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हिंदी व्याकरण/क्रिया-विशेषण

विकिस्रोत से
हिंदी व्याकरण
कामताप्रसाद गुरु

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १५६ से – १७७ तक

 

दूसरा खंड।

अव्यय।

पहला अध्याय।

क्रिया-विशेषण।

२११—जिस अव्यय से क्रिया की कोई विशेषता जानी जाती है उसे क्रिया-विशेषण कहते हैं, जैसे, यहाँ, वहाँ, जल्दी, धीरे, अभी, बहुत, कम, इत्यादि।

[सूचना-"विशेषता" शब्द से स्थान, काल, रीति और परिमाण का अभिप्राय है।]

(१) क्रिया-विशेषण को अव्यय (अविकारी) कहने में दो शंकाएँ हो सकती हैं—(क) कुछ विभक्त्यंत शब्दों का प्रयोग क्रिया-विशेषण के समान होता है; जैसे, "अंत में", "इतने पर", "ध्यान से", "रात को" इत्यादि। (ख) कई एक क्रिया-विशेषणों में विभक्तियों के द्वारा रूपांतर होता है, जैसे, "यहाँ का", "कब से", "आगे को", "किधर से" इत्यादि।

इनमें से पहली शंका का उत्तर यह है कि यदि कुछ विभक्त्यंत शब्दों का प्रयोग क्रिया-विशेषण के समान होता है तो इससे यह बात सिद्ध नहीं होती कि क्रिया-विशेषण अव्यय नहीं होते। फिर इन विभक्त्यंत शब्दों के आगे कोई दूसरा विकार भी नहीं होता, इससे इनको भी अव्यय मानने में कोई बाधा नहीं है। संस्कृत में भी कुछ विभक्त्यंत शब्द (जैसे, सत्यम, सुखेन, बलात्) क्रिया-विशेपण के समान उपयोग में आते हैं और अव्यय माने जाते हैं। हिंदी में भी कई एक शब्द (जैसे, आगे, पीछे, सामने, सवेरे, इत्यादि) जिन्हेँ क्रिया-विशेषण और अव्यय मानने में किसीको शंका नहीं होती, यथार्थ में विभक्त्यंत संज्ञाएँ हैं, परंतु उनके प्रत्ययों का लोप हो गया है। दूसरी शंका का समाधान यह है कि जिन क्रिया-विशेषणों में विभक्ति का योग होता है उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। उनमें से कुछ तो सर्वनामों से बने हैं और कुछ संज्ञाएँ हैं जो अधिकरण की विभक्ति का लोप हो जाने से क्रिया-विशेषण के समान उपयोग में आती हैं। फिर उनमें भी केवल संप्रदान, अपादान, संबंध और अधिकरण की एकवचन विभक्तियों का ही योग होता है, जैसे, इधर से, इधर को, इधर का, यहाँ पर, इत्यादि। इसलिए इन उदाहरणों को अपवाद मानकर क्रिया-विशेषणों को अव्यय मानने में कोई दोष नहीं है।

(२) जिस प्रकार क्रिया की विशेषता बतानेवाले शब्दों को क्रिया-विशेषण कहते हैं उसी प्रकार विशेषण और क्रिया-विशेषण की विशेषता बतानेवाले शब्दों को भी क्रिया-विशेषण कहते हैं। ये शब्द बहुधा परिमाण-वाचक क्रिया-विशेषण हैं और कभी कभी क्रिया की भी विशेषता बतलाते हैं। क्रिया-विशेषण के लक्षण में विशेषण और दूसरे क्रिया-विशेषण की विशेषता बताने का उल्लेख इसलिए नहीं किया गया है कि यह बात सब क्रिया-विशेषणों में नहीं पाई जाती और परिमाणवाचक क्रिया-विशेषणों की संख्या दूसरे क्रिया-विशेषणों की अपेक्षा बहुत कम है। कहीं कहीं रीतिवाचक क्रिया-विशेषण भी विशेषण और दूसरे क्रिया-विशेषण की विशेषता बताते हैं, परतु वे परोक्ष रूप से परिमाणवाचक ही हैं, जैसे, "ऐसा सुंदर बालक"="इतना सुंदर बालक।" "गाड़ी ऐसे धीरे चलती है"="गाड़ी इतने धीरे चलती है।"

२१२—क्रिया-विशेषणों का वर्गीकरण तीन आधारों पर हो सकता है—(१) प्रयोग, (२) रूप और (३) अर्थ । [टी॰—क्रिया-विशेषणों का ठीक ठीक विवेचन करने के लिए उनका वर्गीकरण एक से अधिक आधारों पर करना आवश्यक है; क्योंकि हिंदी में बहुतसे क्रिया-विशेषण यौगिक हैं और केवल रूप से उनकी पहचान नहीं हो सकती; जैसे, अच्छा, मन से, इतना, केवल, धीरे, इत्यादि। फिर कई एक शब्द कभी क्रिया-विशेषण और कभी दूसरे प्रकार के होते हैं, जैसे, "आगे हमने जान लिया।" (शकु॰)। "मानियों के आगे प्राण और धन तो कोई वस्तु ही नहीं है।" (सत्य॰)। "राजा ने ब्राह्मण को आगे से लिया।" इन उदाहरणों में आगे शब्द क्रमशः क्रिया-विशेषण, संबंधसूचक और संज्ञा है।]

२१३—प्रयोग के अनुसार क्रिया-विशेषण तीन प्रकार के होते हैं—(१) साधारण, (२)संयोजक और (३) अनुबद्ध।

(१) जिन क्रिया-विशेषणों का प्रयोग किसी वाक्य में स्वतंत्र होता है उन्हें साधारण क्रिया-विशेषण कहते हैं; जैसे, "हाय! अब मैं क्या करूँ!" "बेटा, जल्दी आओ।" "अरे! वह साँप कहाँ गया?" (सत्य॰)।

(२) जिनका संबंध किसी उपवाक्य के साथ रहता है उन्हें संयोजक क्रिया-विशेषण कहते हैं: जैसे, "जब रोहिताश्व ही नहीं तो मैं ही जी के क्या करूँगी।" (सत्य॰)। "जहाँ अभी समुद्र है वहाँ पर किसी समय जंगल था।" (सर॰)।

[सूचना—संयोजक क्रिया-विशेषण-जब, जहाँ, जैसे, ज्यों, जितना, संबंधवाचक सर्वनाम "जो" से बनते हैं और उसीके अनुसार दो उपवाक्यों को मिलाते है। (अ॰-१३४)।]

(३) अनुबद्ध क्रिया-विशेषण वे हैं जिनका प्रयोग अवधारण के लिए किसी भी शब्द-भेद के साथ हो सकता है; जैसे, "यह तो किसीने धोखा ही दिया है।" (मुद्रा॰)। "मैंने उसे देखा तक नहीं", "आपके आने भर की देरी है।"

२१४—रूप के अनुसार क्रिया-विशेषण तीन प्रकार के होते हैं— (१) मूल, (२) यौगिक और (३) स्थानीय। २१५—जो क्रिया-विशेषण किसी दूसरे शब्द से नहीं बनते वे मूल क्रिया-विशेषण कहलाते हैं, जैसे, ठीक, दूर, अचानक, फिर, नहीं, इत्यादि।

२१६—जो क्रिया-विशेषण दूसरे शब्दों में प्रत्यय वा शब्द जोड़ने से बनते हैं उन्हें यौगिक क्रिया-विशेषण कहते हैं। वे नीचे लिखे शब्द-भेदो से बनते हैं—

(अ) संज्ञा से, जैसे, सबेर, मन से, क्रमशः , आगे, रात को, प्रेम-पूर्वक, दिन-भर, रात-तक, इत्यादि।
(आ) सर्वनाम से; जैसे, यहाँ, वहाँ, अब, जब, जिससे, इसलिए, तिस पर, इत्यादि।
(इ) विशेषण से , जैसे, धीरे, चुपके, भूले से, इतने में, सहज में, पहले, दूसरे, ऐसे, वैसे, इत्यादि।
(ई) धातु से, जैसे, आते, करते, देखते हुए, चाहे, लिये, मानो बैठे हुए, इत्यादि।
(उ) अव्यय से, जैसे, यहाँ तक, कब का, ऊपर को, झट से, वहाँ पर, इत्यादि।
(ऊ) क्रिया-विशेषणों के साथ निश्चय जनाने के लिये बहुधा ई वा ही लगाते हैं, जैसे, अब-अभी, यहाँ यहीँ, आते-आतेही, पहले-पहलेही, इत्यादि।

२१७—संयुक्त क्रिया-विशेषण नीचे लिखे शब्दों के मेल से बनते हैं—

(अ) संज्ञाओं की द्विरुक्ति से, घर-घर, घड़ी-घड़ी, बीचों-बीच, हाथों-हाथ, इत्यादि।
(आ) दो भिन्न भिन्न संज्ञाओ के मेल से, जैसे, रात दिन, सांझ-सवेरे, घर-बाहर, देश-विदेश, इत्यादि।
(इ) विशेषणों की द्विरुक्ति से, जैसे, एका-एक, ठीक-ठीक, साफ-साफ, इत्यादि।
(ई) क्रिया-विशेषणों की द्विरुक्ति से; जैसे, धीरे-धीरे, जहाँ-जहाँ, कब-कब, कहाँ-कहाँ, बकते-बकते, बैठे-बैठे, पहले-पहल, इत्यादि।
(उ) दो भिन्न भिन्न क्रिया-विशेषणों के मेल से, जैसे, जहाँ-तहाँ, जहाँ कहीं, जब-तब, जव-कभी, कल-परसों, तले-ऊपर, आस-पास, आमने-सामने, इत्यादि।
(ऊ) दो समान अथवा असमान क्रिया-विशेषणों के बीच में न रखने से; जैसे, कभी-न-कभी, कही-न-कही, कुछ-न-कुछ, इत्यादि।
(ऋ) अनुकरणवाचक शब्दों की द्विरुक्ति से, जैसे, गटगट, तड़तड़, सटासट, धड़ाधड़, इत्यादि।
(ए) संज्ञा और विशेषण के मेल से; जैसे, एक-साथ, एक-बार, दो-बार, हर घड़ी, जबरदस्ती, लगातार, इत्यादि।
(ऐ) अव्यय और दूसरे शब्दों के मेल से; जैसे, प्रतिदिन, यथा-क्रम, अनजाने, सदेह, बे-फ़ायदा, आजन्म, इत्यादि।
(ओ) पूर्वकालिक कृदंत (करके) और विशेषण के मेल से; जैसे, मुख्य-करके, विशेष-करके, बहुत-करके, एक-एक-करके, इत्यादि।

२१८—दूसरे शब्द-भेद जो बिना किसी रूपांतर के क्रिया-विशेषण के समान उपयोग में आते हैं उन्हे स्थानीय क्रिया-विशेषण कहते हैं। ये शब्द किसी विशेष स्थान ही में क्रिया-विशेषण होते हैं; जैसे,

(अ) संज्ञा—"तुम मेरी मदद पत्थर करोगे! "वह अपना सिर पढ़ेगा!"
(आ) सर्वनाम—लीजिये महाराज, मैं यह चला। (मुद्रा॰)। कोतवाल जी तो वे आते हैं। (शकु॰)।' हिंसक जीव मुझे क्या मारेंगे!" (रघु॰)। "तुम्हें यह बात कौन कठिन है!" इत्यादि।
(इ) विशेषण—"स्त्री सुंदर सीती है।" "मनुष्य उदास बैठा है।" "लड़का कैसा कूदा।" "सब लेग सोये पड़े थे।" "चोर पकड़ा हुआ आया।" "हमने इतना पुकारा।" (सत्य॰)। इत्यादि।
(ई) पूर्वकालिक कृदंत—"तुम दौड़कर चलते हो।" "लड़का उठकर भागा।" इत्यादि।

२१९—हिंदी में कई एक संस्कृत और कुछ उर्दू क्रियाविशेषण भी आते हैं। ये शब्द तत्सम और तद्भव दोन प्रकार के होते हैं।

(१) संस्कृत क्रियाविशेषण।

तत्सम—अकस्मात्, ईषत्, पश्चात्, प्रायः, बहुधा, पुनः, अतः, अस्तु, वृथा, व्यर्थ, वस्तुतः, सम्प्रति, कदाचित्, शनैः शनैः, अन्यत्र, सर्वत्र, इत्यादि।

तद्भव—आज (सं॰—अद्य), कल (स॰—कल्य), परसों (सं॰—परश्व), बारबार (स॰—बारंबार), आगे (स॰—अग्रे), साथ (सं॰—सार्धम्), सामने (स॰—सम्मुखम्), सतत (स॰—सततम्), इत्यादि।

(२) उर्दू क्रियाविशेषण।

तत्सम—शायद, जरूर, बिलकुल, अकसर, फौरन, वाला-वाला, इत्यादि।

तद्भव—हमेशा (फा॰—हमेशह), सही (अ॰—सहीह), नगीच (फा॰—नज़दीक), जल्दी (फ़ा॰—जल्द), खूब (फ़ा॰—खूब), आखिर (अ॰—आखिर) इत्यादि।

२२०—अर्थ के अनुसार क्रियाविशेषणों के नीचे लिखे चार भेद होते हैं—

(१) स्थानवाचक, (२) कालवाचक, (३) परिमाणवाचक और (४) रीतिवाचक। २२१—स्थानवाचक क्रियाविशेषण के दो भेद हैं—(१) स्थितिवाचक और (२) दिशावाचक।

(१) स्थितिवाचक—

यहाँ, वहाँ, जहाँ, कहाँ, तहाँ, आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, तले, सामने, साथ, बाहर, भीतर, पास (निकट, समीप), सर्वत्र, अन्यत्र, इत्यादि।

(२) दिशावाचक—इधर, उधर, किधर, जिधर, तिधर, दूर, परे, अलग, दाहिने, बाएँ, आरपार, इस तरफ, उस जगह, चारों ओर, इत्यादि।

२२२—कालवाचक क्रियाविशेषण तीन प्रकार के होते हैं— (१) समयवाचक, (२) अवधिवाचक, (३) पौनःपुन्यवाचक।

(१) समयवाचक—

आज, कल, परसों, तरसों, नरसों, अब, जब, कब, तब, अभी, कभी, जभी, तभी, फिर, तुरंत, सबरे, पहले, पीछे, प्रथम, निदान, आखिर, इतने में, इत्यादि।

(२) अवधिवाचक—

आजकल, नित्य, सदा, सतत (कविता में), निरंतर, अबतक, कभी कभी, कभी न कभी, अब भी, लगातार, दिन भर, कब का, इतनी देर, इत्यादि।

(३) पौनःपुन्यवाचक—

बार-बार (बारंबार), बहुधा (अकसर), प्रतिदिन (हररोज़), घड़ी-घड़ी, कई बार, पहले—फिर, एक—दूसरे—तीसरे—इत्यादि, हरबार, हरदफे, इत्यादि।

२२३—परिमाणवाचक क्रियाविशेषणों से अनिश्चित संख्या वा परिमाण का बोध होता है। उनमें ये भेद हैं—

(अ) अधिकताबोधक—बहुत, अति, बड़ा, भारी, बहुतायत से, बिलकुल, सर्वथा, निरा, खूब, पूर्णतया, निपट, अत्यंत, अतिशय, इत्यादि।

(आ) न्यूनताबोधक—कुछ, लगभग, थोड़ा, टुक, अनुमान, प्रायः, ज़रा, किंचित्, इत्यादि।
(इ) पर्याप्तिवाचक—केवल, बस, काफ़ी, यथेष्ट, चाहे, बराबर, ठीक, अस्तु, इति, इत्यादि।
(ई) तुलना-वाचक—अधिक, कम, इतना, उतना, जितना, कितना, बढ़कर, और, इत्यादि।
(उ) श्रेणीवाचक—थोड़ा-थोड़ा, क्रम-क्रम से, बारी-बारी से, तिल-तिल, एक-एक करके, यथाक्रम, इत्यादि।

२२४—रीतिवाचक क्रियाविशेषणों की संख्या गुणवाचक विशेषणों के समान अनंत है। क्रियाविशेषण के न्यायसम्मत वर्गीकरण में कठिनाई होने के कारण, इस वर्ग में उन सब क्रिया-विशेषणों का समावेश किया जाता है जिनका अंतर्भाव पहले कहे हुए वर्गों में नहीं हुआ है। रीतिवाचक क्रियाविशेषण नीचे लिखे हुए अर्थों में आते हैं—

(अ) प्रकार—ऐसे, वैसे, कैसे, जैसे-तैसे, मानों, यथा-तथा, धीरे, अचानक, सहसा, अनायास, वृथा, सहज, साक्षान्, सेत, सेतमेंत, योंही, हौले, पैदल, जैसे-तैसे, स्वयं, परस्पर, आपही आप एक-साथ, एकाएक, मन से, ध्यानपूर्वक, सदेह, सुखेन, रीत्यनुसार, क्योंकर, यथाशक्ति, हँसकर, फटाफट, तड़तड़, फटसे, उलटा, येन-केन-प्रकारेण, अकस्मात्, किम्वहुना, प्रत्युत।
(आ) निश्चय—अवश्य, सही, सचमुच, निःसंदेह, बेशक, जरूर, अलबत्ता, मुख्य-करके, विशेष-करके, यथार्थ में, वस्तुतः, दरअसल।
(इ) अनिश्चय—कदाचित् (शायद), बहुत करके, यथा-संभव।
(ई) स्वीकार—हाँ, जी, ठीक, सच।
(उ) कारण—इसलिए, क्यों, काहे को।
(ऊ) निषेध—न, नहीं, मत।
(ऋ) अवधारण—तो, ही, मात्र, भर, तक, सा।

२२५—यौगिक क्रियाविशेषण दूसरे शब्दों मे नीचे लिखे शब्द अथवा प्रत्यय जोड़ने से बनते हैं—

(१) संस्कृत क्रियाविशेषण।

पूर्वक—ध्यान-पूर्वक, प्रेम-पूर्वक, इत्यादि।

वश—विधि-वश, भय-वश।

इन (आ)—सुखेन, येन-केन-प्रकारेण, मनसा-वाचा-कर्मणा।

या—कृपया, विशेषतया।

अनुसार—रीत्यनुसार, शक्त्यनुसार।

तः—स्वभावतः, वस्तुतः, स्वतः।

दा—सर्वदा, सदा, यदा, कदा।

धा—बहुधा, शतधा, नवधा।

शः—क्रमशः, अक्षरशः।

त्र—एकत्र, सर्वत्र, अन्यत्र।

था—सर्वथा, अन्यथा।

वत्—पूर्ववत्, तद्वत्।0

चित्—कदाचित्, किंचित्, क्वचित्।

मात्र—पल-मात्र, नाम-मात्र, लेश-मात्र।

(२) हिंदी क्रियाविशेषण।

ता, ते—दौड़ता, करता, बोलता, चलते, आते, मारते।

आ, ए—बैठा, भागा, लिए, उठाए, बैठे, चढ़े। को—इधर को, दिन को, रात का, अत को।

से—धर्म से, मन से, प्रेम से, इधर से, तब से।

में—संक्षेप में, इतने में, अंत में।

का—सवेरे का, कब का।

तक—आज तक, यहाँ तक, रात तक, घर तक।

कर, करके—दौड़कर, उठकर, देखकर के, धर्म करके, भक्ति करके, क्योंकर।

भर—रातभर, पलभर, दिनभर।

(अ) नीचे लिखे प्रत्ययों और शब्दों से सार्वनामिक क्रियाविशेषण बनते हैं-

ए—ऐसे, कैसे, जैसे, वैसे, तैसे, थोड़े।

हाँ—यहाँ, वहाँ, कहाँ, जहाँ, तहाँ।

धर—इधर, उधर, जिधर, तिधर।

यों—यों, त्यों, ज्यों, क्यों।

लिए—इसलिए, जिसलिए, किसलिए।

ब—अब, तब, कब, जब।

(३) उर्दू क्रियाविशेषण।

अन—जबरन, फौरन, मसलन, इत्यादि।

२२६—सामासिक क्रियाविशेषण अर्थात् अव्ययीभाव समासों का विचार व्युत्पत्ति-प्रकरण में किया जायगा।यहाँ उनके कुछ उदाहरण दिये जाते हैं—

(१) संस्कृत अव्ययीभाव समास।

प्रति—प्रतिदिन, प्रतिपल, प्रत्यक्ष।

यथा—यथाशक्ति, यथाक्रम, यथासंभव।

निः—निःसंदेह, निर्भय, निःशंक। यावत्—यावज्जीवन।

आ—आजन्म, आमरण।

सम्—समक्ष, सम्मुख।

स—सदेह, सपरिवार।

अ, अन्—अकारण, अनायास।

वि—व्यर्थ, विशेष।

(२) हिंदी अव्ययीभाव समास

अन—अनजाने, अनपूछे।

नि—निधड़क, निडर।

(३) उर्दू अव्ययीभाव समास।

हर—हररोज़, हरसाल, हरवक्त।

दर—दरअसल, दरहक़ीकत।

ब—बजिस, बदस्तूर।

बे—बेकार, बेफ़ायदा, बेशक, बेतरह, बेहद।

(४) मिश्रित अव्ययीभाव समास।

हर—हरघड़ी, हरदिन, हरजगह।

बे—बेकाम, बेसुर।

२२७—कुछ क्रियाविशेषणों के विशेष अर्थों और प्रयोगों के उदाहरण नीचे दिये जाते हैं—

परसों, कल—इनका प्रयोग भूत और भविष्य दोनों कालों में होता है। इसकी पहचान क्रिया के रूप से होती है; जैसे, "लड़का कल आया और परसों जायगा।"

आगे, पीछे, पास, दूर—और इनके समानार्थी स्थानवाचक क्रियाविशेषण कालवाचक भी हैं; जैसे "आगे राम अनुज पुनि पाछे।" (राम॰)। (स्था॰ वा॰)। "आगे पीछे सब चल बसेंगे।" (कहा॰)। (का॰ वा॰)। "गाँव पास है या दूर?" (स्था॰ वा॰)। "दिवाली पास आ गई।" "विवाह का समय अभी दूर है।" (का॰ वा॰)। 'आगे' का कालवाचक अर्थ कभी कभी 'पीछे' के साथ बदल जाता है, जैसे, "ये सब बातें जान पड़ेंगी आगे" (सर॰)। (पीछे)।

तब, फिर—भाषा-रचना में 'तब' की द्विरुक्ति मिटाने के लिए उसके बदले बहुधा 'फिर' की योजना करते हैं; जैसे, तब (मैंने) समझा कि इसके भीतर कोई प्रभागा बद है। फिर जो कुछ हुआ सो आप जानते ही हैं। (विचित्र॰)। कभी कभी 'तब' और 'फिर' एक ही अर्थ में साथ साथ आते हैं, जैसे, "तब फिर आप क्या करेंगे?"

कभी—इससे अनिश्चित काल का बोध होता है जैसे, "हमसे कभी मिलना।" "कभी" और "कदापि" का प्रयोग बहुधा निषेधवाचक शब्दों के साथ होता है, जैसे, "ऐसा काम कभी मत करना।" "मैं वहाँ कदापि न जाऊँगा। "दो या अधिक वाक्यों में "कभी" में क्रमागत काल का बोध होता है, जैसे, "कभी नाव गाड़ी पर, कभी गाड़ी नाव पर।" "कभी घी घना, कभी मुट्ठी-भर चना, कभी वह भी मना।" "कभी" का प्रयोग आश्चर्य वा तिरस्कार में भी होता है, जैसे, "तुमने कभी कलकत्ता देखा था।"

कहाँ—दो अलग अलग वाक्यो में 'कहाँ' से बड़ा अंतर सूचित होता है, जैसे, "कहँ कुँभज कहँ सिंधु अपारा।" (राम॰)। "कहाँ राजा भोज कहाँ गंगा तेली।"

कहीं—अनिश्चित स्थान के अर्थ के सिवा यह "अत्यंत" और "कदाचित्" के अर्थ में भी आता है, जैसे, "पर मुझ से वह कहीं सुखी है।" (हिदी ग्रंथ॰)। "सखी ने ब्याह की बात कहीं हँसी से न कही हो।" (शकु॰)। अलग अलग वाक्यों में "कहीं" से विरोध सूचित होता है, जैसे, "कहीं धूप, कहीं छाया।" "कहीं शरीर आधा जला है, कहीं बिलकुल कच्चा है!" (सत्य॰)। आश्चर्य में "कहीं" का प्रयोग "कभी" के समान होता है; "कहीं डूबे तिरे हैं!" "पत्थर भी कहीं पसीजता है।"

परे—इसका प्रयोग बहुधा तिरस्कार में होता है, जैसे, "परे हो!" "परे हट!"

इधर-उधर (यहाँ-वहाँ)—इन दुहरे क्रियाविशेषणों से विचित्रता का बोध होता है; जैसे, "इधर तो तपस्वियों का काम, उधर बड़ों की आज्ञा।" (शकु॰)। "सुत-सनेह इत बचन उत, संकट परेउ नरेश।" (राम॰)। तुम यहाँ यह भी कहते हो, वहाँ वह भी कहते हो।"

योंही—इसका अर्थ 'अकारण' है, जैसे, "लड़का योंही फिरा करता है। इसका अर्थ "इसी तरह" भी है।

मानो—यह "जैसे" का पर्यायवाचक है और उसके समान बहुधा "ऐसे" के साथ उपमा (उत्प्रेक्षा) में आता है; जैसे, "यह चित्र ऐसा सुहावना लगता है मानो साक्षात् सुंदरापा आगे खड़ा है।" (शकुं॰)।

जब तक—यह बहुधा निषेधवाचक वाक्य में आता है, जैसे, "जब तक मैं न आऊँ तुम यहीं रहना।"

तब तक—इसका अर्थ भी कभी कभी "इतने में" होता है, जैसे, "ये दुख तो थे ही, तब तक एक नया घाव और हुआ।" (शकु॰)।

जहाँ—इसका अर्थ कभी कभी "जब होता है, जैसे, "जहँ अस दशा जड़न की बरनी। को कहि सकै सचेतन करनी।" (राम॰)।

जहाँ-तक—इसका अर्थ बहुधा परिमाणवाचक होता है, जैसे, "जहाँ तक हो सके, टेढ़ी गलियाँ सीधी कर दी जावे।"

"यहाँ तक" और "कहाँ तक" भी परिमाणवाचक होते हैं; जैसे, "करूँ कहाँ तक वर्णन उसकी अतुल दया का भाव।" (एकांत॰)। "एक साल व्यापार में टोटा पड़ा यहाँ तक कि उनका घर द्वार सब जाता रहा।" "यहाँ तक" बहुधा "कि" के साथ ही आता है।

कब का—इसका अर्थ "बहुत समय से है। इसका लिंग और वचन कर्त्ता के अनुसार बदलता है, जैसे, "माँ कब की पुकार रही है।" (सत्य॰)। "कब को टेरत दीन रटि।" (सत॰)।

क्योंकर—इसका अर्थ "कैसे" होता है, जैसे, "यह काम क्योंकर होगा?" "ये गढे क्योंकर पड़ गये" (गुटका॰)।

इसलिए—यह कभी क्रियाविशेषण और कभी समुच्चयबोधक होता है, जैसे, "वह इसलिए नहाता है कि ग्रहण लगा है।" (क्रि॰ वि॰)। "तू दुर्दशा में है, इसलिए मैं तुझे दान दिया चाहता हूँ।" (स॰-वो॰)

न, नहीं—'न' स्वतंत्र शब्द है, इसलिए वह शब्द और प्रत्यय के बीच में नहीं आ सकता। "देशोपालभ" नामक कविता में कवि ने सामान्य भविष्यत के प्रत्यय के पहले "न" लगा दिया है, जैसे, "लावो न गे वचन जो मन में हमारा।" यह प्रयोग दूषित है। जिन क्रियाओं के साथ "न" और "नहीं" दोनों आ सकते हैं, वहाँ "न" से केवल निषेध और "नहीं" से निषेध का निश्चय सूचित होता है, जैसे, "वह न आया," "वह नहीं आया।" "मैं न जाऊँगा," "मैं नहीं जाऊँगा।" (अं॰-६००) "न" प्रश्नवाचक अव्यय भी है, जैसे, "सब करेगा न?" (सत्य॰)। 'न' कभी कभी निश्चय के अर्थ में आता है। जैसे, "मैं तुझे अभी देखता हूँ न।" (सत्य॰)। न—न समुच्चयबोधक होते हैं, जैसे, "न उन्हें नींद आती थी न भूख-प्यास लगती थी।" (प्रेम॰)। प्रश्न के उत्तर मेँ 'नही' आता है, जैसे, तुमने उसे रुपया दिया था? नहीँ। केवल—यह अर्थ के अनुसार कभी विशेषण, कभी क्रियाविशेषण और कभी समुच्चयबोधक होता है; जैसे, "रामहि केवल प्रेम पियारा।" (राम॰)। "केवल लड़का चिल्लाता है।"

"करती हुई विकट तांडव सी मृत्यु निकट दिखलाती है।
केवल एक तुम्हारी आशा प्राणों को अटकाती है।"—(क॰ क॰)।

बहुधा, प्रायः—ये शब्द सर्वव्यापक विधानों को परिमित करने के लिए आते हैं। "बहुधा" से जितनी परिमिति होती है उसकी अपेक्षा "प्रायः" से कम होती है; जैसे, "वे सब बहुधा बलवान शत्रुओं से सब तरफ घिरे रहते थे।" (स्वा॰)। "इसमें प्रायः सब श्लोक चंडकौशिक से उद्धृत किये गये हैं।" (सत्य॰)।

तो—इससे निश्चय और आग्रह सूचित होता है। यह किसी भी शब्दभेद के साथ आ सकता है; जैसे, "तुम वहाँ गये तो थे" "किताब तुम्हारे पास तो थी।" इसके साथ "नहीं" और "भी" आते हैं; और ये संयुक्त शब्द ("नहीं तो," "तो भी") समुच्चय बोधक होते हैं। (अं॰—२४४-५ )। "यदि" के साथ दूसरे वाक्य मेँ आकर "तो" समुच्चय बोधक होता है, जैसे, "यदि ठंढ न लगे तो यह हवा बहुत दूर तक चली जाती है।"

ही—यह भी "तो" के समान किसी भी शब्द-भेद के साथ आकर निश्चय सूचित करता है। कहीं कहीं यह पहले शब्द के साथ संयोग के द्वारा मिल जाता है। जैसे, अब+ही=अभी, कब+ही=कभी, तुम+ही=तुम्ही, सब+ही=सभी, किस+ही=किसी। उदा॰—"एक ही दिन में," "दिन ही में," "दिन में ही," "पास ही," "आ ही गया," "जाना ही था।" , तो और ही समान शब्दों के बीच भी आते हैं, जैसे, "एक एक " "कोई कोई," "कभी कभी," "बात ही बात में," "पास ही पास," "आते ही आते," "लड़का गया तो गया ही गया," "दाग तो दाग, पर ये गढे क्योंकर पड़ गये?" (गुटका॰)। "ही" सामान्य भविष्यत्-काल के प्रत्यय के पहले भी लगा दिया जाता है, जैसे, "हम अपना धर्म तो प्राण रहे तक निबाहैं-ही-गे" (नील॰)।

मात्र, भर, तक—ये शब्द कभी कभी संज्ञाओं के साथ प्रत्ययों के रूप में आकर उन्हें क्रियाविशेषण-वाक्यांश बना देते हैं। (अ॰—२२५)। इस प्रयोग के कारण कोई कोई इनकी गिनती सबंधसूचकों में करते हैं। कभी कभी इनका प्रयोग दूसरे ही अर्थों में होता है—

(अ) "मात्र" संज्ञा और विशेषण के साथ "ही" (केवल) के अर्थ में आता है, जैसे, "एक लज्जा मात्र बची है।" (सत्य॰)। "राम मात्र लघु नाम हमारा।" (राम॰)। "एक साधन मात्र आपका शरीर हो अब अवशिष्ट है।" (रघु॰)। कभी कभी "मात्र" का अर्थ "सब" होता है, जैसे, "शिवजी ने साधन मात्र को कील दिया है।" (सत्य॰)। "हिंदी-भाषा-भाषी मात्र उनके चिर कृतज्ञ भी रहेंगे।" (विभक्ति॰)।
(आ) "भर" परिमाणवाचक संज्ञाओं के साथ आकर विशेषण होता है, जैसे, "सेर-भर घी," "मुट्ठी-भर अनाज," "कटोरे भर खून," इत्यादि। कभी कभी यह "मात्र के समान "सब" के अर्थ में आता है, जैसे, "मेरी अमलदारी भर मेँ जहाँ जहाँ सड़क हैं।" (गुटका॰)। "कोई उसके राज्य भर में भूखा न सोता।" (तथा)। कहीं कहीं इसका अर्थ "केवल" होता है, जैसे, "मेरे पास कपड़ा भर है।" "उतना भर मैं उसे फिर देऊँगा।" "नौकर लड़के के साथ भर रहा है।"
(इ) "तक" अधिकता के अर्थ में आता है, जैसे, "कितनी ही पुस्तकों का अनुवाद तो अँगरेजी तक में हो गया है।" "बंग-देश में कमिश्नर तक अपनी भाषा में पुस्तक रचना करते हैं।" (सर॰)। इस अर्थ में यह प्रत्यय बहुधा "भी" (समुच्चय बोधक) का पर्यायवाचक होता है। कभी कभी यह "सीमा" के अर्थ में आता है, जैसे, "इस काम के दस रुपये तक मिल सकते हैं।" "चालक से लेकर वृद्ध तक यह बात जानते हैं" "बंबई तक के सौदागर यहाँ आते हैं।" निषेधार्थक वाक्यों मे "तक" का अर्थ बहुधा "ही" होता है, जैसे, "मैंने उसे देखा तक नहीं है।" "ये लोग हिंदी में चिट्ठी तक नहीं लिखते।"

सा—पूर्वोक्त अव्ययों के समान यह शब्द भी कभी प्रत्यय, कभी संबंध सूचक और कभी क्रियाविशेषण होकर आता है। यह किसी भी विकारी शब्द के साथ लगा दिया जाता है, जैसे, फूलसा शरीर, मुझसा दुखिया, कौनसा मनुष्य, स्त्रियों का सा बोल, अपनासा कुटिल हृदय, मृगसा चंचल। गुणवाचक विशेषणों के साथ यह हीनता सूचित करता है, जैसे, कालासा कपड़ा, ऊँचीसी दीवार, अच्छासा नौकर, इत्यादि। परिमाणवाचक विशेषणो के साथ यह अवधारणबोधक होता है, जैसे, बहुतसा धन, थोड़े से कपड़े, जरासी बात, इत्यादि। इस प्रत्यय का रूप (सा-से-सी) विशेष्य के लिंगवचनानुसार बदलता है। कभी कभी यह संज्ञा के साथ केवल हीनता सूचित करता है, जैसे, "बन मे विथा सी छाई जाती है।" (शकु॰)। "एक जोत सी उतरी चली आती है।" (गुटका॰)। "जल-कण इतने अधिक उड़ते हैं कि धुआँ सा दिखाई देता है।" अथ, इति—ये अव्यय क्रमश पुस्तक वा उसके खंड अथवा कथा के आरंभ और अंत में आते हैँ। जैसे, "अथ कथा आरंभ" (प्रेम॰)। "इति प्रस्तावना।" (सत्य॰)। "अथ" का प्रयोग आजकल घट रहा है, परतु पुस्तकों के अंत में बहुधा "इति," (अथवा "सम्पूर्ण," "समाप्त" वा संस्कृत "समाप्तम्") लिखा जाता है। "इत्यादि" शब्द में "इति" और "आदि" का संयोग है। "इति" कभी कभी संज्ञा के समान आता है और उसके साथ बहुधा "श्री" जोड़ देते हैं, जैसे, "इस काम की इतिश्री हो गई।" राम-चरितमानस में एक जगह "इति" का प्रयोग संस्कृत की चाल पर स्वरूपवाचक समुच्चयबोधक के समान हुआ है, जैसे, "सोहमस्मि इति वृत्त अखंडा।"

२२८—अब कुछ संयुक्त और द्विरुक्त क्रियाविशेषणो के अर्थों और प्रयोगों के विषय में लिखा जाता है।

कभी कभी—बीच बीच में—कुछ कुछ दिनों में, जैसे, "कभी कभी इस दुखिया की भी सुध निज मन मे लाना"। (सर॰)।

कब कब—इनके प्रयोग से "बहुत कम" की ध्वनि पाई जाती है, जैसे, "आप मेरे यहाँ कब कब आते हैं?"

जब जब—तब तब—जिस जिस समय—उस उस समय।

जब तब—एक न एक दिन, जैसे, 'जब तब वीर विनास। (सत॰)।

अब तब—इनका प्रयोग बहुधा संज्ञा वा विशेषण के समान होता है। जैसे अब तब करना=टालना। अब तब होना=मरनहार होना।

कभी भी—इनसे 'कभी' की अपेक्षा अधिक निश्चय पाया जाता है। जैसे, यह काम आप कभी भी कर सकते हैं।

कभी न कभी, कभी तो, कभी भी, प्रायः पर्यायवाचक हैं।

जैसे जैसे—तैसे तैसे, ज्यों ज्यों—त्यों त्यों— ये उत्तरोत्तर बढती-घटती सूचित करते हैं, जैसे, “ज्यों ज्यों भीजै कामरी त्यों त्यों भारी हेय।”

ज्यों का त्यों— पूर्व दशा मे। इस वाक्यांश का प्रयोग बहुधा विशेषण के समान होता है और “का” प्रत्यय विशेष्य के लिग- वचनानुसरि बदलता है। जैसे, “किला अभी तक ज्यों का त्यों खड़ा है।”

जहाँ का तहाँ— पूर्व स्थान में, जैसे, “पुस्तक जहाँ की तहाँ रक्खी है।” इसमें भी विशेष्य के अनुसार विकार होता है।

जहाँ तहाँ— सर्वत्र, जैसे, “जह तहँ मैं देखौं दोउ भाई।” ( राम० )।

जैसे तैसे, ज्यों त्यों करके— किसी न किसी प्रकार से।

उदा०— “जैसे तैसे यह काम पूरा हुआ।” “ज्यों त्यों करके रात काटो।” इसी अर्थ में “कैसा भी करके” और संस्कृत “ग्रेन- केन-प्रकारेण” आते हैं।

अपही, आपही आप, अपने आप, आपसे आप- इनका अर्थ “मन से” वा “अपने ही बल से” होता है। (अं०१२५ओ)।

हेाते होते— क्रम क्रम से; जैसे “यह काम होते हेाते होगा।”

बैठे बैठे— विना परिश्रम कें,जैसे, “लड़का बैठे बैठे खाता है।” खड़े खड़े— तुरंत, जैसे, “यह रुपया खड़े खड़े वसूल हो सकता है।”

काल पाकर— कुछ समय मे; जैसे, “वह काल पाके अशुद्ध हो गया।” (इति०)।

क्यों नहीं— इस वाक्यांश का प्रयोग “हाँ” के अर्थ में होता है, परंतु इससे कुछ तिरस्कार पाया जाता है। उदा०— “क्या तुम वहाँ जाओगे?” “क्यों नहीं।” सच पूछिये तो—यह एक वाक्य ही क्रियाविशेषण के समान आता है। इसका अर्थ है "सचमुच।" उदा॰—"सच पूछिये तो मुझे वह स्थान उदास दिखाई पड़ा।"

[टी॰—पहले कहा जा चुका है कि क्रियाविशेषणों का शास्त्रीय वर्गीकरण करना कठिन है, क्योंकि कई शब्दों (जैसे, ही, तो, केवल, हाँ, नहीं, इत्यादि) के विषय में निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये क्रियाविशेषण ही है। पहले इस बात का भी उल्लेख हो चुका है कि कोई कोई वैयाकरण अव्यय के भेद नहीं मानते, परंतु उन्हें भी कई एक अव्ययों का प्रयोग वा अर्थ अलग अलग बताने की आवश्यकता होती है। क्रियाविशेषणों का यथासाध्य व्यवस्थित विवेचन करने के लिए हमने उनका वर्गीकरण तीन प्रकार से किया है। कुछ क्रियाविशेषण वाक्य में स्वतंत्रतापूर्वक आते हैं और कुछ दूसरे वाक्य वा शब्द की अपेक्षा रखते हैं। इसलिए प्रयोग के अनुसार उनका वर्गीकरण करने की आवश्यकता हुई। प्रयोग के अनुसार जो तीन भेद किये गये हैं उनमें से अनुबद्ध क्रियाविशेषणों के संबंध में यह शंका हो सकती है कि जब इनमें से कुछ शब्द एक बार (यौगिक क्रियाविशेषणों में) प्रत्यय माने गये हैं तब फिर उनको अलग से क्रियाविशेषण मानने का क्या कारण है? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इन शब्दों का प्रयोग दो प्रकार से होता है। एक तो ये शब्द बहुधा संज्ञा के साथ आकर क्रिया वा दूसरे शब्द से उसका संबंध जोड़ते हैं, जैसे, रात भर, क्षण मात्र, नगर तक, इत्यादि, और दूसरे ये क्रिया वा विशेषण अथवा क्रियाविशेषण के साथ आकर उसीकी विशेषता बताते है, जैसे, एक मात्र उपाय, बड़ा ही सुंदर, जाओ तो, आते ही, लड़का चलता तक नहीं, इत्यादि। इस दूसरे प्रयोग के कारण ये शब्द क्रियाविशेषण माने गये हैं। यह दुहरा प्रयोग आगे, पीछे, साथ, ऊपर, पहले, इत्यादि कालवाचक और स्थानवाचक क्रियाविशेषणों में भी पाया जाता है जिसके कारण इनकी गणना सबंध-सूचकों में भी होती है। जैसे, "घर के आगे" "समय के पहले" "पिता के साथ" इत्यादि। कोई कोई इन अव्ययों का एक अलग भेद ("अवधारणबोधक" के नाम से) मानते हैं, और कोई कोई इनको केवल संबंध-सूचकों में गिनते हैं। हिंदी के अधिकांश व्याकरणों में इन शब्दों का व्यवस्थित विवेचन ही नहीं किया गया है। रूप के अनुसार क्रियाविशेषणों का वर्गीकरण करने की आवश्यकता इसलिए है कि हिंदी में यौगिक क्रियाविशेषणों की संख्या अधिक है जो बहुधा संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण वा क्रियाविशेषणो के अंत में विभक्तियों के लगाने से बनते हैं; जैसे, इतने में, सहज में, मन से, रात को, यहाँ पर, जिसमें, इत्यादि। यहाँ अब यह प्रश्न हो सकता है कि घर में, जंगल से, कितने में, पेड़ पर, आदि विभवत्यंत शब्दों को भी क्रियाविशेषण क्यों न कहें? इस का उत्तर यह है कि यदि क्रियाविशेषण में विभक्ति का योग होने से उसके प्रयोग में कुछ अंतर नहीं पड़ता तो उसे क्रियाविशेषण मानने में कोई बाधा नहीं है। उदाहरणार्थ, "यहाँ" क्रियाविशेषण है, और विभक्ति के योग से इसका रूप "यहाँ से" अथवा "यहाँ पर" होता है। ये दोनों विभक्त्यंत क्रियाविशेषण किसी भी क्रिया की विशेषता बताते है, इसलिए इन्हें क्रियाविशेषण ही मानना उचित है। इनमें विभक्ति का योग होने पर भी इनका प्रयोग कर्त्ता या कर्म-कारक में नहीं होता जिसके कारण इनकी गणना संज्ञा वा सर्वनाम में नहीं हो सकती। यौगिक क्रियाविशेषण दूसरे शब्दों में प्रत्यय लगाने से बनते है, जैसे, ध्यानपूर्वक, क्रमशः, नाम मात्र, संक्षेपतः, इसलिए जिन विभक्तियों से इन प्रत्ययों का अर्थ पाया जाता है उन्हीं विभक्तियों के योग से बने हुए शब्दों को क्रियाविशेषण मानना चाहिये, और को नहीं, जैसे ध्यान से, क्रम से, नाम के लिए, संक्षेप में, इत्यादि। फिर कई एक विभक्त्यंत शब्द क्रियाविशेषणों के पर्यायवाचक भी होते है जैसे, निदान-अंत में, क्यों=काहे को, काहे से, कैसे=किस रीति से, सबेरे-भोर को, इत्यादि। इस प्रकार के विभक्त्यंत शब्द भी क्रियाविशेषण माने जा सकते हैं। इन विभक्त्यंत शब्दों को क्रियाविशेषण न कहकर कारक कहने में भी कोई हानि नहीं है। पर "जंगल में" पद को केवल वाक्य-पृथक्करण की दृष्टि से, क्रियाविशेषण के समान, विधेय-वर्द्धक कह सकते हैं; परंतु व्याकरण की दृष्टि से वह क्रियाविशेषण नहीं है, क्योंकि वह किसी मूल क्रियाविशेषण का अर्थ सूचित नहीं करता। विभक्त्यंत वा संबंधसूचकांत शब्दों को कोई कोई वैयाकरण क्रियाविशेषण-वाक्यांश कहते हैं।

हिंदी में कई एक संस्कृत और कुछ उर्दू विभक्त्यंत शब्द भी क्रियाविशेषण के समान प्रयोग में आते हैं, जैसे, सुखेन, कृपया, विशेषतया, हठात्, फौरन, इत्यादि। इन शब्दों को क्रियाविशेषण ही मानना चाहिये, क्योंकि इनकी विभक्तियाँ हिंदी में अपरिचित होने के कारण हिंदी व्याकरण से इन शब्दों की व्युत्पत्ति नहीं हो सकती। हिंदी में जो सामासिक क्रियाविशेषण आते हैं उनके अव्यय होने में कोई संदेह नहीं है, क्योंकि उनके पश्चात् विभक्ति का योग नहीं होता और उनका प्रयोग भी बहुधा क्रियाविशेषण के समान होता है, जैसे, यथाशक्ति, यथासाध्य, निःसंशय, निधड़क, दरहकीकत, धरोंधर, हाथोहाथ, इत्यादि।

क्रियाविशेषणों का तीसरा वर्गीकरण अर्थ के अनुसार किया गया है। क्रिया के संबध से काल और स्थान की सूचना बड़े ही महत्व की होती है। किसी भी घटना का वर्णन काल और स्थान के ज्ञान के बिना अधूरा ही रहता है। फिर जिस प्रकार विशेषणों के दो भेद—गुणवाचक और संख्यावाचक—मानने की आवश्यकता पड़ती है उसी प्रकार क्रिया के विशेषणों के भी ये दो भेद मानना आवश्यक है, क्योंकि व्यवहार में गुण और संख्या का अंतर सदैव माना जाता है। इस तरह अर्थ के अनुसार क्रियाविशेषणों के चार भेद—कालवाचक, स्थानवाचक, परिमाणवाचक और रीतिवाचक माने गये हैं। परिमाणवाचक क्रियाविशेषण बहुधा विशेषण और दूसरे क्रियाविशेषणों की विशेषता बतलाते हैं जिससे क्रियाविशेषण के लक्षण में विशेषण और क्रियाविशेषण की विशेषता का उल्लेख करना आवश्यक समझा जाता है। कालवाचक, स्थानवाचक और परिमाणवाचक शब्दों की संख्या रीतिवाचक क्रियाविशेषणों की अपेक्षा बहुत थोड़ी है, इसलिए उनको छोड़ शेष शब्द बिना अधिक सोच-विचार के पिछले वर्ग में रख दिये जा सकते हैं। इन चारों वर्गों के उपभेद भी अर्थ की सूक्ष्मता बताने के लिये यथास्थान बताये गये हैं।

अंत में "हाँ", "नहीं" और 'क्या" के संबंध में कुछ लिखना आवश्यक जान पड़ता है। इनका प्रयोग प्रश्न के संबंध में किया जाता है। प्रश्न करने के लिए "क्या", स्वीकार के लिए "हाँ" और निषेध के लिए "नहीं" आता है; जैसे, "क्या तुम बाहर चलोगे?" "हाँ" या "नहीं।" इन शब्दों को कोई कोई क्रियाविशेषण और कोई कोई विस्मयादिबोधक अव्यय मानते हैं, परंतु इनमें इन दोनों शब्दभेदों के लक्षण पूरे पूरे घटित नहीं होते। "नहीं" का प्रयोग विधेय के साथ क्रियाविशेषण के समान होता है, और "हाँ" शब्द "सच" "ठीक" और "अवश्य," के पर्याय में आता है, इसलिए इन दोनों (हाँ और नहीं) को हमने क्रियाविशेषणों के वर्ग में रक्खा है। "क्या" संबोधन के अर्थ में आता है, इसलिए इसकी गणना विस्मयादिबोधकों में की गई है।]