हिन्द स्वराज/२
उपोद्घात
लॉर्ड लोधियन जब सेवाग्राम आये थे तब उन्होंने मुझसे ‘हिन्द स्वराज्य'की नकल मांगी थी। उन्होंने कहा था : ‘गांधीजी आजकल जो कुछ भी कह रहे हैं वह इस छोटीसी किताबमें बीजके रूपमें है, और गांधीजीको ठीकसे समझनेके लिए यह किताब बार-बार पढ़नी चाहिये।'
अचरजकी बात यह है कि उसी अरसेमें श्रीमती सोफिया वाड़ियाने ‘हिन्द स्वराज्य' के बारे में एक लेख लिखा था, जिसमें उन्होंने हमारे सब मंत्रियोंसे,धारासभाके सदस्योंसे,गोरे और भारतीय सिविलियनोंसे,इतना ही नहीं , आजके लोक-शासनके अहिंसक प्रयोगकी सफलता चाहनेवाले हरएक नागरिकसे यह किताब बार-बार पढ़नेकी सिफारिश की थी। उन्होंने लिखा था: ‘अहिंसक आदमी अपने ही घरमें तानाशाही कैसे चला सकता है? वह शराब कैसे बेच सकता है? अगर वह वकील हो तो अपने मुवक्किलको अदालतमें जाकर लड़नेकी सलाह कैसे दे सकता है? इन सारे सवालोंका जवाब देते समय बहुत ही महत्वके राजनीतिक सवालोंका विचार करना ज़रूरी हो जाता है। ‘हिन्द स्वराज्य' में इन प्रश्नोंकी सिद्धान्तकी दृष्टिसे चर्चा की गई है। इसलिए वह पुस्तक लोगोंमें ज्यादा पढ़ी जानी चाहिये और उसमें जो कहा गया है उसके बारेमें लोकमत तैयार करना चाहिये।'
श्रीमती वाड़ियाकी बिनती ठीक वक्त पर की गई है। १९०९ में गांधीजीने विलायतसे लौटते हुए जहाज पर यह पुस्तक लिखी थी। हिंसक साधनोंमें विश्वास रखनेवाले कुछ भारतीयोंके साथ जो चर्चाएँ हुई थीं, उन परसे उन्होंने मूल पुस्तक गुजरातीमें लिखी थी और 'इण्डियन ओपीनियन' नामक साप्ताहिकमें सिलसिलेवार लेखोंमें उसे प्रगट किया गया था। बादमें
उसे पुस्तकके रूपमें प्रगट किया गया और बम्बई सरकारने उसे ज़ब्त किया। गांधीजीने मि.कैलनबैकके लिए उस किताबका अंग्रेजीमें जो अनुवाद किया था, उसे बम्बई सरकारके हुक्मके जवाबके रूपमें प्रकाशित किया गया। गोखलेजी १९१२ में जब दक्षिण अफ्रीका गये तब उन्होंने वह अनुवाद देखा। उन्हें उसका मजमून इतना अनगढ़ लगा और उसके विचार ऐसे जल्दबाज़ीमें बने हुए लगे कि उन्होने भविष्यवाणी की कि गांधीजी एक साल भारतमें रहनेके बाद खुद ही उस पुस्तकका नाश कर देंगे। गोखलेजीकी वह भविष्यवाणी सच नहीं निकली। १९२१ में गांधीजीने उस पुस्तकके बारेमें लिखते हुए कहा था :
‘वह द्वेषधर्मकी जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसाकी जगह आत्मबलिदानको रखती है; पशुबलसे टक्कर लेनेके लिए आत्मबलको खड़ा करती है। उसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द - और वह एक महिला मित्रकी इच्छाको मान कर - रद किया है। उसे छोड़कर कुछ भी फेरबदल नहीं किया है। इस किताबमें आधुनिक[१] सभ्यताकी सख्त टीका की गई है। यह १९०९ में लिखी गई थी। इसमें मैंने जो मान्यता प्रगट की है, वह आज पहलेसे ज्यादा मजबूत बनी है।... लेकिन मैं पाठकोंको एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताबमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करनेके लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं, मैं जानता हूँ कि अभी हिन्दुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहनेमें शायद ढिठाईका भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है। उसमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पानेकी मेरी निजी कोशिश ज़रूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आजकी मेरी सामूहिक[२] प्रवृत्तिका ध्येय तो हिन्दुस्तानकी प्रजाकी इच्छाके मुताबिक पार्लियामेन्टरी ढंगका स्वराज्य पाना है।' १९३८ में भी गांधीजीको कुछ जगहों पर भाषा बदलनेके सिवा और कुछ फेरबदल करने जैसा नहीं लगा। इसलिए यह किताब किसी भी प्रकारकी काट-छांटके बिना मूल रूपमें ही फिरसे प्रकाशित की जाती है।
लेकिन इसमें बताये हुए स्वराज्यके लिए हिन्दुस्तान तैयार हो या न हो, हिन्दुस्तानियोंके लिए यही उत्तम[३] है कि वे इस बीजरूप ग्रंथका अध्ययन करें। सत्य और अहिंसाके सिद्धान्तोंके स्वीकारसे अंतमें क्या नतीजा आयेगा, उसकी तसवीर इसमें है। इसे पढ़कर उन सिद्धान्तोंको स्वीकार करना चाहिये या उनका त्याग, यह तो पाठक ही तय करें।
वर्धा, २-२-'३८
महादेव हरिभाई देसाई
(अंग्रेजीके गुजराती अनुवाद परसे) जिन सिद्धान्तोंके समर्थन[४] के लिए ‘हिन्द स्वराज्य' लिखी गयी थी, उन सिद्धान्तोंकी आप जाहिरात करना चाहती हैं, यह मुझे अच्छा लगता है। मूल पुस्तक गुजरातीमें लिखी गई थी; अंग्रेजी आवृत्ति[५] गुजरातीका तरजुमा है। यह पुस्तक अगर आज मुझे फिरसे लिखनी हो, तो कहीं कहीं मैं उसकी भाषा बदलूँगा। लेकिन इसे लिखनेके बाद जो तीस साल मैंने अनेक आंधियों में बिताये हैं, उनमें मुझे इस पुस्तकमें बताये हुए विचारोंमें फेरबदल करनेका कुछ भी कारण नहीं मिला। पाठक इतना ख़यालमें रखें कि कुछ कार्यकर्ताओंके साथ, जिनमें एक कट्टर अराजकतावादी[६] थे, मेरी जो बातें हुई थीं, वे जैसीकी तैसी मैंने इस पुस्तकमें दे दी हैं। पाठक इतना भी जान लें कि दक्षिण अफ्रीकाके हिन्दुस्तानियोंमें जो सड़न दाखिल होनेवाली ही थी, उसे इस पुस्तकने रोका था। इसके विरुद्ध दूसरे पल्लेमें रखनेके लिए पाठक मेरे एक स्वर्गीय मित्रकी यह राय भी जान लें कि ‘यह एक मूर्ख आदमीकी रचना है।'
सेवाग्राम, १४-७-'३८
मोहनदास करमचंद गांधी
(अंग्रेजीके गुजराती अनुवाद परसे) मेरी इस छोटीसी किताबकी ओर विशाल जनसंख्याका ध्यान खिंच रहा है, यह सचमुच ही मेरा सौभाग्य है। यह मूल तो गुजरातीमें लिखी गई है। इसका जीवन-क्रम अजीब है। यह पहले-पहल दक्षिण अफ्रीकामें छपनेवाले साप्ताहिक 'इण्डियन ओपीनियन' में प्रगट हुई थी। १९०९में लन्दनसे दक्षिण अफ्रीका लौटते हुए जहाज पर हिन्दुस्तानियोंके हिंसावादी पंथको और उसी विचारधारावाले दक्षिण अफ्रीकाके एक वर्गको दिये गये जवाबके रूपमें यह लिखी गई थी। लन्दनमें रहनेवाले हरएक नामी अराजकतावादी हिन्दुस्तानीके संपर्कमें मैं आया था। उनकी शूरवीरता[७] का असर मेरे मन पर पड़ा था, लेकिन मुझे लगा कि उनके जोशने उलटी राह पकड़ ली है। मुझे लगा कि हिंसा हिन्दुस्तानके दुखोंका इलाज नहीं है, और उसकी संस्कृति[८] को देखते हुए उसे आत्मरक्षा[९] के लिए कोई अलग और ऊंचे प्रकारका शस्र काममें लाना चाहिये। दक्षिण अफ्रीकाका सत्याग्रह उस वक्त मुश्किलसे दो सालका बच्चा था। लेकिन उसका विकास इतना हो चुका था कि उसके बारे में कुछ हद तक आत्म-विश्वाससे लिखनेकी मैंने हिम्मत की थी। मेरी वह लेखमाला पाठकवर्गको इतनी पसन्द आयी कि वह किताबके रूप में प्रकाशित की गई। हिन्दुस्तानमें उसकी ओर लोगोंका कुछ ध्यान गया। बम्बई सरकारने उसके प्रचारकी मनाही कर दी। उसका जवाब मैंने किताबका अंग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करके दिया। मुझे लगा कि अपने अंग्रेज मित्रोंको इस किताब के विचारोंसे वाकिफ करना उनके प्रति[१०] मेरा फ़र्ज है।
मेरी रायमें यह किताब ऐसी है कि यह बालकके हाथमें भी दी जा सकती है। यह द्वेषधर्मकी जगह प्रेमधर्म सिखाती है; हिंसाकी जगह आत्मबलिदानको रखती है; पशुबलसे टक्कर लेनेके लिए आत्मबलको खड़ा करती है। इसकी अनेक आवृत्तियां हो चुकी हैं; और जिन्हें इसे पढ़नेकी परवाह है
उनसे इसे पढ़नेकी मैं जरूर सिफ़ारिश करूंगा। इसमें से मैंने सिर्फ एक ही शब्द-और वह एक महिला मित्रकी इच्छाको मानकर-रद किया है; इसके सिवा और कोई फेरबदल मैंने इसमें नहीं किया है।
इस किताबमें ‘आधुनिक सभ्यता' की सख्त टीका की गई है। यह १९०९ में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रगट की गई है, वह आज पहलेसे ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिन्दुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता' का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ ही होगा।
लेकिन मैं पाठकोंको एक चेतावनी देना चाहता हूँ। वे ऐसा न मान लें कि इस किताबमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खड़ी की है, वैसा स्वराज्य कायम करनेके लिए आज मेरी कोशिशें चल रही हैं। मैं जानता हूँ कि अभी हिन्दुस्तान उसके लिए तैयार नहीं है। ऐसा कहनेमें शायद ढिठाईका भास हो, लेकिन मुझे तो पक्का विश्वास है कि इसमें जिस स्वराज्यकी तसवीर मैंने खींची है, वैसा स्वराज्य पानेकी मेरी निजी कोशिश ज़रूर चल रही है। लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि आज मेरी सामूहिक[११] प्रवृत्तिका ध्येय तो हिन्दुस्तानकी प्रजाकी इच्छाके मुताबिक पार्लियामेन्टरी ढंगका स्वराज्य पाना है। रेलों या अस्पतालोंका नाश करनेका ध्येय मेरे मनमें नहीं है, अगरचे उनका कुदरती नाश हो तो मैं ज़रूर उसका स्वागत करूंगा। रेल या अस्पताल दोनोंमें से एक भी ऊंची और बिलकुल शुद्ध संस्कृतिकी सूचक (चिह्न) नहीं है। ज्यादासे ज्यादा इतना ही कह सकते हैं कि यह एक ऐसी बुराई है, जो टाली नहीं जा सकती। दोनोंमें से एक भी हमारे राष्ट्रकी नैतिक ऊंचाईमें एक इंचकी भी बढ़ती नहीं करती। उसी तरह मैं अदालतोंके स्थायी[१२] नाशका ध्येय मनमें नहीं रखता, हालांकि ऐसा नतीजा आये तो मुझे अवश्य बहुत अच्छा लगेगा। यंत्रों और मिलोके नाशके लिए तो मैं उससे भी कम कोशिश करता हूँ। उसके लिए लोगोंकी आज जो तैयारी है उससे कहीं ज्यादा सादगी और त्यागकी ज़रूरत रहती है। इस पुस्तकमें बताये हुए कार्यक्रम[१३] के एक ही हिस्सेका आज अमल हो रहा है; वह है अहिंसा। लेकिन मैं अफ़सोसके साथ कबूल करूंगा कि उसका अमल भी इस पुस्तकमें दिखाई हुई भावनासे नहीं हो रहा है। अगर हो तो हिन्दुस्तान एक ही रोजमें स्वराज्य पा जाय। हिन्दुस्तान अगर प्रेमके सिद्धान्तको अपने धर्मके एक सक्रिय[१४] अंशके रूपमें स्वीकार करे और उसे अपनी राजनीतिमें शामिल करे, तो स्वराज्य स्वर्गसे हिन्दुस्तानकी धरती पर उतरेगा। लेकिन मुझे दुखके साथ इस बातका भान है कि ऐसा होना बहुत दूरकी बात है।
ये वाक्य मैं इसलिए लिख रहा हूँ कि आजके आन्दोलन[१५] को बदनाम करनेके लिए इस पुस्तकमें से बहुतसी बातोंका हवाला दिया जाता मैंने देखा है। मैंने इस मतलबके लेख भी देखे हैं कि मैं कोई गहरी चाल चल रहा हूँ, आजकी उथल-पुथलसे लाभ उठाकर अपने अजीब ख़याल भारतके सिर लादनेकी कोशिश कर रहा हूँ और हिन्दुस्तानको नुकसान पहुँचाकर अपने धार्मिक प्रयोग कर रहा हूँ। इसका मेरे पास यही जवाब है कि सत्याग्रह ऐसी कोई कच्ची खोखली चीज नहीं है। उसमें कुछ भी दुराव-छिपाव नहीं है, उसमें कुछ भी गुप्तता नहीं है। ‘हिन्द स्वराज्य' में बताये हुए संपूर्ण जीवन-सिद्धांतके एक भागको आचरणमें लानेकी कोशिश हो रही है, इसमें कोई शक नहीं। ऐसा नहीं कि उस समूचे सिद्धान्तका अमल करनेमें जोखिम है; लेकिन आज देशके सामने जो प्रश्न[१६] है उसके साथ जिन हिस्सोंका कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसे हिस्से मेरे लेखोंमें से देकर लोगोंको भड़कानेमें न्याय हरगिज नहीं है।
जनवरी, १९२१मोहनदास करमचंद गांधी
(‘यंग इंडिया' के गुजराती अनुवाद परसे) इस विषय[१७] पर मैंने जो बीस अध्याय[१८] लिखे हैं, उन्हें पाठकोंके सामने रखनेकी मैं हिम्मत करता हूँ।
जब मुझसे रहा ही नहीं गया तभी मैंने यह लिखा है। बहुत पढ़ा, बहुत सोचा। विलायतमें ट्रान्सवाल डेप्युटेशनके साथ मैं चार माह रहा, उस बीच हो सका उतने हिन्दुस्तानियोंके साथ मैंने सोच-विचार किया, हो सका उतने अंग्रेजोंसे भी मैं मिला। अपने जो विचार मुझे आखिरी मालूम हुए, उन्हें पाठकोंके सामने रखना मैंने अपना फ़र्ज समझा।
‘इण्डियन ओपीनियन' के गुजराती ग्राहक आठ सौके करीब हैं। हर ग्राहकके पीछे कमसे कम दस आदमी दिलचस्पीसे यह अखबार पढ़ते हैं, ऐसा मैंने महसूस किया है। जो गुजराती नहीं जानते, वे दूसरोंसे पढ़वाते हैं। इन भाइयोंने हिन्दुस्तानकी हालतके बारेमें मुझसे बहुत सवाल किये हैं। ऐसे ही सवाल मुझसे विलायतमें किये गये थे। इसलिए मुझे लगा कि जो विचार मैंने यों खानगीमें बताये, उन्हें सबके सामने रखना गलत नहीं होगा।
जो विचार यहां रखे गये हैं, वे मेरे हैं और मेरे नहीं भी हैं। वे मेरे हैं, क्योंकि उनके मुताबिक बरतनेकी मैं उम्मीद रखता हूँ; वे मेरी आत्मामें गढे़-जड़े हुए जैसे हैं। वे मेरे नहीं हैं, क्योंकि सिर्फ मैंने ही उन्हें सोचा हो सो बात नहीं। कुछ किताबें पढ़नेके बाद वे बने हैं। दिलमें भीतर ही भीतर मैं जो महसूस करता था, उसका इन किताबोंने समर्थन[१९] किया।
यह साबित करनेकी ज़रूरत नहीं कि जो विचार मैं पाठकोंके सामने रखता हूँ, वे हिन्दुस्तानमें जिन पर (पश्चिमी) सभ्यताकी धुन सवार नहीं
हुई है ऐसे बहुतेरे हिन्दुस्तानियोंके हैं। लेकिन यही विचार यूरोपके हजारों लोगोंके हैं, यह मैं अपने पाठकोंके मनमें अपने सबूतोंसे ही जंचाना चाहता हूं। जिसे इसकी खोज करनी हो, जिसे ऐसी फ़ुरसत हो, वह आदमी वे किताबें देख सकता है। अपनी फ़ुरसतसे उन किताबोंमें से कुछ न कुछ पाठकोंके सामने रखनेकी मेरी उम्मीद है।
'इण्डियन ओपीनियन' के पाठकों या औरोंके मनमें मेरे लेख पढ़कर जो विचार आयें, उन्हें अगर वे मुझे बतायेंगे तो मैं उनका आभारी रहूँगा।
उद्देश्य सिर्फ देशकी सेवा करनेका और सत्यकी खोज करनेका और उसके मुताबिक बरतनेका है। इसलिए अगर मेरे विचार गलत साबित हों, तो उन्हें पकड़ रखनेका मेरा आग्रह नहीं है। अगर वे सच साबित हों तो दूसरे लोग भी उनके मुताबिक बरतें, ऐसी देशके भलेके लिए साधारण तौर पर मेरी भावना रहेगी।
सुमीतेके लिए लेखोंको पाठक और संपादकके बीचके संवादका रूप दिया गया है।
किलडोनन कैसल,
२२-११-१९०९मोहनदास करमचंद गांधी
निवेदन |
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