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हिन्दी-राष्ट्र या सूबा हिन्दुस्तान/राष्ट्र के लक्षण

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हिन्दी राष्ट्र

या

सूबा हिन्दुस्तान

१. राष्ट्र के लक्षण

राष्ट्र शब्द की परिभाषा

आजकल राष्ट्र (Nation) शब्द का प्रयोग बहुत होता है। किन्तु इसका ठीक अर्थ क्या है इस पर बहुत कम ध्यान दिया जाता हैं। राजनीति-शास्त्र के पण्डितों के मत में 'राष्ट्र उस जनसमुदाय का नाम है जिसमें लोगों की स्वाभाविक समानताओं के बन्धन ऐसे दृढ़ और सच्चे हों कि वे एकत्र रहने से सुखी व अलग अलग हो जाने से असन्तुष्ट रहें, और ऐसी समानताओं के बन्धनों से असम्बद्ध अन्य लोगों की पराधीनता को सहन न कर सकें।' देश (country), राज्य (State), वर्ग (Race) तथा धर्म (religion) से राष्ट्र भिन्न है, यद्यपि ये सब राष्ट्र के आवश्यक अङ्ग अवश्य हैं। मनुष्य-समाज के संगठन में परिवार और ग्राम तथा पुर के बाद राष्ट्र का स्थान है। राष्ट्र के बाद राष्ट्र संघ और सम्पूर्ण मनुष्य समाज की कल्पना होती है। इन स्वाभाविक समानताओं के बन्धन निम्नलिखित हो सकते हैं :—

(१) देश-सम्बन्धी एकता (२) हानि लाभ की एकता (३) राज्य की एकता (४) भाषा की एकता (५) धर्म्म की एकता (६) वर्ग को एकता और (७) इस एकता का अभिमान जो ऐतिहासिक पूर्वजों के गौरव व अन्य ऐसे ही कारणों से उत्पन्न होता है।

पहला लक्षण : देश सम्बन्धी एकता

सब से प्रथम स्थान देश-सम्बन्धी एकता का है। एक राष्ट्र कहलाने वाले जन-समुदाय का संसार में कोई देश या भूमि-भाग अवश्य होना चाहिए। देश राष्ट्र-रूपी व्यक्ति का शरीर है जिसके बिना राष्ट्र की कल्पना करना हो दुस्तर है। संसार के इतिहास में यहूदियों के समान बहुत से ऐसे अभागे समुदायों का वर्णन मिलता है जो अपने देश के छिन जाने से बिना घर के आदमी की तरह संसार में मारे मारे फिरते हैं। इनका बल दिन-दिन क्षीण होता जाता है और यदि ये किसी नये देश को अपना घर नहीं बना लेते हैं तो इनके समूल नष्ट होने में अधिक दिन नहीं लगते। एक राष्ट्र के व्यक्ति यदि थोड़े दिनों के लिये दूसरे देश में चले जावें तो इससे कोई हानि नहीं होती। परिवार में भी तो अतिथि आया जाया करते हैं। भारत में शासन के लिये कुछ समय को आने से अंग्रेज़ों को राष्ट्रीयता पर कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। दूसरे देश में सदा के लिये बस जाने से धीरे धीरे राष्ट्रीयता में परिवर्तन हो जाता है। विवाहिता कन्या अपने पति के घर की बातें सीख लेती है और फिर उसी को वह अपना घर मानने लगती है। अमेरिका के संयुक्त राज्य में बसा हुआ अँग्रेज़ अपने को अमेरिकन समझता है, अंग्रेज़ नहीं।

इस देश-सम्बन्धी एकता में प्राकृतिक अवस्था से बहुत सहायता मिलती है। इसका प्रभाव भी लोगों के आचार-विचार पर बहुत पड़ता है। पहाड़, मैदान, जंगल, रेगिस्तान तथा सर्द और गर्म देशों के रहने वाले अपनी-अपनी विशेष आवश्यकताओं के कारण एक दूसरे से भिन्न होते हैं। राष्ट्र के लोगों का विकास तथा बल देश में आने-जाने की सुविधाओं पर भी बहुत कुछ अवलम्बित रहता है। यदि आने-जाने की सुविधा अधिक है तो लोगों का ऐक्य सुदृढ़ होगा। जितने भूमि-भाग में लोग आसानी से मिलजुल सकेंगे उतना ही देश स्वाभाविक रीति से एक राष्ट्र हो सकेगा। इसी कारण से पहाड़ी प्रदेश में राष्ट्र छोटे होते हैं और मैदानों में बड़े होते हैं। प्राचीन काल में, जब आने-जाने की सुविधाएँ कम थीं, राष्ट्र छोटे छोटे होते थे। आजकल वे बड़े होते हैं। किन्तु राष्ट्रीयता के लिये देश की प्राकृतिक विभिन्नता प्रत्येक अवस्था में बाधक नहीं होती है। एक राष्ट्र में मैदान व पहाड़, जंगल व रेगिस्तान, सर्द व गर्म सब प्रकार के भूमि-भाग थोड़े बहुत हो सकते हैं, यद्यपि किसी एक की प्रधानता साधारणतया अवश्य होनी चाहिये।

दूसरा लक्षण : हानि-लाभ की एकता

राष्ट्र का दूसरा तथा प्रधान लक्षण जन-समुदाय के हानि-लाभ का एक होना है। एकता के अन्य बन्धनों के होते हुए भी अर्थसम्बन्धी बन्धन मुख्य है। संसार के इतिहास में यद्यपि धर्म का प्रभाव सर्व प्रधान दिखलाई पड़ता है, किन्तु अर्थ के आगे वह भी गौण हो जाता है। अर्थ के बन्धन में बँधे हुये भीष्मपितामह और द्रोणाचार्य जैसे गुरु-जन भी अधर्म करने को उद्यत हो गये थे। अर्थ-सम्बन्धी एकता होने से राष्ट्र में धन के बढ़ जाने से उसका प्रभाव सम्पूर्ण जन-समुदाय पर पड़ता है तथा घट जाने से राष्ट्र का प्रत्येक व्यक्ति उसका अनुभव करता है। भारतवर्ष का विशाल राज्य मिल जाने से इंगलैंड के संपूर्ण जन-समुदाय की आर्थिक अवस्था सुधर गई; किन्तु फ़्रांस पर इसका कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ा, क्योंकि वह भिन्न राष्ट्र है। पिछले महायुद्ध में हार जाने से जर्मनी को जुर्माने का रुपया देना पड़ रहा है; उसको प्रत्येक जर्मन अनुभव करता है। इस जुर्माने में जो अंश फ़्रांस को मिलता है उसका उपयोग फ़्रांस के राष्ट्रीय कार्यों में किया जा रहा है जिससे प्रत्येक फ़्रांसीसी को लाभ पहुँचता है। इस आर्थिक हानि-लाभ के भिन्न होने के कारण फ़्रांस तथा जर्मन राष्ट्र बिलकुल भिन्न हैं। इतिहास के पढ़ने वाले जानते ही हैं कि इंगलैंड और फ़्रांस की पुश्तैनी दुश्मनी में आर्थिक विभिन्नता एक मुख्य कारण है।

राष्ट्र के हानि-लाभ का प्रभाव प्रत्येक व्यक्ति पर बराबर नहीं पड़ता है। यह व्यक्ति को विशेष परिस्थिति के ऊपर निर्भर होता है। परिवार में एक व्यक्ति कमा कर लाता है तथा दूसरे लोग उसका उपयोग करते हैं। बच्चे व बुड्ढे बिना कुछ सहायता दिये ही व्यय करते हैं, लेकिन इस कारण उनसे कोई द्वेष नहीं करता। सम्पूर्ण परिवार के लिये अन्त में जो बात लाभकर होती है उसी पर सब लोगों का ध्यान रहता है। ठीक यही अवस्था राष्ट्र की भी है। प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी शक्ति के अनुसार राष्ट्र के कार्य में सहायता देता है, और उस व्यक्ति की साधारण आवश्यकताओं को पूर्ण करने का भार राष्ट्र पर रहता है। राष्ट्र में भी कुछ लोग पूंजी के समान होते हैं और कुछ को पेन्शन देनी होती है। हानिलाभ की विभिन्नता का यह तात्पर्य नहीं है कि एक राष्ट्र दूसरे राष्ट्र से लड़ता रहे। प्रत्येक परिवार का आय-व्यय अलग होता है किन्तु इस कारण से परिवारों में आपस में झगड़ा रहे यह आवश्यक नहीं है। हाँ, यदि एक परिवार के लोग किसी दूसरे परिवार के धन की ओर कुदृष्टि से देखेंगे तो झगड़ा होना स्वाभाविक है।

तीसरा लक्षण : राज्य की एकता

जैसे देश राष्ट्र का शरीर है वैसे ही राज्य-शक्ति राष्ट्र का शारीरिक बल है। राष्ट्र के प्रत्येक अंग को नियमित रूप से चलाने और सुरक्षित रखने के लिये राज्य-शक्ति नितान्त आवश्यक है। यदि राष्ट्र का अपना दृढ़ राज्य नहीं है तो राष्ट्र का प्रत्येक अंग निर्जीव हो जायगा, देश के टुकड़े टुकड़े हो जायेंगे और सम्पत्ति अन्य राष्ट्र छीन लेंगे। राष्ट्र-भाषा मरने लगेगी; धर्म का नाश होने लगेग तथा सामाजिक सङ्गठन जड़ से हिल जायगा। जिस राष्ट्र में स्वराज्य है वहां के व्यक्ति को कौन आँख उठा कर देख सकता है? संपूर्ण राष्ट्र की शक्ति अद्दष्ट रूप से उसकी रक्षा करती है। यही कारण है कि संसार के इतिहास में अगणित जन-समुदाय स्वराज्य के लिये अपने को न्यौछावर करते आये हैं। दूसरे के घर का न्याय-पूर्वक प्रबन्ध करना आजकल तो संभव नहीं है। कदाचित कभी भी संभव नहीं हो सकता।

चौथा लक्षण : भाषा की एकता

चौथा स्थान भाषा की एकता का है। भाषा की एकता राष्ट्र के व्यक्तित्व का सबसे बड़ा चिन्ह है। राष्ट्र का प्रत्येक कार्य भाषा के द्वारा चलता है। साहित्य, विज्ञान, धर्म और राजनीति इन सब की शिक्षा भाषा के द्वारा ही होती है; अतः एक भाषा-भाषी लोगों में एक से विचारों का फैलना स्वाभाविक है। राष्ट्र की भाषा वही है जिसे अमीर-ग़रीब, स्त्री-पुरुष, पढ़े-बेपढ़े, शहर वाले व गाँव वाले सब समझते हों। राष्ट्र के लाभ के लिये या विद्या-प्रेम के कारण थोड़े व्यक्ति विदेशी भाषाओं को सीख सकतें हैं, किन्तु राष्ट्र की भाषा वही रहेगी जिसमें गाकर कवि गण राष्ट्र के गाँव-गाँव में आपनी वाणी पहुँचाते हैं, धर्माचार्य घर-घर उपदेश देकर लोगों को धर्म पथ पर आरूढ़ करते हैं, जिसके द्वारा सुधारक आन्दोलनकारी विचारों को फैलाते फिरते हैं, इतिहासज्ञ पुराना गौरव बता कर राष्ट्र को उत्साहित करते हैं और राजनीतिज्ञ राष्ट्र के हानि-लाभ को राष्ट्र के प्रत्येक व्यक्ति के सामने रखने में समर्थ होते हैं।

अन्य अंङ्गों में समानता न होने से एक भाषा बोलने वाले लोग कई राष्ट्रों में विभक्त हो सकते हैं; किन्तु भिन्न भिन्न भाषायें बोलने वाले समुदायों का एक राष्ट्र के रूप में सङ्गठित होना असाधारण तथा अस्वाभाविक है।

पांचवां लक्षण : धर्म्म की एकता

इन चार मुख्य बन्धनों के अतिरिक्त कुछ और भी ऐसे बन्धन हैं जिनके होने से राष्ट्र सुदृढ़ हो जाता है तथा व्यक्तिगत जीवन शान्ति, प्रेम और सुख से कटता है। इनमें प्रथम स्थान धर्म की समानता का है। व्यक्ति की तरह राष्ट्र की आत्मा के लिये भी धर्म की आवश्यकता होती है। राष्ट्र में जितने ही अधिक व्यक्ति एक से धार्मिक विचार रखने वाले होंगे उतनी ही अधिक सुविधा से वे एक साथ रह सकेंगे। धर्म के साथ आचार-विचार, सामाजिक संगठन तथा साहित्य आदि का विशेष सम्बन्ध होता है। यही कारण है कि धर्म के एक होने से राष्ट्र की नीव अधिक सुदृढ़ हो जाती है। कई धर्म होने पर भी एक राष्ट्र हो सकता है, किन्तु यदि एक-धर्मावलम्बी प्रधान रूप से होंगे तो आपस में मेल की संभावना और भी अधिक होगी।

छटा लक्षण : वर्ग की एकता

इन गौण बातों में दूसरा स्थान वर्ग की एकता का है। व्यक्ति या परिवार जिस प्रकार अपने शुद्ध रक्त का गौरव करता है वैसे ही राष्ट्र भी कर सकता है। लोगों के एक ही नसल के होने से राष्ट्र की एकता और भी अधिक दृढ़ हो जाती है; किन्तु राष्ट्रीयता के लिये वर्ग की एकता अपरिहार्य नहीं है।  

अन्तिम लक्षण : राष्ट्रीयता का भाव

इन सब अंगों के होते हुए भी एक बात ऐसी है जिसके अभाव से राष्ट्र-रूपी शरीर बिना आत्मा का कहना चाहिए। यह बात जन-समुदाय में इस विचार का होना है कि "हम एक हैं"। इसे राष्ट्रीयता का भाव कह सकते हैं। जन-समुदाय में इस भाव का जाग्रत रूप में होना एक-साथ सुख-दुःख उठाने से उत्पन्न होता है। जहाँ श्रीमान् से लेकर कङ्गाल तक का रक्त एक में मिल कर बहता है, जहाँ अवसर पड़ने पर एक ही रूखी रोटी का टुकड़ा अमीर और गरीब दोनों बाँट कर खाते हैं, जहाँ किसी एक ही पूर्वज का नाम लेने से विद्वान् और अनपढ़ दोनों के हृदय वेग से घड़कने लगते हैं वहाँ समझना चाहिये कि राष्ट्रीयता का भाव जीवित अवस्था में वर्तमान है।

राष्ट्रीयता का यह भाव चिरकाल तक तभी स्थायी रह सकता है जब प्रत्येक व्यक्ति को, उसकी योग्यता के अनुसार, राष्ट्रीय कार्यों के सम्पादन का समान रीति से अवसर मिलता रहे। आर्थिक स्थिति, विशेष धर्म का अवलम्बन तथा किसी विशेष जाति अथवा कुल में उत्पत्ति इस समानता में बाधक नहीं होनी चाहिये। यदि सेनापति अथवा मंत्री की योग्यता रखने वाला व्यक्ति इस कारण से इन स्थानों के लिये नहीं चुना जा सकता कि वह ज़मीदार या कुलीन नहीं है तो ऐसा राष्ट्र बहुत दिन नहीं ठहर सकता। राष्ट्र के परिपक्व हो जाने पर राष्ट्रीयता का रूप छोटी छोटी बातों में भी प्रकट होने लगता है। सब लोगों का खान-पान, रहन-सहन, कपड़े लत्ते आदि एक ही साँचे में ढलने लगते हैं। इन बातों की समानता राष्ट्रीयता के भाव को उत्तेजित करने तथा उसे प्रत्यक्ष रूप देने में सहायक होती है।

विद्वानों का मत है कि देश, अर्थ, राज्य, भाषा, धर्म, वर्ग तथा ऐतिहासिक गौरव की समानताओं से बँधे हुए प्रत्येक जन-समुदाय को स्वतंत्र और पृथक् रहने का जन्म-सिद्ध अधिकार है।