हीराबाई/ भाग 2

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हीराबाई  (1914) 
द्वारा किशोरीलाल गोस्वामी
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छठवां परिच्छेद।

प्रत्युपकार।

"वदनं प्रसादसदनं सदयं हृदयं सुधामुचों वाचः।
करणं परोपकरणं येषां केषां न ते वन्द्याः॥"

(सुभाषिते)

इतने ही में वहांपर एक परमसुन्दरी स्त्री, जिसकी अवस्था तीस बरस के लगभग थी, पर तौभी वह बीस बरस की नौजवान औरत के समान जान पड़ती थी, आगई और विशालदेव की ओर देख, हाथ जोड़कर बोली,-"महाराज! अगर आपकी कमला आपके पास ही रहे, पर सारी दुनियां यही जाने कि आपने अपनी कमला क़ाफ़िर अ़लाउद्दीन को देदी और वह पापी भी कमला को पाकर ख़ुश होजाय तो बतलाइए, -इसमें तो आपको कोई उज़्र न होगा?"

उस औरत की ये विचित्र बातें सुन राजा-रानी उसका मुंह निहारने लगे और विशालदेव ने घबरा कर कहा,-

"हीराबाई! यह तुम क्या कह रही हो? हाय! एक कमला की दो कमला क्योंकर होसकती हैं?"

उस स्त्री का नाम हीराबाई था, उसने कहा,-"हां महाराज! आपकी प्यारी कमला तो आप ही के पास रहे, पर दुनिया यही जाने कि आपकी
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कमला अ़लाउद्दीन को देडाली गई!"

कमला,-"बहिन! फिर वही बात! हाय! तुम पागल तो नहीं होगई हो?"

हीरा,-"नहीं, महारानी! मैं अपने होशोहवास में हूं। सुनो, मैं ख़ुद कमला बनकर अ़लाउद्दीन के पास जाऊंगी और तुम अपने प्यारे महाराज के ही पास रहोगी; लेकिन आजसे तुम अच्छी तरह अपने तई छिपाए रहना और इस राज़ को हर्गिज़ खुलने न देना, जिसमें इस भेद को कोई जानने न पावे, वर न क़यामत बर्पा होगी। इस राज़ के खुलने पर चाहे मेरी जान जाय, इसकी तो मुझे ज़रा भी पर्वा नहीं, मगर बदज़ात अ़लाउद्दीन काठियावाड़ की एक ईंट भी साबूत न छोड़ेगा; इस बात का ख़याल ज़रूर रखना।"

यह एक ऐसी बात थी कि जिसने विशालदेव और कमला देवी का ध्यान दूसरी ओर पलट दिया और फिर तीनों ने मिलकर इस बारे में ख़ूब बहस की। अन्त में हीरा ही जीती, उसकी बात को विशालदेव और कमलादेवी ने स्वीकार किया और- "अपमानं पुरस्कृत्य मानं कृत्वा तु पृष्ठके। स्वकार्य साधयेद्धीमान् कार्यध्वंसो हि मूर्खता,-" इस नीति के अनुसार उसी दिन राजा ने फ़तहख़ां से कहला
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भेजा कि,-"तुम अपनी तैयारी करो, आज आधी रात के समय कमलादेवी का डोला चुपचाप तुम्हारे पास भेज दिया जायगा।


सातवां परिच्छेद।

परिचय।

"मदर्थे यत्कृतं राजन् तन्मया नैव विस्मृतम्।
त्वदर्थे सम्प्रदास्यामीदानीं प्राणानिमानहम्॥

(महाभारते)

यह हीराबाई कौन थी, जिसने कमलादेवी की सारी बला अपने ऊपर लेली? सुनिए, कहते हैं,-

यह बात हम पहिले लिख आए हैं कि अ़लाउद्दीन ने तख़्त पर बैठते ही [सन १२९७ ईस्वी] गुजरात को फ़तह कर उसे अपनी सल्तनत में मिलालिया था। उसी लड़ाई में अ़लाउद्दीन का एक फ़ौजी अफ़सर हसनख़ां मारा गया था, जिसकी बीबी लड़ाई के वक्त उसके साथ थी और अपने प्यारे शौहर के मारे जाने से दुखी हो, वह अपनी पांच-चार बरस की लड़की को गोद में ले एक जंगल में चली गई थी। जिस दिन वह एक पेड़ में फांसी लगा और अपने गले में अपनी लड़की के गले को भी बांध कर जान देने की फ़िक में लगीहुई थी। उस दिन
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संयोग से राजा विशालदेव शिकार खेलता हुआ वहां जा निकला था और उस औरत की जान बचा और समझा-बुझा-कर मय उसकी लड़की के उसे अपने राजमहल में लेआया था।

महल में आकर राजा ने कमलादेवी से उस आफ़त की मारी औरत की सारी बिपता कह सुनाई, जिसे सुन कमला का जी भर आया और उसने उस औरत को अपने पास रक्खा। उस औरत का पहिला नाम दिलाराम और उसकी लड़की का गौहर था, पर कमला ने उसका नाम हीरा और उसकी लड़की का लालन रक्खा था। कुछ दिनों के बाद कमला ने हीरा को बहुत कुछ समझाया कि 'वह अपने घर चली जाय' पर वह कमला की सरन छोड़ कहीं जाना नहीं चाहती थी इसलिये वह कमला की प्यारी सखी बनकर रहने लगी थी और कमला भी उसे मुसलमानी औरत जान, उससे घृणा नहीं करती और प्यारी सहेली की भांति उसके साथ बर्ताव करती थी।

जितनी बड़ी हीरा की लड़की लालन थी, उतनीही बड़ी कमलादेवी की कन्या देवलदेवी भी थी; इसलिये दोनो साथही साथ खेलतीं, पढ़तीं, लिखतीं और राजभवन में रहती थीं। रानी कमला[ १८ ]
देवी लालन को भी उतनाही प्यार करती थी, जितना कि वह देवलदेवी को चाहती थी।

उसी साल देवलदेवी का ब्याह देवगढ़ के राजा रामदेव के पुत्र कुमार लक्ष्मणदेव के साथ हुआ था और वह सुसराल जानेवाली थी; किन्तु बीच में अ़लाउद्दीन की फ़ौज के आजाने से उसकी बिदाई रुक गई थी।

देवलदेवी के ब्याह हो जाने पर कमलादेवी को लालन के ब्याह की बड़ी चिन्ता लगी हुई थी, पर वह लालन का ब्याह किसी आली ख़ान्दान मुसलमान के घर किया चाहती थी, इसीसे लालन के ब्याह में देर हो रही थी।

आठवां परिच्छेद।

आत्मबलि।

"किं दुस्सहंतुसाधूनां विदुषां किमपेक्षितम्।
किमकार्यं कदर्याणां दुस्त्यजं किं धृतात्मनाम्॥"

(श्रीमद्भागवते)

अब हीराबाई कमला बनकर दिल्ली जाती है! उसने आज दिनभर अपनी प्यारी और समझदार लड़की लालन को न जाने क्या-क्या सिखाया पढ़ाया है और उसे धीरज दे तथा कमला से गले
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गले मिल वह आजन्म के लिये उससे बिदा होती है। कमलादेवी ने अपने बहुमूल्य गहने पहराकर अपने हाथ से हीरा का शृंगार किया, फिर उसे गले लगा और रोकर कहा,-"बहिन! मुझे भूल न जाना।"

हीरा भी रोने लगी और बोली,-"प्यारी कमला! मैं तुम्हारी भलाइयों को जीतेजी कभी भूल सकती हूं! गो, अपने शौहर के मरने से मैं दुनियां के ऐशोआराम को हराम समझ चुकी थी, पर प्यारी कमला! तुम्हारे लिये मैं ज़हर की घूंट पीकर सब कुछ सहूंगी और सभी काम करूंगी; मगर ख़ैर, तुम मेरी उस बात को न भूलना। मैं दिल्ली पहुंचतेही शाही फ़ौज देवलदेवी के पकड़लाने के लिए भेजूंगी।"

इस पर कमला ने "अच्छा" कहकर उसे डोलेपर सवार किया।

निदान, हीरा, उर्फ़ कमला दिल्ली पहुंची। वह ऐसी सुन्दर थी कि लंपट अ़लाउद्दीन उसे देखतेही उस पर मोहित हो गया और तुरंत उसने क़ाजी को बुला उससे निक़ाह करके उसे अपनी प्रधान बेग़म बना लिया। [ २० ]
नवां परिच्छेद।

प्रपंच।

"यस्य यस्य हि यो भावस्तेन तेन समाचरेत्।
अनु प्रविश्य मेधावी क्षिप्रमात्म वशं नषेत्॥

(नीतिसमुच्चये)

एक दिन हीरा ने अ़लाउद्दीन को खुश देख हाथ जोड़कर उससे अर्ज़ की कि,-"जहांपनाह! मेरी लड़की देवलदेवी मुझसे भी निहायत हसीन है; हुजू़र उसे भी फ़ौरन मंगवाकर अपने शाहज़ादे खिजरखां के साथ उसकी शादी कर दें। वह देवगढ़ के राजा रामदेव के लड़के लक्ष्मणदेव के साथ ब्याही गई है और गौने में बिदा होकर ससुराल जाने ही वाली है। हुजूर चाहें तो अपनी फ़ौज भेजकर उसे भी यहां पकड़ मगावें।

अ़लाउद्दीन यह सुनकर बहुत ख़ुश हुआ और तुरंत उसने समझा-बुझा-कर फ़तहख़ां को उस ओर रवाने किया। हीरा की सलाह से उसकी लड़की लालन ने देवलदेवी बनकर एक हज़ार सिपाहियों के साथ देवगढ़ के रास्ते में एक जंगल में डेरा डाला था और वहीं टिककर वह बादशाही फ़ौज का रास्ता तकने लगी थी। साथ के सिपाहियों में से यह भेद किसी को मालूम न था कि,-'यह असली देवल[ २१ ]
देवी नहीं है।' आख़िर एक दिन फ़तहख़ा की फ़ौज उसपर आ टूटी और लालन का डोला लूट दिल्ली की ओर कूच करगई। इधर सिपाहियों ने अपनासा मुंह ले, विशालदेव से आकर देवलदेवी के लूटे जाने का हाल कहा, जिसे सुन ज़ाहिरा तौरपर तो राज-महल में शोक मनाया गया, पर फिर विशालदेव ने रामदेव को बुलाकर तथा सब गुप्तभेद उसे समझा बुझाकर देवलदेवी को चुपचाप देवगढ़ भेज दिया।

सचमुच लालन बड़ी सुन्दर लड़की थी; उसे देखतेही अ़लाउद्दीन ने उसका निक़ाह अपने लड़के ख़िज़रख़ां के साथ कर दिया था। ख़िज़रख़ां और लालन में जिन्दगी भर बड़ी मुहब्बत रही।

इसके बाद एक दिन हीराबाई ने यह सोचकर कि,-"मेरी और कमला की सारी आफ़त की जड़ यही पाजी फ़तहख़ां है; अ़लाउद्दीन से कहा कि,-"आपके लायक सिपहसालार फ़तहख़ां ने मेरे साथ बुरी छेड़छाड़ की थी।" यह सुन उस बेवकूफ़ ने अपने नमकख़ार सिपहसालार फ़तहख़ां को बेरहमी के साथ कटवा डाला था। अगर वह जीता रहता तो शायद अ़लाउद्दीन के मरने पर उसके लड़के ख़िज़रख़ां को गु़लाम मलिक काफ़ूर आसानी से न मार सकता। [ २२ ]
दसवां परिच्छेद।

अन्त।

"एकां लज्जां परित्यज्य त्रैलोक्यविजयीभवेत्

ततो निरयगामीस्याद्धि क्कृतः साधुवर्ज्जितः॥

(पद्मपुराणे)

यद्यपि फिर जीते जी हीराबाई कमलादेवी से नहीं मिली थी और न कभी उसने कोई चीठी ही लिखने का मौका पाया था, किन्तु जबतक वह जीती रही, उसने अ़लाउद्दीन पर यह बात ज़रा न खुलने दी कि, -"मैं [हीरा] कमलादेवी नहीं, बल्कि कोई दूसरी ही औरत हूं और मेरी लड़की देवलदेवी नहीं, बल्कि लालन है।" हां! यह बात उसने अ़लाउद्दीन पर उस वक्त ज़रूर प्रगट कर दी थी, जब वह पलंग पर पड़ा-पड़ा मौत का आसरा देख रहा था। साथही उसके, लालन ने भी बड़ी होशियारी से अपने भेद को छिपाया और अपना असली हाल कभी ख़िज़रख़ां पर ज़ाहिर नहीं किया था।

अ़लाउद्दीन के मरने पर उसके ग़ुलाम मलिक काफ़ूर ने ख़िज़रख़ां को कटवा डाला था और लालन उस [ख़िज़रख़ां] से लिपटकर जल्लाद की तलवार का निवाला हुई थी, पर उसने अपना असली भेद कभी किसी पर प्रगट नहीं किया था। [ २३ ]हीराबाई ने जीतेजी बड़ौदे और देवगढ़ का ध्यान कभी अपने जी से नहीं भुलाया था और बराबर उन राज्यों की भलाई वह करती रहती थी यहां तक कि उसके कहने से अ़लाउद्दीन ने उन राज्यों से नज़राना लेना एकदम बंद कर दिया था।

अ़लाउद्दीन मृत्युशैया पर पड़ा-पड़ा अपने कुकर्मों को याद कर-कर के चौधारे आंसू बहा रहा था। हीराबाई भी उसके पास ही बैठी हुई थी और उस समय वहां पर कोई तीसरा शख़्स नहीं था। अ़लाउद्दीन का बोल बंद होगया था, पर अभी उसे होश हवास था। हीरा ने एक कटार अपनी मुट्ठी में पकड़ी और अ़लाउद्दीन की ओर लाल-लाल आखों से घूरकर कहा,-

"अय ग़ुनहगार! जिन्हें तू कमला या देवलदेवी समझ रहा है, वे दोनों बेचारियां अब तक पोशिदा तौर से अपने-अपने शौहर के पास मौजूद हैं। मैं और मेरी लड़की लालन कोई और ही हैं, इसलिये अब तुझे यही मुनासिब है कि तू कफ़न के बदले "बेहयाई का बोरक़ा" अपने चेहरे पर डाल ले, वर न ख़ुदा तेरा नापाक मुंह देखकर कभी तुझपर रहम न करेगा। मैं अपनी मेहर्वान रानी कमलादेवी का काम पूरा कर चुकी; पस, अब मुझे इस दुनियां
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में रहने का कोई तमन्ना बाकी नहीं है। यों कहकर उसने कटार अपने कलेजे के पार कर दी और अ़लाउद्दीन यह हाल सुन ताव पेच खाकर रह गया। थोड़ी देर बाद वह भी मर गया [सन् १३१६ ई०] और दोनों एकही कब्र में गाड़े गए।

इसी तरह लालन भी अपने शौहर ख़िज़रख़ां के साथ एकही कब्र में गाड़ी गई थी।

ग्यारहवां परिच्छेद।

स्मृति।

"न विस्मरामि तान् सर्वान् मदर्थे त्यक्तजीवितान्।
यैः स्वान् प्राणान् तृणीकृत्य कष्टैश्चाहं विमोचितः॥"

(पद्मपुराणे)

आज दस बरस के बाद कमलादेवी और देवलदेवी का फिर से मानो नया जन्म हुआ! इतने दिनों तक तो वे दोनों मां-बेटियां संसार की आंख की ओट में थीं, पर अ़लाउद्दीन के मरने पर समय ने उन दोनों को फिर नए सिरे से संसार के सामने लाकर खड़ी कर दिया; तब लोगों को हीरा और लालन का, या कमलादेवी और देवलदेवी का सारा गुप्त रहस्य मालूम हुआ!

हीराबाई और लालन की शोचनीय मृत्यु का
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हाल सुनकर कमलादेवी और देवलदेवी को बड़ा शोक हुआ और उन दोनों मां-बेटियोंने अपने-अपने राज्य में हीरा और लालन का "स्मारक" बनवाया।

हीराबाई का जो स्मारक बना, वह एक तालाब था, जो "हीराझील" के नाम से प्रसिद्ध हुआ था; और लालन के नाम का जो "स्मारक" बना उसका नाम "लालन-पालन" रक्खा गया; वह एक 'अनाथालय' था, जिसमें अनाथों को औषधि, स्थान, अन्न-जल और वस्त्र मिला करते थे।


इतिश्री

यह कार्य भारत में सार्वजनिक डोमेन है क्योंकि यह भारत में निर्मित हुआ है और इसकी कॉपीराइट की अवधि समाप्त हो चुकी है। भारत के कॉपीराइट अधिनियम, 1957 के अनुसार लेखक की मृत्यु के पश्चात् के वर्ष (अर्थात् वर्ष 2024 के अनुसार, 1 जनवरी 1964 से पूर्व के) से गणना करके साठ वर्ष पूर्ण होने पर सभी दस्तावेज सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आ जाते हैं।


यह कार्य संयुक्त राज्य अमेरिका में भी सार्वजनिक डोमेन में है क्योंकि यह भारत में 1996 में सार्वजनिक प्रभावक्षेत्र में आया था और संयुक्त राज्य अमेरिका में इसका कोई कॉपीराइट पंजीकरण नहीं है (यह भारत के वर्ष 1928 में बर्न समझौते में शामिल होने और 17 यूएससी 104ए की महत्त्वपूर्ण तिथि जनवरी 1, 1996 का संयुक्त प्रभाव है।