हिन्दुस्थानी शिष्टाचार

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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार  (1927) 
द्वारा कामता प्रसाद गुरु

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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार


लेखक

कामताप्रसाद गुरु




प्रकाशक

रामनरायन लाल

पब्लिशर और बुकसेलर

इलाहावाद

१९२७

मूल्य ॥)

[ भूमिका ]इस विषय की एक दो पुरानी तथा अप्रचलित पुस्तकों को छोड़ अन्यान्य उपयुक्त पुस्तकों का अभाव देखकर हमने इस पुस्तक को लिखने का साहस किया है। समाज की सभ्यता की बढ़ती के साथ साथ उसमे शिष्टाचार की सूक्ष्मता की भी वृद्धि होती है, इसलिए यह आवश्यक है कि उसके शिष्टाचार के नियम व्यवस्था पूर्वक संगृहीत किये जाएँ। यह पुस्तक इसी उद्देश्य से लिखी गई है और आशा है कि जब तक इससे अधिक उपयुक्त संग्रह का अभाव है तब तक पाठक-गण इसे उदारता की दृष्टि से देखेंगे।

इस पुस्तक में इसके नाम के अनुसार हिदुस्थानी समाज के शिष्टाचार का विवेचन किया गया है। "हिन्दुस्थानी" शब्द से बहुधा हिन्दी भाषा भाषी तथा उस समाज की व्याप्ति अभिप्राय है जिसका नाम भौगोलिक "हिन्दुस्थान" शब्द से व्युत्पन्न हुआ है। यद्यपि हिन्दुस्थानी शिष्टाचार के नियम “हिदुस्थान” के प्राय सभी भागों में एक ही हैं, तथापि स्थान भेद से थोड़ा बहुत अन्तर पड़ने की संभावना है। ऐसी अवस्था मे पाठक लोग यह समझ लेने की कृपा करें कि अमुक एक रीति किसी न किसी हिन्दी भाषी स्थान में अवश्य प्रचलित है ये नियम संभवत दूसरे प्रदेशो में भी प्रचलित हो।

शिष्टाचार के जो नियम इस पुस्तक में लिखे गये हैं उनमें से थोड़े-बहुत मुसलमानी तथा अँगरेजी शिष्टाचार के अनुकरण के फल-स्वरूप हैं। तो भी पिछले दोनों शिष्टाचारों की अस्वाभाविक चरम सीमा से ये नियम मुक्त हैं—अर्थात् इनमें अपने को
[ भूमिका ]"कम तरीन" कहना ओर पिता को "धन्यवाद" देना नहीं बताया गया है।

शिष्टाचार के जितने स्थान और अवसर हैं उन सबका ऐसा पूर्ण और निश्चित विवेचन करना कि कोई बात छूटने न पावे, प्रथम प्रयास में—विशेष कर हमारे लिए—कठिन है। तथापि जो कुछ अगले पृष्ठों में लिखा गया है उससे साधारणतया व्यवहारी काम-काज सन्तोष पूर्वक चल सकता है और शिष्टाचार की महत्ता तथा आवश्यकता सूचित हो सकती है।

इस संग्रह में कहीं-कहीं पुनरुक्ति दोष आगया है जिसका कारण यह है कि किसी एक व्यवहार का काम अनेक अवसरो पर पड़ता है और उस प्रसंग पर उसका उल्लेख करना आवश्यक होता है। आशा है, हिन्दुस्थानी समाज की वर्तमान परम्पर-उदासीन परिस्थिति में इस पुस्तक से लोगो में कुछ मेल-जोल बढ़ेगा।

कामताप्रसाद गुरु।


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[ विषय-सूची ]

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विषय

प्रथम अध्याय—शिष्टाचार का स्वरुप—
[१] शिष्टाचार का लक्षण और महत्व
[२] शिष्टाचार और सदाचार
[३] शिष्टाचार और चापलूसी
[४] शिष्टाचार और स्वाधीनता
[५] शिष्टाचार और सत्यता
[६] शिष्टाचार के साधन

दूसरा अध्याय—प्राचीन आर्य शिष्टाचार—
[१] वैदिक काल में
[२] रामायण काल में
[३] महाभारत काल में
[४] स्मृति-काल में
[५] पौराणिक काल में

तीसरा अध्याय—आधुनिक हिन्दुस्तानी शिष्टाचार के भेद-
[१] सामाजिक शिष्टाचार
[२] व्यक्तिगत शिष्टाचार
[३] विशेष शिष्टाचार

चौथा अध्याय—सामाजिक शिष्टाचार-
[१] सभाओं और पाठशालाओं में
[२] भीड़ मेलों तथा रास्तो में

पृष्ठ







१०



१३
१५
१६
१८
१९



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२३
२३


२५
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[ विषय-सूची ]

विषय
[३] मन्दिरो में
[४] भोजों में
[५] उत्सवों में
[६] व्यवसाय में
[७] वेश-भूषा में
[८] प्रवास में
[९] श्मशान यात्रा में
[१०] जातीय-व्यवहार में
[११] पचायत मे
पाँचवाँ अध्याय—व्यक्तिगत शिष्टाचार—
[१] सम्भाषण में
[२] पत्र-व्यवहार में
[३] भेंट-मुलाकात में
[४] परस्पर-व्यवहार मे
[५] गुण-कथन मे
[६] पहुनई और अतिथि सत्कार में
[७] शारीरिक शुद्धि मे
[८] शारीरिक क्रियाओं में
[९] स्वाभाविक क्रियाओं में
छठा अध्याय—विशेष-शिष्टाचार—
[१] स्त्रियों के प्रति
[२] बड़ो और बूढो के प्रति
[३] छोटो के प्रति
[४] दीनो और रोगियो के प्रति
[५] मित्रों के प्रति

पृष्ठ
३१
३३
३७
४२
४४
४९
५२
५४
५८


६१
६७
७३
७७
७९
८२
८६
८९
९२


९५
९८
१००
१०२
१०७

[ विषय-सूची ]

विषय
[ ६] विद्वानों और साधुओं के प्रति
[ ७] राजा और अधिकारियो के प्रति
[ ८] पड़ोसी के प्रति
[ ९] सेवकों के प्रति
[१०] अछूतों के प्रति
[११] प्रार्थियों के प्रति
[१२] सम्पादकीय
[१३] सार्वजनिक
[१४] बाल शिष्टाचार
सातवां अध्याय——
[ १] विदेशी चाल ढाल
[ २] विदेशी भाषा
[ ३] विदेशी धर्म

पृष्ठ
१११
११४
११७
१२०
१२२
१२४
१२६
१३०
१३३


१३८
१४१
१४५


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