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अद्भुत आलाप/आकाश में निराधार स्थिति

विकिस्रोत से
अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ १६ से – ३० तक

 

२––आकाश में निराधार स्थिति

योगियों को अनेक प्रकार की अद्भुत-अद्भुत सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं। योगशास्त्र में लिखा है कि वे आकाश में यथेच्छ गमन कर सकते हैं; जल में स्थल की तरह दोड़ सकते हैं; पर-काय-प्रवेश कर सकते हैं; अंतर्द्धान हो सकते हैं; और दूर देश या भविष्यत् की बात हस्तामलकवत् देख सकते हैं। पर इस समय, इस देश में, इस तरह के सर्वसिद्ध योगी दुर्लभ हैं। यदि कहीं होंगे, तो शायद हिमालय के निर्जन स्थानों में योग-मग्न रहते होंगे।

अमेरिका से निकलनेवाली एक अँगरेज़ी मासिक पुस्तक को एक दिन हमने खोला, तो उसके भीतर छपे हुए काग़ज़ों का एक ख़ासा पुलिंदा मिला। उसमें कई तरह के नियम-पत्र, नमूने और तसवीरें इत्यादि थीं। उनको अमेरिका की एक आध्यात्मिक सभा ने छपाया और प्रकाशित किया था। बहुत करके यह सभा कोई कल्पित सभा है। इन काग़ज़ों में लिखा था कि
हिंदोस्तान की सारी योग-विद्या अमेरिका पहुँच गई है, और अमेरिका की पूर्वोक्त सभा के चंद योगी इस विद्या को, बहुत थोड़ी फ़ीस लेकर, सिखलाने को राज़ी हैं; यहाँ तक कि कितने ही आदमियों को उन्होंने पूरा योगी बना भी दिया है। यह योग- शिक्षा डाक के ज़रिए वे लोग देते हैं; परंतु कई 'डालर' फ़ीस पहले ही भेजनी पड़ती है। एक डालर कोई तीन रुपए का होता है। इन काग़ज़ों में एक साहब और एक बंगाली बाबू का नाम था, और लिखा था कि ये लोग अश्रुत-पूर्व योगी हैं। इनमें इस देश की विद्या की, इस देश के पंडितों की, इस देश के योगियों की, बेहद व बेहिसाब तारीफ़ थी। उससे जान पड़ता था, जैसे यहाँ गली-गली योगी मारे-मारे फिरते हों। हमने इस सभा को एक पत्र लिखा। हमने कहा कि आपके अद्भुत योगी--बंगली बाबू--का यहाँ कोई नाम भी नहीं जानता, और योगसिद्ध पुरुष यहाँ उतने ही दुर्लभ हैं, जितना कि पारस-पत्थर या संजीवनी बूटी या देवलोक का अमृत। अतएव आपकी सभावालों को यह योगविद्या कहाँ से और किस तरह प्राप्त हुई? खैर, हम भी आपसे योग सीखना चाहते हैं, और फ़ीस भी देना चाहते हैं; परंतु डालर-दान के पहले हम आपसे योग-विषयक एक बात पूछना चाहते हैं। यदि आप हमारे प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर भेजकर हमारा समाधान कर देंगे, तो हम आपकी सभा से ज़रूर योग सीखेंगे।

अमेरिका दूर है। इससे कोई डेढ़ महीने में उत्तर आया। योगी बाबू इत्यादि के विषय में हमने जो कुछ लिखा था, उत्तर में उसका बिलकुल ही ज़िक्र हमें ढूँढ़े न मिला। हमारे प्रश्न का समाधान भी न मिला। मिला क्या? उत्तर के साथ काग़ज़ों का एक और पैकेट। उनमें कहीं प्रशंसा-पत्र, कहीं योगासन के चित्र, कहीं कुछ, कहीं कुछ। पत्र में सिर्फ़ यह लिखा था कि 'डालर' भेजिए, तब आपके प्रश्न का उत्तर दिया जायगा, और तभी योग का सबक़ भी शुरू किया जायगा! इस उत्तर को पढ़ कर हमें योगियों की इस सभा से अत्यंत घृणा हुई, और हमने उसके काग़ज़-पत्र उठाकर रद्दी में फेक दिए। सो अब हिदोस्तान की योग-विद्या यहाँ से भागकर योरप और अमेरिका जा पहुँची है, और वहाँ उसने पूर्वोक्त प्रकार की सभा-संस्थाओं का आश्रय लिया है। तथापि यहाँ, अब भी, कहीं-कहीं, योग के किसी-किसी अंग में सिद्ध पुरुष पाए जाते हैं।

मिर्ज़ापुर में एक गृहस्थ हैं। वह गृहस्थाश्रम में रहकर भी बीस मिनट तक प्राणायाम कर सकते हैं। इसी शहर के पास एक जगह विंध्याचल है। वहाँ विंध्यवासिनीदेवी का मंदिर है। मंदिर से कोई दो मील आगे एक पहाड़ पर एक महात्मा रहते हैं। अगस्त, १९०४ में हम उनके दर्शन करने गए थे। एक निविड़ खोह में एक झरना था। वहीं आप थे। आपके पास एक हाँड़ी के सिवा और कुछ नहीं रहता। इससे लोग उन्हें 'हँड़िया बाबा' कहते है। आप संस्कृत के अच्छे विद्वान् हैं, और प्रायः संस्कृत ही बोलते हैं। हमने खुद तो नहीं देखा, पर सुनते हैं, योग के कई
अंग इनको सिद्ध हैं। अभी, कुछ दिन हुए, कानपुर में एक योगी आए थे। वह तीन दिन तक समाधि लगा सकते थे।

पुराने ज़माने की बात हम नहीं कहते। रामकृष्ण परमहंस आदि योग-सिद्ध महात्मा इस ज़माने में भी यहाँ हुए हैं। सुनते हैं, स्वामी दयानंद सरस्वती और स्वामी विवेकानंद को भी योग में दखल था। कई वर्ष हुर, पंजाब के किसी नवयुवक को अद्भुत सिद्धियों का वृत्तांत भो हमने अखबारों में पढ़ा था। इससे जान पड़ता है कि योग के सब अंगों में सिद्धि प्राप्त करनेवाले पुरुष यद्यपि इस समय दुलभ हैं, तथापि उसके कुछ अंगों में जिन्हें सिद्धि हुई है, ऐसे लोग अब भी यहाँ पर, कहीं-कहीं, देखे जाते हैं।

आकाश में निराधार स्थिर रहना और यथेच्छ विहार करना असंभव-सा है। पर यदि योग-शास्त्र में लिखी हुई बातें सच हैं-- और उनके सच होने में संदेह भी नहीं है--तो ऐसा होना सर्वथा संभव है। सुनते हैं, शंकराचार्य यथेच्छ व्योम-विहार करते थे। शंकरदिग्विजय नाम का एक ग्रंथ है। उसमें शंकराचार्य का जीवन-चरित है । उसमें एक जगह लिखा है--

ततः प्रतस्थे भगवान् प्रयागात्तं मण्डनं पण्डितमाशु जेतुम् ;

गच्छन् खसृत्या पुरमालुलोके माहिप्मतीं मण्डनमणिडतां सः।

अर्थात् मंडन पंडित को जीतने के लिये भगवान् शंकराचार्य ने प्रयाग से प्रस्थान किया, और आकाश-मार्ग से गमन करके मंडन-मंडित माहिष्मती-नगरी को देखा। अतएव कोई नहीं कह सकता कि यह बात असंभव, अतएव ग़लत है। आकाश-बिहार करना तो बहुत कठिन है, पर आकाश में निराधार ठहरने का एक-आध दृष्टांत हमने भी सुना है। हमें स्मरण होता है, हमने कहीं पढ़ा है कि कोई गुजरात-देश के महात्मा ज़मीन से कुछ दूर ऊपर उठ जाते थे, और थोड़ी देर तक निराधार वैसे ही ठहरे रहते थे। पर इस प्रकार की सिद्धियों को दिखलाकर तमाशा करना अनुचित है। योग-साधना तमाशे के लिये नहीं की जाती। इससे हानि होती है, और प्राप्त से अधिक सिद्धि पाने में बाधा आती है। हरिदास इत्यादि योगियों ने अपनी योग-सिद्धि के जो दृष्टांत दिखलाए हैं, वे तमाशे के लिये नहीं, केवल योग में लोगों काविश्वास जमाने के लिये। तमाशा लौकिक प्रसिद्धि प्राप्त करने या रुपए कमाने के लिये दिखाया जाता है। पर योगियों को इसकी परवा नहीं रहती। वे इन बातों से दूर भागते हैं; उनकी प्राप्ति की चेष्टा नहीं करते। परंतु जिन लोगों ने योग की सिद्धियों की बात नहीं सुनी, वे ऐसे तमाशों को अचंभे की बातें समझते हैं। ऐसे ही एक तमाशे का हाल हम यहाँ पर लिखते हैं। यह तमाशा एक सिविलियन (मुल्की अफ़सर) अँगरेज़ का देखा हुआ है। उसकी इच्छा है कि इँगलैंड की अध्यात्म-विद्या-संबंधिनी सभा इसकी जाँच करे। यह वृत्तांत एक अँगरेज़ी मासिक पुस्तक में प्रकाशित हुआ है। तमाशा है इस देश का, पर यहाँ के किसी पत्र या पत्रिका को इसका समाचार नहीं मिला। समाचार गया विलायत। वहाँ से अँगरेज़ी में

छपकर यहाँ आया। तब उसे पढ़ने का सौभाग्य हिंदोस्तानियों को प्राप्त हुआ! अब इस तमासे का हाल पूर्वोक्त सिविलियन साहब ही के मुँह से सुनिए--

"हिदोस्तान के उत्तर में, नवंबर के शुरू में, जाड़ा पड़ने लगता है। तब जिले के सिविलियन साहब दौरे पर निकलते हैं। मुझे भी हर साल की तरह दौरे पर जाना पड़ा। एक दिन एक पढ़े-लिखे हिंदोस्तानी जमींदार ने आकर मुझसे मुलाक़ात की। उसने कहा कि मैंने एक बड़ा ही आश्चर्यजनक तमाशा देखा है। आत्मविद्या के बल से एक लड़का ज़मीन से चार फ़ीट ऊपर, अधर में, बिना किसी आधार के ठहरा रहता है। इससे मिलते-जुलते हुए तमाशों का हाल मैंने सुन रक्खा था। मैंने सुना था कि मदारी लोग रस्सी को आकाश में फेककर उस पर चढ़ जाते हैं, और इसी तरह के अजीब-अजीब तमाशे दिखलाते हैं। पर मैंने यह न सुना था कि कोई आकाश में भी बिना किसी आधार के ठहर सकता है। इससे इस तमाशे की देखने को मुझे उत्कट अभिलाषा हुई। मेरे हिंदोस्तानी मित्र ने मुझसे वादा किया कि मैं आपको यह तमाशा दिखलाऊँगा।

"१४ नवंबर, १९०४, को मेरे मित्र ने मुझ पर फिर कृपा की। इस दफ़े वह उस तमाशेवाले को भी साथ लेता आया। यह देखकर मैं बहुत खुश हुआ। तमाशेवाले की उम्र चालीस वर्ष से कुछ कम थी। उसने कहा, मैं ब्राह्मण हूँ। जहाँ पर मेरा ख़ेमा था, वहीं, कुछ दूर पर, उसने कोई १२ वर्गफ़ुट जगह

साफ करके उसके तीन तरफ़ कनात लगा दी। चौथी तरफ़ उसने परदा डाल दिया। इच्छानुसार परदा डाल दिया जा सकता था और उठा भी लिया जा सकता था। परदे से १५ फ़ीट की दूरी पर देखनेवाले बैठे। तमाशेवाले के साथ एक लड़का था। उसकी उम्र बारह-तेरह वर्ष की होगी।

"जिस विद्या को अँगरेज़ी में मेस्मेरिजम कहते हैं, उसका ठीक-ठीक अनुवाद हिंदी में हम नहीं कर सकते । पर इस विद्या के नाम से सरस्वती के प्रायः सभी पाठक परिचित होंगे। इसके अनुसार जिस व्यक्ति पर असर डाला जाता है, वह असर डालनेवाले के वश में हो जाता है। इसे आत्मविद्या, अध्यात्म-विद्या, वशीकरण-विद्या आदि कह सकते हैं।

"इसी विद्या के नियमों के अनुसार तमाशेवाले ने उस लड़के पर असर डालना शुरू किया (तमाशेवाले को इस से आगे हम प्रयोक्ता के नाम से उल्लेख करेंगे)। कुछ देर तक प्रयोक्ता ने लड़के पर पाश डाले। इतने में वह निश्चेष्ट हो गया। तब प्रयोक्ता ने उसे एक संदूक पर चित लिटा दिया। संदूक़ को उसने पहले ही से क़नात के घेरे के भीतर रख लिया था। फिर उसे उसने एक कपड़े से ढक दिया, और परदे को नीचे गिरा दिया। तमाशे का पहला दृश्य यहाँ पर समाप्त हो गया।

"तीन-चार मिनट के बाद परदा फिर उठा,और दूसरा दृश्य दिखाई दिया। हम लोगों ने देखा, वह लइका मोटे कपड़े की एक गद्दी पर पद्मासन से बैठा है। यह गदी एक तिपाई के ऊपर

रक्खी थी। तिपाई बाँस की थी। नीचे तीनों बाँस अलग- अलग थे, पर ऊपर वे तीनो एक दूसरे से मिलाकर बाँध दिए गए थे। उनके उस भाग पर, जो ऊपर निकला था, गद्दी रक्खी थी। लड़के के हाथ दोनो तरफ़ फैले हुए थे। हाथों के नीचे एक-एक बाँस और था। उसी की नोक पर हाथों की हथेली रक्खी थी। ये दोनों बाँस तिपाई के बाँसों से कुछ लंबे थे। वे नीचे ज़मीन को सिर्फ़ छुए हुए थे, गड़े न थे। लड़के का सिर और उसके कंधे एक काले कपड़े से ढके थे। इस कपड़े को प्रयोक्ता कभी-कभी उठा देता था, जिससे लड़के का चेहरा खुल जाता था, और छाती भी देख पड़ने लगती थी।

"इसके बाद प्रयोक्ता ने तिपाई के तीनो बाँस एक-एक करके धीरे-धीरे खींच लिए। लड़का पूर्वोक्त गद्दी के उपर वैसे ही पालथी मारे हुए, आकाश में बैठा रह गया। उसका आसन जमीन से कोई चार फ़ीट उपर था। उसके हाथ वैसे ही फैले और पूर्वोक्त दोनो बाँसों पर रक्खे हुए थे। इन दो बाँसों की ऊँचाई कोई ६ फीट होगी। हम लोग निर्निमेष दृष्टि से लड़के की तरफ़ देख रहे थे कि प्रयोक्ता 'फ़क़ीर' ने उन दो बाँसों में से भी एक को खींच लिया, और लड़के के एक हाथ को समेटकर छाती पर रख दिया। तब लड़के का सिर्फ़ एक हाथ बाँस पर रह गया। यह देखकर हम लोगों के आश्चर्य की सीमा न रही। क्या बात थी, जिससे वह लड़का, पत्थर की मूर्ति के समान, निश्चल भाव से, आकाश में इस तरह बैठा रह गया? क्यों न वह धड़ाम से नीचे आ गिरा? "मैंने उस साधु से कहा--क्या मैं तुम्हारे पास तक आ सकता हूँ? अब तक मैं परदे से कोई १५ फ़ीट और उस लड़के से कोई २० फ़ीट पर बैठा था। प्रयोक्ता ने कहा--जितना नजदीक आप चाहें, चले आवें, पर लड़के के बदन पर हाथ न लगाइएगा। कई और तमाशबीनों के साथ मैं आगे बढ़ा, और लड़के से छ इंच के फ़ासले तक चला गया। मैं उसके आसन के नीचे गया, पीछे गया, इधर गया, उधर गया--किसी जगह की जाँच मैंने बाकी न रक्खी। यहाँ तक कि मैंने अपनी छड़ी को सब तरफ़ फेरकर देखा कि कहीं कोई तार या और कोई आधार तो नहीं है, जिसके बल से यह लड़का आकाश में ठहरा हुआ है। पर मुझे कोई चीज़ न मिली। लड़का जहाँ-का-तहाँ मेरे सामने अधर में था। उसका चेहरा खुला था। उसकी छाती भी देख पड़ती थी। यहाँ तक कि साँस लेते समय मैं उसकी छाती पर श्वासोच्छवास की चाल भी देखता था।

"दो मिनट तक हम लोग वहाँ खड़े जाँच करते रहे कि कोई चालबाज़ी की बात हमको मिले, पर हमारा प्रयत्न बेकार हुआ। लड़का अपने स्थान पर, आकाश में, अचल रहा। तब हम लोग अपनी जगह पर लौट आए, और बैठ गए। पर उस साधु ने हमें अपनी जगह पर जाने के लिये नहीं कहा, और न उसने यही कहा कि हम लड़के के पास से हट जायँ, जिसमें वह तमाशे का अंतिम दृश्य भी दिखला सके। जब हम लोग अपनी जगह पर बैठ गए, तब तमाशे का अत्यंत ही अद्भुत और

आश्चर्यजनक दृश्य हमको दिखलाया गया। प्रयोक्ता ने दूसरे बाँस को भी धीरे से खींच लिया, और उस पर रक्खे हुए हाथ को समेटकर लड़के की छाती पर पहले हाथ के ऊपर रख दिया। लड़का पूर्वोक्त गद्दी पर पद्मासन में निराधार बैठा हुआ रह गया। उसके दोनों हाथ छाती पर एक दूसरे के ऊपर रक्खे थे। न उसके नीचे कुछ था, न आगे था, न पीछे था, न इधर था, न उधर था। इस दशा में वह ब्राह्मण लड़के से कोई चार-पाँच फ़ीट की दूरी पर कुछ देर तक खड़ा रहा। तब उसने परदा गिरा दिया, और वह लड़का हम लोगों की नजर से छिप गया। यहाँ पर इस तमाशे का दसरा हश्य समाप्त हुआ।

"जब तीसरी दफ़े परदा उठा, तब हमने उस लड़के को पूर्वोक्त संदूक़ पर लेटा हुआ देखा। कुछ देर में उस ब्राह्मण ने लड़के पर से अपना असर ( उलटे पाश फेरकर) दूर करना आरंभ किया। कोई दो मिनट में लड़का उठ बैठा, और आँखे मलकर उस ब्राह्मण की तरफ़ देखने लगा। इस तमाशे में आदि से अंत तक कोई बीस या पञ्चीस मिनट लगे होंगे।

"मैंने ब्राह्मण से पूछा--क्या तुम किसी और आदमी को भी इसी तरह अपने वश में कर सकते हो? उसने कहा--यदि कोई बड़ी उम्र का आदमी इस बात की कोशिश करे कि मैं उसे अपने वश में न कर सकूँ, अर्थात् उस पर अपना असर न डाल सकूँ , तो उस पर मेरा वश न चलेगा। पर बारह वर्ष या उससे कम उम्र के किसी भी लड़के को मैं अपने वश में कर सकता हूँ--

अर्थात् उसे मैं मेस्मेराइज़ कर सकता हूँ। मैंने चाहा कि मैं उसकी आत्मविद्या की परीक्षा लूँ। मैंने दर्शकों की भीड़ में सब लोगों की तरफ़ देखना शुरू किया। मुझे एक लड़का देख पड़ा। वह पास ही के एक गाँव स आया था। वह उस फ़कीर की करामात की जाँच अपने ऊपर कराने को राज़ी हुआ। मैंने उससे कहा--वह आदमी तुमको सुला देने की कोशिश करेगा। यदि तुम नींद न आने दोगे, बराबर जागते रहोगे, तो मैं तुमको एक रुपया दूँगा। ब्राह्मण ने उस लड़के को अपने सामने बिठाया, और उसके चेहरे की तरफ़ निर्निमेष दृष्टि से देखते हुए उसने पाश देना शुरू किया। दो मिनट भी न हुए होंगे कि लड़का गहरी नींद में हो गया।

"मे उन आदमियों में से हूँ, जो भूत-प्रेत, योग, आत्मविद्या और अंतर्ज्ञान आदि में विश्वास नहीं करते। इससे इस बात का पता न लगा सकने के कारण मुझे बड़ा अफ़सोस हुआ--नहीं, क्रोध आया कि किस प्रकार वह लड़का निराधार अधर में बेठा रहा। अतएव मैंने उस ब्राह्मण से कहा कि क्या आप सदर में आकर अपना करतब दिखा सकते हैं? इस बात पर वह राज़ी हो गया। इसके लिये २१ नवंबर, १९०४ का दिन नियत हुआ। मैं सदर को वापस आया। यथा समय वह फ़कीर मेरे बंगले पर हाज़िर हुआ, और वहाँ उसने इस तमाशे को ठीक-ठीक उसी तरह दिखाया, जैसा उसने मुझे दौरे पर दिखाया था। मेरे जितने मित्र उस शहर में थे, उन सबको मैंने इस फ़कीर

की करामात देखने के लिये बुला लिया था। मैं समझता था कि मेरे मित्रों में शायद कोई मुझसे अधिक चतुर हो, और वह इस साधु की चालाकी का पता लगा सके। मेरे बुलाने से कोई २५ आदमो आए। सबने इस बात की यथाशक्ति कोशिश की कि वे इस ब्राह्मण की करामात का कारण ढूँढ़ निकालें, पर उब हत- मनोरथ हुए। किसी की अक्ल काम में न आई। किसी को चालाकी की कोई बात न देख पड़ी। सब लोगों को मेरी ही तरह हैरत हुई।

"कुछ दिनों के बाद वहाँ एक नए साहब आए। उनसे लोगों ने इस तमाशे की बात कही; पर उनको विश्वास न आया। उन्होंने इसकी असंभवनीयता पर एक लंबा-चौड़ा व्याख्यान दिया, और हम सब लोगों की अवलोकन-शक्ति के विषय में बहुत ही बुरी राय क़ायम की। इससे मैंने उनको भी यह तमाशा दिखाने का निश्चय किया।

"२८ नवंबर को मैंने उस ब्राह्मण को फिर अपने बँगले पर बुलाया, और फिर उसने पूर्वोक्त तमाशे को दिखाया। पर इस दफ़े उसने उन दोनो बाँसों में से एक को तो निकाल लिया, परंतु दूसरे को नहीं निकाला। उस पर लड़के का हाथ रक्खा ही रहा। इसका कारण उसने यह बतलाया कि उस दिन उसकी तबीयत अच्छी न थी, और लड़का भी सुस्त था। इस दफ़े मैंने एक फ़ोटोग्राफ़र को भी बुला लिया था। उसने इस तमाशे के सब दृश्यों का फ़ोटो ले लिया। वह साहब, इस दफ़े, वैसे ही

चकित हुए, जैसे हम लोग पहले ही हो चुके थे। उनको भी कोई चालाकी ढूँढ़े न मिली।

"यदि कोई मुझे इस बात को समझा दे कि किस तरकीब से-किस शक्ति से-यह लड़का आकाश में निराधार रह सकता है, तो मैं उसका बहुत कृतज्ञ होऊँ। मैं अपना नाम और पता और जिन साहबों और मेमों ने इस तमाशे को देखा है, उनके भी नाम, पते-समेत, देने को तैयार हूँ। ज़रूरत पड़ने पर मैं उस ब्राह्मण का भी पता बतला सकता हूँ।

"मेरे एक लड़का है। वह इँगलैंड में है। उसे मैंने इस तमाशे का हाल लिखा। मुझ पर उसका बड़ा प्रेम है मेरी शुभकामना की इच्छा से उसने मुझे लिखा—यदि मैं होता, तो ऐसे तमाशे देखने न जाता, क्योंकि बहुत संभव है, उस ब्राह्मण ने देखनेवालों पर भी अपना असर डाल दिया हो। ओर, इस तरह उसके वंश में आ जाना अच्छा नहीं। यदि उसने ऐसा न किया हो, तो सचमुच आश्चर्य की बात है। परंतु फ़ोटोग्राफ़ लेने के निर्जीव केमरे पर आत्मविद्या का असर नहीं पड़ सकता। अतएव मेरे लड़के की यह कल्पना ठीक नहीं। इस तमाशे के जो चित्र लिए गए हैं, वे ठीक वैसे ही हैं, जैसा कि हम लोगों ने उसे अपनी आँखों देखा है।

"उस ब्राह्मण का कथन है कि मैंने यह विद्या थियॉसफ़िकल सोसाइटी के स्थापक कर्नल आलकाट से सीखी है। इसके चार-पाँच वर्ष पहले तक वह आकाश में उड़ती हुई चिड़ियों की

तरफ़ देखकर इच्छा-शक्ति से ही उन्हें जमीन पर गिरा सकता था। परंतु बीच में वह बहुत बीमार हो गया। तब से उसकी यह शक्ति जाती रही।"

यहाँ सिविलियन साहब का कथन समाप्त होता है। आकाश में लड़के को निराधार ठहरा देख उन्हें जो आश्चर्य हुआ, वह युक्त है। परंतु योग और अध्यात्म-विद्या की महिमा को जो जानते हैं, उनको ऐसी बातें सुनकर कम आश्चर्य होता है। जो लोग पूरे योगी है, वे आकाश में स्वच्छंद बिहार कर सकते हैं। जिनको योग के कुछ ही अंग सिद्ध हो जाते हैं, उनमें भी अनेक अलौकिक शक्तियाँ आ जाती हैं। परंतु ऐसी शक्तियों का दुरुपयोग करना अनुचित और हानिकारक होता है। उनके प्रयोग को दिखाकर खेल-तमाशे न करना चाहिए।

कुछ दिन हुए, कानपुर में एक योगी आए थे। आपका नाम है आत्मानंद स्वयंप्रकाश सरस्वती। कोई दो महीने तक वह गंगा-किनारे रहे थे। वह तैलंग-देश के निवासी हैं। उनके साथ उनका एक चेला भी था। वह सिर्फ़ अपनी देश-भाषा या संस्कृत बोल सकते हैं। संस्कृत में योग-विषय पर उन्होंने दो-एक पुस्तकें भी लिखी है। उनमें से एक पुस्तक कानपुर में छापी भी गई है। उनको आडवर बिल्कुल प्रिय न था। हिंदी न बोल सकने के कारण उनके यहाँ भीड़ कम रहती थी। तिस पर भी शाम-सुबह बहुत-से पढ़े-लिखे आदमी उनके दर्शनों को जाया करते थे। कानपुर के प्रसिद्ध वकील पंडित पृथ्वीनाथ तक उनके दर्शनों को जाते

थे। उनको समाधि तक की सिद्धि है। तीन दिन तक वह समाधिस्थ रह सकते है। पर कानपुर में वह जब तक रहे तब तक कोई तीन ही घंटे अपन कुटीर के भीतर रहते रहे। अर्थात्ती न घंटे से अधिक लंबी समाधि उन्होने नहीं लगाई योग और वेदांत-विषय पर वह खूब वार्तालाप करते थे पर संस्कृत ही में। जो लाग इन विपयों को कुछ जानत थे, उन्हीं की तरफ़ वह मुखातिब होते थे औरों से वह विशेष बातचीत न करते थे। उनसे या प्रार्थना की गई कि वह सबके सामने समाधिस्थ हों, जिसमें जिन लागों का योग विद्या पर विश्वास नहीं है, उनका भी विश्वास हो जाय। पर ऐसा करने से उन्होंने इनकार किया। उन्होंने कहा कि स्वामी हसस्वरूप से कहिएगा, वह शायद आपकी इच्छा पूर्ण कर दें। मैं तमाशा नहीं करता, चाहे किसी को विश्वास हो, चाहे न हो। बहुत कहने पर आपने दो-तीन दफ़े श्वास चढ़ाया, और अपने दाहने हाथ की कलाई सामने कर दी। देखा गया, तो नाड़ी की चाल गायब; प्राण वहाँ से खिंच गए। उनके इस दृष्टांत से, उनके ग्रंथों से, उनकी बातचीत से यह सिद्ध हो गया कि वह सचमुच सिद्ध योगी हैं। उनके इनकार ने इस बात को भी पुष्ट कर दिया कि लोगों को दिखाने के लिये योग की कोई क्रिया करना मना है।

अक्टूबर, १९०५