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हिंदी व्याकरण/संबंध-सूचक

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हिंदी व्याकरण
कामताप्रसाद गुरु

प्रयाग: इंडियन प्रेस, लिमिटेड, पृष्ठ १७८ से – १९२ तक

 

दूसरा अध्याय।

संबंध-सूचक।

२२९—जो अव्यय संज्ञा (अथवा संज्ञा के समान उपयोग में आनेवाले शब्द) के बहुधा आगे आकर उसका संबंध वाक्य के किसी दूसरे शब्द के साथ मिलाता है उसे संबंधसूचक कहते हैं। जैसे, "धन के बिना किसीका काम नही चलता।" "नौकर गाँव तक गया," "रात भर जागना अच्छा नहीं होता।" इन वाक्यों में 'बिना', 'तक' और 'भर' सबंधसूचक हैं। "बिना" शब्द "धन" संज्ञा का संबंध "चलता" क्रिया से मिलाता है। "तक" "गाँव" का संबंध "गया" से मिलाता है; और "भर" "रात" का संबंध "जागना" क्रियार्थक संज्ञा के साथ जोड़ता है।

[सूचना—विभक्तियों और थोढ़े से अव्ययों को छोड़ हिंदी में मूल संबंध सूचक कोई नहीं है जिससे कोई कोई वैयाकरण (हिंदी में) यह शब्द-भेदही नहीं मानते। "संबंधसूचक" शब्द-भेद के विषय में इस अध्याय के अंत में विचार किया जायगा। यहाँ केवल इतना लिखा जाता है कि जिन अव्ययों को सुभीते के लिए संबंधसूचक मानते हैं उनमें से अधिकाश संज्ञाएँ हैं जो अपनी विभक्तियों का लोप हो जाने से अव्यय के समान प्रयोग में पाती है।]

२३०—कोई कोई कालवाचक और स्थानवाचक अव्यय क्रिया-विशेषण भी होते हैं और संबंधसूचक भी। जब वे स्वतंत्र रूप से क्रिया की विशेषता बताते हैं तब उन्हें क्रियाविशेषण कहते हैं, परंतु जब उनका प्रयोग संज्ञा के साथ होता है तब वे संबंधसूचक कहाते हैं, जैसे—

नौकर यहाँ रहता है। (क्रियाविशेषण)।

नौकर मालिक के यहाँ रहता है। (संबंधसूचक)

वह काम पहले करना चाहिए। (क्रि॰ वि॰)।

यह काम जाने से पहले करना चाहिए। (सं॰ सू॰)। २३१—प्रयोग के अनुसार संबंधसूचक दो प्रकार के होते हैं—(१) संबद्ध (२) अनुबद्ध।

२३२—(क) संबद्ध संबंधसूचक संज्ञाओं की विभक्तियों के आगे आते हैं, जैसे, धन के बिना, नर की नाई, पूजा से पहले, इत्यादि।

[सू॰—संबंधसूचक अव्ययों के पूर्व विभक्तियों के आने का कारण यह जान पहता है कि संस्कृत में भी कुछ अव्यय संज्ञाओं की अलग अलग विभक्तियों के आगे आते हैं, जैसे, दीनं प्रति (दीन के प्रति), यत्नं-यत्नेन-यत्नात् विना (यत्न के बिना), रामेण सह (राम के साथ), वृक्षस्योपरि (वृक्ष के ऊपर), इत्यादि। इन अलग अलग विभक्तियों के बदले हिंदी में बहुधा संबंध-कारक की विभक्तियाँ आती हैं, पर कहीं कहीं करण और अपादान कारकों की विभक्तियां भी आती हैं।]
(ख) अनुबद्ध संबंधसूचक संज्ञा के विकृत रूप (अं॰—३०९) के साथ आते हैं, जैसे, किनारे तक, सखियों सहित, कटोरे भर, पुत्रों समेत, लड़के सरीखा, इत्यादि।
(ग) ने, को, से, का-के-की, में, भी अनुबद्ध संबंधसूचक हैं, परतु नीचे लिखे कारणों से इन्हें संबंधसूचकों में नहीं गिनते—

(अ) इनमें से प्रायः सभी संस्कृत के विभक्ति-प्रत्ययों के अपभ्रंश हैं। इसलिए हिंदी में भी ये प्रत्यय माने जाते हैं।
(आ) ये स्वतंत्र शब्द न होने के कारण अर्थहीन हैं, परतु दूसरे संबंधसूचक बहुधा स्वतंत्र शब्द होने के कारण सार्थक हैं।
(इ) इनको संबंधसूचक मानने से संज्ञाओं की प्रचलित कारक रचना की रीति में हेरफेर करना पड़ेगा जिससे विवेचन में अव्यवस्था उत्पन्न होगी।
२३३—संबद्ध संबंधसूचकों के पहले बहुधा "के" विभक्ति आती है, जैसे, धन के लिए, भूख के मारे, स्वामी के विरुद्ध, उसके पास, इत्यादि।
(अ) नीचे लिखे अव्ययों के पहले (स्त्रीलिंग के कारण) "की" आती है—अपेक्षा, ओर, जगह, नाई, खातिर, तरह तरफ, मारफत, बदौलत, संती, इत्यादि।

[सू॰—जब "और" ("तरफ") के साथ संख्यावाचक विशेषण आता है तब "की" के बदले "के" का प्रयोग होता है, जैसे, "नगर के चारों और (तरफ)" "नाईं," "सरीखा" और "सती" का प्रचार कम है।]

(आ) आकारांत संबंधसूचकों का रूप विशेष्य के लिंग और वचन के अनुसार बदलता है और उनके पहले यथायोग्य का, के, की अथवा विकृत रूप आता है, जैसे, "प्रवाह उन्हें तालाब का जैसा रूप दे देता है।" (सर॰)। "बिजली की सी चमक" "सिंह के से गुण।" (भारत॰)। "हरिश्चंद्र ऐसा पति।" (सत्य॰)। "भोज सरीखे राजा। (इति॰)।

२३४—आगे, पीछे, तले, बिना आदि कई एक संबंधसूचक कभी कभी बिना विभक्ति के आते हैं; जैसे, पाँव तले, पीठ पीछे, कुछ दिन आगे, शकुंतला बिना, (शकु॰)।

(अ) कविता में बहुधा पूर्वोक्त विभक्तियों का लोप होता है, जैसे, "मातु-समीप कहत सकुचाहीं।" (राम॰)। सभा-मध्य, (क॰ क॰)। पिता-पास, (सर॰)। तेज-सम्मुख, (भारत॰)।
(आ) सा, ऐसा और जैसा के पहले जब विभक्ति नहीं आती तब उनके अर्थ में बहुधा अंतर पड़ जाता है, जैसे, "रामचंद्र से पुत्र" और "रामचंद्र के से पुत्र।" पहले वाक्यांश में "से" "रामचंद्र और "पुत्र" का एकार्थ सूचित करता है, पर दूसरे वाक्यांश में उससे दोनों का भिन्नार्थ सूचित होता है।
[सू॰—इन संबंधसूचकों का विशेष विचार इसी अध्याय के अंत में किया जायगा।]

२३५—"परे। और "रहित" के पहले "से" आता है। "पहले," "पीछे," "आगे" और "बाहर" के साथ "से" विकल्प से लाया जाता है। जैसे, समय से (वा समय के) पहले, सेना के (वा सेना से) पीछे, जाति से (वा जाति के) बाहर, इत्यादि।

२३६—"मारे," "बिना" और "सिवा" कभी कभी संज्ञा के पहले आते हैं, जैसे, मारे भूख के, सिवा पत्तों के, बिना हवा के, इत्यादि। "बिना," "अनुसार," और "पीछे" बहुधा भूत-कालिक कृदंत के विकृत रूप के आगे (बिना विभक्ति के) आते हैं, जैसे, "ब्राह्मण का ऋण दिये बिना।" (सत्य॰)। "नीचे लिखे अनुसार"। "रोशनी हुए पीछे।" (परो॰)।

[सू॰—संबंधसूचक को संज्ञा के पहले लिखना उर्दू रचना की रीति है जिसका अनुकरण कोई कोई उर्दू प्रेमी करते हैं, जैसे, यह काम साथ होशियारी के करो। हिंदी में यह रचना कम होती है।]

२३७—"योग्य" (लायक) और "बमूजिब" (अप॰—मूजब) बहुधा क्रियार्थक संज्ञा के विकृत रूप के साथ आते हैं, जैसे, "जो पदार्थ देखने योग्य है।" (शकु॰)। "याद रखने लायक" (सर॰)। "लिखने बमूजिब।" (इति॰)। "कहने मूजब।" (परी॰)।

[सू॰—'इस,' 'उस,' 'जिस' और 'किस' के साथ "लिए" का प्रयोग संज्ञा के समान होता है। जैसे, इसलिए, किसलिए, इत्यादि। ये संयुक्त शब्द बहुधा क्रियाविशेषण वा समुच्चयबोधक के समान आते हैं। ऐसा ही प्रयोग उर्दू "वास्ते" का होता है।]

२३८—अर्थ के अनुमार संबंधसूचकों का वर्गीकरण करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि इससे कोई व्याकरण-संबंधी नियम सिद्ध नहीं होता। यहाँ केवल स्मरण की सहायता के लिये इनका वर्गीकरण दिया जाता है—

कालवाचक।

आगे, पीछे, बाद, पहले, पूर्व, अनंतर, पश्चात्, उपरांत, लगभग।

स्थानवाचक।

आगे, पीछे, ऊपर, नीचे, तले, सामने, रूबरू, पास, निकट, समीप, नज़दीक (नगीच), यहाँ, बीच, बाहर, परे, दूर, भीतर।

दिशावाचक।

ओर, तरफ, पार, पारपार, आसपास, प्रति।

साधनवाचक।

द्वारा, जरिये, हाथ, मारफत, बल, करके, जवानी, सहारे।

हेतुवाचक।

लिए, निमित्त, वास्ते, हेतु, हित (कविता में), खातिर, कारण, सबब, मारे।

विषयवाचक।

वाबत, निस्बत, विषय, नाम (नामक), लेखे, जान, भरोसे, मद्धे।

व्यतिरेकवाचक।

सिवा (सिवाय), अलावा, बिना, बगैर, अतिरिक्त, रहित।

विनिमयवाचक।

पलटे, बदले, जगह, एवज, संती।

सादृश्यवाचक।

समान, सम (कविता में), तरह, भाँति, नाईं, बराबर, तुल्य, योग्य, लायक, सदृश, अनुसार, अनुरूप, अनुकूल, देखा-देखी, सरीखा, सा, ऐसा, जैसा, बमूजिब, (अप॰—मूजब), मुताबिक।

विरोधवाचक।

विरुद्ध, खिलाफ, उलटा, विपरीत।

सहचारवाचक।

संग, साथ, समेत, सहित, पूर्वक, अधीन, स्वाधीन, वश।

संग्रहवाचक।

तक, लौं, पर्यंत, सुद्धा, भर, मात्र।

तुलनावाचक।

अपेक्षा, बनिस्बत, आगे, सामने।

[सू॰—ऊपर की सूची में जिन शब्दों को कालवाचक संबंधसूचक लिखा है वे किसी किसी प्रसंग में स्थानवाचक अथवा दिशावाचक भी होते हैं। इसी प्रकार और भी कई एक संबंधसूचक अर्थ के अनुसार एक से अधिक वर्गों में आ सकते हैं।]

२३९—व्युत्पत्ति के अनुसार संबंधसूचक दो प्रकार के हैं—(१) मूल और (२) यौगिक।

हिदी में मूल संबंधसूचक बहुत कम हैं, जैसे, बिना, पर्यंत, नाईं, पूर्वक, इत्यादि।

यौगिक संबंधसूचक दूसरे शब्द-भेदों से बने हैं, जैसे,

(१) संज्ञा से—पलटे, वास्ते, और, अपेक्षा, नाम, लेखे, विषय, मारफत, इत्यादि।

(२) विशेषण से—तुल्य, समान, उलटा, जबानी, सरीखा, योग्य, जैसा, ऐसा, इत्यादि।

(३) क्रियाविशेषण से—ऊपर, भीतर, यहाँ, बाहर, पास, परे, पीछे, इत्यादि।

(४) क्रिया से—लिये, मारे, करके, जान।

[सू॰—अव्यय के रूप में "लिये" को बहुधा "लिए" लिखते हैं।]

२४०—हिंदी में कई एक संबंधसूचक उर्दू भाषा से और कई एक संस्कृत से आये हैं। इनमें से बहुतसे शब्द हिंदी के संबंधसूचकों के पर्यायवाची हैं। कितने एक संस्कृत संबंधसूचकों का प्रचार हिंदी के गद्य-काल से प्रारंभ हुआ है। तीनों भाषाओं के कई एक पर्यायवाची संबंधसूचकों के उदाहरण नीचे दिये जाते हैं—

हिंदी उर्दू संस्कृत
सामने रूबरू समक्ष, सम्मुख
पास नज़दीक निकट, समीप
मारे सबब, बदौलत कारण
पीछे बाद पश्चात्, अनंतर, उपरांत
तक ता (क्वचित्) पर्यंत
से बनिस्बत अपेक्षा
नाईं तरह भाँति
उलटा खिलाफ़ विरुद्ध, विपरीत
लिए वास्ते, खातिर निमित्त, हेतु
से ज़रिये द्वारा
मद्धे बाबत, निस्बत विषय
x बग़ैर बिना
पलटे बदले, एवज़ x
x सिवा, अलावा अतिरिक्त

२४१—नीचे कुछ संबंधसूचक अव्ययों के अर्थ और प्रयोग लिखे जाते हैं—

आगे, पीछे, भीतर, भर, तक और इनके पर्यायवाची शब्द अर्थ के अनुसार कभी कालवाचक और कभी स्थानवाचक होते हैं; जैसे, घर के आगे, विवाह के आगे, दिन भर, गाँव भर, इत्यादि। (अं॰-२२७)।

आगे, पीछे, पहले, परे, ऊपर, नीचे और इनमें से किसी किसी के पर्यायवाची शब्दों के पूर्व जब "से" विभक्ति आती तब इनसे तुलना का बोध होता है; जैसे, कछुवा खरहे से आगे निकल गया। गाड़ी समय से पहले आई। वह जाति में मुझसे नीचे हैं।

आगे—यह संबंधसूचक नीचे लिखे अर्थों में भी आता है—

(अ) तुलना में—उसके आगे सब स्त्री निरादर हैं। (शकु॰)।
(आ) विचार में—मानियों के आगे प्राण और धन तो कोई वस्तु ही नहीं है। (सत्य॰)।
(ई) विद्यमानता में—काले के आगे चिराग नही जलता। (कहा॰)।

[सूचना—प्रायः इन्हीं अर्थों में "सामने" का प्रयोग होता है। कोई कोई लोग इसे "साम्हने" लिखते हैं।]

पीछे—इससे प्रत्येकता का भी बोध होता है, जैसे, थान पीछे एक रुपया मिला।

ऊपर, नीचे—इनसे पद की छुटाई-बड़ाई भी सूचित होती है, जैसे, सबके ऊपर एक सरदार रहता है और उसके नीचे कई जमादार काम करते हैं।

निकट—इसका प्रयोग विचार के अर्थ में भी होता है, जैसे, उसके निकट भूत और भविष्यत दोनों वर्तमान से हैं। (गुटका॰)।

पास—इससे अधिकार भी सूचित होता है, जैसे, मेरे पास एक घड़ी है।

यहाँ—दिल्लीवाले बहुधा इसे "हाँ" लिखते हैं, जैसे, "तुम्हारे हाँ कुछ रकम जमा की गई है।" (परी॰)। राजा शिवप्रसाद इसे "यहाँ" लिखते हैं; जैसे, "और भी हिंदुओं को अपने यहाँ बुलाता है।" (इति॰)। "परीक्षा-गुरु" में भी कई जगह "यहाँ" भी आया है। यह शब्द यथार्थ में "यहाँ" (क्रियाविशेषण) है, परंतु बोलने में कदाचित् कहीं कहीं "हाँ" हो जाता है। "यहाँ" का अर्थ "पास" के समान अधिकार का भी है। कभी कभी "पास" और "यहाँ" का लोप हो जाता है और केवल "के" से इनका अर्थ सूचित होता है; जैसे, "इस महाजन के बहुत धन है।" "उनके एक लड़का है।" "मेरे कोई बहिन न हुई।" (गुटका॰)।

सिवा—कोई कोई इसे अपभ्रंश-रूप में "सिवाय" लिखते हैं। प्लाट्‌स साहब के "हिंदुस्तानी व्याकरण" में दोनों रूप दिये गये हैं। साधारण अर्थ के सिवा इसका प्रयोग कई एक अपूर्ण उक्तियों की पूर्त्ति के लिए भी होता है; जैसे, "इन भाटों की बनाई हुई वंशावली की कदर इससे बखूबी मालूम हो जाती है। सिवाय इसके जो कभी कोई ग्रंथ लिखा भी गया, (तो) छापे की विद्या मालूम न होने के कारण वह काल पाके अशुद्ध हो गया।" (इति॰)। निषेधवाचक वाक्य में इसका अर्थ "छोड़कर" या "बिना" होता है; जैसे, "उसके सिवाय और कोई भी यहाँ नहीं आया।" (गुटका)।

साथ—यह कभी कभी "सिवा" के अर्थ में आता है; जैसे, इन बातों से सूचित होता है कि कालिदास ईसवी सन् के तीसरे शतक के पहले के नहीं। इसके साथ ही यह भी सूचित होता है कि वे ईसवी सन् के पाँचवे शतक के बाद के भी नहीं।" (रघु॰)।

अनुसार, अनुरूप, अनुकूल—ये शब्द स्वरादि होने के कारण पूर्ववर्ती संस्कृत शब्दों के साथ संधि के नियमों से मिल जाते हैं और इनके पूर्व "के" का लोप हो जाता है जैसे, आज्ञानुसार, इच्छानुरूप, धर्मानुकूल। इस प्रकार के शब्दों को संयुक्त संबंधसूचक मानना चाहिए और इनके पूर्व समास के लिंग के अनुसार संबंध कारक की विभक्ति लगानी चाहिए। जैसे, "सभा के अनुसार" (भाषासार॰)। कोई कोई लेखक स्त्रीलिंग संज्ञा के पूर्व "की लिखते हैं, जैसे, "आपकी आज्ञानुसार यह वर माँगता हूँ।" (सत्य॰)। अनुरूप और अनुकूल प्राय समानार्थी हैं।

सदृश, समान, तुल्य, योग्य—ये शब्द विशेषण हैं और संबंधसूचक के समान आकर भी संज्ञा की विशेषता बतलाते हैं, जैसे, "मुकुट के योग्य सिर पर तृण क्यों रक्खा है।" (सत्य॰)। "यह रेखा उस रेखा के तुल्य है।" "मेरी दशा ऐसे ही वृक्षों के सदृश हो रही है।" (रघु॰)।

सरीखा—इसके लिंग और बचन विशेष्य के अनुसार बदलते हैं और इसके पूर्व बहुधा विभक्ति नहीं आती, जैसे, "मुझ सरीखे लोग।" (सत्य॰)। यह "सदृश" आदि का पर्यायवाची है और पूर्व शब्द के साथ मिलकर विशेषण का काम देता है। (अ॰—१६०)।

ऐसा, जैसा, सा—ये "सरीखा" के पर्यायवाची हैं। आजकल "सरीखा" के बदले "जैसा" का प्रचार बढ़ रहा है। "सरीखा' के समान "जैसा", "ऐसा" और "सा" का रूप विशेष्य के लिंग और वचन के अनुसार बदल जाता है। इनका प्रयोग भी विशेषण और संबंधसूचक, दोनों के समान होता है।

ऐसा—इसका प्रयोग बहुधा सजा के विकृत रूप के साथ होता है। (अं॰—२३२-ख)। 'ऐसा' का प्रचार पहले की अपेक्षा कुछ कम है। भारतेंदुजी के समय की पुस्तकों में इसके उदाहरण मिलते हैं, जैसे, "प्राचार्य जी पागल ऐसे हो गये हैं।" (सरो॰)। "विशेष करके आप ऐसे।" (सत्य॰)। "काश्मीर ऐसे एक-आद इलाके का।" (इति॰)। कोई कोई इसका एक प्रांतिक रूप "कैसा" लिखते हैं, जैसे, "अग्नि कैसी लाल लाल जीभ निकाल।" (प्रणयि॰)।

जैसा—इसका प्रचार आज कल के ग्रथों में अधिकता से होता है। यह विभक्ति-सहित और विभक्ति-रहित दोनों प्रयोगों में आता है; जैसे, "पहले शतक में कालिदास के ग्रंथों की जैसी परिमार्जित संस्कृत का प्रचार ही न था।" (रघु॰)। "बीजगणित जैसे क्लिष्ट विषय को समझाने की चेष्टा की गई है।" (सर॰)। इन दोनों प्रयोगों में यह अंतर है कि पहले वाक्य में "जैसी" "ग्रंथों" और "संस्कृत" का संबंध सूचित नहीं करता, किंतु "की" के पश्चात् लुप्त "संस्कृत" शब्द का संबंध दूसरे "संस्कृत" शब्द से सूचित करता है। दूसरे वाक्य में "बीज-गणित" का संबंध "विषय" के साथ सूचित होता है, इसलिए वहाँ संबंध-कारक की आवश्यकता नहीं है। इसी कारण आगे दिये हुए उदाहरण में भी "के" नहीं आया है—"शिवकुमार शास्त्री जैसे धुरधर महामहोपाध्याय" (शिव॰)।

सा—इस शब्द का कुछ विचार क्रियाविशेषण के अध्याय में किया गया है।(अं॰—२२७)। इसका प्रयोग "जैसा" के समान दो प्रकार से होता है और दोनों प्रयोगों में वैसा ही अर्थ-भेद पाया जाता है। जैसे, "डील पहाड़ सा और बल हाथी का सा है।" (शकु॰)। इस वाक्य में डील को पहाड़ की उपमा दी गई है, इसलिए "सा" के पहले "का" नहीं आया, परंतु दूसरा "सा" अपने पूर्व लुप्त "बल" का संबंध पहले कहे हुए "बल" से मिलता है, इसलिए इस "सा" के पहले "का" लाने की आवश्यकता हुई है। "हाथी सा बल" कहना असंगत होता। मुद्राराक्षस में "मेरे से लोग" आया है; परंतु इसमें समता कहनेवाले से की गई है न कि उसकी संबंधिनी किसी वस्तु से, इसलिए शुद्ध प्रयोग "मुझसे लोग" होना चाहिये। कोई कोई इसे केवल प्रत्यय मानते हैं, परंतु प्रत्यय का प्रयोग विभक्ति के पश्चात् नहीं होता। जब यह संज्ञा या सर्वनाम के साथ विभक्ति के बिना आता है तब इसे प्रत्यय कह सकते हैं और सात शब्द का विशेषण मान सकते हैं, जैसे, फुलसा शरीर, चमेली से अंग पर, इत्यादि ।

भर, तक,मात्र--इनका भी विचार क्रियाविशेपण के अध्याय में हो चुका है । जब इनका प्रयाग संबंधसूचक के समान होती है। तब ये बहुधा कालवाचक, स्थानवाचक वा परिमाणवाचक शब्दों के साथ आकर उनका सवध क्रिया से वो दूसरे शब्दों से मिलाते हैं और इनके परे कारक की विभक्ति नहीं आती, जैसे, “वह रातभर जागता है। "लड़का नगर तक गया ।" इसमें तिल मात्र सदेह नहीं है । तक) के अर्थ में कभी कभी सस्कृत का ‘‘पर्यत' शब्द आता है, जैसे, “उसने समुद्र पर्यंत राज्य बढाया ।भर और तक के योग से सज्ञा का विकृत रूप आता है, परमात्र के साथ उसका मूल रूप ही प्रयुक्त हेाता है, जैसे, चैमासेभर।( इति० ) । “ समुद्र के तटों तक। ( रघु० ) एक पुस्तक कानाम "कटोरा-भर खून"है,। पर “कटोरी-भर” शब्द अशुद्ध है। यह "कटोरे-भर" होना चाहिए । "मात्र" शब्द का प्रयोग केवल कुछ संस्कृत शब्दो के साथ (सवधसूचक के समान ) होता है, जैसे, क्षण-मात्र यहाँ ठहरो,” पल-मात्र, लेश-मात्र, इत्यादि । “भर और मात्र बहुधा बहुबचन संज्ञा के साथ नहीं आते । जब तक? भर’ और ‘मात्र का प्रयोग क्रियाविशेषणके समान होता है तब इनके पश्चात् विभक्तियाँ आती हैं, जैसे, उसके राज भर मैं ।"(गुटको॰)। ‘छोटे वडे लाटों तक के नाम प चिट्टियाँ भेजते हैं।” (शिव०) । “अब हिदुओ के खाने मात्र से काम।"(भा० दु० )।

विना-यह कभी कभी कृदत अव्यय के साथ आकर क्रिया- विशेषण होता है, जैसे, “विना किसी कार्य का कारण जाने हुए।" ( सर०) । “विना अतिम परिणाम साचे हुए ।" ( इति० ) । कभी कभी यह संबंध-कारक की विशेषता बताता है, जैसे, "आपके नियोग की खबर इस देश में विना मेघ की वर्षा की भांति अचानक अ गिरी।"( शिव० )। इन प्रयेागों में बिना बहुधा संबंधी शब्द के पहले आता है।

उलटा-यह शब्द यथार्थ में विशेषण है; पर कभी कभी इसका प्रयोग "का" विभक्ति के आगे संबंधसूचक के समान होता है, जैसे, "टापू का उलटा झील है।" विरोध के अर्थ में बहुधा "विरुद्ध," "खिलाफ," आदि आते है।

कर, करके-यह संबंधसूचक बहुधा "द्वारा," "समान" वा "नामक" के अर्थ में आता है; जैसे, "मन, वचन, कर्म करके यति किसी जीव की हिंसा न करे।" "अग जग नाथ मनुज करि जाना।" (राम०)। "संसार के स्वामी, (भगवान्) का मनुष्य करके जाना।" (पीयूष०)। "तुम हरि को पुत्र कर मत मानो।" (ग्रेस०)। "पंडितजी शास्त्री करके प्रसिद्ध हैं।" "बछरा करि हम जान्या थाही।" (ब्रज०)।

अपेक्षा, बनिस्बल-पहला शब्द संस्कृत संज्ञा है और दूसरा शब्द उर्दू संज्ञा "निस्बत" मे "ब"। उपसर्ग लगाने से बना है। एक के पूर्व की और दूसरे के पूर्व "के" आता है। इनका प्रयोग तुलना में होता है और दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। जिस वस्तु की हीनता बतानी है। उसके वाचक शब्द के आगे अपेक्षा या "बनिस्बत" लगाते हैं; जैसे, "उनकी अपेक्षा और प्रकार के मनुष्य कम हैं।" ( जीविका० )। "आर्यों के बनिस्बत ऐसी ऐसी असभ्य जाति के लोग रहते थे।" ( इति० ) । परीक्षा गुरु मे "बनिस्बत" के बदले "निस्बत" आया है, जैसे, "उसकी निस्वत उदारता की ज्यादा कदर करते हैं।" यथार्थ में "निस्बत" "विषय" के अर्थ में आता है; जैसे "चंदे की निस्बत आप की क्या राय है।" कभी कभी "अपेक्षा" का भी अर्थ "निस्बत" के समान "विषय" होता है, जैसे, "सब धंधेवालों की अपेक्षा ऐसा ही ख्याल करना चाहिए।" (जीविका०)।

लौं—कोई कोई इसे "तक" के अर्थ में गद्य में भी लिखते हैं, परंतु यह शिष्ट प्रयोग नही है। पुरानी कविता में "लौं" "समान" के अर्थ में भी आया है, जैसे, "जानत कछु जल-थभ-विधि दुर्योधन लौं लाल। (सत॰)।

[टी॰—पहले कहा गया है कि हिंदी के अधिकांश वैयाकरण अव्ययों के भेद नहीं मानते। अव्यय के और और भेद तो उनके अर्थ और प्रयेाग के कारण बहुत करके निश्चित हैं चाहे कोई उनको माने या न माने, परंतु संबंधसूचक को एक अलग शब्द-भेद मानने में कई बाधाएँ हैं। हिंदी में कई एक संज्ञा, विशेषण और क्रियाविशेषणों को केवल संबंधकारक अथवा कभी कभी दूसरे कारक की विभक्ति के पश्चात् आने ही के कारण संबंधसूचक मानते हैं, परंतु इनका एक अलग वर्ग न मानकर एक विशेष प्रयेाग मानने से भी काम चल सकता है, जैसा कि संस्कृत में उपरि, विना, पृथक, पुरः, अग्रे, आदि अव्ययों के संबध में होता है, जैसे, "गृहस्योपरि," "रामेण विना।" दूसरी कठिनाई यह है कि जिस अर्थ में काई केाई संबंधसूचक आते हैं उसी अर्थ में कारक-प्रत्यय अर्थात् विभक्तियाँ भी आती है, जैसे, घर में, घर के भीतर, तलवार से, तलवार के द्वारा, पेड पर, पेड़ के ऊपर। तब इन विभक्तियों के भी संबंधसूचक क्यों न मानें? इनके सिवा एक और अडचन यह है कि कई एक शब्दों—जैसे, तक, भर, सुद्धा, रहित, पूर्वक, मात्र, सा, आदि—के विषय में निश्चयपूर्वक यह नहीं कहा जा सकता कि ये प्रत्यय है अथवा संबंधसूचक। हिंदी की वर्तमान लिखावट पर से इसका निर्णय करना और भी कठिन है। उदाहरणार्थ, कोई "तक" के पूर्व शब्द से मिलाकर और कई अलग लिखते है। ऐसी अवस्था में संबंधसूचक का निर्दोष लक्षण बनाना सहज नहीं है।

संबंधसूचक के पश्चात् विभक्ति का लोप हो जाता है और विभक्ति के पश्चात् कोई दूसरा प्रत्यय नहीं आता, इसलिए जो शब्द विभक्ति के पश्चात् आते हैं उनको प्रत्यय नहीं कह सकते और जिन शब्दों के पश्चात् विभक्ति आती है वे संबंधसूचक नहीं कहे जा सकते। उदाहरणार्थ, "हाथी का सा बल" में "सा" प्रत्यय नहीं, किंतु संबधसूचक है, और "संसार भर के ग्रंथ-गिरि" में "भर" सबंधसूचक नहीं किंतु प्रत्यय अथवा क्रियाविशेषण है। इस दृष्टि से केवल उन्हीं शब्दों के संबधसूचक माननी चाहिए जिनके पश्चात् कभी विभक्ति नहीं आती और जिनका प्रयेाग संज्ञा के बिना कभी नही हो सकता। इस प्रकार के शब्द केवल "नाई," "प्रति," "पर्यत," "पूर्वक," "सहित" और "रहित" है। इनमें से अंत के पाँच शब्दों के पूर्व कभी कभी (संबंध) कारक की विभक्ति नहीं आती। उस समय इन्हें प्रत्यय कह सकते है। तब केवल एक "नाई" शब्द ही सबंधसूचक कहा जा सकता है, पर वह भी प्रायः अप्रचलित है। फिर तक, भर, मात्र और सुद्धां के पश्चात् कभी कभी विभक्तिया आती हैं; इसलिए और और शब्द-भेदों के समान ये केवल स्थानीय रूप से संबधसूचक हो सकते हैं। ये शब्द कभी संबधसूचक, कभी प्रत्यय और कभी दूसरे शब्द-भेद भी होते है। (इनके भिन्न भिन्न प्रयेागो का उल्लेख क्रियाविशेषण के अध्याय में तथा इसी अध्याय में किया जा चुका है।) इससे जाना जाता है कि हिंदी में मूल-संबंधसूचकों की संख्या नहीं के बराबर है, परंतु भिन्न भिन्न शब्दों के प्रयेाग संबंधसूचक के समान होते है, इसलिए इसको एक अलग शब्द-भेद मानने की आवश्यकता है। भाषा में बहुधा कोई भी शब्द आवश्यकता के अनुसार संबंधसूचक बना लिया जाता है और जब वह अप्रचलित हो जाता है तब उसके बदले दूसरे शब्द उपयेाग में आने लगता है। हिंदी के "अतिरिक्त," "अपेक्षा," "विपय," "विरुद्ध" अदि संबंधसूचक पुरानी पुस्तकों मे नहीं मिलते चैरि पुरानी पुस्तकों के "तई," "छुट," "संती," "लौं," आदि आजकल अप्रचलित है।]

[सू०—संबधसूचको और विभक्तियों का विशेष असर कारक-प्रकरण में बताया जायेगा।]