हिन्द स्वराज/७

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सत्याग्रह-आत्मबल

पाठक : आप जिस सत्याग्रह या आत्मबलकी बात करते हैं, उसका इतिहासमें कोई प्रमाण[१] है? आज तक दुनियाका एक भी राष्ट्र इस बलसे ऊपर चढ़ा हो, ऐसा देखनेमें नहीं आता। मार-काटके बिना बुरे लोग सीधे रहेंगे ही नहीं, ऐसा विश्वास अभी भी मेरे मनमें बना हुआ है।

संपादक : कवि तुलसीदासजी ने लिखा है :

दया धरमको मूल है, पापमूल[२] अभिमान,

तुलसी दया न छाँड़िये, जब लग घटमें प्रान।

मुझे तो यह वाक्य शास्र-वचन जैसा लगता है। जैसे दो और दो चार ही होते हैं, उतना ही भरोसा मुझे ऊपरके वचन पर है। दयाबल आत्मबल है, सत्याग्रह है। और इस बलके प्रमाण पग पग पर दिखाई देते हैं। अगर यह बल नहीं होता, तो पृथ्वी रसातल(सात पातालोंमें से एक)में पहुँच गई होती।

लेकिन आप तो इतिहासका प्रमाण चाहते हैं। इसके लिए हमें इतिहासका अर्थ जानना होगा।

‘इतिहास'का शब्दार्थ है: ‘ऐसा हो गया।' ऐसा अर्थ करें तो आपको सत्याग्रहके कई प्रमाण दिये जा सकेंगे। ‘इतिहास' जिस अंग्रेजी शब्दका तरजुमा है और जिस शब्दका अर्थ बादशाहों या राजाओंकी तवारीख़ होता है, उसका अर्थ लेनेसे सत्याग्रहका प्रमाण नहीं मिल सकता। जस्तेकी खानमें आप अगर चाँदी ढूँढ़ने जाए, तो वह कैसे मिलेगी? ‘हिस्टरी'में दुनियाके कोलाहलकी ही कहानी मिलेगी। इसलिए गोरे लोगों में कहावत है कि जिस राष्ट्रकी ‘हिस्टरी’ (कोलाहल) नहीं है वह राष्ट्र सुखी है। राजा लोग कैसे खेलते थे, कैसे खून करते थे, कैसे बैर रखते थे, यह सब ‘हिस्टरी'में मिलता है। अगर यही इतिहास होता, अगर इतना ही हुआ होता, तब तो यह दुनिया { [ ९१ ]
कबकी डूब गई होती। अगर दुनियाकि कथा लड़ाईसे शुरू हुई होती, तो आज एक भी आदमी ज़िंदा नहीं रहता। जो प्रजा लड़ाईका ही भोग (शिकार) बन गई, उसकी ऐसी ही दशा हुई है। आस्ट्रेलियाके हब्शी लोगोंका नामोनिशान मिट गया है। आस्ट्रेलियाके गोरोंने उनमें से शायद ही किसीको जीने दिया है। जिनकी जड़ ही खतम हो गई, वे लोग सत्याग्रही नहीं थे। जो ज़िंदा रहेंगे वे देखेंगे कि आस्ट्रेलियाके गोरे लोगोंके भी यही हाल होंगे। ‘जो तलवार चलाते हैं उनकी मौत तलवारसे ही होती है।' हमारे यहाँ ऐसी कहावत है कि 'तैराककी मौत पानीमे'।

दुनिया में इतने लोग आज भी ज़िन्दा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार-बल पर नहीं है, परन्तु सत्य, दया या आत्मबल पर है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दुनिया लड़ाईके हंगामोंके बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाईके बलके बजाय दूसरा ही बल उसका आधार है।

हजारों बल्कि लाखों लोग प्रेमके बस रहकर अपना जीवन बसर करते हैं। करोड़ों कुटुम्बोंका क्लेश[३] प्रेमकी भावनामें समा जाता है, डूब जाता है। सैकड़ों राष्ट्र मेलजोलसे रहे हैं, इसको 'हिस्टरी' नोट नहीं करती; ‘हिस्टरी' कर भी नहीं सकती। जब इस दयाकी, प्रेमकी और सत्यकी धारा रुकती है, टूटती है, तभी इतिहासमें वह लिखा जाता है। एक कुटुम्बके दो भाई लड़े। इसमें एकने दूसरेके ख़िलाफ सत्याग्रहका बल काममें लिया। दोनों फिरसे मिल-जुलकर रहने लगे। इसका नोट कौन लेता है? अगर दोनों भाइयोंमें वकीलोंकी मददसे या दूसरे कारणोंसे वैरभाव बढ़ता और वे हथियारों या अदालतों (अदालत एक तरहका हथियार-बल, शरीर-बल ही है) के ज़रिये लड़ते, तो उनके नाम अखबारोंमें छपते, अड़ोस-पड़ोसके लोग जानते और शायद इतिहासमें भी लिखे जाते। जो बात कुटुम्बों, जमातों और इतिहास के बारेमें सच है, वही राष्ट्रोंके बारेमें भी समझ लेना चाहिये। कुटुम्बके लिए एक कानून और राष्ट्रके लिए दूसरा, ऐसा माननेका कोई कारण नहीं है। [ ९२ ]
'हिस्टरी' अस्वाभाविक[४] बातोंको दर्ज करती है। सत्याग्रह स्वाभाविक है, इसलिए उसे दर्ज करनेकी ज़रूरत ही नहीं है।

पाठक : आपके कहे मुताबिक तो यही समझमें आता है कि सत्याग्रहकी मिसालें इतिहासमें नहीं लिखी जा सकतीं। इस सत्याग्रहकों ज्यादा समझनेकी ज़रूरत है। आप जो कुछ कहना चाहते हैं, उसे ज्यादा साफ शब्दोमें कहेंगे, तो अच्छा होगा।

संपादक : सत्याग्रह या आत्मबलको अंग्रेजीमें 'पैसिव रेज़िस्टेन्स' कहा जाता है। जिन लोगोंने अपने अधिकार पानेके लिए खुद दुख सहन किया था, उनके दुख सहनेके ढंगके लिए यह शब्द बरता गया है। उसका ध्येय[५] लड़ाईके ध्येयसे उल्टा है। जब मुझे कोई काम पसन्द न आये और वह काम मैं न करूँ, तो उसमें मैं सत्याग्रह या आत्मबलका उपयोग करता हूँ।

मिसाल के तौर पर, मुझे लागू होनेवाला कोई कानून सरकारने पास किया। वह कानून मुझे पसन्द नहीं है। अब अगर मैं सरकार पर हमला करके यह कानून रद करवाता हूँ, तो कहा जाएगा कि मैंने शरीर-बलका उपयोग किया। अगर मैं उस कानूनको मंज़ूर ही न करूँ और उस कारणसे होनेवाली सजा भुगत लूँ, तो कहा जाएगा कि मैंने आत्मबल या सत्याग्रहसे काम लिया। सत्याग्रहमें मैं अपना ही बलिदान देता हूँ।

यह तो सब कोई कहेंगे कि दूसरेका भोग-बलिदान लेनेसे अपना भोग देना ज्यादा अच्छा है। इसके सिवा, सत्याग्रहसे लड़ते हुए अगर लड़ाई गलत ठहरी, तो सिर्फ़ लड़ाई छेड़नेवाला ही दुख भोगता है। यानी अपनी भूल की सजा वह खुद भोगता है। ऐसी कई घटनायें हुई हैं जिनमें लोग गलतीसे शामिल हुए थे। कोई भी आदमी दावेसे यह नहीं कह सकता कि फलां काम खराब ही है। लेकिन जिसे वह खराब लगा, उसके लिए तो वह खराब ही है। अगर ऐसा ही है तो फिर उसे वह काम नहीं करना चाहिये और उसके लिए दुख भोगना, कष्ट सहन करना चाहिये। यही सत्याग्रहनी कुंजी है। [ ९३ ]पाठक : तब तो आप कानूनके खिलाफ होते हैं! यह बेवफाई कही जायगी। हमारी गिनती हमेशा कानूनको माननेवाली प्रजा में होती है। आप तो ‘एक्स्ट्रीमिस्ट' से भी आगे बढ़ते दीखते हैं । ‘एक्स्ट्रीमिस्ट’ कहता है कि जो कानून बन चुके हैं उन्हें तो मानना ही चाहिये; लेकिन कानून ख़राब हों तो उनके बनानेवालोंको मारकर भगा देना चाहिये।

संपादक : मैं आगे बढ़ता हूँ या पीछे रहता हूँ, इसकी परवाह न आपको होनी चाहिये और न मुझे। हम तो जो अच्छा है उसे खोजना चाहते हैं और उसके मुताबिक बरतना चाहते हैं।

हम कानूनको माननेवाली प्रजा हैं, इसका सही अर्थ तो यह है कि हम सत्याग्रही प्रजा हैं। कानून जब पसन्द न आयें तब हम कानून बनानेवालोंका सिर नहीं तोड़ते, बल्कि उन्हें रद करानेके लिए खुद उपवास करते हैं खुद दुख उठाते हैं।

हमें अच्छे या बुरे कानूनको मानना चाहिये, ऐसा अर्थ तो आजकलका है। पहले ऐसा नहीं था। तब चाहे जिस कानूनको लोग तोड़ते थे और उसकी सजा भोगते थे।

कानून हमें पसन्द न हों तो भी उनके मुताबिक चलना चाहिये, यह सिखावन मर्दानगीके ख़िलाफ है, धर्म के ख़िलाफ है और गुलामीकी हद है।

सरकार तो कहेगी कि हम उसके सामने नंगे होकर नाचें। तो क्या हम नाचेंगे? अगर मैं सत्याग्रही होऊँ तो सरकार से कहूँगा : “यह कानून आप अपने घरमें रखिये। मैं न तो आपके सामने नंगा होनेवाला हूँ और न नाचनेवाला हूँ।” लेकिन हम ऐसे असत्याग्रही हो गये हैं कि सरकारके जुल्म के सामने झुककर नंगे होकर नाचनेसे भी ज्यादा नीच काम करते हैं।

जिस आदमीमें सच्ची इनसानियत है, जो खुदासे ही डरता है, वह और किसीसे नहीं डरेगा। दूसरेके बनाये हुए कानून उसके लिए बंधनकारक नहीं होते। बेचारी सरकार भी नहीं कहती कि 'तुम्हें ऐसा करना ही पड़ेगा।' वह कहती है कि ‘तुम ऐसा नहीं करोगे तो तुम्हें सजा होगी।' हम अपनी अधम [ ९४ ]
दशाके कारण मान लेते हैं कि हमें ‘ऐसा ही करना चाहिये', यह हमारा फ़र्ज है, यह हमारा धर्म है।

अगर लोग एक बार सीख लें कि जो कानून हमें अन्यायी[६] मालूम हो उसे मानना नामर्दगी है, तो हमें किसीका भी जुल्म बाँध नहीं सकता। यही स्वराज्यकी कुंजी है।

ज्यादा लोग जो कहें उसे थोड़े लोगोंको मान लेना चाहिये, यह तो अनीश्वरी[७] बात है, एक वहम है। ऐसी हजारों मिसालें मिलेंगी, जिनमें बहुतोंने जो कहा वह गलत निकला हो और थोड़े लोगोंने जो कहा वह सही निकला हो। सारे सुधार बहुतसे लोगोंके ख़िलाफ जाकर कुछ लोगोंने ही दाखिल करवाये हैं। ठगोंके गाँव में अगर बहुतसे लोग यह कहें कि ठगविद्या सीखनी ही चाहिये, तो क्या कोई साधु ठग बन जायगा? हरगिज नहीं। अन्यायी कानूनको मानना चाहिये, यह वहम जब तक दूर नहीं होता तब तक हमारी गुलामी जानेवाली नहीं है। और इस वहमको सिर्फ़ सत्याग्रही ही दूर कर सकता है।

शरीर-बल का उपयोग करना, गोला-बारूद काममें लाना, हमारे सत्याग्रहके कानूनके ख़िलाफ है। इसका अर्थ तो यह हुआ कि हमें जो पसंद है वह दूसरे आदमीसे हम (जबरन्) करवाना चाहते हैं। अगर यह सही हो तो फिर वह सामनेवाला आदमी भी अपनी पसंदका काम हमसे करवाने के लिए हम पर गोला-बारूद चलानेका हकदार है। इस तरह तो हम कभी एकराय पर पहुँचेंगे ही नहीं। कोल्हूके बैलकी तरह आँखों पर पट्टी बांधकर भले ही हम मान लें कि हम आगे बढ़ते हैं। लेकिन दरअसल तो बैलकी तरह हम गोल गोल चक्कर ही काटते रहते हैं। जो लोग ऐसा मानते हैं कि जो कानून खुदको नापसन्द है उसे माननेके लिए आदमी बँधा हुआ नहीं है, उन्हें तो सत्याग्रहको ही सही साधन[८] मानना चाहिये; वरना बड़ा विकट[९] नतीजा आयेगा। [ ९५ ]पाठक : आप जो कहते हैं उस परसे मुझे लगता है कि सत्याग्रह कमज़ोर आदमियोंके लिए काफी कामका है। लेकिन जब वे बलवान बन जायें तब तो उन्हें तोप (हथियार) ही चलाना चाहिये।

संपादक : यह तो आपने बड़े अज्ञानकी बात कही। सत्याग्रह सबसे बड़ा-सर्वोपरी बल है। वह जब तोपबलसे ज्यादा काम करता है, तो फिर कमज़ोरोंका हथियार कैसे माना जायगा? सत्याग्रहके लिए जो हिम्मत और बहादुरी चाहिये, वह तोपका बल रखनेवालेके पास हो ही नहीं सकती। क्या आप यह मानते हैं कि डरपोक और कमज़ोर आदमी नापसन्द कानूनको तोड़ सकेगा? 'एक्स्ट्रीमिस्ट' तोपबल–पशुबलके हिमायती हैं। वे क्यों कानूनको माननेकी बात कर रहे हैं? मैं उनका दोष नहीं निकालता। वे दूसरी कोई बात कर ही नहीं सकते। वे खुद जब अंग्रेजोंको मारकर राज्य करेंगे तब आपसे और हमसे (जबरन्) कानून मनवाना चाहेंगे। उनके तरीकेके लिए यही कहना ठीक है। लेकिन सत्याग्रही तो कहेगा कि जो कानून उसे पसन्द नहीं हैं उन्हें वह स्वीकार नहीं करेगा, फिर चाहे उसे तोपके मुँह पर बाँधकर उसकी धज्जियां क्यों न उड़ा दी जायं!

आप क्या मानते हैं? तोप चलाकर सैकड़ोंको मारनेमें हिम्मतकी ज़रूरत है या हँसते-हँसते तोप के मुँह पर बँध कर धज्जियां उड़ने देनेमें हिम्मतकी ज़रूरत है? खुद मौतको हथेलीमें रखकर जो चलता-फिरता है वह रणवीर है या दूसरोंकी मौतको अपने हाथमें रखता है वह रणवीर है?

यह निश्चित मानिये कि नामर्द आदमी घड़ीभरके लिए भी सत्याग्रही नहीं रह सकता।

हाँ, यह सही है कि शरीरसे जो दुबला हो वह भी सत्याग्रही हो सकता है। एक आदमी भी (सत्याग्रही) हो सकता है और लाखों लोग भी हो सकते हैं। मर्द भी सत्याग्रही हो सकता है; औरत भी हो सकती है। उसे अपना लश्कर तैयार करनेकी ज़रूरत नहीं रहती। उसे पहलवानोंकी कुश्ती सीखनेकी ज़रूरत नहीं रहती। उसने अपने मन को काबूमें किया कि फिर वह वनराज-सिंहकी तरह गर्जना कर सकता है; और जो उसके दुश्मन बन बैठे हैं उनके दिल इस गर्जना से फट जाते हैं। [ ९६ ]सत्याग्रह ऐसी तलवार है,जिसके दोनों ओर धार है|उसे चाहे जैसे काममें लिया जा सकता है। जो उसे चलाता है और जिस पर वह चलाई जाती है, वे दोनों सुखी होते हैं। वह खून नहीं निकालती, लेकिन उससे भी बड़ा परिणाम ला सकती है। उसको जंग नहीं लग सकती। उसे कोई (चुराकर) ले नहीं जा सकता। अगर सत्याग्रही दूसरे सत्याग्रहीके साथ होड़में उतरता है, तो उसमें उसे थकान लगती ही नहीं। सत्याग्रहीकी तलवारको म्यानकी ज़रूरत नहीं रहती। उसे कोई छीन नहीं सकता। फिर भी सत्याग्रहको आप कमज़ोरोंका हथियार मानें तब तो उसे अँधेर ही कहा जायगा।

पाठक : आपने कहा कि वह हिन्दुस्तानका खास हथियार है। तो क्या हिन्दुस्तानमें तोपके बलका कभी उपयोग नहीं हुआ है?

संपादक : आप हिंदुस्तानका अर्थ मुट्ठीभर राजा करते हैं। मेरे मन तो हिन्दुस्तानका अर्थ वे करोड़ों किसान हैं, जिनके सहारे राजा और हम सब जी रहे हैं।

राजा तो हथियार काममें लायेंगे ही। उनका वह रिवाज ही हो गया है। उन्हें हुक्म चलाना है। लेकिन हुक्म माननेवालेको तोपबलकी ज़रूरत नहीं है। दुनियाके ज्यादातर लोग हुक्म माननेवाले हैं। उन्हें या तो तोपबल या सत्याग्रहका बल सिखाना चाहिये। जहाँ वे तोपबल सीखते हैं वहाँ राजा-प्रजा दोनों पागल जैसे हो जाते हैं। जहाँ हुक्म माननेवालोंने सत्याग्रह करना सीखा है वहाँ राजाका जुल्म उसकी तीन गजकी तलवारसे आगे नहीं जा सकता; और हुक्म माननेवालोंने अन्यायी हुक्मकी परवाह भी नहीं की है। किसान किसीके तलवार-बलके बस न तो कभी हुए हैं, और न होंगे। वे तलवार चलाना नहीं जानते; न किसीकी तलवारसे वे डरते हैं । वे मौतको हमेशा अपना तकिया बनाकर सोनेवाली महान प्रजा हैं। उन्होंने मौतका डर छोड़ दिया है, इसलिए सबका डर छोड़ दिया है। यहाँ मैं कुछ बढ़ा-चढ़ाकर तसवीर खींचता हूँ, यह ठीक है। लेकिन हम जो तलवारके बलसे चकित[१०] हो गये हैं, उनके लिए यह कुछ ज्यादा नहीं है। [ ९७ ]बात यह है कि किसानोंने, प्रजा-मंडलोंने अपने और राज्यके कारोबारमें सत्याग्रहको काममें लिया है। जब राजा जुल्म करता है तब प्रजा रूठती है। यह सत्याग्रह ही है।

मुझे याद है कि एक रियासतमें रैयतको अमुक हुक्म पसन्द नहीं आया, इसलिए रैयतने हिजरत करना-गाँव खाली करना-शुरू कर दिया। राजा घबड़ाये। उन्होंने रैयतसे माफी माँगी और हुक्म वापस ले लिया। ऐसी मिसालें तो बहुत मिल सकती हैं। लेकिन वे ज्यादातर भारत-भूमिकी ही उपज होंगी। ऐसी रैयत जहाँ है वहीं स्वराज्य है। इसके बिना स्वराज्य कुराज्य है।

पाठक : तो क्या आप यह कहेंगे कि शरीरको कसनेकी ज़रूरत ही नहीं है?

संपादक : ऐसा मैं कभी नहीं कहूँगा। शरीरको कसे बिना सत्याग्रही होना मुश्किल है। अकसर जिन शरीरोंको गलत लाड़ लड़ा कर या सहलाकर कमज़ोर बना दिया गया है, उनमें रहनेवाला मन भी कमज़ोर होता है। और जहाँ मनका बल नहीं है वहाँ आत्मबल कैसे हो सकता है? हमें बाल-विवाह वगैराके कुरिवाजको और ऐश-आरामकी बुराईको छोड़कर शरीरको कसना ही होगा। अगर मैं मरियल और कमज़ोर आदमीको यकायक तोपके मुँह पर खड़ा हो जानेके लिए कहूँ, तो लोग मेरी हँसी उड़ायेंगे।

पाठक : आपके कहनेसे तो ऐसा लगता है कि सत्याग्रही होना मामूली बात नहीं है, और अगर ऐसा है तो कोई आदमी सत्याग्रही कैसे बन सकता है, यह आपको समझाना होगा।

संपादक : सत्याग्रही होना आसान है। लेकिन जितना वह आसान है उतना ही मुश्किल भी है। चौदह बरसका एक लड़का सत्याग्रही हुआ है, यह मेरे अनुभवकी बात है। रोगी आदमी सत्याग्रही हुए हैं, यह भी मैंने देखा है। मैंने यह भी देखा है कि जो लोग शरीरसे बलवान थे और दूसरी बातोंमें भी सुखी थे, वे सत्याग्रही नहीं हो सके।

अनुभवसे मैं देखता हूँ कि जो देशके भलेके लिए सत्याग्रही होना चाहता है, उसे ब्रह्मचर्यका पालन करना चाहिये, गरीबी अपनानी चहिये, सत्यका [ ९८ ]
पालन तो करना ही चाहिये और हर हालतमें अभय[११] बनना चाहिये।

ब्रह्मचर्य एक महान व्रत है, जिसके बिना मन मजबूत नहीं होता।ब्रह्मचर्यका पालन न करनेसे मनुष्य वीर्यवान नहीं रहता, नामर्द और कमज़ोर हो जाता है। जिसका मन विषयमें[१२] भटकता है, वह क्या शेर मारेगा? यह बात अनगिनत मिसालोंसे साबित की जा सकती है। तब सवाल यह उठता है कि घर-संसारीको क्या करना चाहिये। लेकिन ऐसा सवाल उठनेकी कोई ज़रूरत नहीं। घर-संसारीने जो संग किया (स्रीकी सोहबत की) वह विषयभोग नहीं है, ऐसा कोई नहीं कहेगा। संतान पैदा करनेके लिए ही अपनी स्रीका संग करनेकी बात कही गयी है। और सत्याग्रहीको संतान पैदा करनेकी इच्छा नहीं होनी चाहिये। इसलिए संसारी होने पर भी वह ब्रह्मचर्यका पालन कर सकता है। यह बात ज्यादा खोलकर लिखनेकी ज़रूरत नहीं। स्रीका क्या विचार है? यह सब कैसे हो सकता है? ऐसे विचार मनमें पैदा होते हैं। फिर भी जिसे महान कार्योमें हिस्सा लेना है, उसे तो ऐसे सवालोंका हल ढूँढ़ना ही होगा।

जैसे ब्रह्मचर्यकी ज़रूरत है वैसे ही गरीबीको अपनानेकी भी ज़रूरत है। पैसेका लोभ और सत्याग्रहका सेवनपालन (दोनों साथ साथ) कभी नहीं चल सकते। लेकिन मेरा मतलब यह नहीं है कि जिसके पास पैसा है वह उसे फेंक दे। फिर भी पैसेके बारेमें लापरवाह रहनेकी ज़रूरत है। सत्याग्रहका सेवन करते हुए अगर पैसा चला जाय, तो चिन्ता नहीं करनी चाहिये।

जो सत्यका सेवन नहीं करता, वह सत्यका बल, सत्यकी ताक़त कैसे दिखा सकेगा? इसलिए सत्यकी तो पूरी-पूरी ज़रूरत रहेगी ही। बड़ेसे बड़ा नुकसान होने पर भी सत्यको नहीं छोड़ा जा सकता। सत्यके लिए कुछ छिपानेको होता ही नहीं। इसलिए सत्याग्रहीके लिए छिपी सेनाकी ज़रूरत नहीं होती। जान बचानेके लिए झूठ बोलना चाहिये या नहीं, ऐसा सवाल यहाँ मनमें नहीं उठाना चाहिये। जिसे झूठका बचाव करना है, वही ऐसे [ ९९ ]
बेकार सवाल उठाता है। जिसे सत्यकी ही राह लेनी है, उसके सामने ऐसे धर्म-संकट[१३] कभी आते ही नहीं। ऐसी मुश्किल हालतमें आ पड़े तो भी सत्यवादी उसमें से उबर जाता है।

अभयके बिना तो सत्याग्रहीकी गाड़ी एक कदम भी आगे नहीं चल सकती। अभय संपूर्ण और सब बातोंके लिए होना चाहिये। जमीन-जायदादका,झूठी इज्ज़तका,सगे-सम्बन्धियोंका,राज-दरबारका,शरीरको पहुँचनेवाली चोटोंका और मरणका अभय हो, तभी सत्याग्रहका पालन हो सकता है।

यह सब करना मुश्किल है, ऐसा मानकर इसे छोड़ नहीं देना चाहिये। जो सिर पर पड़ता है उसे सह लेनेकी शक्ति कुदरतने हर मनुष्यको दी है। जिसे देशसेवा न करनी हो, उसे भी ऐसे गुणोंका सेवन करना चाहिये।

इसके सिवा, हम यह भी समझ सकते हैं कि जिसे हथियार-बल पाना होगा, उसे भी इन बातोंकी ज़रूरत रहेगी। रणवीर होना कोई ऐसी बात नहीं कि किसीने इच्छा की और तुरन्त रणवीर हो गया। योद्धा (लड़वैया) को ब्रह्मचर्यका पालन करना होगा, भिखारी बनना होगा। रणमें जिसके भीतर अभय न हो वह लड़ नहीं सकता। उसे (योद्धाको) सत्यव्रतका पालन करनेकी उतनी ज़रूरत नहीं है, ऐसा शायद किसीको लगे। लेकिन जहाँ अभय है वहाँ सत्य कुदरती तौर पर रहता ही है। मनुष्य जब सत्यको छोड़ता है तब किसी तरहके भयके कारण ही छोड़ता है।

इसलिए इन चार गुणोंसे[१४] डर जानेका कोई कारण नहीं है। फिर, तलवारबाज़को और भी कुछ बेकार कोशिशें करनी पड़ती हैं, जो सत्याग्रहीको नहीं करनी पड़तीं। तलवारबाज़को जो दूसरी कोशिशें करनी पड़ती हैं, उसका कारण भय है। अगर उसमें पूरी निडरता आ जाय, तो उसी पल उसके हाथसे तलवार गिर जायगी। फिर उसे तलवारके सहारेकी ज़रूरत नहीं रहती। जिसकी किसीसे दुश्मनी नहीं है, उसे तलवारकी ज़रूरत ही नहीं है। सिंहके सामने आनेवाले एक आदमीके हाथकी लाठी अपने-आप उठ गई। उसने [ १०० ]देखा कि अभयका पाठ उसने सिर्फ़ ज़बानी ही किया था। उसने लाठी छोड़ी और वह निर्भय-निडर बना।

१८

शिक्षा

पाठक : आपने इतना सारा कहा, परन्तु उसमें कहीं भी शिक्षा-तालीमकी ज़रूरत तो बताई ही नहीं। हम शिक्षाकी कमीकी हमेशा शिकायत करते रहते हैं। लाज़िमी तालीम देनेका आन्दोलन हम सारे देशमें देखते हैं। महाराजा गायकवाड़ने (अपने राज्यमें) लाज़िमी शिक्षा शुरू की है। उसकी ओर सबका ध्यान गया है। हम उन्हें धन्यवाद देते हैं। यह सारी कोशिश क्या बेकार ही समझनी चाहिये?

संपादक : अगर हम अपनी सभ्यताको[१५] सबसे अच्छी मानते हैं, तब तो मुझे अफसोसके साथ कहना पड़ेगा कि वह कोशिश ज्यादातर बेकार ही है। महाराजा साहब और हमारे दूसरे धुरन्धर[१६] नेता सबको तालीम देनेकी जो कोशिश कर रहे हैं, उसमें उनका हेतु निर्मल है। इसलिए उन्हें धन्यवाद ही देना चाहिये । लेकिन उनके हेतुका जो नतीजा आनेकी संभावना है, उसे हम छिपा नहीं सकते।

शिक्षा : तालीमका अर्थ क्या है? अगर उसका अर्थ सिर्फ़ अक्षरज्ञान ही हो, तो वह तो एक साधन जैसी ही हुई। उसका अच्छा उपयोग भी हो सकता है और बुरा उपयोग भी हो सकता है। एक शस्त्र[१७] से चीर-फाड़ करके बीमारको अच्छा किया जा सकता है और वही शस्त्र किसीकी जान लेनेके लिए भी काममें लाया जा सकता है। अक्षर-ज्ञानका भी ऐसा ही है। बहुतसे लोग उसका बुरा उपयोग करते हैं, यह तो हम देखते ही हैं। उसका अच्छा उपयोग प्रमाणमें[१८] कम ही लोग करते हैं। यह बात अगर ठीक है तो इससे यह साबित होता है कि अक्षर-ज्ञानसे दुनियाको फायदेके बदले नुकसान ही हुआ है। [ १०१ ]शिक्षाका साधारण अर्थ अक्षर-ज्ञान ही होता है। लोगोंको लिखना, पढ़ना और हिसाब करना सिखाना बुनियादी या प्राथमिक-प्रायमरी-शिक्षा कहलाती है। एक किसान ईमानदारीसे खुद खेती करके रोटी कमाता है। उसे मामूली तौर पर दुनियवी ज्ञान है। अपने माँ-बापके साथ कैसे बरतना, अपनी स्त्रीके साथ कैसे बरतना, बच्चोंसे कैसे पेश आना,जिस देहातमें वह बसा हुआ है वहाँ उसकी चालढाल कैसी होनी चाहिये, इन सबका उसे काफी ज्ञान है। वह नीतिके नियम समझता है और उनका पालन करता है। लेकिन वह अपने दस्तखत करना नहीं जानता। इस आदमीको आप अक्षर-ज्ञान देकर क्या करना चाहते हैं? उसके सुखमें आप कौनसी बढ़ती करेंगे? क्या उसकी झोंपड़ी या उसकी हालतके बारेमें आप उसके मनमें असंतोष पैदा करना चाहते हैं? ऐसा करना हो तो भी उसे अक्षर-ज्ञान देनेकी ज़रूरत नहीं है। पश्चिमके असरके नीचे आकर हमने यह बात चलायी है कि लोगोंको शिक्षा देनी चाहिये। लेकिन उसके बारेमें हम आगे-पीछेकी बात सोचते ही नहीं।

अब ऊंची शिक्षाको लें। मैं भूगोल-विद्या सीखा, खगोल-विद्या (आकाशके तारोंकी विद्या) सीखा, बीजगणित (एलजब्रा) भी मुझे आ गया, रेखागणित (ज्यॉमेट्री) का ज्ञान भी मैंने हासिल किया, भूगर्भ-विद्याको भी मैं पी गया। लेकिन उससे क्या? उससे मैंने अपना कौनसा भला किया? अपने आसपासके लोगोंका क्या भला किया? किस मक़सदसे मैंने वह ज्ञान हासिल किया? उससे मुझे क्या फायदा हुआ? एक अंग्रेज विद्वान(हक्सली)ने शिक्षाके बारेमें यों कहा है : "उस आदमीने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसके शरीरको ऐसी आदत डाली गई है कि वह उसके बसमें रहता है, जिसका शरीर चैनसे और आसानीसे सौंपा हुआ काम करता है। उस आदमीने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसकी बुद्धि शुद्ध, शांत और न्यायदर्शी[१९] है। उसने सच्ची शिक्षा पाई है, जिसका मन कुदरती कानूनोंसे भरा है और जिसकी इन्द्रियाँ उसके बसमें हैं,जिसके मनकी भावनायें बिलकुल शुद्ध हैं,जिसे नीच कामोंसे नफ़रत है [ १०२ ]
और जो दूसरोंको अपने जैसा मानता है। ऐसा आदमी ही सच्चा शिक्षित (तालीमशुदा) माना जायगा, क्योंकि वह कुदरतके कानूनके मुताबिक चलता है। कुदरत उसका अच्छा उपयोग करेगी और वह कुदरतका अच्छा उपयोग करेगा।" अगर यही सच्ची शिक्षा हो तो मैं कसम खाकर कहूँगा कि ऊपर जो शास्त्र मैंने गिनाये हैं उनका उपयोग मेरे शरीर या मेरी इन्द्रियोंको बसमें करनेके लिए मुझे नहीं करना पड़ा। इसलिए प्रायमरी-प्राथमिक शिक्षाको लीजिये या ऊंची शिक्षाको लीजिये, उसका उपयोग मुख्य बातमें नहीं होता। उससे हम मनुष्य नहीं बनते-उससे हम अपना कर्तव्य[२०] नहीं जान सकते।

पाठक : अगर ऐसा ही है, तो मैं आपसे एक सवाल करूँगा। आप ये जो सारी बातें कह रहे हैं, वह किसकी बदौलत कह रहे हैं? अगर आपने अक्षरज्ञान और ऊंची शिक्षा नहीं पाई होती, तो ये सब बातें आप मुझे कैसे समझा पाते?

संपादक : आपने अच्छी सुनाई। लेकिन आपके सवालका मेरा जवाब भी सीधा ही है। अगर मैंने ऊँची या नीची शिक्षा नहीं पाई होती, तो मैं नहीं मानता कि मैं निकम्मा आदमी हो जाता। अब ये बातें कहकर मैं उपयोगी बननेकी इच्छा रखता हूँ। ऐसा करते हुए जो कुछ मैंने पढ़ा उसे मैं काममें लाता हूँ; और उसका उपयोग, अगर वह उपयोग हो तो, मैं अपने करोड़ों भाईयोंके लिए नहीं कर सकता,सिर्फ़ आप जैसे पढ़े-लिखोंके लिए ही कर सकता हूँ। इससे भी मेरी ही बातका समर्थन[२१] होता है। मैं और आप दोनों गलत शिक्षाके पंजेमें फँस गये थे। उसमें से मैं अपनेको मुक्त हुआ मानता हूँ। अब वह अनुभव मैं आपको देता हूँ और उसे देते समय ली हुई शिक्षाका उपयोग करके उसमें रही सड़न मैं आपको दिखाता हूँ।

इसके सिवा, आपने जो बात मुझे सुनाई उसमें आप गलती खा गये, क्योंकि मैंने अक्षर-ज्ञानको (हर हालतमें) बुरा नहीं कहा है। मैंने तो इतना ही कहा है कि उस ज्ञानकी हमें मूर्तिकी तरह पूजा नहीं करनी चाहिये। वह हमारी कामधेनु[२२] नहीं है। वह अपनी जगह पर शोभा दे सकता है। और वह


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जगह यह है : जब मैंने और आपने अपनी इन्द्रियोंको बसमें कर लिया हो, जब हमने नीतिकी नींव मजबूत बना ली हो, तब अगर हमें अक्षर-ज्ञान पाने की इच्छा हो, तो उसे पाकर हम उसका अच्छा उपयोग कर सकते हैं। वह शिक्षा आभूषण[२३] के रूपमें अच्छी लग सकती है। लेकिन अक्षर-ज्ञानका अगर आभूषणके तौर पर ही उपयोग हो, तो ऐसी शिक्षाको लाज़िमी करनेकी हमें ज़रूरत नहीं। हमारे पुराने स्कूल ही काफ़ी हैं। वहां नीतिको पहला स्थान दिया जाता है। वह सच्ची प्राथमिक शिक्षा है। उस पर हम जो इमारत खड़ी करेंगे वह टिक सकेगी।

पाठक : तब क्या मेरा यह समझना ठीक है कि आप स्वराज्यके लिए अंग्रेजी शिक्षाका कोई उपयोग नहीं मानते?

संपादक : मेरा जवाब 'हाँ' और 'नहीं' दोनों है। करोड़ों लोगोंको अंग्रेजीकी शिक्षा देना उन्हें गुलामीमें डालने जैसा है। मेकोलेने शिक्षाकी जो बुनियाद डाली, वह सचमुच गुलामीकी बुनियाद थी। उसने इसी इरादेसे अपनी योजना बनाई थी, ऐसा मैं नहीं सुझाना चाहता। लेकिन उसके कामका नतीजा यही निकला है। यह कितने दुखकी बात है कि हम स्वराज्यकी बात भी पराई भाषामें करते हैं?

जिस शिक्षाको अंग्रेजोंने ठुकरा दिया है वह हमारा सिंगार बनती है, यह जानने लायक है। उन्हींके विद्वान कहते रहते हैं कि उसमें यह अच्छा नहीं है, वह अच्छा नहीं है। वे जिसे भूल-से गये हैं, उसीसे हम अपने अज्ञानके कारण चिपके रहते हैं। उनमें अपनी अपनी भाषाकी उन्नति करनेकी कोशिश चल रही है। वेल्स इंग्लैंडका एक छोटासा परगना है; उसकी भाषा धूल जैसी नगण्य है। ऐसी भाषाका अब जीर्णोद्धार[२४] हो रहा है।

वेल्सके बच्चे वेल्श भाषामें ही बोलें, ऐसी कोशिश वहाँ चल रही है। इसमें इंग्लैंडके खजांची लॉयड जॉर्ज बड़ा हिस्सा लेते हैं। और हमारी दशा कैसी है? हम एक-दूसरेको पत्र लिखते हैं तब गलत अंग्रेजीमें लिखते हैं। एक साधारण एम. ए. पास आदमी भी ऐसी गलत अंग्रेजीसे बचा नहीं होता।


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हमारे अच्छेसे अच्छे विचार प्रगट[२५] करनेका ज़रिया है अंग्रेजी; हमारी कांग्रेसका कारोबार भी अंग्रेजीमें चलता है। अगर ऐसा लंबे अरसे तक चला, तो मेरा मानना है कि आनेवाली पीढ़ी हमारा तिरस्कार करेगी और उसका शाप[२६] हमारी आत्माको लगेगा।

आपको समझना चाहिये कि अंग्रेजी शिक्षा लेकर हमने अपने राष्ट्रको गुलाम बनाया है। अंग्रेजी शिक्षासे दंभ,[२७] राग,[२८] जुल्म वगैरा बढे़ हैं। अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोगोंने प्रजाको ठगनेमें, उसे परेशान करनेमें कुछ भी उठा नहीं रखा है। अब अगर हम अंग्रेजी शिक्षा पाये हुए लोग उसके लिए कुछ करते हैं, तो उसका हम पर जो क़र्ज चढ़ा हुआ है उसका कुछ हिस्सा ही हम अदा करते हैं।

यह क्या कम जुल्मकी बात है कि अपने देशमें अगर मुझे इन्साफ़ पाना हो, तो मुझे अंग्रेजी भाषाका उपयोग करना चाहिये! बैरिस्टर होने पर मैं स्वभाषामें बोल ही नहीं सकता! दूसरे आदमीको मेरे लिए तरजुमा कर देना चाहिये! यह कुछ कम दंभ है? यह गुलामीकी हद नहीं तो और क्या है? इसमें मैं अंग्रेजोंका दोष निकालूँ या अपना? हिन्दुस्तानको गुलाम बनानेवाले तो हम अंग्रेजी जाननेवाले लोग ही हैं। राष्ट्रकी हाय अंग्रेजों पर नहीं पड़ेगी, बल्कि हम पर पड़ेगी।

लेकिन मैंने आपसे कहा कि मेरा जवाब 'हाँ' और 'ना' दोनों है। ‘हाँ' कैसे सो मैंने आपको समझाया।

अब 'ना' कैसे यह बताता हूँ। हम सभ्यताके रोगमें ऐसे फँस गये हैं कि अंग्रेजी शिक्षा बिलकुल लिये बिना अपना काम चला सकें ऐसा समय अब नहीं रहा। जिसने वह शिक्षा पाई है, वह उसका अच्छा उपयोग करे। अंग्रेजोंके साथके व्यवहारमें, ऐसे हिन्दुस्तानियोंके साथके व्यवहारमें जिनकी भाषा हम समझ न सकते हों और अंग्रेज खुद अपनी सभ्यतासे कैसे परेशान हो गये हैं यह समझनेके लिए अंग्रेजीका उपयोग किया जाय। जो लोग अंग्रेजी पढ़े हुए हैं उनकी संतानोंको पहले तो नीति सिखानी चाहिये,उनकी मातृभाषा[२९] सिखानी चाहिये और हिन्दुस्तानकी एक दूसरी भाषा सिखानी चाहिये। बालक


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जब पुख्ता (पक्की) उम्रके हो जायं तब भले ही वे अंग्रेजी शिक्षा पायें, और वह भी उसे मिटानेके इरादेसे, न कि उसके ज़रिये पैसे कमानेके इरादेसे। ऐसा करते हुए भी हमें यह सोचना होगा कि अंग्रेजीमें क्या सीखना चाहिये और क्या नहीं सीखना चाहिये। कौनसे शास्त्र पढ़ने चाहिये, यह भी हमें सोचना होगा। थोड़ा विचार करनेसे ही हमारी समझमें आ जायगा कि अगर अंग्रेजी डिग्री लेना हम बन्द कर दें, तो अंग्रेज हाकिम चौकेंगे।

पाठक : तब कैसी शिक्षा दी जाय?

संपादक : उसका जवाब ऊपर कुछ हद तक आ गया है। फिर भी इस सवाल पर हम और विचार करें। मुझे तो लगता है कि हमें अपनी सभी भाषाओंको उज्ज्वल-शानदार बनाना चाहिये। हमें अपनी भाषामें ही शिक्षा लेनी चाहिये-इसके क्या मानी है, इसे ज्यादा समझानेका यह स्थान नहीं है। जो अंग्रेजी पुस्तकें कामकी हैं, उनका हमें अपनी भाषामें अनुवाद करना होगा। बहुतसे शास्र सीखनेका दंभ और वहम हमें छोड़ना होगा। सबसे पहले तो धर्मकी शिक्षा या नीतिकी शिक्षा दी जानी चाहिये। हरएक पढ़े-लिखे हिन्दुस्तानीको अपनी भाषाका, हिन्दूको संस्कृतका, मुसलमानको अरबीका, पारसीको फ़ारसीका और सबको हिन्दीका ज्ञान होना चाहिये। कुछ हिन्दुओंको अरबी और कुछ मुसलमानों और पारसियोंको संस्कृत सीखनी चाहिये । उत्तरी और पश्चिमी हिन्दुस्तानके लोगोंको तामिल सीखनी चाहिये। सारे हिन्दुस्तानके लिए जो भाषा चाहिये, वह तो हिन्दी ही होनी चाहिये। उसे उर्दू या नागरी लिपिमें लिखनेकी छूट रहनी चाहिये। हिन्दू-मुसलमानोंके संबंध ठीक रहें, इसलिए बहुतसे हिन्दुस्तानियोंका इन दोनों लिपियोंको जान लेना ज़रूरी है। ऐसा होनेसे हम आपसके व्यवहारमें अंग्रेजीको निकाल सकेंगे।

और यह सब किसके लिए ज़रूरी है? हम जो गुलाम बन गये हैं उनके लिए। हमारी गुलामीकी वजहसे देशकी प्रजा गुलाम बनी है। अगर हम गुलामीसे छूट जायं, तो प्रजा तो छूट ही जायगी।

पाठक : आपने जो धर्मकी शिक्षाकी बात कही वह बड़ी कठिन है। [ १०६ ]संपादक : फिर भी उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता। हिन्दुस्तान कभी नास्तिक नहीं बनेगा। हिन्दुस्तानकी भूमिमें नास्तिक फल-फूल नहीं पकते। बेशक, यह काम मुश्किल है। धर्मकी शिक्षाका ख़याल करते ही सिर चकराने लगता है। धर्मके आचार्य दंभी और स्वार्थी[३०] मालूम होते हैं। उनके पास पहुँचकर हमें नम्र भावसे उन्हें समझाना होगा। उसकी कुंजी मुल्लों, दस्तूरों और ब्राहाणोके हाथमें है। लेकिन उनमें अगर सद्बुद्धि पैदा न हो, तो अंग्रेजी शिक्षाके कारण हममें जो जोश पैदा हुआ है उसका उपयोग करके हम लोगोंको नीतिकी शिक्षा दे सकते हैं। यह कोई बहुत मुश्किल बात नहीं है। हिन्दुस्तानी सागरके किनारे पर ही मैल जमा है। उस मैलसे जो गंदे हो गये हैं उन्हें साफ होना है। हम लोग ऐसे ही हैं और खुद ही बहुत कुछ साफ हो सकते हैं। मेरी यह टीका करोड़ों लोगोंके बारेमें नहीं है। हिन्दुस्तानको असली रास्ते पर लानेके लिए हमें ही असली रास्ते पर आना होगा। बाकी करोड़ों लोग तो असली रास्ते पर ही हैं। उसमें सुधार, बिगाड़, उन्नति,[३१] अवनति[३२]समयके अनुसार होते ही रहेंगे। पश्चिमकी सभ्यताको निकाल बाहर करनेकी ही हमें कोशिश करनी चाहिये। दूसरा सब अपने-आप ठीक हो जायगा।

१९

मशीनें

पाठक : आप पश्चिमकी सभ्यताको निकाल बाहर करनेकी बात कहते हैं, तब तो आप यह भी कहेंगे कि हमें कोई भी मशीन नहीं चाहिये।

संपादक : मुझे जो चोट लगी थी उसे यह सवाल करके आपने ताजा कर दिया है। मि॰ रमेशचन्द्र दत्तकी पुस्तक ‘हिन्दुस्तानका आर्थिक इतिहास' जब मैंने पढ़ी, तब भी मेरी ऐसी हालत हो गई थी। उसका फिरसे विचार करता हूँ, तो मेरा दिल भर आता है। मशीनकी झपट लगनेसे ही हिन्दुस्तान पामाल


[ १०७ ]हो गया है। मैन्चेस्टरने हमें जो नुकसान पहुँचाया है, उसकी तो कोई हद ही नहीं है। हिन्दुस्तानसे कारीगरी जो क़रीब-क़रीब खतम हो गई, वह मैन्चेस्टरका ही काम है।

लेकिन मैं भूलता हूँ। मैन्चेस्टरको दोष कैसे दिया जा सकता है? हमने उसके कपड़े पहने तभी तो उसने कपड़े बनाये। बंगालकी बहादुरीका वर्णन[३३] जब मैंने पढ़ा तब मुझे हर्ष[३४] हुआ। बंगालमें कपड़ेकी मिलें नहीं हैं, इसलिए लोगोंने अपना असली धंधा फिरसे हाथमें ले लिया। बंगाल बम्बईकी मिलोंको बढ़ावा देता है वह ठीक ही है; लेकिन अगर बंगालने तमाम मशीनोंसे परहेज किया होता, उनका बायकाट-बहिष्कार किया होता, तो और भी अच्छा होता।

मशीनें यूरोपको उजाड़ने लगी हैं और वहाँकी हवा अब हिन्दुस्तानमें चल रही है। यंत्र आजकी सभ्यताकी मुख्य निशानी है और वह महापाप है, ऐसा मैं तो साफ देख सकता हूँ।

बम्बईकी मिलोंमें जो मजदूर काम करते हैं, वे गुलाम बन गये हैं। जो औरतें उनमें काम करती हैं, उनकी हालत देखकर कोई भी काँप उठेगा। जब मिलोंकी वर्षा नहीं हुई थी तब वे औरतें भूखों नहीं मरती थीं। मशीनकी यह हवा अगर ज्यादा चली, तो हिन्दुस्तानकी बुरी दशा होगी। मेरी बात आपको कुछ मुश्किल मालूम होती होगी। लेकिन मुझे कहना चाहिये कि हम हिन्दुस्तानमें मिलें कायम करें, उसके बजाय हमारा भला इसीमें है कि हम मैन्चेस्टरको और भी रुपये भेजकर उसका सड़ा हुआ कपड़ा काममें लें; क्योंकि उसका कपड़ा काममें लेनेसे सिर्फ़ हमारे पैसे ही जायेंगे। हिन्दुस्तानमें अगर हम मैन्चेस्टर कायम करेंगे तो पैसा हिन्दुस्तानमें ही रहेगा, लेकिन वह पैसा हमारा खून चूसेगा; क्योंकि वह हमारी नीतिको बिलकुल खतम कर देगा। जो लोग मिलोंमें काम करते हैं उनकी नीति कैसी है, यह उन्हींसे पूछा जाय। उनमें से जिन्होंने रुपये जमा किये हैं, उनकी नीति दूसरे पैसेवालोंसे अच्छी नहीं हो सकती। अमरीकाके रॉकफेलरोंसे हिन्दुस्तानके रॉकफेलर कुछ कम हैं,


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ऐसा मानना निरा अज्ञान है। गरीब हिन्दुस्तान तो गुलामीसे छूट सकेगा, लेकिन अनीतिसे पैसेवाला बना हुआ हिन्दुस्तान गुलामीसे कभी नहीं छूटेगा।

मुझे तो लगता है कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि अंग्रेजी राज्यको यहाँ टिकाये रखनेवाले ये धनवान लोग ही हैं। ऐसी स्थितिमें ही उनका स्वार्थ सधेगा। पैसा आदमीको दीन[३५] बना देता है। ऐसी दूसरी चीज दुनियामें विषय-भोग[३६] है। ये दोनों विषय[३७] विषमय[३८] हैं। उनका डंक साँपके डंकसे ज्यादा ज़हरीला है। जब साँप काटता है तो हमारा शरीर लेकर हमें छोड़ देता है। जब पैसा या विषय काटता है तब वह शरीर, ज्ञान, मन सब-कुछ ले लेता है, तो भी हमारा छुटकारा नहीं होता। इसलिए हमारे देशमें मिलें कायम हों, इसमें खुश होने जैसा कुछ नहीं है।

पाठक : तब क्या मिलोंको बन्द कर दिया जाय?

संपादक : यह बात मुश्किल है। जो चीज़ स्थायी या मज़बूत हो गई है, उसे निकालना मुश्किल है। इसीलिए काम शुरू न करना पहली बुद्धिमानी है।[३९] मिल-मालिकोंकी ओर हम नफ़रतकी निगाहसे नहीं देख सकते। हमें उन पर दया करनी चाहिये। वे यकायक मिलें छोड़ दें, यह तो मुमकिन नहीं है; लेकिन हम उनसे ऐसी विनती कर सकते हैं कि वे अपने इस साहसको बढ़ायें नहीं। अगर वे देशका भला करना चाहें, तो खुद अपना काम धीरे धीरे कम कर सकते हैं। वे खुद पुराने, प्रौढ़, पवित्र चरखे देशके हजारों घरोंमें दाखिल कर सकते हैं और लोगोंका बुना हुआ कपड़ा लेकर उसे बेच सकते हैं।

अगर वे ऐसा न करें तो भी लोग खुद मशीनोंका कपड़ा इस्तेमाल करना बन्द कर सकते हैं।

पाठक : यह तो कपड़ेके बारेमें हुआ। लेकिन यंत्रकी बनी तो अनेक चीजें हैं। वे चीजें या तो हमें परदेशसे लेनी होंगी या ऐसे यंत्र हमारे देशमें दाखिल करने होंगे।


[ १०९ ]संपादक : सचमुच हमारे देव (मूर्तियाँ) भी जर्मनीके यंत्रोंमें बनकर आते हैं; तो फिर दियासलाई या आलपिनसे लेकर काँचके झाड़-फानूसकी तो बात ही क्या? मेरा अपना जवाब तो एक ही है। जब ये सब चीजें यंत्रसे नहीं बनती थीं तब हिन्दुस्तान क्या करता था? वैसा ही वह आज भी कर सकता है। जब तक हम हाथसे आलपिन नहीं बनायेंगे तब तक उसके बिना हम अपना काम चला लेंगे। झाड़-फानूसको आग लगा देंगे। मिट्टीके दीयेमें तेल डालकर और हमारे खेतमें पैदा हुई रुईकी बत्ती बना कर दीया जलायेंगे। ऐसा करनेसे हमारी आँखें (खराब होनेसे) बचेंगी, पैसे बचेंगे और हम स्वदेशी रहेंगे, बनेंगे और स्वराज्यकी धूनी जगायेंगे।

यह सारा काम सब लोग एक ही समयमें करेंगे या एक ही समयमें कुछ लोग यंत्रकी सब चीजें छोड़ देंगे, यह संभव नहीं है। लेकिन अगर यह विचार सही होगा, तो हम हमेशा शोध-खोज़ करते रहेंगे और हमेशा थोड़ी-थोड़ी चीजें छोड़ते जायेंगे। अगर हम ऐसा करेंगे तो दूसरे लोग भी ऐसा करेंगे। पहले तो यह विचार जड़ पकड़े यह ज़रूरी है; बादमें उसके मुताबिक काम होगा। पहले एक ही आदमी करेगा, फिर दस, फिर सौ-यों नारियलकी कहानीकी तरह लोग बढ़ते ही जायेंगे। बड़े लोग जो काम करते हैं, उसे छोटे भी करते हैं और करेंगे। समझें तो बात छोटी और सरल है। आपको और मुझे दूसरोंके करनेकी राह नहीं देखना है। हम तो ज्यों ही समझ लें त्यों ही उसे शुरू कर दें। जो नहीं करेगा वह खोयेगा। समझते हुए भी जो नहीं करेगा, वह निरा दंभी कहलायेगा।

पाठक : ट्रामगाड़ी और बिजलीकी बत्तीका क्या होगा?

संपादक : यह सवाल आपने बहुत देरसे किया। इस सवालमें अब कोई जान नहीं रही। रेलने अगर हमारा नाश किया है, तो क्या ट्राम नहीं करती? यंत्र तो साँपका ऐसा बिल है, जिसमें एक नहीं बल्कि सैकड़ों साँप होते हैं। एकके पीछे दूसरा लगा ही रहता है। जहाँ यंत्र होगे वहाँ बड़े शहर होंगे। जहाँ बड़े शहर होंगे वहाँ ट्रामगाड़ी और रेलगाड़ी होगी। वहीं बिजलीकी बत्तीकी ज़रूरत रहती है। आप जानते होंगे कि विलायतमें भी देहातोंमें बिजलीकी
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बत्ती या ट्राम नहीं है। प्रामाणिक[४०] वैद्य और डॉक्टर आपको बतायेंगे कि जहाँ रेलगाड़ी, ट्रामगाड़ी वगैरा साधन[४१] बढे़ हैं, वहाँ लोगोंकी तन्दुरुस्ती गिरी हुई होती है। मुझे याद है कि यूरोपके एक शहरमें जब पैसेकी तंगी हो गई थी तब ट्रामों, वकीलों और डॉक्टरोंकी आमदनी घट गयी थी, लेकिन लोग तन्दुरुस्त हो गये थे।

यंत्रका गुण तो मुझे एक भी याद नहीं आता, जब कि उसके अवगुणोंसे मैं पूरी किताब लिख सकता हूँ।

पाठक : यह सारा लिखा हुआ यंत्रकी मददसे छापा जायगा और उसकी मददसे बाँटा जायगा, यह यंत्रका गुण है या अवगुण?

संपादक : यह ‘ज़हरकी दवा ज़हर है' की मिसाल है। इसमें यंत्रका कोई गुण नहीं है। यंत्र मरते मरते कह जाता है कि ‘मुझसे बचिये, होशियार रहिये; मुझसे आपको कोई फायदा नहीं होनेका।' अगर ऐसा कहा जाय कि यंत्रने इतनी ठीक कोशिश की, तो यह भी उन्हीके लिए लागू होता है जो यंत्रकी जालमें फँसे हुए हैं।

लेकिन मूल बात न भूलियेगा। मनमें यह तय कर लेना चाहिये कि यंत्र खराब चीज है। बादमें हम उसका धीरे-धीरे नाश करेंगे। ऐसा कोई सरल[४२] रास्ता कुदरतने ही बनाया नहीं है कि जिस चीजकी हमें इच्छा हो वह तुरन्त मिल जाय। यंत्रके ऊपर हमारी मीठी नज़रके बजाय ज़हरीली नज़र पड़ेगी, तो आखिर वह जायगा ही।


  1. सबूत।
  2. गांधीजीने 'देहमूल' पाठ लिया है। - अनुवादक
  3. दु:ख।
  4. गैर-कुदरती।
  5. मकसद।
  6. गैर-इन्साफ़वाला।
  7. ला-खुदाई।
  8. जरिया।
  9. खतरनाक।
  10. दंग।
  11. निडर।
  12. नफ़सानी ख्वाहिश।
  13. दुविधा।
  14. सिफ़तोंसे।
  15. तहजीब।
  16. बहुत बड़े।
  17. औज़ार।
  18. मुकाबिलेमें।
  19. इन्साफ़को परखनेवाली।
  20. फ़र्ज।
  21. ताईद।
  22. मनचाहा देनेवाली गाय।
  23. गहना।
  24. उद्धार-संवार, फिरसे जिलानेकी कोशिश।
  25. ज़ाहिर।
  26. बद्दुआ।
  27. ढोंग।
  28. ममता, द्वेष।
  29. मादरी जबान।
  30. खुदग़रज।
  31. तरक्की।
  32. गिरावट।
  33. ज़िक्र।
  34. भारी खुशी।
  35. लाचार।
  36. शहबत।
  37. बातें।
  38. ज़हरीले।
    • अनारम्भो हि कार्याणाम् प्रथमं बुद्धिलक्षणम्।

    आरब्धस्यान्तगमनम् द्वितीयं बुद्धिलक्षणम्।।

  39. ईमानदार।
  40. ज़रिये।
  41. आसान, सीधा।