अतीत-स्मृति/६ बाली द्वीप में हिन्दुओं का राज्य
भारत महासागर और प्रशान्त महासागर जहाँ पर मिलते हैं वहीं सुमात्रा, जावा आदि बहुत से द्वीप हैं। किसी समय उन द्वीपो मे हिन्दुओं का राज्य था। संस्कृत-भाषा और हिन्दू-धर्म ने वहाँ पर अपना अटल प्रभाव जमा लिया था। इस बात के सैकड़ों चिह्न वहाँ पाये जाते है। चौदहवीं शताब्दी में, मुसल्मानों के आक्रमण के बाद इन द्वीपो में हिन्दुओ का प्रभाव घटने लगा। धीरे धीरे हिन्दू-धर्म, हिन्दू-राज्य और संस्कृत-भाषा का वहाँ लोप हो गया। इन द्वीपो के अधिकांश अधिवासी मुसलमान हो गये। परन्तु जो लोग अपने धर्म को अपनी जान से अधिक प्यारा समझते थे वे मुसलमान-संसर्ग-दूषित बड़े बड़े द्वीपो को छोड़ कर छोटे छोटे टापुओं में जा बसे। बाली, लम्बक आदि द्वीप इसी प्रकार के छोटे टापुओं में हैं। इन टापुओ में अब भी हिन्दू धर्म और हिन्दू राजों का राज्य है।
बाली और लम्बक-द्वीप जावा के पूर्व हैं। यों तो वहाँ सैकड़ों छोटे छोटे द्वीप हैं, पर हिन्दुओं का राज्य केवल इन्ही दो द्वीपो में बाकी रह गया है। जिन लोगों ने इन दोनों द्वीपो को देखा है उनका कथन है कि ये द्वीप प्राकृतिक सौन्दर्य्य मे अद्वितीय हैं। वहाँ के नगर और ग्राम संसार के बड़े बड़े सुन्दर, मनोहर ओर शोभा-सम्पन्न स्थानो से टक्कर ले सकते हैं। बाली को बनावट बड़ी विचित्र है। वह बीच मे तो खूब ऊँचा है, पर चारों ओर ढालू होता चला गया है। कहते हैं कि इन दोनो द्वीपों के चारों तरफ का समुद्र सदा तरङ्गसङ्कुल रहता है। वहाँ अकसर तूफान आया करते हैं। इसलिए जहाज़ के द्वारा इन टापुओ में जाना बड़ा विपज्जनक है।
बाली और लम्बक-द्वीप के आदिम निवासियों को शशक कहते हैं। उनको परास्त करके हिन्दुओ ने वहाँ अपना राज्य स्थापित किया। सुनते हैं कि लम्बक-द्वीप के कुछ शशक इस समय मुसलमान हो गये है। परन्तु वहाँ के अधिकांश निवासी हिन्दू ही है और उन्हीं का राज्य इन द्वीपों में है। हिन्दू-लोग शशक मुसलमानो पर किसी प्रकार का अत्याचार नही करते; किन्तु उन लोगों से अच्छी तरह मिलते जुलते है। वहाँ का राज्य यद्यपि राजतन्त्र है, तथापि सर्व-साधारण जन राज-शासन से अप्रसन्न नहीं है। हाँ, इसमे सन्देह नहीं कि किसी किसी अपराध का दण्ड बड़ा हो कठोर है। इन राज्यो मे चोरो को अब भी प्राणदण्ड दिया जाता है। व्यभिचारी (स्त्री पुरुप दोनों ही) बाँधकर समुद्र में फेंक दिये जाते है। सतीत्व-धर्म का इतना अधिक सम्मान किया जाता है कि पता लगते ही असती स्त्रियाँ तुरन्त मार डाली जाती है। एक बार किसी व्यभिचारिणी स्त्री को एक यूरोपियन सौदागर ने अपने यहाँ रख लिया। खबर लगते ही राजा का दूत साहब के घर पहुँचा। साहब और कुलटा एक कमरे में बैठे बातें कर रहे थे। यह देखते ही राज-दूत क्रोध से जल उठा। उसने आव देखा न ताव, म्यान से तलवार निकाल कर उस असती का सिर धड़ से जुदा कर दिया और यह कह कर वहाँ से चल दिया कि हमारे राजा ने साहब को ऐसा ही पुरस्कार देने के लिये कहा था।
बाली और लम्बक के निवासियो मे जितने हिन्दू हैं वे प्रायः सभी शैव हैं। केवल दो चार बौद्ध हैं। शैव लोग चतुर्वर्ण में हैं। वहाँ वाले उन्हें अपनी भाषा में ब्राह्मण, क्षत्रिय, विषिय और शूद्र कहते है। यह कहने की आवश्यकता नहीं कि ये शब्द हमारे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ही के परिवर्तित सूचक हैं। बाली-निवासी चतुर्वर्ण को "चतुर्जन्म" कहते है। उच्च जाति के लोग नीची जाति की कन्या के साथ विवाह कर सकते हैं, परन्तु उन्हे अपनी कन्या नहीं दे सकते। यदि ऐसा सम्बन्ध कहीं हो जाता है तो उससे जो सन्तान होती है वह वर्णसङ्कर कहलाती है। असवर्ण विवाह मे कोई बाधा नहीं दे सकता। तथापि ऐसा सम्बन्ध धर्मानुमोदित नहीं समझा जाता। केवल सवर्ण-विवाह ही को वे लोग धर्मानुकूल समझते है। इस हिन्दू-राज्य में जितने नगर और ग्राम हैं उनमें केवल चतुर्वर्ण ही रह सकते हैं। कुम्हार, धोबी, रँगरेज़, चमार और मेहतर आदि नगरों और आमों के भीतर नहीं रह सकते, उनके लिये गाँव के बाहर स्थान नियुक्त होता है। वे लोग वहीं रहते हैं। इन सब जातियों को बाली के चतुर्वर्ण चाण्डाल कहते हैं और उन्हें छूते तक नहीं। इन चतुर्वर्ण-हिन्दुओ मे केवल वैश्य और शूद्र ही नाना प्रकार के देवताओ और देवियो की मूर्तियों नहीं पूजते। वहाँ ब्राह्मणों का प्रताप अब भी अक्षुण्ण है और सर्वसाधारण उन्हें भक्ति और श्रद्धा की दृष्टि से देखते है। क्षत्रिय लोग सेना और विचार-विभाग में काम करते है। ब्राह्मण लोग शिखा धारण करते है; पर यज्ञोपवीत नहीं पहनते। मंत्रोच्चारण मे ओकार का व्यवहार प्रचलित है। परन्तु वहाँ वाले उसे "ओ शिव चतुर्भुज" यह मन्त्र पढ़ते है। ये शब्द "ओ शिव चतुर्भुज" का केवल बिगड़ा हुआ रूप है।
बाली-द्वीप के ब्राह्मणेतर हिन्दू खाद्याखाद्य का कुछ भी विचार नहीं करते। वे गो-मांस तक खाते हैं। अन्य पशु-पक्षियों की तो बात ही क्या है। मुर्गी और सुअर का मांस तो वहाँ वालों का अत्यन्त प्रिय खाद्य है। यह बात बाली के केवल क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रो ही की है। वहाँ के ब्राह्मण निरामिषहारी है। उनमे से कोई कोई ऐसे भी है जो केवल फल-फूल खाकर ही अपना जीवन निर्वाह करते हैं। अन्य खाद्य पदार्थ हाथ से भी नहीं छूते।
द्वीप मे भिखारी ढूँढ़ने पर भी नहीं मिलते। यदि कोई मनुष्य कोई साधारण पाप-कर्म करता है तो उसे प्रायश्चित्त करना पड़ता है। परन्तु प्रायश्चित्त करने वाले को शारीरिक दण्ड नही भोगना पड़ता। गोबर या गोमूत्र भी नहीं खाना पड़ता। किन्तु जब वह अपना प्रियतम खाद्य त्याग करता है तब किसी गुफा में जाकर अज्ञात वास करता है और ब्रह्मचर्य-व्रत धारण करता है। तभी उसका प्रायश्चित्त होता है। बाली और लम्बक में सतीदाह की प्रथा अब भी वर्तमान है। इसे वहां वाले "सत्य" कहते हैं। यह प्रथा क्षत्रियों और वैश्यों में विशेष रूप से प्रचलित है। वहां के हिन्दू बहु-विवाह कर सकते हैं। इसलिए यह अकसर देखा जाता है कि एक मनुष्य के मरने पर कई विधवायें चिता पर जलती हैं। मृत मनुष्य का सत्कार करने की प्रणाली कुछ विचित्र सी है। जब कोई मनुष्य मरता है तब उसी समय वह जलाया नहीं जाता; किन्तु एक मास के बाद उसकी अन्त्येष्ठ-क्रिया की जाती है।
साधारण आदमियों की अन्त्येष्ठ-क्रिया जिस तरह की जाती है उस तरह राजा की नहीं की जाती। रानियों की सहमरणरीति भी कुछ भिन्न है। राजा की अन्त्येष्ठ-क्रिया समाप्त हो जाने पर उसकी चिताभस्म रख ली जाती है। उसके पाँचवें दिन सब रानियां एक निर्दिष्ट स्थान पर इकट्ठी होती हैं। उस समय पटरानी एक गोला फेंकती हैं। वह गोला जहां गिरता है उसी जगह रानियां अपनी अपनी छातियों में छुरियां भोंक लेती हैं। इस तरह उनकी सहमरण-क्रिया समाप्त हो जाती है।
बाली-द्वीप में शाल-वाहन का शकाब्द अब भी व्यवहृत है। वहां वाले उसे "शकवर्षचन्द्र" कहते हैं। वहां के शैव लोगों के पास बहुत से हस्त-लिखित ग्रंथ पाये जाते हैं। उनमें से प्रधान ग्रंन्थों के नाम उन लोगों की बोली में ये हैं-आगम, आदिगम, सारसमुश्चयागम, देवागम, मैश्वलत्व, श्लोकान्तरागम, गन्यागम इत्यादि। वहाँ के अनेक शास्त्र-ग्रन्थ विलुप्त हो गये है।
बाली और लम्बक द्वीप के हिन्दू पहले जावा में रहते थे। मुसलमानों के भय से वे वहां से बहुबाहु नामक राजा के साथ बाली-द्वीप में चले आये। ये लोग जावा मे कब और किस सिल-सिले से आये थे, यह बात कोई नहीं जानता। हाँ, इतना पता अवश्य लगता है कि कलिङ्गदेश के शैवो ही ने जावा मे हिन्दू-राज्य स्थापित किया था।
भाषा, धर्म, आचार, व्यवहार आदि सभी बातें देश और काल के भेद से विभिन्न हो जाती हैं। परन्तु विभिन्न हो जाने पर भी उनमे कुछ कुछ सादृश्य बना रहता है। बाली द्वीप की भाषा, धर्म, आचार और व्यवहार मे भी उसका परिचय पाया जाता है। इस द्वीप तथा आस पास के अन्यान्य द्वीपों की भाषा के साथ संस्कृत का बड़ा घनिष्ठ सम्बन्ध है। इस बात को इन द्वीपो में जाने वाले सभी लोगों ने स्वीकार किया है।
भारत-महासागर के इन दो हिन्दू-द्वीपो का इतिहास इस समय तिमिराच्छन्न है। इन द्वीपो में हिन्दू लोगो ने कब और किस प्रकार उपनिवेश स्थापन किया, इसका लिखित इतिहास न तो बालीद्वीप ही में मिलता है और न अन्य ही किसी देश में।
यदि यह मान लिया जाय कि शैव लोगो ने वहाँ उपनिवेश स्थापित किया तो यह भी मानना पड़ेगा कि यह घटना बौद्ध धर्म के आविर्भाव होने के पीछे की है। बाली द्वीप में शकाब्द का प्रचलन इस मत को पुष्ट करता है। परन्तु उपनिवेश-स्थापन करने के पहले भी हिन्दू लोग इन द्वीपों में प्राचीन काल से आते जाते थे, इस बात के बहुत से प्रमाण पाये जाते हैं। मृत्यु के बाद एक मास तक शव रखना बहुत पुरानी पद्धति है। बौद्ध धर्म के आविर्भाव होने के पहिले भी भारतवर्ष में इसका चलन था।
भारतवर्ष की भाषा (संस्कृत) बाली आदि द्वीपों में वहाँ की असभ्य भाषाओं के मेल से जिस प्रकार बदल गई है उसी प्रकार भारत के आचार-व्यवहार भी वहाँ परिवर्तित हो गये हैं। जब स्थान, काल और पात्र के भेद से भारतवर्ष ही के विभिन्न प्रदेशों में भिन्न भिन्न आचार-व्यवहार और भाषायें प्रचलित हैं तब यदि समुद्र-पार के द्वीपों की भाषा, आचार और व्यवहार भारत की भाषा, आचार, व्यवहार से कुछ कुछ मिन्न हो जायँ तो आश्चर्य ही क्या है? इस भिन्नता के होते भी भारतवर्षीय हिन्दुओ और बाली आदि द्वीपों के हिन्दुओ के आचार-व्यवहार और भाषा मे बहुत कुछ सादृश्य वर्तमान है। जो हो, इसमें सन्देह नहीं कि इन द्वीपों के हिन्दू भारत के प्राचीन हिन्दुओ के अध्यवसाय की कीर्ति-चिह्न-स्वरूप होकर अब भी उनकी गौरव-पताका फहरा रहे हैं।
[मई १९१९