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हिन्दुस्थानी शिष्टाचार/शिष्टाचार का स्वरूप

विकिस्रोत से
हिन्दुस्थानी शिष्टाचार
कामता प्रसाद गुरु

इलाहाबाद: रामनरायन लाल, पृष्ठ १ से – १२ तक

 

प्रथम अध्याय

शिष्टाचार का स्वरूप

(१) शिष्टाचार का लक्षण और महत्व

‘शिष्टाचार' शब्द का अर्थ ‘शिष्ट (सभ्य) लोगो का बर्ताव' है। शिष्टाचार में उन सब आचरणों का समावेश होता है जो शिक्षित जनो के योग्य समझे जाते हैं और जिनके व्यवहार से किसी समाज वा व्यक्ति को अपना काम-काज स्वतनता पूर्वक करने का सुभीता रहता है और उसके मन को सन्तोष तथा आनन्द प्राप्त होता है । इस लक्षण के अनुसार दूसरे को अपने काम में सुभीता और संतोष पहुँचाना ही शिष्टाचार का मुख्य उद्देश है। यदि कोई समाज या व्यक्ति ऐसा काम करता हो जिसे अधिकाश लोग अनुचित समझते हैं तो केवल शिष्टाचार के अनुरोध से अन्य समाज या व्यक्ति उस अनुचित कार्य मे हस्तक्षेप नहीं कर सकता । ऐसे अनुचित कार्यों के रोकने के लिए व्यक्ति, समाज अथवा सरकार को अपने अन्य कर्त्तव्यों या अधिकारो का उपयोग करना आवश्यक होता है। यद्यपि इन कर्त्तव्यो और अधिकारों का विवेचन करना इस पुस्तक का उद्देश्य नहीं है, तो भी इस विषय में शिष्टाचार का यह उपयोग हो सकता है कि अनुचित कार्य करने वाले के साथ बातचीत और व्यवहार करने में दूसरा मनुष्य ऐसा बर्ताव करे जिससे उस व्यक्ति को बिना कारण मानसिक वा शारीरिक कष्ट न

पहुंँचे, पर परोक्षरूप से उसे अपनी दुष्कृति पर थोड़ा-बहुत पश्चात्ताप अवश्य हो । शिष्टाचार शिष्ट लोगों का प्राचार है, अतएव इस विषय के साथ बहुधा “शठ प्रति शाठ्य" अथवा “काटे के बदले फूल" की नीति का विचार नहीं किया जा सकता। सभ्य व्यवहार किसी को दण्ड देने वा उससे बदला लेने से विशेष सम्बन्ध नहीं रखता । नीति के व्यावहारिक उपयोग के समान शिष्टाचार का मुख्य उद्देश्य यही है कि मनुष्य दूसरे के साथ वैसा ही बत्ताव करे जैसा वह उससे अपने साथ कराना चाहता है।

आजकल शिष्टाचार का एक भ्रामक अर्थ प्रचलित है, अर्थात् शिष्टाचार को लोग इन दिनो चापलूसी अथवा ऊपरी कपट-पूर्ण नम्रता समझने लगे हैं। “सत्य हरिश्चन्द्र" और “मुद्राराक्षस नाटको में यह शब्द इसी अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । ‘गुरु', महात्मा, चतुर आदि शब्दो के समान ‘शिष्टाचार' भी काल-चक्रानुसार अर्थ दोष से दूषित हो गया है। परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ में ‘शिष्टाचार' शब्द का प्रयोग बहुधा धान्यार्थ ही में हुआ है, अतएव बिना किसी विशेष कारण के इसका दूसरा कोई अर्थ ग्रहण करना अनुचित होगा। कभी कभी शिष्टाचार से विनय और नम्रता की उस चरमावस्था का भी अर्थ लिया जाता है जो मुसलमानी ‘तकल्लुफ' शब्द से सूचित होती है, जिसके कारण यह कहावत प्रचलित हुई है कि “आप आप करने में गाड़ी चल दी"* इस अर्थ में भी यहाँ


  • लखनऊ के स्टेशन पर दो चार शिक्षित मुसलमान महोदय रेल से प्रवास करने के लिए खडे थे। जब गाड़ी स्टेशन पर आई तब वे लोग ‘तकरलुफ' की उमंग में एक दूसरे से कहने लगे कि किबला, आप पहले बैठिये, हजरत, आप पहले सवार हूजिये। अशिष्ट कहलाने के भय से किसी ने भी गाड़ी में पहले सवार होना ठीक नहीं समझा और उन लोगों में कुछ समय तक इसी प्रकार शिष्टाचार का व्यवहार होता रहा। इतने में गाड़ी चल दी और वे लोग वहीं खडे रह गये।

    शिष्टाचार का विचार किया जायगा। शिष्टाचार का मूल अर्थ

जो शिष्टा का आचार है उसी की दृष्टि से हम इस विषय का विवेचन करने का प्रपक्ष करेंगे।

शिष्टाचार धर्म के समान (और उसी के अन्तर्गत ) मनुष्य का एक विशेष चिह्न है। इस गुण से मनुष्य की शिक्षा, सुरुचि और सभ्यता का परिचय मिलता है। शिष्टाचार व्यक्ति अपने कुल जाति और देश की एक शोभा है। शिष्टाचार से अधिकांश मनुष्य के स्वभाव की भी जांच हो जाती है। इस गुण का पालन करने-वाले के प्रति लोगों का श्रद्धा, विश्वास ओर आदर होता है और वह अपने गुणो से दूसरो में भी यही गुण उत्पन्न करने की क्षमता रखता है । विनय और नम्रता में ऐसा प्रभाव है कि यदि मनुष्य इनका उपयोग अपने आत्म-गौरव के साथ साथ करे तो एक बार उसका शत्रु भी पूर्व-संस्कार छोड़कर उसके गुणों पर मुग्ध हो सकता है। विनयी व्यक्ति के साथ अगिष्ट मनुष्य भी सहसा अशिष्टता का व्यवहार करने का साहस नहीं कर सकता । शिष्ट व्यवहार मनुष्य के अस्थिर चित्त को शांत कर उसे विचार करने का अवसर देता है और उससे अपनी भूलों पर सहर्ष पश्चाताप भी करा सकता है। सारांश यह है कि शिष्टाचार शील के समान मनुष्य का एक भूषण है।

जो शिष्टाचार सोभा से अधिक हो जाता है उससे बहुधा दोनों और हानि होती है । इस अवस्था में मनुष्य या तो सकोंच के कारण स्वयं अड़चन में पड़ता है अथवा अति शिष्टाचार से वह अपने व्यवहारी को अप्रसन्न कर देता है । अतएव अति शिष्टाचार की अवस्था से बचने को सदैव चेष्टा करनी चाहिये और यदि इस विष भावस्था से किसी समय विशेष हानि होने की संभावना हो तो उस समय शिष्टाचार का थोड़ा-बहुत अपकर्ष क्षमा के योग्य है । इस

विषय को एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करना आवश्यक जान पड़ता है। मान लीजिए कि यदि आप अपने मित्र के यहाँ किसी आवश्यक कार्य के अनुरोध से ऐसे समय जा पहुँचें जब वह स्नानभोजन आदि के विचार में हो, तो उस समय आपको उससे कष्ट के लिए क्षमा मांगकर तुरन्त यह स्पष्ट कह देना चाहिये कि हम विवश होकर आपको इस समय कष्ट दे रहे हैं। पश्चात् शीघ्र ही अपना काम निपटाकर उसके पास से चले आना चाहिये। यदि आप स्वार्थ वश कुछ अधिक समय तक वहाँ ठहरकर अपने मित्र के कार्य में अड़चन उत्पन्न करेंगे तो सम्भव है कि आपका मित्र संकोच को त्याग कर आपके जाने के लिए कुछ ऐसा संकेत कर देवे जिससे आपको खेद हो और आप दोनों के मनो में थोड़ा-बहुत बेमनस्य हो जाय। फिर यदि आपका मित्र अतिशिष्टाचार के अनुरोध से आपके आगमन को अपना अहोभाग्य प्रगट करे तो उस दशा में भी आपको बुरा लगेगा।

( २ ) शिष्टाचार और सदाचार

शिष्टाचार सदाचार का एक अंग है और एक से दूसरे का अभ्यास तथा वृद्धि होती है । तथापि इन दोनो विषयों में बहुत-कुछ अन्तर है । सदाचार का धर्म से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है और उसको अवहेलना करना पाप समझा जाता है, परन्तु शिष्टाचार का सम्बन्ध बहुधा समाज अथवा व्यक्ति के सुभीते तथा सन्तोष से है और उसकी अवज्ञा पाप के समान गर्हित नहीं मानी जाती, यद्यपि उससे दूसरे लोग सहज में अप्रसन्न हो सकते हैं । सदाचार सर्वत्र और सर्वदा अटल है, परन्तु शिष्टाचार में देश, काल और पात्र के अनु सार परिवर्त्तन हो सकता है । इसके अतिरिक्त सदाचार का अभ्यास एक कठिन कार्य है, पर शिष्टाचार के अभ्यास में विशेष कठिनाई नहीं है । सदाचार की अवहेलना से भयकर आत्मिक परिणाम उप-

स्थित हो सकते हैं, पर शिष्टाचार के अभाव में सहसा वैसा भविष्य नहीं हो सकता। सदाचार के अभाव में लोग बहुधा एक-दूसरे के विरुद्ध नहीं हो जाते, पर शिष्टाचार के अभाव में ऐसा प्रायः होता है। सदाचार मन, वचन और कर्म को एकता के रूप में देखा और पाला जाता है, परन्तु शिष्टाचार बहुधा वचन और क्रिया ही से सम्बन्ध रखता है। यदि शिष्टाचार में मन को शुद्ध प्रेरणा भी मिल जाय तो सोने में सुगंध की कहावत पूरी पूरी घट सकती है और उस समय शिष्टाचार निरा शिष्टाचार नहीं रहता, किन्तु पूरा सदाचार हो जाता है। हमारे इस कथन से किसी को यह न समझ लेना चाहिये कि हम सदाचार को परस्पर जीवन के लिए आवश्यक नहीं समझते अथवा शिष्टाचार को केवल कुछ दिखाऊ नियमों का ही पालन करना मानते हैं। हमारे कहने का तात्पर्य यह है कि जिस मनुष्य को सदाचार का पालन करना मन से कठिन जान पड़ता है वह सच्चा सदाचारी नहीं हो सकता, परन्तु शिष्टाचार का पालन मन के बिना अथवा सदाचार के अभाव में भी हो सकता है, और जहाँ सदाचार का अभाव है वहाँ उसकी पूर्ति अधिकांश में शिष्टाचार के पालन से हो जाती है। सदाचार के पालन में अनेक कठिनाइयाँ आती हैं पर उनका बहुत ही थोड़ा अंश शिष्टाचार के पालन में पाया जाता है। संसार में थोड़े मनुष्य सदाचारी हो सकते हैं, पर शिष्टाचारी मनुष्य बहुतायत से बन सकते हैं। झूठे और चोर मनुष्य भी शिष्टाचार का पालन कर सकते हैं और करते हैं। इन सब विचारों के कारण शिष्टाचार और सदाचार के अन्तर में मन की शुद्ध प्रेरणा की विशेषता मानी जाती है।

(३) शिष्टाचार और चापलूसी

दूसरों को प्रसन्न करने के लिए अत्यन्त और अनावश्यक मिथ्या प्रशंसा अथवा नीच कार्य करना चापलूसी है, पर प्रसंग पड़ने पर
उचित रीति से दूसरो की थोड़ी-बहुत आवश्यक प्रशंसा वा सेवा करना शिष्टाचार है। चापलूसी और शिष्टाचार के इस सूक्ष्म भेद पर ध्यान न देने ही से लोगों में शिष्टाचार का अर्थ चापलूसी प्रचलित हो गया है । चापलूसी बहुधा अनुचित स्वार्थसाधन के लिए आत्म-गौरव को त्यागकर मन की स्वाभाविक प्रवृत्ति अथवा अभ्यास के आधार पर की जाती है, परन्तु शिष्टाचार स्वार्थ-साधन से विशेष सम्बन्ध नहीं रखता और उसमें आत्म-गौरव का दुर्लक्ष्य भी नहीं होता । यद्यपि शिष्टाचार की प्रवृति भी थोड़ी-बहुत स्वा भाविक रहती है, तथापि चापलूसी के समान वह कुटेव का रूप धारण नहीं करती । यदि चापलूसी करने वाले मनुष्य के विचारो ओर कार्यों में कोई हस्तक्षेप न करे तो वह प्रत्यक्ष रूप से,किसी दिन, दिन को रात और रात को दिन कहने के लिए भी तैयार हो जाता है, पर शिष्टाचारी मनुष्य असत्य को भी अपना गौरव रख कर प्रगट करेगा । बिना सोचे विचारे और बिना उचित आवश्यकता के किसी की “हाँ में हाँ" और “नहीं में नहीं" मिलाना चापलूसी वा चाटुकारिता है, परन्तु प्रत्यक्ष रूप से किसी का जी दुखाये बिना,सोच-समझकर अपनी उचित सम्मति देना अथवा आवश्यकता होने पर मौन धारण करना शिष्टाचार वा सभ्यता है।

दूसरो को सदा प्रसन्न रखना बहुत कठिन है, पर संसारी व्यवहार में उचित उपायों से दूमरों को प्रसन्न रखने की आवश्यकता होती है और इसके लिए शिष्टाचार ही उपयुक्त साधन है, चापलूसी नहीं। जब शिष्टाचार अपनी सीमा से बाहर हो जाता है तब वह चाटुकारिता का रूप धारण कर लेता है और उस समय वह निदनीय है । इस प्रकार का मिथ्या शिष्टाचार बहुधा दोनो व्यवहा- रियों के लिए दुखदायी होता है। चापलूसी को मान देने वाले लोग भी उसे सिद्धान्त की दृष्टि से

में वे उसे वैसा न समझते हो, परन्तु उचित शिष्टाचार को प्राय सभी लोग सिद्धान्त और प्रयोग में अादर और गुण प्राहकता की द्वष्टि से देखते हैं। सारांश मे हम इस भेद को ऐसा भी मान सकते हैं कि उचित चापलूसो शिष्टाचार है, और अनुचित शिष्टाचार चापलूसी है। चापलूसी की आवश्यकता सदैव और सर्वत्र नहीं होती, पर मनुष्यों के परस्पर व्यवहार में शिराचार का काम पग पग पर पड़ता है। हम लोग चापलूसी का अवसर टाल भी दे सकते हैं, पर शिष्टाचार टाला नहीं जा सकता । कभी-कभी चापलूसी हृदय की एक ऐसी दूषित अवस्था से भी उत्पन्न होती है जिसमे सदैव स्वार्थ-साधन की विशेष लालसा नहीं रहती, किन्तु दूसरो को प्रसन्न करने की एक प्रकार की स्वाभाविक प्रवृति ही दिखाई देती है । इस प्रकार की चापलूसी सर्वथा निन्दनीय है, क्योकि यह दासता के उन भावो से उत्पन्न होती है जो पराधीनता के कारण किसी भी समाज के स्वभाव में सम्मिलित हो जाते हैं ।

( ४ ) शिष्टाचार और स्वाधीनता

बहुधा नवयुवकों के मन में स्वाधीनता की एक विचित्र ही कल्पना रहती है। वे समझते हैं कि मनमाना काम करना हो सच्ची स्वाधीनता है, चाहे उसमे दूसरों को अथवा स्वंय उन्हीं की कैसी ही हानि क्यों न हो। इस दृष्टि से वे शिष्टाचार को स्वाधीनता का वाधक समझते हैं, क्योकि उनके मतानुसार उसके अनुरोध से लोगों को कई काम केवल दूसरो के सुभीते के विचार से करने पड़ते हैं। अनेक तत्ववेत्ताओ ने स्वाधीनता का लक्षण बताने का प्रयत्न किया है, परन्तु उन्होने स्वेच्छाचार को स्वाधीनता कभी नहीं माना । यथार्थ में जब तक मनुष्य सामाजिक प्राणी है तब तक वह स्वेच्छाचार का पालन सदा और सर्वत्र नहीं कर सकता, क्योकि ऐसा करने में उसे पद् पद् पर स्वाभाविक तथा कृत्रिम

रुकावटो का सामना करना पडता है जो उसके कार्यों की सफलता में विघ्न डालती हैं। मनुष्य संसार से विरक्त होकर वन में रहने पर भी स्वाधीनता प्राप्त नहीं कर सकता, क्योकि वहाँ भी कई बातों के लिए उसे दूसरों पर अवलवित होना पड़ेगा। इसलिए एक विद्वान ने स्वाधीनता का यह लक्षण कहा है कि “दूसरो को किसी तरह की हानि न पहुँचाकर और अपने हित के लिए किये गये दुसरे के यत्न में बाधा न डालकर, जिस तरह से हो उस तरह,अपने स्वार्थ साधन की स्वतन्त्रता का नाम स्वाधीनता है"। यदि दूसरो की स्वतन्त्रता का विचार न किया जाय तो मानवी और पाशविक स्वतन्त्रता में कोई अन्तर न रहे। अतएव शिष्टाचार स्वाधीनता का वाधक नहीं हो सकता, वरन वह इसका साधक होता है। नियमानुसार काम होने पर प्रत्येक मनुष्य को अपना काम निर्विन रीति से सम्पन्न करने का अवसर प्राप्त होता है और यही सुभीता यथार्थ में सच्ची स्वतन्त्रता है। यदि हम मनमाना काम करके दूसरों के कार्यों में वा विचारो में वाधा डालेंगे तो यह कब सम्भव है कि दूसरे लोग हमारे कार्यों वा विचारो में वाधा न डालें अथवा हम अपने इस आचरण से स्वंय अपनी ही स्वतन्नता स्थिर रख सकें? दूसरो की बातो में हस्तक्षेप करने में हम स्वयं अपनी अनुचित प्रवृत्तियों के दास बन जाते हैं । तब हमारी यथार्थ वा कल्पित सच्ची स्वतन्त्रता कहाँ रही? इस दृष्टि से आज्ञापालन, मनोदमन, मधुर भाषण आदि गुणों को स्वाधीनता का साधक मानना पड़ेगा। समाज में रहकर यदि हम उसके साथ उचित व्यवहार न करेंगे तो समाज हमारी रक्षा न करेगा अथवा हमसे “शाप वा चाप" के द्वारा उचित वर्ताव करावेगा। यदि हम समाज की आज्ञा न मानेंगे तो समाज के काम-काज में गड़बड़ होगी और उस अन्यवस्या का फल हमे भी भोगना पडेगा।

यह कभी नहीं हो सकता कि हम एक समाज को छोड़कर किसी दूसरे समाज में न जाये, क्योकि समाज में रहना एक स्वाभाधिक प्रवृत्ति है । तब हम नियमपूर्वक चलकर ही अपनी तथा अपने समाज की स्वतन्त्रता को रक्षित रख सकते हैं। विद्वानो ने कहा है कि “नियम स्वतन्त्रता का प्राण है"।

( ५ ) शिष्टाचार और सत्यता

कुछ लोगों की यह धारणा है कि शिष्टाचार एक मिथ्या व्यवहार एक ओर शिष्टाचारी व्यक्ति परोक्ष रूप से सत्यता का तिरस्कार करता है। इस में सन्देह नहीं कि शिष्टाचार में बहुधा अप्रिय और अनावश्यक सत्यता प्रगट नहीं की जाती, तथापि सत्य का यह लोप झूठ बोलने अथवा धोखा देने की प्रवृत्ति से नहीं किया जाता। शिष्टाचार का प्रधान उद्देश्य दूसरो को सुभीता और संतोष देना है, अतएव जिस समय सत्यता से किसी को व्यर्थ हानि अथवा अप्रसन्नता प्राप्त होने की संभावना हो, उस समय सत्यता को प्रकट करने की आवश्यकता नहीं है । ऐसी अवस्था में मनुष्य उदासीनता ( मोन )धारण करके ही मूर्ख अथवा अशिष्ट होने से बच सकता है।

नीति और धर्म की दृष्टि से भी प्रत्येक अवसर पर सत्यता को प्रगट करने की आवश्यकता नहीं मानी जाती । यदि किसी सत्य को प्रगट करने से व्यकि-गत आक्षेप अथवा किसी का अपमान होने की संभावना हो तो सत्य बात प्रगट करना अनुचित है। इसी प्रकार यदि उससे प्रत्यक्ष रूप में हानि अधिक और लाभ कम होने का भय हो तो उसे प्रगट करना मूर्खता है। इसके सिवा अधिकाश लोग सत्य को भी एकाएकी सत्य नहीं मानते, क्योकि वे साधारण व्यवहार में बहुधा असत्य, अतिशयोक्ति और अर्ध-सत्य सुना करते हैं । अतएव शिष्टाचार की द्वष्टि से सत्य को बिना सोचे विचारे अथवा निर्भय होकर प्रगट करने में जोखिम है। कभी-कभी

तो किसी के दोष से सम्बन्ध रखने वाली सत्यता को अकारण ही प्रगट कर देने से मनुष्य पर अभियोग आरोपित कर दिया जाता है। शिष्टाचार ऐसी सत्यता को प्रकट होने से नहीं रोक सकता जो सब से अधिक लोगो को सब से अधिक लाभ पहुंँचाती है अर्थात् नीति और सदाचार की उच्चतम प्रेरणा से जो सत्य प्रगट किया जाता है वह शिष्टाचार की सीमा के बाहर है । इसी प्रकार सत्य की खोज में जो वादविवाद अथवा आन्दोलन होता है उसमे भी के सत्य की अवहेलना की जा सकती है। यदि शिष्टाचार के अनुरोध से इस प्रकार के अटल सत्य का प्रचार न हो तोक्षसत्य ज्ञान की उन्नति होना असम्भव हो जाय और लोगो को सदाचार और शिष्टाचार में अन्तर समझने को योग्यता ही न रहे ।

सारांश यह है कि शिष्टाचार में सब के प्रति कोई अनास्था नहीं दिखाई जाती और न जानबूझकर किसी को हानि पहुँचाने अथवा धोखा देने के लिए समयानुकूल असत्य का प्रयोग किया जाता है। उसमे सत्य को केवल कठोरता को कुछ कोमल कर देते हैं ।

( ६ ) शिष्टाचार के साधन

साधारणतया शिष्टाचार के प्रमुख साधन मन, वचन और कर्म है, पर, जैसा पहले कहा जा चुका है, उसके पालन में मन की विशेष प्रेरणा नहीं होती, यद्यपि उसमें मनुष्य के स्वभाव का प्रभाव अवश्य पड़ता है। शिटाचारी व्यक्ति को शान्त स्वभाव और विवेक को बड़ी आवश्यकता है, क्योंकि इनके बिना वह उचित अथवा अनुचित कार्यों के विषय में ठीक ठीक विचार नहीं कर सकता। शिष्टाचार में विचार और कर्म के साथ कुछ हृदय के मेल की भी आवश्यकता है और इसके साथ उसमें बुद्धि और स्मरण का भी काम पड़ता है, इसलिए शिष्टाचार के साधनों में वचन और क्रिया के साथ कई अंशो में मन की भी आवश्यकता होती है।
शिष्टाचार का दूसरा साधन वचन है। हमे दूसरों के साथ ऐसे वचन बोलना चाहिए जो प्रिय हों और यथा-सम्भव सत्य भी हो। यदि किसी समय सत्य बोलने का प्रयोजन न है तो हमें मौन धारण कर लेना चाहिए अथवा ऐसे वचन बोलना चाहिए जिससे धोखा का थोडा-बहुत समाधान हो जाय और उसकी कोई हानि न हो। सदाचार की दृष्टि से भी अप्रिय सत्य का निषेध है। पर जान-बूझ-कर धोखा देने के लिए अथवा हानि पहुँचाने के लिए झूठ बोलना दोनों प्रकार से निन्दनीय है।

शिष्टाचार-सम्बन्धी क्रियाओं के अंतर्गत वे सब कार्य हैं जिनका परोक्ष व प्रत्यक्ष सम्बन्ध दूसरो से है। शिष्टाचार में उन सब क्रियाओं को त्याज्य मानते हैं जिनसे दूसरे को असुविधा अथवा असन्तोष होता है। मान लीजिए कि किसी मनुष्य को बहुत हंँसने में आनन्द मिलता है और वह सड़क के एक किनारे खड़े होकर जहांँ किसी की कोई हानि होने की सम्भावना नहीं है जोर जोर से हँसता है । यद्यपि उस मनुष्य को इस काम से रोकने का अधिकार किसी को नहीं है, तो भी यह स्वंय इस बात का विचार कर सकता है कि सड़क पर आने जाने वाले लोगों को मेरे इस काम मे कोई असुविधा अथवा असंतोष तो नहीं होता । यदि ऐसा होतो उसे शिष्टाचार की दृष्टि से अपनी क्रिया बन्द कर देनी चाहिए । मनुष्य की ऐसी क्रियाएँ अनेक हैं जिनसे बहुधा दुसरों को संतोष और सुभीते का सम्बन्ध रहता है, इसलिए उसे अपने परस्पर जीवन-सम्बन्धी कार्यों में शिष्टाचार का ध्यान रखना परम आवश्यक है।

शिष्टाचार की थोड़ी-बहुत प्रवृति सभी लोगो में स्वाभाविक होती है। जो लोग शिष्टाचार के नाम से नाक-भों सिकोढ़ते हैं और उसे अनावश्यक नियमो का संग्रह समझते हैं ये भी बहुधा दूसरो

के द्वारा किये गये व्यवहार की अनुकूल अथवा प्रतिकूल आलोचना करते हैं जिससे इस विषय की उपयोगिता पूर्णतया सिद्ध होती है। यथार्थ में शिष्टाचार की उत्पत्ति सभ्य समाज में आवश्यकता और अनुकरण से आप ही आप होती है। हांँ, यह बात अवश्य है कि कोई सामाज कम और कोई अधिक शिष्टाचारी होता है; पर इससे इस विषय की कोई हीनता सूचित नहीं होती।

शिष्टाचार की प्रवृति आवश्यकता और अनुकरण के अतिरिक्त पुस्तकावलोकन‚ प्रवास और सामाजिक तथा सार्वजनिक जीवन से भी वृद्धि पाती है। स्वयं प्रशंसा पाने और दूसरों को उचित रीति से प्रसन्न करने की स्वाभाविक प्रवृत्ति से भी शिष्टाचार के भावो की उन्नति होती है।


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