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हिन्द स्वराज/५

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हिन्द स्वराज
लेखक:मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी

अहमदाबाद - १४: हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ ५५ से – ७२ तक

 

पाठक : हिन्दुस्तान अंग्रेजोंके हाथमें क्यों है, यह समझा जा सकता है। अब मैं हिन्दुस्तानकी हालतके बारेमें आपके विचार जानना चाहता हूँ।

संपादक : आज हिन्दुस्तानकी रंक[] दशा है। यह आपसे कहते हुए मेरी आँखोंमें पानी भर आता है और गला सूख जाता है। यह बात मैं आपको पूरी तरह समझा सकूँगा या नहीं, इस बारेमें मुझे शक है। मेरी पक्की राय है, कि हिन्दुस्तान अंग्रेजोंसे नहीं, बल्कि आजकलकी सभ्यता[]से कुचला जा रहा है, उसकी चपेटमें वह फँस गया है। उसमें से बचनेका अभी भी उपाय है, लेकिन दिन-ब-दिन समय बीतता जा रहा है। मुझे तो धर्म प्यारा है; इसलिए पहला दुख मुझे यह है कि हिन्दुस्तान धर्मभ्रष्ट होता जा रहा है। धर्मका अर्थ मैं यहां हिन्दू, मुस्लिम या जरथोस्ती धर्म नहीं करता। लेकिन इन सब धर्मोंके अन्दर जो 'धर्म' है वह हिन्दुस्तानसे जा रहा है; हम ईश्वरसे विमुख[] होते जा रहे हैं।

पाठक : सो कैसे?

संपादक : हिन्दुस्तान पर यह तोहमत है कि हम आलसी हैं और गोरे लोग मेहनती और उत्साही[] हैं। इसे हमने मान लिया है। इसलिए हम अपनी हालतको बदलना चाहते हैं।

हिन्दू, मुस्लिम, जरथोस्ती, ईसाई सब धर्म सिखाते हैं कि हमें दुनियवी बातोंके बारे में मंद[] और धार्मिक[] बातोंके बारेमें उत्साही रहना चाहिये। हमें अपने दुनियवी लोभकी हद बाँधनी चाहिये और धार्मिक लोभको खुला छोड़ देना चाहिये। हमारा उत्साह[] धार्मिक लोभमें ही रहना चाहिये।

पाठक : इससे तो मालूम होता है कि आप पाखंडी[] बननेकी तालीम देते हैं। धर्मके बारेमें ऐसी बातें करके ठग लोग दुनियाको ठगते आये हैं और आज भी ठग रहे हैं। संपादक : आप धर्म पर गलत आरोप[] लगाते हैं। पाखंड तो सब धर्मोंमें है। जहाँ सूरज है वहाँ अंधेरा रहता ही है। परछाई हरएक चीजके साथ जुड़ी रहती है। धार्मिक ठगोंको आप दुनियवी ठगोंसे अच्छे पायेंगे। सभ्यतामें जो पाखंड मैं आपको बता चुका हूँ, वैसा पाखंड धर्ममें मैंने कभी नहीं देखा।

पाठक : यह कैसे कहा जा सकता है? धर्मके नाम पर हिन्दू-मुसलमान लड़े, धर्मके नाम पर ईसाइयोंमें बड़े बड़े युद्ध हुए। धर्मके नाम पर हजारों बेगुनाह लोग मारे गये, उन्हें जला दिया गया, उन पर बड़ी बड़ी मुसीबतें गुजारी गई। यह तो सभ्यतासे बदतर ही माना जायगा।

संपादक : तो मैं कहूँगा कि यह सब सभ्यताके दुखसे ज्यादा बरदाश्त हो सकने जैसा है। आपने जो कुछ कहा वह पाखंड है, ऐसा सब लोग समझते हैं। इसलिए पाखंडमें फँसे हुए लोग मर गए कि सारा सवाल हल हो गया। जहाँ भोले लोग हैं वहाँ ऐसा ही चलता रहेगा। लेकिन उसका असर हमेशाके लिए बुरा नहीं रहता। सभ्यताकी होलीमें जो लोग जल मरे हैं, उनकी तो कोई हद ही नहीं है। उसकी खूबी यह है कि लोग उसे अच्छा मानकर उसमें कूद पड़ते हैं। फिर वे न तो रहते दीनके और न रहते दुनियाके। वे सच बातको बिलकुल भूल जाते हैं। सभ्यता चूहेकी तरह फूंककर काटती है। उसका असर जब हम जानेंगे तब पुराने वहम मुकाबलेमें हमें मीठे लगेंगे। मेरा कहना यह नहीं कि हमें उन वहमोंको कायम रखना चाहिये। नहीं, उनके ख़िलाफ तो हम लड़ेंगे ही; लेकिन वह लड़ाई धर्मको भूल कर नहीं लड़ी जायगी, बल्कि सही तौर पर धर्मको समझकर और उसकी रक्षा करके लड़ी जायेगी।

पाठक : तब तो आप यह भी कहेंगे कि अंग्रेजोंने हिन्दुस्तानमें शान्तिका जो सुख हमें दिया है वह बेकार है।

संपादक : आप भले शांति देखते हों, पर मैं तो शान्तिका सुख नहीं देखता।

पाठक : तब तो ठग, पिंडारी, भील वगैरा देशमें जो त्रास[१०] गुजारते थे उसमें आपके ख़यालसे कोई बुराई नहीं थी? संपादक : आप जरा सोचेंगे तो मालूम होगा कि उनका त्रास बहुत कम था। अगर सचमुच उनका त्रास भयंकर होता, तो प्रजाका जड़मूलसे कभीका नाश हो जाता। और, हालकी शान्ति तो नामको ही है। मैं यह कहना चाहता हूँ कि इस शान्तिसे हम नामर्द, नपुंसक और डरपोक बन गये हैं। भीलों और पिंडारियोंका स्वभाव अंग्रेजोंने बदल दिया है, ऐसा हम न मान लें । हम पर ऐसा जुल्म होता हो तो हमें उसे बरदाश्त करना चाहिये। लेकिन दूसरे लोग हमें उस जुल्मसे बचावें, यह तो हमारे लिए बिलकुल कलंक[११] जैसा है। हम कमजोर और डरपोक बनें, इससे तो भीलोंके तीर-कमानसे मरना मुझे ज्यादा पसंद है। उस हालतमें जो हिन्दुस्तान था, उसका जोश कुछ दूसरा ही था। मैकॉलेने हिन्दुस्तानियोंको नामर्द माना, वह उसकी अधम अज्ञान दशाको बताता है। हिन्दुस्तानी नामर्द कभी नहीं थे। यह जान लीजिये कि जिस देशमें पहाड़ी लोग बसते हैं, जहाँ बाघ-भेड़िये रहते हैं, उस देशके रहनेवाले अगर सचमुच डरपोक हों तो उनका नाश ही हो जाये। आप कभी खेतोंमें गये हैं? मैं आपसे यकीनन् कहता हूँ कि खेतोंमें हमारे किसान आज भी निर्भय[१२] होकर सोते हैं, जब कि अंग्रेज और आप वहाँ सोनेके लिए आनाकानी करेंगे। बल तो निर्भयता[१३] में है; बदन पर मांसके लोंदे होनेमें बल नहीं है। आप थोड़ा भी सोचेगे तो इस बातको समझ जायेंगे।

और आपको, जो स्वराज्य चाहनेवाले हैं, मैं सावधान[१४] करता हूँ कि भील, पिंडारी और ठग ये सब हमारे ही देशी भाई हैं। उन्हें जीतना मेरा और आपका काम है। जब तक आपके ही भाईका डर आपको रहेगा, तब तक आप कभी मक़सद हासिल नहीं कर सकेंगे।

हिन्दुस्तानकी दशा-२

रेलगाड़ियाँ

पाठक : हिन्दुस्तानकी शान्तिके बारेमें मेरा जो मोह था वह आपने ले लिया। अब तो याद नहीं आता कि आपने मेरे पास कुछ भी रहने दिया हो।

संपादक : अब तक तो मैंने आपको सिर्फ़ धर्मकी दशाका ही ख़याल कराया है। लेकिन हिन्दुस्तान रंक[१५] क्यों है, इस बारेमें मैं अपने विचार आपको बताऊँगा तब तो शायद आप मुझसे नफ़रत ही करेंगे; क्योंकि आज तक हमने और आपने जिन चीजोंको लाभकारी माना है, वे मुझे तो नुकसानदेह ही मालूम होती है।

पाठक : वे क्या है?

संपादक : हिन्दुस्तानको रेलोंने, वकीलोंने और डॉक्टरोंने कंगाल बना दिया है। यह एक ऐसी हालत है कि अगर हम समय पर नहीं चेतेंगे, तो चारों ओरसे घिर कर बरबाद हो जायेंगे।

पाठक: मुझे डर है कि हमारे विचार कभी मिलेंगे या नहीं। आपने तो जो कुछ अच्छा देखनेमें आया है और अच्छा माना गया है, उसी पर घावा बोल दिया है! अब बाकी क्या रहा?

संपादक : आपको धीरज रखना होगा। सभ्यता नुकसान करनेवाली कैसे है, यह तो मुश्किलसे मालूम हो सकता है। डॉक्टर आपको बतलायेंगे कि क्षयका मरीज़ मौतके दिन तक भी जीनेकी आशा रखता है। क्षयका रोग बाहर दिखाई देनेवाली हानि नहीं पहुँचाता और वह रोग आदमीको झूठी लाली देता है। इससे बीमार विश्वासमें बहता रहता है और आखिर डूब जाता है। सभ्यताका भी ऐसा ही समझिये। वह एक अदृश्य[१६] रोग है। उससे चेत कर रहिये। पाठक : अच्छा, तो अब आप रेल-पुराण सुनाइये।

संपादक : आपके दिलमें यह बात तुरन्त उठेगी कि अगर रेल न हो तो अंग्रेजोंका काबू हिन्दुस्तान पर जितना है उतना तो नहीं ही रहेगा। रेलसे महामारी फैली है। अगर रेलगाड़ी न हो तो कुछ ही लोग एक जगहसे दूसरी जगह जायेंगे और इस कारण संक्रामक[१७] रोग सारे देशमें नहीं पहुँच पायेंगे। पहले हम कुदरती तौर पर ही ‘सेग्रेगेशन'-सूतक-पालते थे। रेलसे अकाल बढे हैं, क्योंकि रेलगाड़ीकी सुविधा[१८]के कारण लोग अपना अनाज बेच डालते हैं। जहाँ महंगाई हो वहाँ अनाज खिंच जाता है, लोग लापरवाह बनते हैं और उससे अकालका दुख बढ़ता है। रेलसे दुष्टता[१९] बढ़ती है। बुरे लोग अपनी बुराई तेजीसे फैला सकते हैं। हिन्दुस्तानमें जो पवित्र[२०] स्थान थे, वे अपवित्र[२१] बन गये हैं। पहले लोग बड़ी मुसीबतसे वहाँ जाते थे। ऐसे लोग वहाँ सच्ची भावनासे ईश्वरको भजने जाते थे; अब तो ठगोंकी टोली सिर्फ़ ठगनेके लिए वहाँ जाती है।

पाठक : यह तो आपने इकतरफा बात कही। जैसे खराब लोग वहाँ जा सकते हैं वैसे अच्छे भी तो जा सकते हैं। वे क्यों रेलगाड़ीका पूरा लाभ नहीं लेते?

संपादक : जो अच्छा होता है वह बीरबहूटीकी तरह धीरे चलता है। उसकी रेलसे नहीं बनती। अच्छा करनेवालेके मनमें स्वार्थ नहीं रहता। वह जल्दी नहीं करेगा। वह जानता है कि आदमी पर अच्छी बातका असर डालनेमें बहुत समय लगता है। बुरी बात ही तेजीसे बढ़ सकती है। घर बनाना मुश्किल है, तोड़ना सहल है। इसलिए रेलगाड़ी हमेशा दुष्टताका ही फैलाव करेगी, यह बराबर समझ लेना चाहिये। उससे अकाल फैलेगा या नहीं, इस बारेमें कोई शास्रकार मेरे मनमें घड़ी भर शंका पैदा कर सकता है; लेकिन रेलसे दुष्टता बढ़ती है यह बात जो मेरे मनमें जम गयी है वह मिटनेवाली नहीं है।

पाठक : लेकिन रेलका सबसे बड़ा लाभ दूसरे सब नुकसानोंको भुला देता है। रेल है तो आज हिन्दुस्तानमें एक-राष्ट्रका जोश देखनेमें आता है। इसलिए मैं तो कहूँगा कि रेलके आनेसे कोई नुकसान नहीं हुआ। संपादक : यह आपकी भूल ही है। आपको अंग्रेजोंने सिखाया है कि आप एक-राष्ट्र नहीं थे और एक-राष्ट्र बननेमें आपको सैकड़ों बरस लगेंगे। यह बात बिलकुल बेबुनियाद है। जब अंग्रेज हिन्दुस्तानमें नहीं थे तब हम एक-राष्ट्र थे, हमारे विचार एक थे, हमारा रहन-सहन एक था। तभी तो अंग्रजोंने यहां एक-राज्य क़ायम किया। भेद तो हमारे बीच बादमें उन्होंने पैदा किये।

पाठक : यह बात मुझे ज्यादा समझनी होगी।

संपादक : मैं जो कहता हूँ वह बिना सोचे-समझे नहीं कहता। एक-राष्ट्रका यह अर्थ नहीं कि हमारे बीच कोई मतभेद नहीं था; लेकिन हमारे मुख्य लोग पैदल या बैलगाड़ीमें हिन्दुस्तानका सफ़र करते थे, वे एक-दूसरेकी भाषा सीखते थे और उनके बीच कोई अन्तर नहीं था। जिन दूरदर्शी[२२] पुरुषोंने सेतुबंध रामेश्वर, जगन्नाथपुरी और हरद्वारकी यात्रा ठहराई,[२३] उनका आपकी रायमें क्या ख़याल होगा? वे मूर्ख नहीं थे, यह तो आप कबूल करेंगे। वे जानते थे कि ईश्वर-भजन घर बैठे भी होता है। उन्हींने हमें यह सिखाया है कि मन चंगा तो कठौतीमें गंगा। लेकिन उन्होंने सोचा कि क़ुदरतने हिन्दुस्तानको एक-देश बनाया है, इसलिए वह एक-राष्ट्र होना चाहिये। इसलिए उन्होंने अलग अलग स्थान तय करके लोगोंको एकताका विचार इस तरह दिया, जैसा दुनियामें और कहीं नहीं दिया गया है। दो अंग्रेज जितने एक नहीं हैं उतने हम हिन्दुस्तानी एक थे और एक हैं। सिर्फ़ हम और आप जो खुदको सभ्य मानते हैं उन्हींके मनमें ऐसा आभास (भ्रम) पैदा हुआ कि हिन्दुस्तानमें हम अलग अलग राष्ट्र हैं । रेलके कारण हम अपनेको अलग राष्ट्र मानने लगे और रेलके कारण एक-राष्ट्रका ख़याल फिरसे हमारे मन में आने लगा, ऐसा आप मानें तो मुझे हर्ज नहीं है। अफ़ीमची कह सकता है कि अफ़ीमके नुकसानका पता मुझे अफ़ीमसे चला, इसलिए अफ़ीम अच्छी चीज है। यह सब आप अच्छी तरह सोचिये। अभी आपके मनमें और भी शंकाएं उठेंगी। लेकिन आप खुद उन सबको हल कर सकेंगे। पाठक : आपने जो कुछ कहा उस पर मैं सोचूँगा। लेकिन एक सवाल मेरे मनमें इसी समय उठता है। मुसलमान हिन्दुस्तानमें आये उसके पहलेके हिन्दुस्तानकी बात आपने की। लेकिन अब तो मुसलमानों, पारसियों, ईसाइयोंकी हिन्दुस्तानमें बड़ी संख्या है। वे एक-राष्ट्र नहीं हो सकते। कहा जाता है कि हिन्दू-मुसलमानोंमें कट्टर बैर है। हमारी कहावतें भी ऐसी ही हैं।'मियां और महादेवकी नहीं बनेगी।' हिन्दू पूर्वमें ईश्वरको पूजता है, तो मुस्लिम पश्चिममें पूजता है। मुसलमान हिन्दूको बुतपरस्त-मूर्तिपूजक–मानकर उससे नफ़रत करता है। हिन्दू मूर्तिपूजक है, मुसलमान मूर्तिको तोड़नेवाला है। हिन्दू गायको पूजता है, मुसलमान उसे मारता है। हिन्दू अहिंसक है, मुसलमान हिंसक। यों पग-पग पर जो विरोध[२४] है, वह कैसे मिटे और हिन्दुस्तान एक कैसे हो?

१०

हिन्दुस्तानकी दशा-३

हिन्दू-मुसलमान

संपादक : आपका आख़िरी सवाल बड़ा गम्भीर मालूम होता है। लेकिन सोचने पर वह सहल मालूम होगा। यह सवाल उठा है, उसका कारण भी रेल, वकील और डॉक्टर हैं। वकीलों और डॉक्टरोंका विचार तो अभी करना बाकी है। रेलोंका विचार हम कर चुके। इतना मैं जोड़ता हूँ कि मनुष्य इस तरह पैदा किया गया है कि अपने हाथ-पैरसे बने उतनी ही आने-जाने वगैराकी हलचल उसे करनी चाहिये। अगर हम रेल वगैरा साधनोंसे दौड़धूप करें ही नहीं, तो बहुत पेचीदे सवाल हमारे सामने आयेंगे ही नहीं। हम खुद होकर दुखको न्योतते हैं। भगवानने मनुष्यकी हद उसके शरीरकी बनावटसे ही बाँध दी, लेकिन मनुष्यने उस बनावटकी हदको लाँघनेके उपाय[२५] ढूँढ़ निकाले। मनुष्यको अक़ल इसलिए दी गई है कि उसकी मददसे वह भगवानको पहचाने।
पर मनुष्यने अक़लका उपयोग भगवानको भूलनेमें किया। मैं अपनी कुदरती हदके मुताबिक अपने आसपास रहने वालोंकी ही सेवा कर सकता हूँ; पर मैंने तुरन्त अपनी मगरूरीमें ढूँढ़ निकाला कि मुझे तो सारी दुनियाकी सेवा अपने तनसे करनी चाहिये। ऐसा करनेमें अनेक धर्मोंकि और कई तरहके लोगोंका साथ होगा। यह बोझ मनुष्य उठा ही नहीं सकता और इसलिए अकुलाता है। इस विचारसे आप समझ लेंगे कि रेलगाड़ी सचमुच एक तूफानी साधन है। मनुष्य रेलगाड़ीका उपयोग करके भगवानको भूल गया है।

पाठक : पर मैं तो अब जो सवाल मैंने उठाया है उसका जवाब सुननेको अधीर हो रहा हूँ। मुसलमानोंके आनेसे हमारा एक-राष्ट्र रहा या मिटा?

संपादक : हिन्दुस्तानमें चाहे जिस धर्मके आदमी रह सकते हैं; उससे वह एक-राष्ट्र मिटनेवाला नहीं है। जो नये लोग उसमें दाखिल होते हैं, वे उसकी प्रजाको तोड़ नहीं सकते, वे उसकी प्रजामें घुलमिल जाते हैं। ऐसा हो तभी कोई मुल्क एक-राष्ट्र माना जायगा। ऐसे मुल्कमें दूसरे लोगोंका समावेश करनेका गुण होना चाहिये। हिन्दुस्तान ऐसा था और आज भी है। यों तो जितने आदमी उतने धर्म ऐसा मान सकते हैं। एक-राष्ट्र होकर रहनेवाले लोग एक-दूसरेके धर्ममें दखल नहीं देते; अगर देते हैं तो समझना चाहिये कि वे एक-राष्ट्र होने लायक नहीं हैं। अगर हिन्दू माने कि सारा हिन्दुस्तान सिर्फ़ हिन्दुओंसे भरा होना चाहिये, तो यह एक निरा सपना है। मुसलमान अगर ऐसा मानें कि उसमें सिर्फ़ मुसलमान ही रहें, तो उसे भी सपना ही समझिये। फिर भी हिन्दू, मुसलमान, पारसी, ईसाई, जो इस देशको अपना वतन मानकर बस चुके हैं एक-देशी, एक-मुल्की हैं, वे देशी-भाई हैं, और उन्हें एक-दूसरेके स्वार्थके लिए भी एक होकर रहना पड़ेगा।

दुनियाके किसी भी हिस्सेमें एक-राष्ट्रका अर्थ एक-धर्म नहीं किया गया है; हिन्दुस्तानमें तो ऐसा था ही नहीं।

पाठक : लेकिन दोनों कौमोंके कट्टर बैरका क्या?

संपादक : ‘कट्टर बैर' शब्द दोनोंके दुश्मनने खोज निकाला है। जब हिन्दू-मुसलमान झगड़ते थे तब वे ऐसी बातें भी करते थे। झगड़ा तो हमारा सबका
बंद हो गया है। फिर कट्टर बैर काहेका? और इतना याद रखिये कि अंग्रेजोंके आनेके बाद ही हमारा झगड़ा बन्द हुआ ऐसा नहीं है। हिन्दू लोग मुसलमान बादशाहोंके मातहत और मुसलमान हिन्दू राजाओंके मातहत रहते आये हैं। दोनोंको बादमें समझमें आ गया कि झगड़नेसे कोई फायदा नहीं; लड़ाईसे कोई अपना धर्म नहीं छोड़ेंगे और कोई अपनी जिद भी नहीं छोड़ेंगे। इसलिए दोनोंने मिलकर रहनेका फ़ैसला किया। झगड़े तो फिरसे अंग्रेजोंने शुरू करवाये।

‘मियां और महादेवकी नहीं बनती' इस कहावतका भी ऐसा ही समझिये। कुछ कहावतें हमेशाके लिए रह जाती हैं और नुकसान करती ही रहती हैं। हम कहावतकी धुनमें इतना भी याद नहीं रखते कि बहुतेरे हिन्दुओं और मुसलमानोंके बाप-दादे एक ही थे, हमारे अंदर एक ही खून है। क्या धर्म बदला इसलिए हम आपसमें दुश्मन बन गये? धर्म तो एक ही जगह पहुँचनेके अलग-अलग रास्ते हैं। हम दोनों अलग-अलग रास्ते लें, इससे क्या हो गया? उसमें लड़ाई काहेकी?

और ऐसी कहावतें तो शैवों और वैष्णवोंमें भी चलती हैं; पर इससे कोई यह नहीं कहेगा कि वे एक-राष्ट्र नहीं हैं। वेदधर्मियों और जैनोंके बीच बहुत फर्क माना जाता है, फिर भी इससे वे अलग राष्ट्र नहीं बन जाते। हम गुलाम हो गये हैं, इसीलिए अपने झगड़े हम तीसरेके पास ले जाते हैं।

जैसे मुसलमान मूर्तिका खंडन करनेवाले हैं, वैसे हिन्दुओंमें भी मूर्तिका खंडन करनेवाला एक वर्ग देखनेमें आता है। ज्यों ज्यों सही ज्ञान बढ़ेगा त्यों त्यों हम समझते जायेंगे कि हमें पसन्द न आनेवाला धर्म दूसरा आदमी पालता हो, तो भी उससे बैरभाव रखना हमारे लिए ठीक नहीं; हम उस पर जबरदस्ती न करें।

पाठक : अब गोरक्षाके बारेमें अपने विचार बताइये।

संपादक : मैं खुद गायको पूजता हूँ यानी मान देता हूँ। गाय हिन्दुस्तानकी रक्षा करनेवाली है, क्योंकि उसकी संतान पर हिन्दुस्तानका, जो खेती-प्रधान देश है, आधार है। गाय कई तरहसे उपयोगी जानवर है। वह उपयोगी जानवर है, यह तो मुसलमान भाई भी कबूल करेंगे। लेकिन जैसे मैं गायको पूजता हूँ वैसे मैं मनुष्यको भी पूजता हूँ। जैसे गाय उपयोगी है वैसे मनुष्य भी-फिर चाहे वह मुसलमान हो या हिन्दू-उपयोगी है। तब क्या गायको बचानेके लिए मैं मुसलमानसे लडूँगा? क्या उसे मैं मारूँगा? ऐसा करनेसे मैं मुसलमानका और गायका भी दुश्मन बनूँगा। इसलिए मैं कहूँगा कि गायकी रक्षा करनेका एक यही उपाय है कि मुझे अपने मुसलमान भाईके सामने हाथ जोड़ने चाहिये और उसे देशके खातिर गायको बचानेके लिए समझाना चाहिये। अगर वह न समझे तो मुझे गायको मरने देना चाहिये, क्योंकि वह मेरे बसकी बात नहीं। अगर मुझे गाय पर अत्यंत[२६] दया आती हो तो अपनी जान दे देनी चाहिये, लेकिन मुसलमानकी जान नहीं लेनी चाहिये। वही धार्मिक कानून है, ऐसा मैं तो मानता हूँ।

‘हां’ और ‘नहीं' के बीच हमेशा बैर रहता है। अगर मैं वाद-विवाद[२७] करूंगा, तो मुसलमान भी वाद-विवाद करेगा। अगर मैं टेढ़ा बनूंगा, तो वह भी टेढ़ा बनेगा। अगर मैं बालिश्त भर नमूँगा, तो वह हाथ भर नमेगा; और अगर वह नहीं भी नमे तो मेरा नमना ग़लत नहीं कहलायेगा। जब हमने जिद की तब गोकुशी बढ़ी। मेरी राय है कि गोरक्षा प्रचारिणी सभा गोवंध प्रचारिणी सभा मानी जानी चाहिये। ऐसी सभाका होना हमारे लिए बदनामीकी बात है। जब गायकी रक्षा करना हम भूल गये तब ऐसी सभाकी ज़रूरत पड़ी होगी।

मेरा भाई गायको मारने दौड़े, तो मैं उसके साथ कैसा बरताव करूँगा? उसे मारूँगा या उसके पैरोंमें पडूँगा? अगर आप कहें कि मुझे उसके पांव पड़ना चाहिये, तो मुझे मुसलमान भाईके भी पांव पड़ना चाहिये।

गायको दुख देकर हिन्दू गायका वध करता है; इससे गायको कौन छुड़ाता है? जो हिन्दू गायकी औलादक[२८]को पैना (आर) भोंकता है, उस हिन्दूको कौन समझाता है? इससे हमारे एक-राष्ट्र होनेमें कोई रुकावट नहीं आई है।

अंतमें, हिन्दू अहिंसक और मुसलमान हिंसक है, यह बात अगर सही हो तो अहिंसकका धर्म क्या है? अहिंसकको आदमीकी हिंसा करनी चाहिये,
ऐसा कहीं लिखा नहीं है। अहिंसकके लिए तो राह सीधी है। उसे एकको बचानेके लिए दूसरेकी हिंसा करनी ही नहीं चाहिये। उसे तो मात्र चरण-वंदना करनी चाहिये, सिर्फ़ समझानेका काम करना चाहिये। इसीमें उसका पुरुषार्थ[२९] है।

लेकिन क्या तमाम हिन्दू अहिंसक हैं? सवालकी जड़में जाकर विचार करने पर मालूम होता है कि कोई भी अहिंसक नहीं है, क्योंकि जीवको तो हम मारते ही हैं। लेकिन इस हिंसासे हम छूटना चाहते हैं, इसलिए अहिंसक (कहलाते) हैं। साधारण विचार करनेसे मालूम होता है कि बहुतसे हिन्दू मांस खाने वाले हैं, इसलिए वे अहिंसक नहीं माने जा सकते। खींच-तानकर दूसरा अर्थ करना हो तो मुझे कुछ कहना नहीं है। जब ऐसी हालत है तब मुसलमान हिंसक और हिन्दू अहिंसक हैं, इसलिए दोनोंकी नहीं बनेगी, वह सोचना बिलकुल गलत है।

ऐसे विचार स्वार्थी धर्मशिक्षकों, शास्त्रियों और मुल्लाओंने हमें दिये हैं। और इसमें जो कमी रह गई थी, उसे अंग्रेजोंने पूरा किया है। उन्हें इतिहास लिखनेकी आदत है; हरएक जातिके रीति-रिवाज जाननेका वे दंभ[३०] करते हैं। ईश्वरने हमारा मन तो छोटा बनाया है, फिर भी वे ईश्वरी दावा करते आये हैं और तरह तरहके प्रयोग[३१] करते हैं। वे अपने बाजे खुद बजाते हैं और हमारे मनमें अपनी बात सही होनेका विश्वास जमाते हैं। हम भोलेपनमें उस सब पर भरोसा कर लेते हैं।

जो टेढ़ा नहीं देखना चाहते वे देख सकेंगे कि कुरान शरीफ़में ऐसे सैकड़ों वचन हैं, जो हिन्दुओंको मान्य[३२] हो; भगवद्गीतामें ऐसी बातें लिखी हैं कि जिनके खिलाफ़ मुसलमानको कोई भी एतराज नहीं हो सकता। कुरान शरीफ़का कुछ भाग मैं न समझ पाऊं या कुछ भाग मुझे पसंद न आये, इस वजहसे क्या मैं उसे माननेवालेसे नफ़रत करूं? झगड़ा दोसे ही हो सकता है। मुझे झगड़ा नहीं करना हो, तो मुसलमान क्या करेगा? और मुसलमानको झगड़ा न करना हो, तो मैं क्या कर सकता हूँ? हवामें हाथ उठानेवालेका हाथ
उखड़ जाता है। सब अपने अपने धर्मका स्वरूप समझकर उससे चिपके रहें और शास्त्रियों व मुल्लाओंको बीचमें न आने दें, तो झगड़ेका मुँह हमेशाके लिए काला ही रहेगा।

पाठक : अंग्रेज दोनों क़ौमोंका मेल होने देंगे?

संपादक : यह सवाल डरपोक आदमीका है। यह सवाल हमारी हीनताको दिखाता है। अगर दो भाई चाहते हों कि उनका आपसमें मेल बना रहे, तो कौन उनके बीचमें आ सकता है? अगर तीसरा आदमी दोनोंके बीच झगड़ा पैदा कर सके, तो उन भाईयोंको हम कच्चे दिलके कहेंगे। उसी तरह अगर हम-हिन्दू और मुसलमान-कच्चे दिलके होंगे, तो फिर अंग्रेजोंका क़सूर निकालना बेकार होगा। कच्चा घड़ा एक कंकड़से नहीं तो दूसरे कंकड़से फूटेगा ही। घडे़को बचानेका रास्ता यह नहीं है कि उसे कंकडसे दूर रखा जाय, बल्कि यह है कि उसे पक्का बनाया जाय, जिससे कंकड़का भय ही न रहे। उसी तरह हमें पक्के दिलके बनना है। हम दोनोंमें से कोई एक (भी) पक्के दिलके होंगे, तो तीसरेकी कुछ नहीं चलेगी। यह काम हिन्दू आसानीसे कर सकते हैं। उनकी संख्या बड़ी है, वे अपनेको ज्यादा पढ़े-लिखे मानते हैं; इसलिए वे पक्का दिल रख सकते हैं।

दोंनों क़ौमोके बीच अविश्वास[३३] है, इसलिए मुसलमान लॉर्ड मॉर्लेसे कुछ हक मांगते हैं। इसमें हिन्दू क्यों विरोध करें? अगर हिन्दू विरोध न करें, तो अंग्रेज चौकेंगे, मुसलमान धीरे धीरे हिन्दुओंका भरोसा करने लगेंगे और दोंनोका भाईचारा बढे़गा। अपने झगड़े अंग्रेजोके पास ले जानेमें हमें शरमाना चाहिए। ऐसा करनेसे हिन्दू कुछ खोनेवाले नहीं हैं; इसका हिसाब आप खुद लगा सकेंगे। जिस आदमीने दूसरे पर विश्वास किया, उसने आज तक कुछ खोया नहीं है।

मैं यह नहीं कहना चाहता कि हिन्दू-मुसलमान कभी झगड़ेंगे ही नहीं। दो भाई साथ रहें तो उनके बीच तकरार होती है। कभी हमारे सिर भी फूटेंगे। ऐसा होना ज़रूरी नहीं है, लेकिन सब लोग एकसी अकलके नहीं होते। दोंनों
जोशमें आते हैं तब अकसर गलत काम कर बैठते हैं। उन्हें हमें सहन करना होगा। लेकिन ऐसी तकरारको भी बड़ी वकालत बघारकर हम अंग्रेजोंकी अदालतमें न ले जायें। दो आदमी लडें, लड़ाईमें दोनोंके सिर या एकका सिर फूटे, तो उसमें तीसरा क्या न्याय करेगा? जो लड़ेंगे वे जख्मी भी होंगे। बदनसे बदन टकरायेगा तब कुछ निशानी तो रहेगी ही। उसमें न्याय क्या हो सकता है?

११

हिन्दुस्तानकी दशा-४

वकील

पाठक : आप कहते हैं कि दो आदमी झगड़े तब उसका न्याय भी नहीं कराना चाहिये। यह तो आपने अजीब बात कही।

संपादक : इसे अजीब कहिये या दूसरा कोई विशेषण[३४] लगाइये, पर बात सही है। आपकी शंका हमें वकील-डॉक्टरोंकी पहचान कराती हैं। मेरी राय है कि वकीलोंने हिन्दुस्तानको गुलाम बनाया है, हिन्दू-मुसलमानोंके झगड़े बढ़ाये हैं और अंग्रेजी हुकूमतको यहाँ मजबूत किया है।

पाठक : ऐसे इलजाम लगाना आसान है, लेकिन उन्हें साबित करना मुश्किल होगा। वकीलोंके सिवा दूसरा कौन हमें आज़ादीका मार्ग बताता? उनके सिवा गरीबोंका बचाव कौन करता? उनके सिवा कौन हमें न्याय दिलाता? देखिये, स्व॰ मनमोहन घोषने कितनोंको बचाया? खुद एक कौड़ी भी उन्होंने नहीं ली। कांग्रेस, जिसके आपने ही बखान किये हैं, वकीलोंसे निभती है और उनकी मेहनतसे ही उसमें काम होते हैं। इस वर्गकी[३५] आप निंदा करें, यह इन्साफ़के साथ गैर-इन्साफ़ करने जैसा है। वह तो आपके हाथमें अखबार आया इसलिए चाहे जो बोलनेकी छूट लेने जैसा लगता है।

संपादक : जैसा आप मानते हैं वैसा ही मैं भी एक समय मानता था। वकीलोंने कभी कोई अच्छा काम नहीं किया, ऐसा मैं आपसे नहीं कहना
चाहता। मि॰ मनमोहन घोषकी मैं इज़्ज़त करता हूँ। उन्होंने गरीबोंकी मदद की थी यह बात सही है। कांग्रेसमें वकीलोंने कुछ काम किया है, यह भी हम मान सकते हैं। वकील भी आखिर मनुष्य हैं; और मनुष्यजातिमें कुछ तो अच्छाई है ही। वकीलोंकी भलमनसीके जो बहुतसे किस्से देखनेमें आते हैं, वे तभी हुए जब वे अपनेको वकील समझना भूल गये। मुझे तो आपको सिर्फ़ यही दिखाना है कि उनका धंधा उन्हें अनीति सिखानेवाला है। वे बुरे लालचमें फँसते हैं, जिसमें से उबरनेवाले बिरले ही होते हैं।

हिन्दू-मुसलमान आपसमें लड़े हैं। तटस्थ[३६] आदमी उनसे कहेगा कि आप गयी-बीतीको भूल जायें; इसमें दोनोंका क़सूर रहा होगा। अब दोनों मिलकर रहिये। लेकिन वे वकीलके पास जाते हैं। वकीलका फ़र्ज हो जाता है कि वह मुवक्किलकी ओर जोर लगाये। मुवक्किलके ख़यालमें भी न हों ऐसी दलीलें मुवक्किल ओरसे ढूंढ़ना वकीलका काम है। अगर वह ऐसा नहीं करता तो माना जायगा कि वह अपने पेशेको बट्टा लगाता है। इसलिए वकील तो आम तौर पर झगड़ा आगे बढ़ानेको ही सलाह देगा।

लोग दूसरोंका दुख दूर करनेके लिए नहीं, बल्कि पैसा पैदा करनेके लिए वकील बनते हैं। वह एक कमाईका रास्ता है। इसलिए वकीलका स्वार्थ झगड़ा बढ़ानेमें है। वह तो मेरी जानी हुई बात है कि जब झगड़े होते हैं तब वकील खुश होते हैं। मुख़तार लोग भी वकीलकी जातके हैं। जहाँ झगड़े नहीं होते वहाँ भी वे झगड़े खड़े करते हैं। उनके दलाल जोंककी तरह गरीब लोगोंसे चिपकते हैं और उनका खून चूस लेते हैं। वह पेशा ऐसा है कि उसमें आदमियोंको झगड़ेके लिए बढ़ावा मिलता ही है। वकील लोग निठल्ले होते हैं। आलसी लोग ऐश-आराम करने के लिए वकील बनते हैं। यह सही बात है। वकालतका पेशा बड़ा आबरूदार पेशा है, ऐसा खोज निकालनेवाले भी वकील ही हैं। कानून वे बनाते हैं, उसकी तारीफ़ भी वे ही करते हैं। लोगोंसे क्या दाम लिये जायें, यह भी वे ही तय करते हैं; और लोगों पर रोब जमानेके लिए आडंबर[३७] ऐसा करते हैं, मानो वे आसमानसे उतर कर आये हुए देवदूत[३८] हों! वे मजदूरसे ज्यादा रोज़ी क्यों माँगते हैं? उनकी जरूरतें मज़दूरसे ज्यादा क्यों हैं? उन्होंने मज़दूरसे ज्यादा देशका क्या भला किया है? क्या भला करनेवालेको ज्यादा पैसा लेनेका हक है? और अगर पैसेके खातिर उन्होंने भला किया हो, तो उसे भला कैसे कहा जाय? यह तो उस पेशेका जो गुण है वह मैंने बताया।

वकीलोंके कारण हिन्दू-मुसलमानोंके बीच कुछ दंगे हुए हैं, यह तो जिन्हें अनुभव है वे जानते होंगे। उनसे कुछ खानदान बरबाद हो गये हैं। उनकी बदौलत भाईयोंमें ज़हर दाखिल हो गया है। कुछ रियासतें वकीलोंके जालमें फँसकर क़र्ज़दार हो गयी हैं। बहुतसे गरासिये[३९] इन वकीलोंकी कारस्तानीसे लुट गये हैं। ऐसी बहुतसी मिसालें दी जा सकती हैं।

लेकिन वकीलोंसे बड़ेसे बड़ा नुकसान तो यह हुआ है कि अंग्रेजोंका जुआ हमारी गर्दन पर मजबूत जम गया है। आप सोचिये। क्या आप मानते हैं कि अंग्रेजी अदालतें यहाँ न होतीं तो वे हमारे देशमें राज कर सकते थे? ये अदालतें लोगोंके भलेके लिए नहीं हैं। जिन्हें अपनी सत्ता कायम रखनी है, वे अदालतोंके ज़रिये लोगोंको बसमें रखते हैं। लोग अगर खुद अपने झगड़े निबटा लें, तो तीसरा आदमी उन पर अपनी सत्ता नहीं जमा सकता। सचमुच जब लोग खुद मार-पीट करके या रिश्तेदारोंको पंच बनाकर अपना झगड़ा निबटा लेते थे तब वे बहादुर थे। अदालतें आयीं और वे कायर बन गये। लोग आपसमें लड़ कर झगड़े मिटायें, यह जंगली माना जाता था। अब तीसरा आदमी झगड़ा मिटाता है, यह क्या कम जंगलीपन है? क्या कोई ऐसा कह सकेगा कि तीसरा आदमी जो फैसला देता है वह सही फैसला ही होता है? कौन सच्चा है, यह दोनों पक्षके लोग जानते हैं। हम भोलेपनमें मान लेते हैं कि तीसरा आदमी हमसे पैसे लेकर हमारा इन्साफ़ करता है।

इस बातको अलग रखें। हकीकत तो यही दिखानी है कि अंग्रेजोंने अदालतोंके ज़रिये हम पर अंकुश जमाया है और अगर हम वकील न बनें तो ये अदालतें चल ही नहीं सकतीं। अगर अंग्रेज ही जज होते, अंग्रेज ही वकील
होते और अंग्रेज ही सिपाही होते, तो वे सिर्फ़ अंग्रेजों पर ही राज करते। हिन्दुस्तानी जज और हिन्दुस्तानी वकीलके बगैर उनका काम चल नहीं सका। वकील कैसे पैदा हुए, उन्होने कैसी धांधल मचाई, यह सब अगर आप समझ सकें, तो मेरे जितनी ही नफ़रत आपको भी इस पेशेके लिए होगी। अंग्रेजी सत्ताकी एक मुख्य[४०] कुंजी उनकी अदालतें हैं और अदालतोंकी कुंजी वकील हैं। अगर वकील वकालत करना छोड़ दें और वह पेशा वेश्याके पेशे जैसा नीच माना जाय, तो अंग्रेजी राज एक दिनमें टूट जाय। वकीलोंने हिन्दुस्तानी प्रजा पर यह तोहमत लगवाई है कि हमें झगड़े प्यारे हैं और हम कोर्ट-कचहरी रूपी पानीकी मछलियां हैं।

जो शब्द मैं वकीलोंके लिए इस्तेमाल करता हूँ, वे ही शब्द जजोंको भी लागू होते हैं। ये दोनों मौसेरे भाई हैं और एक-दूसरेको बल देनेवाले हैं।

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हिन्दुस्तानकी दशा-५

डॉक्टर

पाठक : वकीलोंकी बात तो हम समझ सकते हैं। उन्होंने जो अच्छा काम किया है वह जान-बूझकर नहीं किया, ऐसा यकीन होता है। बाकी उनके धंधेको देखा जाय तो वह कनिष्ठ[४१] ही है। लेकिन आप तो डॉक्टरोंको भी उनके साथ घसीटते हैं। यह कैसे?

संपादक : मैं जो विचार आपके सामने रखता हूँ, वे इस समय तो मेरे अपने ही हैं। लेकिन ऐसे विचार मैंने ही किये हैं सो बात नहीं। पश्चिमके सुधारक खुद मुझसे ज्यादा सख्त शब्दोंमें इन धंधोंके बारेमें लिख गये हैं। उन्होंने वकीलों और डॉक्टरोंकी बहुत निंदा की है। उनमेंसे एक लेखकने एक ज़हरी पेड़का चित्र खींचा है, वकील-डॉक्टर वगैरा निकम्मे धंधेवालोंको उसकी शाखाओंके रूपमें बताया है और उस पेड़के तने पर नीति-धर्मकी कुल्हाड़ी
उठाई है। अनीतिको इन सब धंधोंकी जड़ बताया है। इससे आप यह समझ लेंगे कि मैं आपके सामने अपने दिमागसे निकाले हुए नये विचार नहीं रखता, लेकिन दूसरोंका और अपना अनुभव आपके सामने रखता हूँ।

डॉक्टरोंके बारेमें जैसे आपको अभी मोह है वैसे कभी मुझे भी था। एक समय ऐसा था जब मैंने खुद डॉक्टर होनेका इरादा किया था और सोचा था कि डॉक्टर बनकर क़ौमकी सेवा करूंगा। मेरा यह मोह अब मिट गया है। हमारे समाजमें वैद्यका धंधा कभी अच्छा माना ही नहीं गया, इसका भान अब मुझे हुआ है; और उस विचारकी कीमत मैं समझ सकता हूँ।

अंग्रेजोंने डॉक्टरी विद्यासे भी हम पर काबू जमाया है। डॉक्टरोंमें दंभकी भी कमी नहीं है। मुगल बादशाहको भरमानेवाला एक अंग्रेज डॉक्टर ही था। उसने बादशाहके घरमें कुछ बीमारी मिटाई, इसलिए उसे सिरोपाव मिला। अमीरोके पास पहुंचनेवाले भी डॉक्टर ही हैं।

डॉक्टरोंने हमें जड़से हिला दिया है। डॉक्टरोंसे नीम-हकीम ज्यादा अच्छे, ऐसा कहनेका मेरा मन होता है। इस पर हम कुछ विचार करें।

डॉक्टरोंका काम सिर्फ़ शरीरको संभालनेका है; या शरीरको संभालनेका भी नहीं है। उनका काम शरीरमें जो रोग पैदा होते हैं उन्हें दूर करनेका है। रोग क्यों होते हैं? हमारी ही गफ़लतसे। मैं बहुत खाऊँ और मुझे बदहजमी, अजीरन हो जाय; फिर मैं डॉक्टरके पास जाऊँ और वह मुझे गोली दे; गोली खाकर मैं चंगा हो जाऊँ और दुबारा खूब खाऊँ और फिरसे गोली लूँ। अगर मैं गोली न लेता तो अजीरनकी सजा भुगतता और फिरसे बेहद नहीं खाता। डॉक्टर बीचमें आया और उसने हदसे ज्यादा खानेमें मेरी मदद की। उससे मेरे शरीरको तो आराम हुआ, लेकिन मेरा मन कमज़ोर बना। इस तरह आखिर मेरी यह हालत होगी कि मैं अपने मन पर जरा भी काबू न रख सकूँगा।

मैंने विलास किया, मैं बीमार पड़ा; डॉक्टरने मुझे दवा दी और मैं चंगा हुआ। क्या मैं फिरसे विलास नहीं करूँगा? ज़रूर करूँगा। अगर डॉक्टर
बीचमें न आता तो कुदरत अपना काम करती, मेरा मन मजबूत बनता और अन्तमें निर्विषयी[४२] होकर मैं सुखी होता।

अस्पतालें पापकी जड़ हैं। उनकी बदौलत लोग शरीरका जतन कम करते हैं और अनीतिको बढ़ाते हैं|

यूरोपके डॉक्टर तो हद करते हैं। वे सिर्फ़ शरीरके ही गलत जतनके लिए लाखों जीवोंको हर साल मारते हैं, जिंदा जीवों पर प्रयोग करते हैं। ऐसा करना किसी भी धर्मको मंजूर नहीं। हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, जरथोस्ती-सब धर्म कहते हैं कि आदमीके शरीरके लिए इतने जीवोंको मारनेकी ज़रूरत नहीं|

डॉक्टर हमें धर्मभ्रष्ट[४३] करते हैं। उनकी बहुतसी दवाओंमें चरबी या दारू होती है। इन दोनोंमें से एक भी चीज़ हिन्दू-मुसलमानको चल सके ऐसी नहीं है। हम सभ्य होनेका ढोंग करके, दुसरोंको वहमी मानकर और बे-लगाम[४४] होकर चाहे सो करते रहें; यह दूसरी बात है। लेकिन डॉक्टर हमें धर्मसे भ्रष्ट करते हैं, यह साफ और सीधी बात है।

इसका परिणाम[४५] यह आता है कि हम नि:सत्त्व[४६] और नामर्द बनते हैं। ऐसी दशामें हम लोकसेवा करने लायक नहीं रहते और शरीरसे क्षीण[४७] और बुद्धिहीन[४८] होते जा रहे हैं। अंग्रेजी या यूरोपियन डॉक्टरी सीखना गुलामीकी गाँठको मजबूत बनाने जैसा है।

हम डॉक्टर क्यों बनते हैं, यह भी सोचनेकी बात है। उसका सच्चा कारण तो आबरूदार और पैसा कमानेका धंधा करनेकी इच्छा है। उसमें परोपकारकी बात नहीं है। उस धन्धेमें परोपकार नहीं है, यह तो मैं बता चुका। उससे लोगोंको नुकसान होता है। डॉक्टर सिर्फ़ आडम्बर दिखाकर ही लोगोंसे बड़ी फीस वसूल करते हैं और अपनी एक पैसेकी दवाके कई रुपये लेते हैं। यों विश्वासमें और चंगे हो जानेको आशामें लोग डॉक्टरोंसे ठगे जाते हैं। जब ऐसा ही है तब भलाईका दिखावा करनेवाले डॉक्टरोंसे खुले ठग-वैद्य (नीम-हकीम) ज्यादा अच्छे।

  1. कंगाल।
  2. तहजीब।
  3. अलग।
  4. पुरजोश।
  5. सुस्त।
  6. दीनी।
  7. जोश।
  8. ढोंगी।
  9. तोहमत।
  10. जुल्म।
  11. दाग।
  12. निडर।
  13. निडरता।
  14. आगाह।
  15. कंगाल।
  16. गैबी।
  17. फैलानेवाले।
  18. सुभीता।
  19. नीचता।
  20. पाक।
  21. नापाक।
  22. दूरंदेश।
  23. निश्चित की।
  24. बेमेल।
  25. तरकीबें।
  26. बेहद।
  27. बहस।
  28. बैलको।
  29. बहादुरी।
  30. दिखावा।
  31. आजमाइश।
  32. मंजूर।
  33. नाएतबार।
  34. सिफ़त।
  35. जमात।
  36. बेतरफ़दार।
  37. दिखावा।
  38. फ़रिश्ते।
  39. राजवंशी जागीरदार।
  40. बड़ी।
  41. बहुत हलका।
  42. बे-नन्स-परस्त।
  43. बेदीन।
  44. स्वछन्द।
  45. नतीजा।
  46. जिसमें कुछ दम न हो।
  47. कमज़ोर।
  48. बे-अक़्ल।