की आत्मा के विषय में यद्यपि हमें द्वितीय भाग में विवेचन करना है; तथापि यहाँ कुछ मतों का उल्लेखमात्र किया जाता है। अग्निपुराण में लिखा है कि "काव्य की आत्मा रस है।" वामन कहते है कि "पदों की विशिष्ट रचना काव्य की आत्मा है।" आनंदवर्धन का सिद्धांत है कि "काव्य की आत्मा ध्वनि (व्यंग्य) है।" यही बात विद्यानाथ ने भी मानी है और 'व्यक्तिविवेककार' भी इसी से सहमत है। कुंतक (वक्रोक्तिजीवितकार) ने 'बड़ी चतुराई से बात के प्रतिपादन कर देने' को काव्य की आत्मा कहा है। साहित्यदर्पणकार 'असंलक्ष्यक्रम-व्यंग्यो को काव्य की आत्मा' मानते है। क्षेमेंद्र का कथन है कि 'काव्य का जीवन औचित्य है।' इनमें से कुछ कथन आलंकारिक भी है, वे वास्तव में 'काव्यात्मा' के अन्वेषण में नहीं लिखे गए हैं। पर इस पंचायत को हम इस समय नहीं छेड़ना चाहते।
  32. 'ये रसस्पाङ्गिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मनः। उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गुणाः।' (काव्यप्रकाशः); (रसस्वेति-अलक्ष्यक्रमोपलक्षणम्, इत्युद्योते नागेशः)।
  33. "काव्यस्य शब्दायौ शरीरम्, रत्यादिश्चात्मा, गुणाः शौर्यादिवत्, अलङ्कारा कटककुण्डलादिवत्" इति।
  34. यह दृष्टांत ओजस्वी रसों के लिये है।
  35. यह दृष्टांत मधुर रसों के लिये है।
  36. 'रसस्याङ्गित्वमाप्तस्य धर्मा शौर्यादयो यथा। गुणाः......'।
  37. "यत्तु केनचिदुक्तम्—'माधुर्यें द्रुतिकारणम्' इति तन्न। द्रवीभावस्यास्वादस्वरूपाह्वादाभिन्नत्वेन कार्य्यत्वाभावात्।"