हिन्द स्वराज/४

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इंग्लैंडकी हालत

पाठक: आप जो कहते हैं उस परसे तो मैं यही अंदाज लगाता हूँ कि इंग्लैंडमें जो राज्य चलता है वह ठीक नहीं है और हमारे लायक नहीं है।

संपादक: आपका यह ख़याल सही है। इंग्लैंडमें आज जो हालत है वह सचमुच दयनीय-तरस खाने लायक है। मैं तो भगवानसे यही माँगता हूँ कि हिन्दुस्तानकी ऐसी हालत कभी न हो। जिसे आप पार्लियामेन्टोंकी माता कहते हैं, वह पार्लियामेन्ट तो बांझ और बेसवा[१] है। ये दोनों शब्द बहुत कड़े हैं, तो भी उसे अच्छी तरह लागू होते हैं। मैंने उसे बांझ कहा, क्योंकि अब तक उस पार्लियामेन्टने अपने आप एक भी अच्छा काम नहीं किया। अगर उस पर जोर-दबाव डालनेवाला कोई न हो तो वह कुछ भी न करे, ऐसी उसकी कुदरती हालत है। और वह बेसवा है क्योंकि जो मंत्री-मंडल उसे रखे उसके पास वह रहती है। आज उसका मालिक एस्क्विथ है, तो कल बालफर होगा और परसों कोई तीसरा।

पाठक: आपके बोलनेमें कुछ व्यंग्य[२] है। बांझ शब्दको अब तक आपने लागू नहीं किया। पार्लियामेन्ट लोगोंकी बनी है, इसलिए बेशक लोगोंके दबावसे ही वह काम करेगी। वही उसका गुण[३] है, उसके ऊपरका अंकुश[४] है।

संपादक: यह बड़ी गलत बात है। अगर पार्लियामेन्ट बांझ न हो तो इस तरह होना चाहिये-लोग उसमें अच्छेसे अच्छे मेम्बर चुनकर भेजते हैं। मेम्बर तनख्वाह नहीं लेते, इसलिए उन्हें लोगोंकी भलाईके लिए (पार्लियामेन्टमें) जाना चाहिये। लोग खुद सुशिक्षित-संस्कारी[५] माने जाते हैं, इसलिए उनसे भूल नहीं होती ऐसा हमें मानना चाहिये। ऐसी पार्लियामेन्टको अर्जीकी ज़रूरत नहीं होनी चाहिये, न दबावकी। उस पार्लियामेन्टका काम इतना सरल होना चाहिये कि दिन-ब-दिन उसका तेज बढ़ता जाय और लोगों [ ४५ ]
पर उसका असर होता जाय। लेकिन इससे उलटे इतना तो सब कबूल करते हैं कि पार्लियामेन्टके मेम्बर दिखावटी और स्वार्थी[६] पाये जाते हैं। सब अपना मतलब साधनेकी सोचते हैं। सिर्फ डरके कारण ही पार्लियामेन्ट कुछ काम करती है। जो काम आज किया वह कल उसे रद करना पड़ता है। आज तक एक भी चीजको पार्लियामेन्टमें ठिकाने लगाया हो ऐसी कोई मिसाल देखनेमें नहीं आती। बड़े सवालोंकी चर्चा जब पार्लियामेन्टमें चलती है, तब उसके मेम्बर पैर फैलाकर लेटते हैं या बैठे बैठे झपकियां लेते हैं। उस पार्लियामेन्टमें मेम्बर इतने जोरोंसे चिल्लाते हैं कि सुननेवाले हैरानपरेशान हो जाते हैं। उसके एक महान लेखकने उसे 'दुनियाकी बातूनी’ जैसा नाम दिया है। मेम्बर जिस पक्ष[७] अगर कोई मेम्बर इसमें अपवादरूप[८] निकल आये, तो उसकी कमबख्ती ही समझिये। जितना समय और पैसा पार्लियामेन्ट खर्च करती है उतना समय और पैसा अगर अच्छे लोगोंको मिले तो प्रजाका उद्धार[९] हो जाय। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट महज़ प्रजाका खिलौना है और वह खिलौना प्रजाको भारी खर्चमें डालता है। ये विचार मेरे खुदके हैं ऐसा आप न मानें। बड़े और विचारशील अंग्रेज ऐसा विचार रखते हैं। एक मेम्बरने तो यहाँ तक कहा है कि पार्लियामेन्ट धर्मिष्ठ[१०] आदमीके लायक नहीं रही। दूसरे मेम्बरने तो कहा है कि पार्लियामेन्ट एक ‘बच्चा' (बेबी) है। बच्चोंको कभी आपने हमेशा बच्चे ही रहते देखा है? आज सात सौ बरसके बाद भी अगर पार्लियामेन्ट बच्चा ही हो, तो वह बड़ी कब होगी?

पाठक: आपने मुझे सोचमें डाल दिया। यह सब मुझे तुरन्त मान लेना चाहिये, ऐसा तो आप नहीं कहेंगे। आप बिलकुल निराले विचार मेरे मनमें पैदा कर रहे हैं। मुझे उन्हें हजम करना होगा। अच्छा, अब ‘बेसवा' शब्दका विवेचन[११] कीजिये।

संपादक: मेरे विचारोंको आप तुरन्त नहीं मान सकतें, यह बात ठीक है। उसके बारेमें आपको जो साहित्य पढ़ना चाहिये वह आप पढेंगे, तो आपको [ ४६ ]
कुछ खयाल आयेगा। पार्लियामेन्टको मैंने बेसवा कहा, वह भी ठीक है। उसका कोई मालिक नहीं है। उसका कोई एक मालिक नहीं हो सकता। लेकिन मेरे कहनेका मतलब इतना ही नहीं है। जब कोई उसका मालिक बनता है-जैसे प्रधानमंत्री-तब भी उसकी चाल एक सरीखी नहीं रहती। जैसे बुरे हाल[१२] बेसवाके होते हैं, वैसे ही सदा पार्लियामेन्टके होते हैं। प्रधानमंत्रीको पार्लियामेन्टकी थोड़ी ही परवाह रहती है। वह तो अपनी सत्ताके मदमें मस्त रहता है। अपना दल कैसे जीते इसीकी लगन उसे रहती है। पार्लियामेन्ट सही काम कैसे करे, इसका वह बहुत कम विचार करता है। अपने दलको बलवान बनानेके लिए प्रधानमंत्री पार्लियामेन्टसे कैसे कैसे काम करवाता है, इसकी मिसालें जितनी चाहिये उतनी मिल सकती हैं। यह सब सोचने लायक है।

पाठक: तब तो आज तक जिन्हें हम देशाभिमानी[१३] और ईमानदार समझते आये हैं, उन पर भी आप टूट पड़ते हैं।

संपादक: हां, यह सच है। मुझे प्रधानमंत्रियोंसे द्वेष[१४] नहीं है। लेकिन तजरबेसे मैंने देखा है कि वे सच्चे देशाभिमानी नहीं कहे जा सकते। जिसे हम घूस कहते हैं वह घूस वे खुल्लमखुल्ला नहीं लेते-देते, इसलिए भले ही वे ईमानदार कहे जायं। लेकिन उनके पास बसीला[१५] काम कर सकता है। वे दूसरोंसे काम निकालनेके लिए उपाधि[१६] वगैराकी घूस बहुत देते हैं। मैं हिम्मतके साथ कह सकता हूँ कि उनमें शुद्ध भावना और सच्ची ईमानदारी नहीं होती।

पाठक: जब आपके ऐसे ख़याल हैं तो जिन अंग्रेजोंके नामसे पार्लियामेन्ट राज करती है उनके बारेमें अब कुछ कहिये, ताकि उनके स्वराज्यका पूरा खयाल मुझे आ जाये।

संपादक: जो अंग्रेज ‘वोटर’ है (चुनाव करते हैं), उनकी धर्म-पुस्तक (बाइबल) तो है अखबार। वे अखबारोंसे अपने विचार बनाते हैं। अखबार [ ४७ ]
अप्रामाणिक[१७] होते हैं, एक ही बातको दो शकलें देते हैं। एक दलवाले उसी बातको बड़ी बनाकर दिखलाते हैं, तो दूसरे दलवाले उसीको छोटी कर डालते हैं। एक अखबारवाला किसी अंग्रेज नेताको प्रामाणिक[१८] मानेगा, तो दूसरा अखबारवाला उसको अप्रामाणिक मानेगा। जिस देशमें ऐसे अखबार हैं उस देशके आदमियोंकी कैसी दुर्दशा होगी?

पाठक: यह तो आप ही बताइये।

संपादक: उन लोगोंके विचार घड़ी-घड़ीमें बदलते हैं। उन लोगोंमें यह कहावत है कि सात सात बरसमें रंग बदलता है। घड़ीके लोलककी तरह वे इधर-उधर घूमा करते हैं। जमकर वे बैठ ही नहीं सकते । कोई दौर-दमामवाला आदमी हो और उसने अगर बड़ी बड़ी बातें कर दीं या दावतें दे दीं, तो वे नक्कारचीकी तरह उसीके ढोल पीटने लग जाते हैं। ऐसे लोगोंकी पार्लियामेन्ट भी ऐसी ही होती है। उनमें एक बात ज़रूर है। वह यह कि वे अपने देशको खोयेंगे नहीं। अगर किसीने उस पर बुरी नजर डाली, तो वे उसकी मिट्टी पलीद कर देंगे। लेकिन इससे उस प्रजामें सब गुण आ गये, या उस प्रजाकी नक़ल की जाय, ऐसा नहीं कह सकते। अगर हिन्दुस्तान अंग्रेज प्रजाकी नकल करे तो हिन्दुस्तान पामाल हो जाय, ऐसा मेरा पक्का ख़याल है।

पाठक: अंग्रेज प्रजा ऐसी हो गई है, इसके आप क्या कारण मानते हैं?

संपादक: इसमें अंग्रेजोंका कोई खास क़सूर नहीं है, पर उनकी-बल्कि यूरोपकी-आजकलकी सभ्यताका क़सूर है। वह सभ्यता नुकसानदेह है और उससे यूरोपकी प्रजा पामाल होती जा रही है। [ ४८ ]

सभ्यता का दर्शन

पाठक: अब तो आपको सभ्यता[१९] की भी बात करनी होगी। आपके हिसाबसे तो यह सभ्यता बिगाड़ करनेवाली है।

संपादक: मेरे हिसाबसे ही नहीं, बल्कि अंग्रेज लेखकोंके हिसाबसे भी यह सभ्यता बिगाड़ करनेवाली है। उसके बारेमें बहुत किताबें लिखी गई हैं। वहाँ इस सभ्यताके खिलाफ़ मंडल भी क़ायम हो रहे हैं। एक लेखकने 'सभ्यता, उसके कारण और उसकी दवा' नामकी किताब लिखी है। उसमें उसने यह साबित किया है कि यह सभ्यता एक तरहका रोग है।

पाठक: यह सब हम क्यों नहीं जानते?

संपादक: इसका कारण तो साफ है।

कोई भी आदमी अपने खिलाफ़ जानेवाली बात करे ऐसा शायद ही होता है। आजकी सभ्यताके मोहमें फंसे हुए लोग उसके खिलाफ़ नहीं लिखेंगे, उलटे उसको सहारा मिले ऐसी ही बातें और दलीलें ढूंढ़ निकालेंगे। यह वे जान-बूझकर करते हैं ऐसा भी नहीं है। वे जो लिखते हैं उसे खुद सच मानते हैं। नींदमें आदमी जो सपना देखता है, उसे वह सही मानता है। जब उसकी नींद खुलती है तभी उसे अपनी गलती मालूम होती है। ऐसी ही दशा सभ्यताके मोहमें फँसे हुए आदमीकी होती है। हम जो बातें पढ़ते हैं वे सभ्यताकी हिमायत करनेवालोंकी लिखी बातें होती हैं। उनमें बहुत होशियार और भले आदमी हैं। उनके लेखोंसे हम चौंधिया जाते हैं। यो एकके बाद दूसरा आदमी उसमें फँसता जाता है।

पाठक: यह बात आपने ठीक कही। अब आपने जो कुछ पढ़ा और सोचा है, उसका ख़याल मुझे दीजिये।

संपादक: पहले तो हम यह सोचें कि सभ्यता किस हालतका नाम है। इस सभ्यताकी सही पहचान तो यह है कि लोग बाहरी (दुनिया) की खोजोंमें [ ४९ ]
और शरीरके सुखमें धन्यता–सार्थकता[२०] और पुरुषार्थ[२१] मानते हैं। इसकी कुछ मिसालें लें। सौ साल पहले यूरोपके लोग जैसे घरोंमें रहते थे उनसे ज्यादा अच्छे घरोंमें आज वे रहते हैं; यह सभ्यताकी निशानी मानी जाती है। इसमें शरीरके सुखकी बात है। इसके पहले लोग चमड़ेके कपड़े पहनते थे और भालोंका इस्तेमाल करते थे। अब वे लंबे पतलून पहनते हैं और शरीरको सजानेके लिए तरह-तरहके कपड़े बनवाते हैं; और भालेके बदले एकके बाद एक पांच गोलियां छोड़ सके ऐसी चक्करवाली बन्दूक इस्तेमाल करते हैं। यह सभ्यताकी निशानी है। किसी मुल्कके लोग, जो जूते वगैरा नहीं पहनते हों, जब यूरोपके कपड़े पहनना सीखते हैं, तो जंगली हालतमें से सभ्य हालतमें आये हुए माने जाते हैं। पहले यूरोपमें लोग मामूली हलकी मददसे अपने लिए जात-मेहनत करके ज़मीन जोतते थे। उसकी जगह आज भापके यंत्रोंसे हल चलाकर एक आदमी बहुत सारी ज़मीन जोत सकता है और बहुत-सा पैसा जमा कर सकता है। यह सभ्यताकी निशानी मानी जाती है। पहले लोग कुछ ही किताबें लिखते थे और वे अनमोल मानी जाती थीं। आज हर कोई चाहे जो लिखता है और छपवाता है और लोगोंके मनको भरमाता है। यह सभ्यताकी निशानी है। पहले लोग बैलगाड़ीसे रोज बारह कोसकी मंज़िल तय करते थे। आज रेलगाड़ीसे चार सौ कोसकी मंज़िल मारते हैं। यह तो सभ्यताकी चोटी[२२] मानी गई है। यह सभ्यता जैसे जैसे आगे बढ़ती जाती है वैसे वैसे यह सोचा जाता है कि लोग हवाई जहाजसे सफ़र करेंगे और थोड़े ही घंटोंमें दुनियाके किसी भी भाग[२३] में जा पहुंचेंगे। लोगोंको हाथ-पैर हिलानेकी ज़रूरत नहीं रहेगी। एक बटन दबाया कि आदमीके सामने पहननेकी पोशाक हाज़िर हो जायेगी, दुसरा बटन दबाया कि उसे अखबार मिल जायेंगे, तीसरा दबाया कि उसके लिए गाड़ी तैयार हो जायेगी; हर हमेशा नये भोजन मिलेंगे, हाथ-पैरका काम ही नहीं पड़ेगा, सारा काम कल[२४] से ही किया जायगा। पहले जब लोग लड़ना चाहते थे तो एक-दूसरेका शरीर-बल आजमाते थे। आज तो [ ५० ]
तोपके एक गोलेसे हजारों जानें ली जा सकती हैं। यह सभ्यताकी निशानी है। पहले लोग खुली हवामें अपनेको ठीक लगे उतना काम स्वतन्त्रतासे करते थे। अब हजारों आदमी अपने गुज़ारेके लिए इकट्ठा होकर बड़े कारखानोंमें या खानोंमें काम करते हैं। उनकी हालत जानवरसे भी बदतर हो गई है। उन्हें सीसे वगैराके कारखानोंमें जानको जोखिममें डालकर काम करना पड़ता है। इसका लाभ पैसेदार लोगोंको मिलता है। पहले लोगोंको मार-पीट कर गुलाम बनाया जाता था; आज लोगोंको पैसेका और भोग[२५] का लालच देकर गुलाम बनाया जाता है। पहले जैसे रोग नहीं थे वैसे रोग आज लोगोंमें पैदा हो गये हैं और उसके साथ डॉक्टर खोज करने लगे हैं कि ये रोग कैसे मिटाये जायं। ऐसा करनेसे अस्पताल बढ़े हैं। यह सभ्यताकी निशानी मानी जाती है। पहले लोग पत्र लिखते थे तब खास क़ासिद उसे ले जाता था और उसके लिए काफी खर्च लगता था। आज मुझे किसीको गालियाँ देने के लिए पत्र लिखना हो, तो एक पैसेमें मैं गालियाँ दे सकता हूँ, किसीको मुझे मुबारकबाद देना हो तो भी मैं उसी दाममें पत्र भेज सकता हूँ। यह सभ्यताकी निशानी है। पहले लोग दो या तीन बार खाते थे और वह भी खुद हाथसे पकाई हुई रोटी और थोड़ी तरकारी। अब तो हर दो घंटे पर खाना चाहिये, और वह यहाँ तक कि लोगोंको खानेसे फुरसत ही नहीं मिलती। और कितना कहूँ? यह सब आप किसी भी पुस्तकमें पढ़ सकते हैं। ये सब सभ्यताकी सच्ची निशानियाँ मानी जाती हैं। और अगर कोई भी इससे भिन्न बात समझाये, तो वह भोला है ऐसा निश्चय[२६] ही मानिये। सभ्यता तो मैंने जो बतायी वही मानी जाती है। उसमें नीति या धर्मकी बात ही नहीं है। सभ्यताके हिमायती साफ कहते हैं कि उनका काम लोगोंको धर्म सिखानेका नहीं है। धर्म तो ढोंग है, ऐसा कुछ लोग मानते हैं। और कुछ लोग धर्मका दम्भ करते हैं, नीतिकी बातें भी करते हैं। फिर भी मैं आपसे बीस बरसके अनुभव[२७] के बाद कहता हूँ कि नीतिके नामसे अनीति सिखलाई जाती है। ऊपरकी बातोंमें नीति हो ही नहीं सकती, यह कोई बच्चा भी समझ सकता है। शरीरका सुख कैसे मिले, यही [ ५१ ]
आजकी सभ्यता ढूँढती है; और यही देनेकी वह कोशिश करती है। परंतु वह सुख भी नहीं मिल पाता।

यह सभ्यता तो अधर्म है और यह यूरोपमें इतने दरजे तक फैल गयी है कि वहाँके लोग आधे पागल जैसे देखनेमें आते हैं। उनमें सच्ची कूबत नहीं है; वे नशा करके अपनी ताक़त क़ायम रखते है। एकान्तमें[२८] वे बैठ ही नहीं सकते। जो स्त्रियां घरकी रानियाँ होनी चाहिये, उन्हें गलियोंमें भटकना पड़ता है, या कोई मज़दूरी करनी पड़ती है। इंग्लैंडमें ही चालीस लाख गरीब औरतोंको पेटके लिए सख्त मज़दूरी करनी पड़ती है, और आजकल इसके कारण 'सफ्रेजेट' का आन्दोलन[२९] चल रहा है।

यह सभ्यता ऐसी है कि अगर हम धीरज धर कर बैठे रहेंगे, तो सभ्यताकी चपेटमे आये हुए लोग खुदकी जलायी हुई आगमें जल मरेंगे। पैगम्बर मोहम्मद साहबकी सीखके मुताबिक यह शैतानी सभ्यता है। हिन्दू धर्म इसे निरा 'कलजुग' कहता है। मैं आपके सामने इस सभ्यताका हूबहू चित्र नहीं खींच सकता। यह मेरी शक्तिके बाहर है। लेकिन आप समझ सकेंगे कि इस सभ्यताके कारण अंग्रेज प्रजामें सड़नने घर कर लिया है। यह सभ्यता दूसरोंका नाश करनेवाली और खुद नाशवान है। इससे दूर रहना चाहिये और इसीलिए ब्रिटिश और दूसरी पर्लियामेन्टें बेकार हो गईं हैं। ब्रिटिश पार्लियामेन्ट अंग्रेज प्रजाकी गुलामीकी निशानी है, यह पक्की बात है। आप पढ़ेंगे और सोचेंगे तो आपको भी ऐसा ही लगेगा। इसमें आप अंग्रेजोंका दोष[३०] न निकालें। उन पर तो हमें दया आनी चाहिये। वे काबिल प्रजा हैं इसलिए किसी दिन उस जालसे निकल जायेंगे ऐसा मैं मानता हूँ। वे साहसी और मेहनती हैं। मूलमें उनके विचार अनीतिभरे नही है, इसलिए उनके बारेमें मेरे मनमें उत्तम[३१] ख़याल ही है। उनका दिल बुरा नहीं है। यह सभ्यता उनके लिए कोई अमिट रोग नहीं है। लेकिन अभी वे उस रोगमें फँसे हुए हैं, यह तो हमें भूलना ही नहीं चाहिये। [ ५२ ]पाठक : आपने सभ्यताके बारेमें बहुत कुछ कहा; और मुझे विचारमें डाल दिया। अब तो मैं इस संकट[३२]में आ पड़ा हूँ कि यूरोपकी प्रजासे मैं क्या लूँं और क्या न लूँ। लेकिन एक सवाल मेरे मनमें तुरन्त उठता है: अगर आजकी सभ्यता बिगाड़ करनेवाली है, एक रोग है, तो ऐसी सभ्यतामें फँसे हुए अंग्रेज हिन्दुस्तानको कैसे ले सके? इसमें वे कैसे रह सकते हैं?

संपादक : आपके इस सवालका जवाब कुछ आसानीसे दिया जा सकेगा और अब थोड़ी देरमें हम स्वराज्यके बारेमें भी विचार कर सकेंगे। आपके इस सवालका जवाब अभी देना बाकी है, यह मैं भूला नहीं हूँ। लेकिन आपके आखिरी सवाल पर हम आयें। हिन्दुस्तान अंग्रेजोंने लिया सो बात नहीं है, बल्कि हमने उन्हें दिया है। हिन्दुस्तानमें वे अपने बलसे नहीं टिके हैं, बल्कि हमने उन्हें टिका रखा है। वह कैसे सो देखें। आपको मैं याद दिलाता हूँ कि हमारे देशमें वे दरअसल व्यापारके लिए आये थे। आप अपनी कंपनी बहादुरको याद कीजिये। उसे बहादुर किसने बनाया? वे बेचारे तो राज करनेका इरादा भी नहीं रखते थे। कंपनीके लोगों की मदद किसने की? उनकी चाँदीको देखकर कौन मोहमें पड़ जाता था? उनका माल कौन बेचता था? इतिहास[३३] सबूत देता है कि यह सब हम ही करते थे। जल्दी पैसा पानेके मतलबसे हम उनका स्वागत करते थे। हम उनकी मदद करते थे। मुझे भांग पीनेकी आदत हो और भांग बेचनेवाला मुझे भांग बेचे, तो क़सूर बेचनेवालेका निकालना चाहिये या अपना खुदका? बेचनेवालेका क़सूर निकालनेसे मेरा व्यसन[३४] थोड़े ही मिटनेवाला है? एक बेचनेवालेको भगा देंगे तो क्या दूसरे मुझे भांग नहीं बेचेंगे? हिन्दुस्तानके सच्चे सेवकको अच्छी तरह खोज करके इसकी जड़ तक पहुँचना होगा। ज्यादा खानेसे अगर मुझे अजीर्ण[३५] हुआ हो, तो मैं पानीका दोष निकाल कर अजीर्ण दूर नहीं कर सकूँगा। सच्चा डॉक्टर [ ५३ ]
तो वह है जो रोगकी जड़ खोजे। आप अगर हिन्दुस्तानके रोगके डॉक्टर होना चाहते हैं, तो आपको रोगकी जड़ खोजनी ही पड़ेगी।

पाठक: आप सच कहते हैं। अब मुझे समझानेके लिए आपको दलील करनेकी ज़रूरत नहीं रहेगी। मैं आपके विचार जाननेके लिए अधीर बन गया हूँ। अब हम बहुत ही दिलचस्प विषय[३६] पर आ गये हैं, इसलिए मुझे आप अपने ही विचार बतायें। जब उनके बारेमें शंका पैदा होगी तब मैं आपको रोकूँगा।

संपादक: बहुत अच्छा । पर मुझे डर है कि आगे चलने पर हमारे बीच फिरसे मतभेद ज़रूर होगा। फिर भी जब आप मुझे रोकेंगे तभी मैं दलीलमें उतरूंगा। हमने देखा कि अंग्रेज व्यापारियोंको हमने बढ़ावा दिया तभी वे हिन्दुस्तानमें अपने पैर फैला सके। वैसे ही जब हमारे राजा लोग आपसमें झगड़े तब उन्होंने कंपनी बहादुरसे मदद माँगी। कंपनी बहादुर व्यापार और लड़ाईके काममें कुशल[३७] थी। उसमें उसे नीति-अनीतिकी अड़चन नहीं थी। व्यापार बढ़ाना और पैसा कमाना, यही उसका धंधा था। उसमें जब हमने मदद दी तब उसने हमारी मदद ली और अपनी कोठियाँ बढ़ाईं। कोठियोंका बचाव करनेके लिए उसने लश्कर रखा। उस लश्करका हमने उपयोग किया, इसलिए अब उसे दोष देना बेकार है। उस वक्त हिन्दू-मुसलमानोंके बीच बैर था। कंपनीको उससे मौक़ा मिला। इस तरह हमने कंपनीके लिए ऐसे संजोग पैदा किये, जिससे हिन्दुस्तान पर उसका अधिकार हो जाय। इसलिए हिन्दुस्तान गया ऐसा कहनेके बजाय ज्यादा सच यह कहना होगा कि हमने हिन्दुस्तान अंग्रजोंको दिया।

पाठक: अब अंग्रेज हिन्दुस्तानको कैसे रख सकते हैं सो कहिये।

संपादक: जैसे हमने हिन्दुस्तान उन्हें दिया वैसे ही हम हिन्दुस्तानको उनके पास रहने देते हैं। उन्होंने तलवारसे हिन्दुस्तान लिया ऐसा उनमें से कुछ कहते हैं, और ऐसा भी कहते हैं कि तलवारसे वे उसे रख रहे हैं। ये दोनों बातें गलत हैं। हिन्दुस्तानको रखनेके लिए तलवार किसी काममें नहीं आ सकती; हम खुद ही उन्हें यहाँ रहने देते हैं। [ ५४ ]
नेपोलियनने अंग्रेजोंको व्यापारी प्रजा कहा है। वह बिलकुल ठीक बात है। वे जिस देशको (अपने काबूमें) रखते हैं, उसे व्यापारके लिए रखते हैं, यह जानने लायक है। उनकी फ़ौजें और जंगी बेड़े सिर्फ व्यापारकी रक्षा[३८] के लिए हैं। जब ट्रान्सवालमें व्यापारका लालच नहीं था तब मि॰ ग्लेडस्टनको तुरन्त सूझ गया कि ट्रान्सवाल अंग्रेजोंको नहीं रखना चाहिये। जब ट्रान्सवालमें व्यापारका आकर्षण देखा तब उससे लड़ाई की गई और मि॰ चेम्बरलेनने यह ढूंढ़ निकाला कि ट्रान्सवाल पर अंग्रेजोंकी हुकूमत है। मरहूम प्रेसिडेन्ट क्रूगरसे किसीने सवाल किया : ‘चाँदमें सोना है या नहीं?' उसने जवाब दिया :'चाँदमें सोना होनेकी संभावना नहीं है,क्योंकि सोना होता तो अंग्रेज अपने राजके साथ उसे जोड़ देते।' पैसा उनका खुदा है, यह ध्यानमें रखनेसे सब बातें साफ हो जायेगी।

तब अंग्रेजोंको हम हिन्दुस्तामें सिर्फ़ अपनी गरज़से रखते हैं। हमें उनका व्यापार पसंद आता है। वे चालबाजी करके हमें रिझाते हैं और रिझाकर हमसे काम लेते हैं। इसमें उनका दोष निकालना उनकी सत्ताको निभाने जैसा है। इसके अलावा, हम आपसमें झगड़कर उन्हें ज्यादा बढ़ावा देते हैं।

अगर आप ऊपरकी बातको ठीक समझते हैं, तो हमने यह साबित कर दिया कि अंग्रेज व्यापारके लिए यहाँ आये, व्यापारके लिए यहाँ रहते हैं और उनके रहनेमें हम ही मददगार हैं। उनके हथियार तो बिलकुल बेकार हैं।

इस मौक़े पर मैं आपको याद दिलाता हूँ कि जापानमें अंग्रेजी झंडा लहराता है ऐसा आप मानिये। जापानके साथ अंग्रेजोंने जो करार किया है वह अपने व्यापारके लिए किया है। और आप देखेंगे कि जापानमें अंग्रेज लोग अपना व्यापार खूब जमायेंगे। अंग्रेज अपने मालके लिए सारी दुनियाको अपना बाजार बनाना चाहते हैं। यह सच है कि ऐसा वे नहीं कर सकेंगे। इसमें उनका कोई क़सूर नहीं माना जा सकता। अपनी कोशिशमें वे कोई कसर नहीं रखेंगे।

  1. वेश्या।
  2. भेद।
  3. सिफ़त।
  4. काबू।
  5. तालीमयाफ़्ता।
  6. खुदगरज।
  7. दल, पार्टी।
  8. इस्तुनाके तौर पर।
  9. बेहतर हालत।
  10. दीनदार।
  11. तफ़सीर।
  12. दुर्दशा।
  13. हुज-उल-वतन।
  14. बैर।
  15. सिफ़ारिश।
  16. इलकाब।
  17. बेईमान।
  18. ईमानदार।
  19. तहजीब।
  20. पुरअरमानी।
  21. बहादुरी, बड़ा काम।
  22. शिखर।
  23. हिस्सा।
  24. यंत्र।
  25. मज़ा, आनन्द।
  26. खसूसन।
  27. तजरबा।
  28. तनहाई।
  29. तहरीक।
  30. कसूर।
  31. बहुत अच्छे।
  32. पसोपेश, दुविधा।
  33. तवारीख।
  34. लत, कुटेव।
  35. बदहजमी।
  36. बात।
  37. होशियार।
  38. रखवाली।