- चोरह फलासक्तिके ऐसे कटु परिणामोंमेसे गीताकारने अनासक्तिका अर्थात् कर्मफलत्यागका सिद्धांत निकाला और संसारके सामने प्रत्यंत माकर्षक भाषामें रखा। साधारणतः तो यह माना जाता है कि धर्म भोर प्रर्य विरोधी वस्तु है, "व्यापार इत्यादि लौकिक व्यवहारमें धर्म नही बचाया जा सकता, धर्मको जगह नहीं हो सकती, धर्मका उपयोग केवल मोक्षके लिए किया जा सकता है। धर्मकी जगह धर्म शोभा देता है और अर्थकी जगह अर्थ ।" बहुतोंसे ऐसा कहते हम सुनते है। गीताकारने इस भ्रमको दूर किया है। उसने मोक्ष और व्यवहारके बीच ऐसा भेद नहीं रखा है, वरन् व्यवहारमें धर्मको उतारा है । जो धर्म व्यवहारमें न लाया जा सके वह धर्म नहीं है, मेरी समझसे यह बात गीतामें है । मतलब, गीताके मतानुसार जो कर्म ऐसे है कि प्रासक्तिके बिना हो ही न सकें वे सभी त्याज्य हैं। ऐसा सुवर्ण-नियम मनुष्यको अनेक धर्मसंकटोंमेंसे बचाता है । इस मतके अनुसार खून, झूठ, व्यभिचार इत्यादि कर्म अपने-माप त्याज्य हो जाते है । मानव-जीवन सरल बन जाता है और सरलतामसे शांति उत्पन्न होती है। इस विचारश्रेणीके अनुसार मुझे ऐसा जान पड़ा है कि गीताकी शिक्षाको व्यवहारमें लानेवालेको अपने पाप सत्य और अहिंसाका पालन करना पड़ता है । फलासक्तिके बिना न तो मनुष्यको असत्य बोलनेका लालच होता है, न हिंसा करनेका । चाहे जिस हिंसा या असत्यके कार्यको हम लें, यह मालूम हो जायगा कि उसके पीछे परिणामकी इच्छा रहती है। गीताकालके पहले भी अहिंसा परमधर्मरूप मानी जाती थी। पर गीताको तो अनासक्तिके सिद्धातका प्रतिपादन करना था। दूसरे प्रध्यायमें ही यह बात स्पष्ट हो जाती है। परंतु यदि गीताको अहिंसा मान्य थी अथवा मनासक्तिमें अहिंसा अपने-आप आ ही जाती है तो गीताकारने भौतिक युद्धको उदाहरणके रूपमें भी क्यों लिया ? गीतायुगमें अहिंसा धर्म मानी जानेपर भी भौतिक
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