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हिंदी साहित्य का इतिहास/भक्तिकाल/प्रकरण ३ निर्गुण धारा/प्रेममार्गी (सूफी) शाखा

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प्रकरण ३
प्रेममार्गी (सूफी) शाखा

जैसा कि पहले कहा जा चुका है, इस काल के निर्गुणोपासक भक्तों की दूसरी शाखा उन सूफी कवियों की है जिन्होंने प्रेमगाथाओं के रूप में उस प्रेमतत्त्व का वर्णन किया है जो ईश्वर को मिलानेवाला है तथा जिसका आभास लौकिक प्रेम के रूप में मिलता है। इस संप्रदाय के साधु कवियों का अब वर्णन किया जाता है––

कुतबन––ये चिश्ती वंश के शेख बुरहान के शिष्य थे और जौनपुर के बादशाह हुसैनशाह के आश्रित थे। अतः इनका समय विक्रम की सोलहवीं शताब्दी का मध्यभाग (संवत् १५५०) था। इन्होंने 'मृगावती' नाम की एक कहानी चौपाई-दोहे के क्रम से सन् ९०९ हिजरी (संवत् १५५८) में लिखी जिसमें चंद्रनगर के राजा गणपतिदेव के राजकुमार और कंचनपुर के राजा रूपमुरारि की कन्या मृगावती की प्रेमकथा का वर्णन है। इस कहानी के द्वारा कवि ने प्रेम मार्ग के त्याग और कष्ट का निरूपण करके साधक के भगवत्प्रेम का स्वरूप दिखाया है। बीच बीच में सूफियों की शैली पर बड़े सुंदर रहस्यमय आध्यात्मिक आभास हैं।

कहानी का सारांश यह है––चंद्रगिरि के राजा गणपतिदेव का पुत्र कंचननगर के राजा रूपमुरारि की मृगावती नाम की राजकुमारी पर मोहित हुआ। यह राजकुमारी उड़ने की विद्या जानती थी। अनेक कष्ट झेलने के उपरांत राजकुमार उसके पास तक पहुँचा। पर एक दिन मृगावती राजकुमार को धोखा देकर कही उड़ गई। राजकुमार उसकी खोज में योगी होकर निकल पड़ा। समुद्र से घिरी एक पहाड़ी पर पहुँचकर उसने रुक्मिनी नाम की एक सुंदरी को एक राक्षस से बचाया। उस सुंदरी के पिता ने राजकुमार के साथ उसका विवाह कर दिया। अंत में राजकुमार उस नगर में पहुँचा जहाँ अपने पिता की मृत्यु पर राजसिंहासन पर बैठकर मृगावती राज्य कर रही थी। वहाँ वह १२ वर्ष रहा। पता लगने पर राजकुमार के पिता ने घर बुलाने के लिये दूत भेजा। राजकुमार पिता का सँदेसा पाकर मृगावती के साथ चल पड़ा और उसने मार्ग में रुक्मिनी को भी ले लिया। राजकुमार बहुत दिनों तक आनंदपूर्वक रहा पर अंत में आखेट के समय हाथी से गिरकर मर गया, उसकी दोनों रानियाँ प्रिय के मिलने की उत्कंठा में बड़े आनंद के साथ सती हो गई––

रुकमिनि पुनि वैसहि मर गई। कुलवंती सत सों सति भई॥
बाहर वह भीतर वह होई। घर बाहर को रहै न जोई॥
विधि कर चरित न जानै आनू। जो सिरजा सो जाहि निआनू॥

मंझन––इनके सबंध में कुछ भी ज्ञात नहीं है। केवल इनकी रची मधुमालती की एक खंडित प्रति मिली है जिससे इनकी कोमल कल्पना और स्निग्ध सहृदयता का पता लगता है। मृगावती के समान मधुमालती में भी पाँच चौपाइयों (अर्ध्दालियों) के उपरांत एक दोहे का क्रम रखा गया है। पर मृगावती की अपेक्षा इसकी कल्पना भी विशद है और वर्णन भी अधिक विस्तृत और हृदयग्राही है। अध्यात्मिक प्रेमभाव की व्यंजना के लिये प्रकृति के भी अधिक दृश्यों का समावेश मंझन ने किया है। कहानी भी कुछ अधिक जटिल और लंबी है जो अत्यंत संक्षेप में नीचे दी जाती है।

कनेसर नगर के राजा सूरजभान के पुत्र मनोहर नामक एक सोए हुए राजकुमार को अप्सराएँ रातो-रात महारस नगर-की राजकुमारी मधुमालती की चित्रसारी में रख आईं। वहाँ जागने पर दोनों का साक्षात्कार हुआ और दोनों एक दूसरे पर मोहित हो गए। पूछने पर मनोहर ने अपना परिचय दिया और कहा––"मेरा अनुराग तुम्हारे उपर कई जन्मो का है इससे जिस दिन मैं इस संसार में आया उसी दिन से तुम्हारा प्रेम मेरे हृदय में उत्पन्न हुआ।" बातचीत करते करते दोनों एक साथ सो गए और अप्सराएँ राजकुमार को उठाकर फिर उसके घर पर रख आईं। दोनों जब अपने अपने स्थान पर जगे तब प्रेम में बहुत व्याकुल हुए। राजकुमार वियोग से विकल होकर घर से निकल पड़ा और उसने समुद्र के मार्ग से यात्रा की। मार्ग में तूफान आया जिसमे इष्ट-मित्र इधर उधर बह गए। राजकुमार एक पटरे पर बहता हुआ एक जंगल में जा लगा, जहाँ एक स्थान पर एक सुंदरी स्त्री पलंग पर लेटी दिखाई पड़ी। पूछने पर जान

जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है, निर्गुणमार्गी संत कवियों की परंपरा में थोड़े ही ऐसे हुए हैं जिनकी रचना साहित्य के अंतर्गत आ सकती है। शिक्षितों का समावेश कम होने से इनकी बानी अधिकतर सांप्रदायिकों के ही काम की है; उसमें मानव जीवन की भावनाओं की वह विस्तृत व्यंजना नहीं है जो साधारण जन समाज को आकर्षित कर सके। इस प्रकार के संतों की परंपरा यद्यपि बराबर चलती रही और नए नए पंथ निकलते रहे पर देश के सामान्य साहित्य पर उनका कोई प्रभाव न रहा। दादूदयाल की शिष्य-परंपरा में जगजीवनदास या जगजीवन साहब हुए जो संवत् १८१८ के लगभग वर्तमान थे। ये चंदेल ठाकुर थे और कोटवा (बाराबंकी) के निवासी थे। इन्होने अपना एक अलग 'सत्यनामी' संप्रदाय चलाया। इनकी बानी में साधारण ज्ञान-चर्चा है। इनके शिष्य दूलमदास हुए जिन्होंने एक शब्दावली लिखी। उनके शिष्य तोवरदास और पहलवानदास हुए। तुलसी साहब, गोविंद साहब, भीखा साहब, पलटू साहब आदि अनेक संत हुए है। प्रयाग के बेलवेडियर प्रेस ने इस प्रकार के बहुत से संतों की बानियाँ प्रकाशित की हैं।

निर्गुण-पंथ के संतों के संबंध में यह अच्छी तरह समझ रखना चाहिए कि उनमें कोई दार्शनिक व्यवस्था दिखाने का प्रयत्न व्यर्थ है। उनपर द्वैत, अद्वैत, विशिष्टाद्वैत आदि का आरोप करके वर्गीकरण करना दार्शनिक पद्धति की अनभिज्ञता प्रकट करेगा। उनमें जो थोड़ा बहुत भेद दिखाई पड़ेगा वह उन अवयवों की न्यूनता या अधिकता के कारण जिनका मेल करके निर्गुण-पंथ चला है। जैसे, किसी में वेदांत के ज्ञान-तत्त्व का अवयव अधिक मिलेगा, किसी में योगियों के साधना-तत्त्व का, किसी में सूफियों के मधुर प्रेम-तत्त्व का और किसी में व्यावहारिक ईश्वरभक्ति (कर्त्ता, पिता, प्रभु की भावना से युक्त) का। यह दिखाया जा चुका है कि निर्गुण-पंथ में जो थोड़ा बहुत ज्ञानपक्ष है वह वेदांत से लिया हुआ है; जो प्रेम-तत्व है वह सूफियों का है, न कि वैष्णवों का[]। 'अहिंसा' और ‘प्रपत्ति' के अतिरिक्त वैष्णवत्व का और कोई अंश उसमें नहीं है। उसके 'सुरति' और 'निरति' शब्द बौद्ध सिद्धों के हैं। बौद्धधर्म के अष्टांगमार्ग के अंतिम मार्ग हैं––सम्यक् स्मृति और सम्यक् समाधि। 'सम्यक् स्मृति' वह दशा है जिसमें क्षण क्षण पर मिटने वाला ज्ञान स्थिर हो जाता है और उसकी शृंखला बँध जाती है। 'समाधि' में साधक सब संवेदनों से परे हो जाता है। अतः 'सुरति', 'निरति' शब्द योगियों की बानियों से आए है, वैष्णवों से उनका कोई संबंध नहीं।

 

पड़ा कि वह चितबिसरामपुर के राजा चित्रसेन की कुमारी प्रेमा थी जिसे एक राक्षस उठा लाया था। मनोहर कुमार ने उस राक्षस को मारकर प्रेमा का उद्धार किया। प्रेमा ने मधुमालती का पता बताकर कहा कि मेरी यह सखी है, मैं उसे तुझसे मिला दूँगी। मनोहर को लिए हुए प्रेमा अपने पिता के नगर में आई। मनोहर के उपकार को सुनकर प्रेमा का पिता उसका विवाह मनोहर के साथ करना चाहता है। पर प्रेमा यह कहकर अस्वीकार करती है कि मनोहर मेरा भाई है और मैंने उसे उसकी प्रेमपात्री मधुमालती से मिलाने का वचन दिया है।

दूसरे दिन मधुमालती अपनी माता रूपमंजरी के साथ प्रेमा के घर आई और प्रेमा ने उसके साथ मनोहर कुमार का मिलाप करा दिया। सबेरे रूपमंजरी ने चित्रसारी में जाकर मधुमालती को मनोहर के साथ पाया। जगने पर मनोहर ने तो अपने को दूसरे स्थान में पाया और रूपमंजरी अपनी कन्या को भला बुरा कहकर मनोहर का प्रेम छोड़ने को कहने लगी। जब उसने न माना तब माता ने शाप दिया कि तू पक्षी हो जा। जब वह पक्षी होकर उड़ गई तब माता बहुत पछताने और विलाप करने लगी, पर मधुमालती का कहीं पता न लगा। मधुमालती उड़ती उड़ती बहुत दूर निकल गई। कुवँर ताराचंद नाम के एक राजकुमार ने उस पक्षी की सुंदरता देख उसे पकड़ना चाहा। मधुमालती को ताराचंद का रूप मनोहर से कुछ मिलता जुलता दिखाई दिया इससे वह कुछ रुक गई और पकड़ ली गई। ताराचंद ने उसे एक सोने के पिंजरे में रखा। एक दिन पक्षी मधुमालती ने प्रेम की सारी कहानी ताराचंद से कह सुनाई जिसे सुनकर उसने प्रतिज्ञा की कि मैं तुझे तेरे प्रियतम मनोहर से अवश्य मिलाऊँगा। अंत में वह उस पिंजरे को लेकर महारस नगर में पहुँचा। मधुमालती की माता अपनी पुत्री को पाकर बहुत प्रसन्न हुई और उसने मंत्र पढ़कर उसके ऊपर जल छिड़का। वह फिर पक्षी से मनुष्य हो गई। मधुमालती के माता पिता ने ताराचंद के साथ मधुमालती का ब्याह करने का विचार प्रकट किया। पर ताराचंद ने कहा कि "मधुमालती मेरी बहिन है और मैंने उससे प्रतिज्ञा की है। कि मैं जैसे होगा वैसे मनोहर से मिलाऊँगा।" मधुमालती की माता सारा हाल लिखकर प्रेमा के पास भेजती है। मधुमालती भी उसे अपने चित्त की दशा लिखती है। वह दोनो पत्रों को लिए हुए दुःख कर रही थी कि इतने में उसकी एक सखी आकर संवाद देती है कि राजकुमार मनोहर योगी के वेश में आ पहुँचा। मधुमालती का पिता अपनी रानी सहित दल बल के साथ राजा चित्रसेन (प्रेमा के पिता) के नगर में जाता है और वहाँ मधुमालती और मनोहर का विवाह हो जाता है। मनोहर, मधुमालती और ताराचंद तीनों बहुत दिनों तक प्रेमा के यहाँ अतिथि रहते है। एक दिन आखेट से लौटने पर ताराचंद, प्रेमा और मधुमालती को एक साथ झूला झूलते देख प्रेमा पर मोहित होकर मूर्च्छित हो जाता है। मधुमालती और उसकी सखियाँ उपचार में लग जाती है।

इसके आगे प्रति खंडित है। पर कथा के झुकाव, से अनुमान होता है कि प्रेम और ताराचंद का भी विवाह हो गया होगा।

कवि ने नायक और नायिका के अतिरिक्त उपनायक और उपनायिका की भी योजना करके कथा को तो विस्तृत किया ही है, साथ ही प्रेमा और ताराचंद के चरित्र द्वारा सच्ची सहानुभूति, अपूर्व संयम और निःस्वार्थ भाव का चित्र दिखाया है। जन्म-जन्मातर और योन्यतर, के बीच प्रेम की अखंडता दिखाकर मंझन ने प्रेमतत्त्व की व्यापकता और नित्यता का आभास दिया है। सूफियों के अनुसार यह सारा जगत् एक ऐसे रहस्यमय प्रेम-सूत्र में बँधा है जिसका अवलंबन करके जीव उस प्रेममूर्ति तक पहुँचने का मार्ग पा सकता है। सूफी सब रूपों में उसकी छिपी ज्योति देखकर मुग्ध होते है, जैसा कि मंझन कहते हैं––

देखत ही पहिचानेउ तोहीं। एक रूप जेहि छँदरयो मोही॥
एही रूप बुत अहै छपाना। एही रुप सब सृष्टि समाना॥
एही रूप सकती औ सीऊ। एही रूप त्रिभुवन कर जीऊ॥
एही, रूप प्रकटे बड़े भेसा। एही रूप जग रंक नरेसा॥

ईश्वर का विरह सूफियों के यहाँ भक्त की प्रधान संपत्ति है जिसके बिना साधना के मार्ग में कोई प्रवृत्त नहीं हो सकता, किसी की आँखें नहीं खुल सकती––

बिरह-अवधि अवगाह अपारा। कोटि माहिं एक परै त पारा॥
बिरह कि जगत अँबिरथा जाही? विरह रूप यह सृष्टि सबाही॥

नैन बिरह-अंजन जिन सारा। बिरह रूप दरपन संसारा॥
कोटि माहिं बिरला जग कोई। जाहि सरीर बिरह-दुख होई॥

रतन कि सागर सागरहि? गजमोती गज कोइ।
चँदन कि बन बन उपजै, बिरह कि तन तन होइ?

जिसके हृदय में यह विरह होता है उसके लिये यह संसार स्वच्छ दर्पण हो जाता है और इसमें परमात्मा के आभास अनेक रूपों में पड़ते हैं। तब वह देखता है कि इस सृष्टि के सारे रूप, सारे व्यापार उसी का विरह प्रगट कर रहे है। ये भाव प्रेममार्गी सूफी संप्रदाय के सब कवियों में पाए जाते है। मंझन की रचना का यद्यपि ठीक ठीक संवत् नहीं ज्ञात हो सका है पर यह निस्संदेह है कि इसकी रचना विक्रम संवत् १५५० और १५९५ (पदमावत का रचना-काल) के बीच में और बहुत संभव है कि मृगावती के कुछ पीछे हुई। इस शैली के सबसे प्रसिद्ध और लोकप्रिय ग्रंथ 'पदमावत' में जायसी ने अपने पूर्व के बने हुए इस प्रकार के काव्यों का संक्षेप में उल्लेख किया है––

विक्रम धँसा प्रेम के बारा। सपनावति कहँ गयउ पतारा॥
मधूपाछ मुगधावति लागी। गगनपूर होइगा बैरागी॥
राजकुँवर कंचनपुर गयऊ। मिरगावति कहँ जोगी भयऊ॥
साधे कुँवर खँडावत जोगू। मधुमालति कर कीन्ह बियोगू॥
प्रेमावति कह सुरबर साधा। उषा लागि अनिरुध बर-बाँधा॥

इन पद्यो में जायसी के पहले के इन चार काव्यों का उल्लेख है––मुग्धावती, मृगावती, मधुमालती और प्रेमावती। इनमें से मृगावती और मधुमालती का पता चल गया है, शेष दो अभी नहीं मिले है। जिस क्रम से ये नाम आए है वह यदि रचना काल के क्रम के अनुसार माना जाय तो मधुमालती की रचना कुतुबन की मृगावती के पीछे की ठहरती है‌‌।

जायसी का जो उद्धरण दिया गया है उसमें मधुमालती के साथ 'मनोहर' का नाम नहीं है, 'खडावत' नाम है। 'पदमावत' की हस्तलिखित प्रतियाँ प्राय फारसी अक्षरों में ही मिलती है। मैंने चार ऐसी प्रतियाँ देखी हैं जिन सब में नायक का ऐसा नाम लिखा है, जिसे 'खडावत, कुंदावत, कंडावत, गधावत' इत्यादि ही पढ़ सकते हैं। केवल एक हस्तलिखित प्रति हिंदू- विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में ऐसी है जिसमे साफ 'मनोहर' पाठ है। उसमान की 'चित्रावली' में मधुमालती का जो उल्लेख है उसमें भी कुँवर का नाम 'मनोहर' ही है––

मधुमालति होइ रूप देखावा। प्रेम मनोहर होइ तहँ आवा॥

यही नाम 'मधुमालती' की उपलब्ध प्रतियों में भी पाया जाता है।

'पद्मावत' के पहले 'मधुमालती' की बहुत अधिक प्रसिद्धि थी। जैन कवि बनारसीदास ने अपने आत्मचरित में संवत् १६६० के आसपास की अपनी इश्कबाजी वाली जीवनचर्या का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस समय मैं हाट-बाजार में जाना छोड़, घर में पड़े-पडे 'मृगावती' और 'मधुमालती' नाम की पोथियाँ पढ़ा करता था––

तब घर में बैठे रहै, नाहिंन हाट-बजार। मधुमालती, मृगावती, पोथी दोय उचार॥

इसके उपरांत दक्षिण के शायर नसरती ने भी (संवत् १७००) 'मधुमालती' के आधार पर दक्खिनी उर्दू में 'गुलशने-इश्क' के नाम से एक प्रेम-कहानी लिखी।

कवित्त-सवैया बनानेवाले एक 'मंझन' पीछे हुए हैं जिन्हें इनसे सर्वथा पृथक् समझना चाहिए।


मलिक मुहम्मद जायसी––ये प्रसिद्ध सूफी फकीर शेख मोहिदी (मुहीउद्दीन) के शिष्य थे और जायस में रहते थे। इनकी एक छोटी सी पुस्तक 'आखिरी कलाम' के नाम से फारसी अक्षरों में छपी मिली है। यह सन् ९३६ हिजरी में (सन् १५२८ ईसवी के लगभग) बाबर के समय में लिखी गई थी। इसमें बाबर बादशाह की प्रशंसा है। इस पुस्तक में मलिक मुहम्मद जायसी ने अपने जन्म के संबंध में लिखा है––

भा अवतार मोर नौ सदी। तीस बरस ऊपर कबि बदी॥

इन पक्तियों का ठीक तात्पर्य नहीं खुलता। जन्मकाल ९०० हिजरी मानें तो दूसरी पंक्ति का अर्थ यही निकलेगा कि जन्म से ३० वर्ष पीछे जायसी कविता करने लगे और इस पुस्तक के कुछ पद्य उन्होंने बनाए। जायसी का सबसे प्रसिद्ध ग्रंथ है 'पदमावत', जिसका निर्माण-काल कवि ने इस प्रकार दिया है––

सन नव सै सत्ताइस अहा। कथा अरंभ-बैन कवि कहा॥

इसका अर्थ होता है कि पदमावत की कथा के प्रारंभिक वचन (आरंभ बैन) कवि ने ९२७ हिजरी (सन् १५२० ई॰ के लगभग) में कहे थे। पर ग्रंथारंभ में कवि ने मसनवी की रूढि के अनुसार 'शाहेवक्त' शेरशाह की प्रशंसा की है––

शेरशाह दिल्ली सुलतानू। चारहु खंड तपै जस भानू॥
ओही छाज राज औ पाटू। सब राजै भुइँ धरा ललाटू॥

शेरशाह के शासन का आरंभ ९४७ हिज़री अर्थात् सन् १५४० ई॰ से हुआ था। इस दशा में यही संभव जान पड़ता है कि कवि ने कुछ थोड़े से पद्य तो सन् १५२० ई॰ में ही बनाए थे, पर ग्रंथ को १९ या २० वर्ष पीछे शेरशाह के समय में पूरा किया। 'पद्मावत' का एक बँगला अनुवाद अराकान राज्य के वजीर मगन ठाकुर ने सन् १६५० ई॰ के आसपास आलो-उजालो नामक एक कवि से कराया था। उसमें भी 'नव सै सत्ताइस' ही पाठ माना गया है––

शेख मुहम्मद जनि जखन रचिल ग्रंथ संख्या सप्तविंश नवशत

पदमावत की हस्तलिखित प्रतियाँ अधिकतर फारसी अक्षरो में मिली हैं जिनमें 'सत्ताइस' और 'सैंतालिस' प्रायः एक ही तरह लिखे जायँगे। इससे कुछ लोगों का यह भी अनुमान है कि 'सैंतालिस’ को लोगों ने भूल से सत्ताइस पढ़ लिया है।

जायसी अपने समय के सिद्ध फकीरों में गिने जाते थे। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था। जीवन के अंतिम दिनों में जायसी अमेठी-से दो मील दूर एक जंगल में रहा करते थे। वहीं इनकी मृत्यु हुई। काजी नसरुद्दीन हुसैन जायसी ने, जिन्हें अवध के नवाब शुजाउद्दौला से सनद मिली थी, अपनी याददाश्त में जायसी का मृत्युकाल ४ रजब ९४९ हिजरी लिखा है। वह काल कहाँ तक ठीक है, नहीं कहा जा सकता। ये काने और देखने में कुरूप थे। कहते हैं शेरशाह इनके रूप को देखकर हँसा था। इस पर वे बोले "मोहिका हँसेसि कि कोहरहि?" इनके समय में ही इनके शिष्य फकीर इनके बनाए भावपूर्ण दोहे चौपाइयाँ गाते फिरते थे। इन्होंने तीन पुस्तकें लिखीं––एक तो प्रसिद्ध 'पद्मावत', दूसरी 'अखरावट' तीसरी 'आखिरी कलाम'। 'अखरावट' में वर्णमाला के एक एक अक्षर को लेकर सिद्धांत संबंधी तत्वों से भरी चौपाइयाँ कही गई हैं। इस छोटी सी पुस्तक में ईश्वर, सृष्टि, जीव, ईश्वरप्रेम आदि विषयों पर विचार प्रकट किए गए हैं। 'आखिरी कलाम' में कयामत का वर्णन है। जायसी की अक्षय कीर्ति का आधार है 'पदमावत', जिसके पढ़ने से यह प्रकट हो जाता है कि जायसी का हृदय कैसा कोमल और "प्रेम की पीर" से भरा हुआ था। क्या लोकपक्ष में, क्या अध्यात्मपक्ष में, दोनों ओर उसकी गूढता, गंभीरता और सरसता विलक्षण दिखाई देती है।

कबीर ने अपनी झाड़-फटकार के द्वारा हिंदुओं और मुसलमानों का कट्टरपन दूर करने का जो प्रयत्न किया वह अधिकतर चिढ़ानेवाला सिद्ध हुआ, हृदय को स्पर्श करने वाला नहीं। मनुष्य मनुष्य के बीच जो रागात्मक संबंध है वह उसके द्वारा व्यक्त न हुआ। अपने नित्य के जीवन में जिस हृदय साम्य का अनुभव मनुष्य कभी कभी किया करता है, उसकी अभिव्यंजना उससे न हुई। कुतबन, जायसी आदि इन प्रेम-कहानी के कवियों ने प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए उन सामान्य जीवन-दशाओं का सामने रखा जिनका मनुष्य मात्र के हृदय पर एक-सा प्रभाव दिखाई पड़ता है। हिंदू-हृदय और मुसलमान-हृदय आमने सामने करके अजनबीपन मिटानेवालों में इन्ही का नाम लेना पड़ेगा। इन्होंने मुसलमान होकर हिंदुओं की कहानियाँ हिंदुओ की ही बोली में पूरी सहृदयता से कहकर उनके जीवन की मर्मस्पर्शिनी अवस्थाओं के साथ अपने उदार हृदय का पूर्ण सामंजस्य दिखा दिया। कबीर ने केवल भिन्न प्रतीत होती हुई परोक्ष सत्ता की एकता का आभास दिया था। प्रत्यक्ष जीवन की एकता का दृश्य सामने रखने की आवश्यकता बनी थी। यह जायसी द्वारा पूरी हुई।

'पदमावत' में प्रेमगाथा की परंपरा पूर्ण प्रौढ़ता को प्राप्त मिलती हैं। यह उस परंपरा में सबसे अधिक प्रसिद्ध ग्रंथ है। इसकी कहानी में भी विशेषता है। इसमें इतिहास और कल्पना का योग है। चित्तौर की महारानी पद्मिनी या पद्मावती का इतिहास हिंदू-हृदय के मर्म को स्पर्श करनेवाला है। जायसी ने यद्यपि इतिहास प्रसिद्ध नायक और नायिका ली है पर उन्होने अपनी कहानी का रूप वही रखा है जो कल्पना के उत्कर्ष द्वारा साधारण जनता के हृदय में प्रतिष्ठित था। इस रूप में इस कहानी का पूर्वार्द्ध तो बिल्कुल कल्पित है और उत्तरार्द्ध ऐतिहासिक आधार पर है। पद्मावती की कथा संक्षेप में इस प्रकार है––

सिंहलद्वीप के राजा गंधर्वसेन की कन्या पद्मावती रूप और गुण में जगत् में अद्वितीय थी। उसके योग्य वर कहीं न मिलता था। उसके पास हीरामन नाम का एक सूआ था जिसका वर्ण सोने के समान था और जो पूरा वाचाल और पंडित था। एक दिन वह पद्मावती से उसके वर न मिलने के विषय में कुछ कह रहा था कि राजा ने सुन लिया और बहुत कोप किया। सूआ राजा के डर से एक दिन उड़ गया। पद्मावती ने सुनकर बहुत विलाप किया।

सूआ बन में उड़ता उड़ता एक बहेलिए के हाथ में, पड़ गया जिसने बाजार में लाकर उसे चित्तौर के एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया। उस ब्राह्मण को एक लाख देकर चित्तौर के राजा रतनसेन ने उसे लिया। धीरे धीरे रतनसेन उसे बहुत चाहने लगा। एक दिन राजा जब शिकार को गया था तब उसकी रानी नागमती ने, जिसे अपने रूप का बड़ा गर्व था, आकर सूए से पूछा कि "संसार में मेरे समान सुंदरी भी कहीं है?" इस पर सूआ हँसा और उसने सिंहल की पद्मिनी का वर्णन करके कहा कि उसमें-तुममें दिन और अँधेरी रात का अंतर है। रानी ने इस भय से कि कहीं यह सूआ राजा से भी न पद्मिनी के रूप की प्रशंसा करे, उसे मारने की आज्ञा दे दी। पर चेरी ने राजा के भय से उसे मारा नहीं; अपने घर छिपा रखा। लौटने पर जब सूए के बिना राजा रतनसेन बहुत व्याकुल और क्रुद्ध हुआ तब सूआ लाया गया और उसने सारी व्यवस्था कह सुनाई। पद्मिनी के रूप का वर्णन सुनकर राजा मूर्च्छित हो गया और अंत में व्याकुल होकर उसकी खोज में घर से जोगी होकर निकल पड़ा। उसके आगे-आगे राह दिखानेवाला वही हीरामन सूआ था और साथ में सोलह हजार कुवर जोगियों के वेश में थे। कालिंग से जोगियों का यह दल बहुत से जहाजो में सवार होकर सिंहल की ओर चला और अनेक कष्ट झेलने के उपरांत सिंहल पहुँचा। वहाँ पहुँचने पर राजा तो एक शिव मंदिर में जोगियों के साथ बैठकर पद्मावती का ध्यान और जप करने लगा और हीरामन सूए ने जाकर पद्मावती से यह सब हाल कहा। राजा के प्रेम की सत्यता के प्रभाव से पद्मावती प्रेम में विकल हुई। श्रीपंचमी के दिन पद्मावती शिवपूजन के लिये उस मंदिर में गई; पर राजा उसके रूप को देखते ही मूर्च्छित हो गया, उसका दर्शन अच्छी तरह न कर सका। जागने पर राजा बहुत अधीर हुआ। इसपर पद्मावती ने कहला भेजा कि समय पर तो तुम चूक गए; अब तो इस दुर्गम सिंहलगढ़ पर चढ़ी तभी मुझे देख सकते हो। शिव से सिद्धि प्राप्त कर राजा रात को जोगियों सहित गढ़ में घुसने लगा, पर सवेरा हो गया और पकड़ा गया। राजा गंधर्वसेन की आज्ञा से रतनसेन को सूली देने ले जा रहे थे कि इतने में सोलह हजार जोगियों ने गढ़ को घेर लिया। महादेव, हनुमान् आदि सारे देवता जोगियो की सहायता के लिये आ गए। गंधर्वसेन की सारी सेना हार गई। अंत में जोगियो के बीच शिव को पहचानकर गंधर्वसेन उनके पैरो पर गिर पड़ा और बोला कि पद्मावती आपकी है जिसको चाहे दीजिए। इस प्रकार रतनसेन के साथ पद्मावती का विवाह हो गया और कुछ दिनों के उपरांत दोनों चित्तौरगढ़ आ गए।

रतनसेन की सभा में राघव चेतन नामक एक पंडित था जिसे यक्षिणी सिद्ध थी। और पंडितों को नीचा दिखाने के लिये उसने एक दिन प्रतिपदा को द्वितीय कहकर यक्षिणी के बल से चंद्रमा दिखा दिया। जब राजा को यह कार्रवाई मालूम हुई तब उसने राघव चेतन को देश से निकाल दिया। राघव राजा से बदला लेने और भारी पुरस्कार की आशा से दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन के दरबार में पहुँचा और उसने दान में पाए हुए पद्मावती के एक कंगन को दिखाकर उसके रूप को संसार के ऊपर बताया। अलाउद्दीन ने पद्मिनी को भेज देने के लिये राजा रतनसेन को पत्र भेजा, जिसे पढ़कर राजा अत्यंत क्रुद्ध हुआ और लड़ाई की तैयारी करने लगा। कई वर्ष तक अलाउद्दीन चित्तौरगढ़ घेरे रहा पर उसे तोड़ न सका। अंत में उसने छलपूर्वक संधि का प्रस्ताव भेजा। राजा ने स्वीकार करके बादशाह की दावत की। राजा के साथ शतरंज खेलते समय अलाउद्दीन ने पद्मिनी के रूप की एक झलक सामने रखे हुए एक दर्पण में देख पाई, जिसे देखते ही वह मूर्छितहोकर गिर पड़ा। प्रस्थान के दिन जब राजा बादशाह को बाहरी फाटक तक पहुँचाने गया तब अलाउद्दीन के छिपे हुए सैनिको द्वारा पकड़ लिया गया और दिल्ली पहुँचाया गया।

पद्मिनी को जब यह समाचार मिला तब वह बहुत व्याकुल हुई; पर तुरंत एक वीर क्षत्राणी के समान अपने पति के उद्धार का उपाय सोचने लगा‌। गोरा बादल नामक दो वीर क्षत्रिय सरदार ७०० पालकियों में सशस्त्र सैनिक छिपाकर दिल्ली में पहुँचे और बादशाह के यहाँ संवाद भेजा कि पद्मिनी अपने पति से थोड़ी देर मिलकर तब आपके हरम में जायगी। आज्ञा मिलते ही एक ढकी पालकी राजा की कोठरी के पास रख दी गयी और उसमें से एक लोहार ने निकलकर राजा की बेड़ियाँ काट दी। रसनसेन पहले से ही तैयार एक घोड़े पर सवार होकर निकल आए। शाही सेना पीछे आते देख वृद्ध गोरा तो कुछ सिपाहियों के साथ उस सेना को रोकता रहा और बादल रतनसेन को लेकर चित्तौर पहुँच गया। चित्तौर आने पर पद्मिनी ने रतनसेन से कुभलनेर के राजा देवपाल द्वारा दूती भेजने की बात कही जिसे सुनते ही राजा रतनसेन ने कुभलनेर जा घेरा। लड़ाई में देवपाल और रतनसेन दोनों मारे गए।

रतनसेन का शव चित्तौर लाया गया। उसकी दोनों रानियाँ नागमती और पद्मावती हँसते हँसते पति के शव के साथ चिता में बैठ गई। पीछे जब सेना सहित अलाउद्दीन चित्तौर में पहुँचा तब वहाँ राख के ढेर के सिवा और कुछ न मिला।

जैसा कि कहा जा चुका है, प्रेमगाथा की परंपरा में पद्मावत सबसे प्रौढ और सरस है। प्रेममार्गी सूफी कवियों की और कथाओं से इस कथा में यह विशेषता है कि इसके ब्योरों से भी साधना के मार्ग, उसकी कठिनाइयों और सिद्धि के स्वरूप आदि की जगह-जगह व्यंजना होती है, जैसा कि कवि ने स्वंय ग्रंथ की समाप्ति पर कहा है––

तन चितउर मन राजा कीन्हा। हिय सिंघल, बुधि पदमिनि चीन्हा॥
गुरू सुआ जेई पंथ देखावा। बिनु गुरु जगत को निरगुन पावा?
नागमती यह दुनिया धंधा। बाँचा सोई न एहि चित बंधा॥
राघव दूत सोई सैतानू। माया अलाउदीं सुलतानू॥

यद्यपि पदमावत की रचना संस्कृत प्रबंध-काव्यों की सर्गबद्ध पद्धति पर नहीं है, फ़ारसी की मसनवी-शैली पर है, पर शृंगार, वीर आदि के वर्णन चली आती हुई भारतीय काव्य-पंरपरा के अनुसार ही है। इसका पूर्वार्द्ध तो एकांत प्रेममार्ग का ही आभास देता है, पर उत्तरार्द्ध में लोकपक्ष का भी विधान है। पद्मिनी के रूप का जो वर्णन जायसी ने किया है, वह, पाठक को सौंदर्य की लोकोत्तर भावना में मग्न करनेवाला है। अनेक प्रकार के अलंकारों की योजना उसमें पाई जाती है। कुछ पद्य देखिए––

सरवर तीर पदमिनी आई। खोपा छोरि केस मुकलाई॥
ससि मुख, अंग मलयगिरि बासा। नागिनि झाँपि लीन्ह चहुँ पासा॥
ओनई घटा परी जग छाँहा। ससि कै सरन लीन्ह जनु राहा॥
भूलि चकोर दीठि मुख लावा। मेघ घटा महँ चंद देखावा॥

पद्मिनी के रूप वर्णन में जायसी ने कहीं कही उस अनंत सौंदर्य की ओर, जिसके विरह में यह सारी सृष्टि, व्याकुल सी है, बड़े सुंदर संकेत किए हैं––

बरुनी का बरनौं इमि बनी। साधे बान जानु दुइ अनी॥
उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा॥
गगन नखत जो जाहिं न गने। वै सब बान ओहि कै हने॥
धरती बान बेधि सब राखी। साखी ठाढ़ देहि सब साखी॥
रोवँ रोवँ मानुष तन ठाढें। सूतहिं सूत बेध अस गाढें॥
बरुनि-बान अस ओपहँ, बेधे रन बनढाख॥
सौजहिं तन सब रोवाँ, पंखिहि तन सब पाँख॥

इसी प्रकार योगी रतनसेन के कठिन मार्ग के वर्णन में साधक के मार्ग के विध्नों (काम, क्रोध आदि विकारों) की व्यंजना की है––

ओहि मिलान जौ पहुँचै कोई। तब हम कह कहब पुरुष भल सोई॥

है आगे परबत कै बाटा। विषम पहार अगम सृठि घाटा‍॥
बिच बिच नदी खोह औ नारा। ठावँहि ठावँ बैठ बटपारा॥


उसमान––ये जहाँगीर के समय में वर्त्तमान थे और गाजीपुर के रहनेवाले वाले थे। इनके पिता का नाम शेख हुसैन था और ये पाँच भाई थे। और चार भाइयों के नाम थे––शेख अजीज, शेख मानुल्लाह, शेख फैजुल्लाह, शेख हसन। इन्होंने अपना उपनाम "मान" लिखा है। ये शाह निजामुद्दीन चिश्ती की शिष्यपरंपरा में हाजी बाबा के शिष्य थे। उसमान ने सन् १०२२ हिजरी अर्थात् सन् १६१३ ईसवी में 'चित्रावली' नाम की पुस्तक लिखी। पुस्तक के आरंभ में कवि ने स्तुति के उपरांत पैगंबर और चार खलीफो की, बादशाह (जहाँगीर) की तथा शाह निजामुद्दीन और हाजी बाबा की प्रशंसा लिखी है। उसके आगे गाजीपुर नगर का वर्णन करके कवि ने अपना परिचय देते हुए लिखा है कि––

आदि हुता विधि माथे लिखा। अच्छर चारि पढ़ै हम सिखा॥
देखत जगत चला सब जाई। एक बचन पै अमर रहाई॥
वचन समान सुधा जग नाहीं। जेहि पाए कवि अमर रहाही॥
मोहूँ चाउ उठा पुनि हीए। होउँ अमर यह अमरित पीए॥

कवि ने "योगी ढूँढ़न खंड" में काबुल, बदख्शाँ, खुरासान, रूस, साम, मिस्र, इस्तंबोल, गुजरात, सिंहलद्वीप आदि अनेक देशों का उल्लेख किया है। सबसे बिलक्षण बात है जोगियों का अँगरेजो के द्वीप में पहुँचना––

वलंदीप देखा अँगरेजा। तहाँ जाइ जेहि कठिन करेजा।
ऊँच-नीच धन-संपति हेरा। मद बराह भोजन जिन्ह केरा॥

कवि ने इस रचना में जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जो-जो विषय जायसी ने अपनी पुस्तक में रखे है उन विषयो पर उसमान ने भी कुछ कहा है‌। कहीं कहीं तो शब्द और वाक्यविन्यास भी वही है। पर विशेषता यह है कि कहानी बिलकुल कवि की कल्पित है, जैसा कि कवि ने स्वयं कहा है––

कथा एक मैं हिए उपाई। कहत मीठ औ सुनत सोहाई॥

कथा का सारांश यह है–– नैपाल के राजा धरनीधर पँवार ने पुत्र के लिये कठिन व्रत-पालन करके शिव-पार्वती के प्रसाद से 'सुजान' नामक एक पुत्र प्राप्त किया। सुजान कुमार एक दिन शिकार में मार्ग भूल देव (प्रेत) की एक मंढ़ी में जा सोया। देव ने आकर उसकी रक्षा स्वीकार की। एक दिन वह देव अपने एक साथी के साथ रूपनगर की राजकुमारी चित्रावली की वर्षगॉठ का उत्सव देखने के लिये गया। और अपने साथ सुजान कुमारी को भी लेते गया। और कोई उपयुक्त स्थान न देख देवों ने कुमार को राजकुमारी की चित्रसारी में ले जाकर रखा और आप उत्सव देखने लगे। कुमार राजकुमारी का चित्र टँगा देख उसपर आसक्त हो गया और अपना भी एक चित्र बनाकर उसी की बगल में टाँगकर सो रहा। देव लोग उसे उठाकर फिर उसी मंढ़ी में रख आए। जागने पर कुमार को चित्रवाली घटना स्वप्न सी मालूम हुई; पर हाथ में रंग लगा देख उसके मन में घटना के सत्य होने का निश्चय हुआ और वह चित्रावली के प्रेम में विकल हो गया। इसी बीच में उसके पिता के आदमी कर उनको राजधानी में ले गए। पर वहाँ वह अत्यंत खिन्न और व्याकुल रहता। अंत में अपने सहपाठी सुबुद्धि नामक एक ब्राह्मण के साथ वह फिर उसी मंढी में गया और वहाँ बड़ा भारी अन्नसत्र खोल दिया है।

राजकुमारी चित्रावली भी उसका चित्र देख प्रेम में विह्वल हुई और उसने अपने नपुंसक भृत्यों को, जोगियो के वेश में, राजकुमार का पता लगाने के लिये भेजा। इधर एक कुटीचर ने कुमारी की माँ हीरा से चुगली की और कुमार का वह चित्र धो डाला गया। कुमारी ने जब यह सुना तब उसने उस कुटीचर का सिर मुँड़ाकर उसे निकाल दिया। कुमारी के भेजे हुए जोगियो में से एक सुजान कुमार के उस अन्नसत्र तक पहुँचा और राजकुमार को अपने साथ रूपनगर ले आया। वहाँ एक शिवमंदिर में उसका कुमारी के साथ साक्षात्कार हुआ। पर ठीक इसी अवसर पर कुटीचर ने राजकुमार को अंधा कर दिया और एक गुफा में डाल दिया जहाँ उसे एक अजगर निकल गया। पर उसके विरह की ज्वाला से घबराकर उसने उसे चट उगल दिया। वही पर एक वनमानुष ने उसे एक अजन दिया जिससे उसकी दृष्टि फिर ज्यो की त्यो हो गई। वह जंगल में घूम रहा था कि उसे एक हाथी ने पकड़ा। पर उस हाथी को भी एक पक्षिराज ले उड़ा और उसने घबराकर कुमार को समुद्रतट पर गिरा दिया। वहाँ से घूमता-फिरता कुमार सागरगढ़ नामक नगर में पहुँचा और राजकुमारी कँवलावती की फुलवारी में विश्राम करने लगा। राजकुमारी जब सखियो के साथ वहाँ आई तब उसे देख मोहित हो गई और उसने उसे अपने यहाँ भोजन के बहाने बुलवाया। भोजन में अपना हार रखवाकर कुमारी ने चोरी के अपराध में उसे कैद कर लिया। इसी बीच में सोहिल नाम का कोई राजा कँवलावती के रूप की प्रशंसा सुन उसे प्राप्त करने के लिये चढ़ आया। सुजान कुमार ने उसे मार भगाया। अंत में सुजान कुमार ने कँवलावती से, चित्रावली के न मिलने तक समागम न करने की प्रतिज्ञा करके विवाह कर लिया। कँवलावती को लेकर कुमार गिरनार की यात्रा के लिये गया।

इधर चित्रावली के भेजे एक जोगी-दूत में गिरनार में उसे पहचाना और चट चित्रावली को जाकर संवाद दिया। चित्रावली का पत्र लेकर वह दूत फिर लौटा और सागरगढ़ में धुई लगाकर बैठा। कुमार सुजान उस जोगी की सिद्धि सुन उसके पास आया और उसे जानकर उसके साथ रूपनगर गया। इसी बीच वहाँ पर सागरगढ़ के एक कथक में चित्रावली के पिता की सभा में जाकर सोहिल राजा के युद्ध के गीत सुनाए; जिन्हे सुन राजा को चित्रावली के विवाह की चिंता हुई। राजा ने चार चित्रकारों को भिन्न भिन्न देशों के राजकुमारों के चित्र लाने को भेजा। इधर चित्रावली को भेजा हुआ वह जोगी-दूत सुजान कुमार को एक जगह बैठाकर उसके आने का सामाचार कुमारी को देने आ रहा था। एक दासी ने यह समाचार द्वेषवश रानी से कह दिया और वह दूत मार्ग ही में कैद कर लिया गया। दूत के न लौटने पर सुजान कुमार बहुत व्याकुल हुआ और चित्रावली का नाम ले लेकर पुकारने लगा। राजा ने उसे मारने के लिये मतवाला हाथीं छोड़ा, पर उसने उसे मार डाला। इसपर राजा उसपर चढाई करने जा रहा था कि इतने में भेजे हुए चार चित्रकारो में से एक चित्रकार सागरगढ़ से सोहिल के मारनेवाले सुजान कुमार का चित्र लेकर आ पहुँचा‌‌। राजा ने जब देखा कि चित्रावली का प्रेमी वही सुजान कुमार है। तब उसने अपनी कन्या चित्रावली के साथ उसका विवाह कर दिया।

कुछ दिनों में सागरगढ़ की कँवलावती ने विरह से व्याकुल होकर सुजान कुमार के पास इस मिश्र को दूत बनाकर भेजा जिसने भ्रमर की अन्योक्ति द्वारा कुमार को कँवलावती के प्रेम का स्मरण कराया। इसपर सुजान कुमार ने चित्रावली को लेकर स्वदेश की ओर प्रस्थान किया और मार्ग में कँवलावती को भी साथ ले लिया। मार्ग में कवि ने समुद्र के तूफान का वर्णन किया है। अंत में राजकुमार अपने घर नैपाल पहुँचा और उसने वहाँ दोनो रानियों सहित बहुत दिनों तक राज्य किया।

जैसा कि कहा जा चुका है, उसमान ने जायसी का पूरा अनुकरण किया है। जायसी के पहले के कवियों ने पाँच पाँच चौपाइयो (अद्धलियों) के पीछे एक दोहा रखा हैं, पर जायसी ने सात सात चौपाइयों का क्रम रखा और यही क्रम उसमान ने भी रखा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस कहानी की रचना भी बहुत कुछ अध्यात्मिक दृष्टि से हुई है। कवि ने सुजान कुमार को एक साधक के रूप में चित्रित ही नहीं किया है बल्कि पौराणिक शैली का अवलंबन करके उसने उसे परम योगी शिव के अंश में उत्पन्न तक कहा है। महादेवजी राजा धरनीधर पर प्रसन्न होकर वर देते हैं कि––

देवु देत हौ आपन असा। अब तोरे होइहौं निज बसा॥

कँवलावती और चित्रावली अविद्या और विद्या के रूप में कल्पित जान पडती हैं। सुजान का अर्थ ज्ञानवान् है। साधनाकाल में अविद्या को बिना दूर रखें विद्या (सत्यज्ञान) की प्राप्ति नहीं हो सकती। इसी से सुजान ने चित्रावली के प्राप्त न होने तक कँवलावती के साथ समागम न करने की प्रतिज्ञा की थी। जायसी की ही पद्वति पर नगर, सरोवर, यात्रा, दान-महिमा आदि का वर्णन चित्रावली में भी है। सरोवर-क्रीड़ा के वर्णन में एक दूसरे ढंग से कवि ने "ईश्वर की प्राप्ति" की साधना की ओर संकेत किया है। चित्रावली सरोवर के गहरे जल में यह कहकर छिप जाती है कि मुझे जो ढूँढ़ ले उसकी जीत समझी जायगी। सखियाँ ढूँढ़ती हैं और नहीं पाती हैं––

सरवर ढूँढि सबै पचि रही। चित्रित खोज न पावा कही॥
निकसीं तीर भई वैरागी। धरे ध्यान सब बिनवै लागीं॥
गुपुत तोहि पावहिं का जानी। परगट महँ जो रहै छपानी॥

चतुरानन पढ़ि चारौ बेदू। रहा खोजि पै पाव न भेदू॥
हम प्रवी जेहि आप न सूझा। भेद तुम्हार कहाँ लौं बूझा॥
कौन सो ठाउँ जहाँ तुम नाहीं। हम चख जोति न, देखहिं काही॥
खोज तुम्हार सो, जेहि दिखरावहु पथ। कहा होइ जोगी भए, और बहुत पढ़ें ग्रंथ॥

विरह-वर्णन के अंतर्गत षट्ऋतु का वर्णन सरस और मनोहर हैं––

ऋतु बसंत नौतन बन फूला। जहँ तहँ भौंर कुसुम-रंग भूला॥
आहि कहाँ सो, भँवर हमारा। जेहि बिनु बसत बसंत उजारा॥
रात बरन पुनि देखि न जाई। मानहुँ दवा देहूँ दिसि लाई॥
रतिपति दुरद ऋतुपती वली। कानन-देह आई दलमली॥

शेखनबी–– ये जौनपुर जिले में दोसपुर के पास मऊ नामक स्थान के रहनेवाले थे और सवत् १६७६ में जहाँगीर के समय में वर्तमान थे। इन्होंने "ज्ञानदीप" नामक एक आख्यान-काव्य लिखा जिसमें राजा ज्ञानदीप और रानी देवजानी की कथा है।

यहीं प्रेममार्गी सूफी कवियों की प्रचुरता की समाप्ति समझनी चहिए। पर जैसा कहा जा चुका है, काव्यक्षेत्र में जब कोई परंपरा चल पड़ती है तब उसके प्राचुर्य्य-काल के पीछे भी कुछ दिनों तक समय समय पर उस शैली की रचनाएँ थोड़ी बहुत होती रहती है; पर उनके बीच कालांतर भी अधिक रहता है और जनता पर उनको प्रभाव भी वैसा-नहीं रह जाता। अतः शेखनबी से प्रेमगाथा परंपरा समाप्त समझनी चाहिए। 'ज्ञानदीप' के उपरांत सूफियो की पद्धति पर जो कहानियाँ लिखी गई उनका संक्षिप्त उल्लेख नीचे किया जाता है।

कासिमशाह––ये दरियाबाद (बाराबंकी) के रहनेवाले थे और संवत् १७८८ के लगभग वर्त्तमान थे। इन्होंने "हंस जवाहिर" नाम की कहानी लिखी जिसमे राजा हस और रानी जवाहिर की कथा है।

फारसी अक्षरों में छपी (नामी प्रेस, लखनऊ) इस पुस्तक की एक प्रति हमारे पास है। उसमें कवि शाहेवक्त का इस प्रकार उल्लेख करके––

मुहमदसाह दिल्ली सुलतानू। का मन गुन ओहि केर बखानू॥
छाजै पाट छत्र सिर ताजू। नावहिं सीस जगत के राजू॥

रूपवंत दरसन मुँह राता। भागवत ओहि कीन्ह विधाता॥
दरववंत धरम महँ पूरा। ज्ञानवत खड्ग महै सूरा॥

अपना परिचय इन शब्दों में दिया है––

दरियाबाद साँझ मम ठाउँ। अमानुल्ला पिता कर नाउँ॥
तहवों मोहिं जनम विधि दीन्हा। कासिम नावँ जाति कर हीना॥
ऊँचे बीच विधि कीन्ह कमीना। ऊँच सभा बैठे चित दीना॥
ऊँचे संग ऊंच मन भावा। तब भा ऊँच ज्ञान-बुधि पावा॥
ऊँचा पंथ प्रेम का होई। तेहि महँ ऊँच भए सब कोई॥

कथा का सार कवि ने यह दिया है––

कथा जो एक सुपुत महँ रहा। सो परगट उघारि मैं कहा॥
हंस जवाहिर बिधि औतारा। निरमल रूप सो दई सँवारा॥
बलख नगर बुरहान सुलतानू। तेहि घर हंस भए जस भानू॥
आलमशाह चीनपति भारी। तेहि घर जनमा जवाहिर बारी॥
तेहि कारन वह भएउ बियोगी। गएउ सो छाडि देस होइ जोगी॥
अंत जवाहिर हंस घर आनी। सो जग महँ यह गयउ बखानी॥
सो सुनि ज्ञान-कथा मैं कीन्हा। लिखेउँ सो प्रेम, रहै जग चीन्हा॥

इनकी रचना बहुत निम्न कोटि की है। इन्होंने जगह-जगह जायसी की पदावली तक ली है, पर प्रौढ़ता नही है।

नूरमुहम्मद––ये दिल्ली के बादशाह मुहम्मदशाह के समय में थे और सबरहद नामक स्थान के रहने वाले थे जो जौनपुर जिले में जौनपुर-आजमगढ़ की सरहद पर है। पीछे सबरहद से थे अपनी सुसराल भादों (जिला-आजमगढ़) चले गए। इनके श्वसुर शमसुद्दीन को और कोई वारिस न था इससे ये ससुराल ही में रहने लगे। नूरमुहम्मद के भाई मुहम्मद शाह सबरहद ही में रहे। नूरमुहम्मद के दो पुत्र हुए––गुलाम हसनैन और नसीरुद्दीन। नसीरुद्दीन की वंश-परंपरा में शेख-फिदाहुसैन अभी वर्त्तमान हैं, जो सबरहद और कभी कभी भादो में भी रहा करते हैं। अवस्था इनकी ८० वर्ष की है। नूरमुहम्मद फारसी के अच्छे आलिम थे और इनका हिंदी काव्यभाषा का भी ज्ञान और सब सूफी कवियो से अधिक था। फारसी में इन्होने एक दीवान के अतिरिक्त 'रौजतुल हकायक' इत्यादि बहुत सी किताबें लिखी थी जो असावधानी के कारण नष्ट हो गई। इन्होंने ११५७ हिजरी (संवत् १८०१) में 'इंद्रावती' नामक एक सुंदर आख्यान-काव्य लिखा जिसमें कालिंजर के राजकुमार राजकुँवर और आगमपुर की राजकुमारी इंद्रावती की प्रेम-कहानी है। कवि ने प्रथानुसार उस समय के शासक मुहम्मदशाह की प्रशंसा इस प्रकार की है––

करौं मुहम्मदसाह बखानू। है सूरज देहली सुलतानू॥
धरमपथ जग बीच चलावा। निबर न सबरे सों पावा॥
बहुतै सलातीन जग केरे। आइ सहास बने हैं चेरे॥
सब काहू पर दाया धरई। धरम सहित सुलतानी करई॥

कवि ने अपनी कहानी की भूमिका इस प्रकार बाँधी है––

मन-दृग सों इक राति मझारा। सूझि परा मोहि सब संसारा॥
देखेउँ एक नीक फुलवारी। देखेउँ तहाँ पुरुष औ नारी॥
दोउ मुख सोभा बरनि न जाई। चंद सुरुज उतरे भुई आई॥
तपी एक देखेउँ तेहि ठाऊँ। फूछेउँ तासौ तिन्हकर नाऊँ॥
कहा अहै राजा औ रानी। इंद्रावति औ कुँवर गियानी॥

आगमपुर इंद्रावती, कुँवर कलिंजर राय।
प्रेम हुँते दोउन्ह कह दीन्हा अलख मिलाय॥

कवि ने जायसी के पहले के कवियों के अनुसार पाँच पाँच चौपाइयों के उपरांत दोहे का क्रम रखा है। इसी ग्रंथ को सूफी-पद्धति का अंतिम ग्रंथ मानना चाहिए।

इनका एक और ग्रंथ फारसी अक्षरों में लिखा मिला है जिसका नाम है। 'अनुराग-बाँसुरी'। यह पुस्तक कई दृष्टियों से विलक्षण है। पहली बात तो इसकी भाषा है जो और सब सूफी-रचनाओं से बहुत अधिक संस्कृत गर्भित हैं। दूसरी बात है हिंदी भाषा के प्रति मुसलमानों का भाव। 'इंद्रावती' की रचना करने पर शायद नूरमुहम्मद को समय समय पर यह उपालंभ सुनने को मिलता था। कि "तुम मुसलमान होकर हिंदी-भाषा में रचना करने क्यों गए"। इसी से 'अनुराग-बाँसुरी' के आरंभ में उन्हें यह सफाई देने की जरूरत पड़ी––

जानत है वह सिरजनहारा। जो किछु है मन मरम हमारा॥
हिंदू-मग पर पाँव न राखेउँ। का जौ बहुतै हिंदी भाखेउँ॥
मन इसलाम मिरिकलै माँजेउँ। दीन जेंवरी,करकस भॉजेउँ॥
जहँ रसुल अल्लाह पियारा। उम्मत को भुक्तावनहार॥
तहाँ दूसरी कैसे भावै। जच्छ असुर सुर काज न आवै॥

इसका तात्पर्य यह है कि संवत् १८०० तक आते आते मुसलमान हिंदी से किराना खींचने लगे थे। हिंदी हिंदुओं के लिये छोड़कर अपने लिखने-पढ़ने की भाषा वे विदेशी अर्थात् फारसी ही रखना चाहते थे। जिसे 'उर्दू' कहते हैं उसका उस समय तक साहित्य में कोई स्थान न था, इसका स्पष्ट आभास नूरमुहम्मद के इस कथन से मिलता है––

कामयाब यह कौन जगावा। फिर हिंदी भाखै पर आवा॥
छाँडि पारसी कद नबातै। अरुझाना हिंदी रस-बातै॥

"अनुराग-बाँसुरी" का रचना-काल ११७८ हिजरी अर्थात् संवत् १८२१ है। कवि ने इसकी रचना अधिक पांडित्यपूर्ण रखने का प्रयत्न किया है और विषय भी इसका तत्त्वज्ञान-संबंधी है। शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों आदि को लेकर पूरा अव्यवसित रूपक (Allegory) खड़ा करके कहानी बाँधी है। और सब सूफी कवियों की कहानियों के बीच बीच में दूसरा पक्ष व्यंजित होता हैं, पर यह सारी कहानी और सारे पात्र ही रूपक है। एक विशेषता और है। चौपाइयो के बीच-बीच में इन्होंने दोहे न रखकर बरवै रखे है। प्रयोग भी ऐसे ऐसे संस्कृत शब्दों के हैं जो और सूफी कवियो में नहीं आए हैं। काव्यभाषा के अधिक निकट होने के कारण भाषा में कहीं कही व्रजभाषा के शब्द और प्रयोग भी पाए जाते हैं। रचना का थोड़ा सा नमूना नीचे दिया जाता है––

}}नगर एक मूरतिपुर नाऊँ। राजा जीव रहै तेहि ठाऊँ॥
का बरनौं वह नगर सुहावन। नगर सुहावने सब मन भावन॥

इहै सरीर सुहावन मूरतिपूर।
इहै जीव राजा, जिव जाहु न दूर॥

तनुज एक राजा के रहा। अंत:करन नाम सब में सब कहा॥
सौम्यसील सुकुमार सबाना। सो सावित्री स्वांत समाना॥
सरल सरनि जौ सो पग धरै। नगरे लोग सूधै पग परै॥
वक्र पंथ जो राखै पाऊँ। वहै अव्य सब होइ बटाऊ॥

रहे सँघाती ताके पत्तन ठावँ।
एक संकल्प, विकल्प सो दूसर नावँ॥

बुद्धि चित्त दुइ सखा सरेखै। जगत बीच गुने अवगुन देखै॥
अतःकरन पास नित आवैं। दरसन देखि महासुख पावें॥

अंहकार तेहि तीसरे सखी निरंत्र।
रहेउ चारि के अंतर नैसुक अंत्र॥

अतःकरन सदन एक रानी। महामोहनी नाम सयानी॥
बरनि न पारौं सुंदरताई। सकल सुंदरी देखि लजाई॥
सर्वमंगला देखि असीसै। चाहै लोचन मध्य बईसै॥
कुंतल झारत फाँदा ढ़ारै। चख चितवन सों चपला मारै॥
अपने मंजु रूप वह दारा। रूप गर्विता जगत में मँझारा॥
प्रीतम-प्रेम पाइ वह नारी। प्रेमगर्विता भई पियारी॥

सदा न रूप रहत है अंत नसाइ।
प्रेम, रूप के नासहिं तें घटि जाइ॥

जैसा कि कहा जा चुका है नूरमुहम्मद को हिंदी भाषा में कविता करने के कारण जगह जगह इसका सबूत देना पड़ा है कि वे इसलाम के पक्के अनुयायी थे। अतः वे अपने इस ग्रंथ की प्रशंसा इस ढंग से करते हैं––

यह बाँसुरी सुनै सो कोई। हिरदय-स्रोत खुला जेहि होई॥
निसरत नाद बारुनी साथा। सुनि सुधि-चेत रहै केहि हाथा॥
सुनतै जौ यह सबद मनोहर। होत अचेत कृष्ण मुरलीधर॥
यह मुहम्मदी जन की बोली। जामैं कंद नबातें घोली॥
बहुत देवता को चित हरै। बहु मूरति औंधी होई परै॥
बहुत देवहरा ढाहि गिरावे। संखनाद की रीति मिटावै॥

जहँ इसलामी मुख सों निसरी बात॥
तहाँ सकल सुख मंगल, कष्ट नसात॥

सूफी आख्यान-काव्यों की अखंडित परंपरा की यहीं समाप्ति मानी जाती है। इस परंपरा में मुसलमान कवि ही हुए हैं। केवल एक हिंदू मिला है। सूफी मत के अनुयायी सूरदास नाम के एक पंजाबी हिंदू ने शाहजहाँ के समय में 'नल दयमंती कथा' नाम की एक कहानी लिखी थी पर इसकी रचना अत्यंत निकृष्ट है।

साहित्य की कोई अखंड परंपरा समाप्त होने पर भी कुछ दिन तक उस परंपरा की कुछ रचनाएँ इधर-उधर होती रहती है। इस ढंग की पिछली-रचनाओं में 'चतुर्मुकुट की कथा' और 'यूसुफ-जुलेखा' उल्लेख-योग्य हैं।

 

  1. देखो पृ॰ ६४।