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हिन्द स्वराज/१

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हिन्द स्वराज
लेखक:मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी

अहमदाबाद - १४: हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ ११ से – २१ तक

 

नई आवृत्तिकी प्रस्तावना

['हिन्द स्वराज्य'की यह जो नई आवृत्ति प्रकाशित होती है, उसके दीबाचेके तौर पर ‘आर्यन पाथ' मासिकके ‘हिन्द स्वराज्य अंक'की जो समालोचना मैंने ‘हरिजन' में अंग्रेजीमें लिखी थी, उसका तरजुमा देना यहां नामुनासिब नहीं होगा। यह सही है कि ‘हिन्द स्वराज्य'की पहली आवृत्तिमें गांधीजीके जो विचार दिखाये गये हैं, उनमें कोई फेरबदल नहीं हुआ है। लेकिन उनका उत्तरोत्तर[] विकास[] तो हुआ ही है। मेरे नीचे दिये हुए लेखमें उस विकासके बारेमें कुछ चर्चा की गई है। उम्मीद है कि उससे गांधीजीके विचारोंको ज्यादा साफ समझनेमें मदद होगी। -म॰ह॰दे॰]

महत्त्वका प्रकाशन

‘आर्यन पाथ' मासिकने अभी अभी ‘हिन्द स्वराज्य अंक' प्रकाशित किया है। जिस तरफ ऐसा अंक[] निकालनेका विचार अनोखा है, उसी तरह उसका रूप-रंग भी बढ़िया है। इसका प्रकाशन श्रीमती सोफिया वाड़ियाके भक्तिभाव-भरे श्रमका आभारी है। उन्होंने ‘हिन्द स्वराज्य'की नकलें परदेशमें अपने अनेक मित्रोंको भेजी थीं और उनमें जो मुख्य थे उन्हें उस पुस्तकके बारेमें अपने विचार लिख भेजनेके लिए कहा था। खुद श्रीमती वाड़ियाने तो उस पुस्तकके बारेमें लेख लिखे ही थे और ये विचार जाहिर किये थे कि उसमें भारतवर्षके उजले भविष्यकी आशा रही है। लेकिन उस पुस्तकमें यूरोपकी अंधाधुंधीको भी मिटानेकी शक्ति है, ऐसा यूरोपके विचारकों और लेखक-लेखिकाओंसे उन्हें कहलाना था। इसलिए उन्होंने यह योजना[] निकाली। उसका नतीजा अच्छा आया है। इस खास अंकमें अध्यापक सॉडी, कोल, डिलाइल बर्न्स, मिडलटन मरी, बेरेसफर्ड, ह्यू फॉसेट, क्लॉड हूटन, जिराल्ड
हर्ड, कुमारी रैथबोन वगैरा अनेक नामी लेखक-लेखिकाओंके लेख छपे हैं। उनमें से कुछ तो शांतिवादी और समाजवादीके तौर पर मशहूर हैं। लेकिन जिनके विचार शांतिवाद और समाजवादके खिलाफ हैं, ऐसे लोगोंके लेख भी इस अंकमें आये होते तो अंक कैसा होता! जो लेख दिये गये हैं उनकी व्यवस्था इस तरह की गई है कि ‘शुरूके लेखोंमें जो आलोचनायें और उज्र आये हैं, उनमें से बहुतोंके जवाब बादके लेखोंमें आ जाते हैं। लेकिन दो-एक टीकायें लगभग सब लेखकोंने की हैं, इसलिए पहले उनका विचार करना ठीक होगा। कुछ बातें ऐसी कही गई हैं, जिन्हें तुरन्त स्वीकार कर लेना चाहिये। अध्यापक सॉडीने लिखा है कि वे हालमें ही हिन्दुस्तान आये थे और यहाँ उन्होंने ऐसा कुछ भी नहीं देखा जिसे ऊपर-ऊपरसे देखने पर ऐसा लगे कि ‘हिन्द स्वराज्य' में बताये हुए सिद्धान्तों[] को कुछ ज्यादा सफलता मिली है। यह बिलकुल सच बात है। ऐसी ही सही बात मि० कोलने कही है कि गांधीजीकी ‘सिर्फ अकेलेकी बात सोचनी हो तो वे ऐसे स्वराज्यके नजदीक इनसान जितना पहुँच सकता है उतना पहुँच ही चुके हैं। लेकिन उसके अलावा एक और सवाल रहता है; वह यह कि इनसान इनसानके बीच जो खाई है, खुद अकेले अमुक आचरण करना और दुसरोंको उनकी बुद्धिके मुताबिक आचरण करने में मदद करना-इन दोनोंके बीच जो अंतर है उसे कैसे पाटा जाय? इस दूसरी चीजके लिए तो औरोंके साथ रहकर, उनमें से एक बनकर, उनके साथ तादात्म्य-एकता साधकर मनुष्यको आचरण करना पड़ता है; एक ही समयमें अपना असली रूप और दूसरेका धारण किया हुआ रूप यानी व्यक्तित्व( जिसे खुद जाँच सके, जिसकी टीका-टिप्पणी कर सके और जिसकी कीमत आंक सके), ऐसे दो तरहके वरताव रखने पड़ते हैं।गांधीजीने अपने आचरणकी साधनाको आखिरी हद तक पहुँचाया ज़रूर है, लेकिन इस दुसरे सवालको, खुदको संतोष हो इस तरह, वे हल नही कर पाये हैं। फिर जॉन मिडलटन मरी कहते हैं वह भी सही है कि 'अहिंसाको अगर सिर्फ

राजनीतिक[] दबावके एक साधनके तौर पर इस्तेमाल किया जाय, तो उसकी शक्ति जल्दी खतम होती है।' और फिर सवाल यह उठता है कि ‘ऐसी अहिंसाको क्या सच्ची अहिंसा कहा जा सकता है?'

लेकिन यह सारी क्रिया लगातार विकासकी क्रिया है। उस साध्य[]की सिद्धिके लिए कोशिश करते करते मनुष्य साधन[]की संपूर्णताके लिए भी कोशिश करता रहता है। सैकड़ों बरस पहले बुद्ध और ईसा मसीहने अहिंसा और प्रेमके सिद्धान्तका उपदेश किया था। इन सैकड़ों बरसोंमें इक्केदुक्के व्यक्तियोंने छोटे-छोटे और सीमित[] प्रश्नोंमें उसका प्रयोग किया है। गांधीजी के बारे में एक बात स्वीकर हो चुकी है, जिसका जिक्र करते हुए इस लेख-संग्रह[१०]में जिराल्ड हर्डने कहा है कि ‘गांधीजीके प्रयोगमें सारे जगतको दिलचस्पी है, और उसका महत्त्व[११] युगों तक कायम रहेगा। इसका कारण यह है कि उन्होंने समूहको लेकर या राष्ट्रीय पैमाने पर उसका प्रयोग करनेकी कोशिश की है।' उस प्रयोगकी कठिनाइयाँ तो साफ हैं, लेकिन गांधीजीको भरोसा है कि इन मुसीबतोंको पार करना नामुमकिन नहीं है। हिन्दुस्तानमें १९२१ में वह प्रयोग नामुमकिन मालूम हुआ और उसे छोड़ देना पड़ा। लेकिन जो बात उस समय नामुमकिन थी, वह १९३० में मुमकिन हुई। अब भी बहुत बार यह सवाल उठता है कि ‘अहिंसक साधनका अर्थ क्या है?' उस शब्दका सबको मंजूर हो ऐसा अर्थ और उसकी मर्यादा[१२] तय करने और उसे चालू करने से पहले अहिंसका लंबे अरसे तक प्रयोग और आचरण[१३] करनेकी ज़रूरत है। पश्चिमके विचारक अकसर भूल जाते हैं कि अहिंसाके आचरणमें सबसे ज़रूरी और न टाली जा सकनेवाली चीज प्रेम है; और शुद्ध नि:स्वार्थ प्रेम मनकी और शरीरकी बेदाग-निष्कलंक शुद्धिके बिना संभव नहीं है और प्राप्त नहीं किया जा सकता।

‘हिन्द स्वराज्य'की प्रशंसाभरी समालोचनामें सब लेखकोंने एक बातका

जिक्र किया है: वह है गांधीजीका यंत्रोंके बारे में विरोध।
समालोचक इस विरोधको नामुनासिब और अकारण[१४] मानते हैं। मिडलटन मरी कहते हैं: ‘गांधीजी अपने विचारोंके जोशमें यह भूल जाते हैं कि जो चरखा उन्हें बहुत प्यारा है, वह भी एक यंत्र ही है और कुदरतकी नहीं लेकिन इनसानकी बनायी हुई एक अकुदरती-कुत्रिम चीज है। उनके उसूलके मुताबिक तो उसका भी नाश करना होगा।' डिलाइल बर्न्स कहते हैं: 'यह तो बुनियादी विचार-दोष है। उसमें छिपे रूपसे यह बात सूचित की गई है कि जिस किसी चीजका बुरा उपयोग हो सकता है, उसे हमें नैतिक दृष्टिसे हीन मानना चाहिये। लेकिन चरखा भी तो एक यंत्र ही है। और नाक पर लगाया हुआ चश्मा भी आंखकी मदद करनेको लगाया हुआ यंत्र ही है। हल भी यंत्र है। और पानी खींचनेके पुरानेसे पुराने यंत्र भी शायद मानव-जीवन को सुधारने की मनुष्यकी हज़ारो बरसकी लगातार कोशिशके आखिरी फल होंगे।... किसी भी यंत्रका बुरा उपयोग होनेकी संभावना रहती है। लेकिन अगर ऐसा हो तो उसमें रही हुई नैतिक हीनता यंत्रकी नहीं, लेकिन उसका उपयोग करनेवाले मनुष्यकी है।'

मुझे इतना तो कबूल करना चाहिये कि गांधीजीने ‘अपने विचारोंके जोशमें' यंत्रोंके बारे में अनगढ़ भाषा इस्तेमाल की है और आज अगर वे इस पुस्तकको फिरसे सुधारने बैठें तो उस भाषाको वे खुद बदल देंगे। क्योंकि मुझे यकीन है कि मैंने ऊपर समालोचकोंके जो कथन दिये हैं उनका गांधीजी स्वीकार करेंगे; और जो नैतिक गुण यंत्रका इस्तेमाल करनेवालेमें रहे हैं, उन गुणोंको उन्होंने यंत्रके गुण कभी नहीं माना। मिसालके तौर पर १९२४ में उन्होंने जो भाषा इस्तेमाल की थी वह ऊपर दिये हुए दो कथनोंकी याद दिलाती है। उस साल दिल्लीमें गांधीजीका एक भाईके साथ जी संवाद[१५] हुआ था, वह मैं नीचे देता हूँः

'क्या आप तमाम यंत्रोंके खिलाफ हैं?' रामचन्द्रन्ने सरल भावसे पूछा। गांधीजीने मुस्कराते हुए कहा: 'वैसा मैं कैसे हो सकता हूँ, जब मैं जानता हूँ कि यह शरीर भी एक बहुत नाजुक यंत्र ही है? खुद चरखा भी एक यंत्र ही है, छोटी दांत-कुरेदनी[१६] भी यंत्र है। मेरा विरोध यंत्रोंके लिए नहीं है, बल्कि यंत्रोंके पीछे जो पालगपन चल रहा है, उसके लिए है। आज तो जिन्हें मेहनत बचानेवाले यंत्र कहते हैं, उनके पीछे लोग पागल हो गये हैं। उनसे मेहनत ज़रूर बचती है, लेकिन लाखों लोग बेकार होकर भूखों मरते हुए रास्तों पर भटकते हैं। समय और श्रमकी बचत तो मैं भी चाहता हूँ, परन्तु वह किसी खास वर्गकी नहीं, बल्कि सारी मानव-जातिकी होनी चाहिये। कुछ गिने-गिनाये लोगोंके पास संपत्ति जमा हो ऐसा नहीं, बल्कि सबके पास जमा हो ऐसा मैं चाहता हूँ। आज तो करोड़ोंकी गरदन पर कुछ लोगोंके सवार हो जानेमें यंत्र मददगार हो रहे हैं। यंत्रोंके उपयोगके पीछे जो प्रेरक कारण है वह श्रमकी बचत नहीं है, बल्कि धनका लोभ है। आजकी इस चालू अर्थ-व्यवस्थाके ख़िलाफ़ मैं अपनी तमाम ताक़त लगाकर युद्ध चला रहा हूँ।'

रामचन्द्रन् ने आतुरतासे पूछा: ‘तब तो, बापूजी, आपका झगड़ा यंत्रोंके खिलाफ़ नहीं, बल्कि आज यंत्रोंका जो बुरा उपयोग हो रहा है उसके ख़िलाफ़ है?’

‘जरा भी आनाकानी किये बिना मैं कहता हूँ कि ‘हाँ'। लेकिन मैं इतना जोड़ना चाहता हूँ कि सबसे पहले यंत्रोकी खोज और विज्ञान लोभके साधन नहीं रहने चाहिये। फिर मजदूरोंसे उनकी ताकतसे ज्यादा काम नहीं लिया जायगा, और यंत्र रुकावट बननेके बजाय मददगार हो जायेंगे। मेरा उद्देश्य[१७] तमाम यंत्रोंका नाश करनेका नहीं है, बल्कि उनकी हद बांधनेका है।'

रामचन्द्रन् ने कहा: ‘इस दलीलको आगे बढ़ायें तो उसका मतलब यह होता है कि भौतिक[१८] शक्तिसे चलनेवाले और भारी पेचीदा तमाम यंत्रोंका त्याग करना चाहिये।' गांधीजीने मंजूर करते हुए कहा: ‘त्याग करना भी पड़े। लेकिन एक बात मैं साफ करना चाहूँगा। हम जो कुछ करें उसमें मुख्य विचार इनसानके भलेका होना चाहिये। ऐसे यंत्र नहीं होने चाहिये जो काम न रहनेके कारण आदमीके अंगोंको जड़ और बेकार बना दें। इसलिए यंत्रोंको मुझे परखना होगा। जैसे, सिंगरकी सीनेकी मशीनका मैं स्वागत करूंगा। आजकी सब खोजोंमें जो बहुत कामकी थोड़ी खोजें हैं, उनमें से एक यह सीनेकी मशीन है। उसकी खोजके पीछे अद्भुत इतिहास है। सिंगरने अपनी पत्नीको सीने और बखिया लगानेका उकतानेवाला काम करते देखा। पत्नीके प्रति रहे उसके प्रेमने गैर-ज़रुरी मेहनतसे उसे बचानेके लिए सिगंरको ऐसी मशीन बनानेकी प्रेरणा की। ऐसी खोज करके उसने न सिर्फ अपनी पत्नीका ही श्रम बचाया, बल्कि जो भी ऐसी सीनेकी मशीन खरीद सकते हैं उन सबको हाथसे सीनेके ऊबानेवाले श्रमसे छुड़ाया है।'

रामचन्द्रन्ने कहा: 'लेकिन सिंगरकी सीनेकी मशीनें बनानेके लिए तो बड़ा कारखाना चाहिये और उसमें भौतिक शक्तिसे चलनेवाले यंत्रोंका उपयोग करना ही पड़ेगा।'

रामचन्द्रन्के इस विरोधमें सिर्फ ज्यादा जाननेकी इच्छा ही थी। गांधीजीने मुस्कराते हुए कहा: ‘हां, लेकिन मैं इतना कहनेकी हद तक समाजवादी तो हूँ ही कि ऐसे कारखानोंका मालिक राष्ट्र हो या जनताकी सरकारकी ओरसे ऐसे कारखाने चलाये जायें। उनकी हस्ती नफेके लिए नहीं बल्कि लोगोंके भलेके लिए हो। लोभकी जगह प्रेमको कायम करनेका उसका उद्देश्य हो। मैं तो यह चाहता हूँ कि मज़दूरोंकी हालत में कुछ सुधार हो। धनके पीछे आज जो पागल दौड़ चल रही है वह रुकनी चाहिये। मजदूरोंको सिर्फ अच्छी रोजी मिले, इतना ही बस नहीं है। उनसे हो सके ऐसा काम उन्हें रोज मिलना चाहिये। ऐसी हालतमें यंत्र जितना सरकारको या उसके मालिकको लाभ पहुंचायेगा, उतना ही लाभ उसके चलानेवाले

मजदूरको पहुंचायेगा। मेरी कल्पनामें यंत्रोके बारेमें जो कुछ अपवाद हैं, उनमें से एक यह है। सिंगर मशीनके पीछे प्रेम था, इसलिए मानव-सुखका विचार मुख्य[१९] था। उस यंत्रका उद्देश्य है मानव-श्रमकी बचत। उसका हस्तेमाल करनेके पीछे मक़सद धनके लोभका नहीं होना चाहिये, बल्कि प्रामाणिक रीतिसे[२०] दयाका होना चाहिये। मसलन्, टेढ़े तकुवेको सीधा बनानेवाले यंत्रका मैं बहुत स्वागत करूंगा। लेकिन लुहारोंका तकुवे बनानेका काम ही ख़तम हो जाय, यह मेरा उद्देश्य नहीं हो सकता। जब तकुवा टेढ़ा हो जाय तब हरएक कातनेवालेके पास तकुवा सीधा कर लेनेके लिए यंत्र हो, इतना ही मैं चाहता हूँ। इसलिए लोभकी जगह हम प्रेमको दें। तब फिर सब अच्छा ही अच्छा होगा।’

मुझे नहीं लगता कि ऊपरके संवादमें गांधीजीने जो कहा है, उसके बारेमें इन आलोचकोंमें से किसीका सिद्धान्त[२१] की दृष्टिसे विरोध हो। देहकी तरह यंत्र भी, अगर वह आत्माके विकासमें मदद करता हो तो, और जितनी हद तक मदद करता हो उतनी हद तक ही, उपयोगी है।

पश्चिमकी सभ्यताके बारेमें भी ऐसा ही है। ‘पश्चिमकी सभ्यता मनुष्यकी आत्माकी महाशत्रु है’—इस कथनका विरोध करते हुए मि० कोल लिखते हैं: ‘मैं कहता हूँ कि स्पेन और एबिसीनियाके भयंकर संहार,[२२] हमारे सिर पर हमेशा लटकनेवाला भय, सब तरहकी रिद्धि-सिद्धि पैदा करनेकी शक्ति मौजूद होने पर भी करोड़ोंका दारिद्र्य, ये सब पश्चिमकी सभ्यताके दूषण[२३] हैं, गंभीर दूषण हैं। लेकिन वे कुदरती नहीं हैं, सभ्यताकी जड़ नहीं हैं।... मैं यह नहीं कहता कि हम अपनी इस सभ्यताको सुधारेंगे; लेकिन वह सुधर ही नहीं सकती, ऐसा मैं नहीं मानता। जो चीज़ें मानवकी आत्माके लिए ज़रूरी हैं, उनके साफ इनकार पर उस सभ्यताकी रचना हुई है ऐसा मैं नहीं मानता।’ बिलकुल सही बात है। और गांधीजीने उस सभ्यताके जो दूषण बताये वे कुदरती नहीं थे, बल्कि उस सभ्यताकी प्रवृत्तियोंमें रहे हुए दूषण थे; और इस

पुस्तकमें गांधीजीका मक़सद भारतीय सभ्यताकी प्रवृत्तियां पश्चिमकी सभ्यताकी प्रवृत्तियों से कितनी भिन्न हैं यही दिखानेका था। पश्चिमकी सभ्यताको सुधारना नामुमकिन नहीं है, मि० कोलकी इस बातसे गांधीजी पूरी तरह सहमत[२४] होंगे; उनको यह भी मंजूर होगा कि पश्चिमको पश्चिमके ढंगका ही स्वराज्य चाहिये; वे आसानीसे यह भी स्वीकार करेंगे कि वह स्वराज्य ‘गांधी जैसे आत्म-निग्रहवाले[२५] पुरुषोंके विचारके अनुसार तो होगा, लेकिन वे पुरुष हमारे पश्मिमके ढंगके होंगे; और वह ढंग गांधी या हिन्दुस्तानका नहीं, पश्चिमका अपना निराला ही ढंग होगा।’

सिद्धान्तकी मर्यादा

अध्यापक कोलने नीचेकी उलझन सामने रखी है:

‘जब जर्मन और इटालियन विमानी स्पेनकी प्रजाका संहार कर रहे हों, जब जापानके विमानी चीनके शहरों में हजारों लोगोंको कत्ल कर रहे हों, जब जर्मन सेनाएँ आस्ट्रियामें घुस चुकी हों और चेकोस्लोवाकियामें घुस जानेकी धमकियाँ दे रही हों, जब एबिसीनिया पर बम बरसाकर उसे जीत लिया गया हो, तब आजके ऐसे समयमें क्या यह (अहिंसाका) सिद्धान्त टिक सकेगा? दो-एक बरस पहले मैं तमाम संजोगोंमें युद्धका और मृत्युकारी हिंसाका विरोध करता था। लेकिन आज, युद्धके बारेमें मेरे दिलमें नापसन्दगी और नफ़रत होने पर भी, इन कत्लेआमों—हत्याकांडोंको रोकनेके लिए मैं युद्धका खतरा ज़रूर उठाऊंगा।’

उनके मनमें एक-दूसरेके विरोधी ये विचार कैसा सख्त संघर्ष मचा रहे हैं, यह नीचेकी सतरोंसे जाहिर होता है। वे कहते हैं:

‘मैं युद्धका खतरा ज़रूर उठाऊंगा, परन्तु अभी भी मेरा वह दूसरा व्यक्तित्व[२६] इनसानकी हत्या करनेके विचारसे घबराकर, चोट खाकर पीछे

हटता है। मैं खुद तो दूसरेकी जान लेनेके बजाय अपनी जान देना ज्यादा पसन्द करूंगा। लेकिन अमुक संजोगोंमें खुद मर-मिटनेके बजाय दूसरेकी जान लेनेकी कोशिश करना क्या मेरा फ़र्ज नहीं होगा? गांधी शायद जवाब देंगे कि जिसने व्यक्तिगत[२७] स्वराज्य पाया है, उसके सामने ऐसा धर्मसंकट[२८] पैदा ही नहीं होगा। ऐसा व्यक्तिगत स्वराज्य मैंने पाया है, यह मेरा दावा नहीं है। लेकिन ख़याल कीजिये कि मैंने ऐसा स्वराज्य पा लिया है, तो भी उससे पश्चिम यूरोपमें आजके समय मेरे लिए यह सवाल कुछ कम ज़ोरदार हो जायेगा ऐसा मुझे विश्वास नहीं होता।'

मि० कोलने जो संजोग बताये हैं, वे मनुष्यकी श्रद्धा[२९] की कसौटी ज़रूर करते हैं। लेकिन इसका जवाब गांधीजी अनेक बार दे चुके हैं, हालांकि उन्होंने अपना व्यक्तिगत स्वराज्य पूरी तरह पाया नहीं है; क्योंकि जब तक दूसरे देशबन्धुओंने स्वराज्य नहीं पाया है, तब तक वे अपने पाये हुए स्वराज्यको अधूरा ही मानते हैं। लेकिन वे श्रद्धाके साथ जीते हैं और अहिंसाके बारेमें उनकी जो श्रद्धा है वह इटली या जापानके किये हुए कत्लेआमोंकी बात सुनते ही डगमगाने नहीं लगती। क्योंकि हिंसामें से हिंसाके ही नतीजे पैदा होते हैं; और एक बार उस रास्ते पर जा पहुंचे कि फिर उसका कोई अन्त ही नहीं आता। ‘चीनका पक्ष लेकर आपको लड़ना चाहिये' ऐसा कहनेवाले एक चीनी मित्रको जवाब देते हुए ‘वार रेज़िस्टर' नामक पत्रमें फिलिप ममफर्डने लिखा है:

‘आपकी शत्रु तो जापानकी सरकार है; जापानके किसान और सैनिक आपके दुश्मन नहीं हैं। उन अभागे और अनपढ़ लोगोंको तो मालूम भी नहीं कि उन्हें क्यों लड़नेका हुक्म किया जाता है। फिर भी, अगर आप अपने देशके बचावके लिए मौजूदा लश्करी तरीकोंका उपयोग करेंगे, तो आपको इन बेकसूर लोगोंको ही–जो आपके सच्चे दुश्मन नहीं हैं उन्हींको-मारना पड़ेगा। अहिंसाकी जो रीति गांधीजीने हिन्दुस्तानमें

आजमाई, उसीके ज़रिये अगर चीन अपनी रक्षा करनेकी कोशिश करेगा-और गांधीजीकी वह रीति चीनके महान धर्म-गुरुओंके उपदेशसे बहुत ज्यादा मेल खाती है-तो मैं बेधड़क कहूँगा कि यूरोपके शस्त्रयुद्धकी रीतिकी नकल करनेके बजाय इस अहिंसाकी रीतिसे उसे बहुत ज्यादा सफलता मिलेगी।...चीनकी जनता, जो जगतकी सबसे ज्यादा शांतिप्रिय प्रजा है, जगतकी किसी भी लड़ाकू प्रजाके बनिस्बत ज़्यादा लंबे अरसे तक अपनेको और अपनी संस्कृतिको कायम रख सकी है, यह हक़ीक़त ही मानव-जातिके लिए एक सबक़ है। जो शूरवीर चीनी अपने देशके बचावके लिए लड़ रहे हैं, उनके लिए हमें आदर नहीं है ऐसा आप न मानें। हम उनके त्याग और बलिदानकी भारी कदर करते हैं और समझते हैं कि वे हमसे भिन्न सिद्धान्तोंमें माननेवाले हैं। फिर भी हम तो मानते हैं कि हिंसा सब संजोगों में बुरी है और उसमें से अच्छे फल निकलना असंभव है। अहिंसाका पालन आपको तमाम दुखोंसे उबार तो नहीं लेगा, लेकिन मैं मानता हूँ कि आपके सब शस्त्र-अस्त्रों और लश्करोंके बनिस्बत अहिंसा एक अरसेके बाद आपके भावी विजेताके ख़िलाफ़ ज़्यादा असरकारक साबित होगी; और सबसे ज्यादा महत्त्वकी[३०] बात तो यह है कि इससे आपकी प्रजाके आदर्श जीवित रहेंगे।'

कुमारी रैथबोनने ऐसी ही एक समस्या[३१] रखी है। वे लिखती है: 'जालिमके सामने सिर झुकाकर और अपनी अंदरकी आवाज़के विरुद्ध चलकर अगर छोटे मुलायम बच्चों और बच्चियोंको बचाया जा सकता हो, तो इस दुनियामें ऐसा कौन आदमी-सामान्य या संतपुरुष-है, जो उनकी हत्या होने देगा? गांधी इस सवालका जवाब नहीं देते। उन्होंने यह सवाल उठाया तक नहीं है। ...इस बारे में ईसा मसीहका कहना ज्यादा स्पष्ट[३२] है। ...उनके शब्द ये हैं : मुझ पर श्रद्धा रखनेवाले इन नन्हें मुन्नोंके ख़िलाफ़ जो कोई हाथ उठाये, उसके गले में चक्कीका पाट लटकाकर उसे समुद्रके

पानीमें डुबो दिया जाय। ... यों हमें इस बारेमें गांधीजीके बनिस्वत ईसा मसीहकी ओरसे ज़्यादा मदद मिलती है...।'

मुझे लगता है, ईसा मसीहके वचन सिर्फ उनका पुण्य-प्रकोप[३३] प्रकट करते हैं, और उन्होंने जो कदम उठानेकी बात कही है, वह गुनहगारोंको कोई और आदमी सजा करे इसलिए नहीं, बल्कि गुनहगार खुद अपनेको प्रायश्चित्त[३४] के तौर पर सजा दे इसलिए है। और क्या कुमारी रैथबोनको पक्का यकीन है कि जिसे वो ईसाका उपाय मानती हैं, उसे आजमाकर वे बालकोंको मौतसे बचा सकेंगी? गांधीजीने यह सवाल उठाया ही नहीं है, ऐसा उनका मानना सही नहीं है। उन्होंने यह सवाल उठाया है और उसका साफ़ साफ़ जवाब भी दिया है; जैसे १३०० बरस पहले उन अमर मुस्लिम शहीदोंने भी यह सवाल उठाया था और अपने कामसे उसका जवाब दिया था। जालिमके सामने झुकने और अपनी अंतर-आत्माको धोखा देनेके बजाय अपने बीबी-बच्चोंको भूखे-प्यासे तड़पते हुए मरने देना ही उन्होंने ज्यादा पसन्द किया था; क्योंकि जालिमके सामने झुकने और अपनी अंतर-आत्माको धोखा देनेका परिणाम यही होता है कि जालिमको नये नये जुल्म गुजारनेका बढ़ावा मिलता है।।

लेकिन कुमारी रैथबोनने भी 'हिन्द स्वराज्य'को 'बहुत भारी असरकारक पुस्तक' कहा है और लिखा है कि ‘उसे पढ़कर, उसमें रही भारी प्रामाणिकता[३५] को देखकर अपनी प्रामाणिकताकी जांच करना मेरे लिए ज़रूरी हो गया है। लोगोंसे मेरी बिनती है कि वे इस पुस्तकको ज़रूर पढे़।' ‘आर्यन पाथ' मासिकके संपादकोंने यह ‘हिन्द स्वराज्य अंक' निकालकर शांति और अहिंसाके कार्यकी निर्विवाद[३६] सेवा की है, ऐसा हमें कहना होगा।

महादेव हरिभाई देसाई

(अंग्रेजीके गुजराती अनुवाद परसे)

  1. लगातार
  2. खिलना
  3. नंबर
  4. तरकीब
  5. उसूलों।
  6. सियासी।
  7. मकसद।
  8. ज़रिया।
  9. महदूद।
  10. मजमुआ।
  11. अहमियत।
  12. हद।
  13. अमल।
  14. बिलावजह।
  15. बातचीत।
  16. खरका।
  17. मकसद।
  18. दुनियवी
  19. खास।
  20. ईमानदारीसे।
  21. उसूल।
  22. कत्ल।
  23. खराबियां।
  24. हमराय।
  25. खुद पर काबू रखनेवाले।
  26. शख़्सियत।
  27. अपना।
  28. पशोपेश, दुविधा।
  29. अक़ीदा।
  30. अहम।
  31. मसला, पहेली।
  32. साफ़।
  33. पाक गुस्सा।
  34. कफ़्फ़ारा।
  35. ईमानदारी।
  36. ख़सूसन्, बेशक।