हिन्दी-राष्ट्र या सूबा हिन्दुस्तान/क्या भारत एक राष्ट्र है?
२. क्या भारत एक राष्ट्र है?
पूर्वपक्ष
अब हमें ध्यान पूर्वक यह देखना है कि क्या भारतवर्ष पर राष्ट्र के उपर्युक्त ततण घटित होते हैं? साधारणतया भारत एक राष्ट्र माना जाता है और राष्ट्रीयता के प्रायः समस्त चिन्ह भी भारतवर्ष में दिखाई पड़ते हैं। भारतवर्ष के उत्तर में पर्वतराज हिमालय है जिसके कारण यूरेशिया महाद्वीप के अन्य देशों से भारत बिलकुल पृथक हो जाता है। शेष तीन ओर महासागर भारत की रक्षा करता है। कुमारी अन्तरीप से काश्मीर तक तथा कराँची से आसाम तक भारत का विस्तार है। आर्थिक हानि-लाभ पर दृष्टि डालने से भी भारत एक मालूम होता है। पिछले महायुद्ध में सम्पूर्ण भारत को ऋण देना पड़ा था। आाने जाने वाले माल पर जो कर बिठलाया जाता है उसका सारे भारत पर समान प्रभाव पड़ता है। राज्य के सम्बन्ध में तो एकता स्पष्ट ही है। आजकल सम्पूर्ण भारत पर अँग्रेज़ी शासन है। इसके पूर्व मुसलमानों का राज्य प्रायः सम्पूर्ण भारत पर था। गुप्त, मौर्य तथा उससे भी पूर्व भारत में बड़े बड़े साम्राज्य स्थापित हुए थे। भाषा की एकता के सम्बन्ध में भी अधिक कठिनाई नहीं मालूम पड़ती। आजकल राज-भाषा अँग्रेज़ी तो एक है ही। प्राचीन समय में संस्कृत का प्रचार प्रायः सम्पूर्ण भारत में था। निकट भविष्य में यह स्थान हिन्दुस्तानी भाषा को मिलेगा, यह निश्चित-सा है। भारत में हिन्दू धर्मावलम्बी विशेष रूप से रहते हैं, यद्यपि छः करोड़ मुसलमान धर्म्म के मानने वाले भी हैं। इस समस्या के सुलझाने का बराबर प्रयत्न हो रहा है। हिन्दू-मुस्लिम ऐक्य के सम्बन्ध में अविरत परिश्रम किया जा रहा है। वर्ग के सम्बन्ध में भारतीय आर्य्य सन्तान होने का गौरव करते हैं। दक्षिण के कुछ भाग में द्राविड़ वर्ग के लोगों का प्राधान्य अवश्य है, किन्तु वहां भी आर्य्य-सभ्यता की छाप गहरी है। इन सबके अतिरिक्त राष्ट्रीयता की लहर भी एक स्थान से उठकर भारत के कोने कोने में पहुँच जाती है। तब फिर भारत के एक राष्ट्र होने में क्या सन्देह हो सकता है?
भारतवर्ष में भाषा की एकता नहीं है।
ऊपरी दृष्टि से देखने से भारत एक राष्ट्र अवश्य मालूम पड़ता है परन्तु हमें तो यहाँ राष्ट्र की परिभाषा के आधार पर इस विषय पर सूक्ष्म रीति से विचार करना है। भाषा का राष्ट्र से बहुत निकट का सम्बन्ध है अतः सबसे प्रथम भाषा के प्रश्न पर विचार करना अनुचित न होगा। अँग्रेज़ी भारत के लोगों की अपनी भाषा नहीं कही जा सकती। १९२१ की जनसंख्या के अनुसार बत्तीस करोड़ भारतवासियों में केवल पच्चीस लाख अँग्रेज़ी लिख-पढ़ सकते थे। इसमें सन्देह नहीं कि भारत के भिन्न भिन्न भागों के अँग्रेज़ी पढ़े-लिखों को एक साथ विचार करने में अँग्रेज़ी से अवश्य सहायता मिली है, किन्तु यह ऐक्य कृत्रिम और अस्थायी है। महासभा की कार्य्यवाही में अँग्रेज़ी का स्थान हिन्दुस्तानी ले रही है। अँग्रेज़ी राज्य के उठ जाने पर अँग्रेज़ी का भारत में वही स्थान रह जायगा जो आज फ़ारसी का है।
१९२१ की जनसंख्या के अनुसार बत्तीस करोड़ भारतवासियों में ३५६ की मातृ-भाषा संस्कृत थी। निस्सन्देह इससे कहीं अधिक संख्या संस्कृत समझने वालों की होगी किन्तु तो भी संस्कृत के राष्ट्र-भाषा होने के सम्बन्ध में कुछ भी कहना व्यर्थ है। प्राचीन काल में भी सम्पूर्ण भारत की भाषा संस्कृत कभी नहीं रही है। गङ्गा की घाटी में एक समय संस्कृत कदाचित मातृभाषा थी, किन्तु यह स्वप्न की सी बात है। हिन्दुओं का प्राचीन धार्मिक साहित्य संस्कृत में है इस कारण इसका पठन-पाठन अवश्य अधिक होता रहेगा। भारतवर्ष के हिन्दुओं के लिए संस्कृत का वही स्थान है जो पारसियों के लिये जेंद, यहूदियों के लिये हेब्रू, बौद्धों के लिये पाली, ईसाइयों के लिये लैटिन तथा मुसलमानों के लिये अरबी का है। संस्कृत भारत के जन-समुदाय की भाषा नहीं है।
हिन्दुस्तानी का प्रचार धीरे धोरे बढ़ता जा रहा है। महासभा की कार्य्यवाही बहुत कुछ हिन्दुस्तानी में होने लगी है। सम्भव है भविष्य की भारत सरकार की राजभाषा हिन्दुस्तानी हो जावे किन्तु तो भी यह सम्पूर्ण भारत के लोगों की मातृभाषा के समान नहीं हो सकती। हिन्दुस्तानी का भारत में अधिक से अधिक वैसा ही स्थान हो सकेगा जैसा कि आज कल अंग्रेज़ी शासन में अंग्रेज़ी का है, मुसलमान काल में फ़ारसी का था, गुप्त साम्राज्य में संस्कृत, तथा मौर्य्य साम्राज्य में पाली का था। घोषणा-पत्र हिन्दुस्तानी में निकल सकते हैं और सम्भव है उन्हें सम्पूर्ण भारत में थोड़ा-बहुत समझ भी लिया जाय—यद्यपि सन्देह इसमें भी है क्योंकि अँग्रेज़ी घोषणाओं को समझने के लिये आजकल भी प्रान्तिक भाषाओं में अनुवाद करना पड़ता है और अशोक के आदेशों में भी प्रान्तिक प्रकृतों का प्रभाव पाया जाता है—किन्तु सम्पूर्ण भारत के लोगों के हृदयों तक तो हिन्दुस्तानी की पहुँच कभी नहीं हो सकती। चण्डीदास, तुकाराम, नरसी मेहता तथा बाबा नानक की सुधा-सूक्तियों के लिये तृषित आत्माओं की तृप्ति क्या राम-चरित-मानस अथवा सूरसागर कर सकेगा? ऐसी आशा करना अस्वाभाविक है। हिन्दुस्तानी भारत की 'राजभाषा' भले ही हो जाय, किन्तु 'राष्ट्रभाषा' नहीं हो सकती।
हिन्दुस्तानी, संस्कृत, अथवा अंग्रेज़ी जैसी कृत्रिम भाषाओं से काम नहीं चलेगा। इस के लिये हमें लोगों की अपनी जीती-जागती भाषाओं की ओर जाना पड़ेगा। भाषा-सर्वे के अनुसार आजकल भी भारत की भाषा एक नहीं है किन्तु यहाँ १८८ पृथक् भाषाएँ बोली जाती हैं। इसमें बोलियाँ सम्मिलित नहीं हैं। बोलियाँ को मिलाने से यह संख्या ५४४ से भी ऊपर पहुँच जाती है। प्राचीन काल में भी भारत के भिन्न भिन्न भागों में पृथक् पृथक् प्राकृतें बोली जाती थीं। यह कहा जा सकता है कि यह भाषा-सर्वे कठिन वैज्ञानिक रीति से की गई है तथा थोड़ी संख्या में पाये जाने वाले बहुत से बाहर के लोगों की भाषाओं की गिनती भी इसमें कर ली गयी है, किन्तु तो भी कुछ भाषाओं का तो पृथक् अस्तित्व मानना ही पड़ेगा। आसामी, बङ्गाली, उड़िया, हिन्दी, पंजाबी, काश्मीरी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, तेलगू, तामिल, कनारी, मलयालम सथा सिंहाली इनके एक दूसरे से पृथक् होने के सम्बन्ध में तो कोई भ्रम ही नहीं हो सकता। ये भाषाएँ एक दूसरे से इतनी भिन्न हैं कि एक का बोलने वाला दूसरे की बोली नहीं समझ सकता। बङ्गाली किसान अपना दुःख-सुख मराठी किसान से नहीं कह सकता। उड़िया गुजराती से बात-चीत नहीं कर सकता। इन भाषाओं का अपना पृथक् पृथक् प्राचीन साहित्य है जिन पर इन भाषा-भाषियों का गौरव करना उचित ही है। ज्ञानेश्वर, रामदास, तुकाराम, तथा तिलक मराठी बोलने वालों के अपने कवि तथा लेखक हैं, जैसे चण्डीदास, काशीराम, भारतचन्द्र राय बङ्गाली बोलने वालों के अपने हैं। आजकल भी इन भाषाओं के पृथक् पृथक् अपने कवि तथा लेखक हैं, अपने समाचारपत्र तथा पत्रिकाएँ हैं, अपने अपने ढंग पर वर्तमान साहित्य बन रहा है। भारत की इन भाषाओं की तुलना योरप की अंग्रेज़ी, फ्रेंच, जर्मन, इटालियन, स्पेनिश, पोर्तगीज़ इत्यादि भाषाओं से की जा सकती है, केवल अन्तर इतना ही है कि योरपीय भाषा-भाषियों के स्वतंत्र होने के कारण इनकी भाषाओं का विकास भारतीय भाषाओं की अपेक्षा प्रायः अधिक हो चुका है।
यदि योरोपीय देशों की जनता प्रायः अपने ही देश की भाषा बोलने वाली मानली जाय, जैसा वास्तव में है भी, तो निम्नलिखित तुलनाएँ शिक्षाप्रद होंगी :—
भारतीय भाषाएँ बोलने वालोंयोरपीय देशों की
की संख्या जन-संख्या
(१९२१ की जन-संख्या के अनुसार)(१९२० के बाद)
करोड़लाख करोड़लाख
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भारतीय भाषाएँ बोलने वाले संख्या में कम हैं अब यह नहीं कहा जा सकेगा।
ऊपर के संपूर्ण विवेचन से इतना तो अवश्य हो स्पष्ट हो गया होगा कि भारत के लोगों की भाषा एक नहीं है। राष्ट्र का प्रधान स्वाभाविक लक्षण-भाषा का ऐक्य-भारत में नहीं पाया जाता। धर्म अथवा राज्य के कारण प्रधानस के प्राप्त हुई किसी भाषा की ऊपरी एकता को देखकर लोग प्रायः भूल में पड़ जाते हैं। विद्वानों के इस विषय में सावधानी रखनी चाहिए।
भारतवर्ष और शासन का एकता
भाषा का प्रश्न इतना जटिल नहीं है। अंग्रेज़ी भारत की राष्ट्रीय भाषा है अथवा हो सकती है इस विचार के रखने वाले अब बहुत कम मिलेंगे। किन्तु अन्य बातों मेंं यह कठिनाई अधिक अनुभव होती है। उदाहरण के लिए राज्य का प्रश्न लीजिए। वैसे तो प्रायः सम्पूर्ण भारत अंग्रेज़ों के आधिपत्य में है, किन्तु कुछ भाग पर अंग्रेज़ सीधे शासन करते हैं, शेष पर भारतीय नरेश राज्य करते हैं। इन देशी यूज्यों की संख्या ६७५ है, जिनमें कुछ तो इतने बड़े हैं कि इनकी तुलना कम से कम क्षेत्रफल में तो योरप के बहुत से देशों से हो सकती है। इस सम्बन्ध में नीचे लिखी तुलनायें शिक्षाप्रद होगी :—
भारतीय राज्यों का क्षेत्रफलयोरपीय देशों का क्षेत्रफल
(सहस्त्र वर्गमीलों में)(सहस्त्र वर्गमीलों में)
काश्मीर८४इंग्लैण्ड + आयरलैंड | {{{1}}} |
हैदराबाद८२ ५० + ३ ३ = ८३ |
भारतीय राज्यों का क्षेत्रफल | योरपीय देशों का क्षेत्रफल |
(सहस्त्रवर्ग मीलों में) | (सहस्त्रवर्ग मीलों में) |
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यदि सम्पूर्ण भारत पर अंग्रेज़ों का शासन होता तो भी इससे कुछ सिद्ध नहीं होता। मुख्य प्रश्न यह है कि क्या भारत का एक छत्राधिपत्य में होना स्वाभाविक है। इंगलैण्ड के बाहुबल तथा नीति बल के कारण अंग्रेज़ी टापू एक ही शासन में हैं किन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि आयलैण्ड, स्काटलैण्ड, वेल्स तथा इंग्लैंड के पृथक् पृथक् राज्य होना स्वाभाविक तथा हितकर नहीं है। कुछ दिनों पूर्व पोलैण्ड का राष्ट्र तीन विदेशी राष्ट्रों के अधीन था। उसका अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं रह गया था। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि स्वाभाविक रीति से पोलैण्ड तीन राज्यों में विभक्त होना चाहिए था। स्वाभाविक और अस्वाभाविक राज्यों में क्या भेद है यह हमें अच्छी तरह समझ लेना चाहिए। प्राचीन समय में भी बड़े बड़े साम्राज्य बने हैं जिन्होंने अपनी शक्ति के द्वारा भिन्न भिन्न राष्ट्रों को मिला कर कम से कम कुछ काल तक तो एक केन्द्र से शासन किया है, किन्तु इससे उन साम्राज्यों में सम्मिलित राष्ट्रों के अस्तित्व तथा उनके पृथक् राज्य होने के स्वत्व के विरुद्ध कुछ भी सिद्ध नहीं होता। यदि जापान योरप पर आधिकार कर ले और अपने योरपीय साम्राज्य की राजधानी पेरिस को बनाकर सम्पूर्ण योरप पर सुव्यवस्थित शासन करने लगें, तो इससे यह सिद्ध नहीं होगा कि इंग्लैण्ड, फ्रान्स, जर्मनी तथा इटली इत्यादि देशों के, जो जापानी शासन में कदाचित् प्रान्त कहलायँगे, पृथक् राज्य होना स्वाभाविक नहीं है। योरप पर एक केन्द्र से शासन होना अस्वाभाविक होगा।
यह बात भारत के सम्बन्ध में भी हो सकती है। यह विचार इससे और भी दृढ़ होता है कि प्रायः भारत के बराबर ही क्षेत्रफल के योरप-उपद्वीप में, जहाँ साधारण तथा स्वाभाविक रीति से राष्ट्र विभाजित है, २२ पृथक् पृथक् राज्यशक्ति रखने वाले राष्ट्र हैं। जन संख्या तथा क्षेत्रफल में बृटिश भारत के प्रान्त योरप के इन स्वतंत्र राष्ट्रों से टक्कर लेते हैं। नीची दी हुई तुलनायें पाठकों को अवश्य रोचक मालूम होंगी :—
योरपीय देशों की जन-संख्या
(१९२० के बाद की जन-संख्या के आधार पर)
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करोड़
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लाख
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करोड़
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लाख
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भारत के अंग्रेज़ी प्रान्तों की
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योरपीय देशों की
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करोड़ | लाख | करोड़ | लाख | ||
आगरा कमिश्ररी | ० | ४२ | आयर्लैण्ड | ० | ४२ |
सिन्ध | ० | ३३ | नार्वे | ० | २८ |
गोरख़पुर ज़िला | ० | ३३ | लक्ज़ेम्बर्ग | ० | २॥ |
रामपुर राज्य | ० | ४ | |||
गढ़वाल राज्य | ० | ३ | |||
बनारस राज्य | ० | ३॥ | |||
लखनऊ नगर | ० | २॥ |
नोट :— १. योरप के देशों से तुलना सुविधा के कारण की गई है। इससे यह न समझना चाहिए कि योरप के इन विभागों से प्रभावित होकर लेखक भारत में भी इस तरह के घेरे बनाने के पक्ष में है। अन्य स्वतन्त्र राष्ट्रों से तुलना और भी शिक्षाप्रद होगी। २. यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि योरप के छोटे राष्ट्रों की तुलना भारत के प्रान्तों से नहीं की जा सकती, किन्तु प्रान्तों को कमिश्नरियों, ज़िलों तथा नगरों से करनी पड़ी है।
भारत के प्रान्तीय विभागों के सम्बन्ध में एक अन्य बात भी ध्यान देने योग्य है। कहा जाता है कि ये विभाग केवल शासन की सुविधा के लिए हैं। यदि यह बात ठीक है तो शासन की सुविधा के अनुसार भारत के किसी प्रकार से भी प्रांतिक विभाग करने में कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। परन्तु यह सिद्धान्त कार्य में परिणत करने में बड़ी कठिनाई पड़ी थी। सन् १९०४ में बङ्गाल प्रान्त को शासन की सुविधा के लिए दो प्रान्तों में विभक्त करने पर बड़ा भारी आन्दोलन हुआ था। बङ्गाल के वे दोनों भाग अंग्रेज़ी शासन में ही थे; यह नहीं था कि अंग्रेज़ी सरकार ने पूर्वी बङ्गाल को चीन सरकार को दे दिया हो। यदि ऐसा किया जाता तो भारत को एक राष्ट्र मानने वाले लोगों का आन्दोलन करना उचित होता। वे कह सकते थे कि भारत का प्रत्येक भाग अंग्रेज़ी शासन में रहना चाहिए; उसका किसी दूसरी सरकार को दे देना भारत की राष्ट्रीयता का अपमान करना है। किन्तु भारत में बङ्गाल का पृथक् प्रान्तिक शासन होने का क्या तात्पर्य है? क्या इसका यह अर्थ नहीं है कि राज्य अथवा शासन की दृष्टि से भी भारत में कुछ स्वाभाविक विभाग हैं? ये विभाग केवल भौगोलिक स्थिति अथवा विदेशियों की शासन-सुविधा पर अवलम्बित नहीं हैं, किन्तु इन भागों की प्रजा की इच्छा तथा उनका सुख इनका सच्चा आधार है।
राज्य शासन की दृष्टि से भारत के अन्दर वास्तव में कुछ स्वाभाविक विभाग हैं जो आजकल सम्पूर्ण भारत पर विदेशी शासन होने के कारण स्पष्ट दिखायी नहीं पड़ते। ब्रिटिश प्रान्तों से इनकी कुछ कुछ तुलना की जा सकती है यद्यपि ये सरकारी प्रान्त बड़े अस्वाभाविक ढंग से संघटित हैं। महासभा ने इन्हें अधिक स्वाभाविक रीति से बांटने का यत्न किया है। भारत के इन विभागों का आपस में क्या सम्बन्ध रहेगा या रहना चाहिए, यह प्रश्न पृथक् है। इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि इनको आजकल से तो कहीं अधिक व्यक्तिगत स्वतन्त्रता देनी होगी। भारत जैसे विशाल द्वीप का एक केन्द्र से उत्तम शासन होना अस्वाभाविक, अहितकर तथा असम्भव है। भारत के ये विभाग योरप के राज्यों के समान पूर्ण रूप से स्वतंत्र रहेंगे, अथवा भविष्य में बनने वाले ब्रिटिश-राष्ट्र-संघ के (British Commonwealth) इंगलैंड, कन्नाडा, आस्ट्रेलिया, दक्षिण अफ़्रीका तथा न्यूज़ीलैंड आदि विभागों के समान आपस में सम्बद्ध रहेंगे, अथवा अमेरिका के संयुक्त राज्यों की तरह स्वतंत्र भारत में पृथक् रहते हुए भी एक दूसरे से जकड़े रहेंगे, इन प्रश्नों पर हमें इस समय विचार नहीं करना है। यह राजनीतिज्ञों का क्षेत्र है।
प्राचीन भारत की राज्य व्यवस्था
राज्य शासन के सम्बन्ध में भारत की प्राचीन अवस्था पर भी एक दृष्टि डालना उचित होगा। यहाँ शब्दाडम्बरों से हमें बहुत सावधान रहना चाहिए। पूरे पञ्जाब पर भी अधिकार करने में असमर्थ सिकन्दर 'भारत विजयी महाराज सिकन्दर' कहलाते हैं। हमारा काम इन सुन्दर वाक्यों के दुहराने से नहीं चलेगा। मुसलमान-काल में कई बड़े बड़े साम्राज्य भारत में स्थापित हुए थे किन्तु इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातें ध्यान देने योग्य हैं। मुसलमान सम्पूर्ण भारत पर एक केन्द्र से शासन करने में कभी भी सफल नहीं हुए। उनके साम्राज्य में केवल उत्तर भारत का सका था। दक्षिण तो प्रायः सदा ही स्वतन्त्र रहा। इसके अतिरिक्त राज-पूताना तथा मध्य भारत में हिन्दू राजाओं का शासन था यद्यपि ये दिल्ली के सम्राटों के अधीन अवश्य माने जाते थे। 'भारत के मुगल साम्राज्य' का अर्थ केवल इतना ही है कि भारत के उत्तरी मैदानों के देशों पर मुग़लों का आधिपत्य था। कुछ पर वे सीधे शासन करते थे और कुछ भागों पर पृथक् पृथक् नरेश राज्य करते थे। नर्मदा के दक्षिण के देशों पर दिल्ली से शासन करना मुसलमान काल में सफल नहीं हो सका।
हिन्दू-काल के वर्धन, गुप्त तथा मौर्य वंश के साम्राज्य भी केवल उत्तर भारत के ही साम्राज्य थे। हर्षवर्धन के साम्राज्य में तो पंजाब, सिंध, महाराष्ट्र, उड़ीसा तथा पूर्वी बङ्गाल भी सम्मिलित नहीं थे। गुप्त-साम्राज्य में इन देशों में से कुछ ही पर अधिकार था। औरङ्गजेब के समान सम्राट् समुद्र गुप्त भी नर्मदा के दक्षिण में साम्राज्य की स्थायी नींव डालने में सफल नहीं हो सके थे। ऐतिहासिक काल में महाराज अशोक का साम्राज्य सब से बड़ा था, किन्तु उस समय भी दक्षिण भारत उनके साम्राज्य से बाहर था। दक्षिण भारत के उत्तरी भाग पर कदाचित अधूरा ही अधिकार था। उत्तर भारत में भी कितने पृथक् अधीन राज्य थे इनका विवरण नहीं मिलता है। महाराज अशोक के पूर्व इस प्रकार के साम्राज्यों की प्रथा भारत में नहीं थी। प्राचीन भारत के ये साम्राज्य अस्वाभाविक तो थे हो, इसके अतिरिक्त दुखदायी भी थे। मगधाधिपति महाराज अशोक को कलिङ्ग देश (उड़ीसा) को अपने साम्राज्य में मिलाने के लिए एक लाख उड़िया लोगों की हत्या करनी पड़ी तथा डेढ़ लाख को क़ैद करना पड़ा था। इन संख्याओं से पता चलता है कि उस समय उड़िया लोग अपनी स्वतंत्रता के लिए कितने विकट रूप से लड़े होंगे। इस प्रकार से भारत के प्रत्येक स्वाभाविक राष्ट्र को नष्ट करके साम्राज्य स्थापित करना क्या सच-मुच बड़े गौरव की बात हो सकती है? क्या संसार के वर्तमान साम्राज्यों की तरह उत्तर भारत के ये प्राचीन साम्राज्य भी दुःख-दायी न होंगे?
मौर्य साम्राज्य से पूर्व भारत की अवस्था भिन्न थी। बुद्ध भगवान के समय में केवल उत्तर भारत में ही सोलह स्वतन्त्र बड़े बड़े राज्य थे। महाभारत के समय में भी भारतवर्ष बहुत से स्वतन्त्र राज्यों में विभक्त था। उस समय चक्रवर्ती राजा होते थे, किन्तु उस चक्रवर्तित्व और हिन्दू मुसलमान-तथा वर्तमान काल के साम्राज्यों में बहुत अन्तर है। किसी एक जनपद के राजा के चक्रवर्ती होने का केवल इतना ही तात्पर्य था कि अन्य जनपदों के राजा-गण उस राजा को अपने बीच में सबसे अधिक शक्ति शाली मान लेते थे। जनपदों के स्वतंत्र अस्तित्व रहने में इस चक्रवर्तित्व से कोई कठिनाई नहीं पड़ती थी। कुरु जनपद के महा राज युधिष्ठिर भारत के चक्रवर्ती राजा थे, इस से यह तात्पर्य कदापि नहीं था कि वे इन्द्रप्रस्थ से बैठ कर मगध, पाण्ड्य, सौराष्ट्र इत्यादि जनपदों पर शासन करते थे, किन्तु इसका अर्थ केवल इतना ही था कि इन जनपदों के राजाओं ने कुरु जनपद के राजा को अपने से अधिक शक्तिशाली मान लिया था। युधिष्ठिर या दशरथ इसी प्रकार के राजा थे। यदि कोई साधारण राजा चक्र- वर्ती राजा के अधिक शक्तिशाली होने में सन्देह करता था तो दोनों के बीच में युद्ध होता था। इस अवस्था में हार जाने पर या तो वह राजा दूसरे का चक्रवर्तित्व स्वीकार कर लेता था या युद्ध में मारे जाने पर उस जनपद का राजशासन वहाँ के उत्तराधिकारी को दे दिया जाता था। चक्रवर्ती राज़ा दूसरे जनपदों को अपने राज्य में कभी नहीं मिलाता था। इस बात के सैकड़ों उदाहरण प्राचीन भारत के इतिहास में मिलते हैं। चक्रवर्ती राज्य और साम्राज्य के इस भेद के सदा ध्यान में रखना चाहिए। साम्राज्य का रोग भारत में बौद्ध काल से आरम्भ हुआ। अशोक के साम्राज्य की कुञ्जी धार्मिक दिग्विजय थी, राजनीतिक दिग्विजय नहीं। यह सूक्ष्म भेद बहुत देर नहीं ठहर सकता था। धीरे-धीरे इस साम्राज्य के रोग ने उत्तर भारत के स्वतन्त्र जनपदों के अस्तित्व को नष्ट कर दिया। लोग अपने अपने जनपदों की स्वतन्त्र सत्ता को भूल गए। विदेशियों के आक्रमण के समय इस जनपद या प्राचीन राष्ट्रीय अस्तित्व के नष्ट हो जाने से जो हानि हुई उसका फल आज तक भारतवासी भोग रहे हैं।
भारत में पृथक् राज्य स्थापित होने से आपस में लड़ाई रहा। करेगी, अतः पृथक् राज्य बनाना अनुचित होगा इत्यादि बातें वर्तमान विषय से बाहर की हैं। इस सम्बन्ध में इतना कहना पर्याप्त होगा कि योरप के महायुद्ध के कारण यह कोई नहीं कहता है कि वहाँ के राज्यों को स्वतंत्र नहीं रखना चाहिए, क्योंकि वे आपस में इस भयङ्कर रीति से लड़ते हैं। भारत की आजकल की शान्ति का कारण एक राज्य का होना नहीं है, किन्तु उसकी मृतप्राय अवस्था का होना है। यह शान्ति-निकेतन की शान्ति नहीं है, किन्तु स्मशान की शान्ति है। तात्पर्य यह है कि यद्यपि आजकल भारत में एक राज्य है, किन्तु यह बात अस्वाभाविक है। भारत का एक स्वाभाविक राज्य नहीं हो सकता।
भारतवर्ष में प्रत्येक प्रकार के हानिलाभ की विभिन्नता है
भारतवर्ष की भाषा तथा राज्य-सम्बन्धी एकता के प्रश्न पर विचार करने के उपरान्त राष्ट्र के तीसरे मुख्य लक्षण—हानिलाभ की एकता—पर विचार करना अनुचित न होगा। व्यक्तिगत, सामाजिक तथा प्रादेशिक हानि-लाभ की जितनी विभिन्नता भारत में मिलती है, उतनी कदाचित् ही किसी अन्य एक देश कहलाने वाले भूमि-भाग में मिलती हो। वर्तमान समय में भारत में व्यक्तिगत स्वार्थ की मात्रा दिन दिन बढ़ती जा रही है। इसका दृश्य घरों में विशेष रूप से देखने को मिलता है। जहाँ धन अथवा भूमि के लिए सहोदर भाइयों के आपस में लड़ने के सहस्रों उदाहरण मिलते हो, जहाँ पति-पत्नी, सास-बहू तथा पिता पुत्र की पारस्परिक कलह एक साधारण बात मानी जाती हो, तथा जहाँ पड़ोसी पर विपत्ति पड़ने पर दूसरा पड़ोसी हँसता हुआ दिखलायी दे सकता हो, वहाँ व्यक्तिगत स्वार्थ अत्यन्त बढ़ा-चढ़ा मानना पड़ेगा। व्यक्तिगत स्वार्थ सभी में होता है। योरप के लोगों में भी यह है, किन्तु राष्ट्र का स्वार्थ वे सदा इसके ऊपर रखते हैं। मुसलमानों में भी यह है, किन्तु धर्म के स्वार्थ को वे इस के ऊपर स्थान देते हैं। परन्तु आज कल को भारतीय जनता का आदि तथा अन्त सब व्यक्तिगत स्वार्थ में ही है।
सामाजिक हानि-लाभ की एकता पर भी आजकल भारत के लोगों का ध्यान नहीं है। समाज का संगठन ही ऐसा है कि उस पर ध्यान नहीं दिया जा सकता है यह बात कुछ उदाहरणों से स्पष्ट हो जावेगी। मान लीजिये यदि वर्तमान अंग्रेज़ी सरकार ऐसा नियम बना दे कि ब्राह्मण जाति के लोगों को सरकारी नौकरी नहीं मिलेगी, तो इस से अन्य जाति के भारतीयों की कोई हानि न होगी। वास्तव में उनका लाभ ही होगा, क्योंकि जो स्थान खाली होंगे, वे इन अन्य जाति वालों के हिस्से में पड़ेंगे। यदि इस सम्बन्ध में भारत में आन्दोलन हुआ, तो स्वाभाविक है कि केवल ब्राह्मण ही उसमें भाग लेंगे। हाँ, अपने इस स्वार्थ के कारण, कि आज तो ब्राह्मणों के सम्बन्ध में ऐसा नियम बना है कल को कहीं हम लोगों में से किसी जाति के सम्बन्ध में भी ऐसा नियम न बन जाय, यदि अन्य जाति के लोग कुछ सहानुभूति प्रकट करें तो यह दूसरी बात है। एक दूसरा उदाहरण लीजिए। मान लीजिए कि किसी सरकारी दफ्तर में अग्रवाल वैश्य हेड-क्लर्क है और किसी कुरमी की अर्ज़ी किसी क्लर्क की जगह के लिए आती है। इस अवस्था में हेड क्लर्क महोदय का यह प्रयत्न करना कि वह कुरमी उस स्थान पर न हो कुछ आश्चर्यजनक नहीं समझना चाहिए। उनकी विचारशैली कुछ निम्न प्रकार को होगी। 'एक दूसरा अग्रवाल ठिकाने लग जाता तो अच्छा था। अगर किसी अग्रवाल भाई का हम से भला न हुआ, तो हमारे यहाँ रहने से लाभ ही क्या है? फिर दूसरे अग्रवाल के आजाने से दफ्तर में उठने-बैठने तथा खाने-पीने का भी आराम हो जायगा। यदि यह अपने मोहल्ले में रहने को आ गया तो मेल का दूसरा घर हो जायगा, जो समय कुसमय काम आवेगा। आगे भी अपनी विरादरी वालों के बाल-बच्चों की तरक्की करने का सहारा मिलेगा। कुरमी के साथ न खुलकर उठ-बैठ सकते हैं, न खा-पी सकते हैं; न रंज[१] और ख़ुशी में सच्ची सहायता कर सकते हैं।' भारत के वर्तमान सामाजिक संगठन के अनुसार यह विचारशैली बिलकुल ठीक है। परन्तु विचारणीय बात तो यह है कि जिस देश में इस प्रकार की सहस्रों जातियाँ हों, वहां सामाजिक हानि-लाभ की एकता कैसे कही जा सकती है।
मध्य कालीन भारत में भी इस सामाजिक विभिन्नता के कारण देश में ऐक्य होने में सदा बाधा रही। यह विभिन्नता ही मुख्य कारण थी, जिस से निकट ऐतिहासिक काल में विदेशियों को भारत पर अधिकार करने में सहायता मिली। युद्ध का कार्य्य क्षत्रिय जाति का माना जाता था। देश की रक्षा के लिए तो नहीं, किन्तु अपने राज्यों की रक्षा के लिए ये क्षत्रिय जान तोड़ कर विदेशियों से लड़ते थे। यदि युद्ध में क्षत्रियों की विजय हुई तब तो ठीक है, नहीं तो इनका राज्य विदेशी छीन लेते थे और बचे हुए क्षत्रिय देश छोड़ कर चले जाते थे। प्रजा चुपचाप विदेशियों के शासन को स्वीकार कर लेती थी। ब्राह्मण कदाचित सोचते थे कि हमारा धर्म तो पठन-पाठन का है। "स्वधर्मे निधनं श्रेयः परधर्मो भयावहः" क्षत्रिय युद्ध करें। यदि ये हार गये, तो हम क्या कर सकते हैं! किसान सोचते थे कि हमें तो सदा खेती करना और किसी दूसरे को कर देना है—"कोउ नृप होउ हमहि का हानी"। यदि किसान क्षत्रियों को सहायता देते भी और विदेशियों को पराजित करने में सफल होते, तो भी क्या ये विजेता-किसान समाज की दृष्टि में सच्चे राजा, सरदार अथवा सिपाही हो सकते थे? कदापि नहीं। ऐसी अवस्था में ब्राह्मण इन लोगों को क्षत्रिय बन्धु कह कर अपमान करने को उद्यत रहते। क्षत्रिय कहते कि हल की मुठिया छोड़ तलवार की मूंठ पकड़ना क्या कभी किसान को आ सकता है? स्वयं किसान ही इन देश रक्षकों को द्वेष तथा घृणा की दृष्टि से देखत। शूद्रों तथा अन्य "नीच जातों" का तो कहना ही क्या है—इनका तो सदा सेवा करना ही धर्म है।
ये सब केवल कल्पित विचार मात्र नहीं हैं। भारत के
- ↑ भारत की कुछ जातियों में ऐसा भी नियम है कि मृतक शरीर को दूसरी जाति के लोग नहीं छू सकते।