सामग्री पर जाएँ

हिन्द स्वराज/८

विकिस्रोत से
हिन्द स्वराज
लेखक:मोहनदास करमचंद गाँधी, अनुवादक अमृतलाल ठाकोरदास नाणावटी

अहमदाबाद - १४: हिंदी विभाग लखनऊ विश्वविद्यालय, पृष्ठ १११ से – १२० तक

 

छुटकारा

पाठक : आपके विचारोंसे ऐसा लगता है कि आप एक तीसरा ही पक्ष कायम करना चाहते हैं। आप एक्स्ट्रीमिस्ट भी नहीं हैं और मॉडरेट भी नहीं हैं।

संपादक : यहाँ आपकी भूल होती है। मेरे मनमें तीसरे पक्षका कोई ख़याल नहीं है। सबके विचार एकसे नहीं रहते। मॉडरेटोंमें भी सब एक ही विचारके हैं, ऐसा नहीं मानना चाहिये। जिसे (लोगोंकी) सेवा ही करनी है, उसके लिए पक्ष कैसा? मैं तो मॉडरेटोंकी सेवा करूँगा और एक्स्ट्रीमिस्टोंकी भी करूँगा। जहाँ उनके विचारसे मेरी राय अलग पड़ेगी वहां मैं उन्हें नम्रतासे बताऊँगा और अपना काम करता चलूँगा।

पाठक : अगर आप दोनोंसे कहना चाहें तो क्या कहेंगे?

संपादक : एक्स्ट्रीमिस्टोंसे मैं कहूँगा कि आपका हेतु हिन्दुस्तानके लिए स्वराज्य हासिल करनेका है। स्वराज्य आपकी कोशिशसे मिलनेवाला नहीं है। स्वराज्य तो सबको अपने लिए पाना चाहिये-और सबको उसे अपना बनाना चाहिये। दूसरे लोग जो स्वराज्य दिला दें वह स्वराज्य नहीं है, बल्कि परराज्य है। इसलिए सिर्फ़ अंग्रेजोंको बाहर निकाला कि आपने स्वराज्य पा लिया, ऐसा अगर आप मानते हों तो वह ठीक नहीं है। सच्चा स्वराज्य जो मैंने पहले बताया वही होना चाहिये। उसे आप गोला-बारूदसे कभी नहीं पायेंगे। गोला-बारूद हिन्दुस्तानको सधेगा नहीं। इसलिए सत्याग्रह पर ही भरोसा रखिये। मनमें ऐसा शक भी पैदा न होने दीजिये कि स्वराज्य पानेके लिए हमें गोला-बारूदकी ज़रूरत है।

मॉडरेटोंसे मैं कहूँगा कि हम खाली आजिज़ी करना चाहें, यह तो हमारी हीनता[] होगी। उसमें हम अपना हलकापन कबूल करते हैं। 'अंग्रेजोंसे सम्बन्ध रखना हमारे लिए ज़रूरी है'–ऐसा कहना हमारे लिए, ईश्वरके चोर बनने जैसा हो जाता है। हमें ईश्वरके सिवा और किसीकी ज़रूरत है,
ऐसा कहना ठीक नहीं है। और साधारण विचार करनेसे भी हमें लगेगा कि 'अंग्रेजोंके बिना आज तो हमारा काम चलेगा ही नही.' ऐसा कहना अंग्रेजोंको अभिमानी बनाने जैसा होगा।

अंग्रेज बोरिया-बिस्तर बांधकर अगर चले जायेंगे, तो हिन्दुस्तान अनाथ हो जायगा ऐसा नही मानना चाहिये। अगर वे गये तो संभव है कि जो लोग उनके दबावसे चूप रहे होंगे वे लड़ेंगे। फोड़ेको दबाकर रखनेसे कोई फायदा नही। उसे तो फूटना ही चाहिये। इसलिये अगर हमारे भागमें आपसमें लड़ना ही लिका होगा तो हम लड़ मरेंगे। उसमे कमज़ोरकों बचानेके बहाने किसी दूसरेको बीचमें पड़नेकी ज़रूरत नहीं है। इसीसे तो हमारा सत्यानाश हुआ है। इस तरह कमज़ोरको बचाना उसे और भी कमज़ोर बनाने जैसा है। मॉडरेटोंको इस बात पर अच्छी तरह विचार करना चाहिये। इसके बिना स्वराज्य नहीं प्राप्त हो सकता। मैं उन्हें एक अंग्रेज पादरीके शब्दोंकी याद दिलाऊंगा: "स्वराज्यमें अंधाधुंधी बरदाश्त की जा सकती हैं, लेकिन परराज्यकी व्यवस्था[] हमारी कंगालीको बताती है।" सिर्फ़ उस पादरीके स्वराज्यका और हिन्दुस्तानके स्वराज्यका अर्थ अलग है। हम किसीका भी जुल्म या दबाव नहीं चाहते-चाहे वा गोरा हो या हिन्दुस्तानी हो। हम सबको तैरना सीखना और सिखाना है।

अगर ऐसा हो तो एक्स्ट्रामिस्ट और मॉडरेट दोनों मिलेंगे-मिल सकेंगे-दोनोंको मिलना चाहिये;दोनोंको एक-दूसरेका डर रखनेकी या अविश्वास करनेकी ज़रूरत नही है।

पाठक: इतना तो आप दोनो पक्षोंसे कहेंगे।परन्तु अंग्रेजोंसे क्या कहेंगे?

संपादक: उनसे में विनयसे कहूंगा कि आप हमारे राजा ज़रूर है।आप अपनी तलवारसे हमारे राजा हैं या हमारी इच्छासे, इस सवालकी चर्चा मुझे करनेकी ज़रूरत नहीं।आप हमारे देशमें रहें इसका भी मुझे द्वेष[] नहीं है। लेकिन राजा होते हुए भी आपको हमारे नौकर बनकर रहना होगा। आपका कहा हमें नहीं, बल्कि हमारा कहा आपको करना होगा। आज तक आप इस
देशसे जो धन ले गये, वह भले आपने हजम कर लिया। लेकिन अब आगे आपका ऐसा करना हमें पसन्द नहीं होगा। आप हिन्दुस्तानमें सिपाहगिरी करना चाहें तो रह सकते हैं। हमारे साथ व्यापार करनेका लालच आपको छोड़ना होगा। जिस सभ्यताकी आप हिमायत करते हैं, उसे हम नुकसानदेह मानते हैं। अपनी सभ्यताको हम आपकी सभ्यतासे कहीं ज्यादा ऊंची समझते हैं। आपको भी ऐसा लगे तो उसमें आपका लाभ ही है। लेकिन ऐसा न लगे तो भी आपको, आपकी कहावतके[] मुताबिक, हमारे देशमें हिन्दुस्तानी होकर रहना होगा। आपको ऐसा कुछ नहीं करना चाहिये, जिससे हमारे धर्मको बाधा पहुँचे। राजकर्ता होनेके नाते आपका फ़र्ज है कि हिन्दुओंकी भावनाका आदर करनेके लिए आप गायका मांस खाना छोड़ दें और मुसलमानोके खातिर बुरे जानवर- (सूअर)का मांस खाना छोड़ दें। हम दब गये थे इसलिए बोल नहीं सके, लेकिन आप ऐसा न समझें कि आपके इस बरतावसे हमारी भावनाओंको चोट नहीं पहुँची है। हम स्वार्थ या दूसरे भयसे आज तक कह नहीं सके, लेकिन अब यह कहना हमारा फ़र्ज हो गया है। हम मानते हैं कि आपकी क़ायम की हुई शालाएं और अदालतें हमारे किसी कामकी नहीं हैं। उनके बजाय हमारी पुरानी असली शालाएँ और अदालतें ही हमें चाहिये।

हिन्दुस्तानकी आम भाषा अंग्रेजी नहीं बल्कि हिन्दी है। वह आपको सीखनी होगी और हम तो आपके साथ अपनी भाषामें ही व्यवहार करेंगे।

आप रेलवे और फ़ौजके लिए बेशुमार रुपये खर्च करते हैं, यह हमसे देखा नहीं जाता। हमें उसकी ज़रूरत नहीं मालूम होती। रूसका डर आपको होगा, हमें नहीं है। रूसी आयेंगे तब हम उनसे निबट लेंगे; आप होंगे तो हम दोनों मिलकर उनसे निबट लेंगे। हमें विलायती या यूरोपी कपड़ा नहीं चाहिये। इस देशमें पैदा होनेवाली चीजोंसे ही हम अपना काम चला लेंगे। आपकी एक आँख मैन्चेस्टर पर और दूसरी हम पर रहे, यह अब नहीं पुसायेगा। आपका और हमारा स्वार्थ एक ही है, इस तरह आप बरतेंगे तभी हमारा साथ बना रह सकता है।


आपसे यह सब हम बेअदबीसे नहीं कह रहे हैं। आपके पास हथियार-बल है, भारी जहाजी सेना है। उसके ख़िलाफ़ वैसी ही ताक़तसे हम नहीं लड़ सकते। लेकिन आपको अगर ऊपर कही गई बात मंजूर न हो, तो आपसे हमारी नहीं बनेगी। आपकी मरजीमें आये तो और मुमकिन हो तो आप हमें तलवार से काट सकते हैं,मरजीमें आये तो हमे तोपसे उड़ा सकते हैं। हमें जो पसंद नहीं है वह अगर आप करेंगे, तो हम आपकी मदद नहीं करेंगे; और बगैर हमारी मददके आप एक कदम भी नहीं चल सकेंगे।

संभव है कि अपनी सत्ताके मदमें हमारी इस बातको आप हँसीमें उड़ा दें। आपका हँसना बेकार है, ऐसा आज शायद हम नहीं दिखा सकें। लेकिन अगर हममें कुछ दम होगा, तो आप देखेंगे कि आपका मद[] बेकार है और आपका हँसना (विनाश-कालकी) विपरीत[] बुद्धिकी निशानी है।

हम मानते हैं कि आप स्वभावसे धार्मिक राष्ट्रकी प्रजा हैं। हम तो धर्मस्थानमें ही बसे हुए हैं। आपका और हमारा कैसे साथ हुआ, इसमें उतरना फ़िजूल है। लेकिन अपने इस सम्बन्धका हम दोनों अच्छा उपयोग कर सकते हैं।

आप हिन्दुस्तानमें आनेवाले जो अंग्रेज हैं वे अंग्रेज प्रजाके सच्चे नमूने नहीं हैं; और हम जो आधे अंग्रेज जैसे बन गये हैं वे भी सच्ची हिन्दुस्तानी प्रजाके नमूने नहीं कहे जा सकते। अंग्रेज प्रजाको अगर आपकी करतूतोंके बारेमें सब मालूम हो जाय, तो वह आपके कामोंके ख़िलाफ़ हो जाय। हिन्दकी प्रजाने तो आपके साथ संबंध थोड़ा ही रखा है। आप अपनी सभ्यताको, जो दरअसल बिगाड़ करनेवाली है, छोड़ कर अपने धर्मकी छानबीन करेंगे, तो आपको लगेगा कि हमारी माँग ठीकहै। इसी तरह आप हिन्दुस्तानमें रह सकते हैं। अगर उस ढंगसे आप यहाँ रहेंगे तो आपसे हमें जो थोड़ा सीखना है वह हम सीखेंगे और हमसे आपको जा बहुथ सीखना है वह आप सीखेंगे। इस तरह हम (एक-दूसरेसे) लाभ उठायेंगे और सारी दुनियाको लाभ पहुंचायेंगे। लेकिन यह तो तभी हो सकता है जब हमारे संबंधकी जड़ धर्मक्षेत्रमें जमे। पाठक : राष्ट्रसे आप क्या कहेंगे?

संपादक : राष्ट्र कौन?

पाठक : अभी तो आप जिस अर्थमें यह शब्द काममें लेते हैं उसी अर्थवाला राष्ट्र, यानी जो लोग यूरोपकी सभ्यतामें रंगे हुए हैं, जो स्वराज्यकी आवाज़ उठा रहे हैं।

संपादक : इस राष्ट्रसे मैं कहूँगा कि जिस हिन्दुस्तानीको (स्वराज्यकी) सच्ची खुमारी यानी मस्ती चढ़ी होगी, वही अंग्रेजोंसे ऊपरकी बात कह सकेगा और उनके रोबसे नहीं दबेगा।

सच्ची मस्ती तो उसीको चढ़ सकती है, जो ज्ञानपूर्वक-समझबूझकर-यह मानता हो कि हिन्दकी सभ्यता सबसे अच्छी है और यूरोपकी सभ्यता चार दिनकी चाँदनी है। वैसे सभ्यतायें तो आज तक कई हो गयीं और मिट्टीमें मिल गयीं, आगे भी कई होंगी और मिट्टीमें मिल जायेंगी।

सच्ची खुमारी उसीको हो सकती है, जो आत्मबल अनुभव करके शरीर-बलसे नहीं दबेगा और निडर रहेगा तथा सपनेमें भी तोप-बलका उपयोग करनेकी बात नहीं सोचेगा।

सच्ची खुमारी उसी हिन्दुस्तानीको रहेगी, जो आजकी लाचार हालतसे बहुत ऊब गया होगा और जिसने पहलेसे ही ज़हरका प्याला पी लिया होगा। ऐसा हिन्दुस्तानी अगर एक ही होगा, तो वह भी ऊपरकी बात अंग्रेजोंसे कहेगा और अंग्रेजोंको उसकी बात सुननी पड़ेगी।

ऊपरकी माँग माँग नहीं है; वह हिन्दुस्तानियोंके मनकी दशाको बताती है। माँगनेसे कुछ नहीं मिलेगा; वह तो हमें खुद लेना होगा। उसे लेनेकी हममें ताक़त होनी चाहिये। यह ताकत उसीमें होगी :

(१) जो अंग्रेजी भाषाका उपयोग लाचारीसे ही करेगा।

(२) जो वकील होगा तो अपनी वकालत छोड़ देगा और खुद घरमें चरखा चलाकर कपड़े बुन लेगा।

(३) जो वकील होनेके कारण अपने ज्ञानका उपयोग सिर्फ़ लोगोंको समझाने और लोगोंकी आँखें खोलनेमें करेगा। (४) जो वकील होकर वादी-प्रतिवादी-मुद्दई और मुद्दालेह–के झगड़ोंमें नहीं पड़ेगा, अदालतोंको छोड़ देगा और अपने अनुभवसे दूसरोंको अदालतें छोड़नेके लिए समझायेगा।

(५) जो वकील होते हुए भी जैसे वकालत छोड़ेगा वैसे न्यायाधीशपन[] भी छोड़ेगा।

(६) जो डॉक्टर होते हुए भी अपना पेशा छोड़ेगा और समझेगा कि लोगोंकी चमड़ी चोंथनेके बजाय बेहतर है कि उनकी आत्माको छुआ जाय और उसके बारेमें शोध-खोज करके उन्हें तंदुरुस्त बनाया जाय।

(७) जो डॉक्टर होनेसे समझेगा कि खुद चाहे जिस धर्मका हो, लेकिन अंग्रेजी बैदकशालाओं-फार्मसियों-में जीवों पर जो निर्दयता की जाती है, वैसी निर्दयतासे (बनी हुई दवाओंसे) शरीरको चंगा करनेके बजाय बेहतर है कि शरीर रोगी रहे।

(८) जो डॉक्टर होने पर भी खुद चरखा चलायेगा और जो लोग बीमार होंगे उन्हें उनकी बीमारीका सही कारण बताकर उसे दूर करनेके लिए कहेगा; निकम्मी दवाएं देकर उन्हें गलत लाड़ नहीं लड़ायेगा। वह तो यही समझेगा कि निकम्मी दवाएं न लेनेसे बीमारकी देह अगर गिर भी जाय, तो उससे दुनिया अनाथ नहीं हो जायगी, और यही मानेगा कि उसने बीमार पर सच्ची दया की है।

(९) जो धनी होने पर भी धनकी परवाह किये बिना अपने मनमें होगा वही कहेगा और बड़े-से-बड़े सत्ताधीशको भी परवाह न करेगा।

(१०) जो धनी होनेसे अपना रुपया चरखे चालू करनेमें खरचेगा और खुद सिर्फ़ स्वदेशी मालका इस्तेमाल करके दूसरोंको भी ऐसा करनेके लिए बढ़ावा देगा।

(११) दूसरे हर हिन्दुस्तानीकी तरह जो यह समझेगा कि यह समय पश्चात्तापका,[] प्रायश्चित्तका[] और शोकका[१०] है।

(१२) जो दूसरे हर हिन्दुस्तानीकी तरह यह समझेगा कि अंग्रेजोंका क़सूर निकालना बेकार है। हमारे कसूरकी वजहसे वे हिन्दुस्तानमें आये, हमारे क़सूरके कारण ही वे यहाँ रहते हैं और हमारा क़सूर दूर होगा तब वे यहाँसे चले जायेंगे या बदल जायेंगे।

(१३) दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह जो यह समझेगा कि मातमके वक्त मौज-शौक नहीं हो सकते। जब तक हमें चैन नहीं है तब तक हमारा जेलमें रहना या देशानिकाला भोगना ही ठीक है।

(१४) जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह यह समझेगा कि लोगोंको समझानेके बहाने जेलमें न जानेकी खबरदारी रखना निरा मोह है।

(१५) जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह यह समझेगा कि कहनेसे करनेका असर अद्भुत होता है; हम निडर होकर जो मनमें है वही कहेंगे और इस तरह कहनेका जो नतीजा आये उसे सहेंगे, तभी हम अपने कहनेका असर दूसरों पर डाल सकेंगे।

(१६) जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह यह समझेगा कि हम दुख सहन करके ही बंधन यानी गुलामीसे छूट सकेंगे।

(१७) जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह समझेगा कि अंग्रेजोंकी सभ्यताको बढ़ावा देकर हमने जो पाप किया है, उसे धो डालनेके लिए अगर हमें मरने तक भी अंदमानमें रहना पड़े, तो वह कुछ ज्यादा नहीं होगा।

(१८) जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह समझेगा कि कोई भी राष्ट्र दुख सहन किये बिना ऊपर चढ़ा नहीं है। लड़ाईके मैदानमें भी दुख ही कसौटी होता है, न कि दूसरेको मारना। सत्याग्रहके बारेमें भी ऐसा ही है।

(१९) जो दूसरे हिन्दुस्तानियोंकी तरह समझेगा कि यह कहना कुछ न करनेके लिए एक बहाना भर है कि 'जब सब लोग करेंगे तब हम भी करेंगे'। हमें ठीक लगता है इसलिए हम करें, जब दूसरोंको ठीक लगेगा तब वे करेंगे-यही करनेका सच्चा रास्ता है। अगर मैं स्वादिष्ट[११] भोजन देखता हूँ, तो उसे खानेके लिए दूसरेकी राह नहीं देखता। ऊपर कहे मुताबिक प्रयत्न[१२] करना, दुख सहना यह स्वादिष्ट भोजन है। ऊबकर लाचारीसे करना या दुख सहना निरी बेगार है। पाठक : सब ऐसा कब करेंगे और कब उसका अंत आयेगा?

संपादक : आप फिर भूलते हैं। सबकी न तो मुझे परवाह है, न आपको होनी चाहिये। 'आप अपना देख लीजिये, मैं अपना देख लूंगा' -यह स्वार्थ-वचन माना जाता है, लेकिन यह परमार्थ-वचन भी है। मैं अपना उजालूँगा–अपना भला करूँगा, तभी दूसरेका भला कर सकूँगा। अपना कर्तव्य[१३] मैं कर लूँ, इसीमें कामकी सारी सिद्धियाँ समाई हुई हैं।

आपको बिदा करनेसे पहले फिर एक बार मैं यह दोहरानेकी इजाजत चाहता हूँ कि:

(१) अपने मनका राज्य स्वराज्य है।

(२) उसकी कुंजी सत्याग्रह, आत्मबल या करुणा-बल है।

(३) उस बलको आजमानेके लिए स्वदेशीको पूरी तरह अपनानेकी ज़रूरत है।

(४) हम जो करना चाहते हैं वह अंग्रेजोंके लिए (हमारे मनमें) द्वेष है इसलिए या उन्हें सजा देनेके लिए नहीं करें, बल्कि इसलिए करें कि ऐसा करना हमारा कर्तव्य है। मतलब यह कि अंग्रेज अगर नमक-महसूल रद कर दें, लिया हुआ धन वापस कर दें, सब हिन्दुस्तानियोंको बड़े बड़े ओहदे दे दें और अंग्रेजी लश्कर हटा लें, तो हम उनकी मिलोंका कपड़ा पहनेंगे, या अंग्रेजी भाषा काममें लायेंगे, या उनकी हुनर-कलाका उपयोग करेंगे सो बात नहीं है। हमें यह समझना चाहिये कि वह सब दरअसल नहीं करने जैसा है, इसलिए हम उसे नहीं करेंगे।

मैंने जो कुछ कहा है वह अंग्रेजोंके लिए द्वेष होनेके कारण नहीं, बल्कि उनकी सभ्यताके लिए द्वेष होनेके कारण कहा है।

मुझे लगता है कि हमने स्वराज्यका नाम तो लिया, लेकिन उसका स्वरूप हम नहीं समझे हैं। मैंने उसे जैसा समझा है वैसा यहाँ बतानेकी कोशिश की है।

मेरा मन गवाही देता है कि ऐसा स्वराज्य पानेके लिए मेरा यह शरीर समर्पित[१४] है। ‘हिन्द स्वराज्य' के हिन्दी अनुवादके लिए गांधीजीने जो प्रस्तावना लिखी थी, उसमें उन्होंने मिलोंके बारे में नीचेकी बात कही थी :

"यह पुस्तक मैंने सन् १९०९ में लिखी थी। १२ वर्षके अनुभवके बाद भी मेरे विचार जैसे उस समय थे वैसे ही आज हैं। मैं आशा करता हूँ कि पाठक मेरे इन विचारोंको प्रयोग करके उनकी सिद्धता अथवा असिद्धताका निर्णय कर लेंगे।

‘मिलोंके सम्बन्धमें मेरे विचारोंमें इतना परिवर्तन हुआ है कि हिन्दुस्तानकी आजकी हालतमें मैन्चेस्टरके कपड़ेके बजाय हिन्दुस्तानकी मिलोंका प्रोत्साहन देकर भी अपनी ज़रूरतका कपड़ा हमें अपने देशमें ही पैदा कर लेना चाहिये।"

[सन् १९२१]

‘हिन्द स्वराज्य'के अंग्रेजी अनुवादकी प्रस्तावना लिखते हुए गांधीजीने इस पुस्तकका एक ग्राम्य शब्द सुधारनेकी इच्छा बताई थी :

"इस समय इस पुस्तकको इसी रूपमें प्रकाशित करना मैं आवश्यक समझता हूँ। परन्तु यदि इसमें मुझे कुछ भी सुधार करना हो, तो मैं एक शब्द सुधारना चाहूँगा। एक अंग्रेज महिला मित्रको मैंने वह शब्द बदलनेका वचन दिया है। पार्लियामेन्टको मैंने वेश्या कहा है। यह शब्द उन बहनको पसन्द नहीं है। उनके कोमल हृदयको इस शब्दके ग्राम्य भावसे दुःख पहुँचा है।”

[सन् १९२१]

'हिन्द स्वराज्य' के अध्ययनको आगे बढ़ानेके लिए नीचेकी पुस्तकें पढ़ना उपयोगी होगा :
  1. The Kingdom of God is within You - Tolstoy
  2. What is Art? -Tolstoy
  3. The Slavery of Our Times -Tolstoy
  4. The First Step -Tolstoy
  5. How Shall We Escape? -Tolstoy
  6. Letter to a Hindoo –Tolstoy
  7. The White Slaves of England -Sherard
  8. Civilization, Its Cause and Cure -Carpenter
  9. The Fallacy of Speed -Taylor
  10. A New Crusade -Blount
  11. On the Duty of Civil Disobedience - Thoreau
  12. Life Without Principle -Thoreau
  13. Unto This Last -Ruskin
  14. A Joy for Ever -Ruskin
  15. Duties of Man -Mazzini
  16. Defence and Death of Socrates -From Plato
  17. Paradoxes of Civilization -Max Nordau
  18. Poverty and Un-British Rule in India -Naoroji
  19. Economic History of India -Dutt
  20. Village Communities -Maine

  1. कमी
  2. बन्दोबस्त।
  3. डाह, ईर्ष्या, बैर।
  4. * Be a Roman in Rome---रोममें रोमन बनकर रहो।
  5. गरूर, घमंड।
  6. उलटी।
  7. जजी।
  8. अफ़सोस, पछतावा।
  9. कफ़्फ़ारा।
  10. मातम।
  11. ज़ायकेदार।
  12. कोशिश।
  13. फ़र्ज।
  14. भेंट, नज़र किया हुआ।