हिंदी व्याकरण/क्रिया

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हिंदी व्याकरण  (1927) 
द्वारा कामताप्रसाद गुरु

[ १४१ ]

चौथा अध्याय।
क्रिया।

१८७—जिस विकारी शब्द के प्रयोग से हम किसी वस्तु के विषय में कुछ विधान करते हैं उसे क्रिया कहते हैं, जैसे, "हरिण भागा" "राजा नगर में आये" "मैं जाऊँगा," "घास हरी होती है"। पहले वाक्य में हरिण के विषय में "भागा" शब्द के द्वारा विधान किया गया है, इसलिए "भागा" शब्द क्रिया है। इसी प्रकार दूसरे वाक्य में "आये", तीसरे वाक्य में "जाऊँगा" और चौथे वाक्य में "होती है" शब्द से विधान किया गया है, इसलिए "आये" "जाऊँगा" और "होती है" शब्द क्रिया हैं।

१८८—जिस मूल शब्द में विकार होने से क्रिया बनती है उसे धातु कहते हैं, जैसे, "भागा" क्रिया में "आ" प्रत्यय है जो "भाग" मूल शब्द में लगा है; इसलिए "भागा" क्रिया का धातु "भाग" है। इसी तरह "आर्य" क्रिया का धातु "आ", "जाऊँगा" [ १४२ ] क्रिया का धातु “जा", और "होती है" क्रिया का धातु "हो" है।

(अ) धातु के अंत में "ना" जोड़ने से जो शब्द बनता है उसे क्रिया का साधारण रूप कहते हैं; जैसे—भागना, आना, जाना, होना, इत्यादि। कोई कोई भूल से इसी साधारण रूप को धातु कहते हैं। कोश में भाग, आ, जा, हो, इत्यादि धातुओं के बदले क्रिया के साधारण रूप, भागना, आना, जाना, हेाना, इत्यादि लिखने की चाल है।
(आ) क्रिया का साधारण रूप क्रिया नहीं है; क्योंकि उसके उपयोग से हम किसी वस्तु के विषय में विधान नहीं कर सकते। विधि-काल के रूप को छोड़कर क्रिया के साधारण रूप का प्रयोग संज्ञा के समान होता है। कोई कोई इसे क्रियार्थक संज्ञा कहते हैं; परंतु यह क्रियार्थक संज्ञा भाव-वाचक संज्ञा के अंतर्गत है। उदा॰—"पढ़ना एक गुण है"। "मैं पढ़ना सीखता हूँ।" "छुट्टी में अपना पाठ पढ़ना।" अंतिम वाक्य में पढ़ना क्रिया (विधि-काल में) है।
(इ) कई एक धातुओं का प्रयोग भी भाववाचक संज्ञा के समान होता है, जैसे, "हम नाच नहीं देखते।" "आज घोड़ों की‌ दौड़ हुई।" "तुम्हारी जाँच ठीक नहीं निकली।
(ई) किसी वस्तु के विषय में विधान करनेवाले शब्दों को क्रिया इसलिए कहते हैं, कि अधिकांश धातु जिनसे ये शब्द बनते हैं क्रियावाचक हैं; जैसे, पढ़, लिख, उठ, बैठ, चल, फेंक, काट, इत्यादि। कोई कोई धातु स्थिति-दर्शक हैं, जैसे, सो, गिर, मर, हो, इत्यादि और कोई कोई विकारदर्शक हैं; जैसे, बन, दिख, निकल, इत्यादि।

[टी॰—क्रिया के जो लक्षण हिंदी व्याकरणों में दिये गये हैं उनमें से प्रायः सभी लक्षणों में क्रिया के अर्थ का विचार किया गया है, जैसे,-"क्रिया [ १४३ ]काम को कहते हैं।" अर्थात् "जिस शब्द से करने अथवा होने का अर्थ किसी काल, पुरुष और वचन के साथ पाया जाय।" (भाषा-प्रभाकर)। व्याकरण में शब्दों के लक्षण और वर्गीकरण के लिए उनके रूप और प्रयोग के साथ कभी कभी अर्थ का भी विचार किया जाता है, परंतु केवल अर्थ के अनुसार लक्षण करने से विवेचन में गड़बड़ होती है। यदि क्रिया के लक्षण में केवल "करना" या "होना" का विचार किया जाय तो "जाना", "जाता हुआ", "जानेवाला" आदि शब्दों के भी "क्रिया" कहना पड़ेगा। भाषा-प्रभाकर में दिये हुए लक्षण में जो काल, पुरुष और वचन की विशेषता बताई गई है वह क्रिया का असाधारण धर्म नहीं है और वह लक्षण एक प्रकार का वर्णन है।

क्रिया का जो लक्षण यह लिखा गया है उस पर भी यह आक्षेप हो सकता है कि कोई कोई क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतीं—जैसे, "राजा दयालु हैं।" "पक्षी घोंसले बनाते हैं। इन उदाहरणों में "हैं" और "बनाते हैं" क्रियाएँ अकेली विधान नहीं कर सकतीं। इनके साथ क्रमशः "दयालु" और "घोंसले" शब्द रखने की आवश्यकता हुई है। इस आक्षेप का उत्तर यह है, कि इन वाक्यों में "है" और "बनाते हैं" विधान करनेवाले मुख्य शब्द हैं और उनके बिना काम नहीं बन सकता, चाहे उनके साथ कोई शब्द रहे या न रहे। क्रिया के साथ किसी दूसरे शब्द का रहना या न रहना उसके अर्थ की विशेषता है।]

१८९—धातु मुख्य दो प्रकार के होते हैं—(१) सकर्मक और (२) अकर्मक।

१९०—जिस धातु से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्त्ता से निकलकर किसी दूसरी वस्तु पर पड़ता है, उसे सकर्मक धातु कहते हैं। जैसे, "सिपाही चोर को पकड़ता है।" "नौकर चिट्ठी लाया। इत्यादि। पहले वाक्य में "पकड़ता है" क्रिया के व्यापार का फल "सिपाही" कर्त्ता से निकलकर चोर पर पड़ता है, इसलिए "पकड़ता है" क्रिया (अथवा "पकड़" धातु) सकर्मक है। दूसरे वाक्य में "लाया" क्रिया (अथवा "ला" धातु) सकर्मक है, क्योंकि उसका फल "नौकर" कर्त्ता से निकलकर "चिट्ठी" कर्म पर पड़ता है। [ १४४ ]
(अ) कर्त्ता का अर्थ है "करनेवाला"। क्रिया के व्यापार का करनेवाला (प्राणी वा पदार्थ) "कर्त्ता" कहलाता है। जिस शब्द से इस करनेवाले का बाध होता है उसे भी (व्याकरण में) बहुधा "कर्त्ता" कहते हैं; पर यथार्थ में शब्द कर्त्ता नहीं हो सकता। शब्द को कर्त्ता कारक अथवा कर्तृ पद कहना चाहिए। जिन क्रियाओं से स्थिति वा विकार का बोध होता है उनका कर्त्ता वह पदार्थ है जिसकी स्थिति वा विकार के विषय में विधान किया जाता है; जैसे, "स्त्री चतुर है।" "मंत्री राजा हो गया।" इत्यादि।
(आ) धातु से सूचित होनेवाले व्यापार का फल कर्त्ता से निकलकर जिस वस्तु पर पड़ता है उसे कर्म कहते हैं; जैसे, "सिपाही चोर को पकड़ता है।" "नौकर चिठ्ठी लाया"। पहले वाक्य में "पकड़ता है।" क्रिया का फल कर्त्ता से निकल कर चोर पर पड़ता है; इसलिए "चोर" कर्म है। दूसरे वाक्य में "लाया" क्रिया का फल चिट्ठी पर पड़ता है; इसलिए "चिट्ठी" कर्म है। "सकर्मक" शब्द का अर्थ है "कर्म के सहित" और कर्म के साथ आने ही से क्रिया "सकर्मक" कहलाती है।
१९१—जिस धातु से सूचित होनेवाला व्यापार और उसका फल कर्त्ता ही पर पड़े उसे अकर्मक धातु कहते हैं; जैसे, "गाड़ी चली"। "लड़का सोता है।" पहले वाक्य मे "चली" क्रिया का व्यापार और उसका फल "गाड़ी" कर्त्ता ही पर पड़ता है; इसलिए "चली" क्रिया अकर्मक है। दूसरे वाक्य में "सोता है।" क्रिया भी अकर्मक है, क्योंकि उसका व्यापार और फल "लड़का" कर्ता ही पर पड़ता है। "अकर्मक" शब्द का अर्थ है "कर्म-रहित" और कर्म के न होने ही से क्रिया "अकर्मक" कहाती है। [ १४५ ]
(अ) "लड़का अपने को सुधार रहा है।"—इस वाक्य में यद्यपि क्रिया के व्यापार का फल कर्त्ता ही पर पड़ता है, तथापि "सुधार रहा है" क्रिया सकर्मक है, क्योंकि इस क्रिया के कर्त्ता और कर्म एक ही व्यक्ति के वाचक होने पर भी अलग अलग शब्द हैं। इस वाक्य में "लड़का" कर्त्ता और "अपने को" कर्म है, यद्यपि ये दोनों शब्द एक ही व्यक्ति के वाचक हैं।

१९२—कोई कोई धातु प्रयोग के अनुसार सकर्मक और अकर्मक दोनो होते हैं, जैसे, खुजलाना, भरना, लजाना, भूलना, घिसना, बदलना, ऐंठना, ललचाना, घबराना, इत्यादि। उदा॰—"मेरे हाथ खुजलाते हैं।" (अ॰)। (शकु॰)। "उसका बदन खुजलाकर उसकी सेवा करने में उसने कोई कसर नहीं की।" (स॰)। (रघु॰)। "खेल-तमाशे की चीज़ें देखकर भोले भाले आदमियों का जी ललचाता है।" (स॰)। (परी॰)। "ब्राइट अपने असबाब की खरीदारी के लिये मदनमोहन को ललचाता है।" (स॰)। (तथा)। "बूँद बूँद करके तालाब भरता है।" (अ॰)। (कहा॰)। "प्यारी ने आँखें भरके कहा।" (स॰)। (शकु॰)। इनको उभय-विध धातु कहते हैं।

१९३—जब सकर्मक क्रिया के व्यापार का फल किसी विशेष पदार्थ पर न पड़कर सभी पदार्थों पर पड़ता है तब उसका कर्म प्रकट करने की आवश्यकता नहीं होती; जैसे "ईश्वर की कृपा से बहरा सुनता है और गूंगा बोलता है।" "इस पाठशाला में कितने लड़के पढ़ते हैं?"

१९४—कुछ अकर्मक धातु ऐसे हैं जिनका आशय कभी कभी अकेले कर्त्ता से पूर्णतया प्रकट नहीं होता। कर्त्ता के विषय में पूर्ण विधान होने के लिए इन धातुओं के साथ कोई संज्ञा या विशे[ १४६ ]षण आता है। इन क्रियाओं को अपूर्ण अकर्मक क्रिया कहते हैं और जो शब्द इनका आशय पूरा करने के लिए आते हैं उन्हें पूर्त्ति कहते हैं। "होना," "रहना, "बनना," "दिखना," "निकलना," "ठहरना" इत्यादि अपूर्ण अकर्मक क्रियाएँ हैं। उदा॰—"लड़का चतुर है।" "साधु चोर निकला।" "नौकर बीमार रहा।" "आप मेरे मित्र ठहरे।" "यह मनुष्य विदेशी दिखता है।" इन वाक्यों में "चतुर", "चोर", "बीमार" आदि शब्द पूर्त्ति हैं।

(अ) पदार्थों के स्वाभाविक धर्म और प्रकृति के नियमों को प्रकट करने के लिए बहुधा "है" या "होता है" क्रिया के साथ संज्ञा या विशेपण का उपयोग किया जाता है, जैसे "सोना भारी धातु है।" "घोड़ा चौपाया है।" "चांदी सफेद होती है।" "हाथी के कान बड़े होते हैं।"
(आ) अपूर्ण क्रियाओं से साधारण अर्थ में पूरा आशय भी पाया जाता है, जैसे, "ईश्वर है", "सबेरा हुआ", "सूरज निकला", "गाड़ी दिखाई देती है", इत्यादि।
(इ) सकर्मक क्रियाएँ भी एक प्रकार की अपूर्ण क्रियाएँ हैं; क्योंकि उनसे कर्म के बिना पूरा आशय नहीं पाया जाता। तथापि अपूर्ण अकर्मक और सकर्मक क्रियाओं में यह अंतर है कि अपूर्ण अकर्मक क्रिया की पूर्त्ति से उसके कर्त्ता ही की स्थिति वा विकार सूचित होता है और सकर्मक क्रिया की पूर्ति (कर्म) कर्त्ता से भिन्न होती है, जैसे, "मंत्री राजा बन गया", "मंत्री ने राजा को बुलाया। सकर्मक क्रिया की पूर्त्ति (कर्म) को बहुधा पूरक कहते हैं।

१९५—देना, बतलाना, कहना, सुनाना और इन्हीं अर्थों के दूसरे कई सकर्मक धातुओं के साथ दो दो कर्म रहते हैं। एक कर्म से बहुधा पदार्थ का बोध होता है और उसे मुख्य कर्म कहते [ १४७ ] हैं; और दूसरा कर्म जो बहुधा प्राणि-वाचक होता है, गौण कर्म कहलाता है, जैसे, "गुरु ने शिष्य को (गौण कर्म) पोथी (मुख्य कर्म) दी।" "मैं तुम्हें उपाय बताता हूँ।" इत्यादि।

(अ) गौण कर्म कभी कभी लुप्त रहता है; जैसे "राजा ने दान दिया।" "पंडित कथा सुनाते हैं।

१९६—कभी कभी करना, बनाना, समझना, पाना, मानना, आदि धातुओं का आशय कर्म के रहते भी पूरा नहीं होता, इसलिए उनके साथ कोई संज्ञा या विशेषण पूर्त्ति के रूप में आता है। जैसे, "अहल्याबाई ने गंगाधर को अपना दीवान बनाया" "मैंने चोर को साधु समझा।" इन क्रियाओं को अपूर्ण सकर्मक क्रियाएँ कहते हैं और इनकी पूर्त्ति कर्म-पूर्त्ति कहलाती है। इससे भिन्न अकर्मक अपूर्ण क्रिया की पूर्त्ति को उद्देश्य-पूर्त्ति कहते हैं।

(अ) साधारण अर्थ में सकर्मक अपूर्ण क्रियाओं को भी पूर्त्ति की आवश्यकता नहीं होती, जैसे, कुम्हार घड़ा बनाता है।" "लड़के पाठ समझते हैं। इत्यादि।

१९७—किसी किसी अकर्मक और किसी किसी सकर्मक धातु के साथ उसी धातु से बनी हुई भाववाचक संज्ञा कर्म के समान प्रयुक्त होती है, जैसे, "लड़का अच्छी चाल चलता है।" "सिपाही कई लड़ाइयाँ लड़ा।" "लड़कियाँ खेल खेल रही हैं।" "पक्षी अनोखी बोली बोलते हैं।" "किसान ने चोर को बड़ी मार मारी।" इत्यादि। इस कर्म को बहुधा सजातीय कर्म और क्रिया को सजातीय क्रिया कहते हैं।

यौगिक धातु।

१९८—व्युत्पत्ति के अनुसार धातुओं के दो भेद होते हैं—(१) मूल-धातु और (२) यौगिक धातु। [ १४८ ] १९९—मूल-धातु वे हैं जो किसी दूसरे शब्द से न बने हों, जैसे, करना, बैठना, चलना, लेना।

२००—जो धातु किसी दूसरे शब्द से बनाये जाते हैं वे यौगिक धातु कहाते हैं; जैसे, "चलना" से "चलाना", "रंग" से "रँगना", "चिकना" से "चिकनाना" इत्यादि।

(अ) संयुक्त धातु यौगिक धातु का एक भेद है।

[सूचना—जो धातु हिंदी में मूल-धातु माने जाते हैं उनमें बहुत से प्राकृत के द्वारा संस्कृत धातुओं से बने हैं; जैसे, सं॰—कृ, प्रा॰—कर, हिं॰—कर। सं॰—भू, प्रा॰—हो, हिं॰—हो। संस्कृत अथवा प्राकृत के धातु चाहे यौगिक हों चाहे मूल, परंतु उनसे निकले हुए हिंदी धातु मूल ही माने जाते हैं; क्योंकि व्याकरण में, दूसरी भाषा से आये हुए शब्दों की मूल व्युत्पत्ति का विचार नहीं किया जाता। यह विषय कोष का है। हिंदी ही के शब्दों से अथवा हिंदी प्रत्ययों के योग से जो धातु बनते है उन्हीं को, हिदी में, यौगिक मानते हैं।]

२०१—यौगिक धातु तीन प्रकार से बनते हैं-(१) धातु से प्रत्यय जोड़ने से सकर्मक तथा प्रेरणार्थक धातु बनते हैं, (२) दूसरे शब्द-भेदों में प्रत्यय जोड़ने से नाम-धातु बनते हैं और (३) एक धातु में एक या दो धातु जाड़ने से संयुक्त धातु बनते हैं।

[सूचना—यद्यपि यौगिक धातुओं का विवेचन व्युत्पत्ति का विषय है। तथापि सुभीते के लिए हम प्रेरणार्थक धातुओं को और नाम-धातुथों का विचार इसी अध्याय में, और संयुक्त धातुओं का विचार क्रिया के रूपतर-प्रकरण में करेंगे।

(१) प्रेरणार्थक धातु

२०२—मूल धातु के जिस विकृत रूप से क्रिया के व्यापार में कर्त्ता पर किसी की प्रेरणा समझी जाती है उसे प्रेरणार्थक धातु कहते हैं; जैसे, "बाप लड़के से चिट्ठी लिखवाता है।" इस वाक्य में मूल धातु "लिख" का विकृत रूप "लिखवा" है जिससे जाना [ १४९ ]जाता है कि लड़का लिखने का व्यापार बाप की प्रेरणा से करता है, इसलिए "लिखवा" प्रेरणार्थक धातु है और "बाप" प्रेरक कर्त्ता तथा "लड़का" प्रेरित कर्त्ता है। "मालिक नौकर से गाड़ा चलवाता है।" इस वाक्य मे "चलवाता है" प्रेरणार्थक क्रिया, "मालिक" प्रेरक कर्त्ता और "नौकर" प्रेरित कर्त्ता है।

२०३—आना, जाना, सकना, होना, रुचना, पाना, आदि धातुओं से अन्य प्रकार के धातु नहीं बनते। शेष सब धातुओं से दो दो प्रकार के प्रेरणार्थक धातु बनते हैं, जिनका पहला रूप बहुधा सकर्मक क्रिया ही के अर्थ में आता है और दूसरे रूप से यथार्थ प्रेरणा समझी जाती है, जैसे, "घर गिरता है।" "कारीगर घर गिराता है।" "कारीगर नौकर से घर गिरवाता है।" "लोग कथा सुनते हैं।" "पंडित लोगों को कथा सुनाते हैं। "पंडित शिष्य से श्रोताओं को कथा सुनवाते हैं।"

(अ) सब प्रेरणार्थक क्रियाएँ सकर्मक होती हैं, जैसे, "दबी बिल्ली चूहों से कान कटाती है।" "लड़के ने कपड़ा सिलवाया।" पीना, खाना, देखना, समझना, देना, पढ़ना, सुनना, आदि क्रियाओं के दोनों प्रेरणार्थक रूप द्विकर्मक होते हैं, जैसे, "प्यासे को पानी पिलाओ।" "बाप ने लड़के को कहानी सुनाई।" "बच्चे को रोटी खिलवाओ।"

२०४—प्रेरणार्थक क्रियाओं के बनाने के नियम नीचे दिये जाते हैं—

१—मूल धातु के अंत में "आ" जोड़ने से पहला प्रेरणार्थक और "वा" जोड़ने से दूसरा प्रेरणार्थक रूप बनता है, जैसे,

मू॰ धा॰ प॰ प्रे॰ दू॰ प्रे॰
उठ-ना उठा-ना उठवा-ना
औट-ना औटा-ना औटवा-ना
[ १५० ]
गिर-ना गिरा-ना गिरवा-ना
चल-ना चला-ना चलवा-ना
पढ़-ना पढ़ा-ना पढ़वा-ना
फैल-ना फैला-ना फैलवा-ना
सुन-ना सुना-ना सुनवा-ना
(अ) दो अक्षरो के धातु मे 'ऐ' वा 'औ' को छोड़कर आदि का अन्य दीर्घ स्वर ह्रस्व हो जाता है; जैसे,
मू॰ धा॰ प॰ प्रे॰ दू॰ प्रे॰
ओढ़ना उढ़ाना उढ़वाना
जागना जगाना जगवाना
ओढ़ना उढ़ाना उढ़वाना
जीतना जिताना जितवाना
डूबना डुबाना डुबवाना
बोलना बुलाना बुलवाना
भीगना भिगोना भिगवाना
भूलना भुलाना भुलवाना
लेटना लिटाना लिटवाना

(१) "डूबना" का रूप "डुबोना" और "भीगना" का रूप "भिगोना" भी होता है।

(२) प्रेरणार्थक रूपों में बोलना का अर्थ बदल जाता है।

(आ) तीन अक्षर के धातु में पहले प्रेरणार्थक के दूसरे अक्षर का "अ" अनुच्चरित रहता है; जैसे,
मू॰ धा॰ प॰ प्रे॰ दू॰ प्रे॰
चमक-ना चमका-ना चमकवा-ना
पिघल-ना पिघला-ना पिघलवा-ना
बदल-ना बदला-न बदलवा-ना
समझ-ना समझा-ना समझना-ना
[ १५१ ]२—एकाक्षरी धातु के अंत में "ला" और "लवा" लगाते हैं और दीर्घ स्वर को हृस्व कर देते हैं; जैसे,
खाना खिलाना खिलवाना
छूना छुलाना छुलवाना
देना दिलाना दिलवाना
धोना धुलाना धुलवाना
पीना पिलाना पिलवाना
सीना सिलाना सिलवाना
सोना सुलाना सुलवाना
जीना जिलाना जिलवाना
(अ) "खाना" में आद्य स्वर "इ" हो जाता है। इसका एक प्रेरणार्थक "खवाना" भी है। "खिलाना" अपने अर्थ के अनुसार "खिलना" (फूलना) का भी सकर्मक रूप हो सकता है।
(आ) कुछ सकर्मक धातुओं से केवल दूसरे प्रेरणार्थक रूप (१—अ नियम के अनुसार) बनते हैं, जैसे, गाना-गवाना, खेना-खिवाना, खोना-खोआना, बोना-बोआना, लेना-लिवाना, इत्यादि।

३—कुछ धातुओं के पहले प्रेरणार्थक रूप "ला" अथवा "आ" लगाने से बनते हैं, परंतु दूसरे प्रेरणार्थक में "वा" लगाया जाता है; जैसे—

कहना कहाना वा कहलाना कहवाना
दिखना दिखाना वा दिखलाना दिखवाना
सीखना सिखाना वा सिखलाना सिखवाना
सूखना सुखाना वा सुखलाना सुखवाना
बैठना बिठाना वा बिठलाना बिठवाना
[ १५२ ]
(अ) "कहना" के पहले प्रेरणार्थक रूप अपूर्ण अकर्मक भी होते हैं; जैसे, "ऐसे ही सज्जन ग्रंथकार कहलाते हैं।" "विभक्ति-साहित शब्द पद कहाता है।"
(आ) "कहलाना" के अनुकरण पर दिखाना वा दिखलाना को कुछ लेखक अकर्मक क्रिया के समान उपयोग में लाते हैं, जैसे, "बिना तुम्हारे यहाँ न कोई रक्षक अपना दिखलाता।" (क॰ क॰)। यह प्रयोग अशुद्ध है।

(इ) "कहवाना" का रूप "कहलवाना" भी होता है।

(ई) "बैठना" के कई प्रेरणार्थक रूप होते हैं; जैसे, बैठाना, बैठालना, बिठालना, बैठवाना।

२०५—कुछ धातुओं से बने हुए दोनो प्रेरणार्थक रूप एकार्थी होते हैं; जैसे,

कटना—कटाना वा कटवाना
खुलना—खुलाना वा खुलवाना
गड़ना—गड़ाना वा गड़वाना
देना—दिलाना वा दिलवाना
बँधना—बँधाना वा बँधवाना
रहना—रखाना वा रखवाना
सिलना—सिलाना वा सिलवाना

२०६—कोई कोई धातु स्वरूप में प्रेरणार्थक हैं, पर यधार्थ में वे मूल अकर्मक (वा सकर्मक) हैं; जैसे, कुम्हलाना, घबराना, मचलाना, इठलाना, इत्यादि।

(क) कुछ प्रेरणार्थक धातुओं के मूल रूप प्रचार में नहीं हैं; जैसे, जताना (वा जतलाना) फुसलाना, गँवाना, इत्यादि।

२०७—अकर्मक धातुओं से नीचे लिखे नियमों के अनुसार सकर्मक धातु बनते हैं— [ १५३ ] १—धातु के आद्य स्वर को दीर्घ करने से, जैसे,

कटना—काटना पिसना—पीसना
दबना—दाबना लुटना—लूटना
बँधना—बाँधना मरना—मारना
पिटना—पीटना पटना—पाटना

(अ) "सिलना" का सकर्मक रूप "सीना" होता है।

२—तीन अक्षरों के धातु में दूसरे अक्षर का स्वर दीर्घ होता है, जैसे,

निकलना—निकालना उखड़ना—उखाड़ना
सम्हलना—सम्हालना बिगड़ना—बिगाड़ना

३—किसी किसी धातु के आद्य इ वा उ को गुण करने से, जैसे,

फिरना—फेरना खुलना—खोलना
दिखना—देखना घुलना—घोलना
छिदना—छेदना मुड़ना—मोड़ना

४—कई धातुओं के अंत्य ट के स्थान में ड हो जाता है, जैसे,

जुटना—जोड़ना टूटना—तोड़ना
छूटना—छोड़ना फटना—फाड़ना
फूटना—फोड़ना

(आ) "बिकना" का सकर्मक "बेचना" और "रहना" का "रखना" होता है।

२०८—कुछ धातुओं का सकर्मक और पहला प्रेरणार्थक रूप अलग अलग होता है और दोनो में अर्थ का अंतर रहता है, जैसे, "गड़ना" का सकर्मक रूप "गाड़ना" और पहला प्रेरणार्थक "गड़ाना" है। "गाड़ना" का अर्थ "धरती के भीतर रखना" है और "गड़ाना" का एक अर्थ "चुभाना" भी है। ऐसे ही "दाबना" और "दबाना" में अंतर है। [ १५४ ]

(२) नाम-धातु।

२०९—धातु को छोड़ दूसरे शब्दों में प्रत्यय जोड़ने से जो धातु बनाये जाते हैं उन्हे नाम-धातु कहते हैं। ये संज्ञा वा विशेषण के अंत में "ना" जोड़ने से बनते हैं।

(अ) संस्कृत शब्दों से; जैसे,

उद्धार-उद्धारना, स्वीकार-स्वीकारना (व्यापार में "सकारना"), धिक्कार-धिक्कारना, अनुराग-अनुरागना, परितोष-परितोषना। इस प्रकार के शब्द कभी कभी कविता में आते हैं और ये शिष्ट सम्मति से ही बनाये जाते हैं।

(आ) अरबी, फारसी शब्दों से, जैसे,

गुज़र=गुज़रना, खरीद=खरीदना,
बदल=बदलना, दाग=दागना,
खर्च=खर्चना, आज़मा=आज़माना,
फ़र्मा=फ़र्माना,

इस प्रकार के शब्द अनुकरण से नये नहीं बनाये जा सकते।

(इ) हिंदी शब्दों से (शब्द के अंत में 'आ' करके और आद्य "आ" को ह्रस्व कर के) जैसे,

दुख-दुखाना, बात-बतियाना, बताना।
चिकना-चिकनाना, हाथ-हथियाना।
अपना-अपनाना, पानी-पनियाना।
लाठी-लठियाना, रिस-रिसाना।

विलग-विलगाना।

इस प्रकार के शब्दों का प्रचार अधिक नहीं है। इनके बदले बहुधा संयुक्त क्रियाओं का उपयोग होता है, जैसे, दुखाना—दुख देना; बतियाना—बात करना, अलगाना—अलग करना, इत्यादि।

२१०—किसी पदार्थ की ध्वनि के अनुकरण पर जो धातु बनाये [ १५५ ]जाते हैँ उन्हें अनुकरण-धातु कहते हैं। ये धातु ध्वनि-सूचक शब्द के अंत में "आ" करके "ना" जोड़ने से बनते हैं। जैसे,

बड़बड़—बड़बड़ाना, खटखट—खटखटाना,
थरथर—थरथराना, टर्र—टर्राना,
मचमच—मचमचाना, भनभन—भनभनाना।

(अ) नाम-धातु और अनुकरण-धातु अकर्मक और सकर्मक दोनों होते हैं। ये धातु भी शिष्ट सम्मति के बिना नहीं बनाये जाते।

(३) संयुक्त धातु।

[सूचना—संयुक्त धातु कुछ कृदंतों [धातु से बने हुए शब्दों] की सहायता से बनाये जाते हैं, इसलिए इनका विवेचन क्रिया के रूपांतर-प्रकरण में किया जायगा।]

[टी॰—हिंदी व्याकरणों में प्रेरणार्थक धातुओं के सबंध में बड़ी गड़बड़ है। "हिदी-व्याकरण" में स्वरांत धातुओं से सकर्मक बनाने का जो सर्वव्यापी नियम दिया है उसमें कई अपवाद हैं, जैसे "बोआना", "खोआना", "गँवाना", "लिखवाना", इत्यादि। लेखक ने इनका विचार ही नहीं किया। फिर उसमें केवल "घुसना", "चलना" और "दबाना" के दो दो सकर्मक रूप माने गये हैं, पर हिंदी में इस प्रकार के धातु अनेक हैं, जैसे, कटना, खुलना, गड़ना, लुटना, पिसना, आदि। यद्यपि इन धातुओं के दो दो सकर्मक रूप कहे जाते हैं, पर यथार्थ में एक रूप सकर्मक और दूसरा प्रेरणार्थक है, जैसे, घुलना-घोलना, घुलाना, कटना-काटना, कटाना, पिसना-पीसना, पिसाना, इत्यादि। "भाषा-भास्कर" में इन दुहरे रूपों का नाम तक नहीं है। "बाल बोध-व्याकरण" में कई एक प्रेरणार्थक क्रियाओं के जो रूप दिये गये हैं वे हिंदी में प्रचलित नहीं हैं, जैसे, "सोलाना" (सुलाना), "बोलवाना" (बुलवाना), "बैठलाना" (बिठवाना), इत्यादि। "भाषा-चंद्रोदय" में प्रेरणार्थक धातुओं को त्रिकर्मक लिखा है, पर उनका जो एक उदाहरण दिया गया है उसमें लेखक ने यह बात नहीं समझाई और न उसमें एक से अधिक कर्म ही पाये जाते हैं, जैसे, "देवदत्त यज्ञदत्त से पोथी लिवाता है।"]