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अद्भुत आलाप/अंतःसाक्षित्व-विद्या

विकिस्रोत से
अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ ३१ से – ४३ तक

 


पर योगशास्त्रीजी हमको मकान के भीतर, अपने आसन के पास, ले गए। परंतु हमारे साथ वासुदेव शास्रो और उनके चिरजीव नारायण को ले जाने से आपने इनकार किया। हमने वासुदेव शास्त्री से कहा कि यह शर्त हम मंजूर किए लेते हैं। अगर हमको इनके अंतःसाक्षित्व से संतोष हुआ, तो आप हमारे बाद इनसे जो कुछ पूछना हो, पूछ आइएगा। उन्होंने कहा--हमें कुछ नहीं पूछना; हम इनसे पहले ही से परिचित हो चुके हैं। अस्तु।

हम योगशास्त्रीजी के आसन के पास बैठे। वह कुछ ध्यानस्थ-से हुए, और हमारे भविष्य से संबंध रखनेवाली बातें कहने लगे। हमने सुनकर कहा कि आप हमारे प्रश्नों का उत्तर देकर अपनी विद्या में हमारी श्रद्धा उत्पन्न करें, तब आप आगे होनेवाली बातें कहें। ऐसा करने से आपकी उक्तियों में हमें अधिक विश्वास होगा। इस पर वह किसी तरह राज़ी हुए। तब हमने फ़ारसी के---

चु अज़ क़ौमे यके वेदानिसी कई

न क़ेहरा मंज़िलत मानदन मेहरा

इस मिसरे को याद किया, और कहा कि बतलाइए, हमारे मन में किस भाषा का कौन-सा पद्य है। यह एक ऐसा पद्य था, जो उन योगिराजजी पर भी विलक्षण तरह से घटित होता था। इसका हमने कई मिनट तक मनन किया, पर वह महात्मा इसे न बता सके। इस प्रश्न के उत्तर में वह बेतरह फ़ेल हुए। तब हमने उनसे ये प्रश्न किए---
( १ ) हमारे कितने विवाह हुए हैं?

( २ ) हमारी कितनी स्त्रियाँ इस समय जीवित हैं?

( ३ ) हमारे संतति कितनी हुईं--कितने लड़के, कितनी लड़कियाँ?

( ४ ) उसमें से कितनी इस समय विद्यमान हैं?

हजार प्रयत्न करने पर भी योगशास्त्रीजी इन प्रश्नों का ठीक-ठीक उत्तर न दे सके। जब उनके उत्तर बहुत ही अंड-बंड होने लगे, तब हमने उनसे कहा कि आपके इतने ही उत्तर काफ़ी हैं। और भी हमने कई प्रश्न किए। पर वह बराबर फ़ेल ही होते गए। उस समय उनके मन की क्या हालत हुई होगी, यह तो वही जानते होंगे, पर अपनी असामर्थ्य के प्रमाण में उन्होंने हमारा रुपया वापस कर दिया। हमारे बहुत कहने पर भी उन्होंने उसे न लिया। इस असामर्थ्य का कारण उन्होंने यह बतलाया कि आज हमने सुबह से कई आदमियों के प्रश्नों का उत्तर दिया है। इससे हमारी अंतर्ज्ञान-शक्ति क्षीण हो गई है। उन्होंने हमसे वादा किया कि उसी दिन रात को आठ बजे वह हमारे मकान पर पधारेंगे, और हमारे जन्म-पत्र को देखकर हमारे प्रश्नों का उत्तर देंगे। रात को ११ बजे तक हमने उनका रास्ता देखा,पर आप नहीं पधारे। दूसरे दिन सुबह हमको ख़बर मिली कि योगशास्त्रीजी महाराज रात को १२ बजे की रेल से भूपाल के लिये रवाना हो गए!

परंतु सबकी हालत ऐसी नहीं होती, सबकी विद्या उत्तर देते-देते क्षीण नहीं हो जाती। जो लोग थियॉसफ़ी-समाज की

'थियाँसफ़िस्ट' नामक सामयिक पुस्तक के नियमित पढ़नेवाले हैं, जिन्होंने कंबरलैंड साहब के दिखलाए हुए अंतःसाक्षित्व-विद्या-संबंधी चमत्कारों का वर्णन पढ़ा है, जिन्होंने अमेरिका के डाक्टर डाइस के अलौकिक कृत्यों का समाचार सुना है, वे जान सकते हैं, वे कह सकते हैं, वे विश्वास कर सकते हैं कि इस भूमंडल से अंतर्ज्ञान-विद्या का विलकुल ही लोप नहीं हो गया, अब भी उसके विद्यमान होने के प्रमाण कहीं-कहीं मिलते हैं। परंतु हाँ, बहुत विरल मिलते हैं।

इस समय हिंदोस्तान में भी इल्म-ग़ैब का जाननेवाला एक प्रसिद्ध पुरुष है। उसकी अंतर्ज्ञान-विद्या बहुत बढ़ी-चढ़ी है। १८९२ ई० में यह पुरुष जीवित था। मालूम नहीं, अब वह है या नहीं। उस समय उसकी उम्र सिर्फ़ ३५ वर्ष की थी। इससे कह सकते हैं कि वह बहुत करके अब तक ज़िंदा होगा। अस्तु हम उसे जिंदा ही समझकर उसके विषय में दो-चार बातें लिखते हैं।

इस पुरुष का नाम गोविंद चेट्टी है। वह मदरास-हाते के कुंभकोण-नगर से ६ मील पर वलिंगमन-नामक गाँव में रहता है। कुंभकोण साउथ इंडियन रेलवे का एक स्टेशन है। गोविंद चेट्टी की मातृभाषा तामील है। वह संस्कृत भी थोड़ी जानता है। उस प्रांत में उसका बड़ा नाम है। वह भूत, भविष्य और वर्तमान को सामने रक्खा हुआ देखता है। अर्थात् वह त्रिकालज्ञ है। एक बार उसके विषय में 'थियोसफिस्ट' में एक लेख छपा था।
दिया, उसे उसने अपने कमरे से निकल जाने को कहा, और उसके प्रश्नों का उसने उत्तर नहीं दिया।

जब इस महाराष्ट्र पडित की बारी आई, तब इससे गोविंद चेट्टी ने पूछा कि तुम कहाँ से आए और क्या चाहते हो। इसका उत्तर मिलने पर उसने कहा कि यदि मैं तुम्हारी सघ बातों का ठीक-ठीक जवाब दूँ, तो तुम मुझे क्या दोगे? महाराष्ट्र-गृहस्थ ने कहा कि यदि आप ऐसा करेंगे, तो मैं आपकी कीर्ति को महाराष्ट्र देश-भर में फैलाऊँगा, और यथाशक्ति आपको कुछ दूँगा भी। कुछ देर तक विचार करके चेट्टी ने आगंतुक पंडित के स्वभाव, आचरण और विद्वत्ता आदि की तारीफ़ की। फिर उन्हें वह अपने खास कमरे में ले गया। वहाँ उसने पूछा कि तुम्हारे प्रश्न कहाँ हैं। पंडित ने कहा कि वे हमारी डायरी में लिखे हुए हैं, और वह डायरी हमारे इस बैग के भीतर है। यह सुनकर गोविंद ने चौथाई तख्ते काग़ज़ पर पेंसिल से उन प्रश्नों का जवाब लिखना शुरू किया, और बिना रुके या बिना किसी सोच-विचार के वह अंधाधुंध लिखता ही गया। इस बीच में वह प्रष्टा से कभी सामने पड़ी हुई कौड़ियों को कहता था छुओ; कभी किसी पुस्तक के किसी अक्षर पर कहता था हाथ रक्खो; कभी कुछ करता था, कभी कुछ। और, यह सब करके वह तरह-तरह के चमत्कार दिखलाता जाता था। अंकों का जोड़ लगवाकर वह बतला देता था कि वह इतना हुआ; या वह अमुक संख्या से कट जाता है; या उसमें
अमुक अंक इतनी दफ़े आया है। पर इतना करके भी वह अपने हाथ के काग़ज़ को बराबर रँगता ही जाता था। दोनो काम उसके साथ ही होते थे। जब वह उस काग़ज़ के दोनो तरफ़ लिख चुका, तब उस पर उसने उस पंडित के दस्तखत कराए, ओर उसे उसने उस दुभाषिए के हवाले किया। तब उसने वे लिखे हुए प्रश्न माँगे। पंडित महाशय ने अपना हैंडबैग खोला, और अपने प्रश्न गोविंद चेट्टी को उन्होंने सुनाए। उनका अनुवाद दुभाषिए ने तामील में किया। उनमें से कुछ प्रश्न ये थे––

१. मेरी स्त्री का नाम क्या है?

२. मेरा पेशा क्या है?

३. मेरी कविता कौन है?

४. मेरे मन में फूल कौन है?

५. मेरे मन में पक्षी कौन है?

६. मेरी और मेरी स्त्री की उम्र कितनी है?

७. जस्टिस महादेव गोविंद रानाडे इस समय क्या कर रहे हैं?

सब प्रश्न सुनकर गोविंद चेट्टी ने कहा कि मैंने तुम्हारे सब प्रश्नों का उत्तर दे दिया है। तुम उस काग़ज़ को पढ़ो, जिसे मैंने तुम्हारे दुभाषिए के सिपुर्द किया है। याद रखिए, प्रश्न बतलाए तक नहीं गए। पर उनका उत्तर पूछनेवाले के दस्तखत के रूप में सील-मोहर होकर पहले ही से तैयार हो गया! दुभाषिए ने उत्तरों को एक-एक करके पढ़ना और उनका अँगरेज़ी में
अनुवाद करना शुरू किया। फिर क्या था, पूछनेवाले पंडित महाराज आश्चर्य, आतंक, भक्ति और श्रद्धा के समुद्र में लगे डूबने-उतराने। उनके जितने सवाल थे, उन सबका सही जवाब उनको मिल गया! गोविंद चेट्टी की इस अद्भुत अंत:-साक्षित्व-विद्या को देखकर वह चकित हो गए, और पत्र-पुष्प तुल्य पाँच रुपए उसके सामने रखकर वह उस अलौकिक ज्योतिषी से विदा हुए। उनकी इस भेंट को गोविंद चेट्टी ने प्रेम-पूर्वक स्वीकार कर लिया।

परोक्षदर्शिता का यह उदाहरण इस देश का है। योरप में भी ऐसे-ऐसे उदाहरण पाए जाते हैं। इस समय योरप में कंबरलैंड साहब का बड़ा नाम है। वह कहते हैं---

"मुझमें कोई ऐसी अद्भुत शक्ति नहीं, जो औरों में न हो। किसी सिद्धि, किसी अलौकिक विद्या, के बल से हम दूसरे के दिल का हाल नहीं मालूम करते। जो शक्ति हममें है, वह और भी बहुत आदमियों में होती है, और यदि वे कोशिश करें, तो वे भी दूसरों के मन की बातें जान सकें। दूसरों के खयालात जान लेना एक प्रकार की बहुत सूक्ष्म-स्पर्शन-शक्ति पर अवलंबित है। जब कोई आदमी कुछ खयाल करता है, किसी चीज़ की भावना करता है, तब उस पर कुछ ऐसे चिह्न उत्पन्न हो जाते हैं, जिनसे उस खयाल का पता लग जाता है---भावना की गई उस चीज़ का ज्ञान हो जाता है। कोई आदमी, बिना इस तरह के चिह्नों को प्रकट किए, किसी वस्तु पर अपना चित्त स्थिर

बादशाहों और रानियों आदि के सामने जो परीक्षाएँ दी हैं, जो कौतुक दिखाए हैं, उनका संक्षिप्त वर्णन आजकल 'पियर्सस मैगेज़ीन' में छप रहा है।

एक दिन कंबरलैंड साहफ 'पियर्सस मैगेज़ीन' के दफ़्तर में पधारे। वहाँ आपकी परीक्षा हुई। एक आदमी से कहा गया कि वह कल्पना करे कि उसके किली अंग में दर्द हो रहा है। उसने वैसा ही किया। साहब की आँखें रूमाल से बाँध दी गई। उन्होंने उस श्रादमी का हाथ पकड़ा। पकड़ते ही उसके शरीर में वैधुतिक धारा-सी बही। उनका हाथ पहले कुछ इधर-उधर घूमा। फिर उन्होंने फ़ौरन् ही उस आदमी के बाएँ कान का निचला हिस्सा पकड़ लिया। बस, वहीं उस आदमी ने दर्द होने की मन में भावना की थी। इस बात को देखकर देखनेवाले अचरज में आ गए। वे चकित हो उठे। वहाँ पर, उस समय, एक और आदमी बैठा था। उससे कहा गया कि तुम भी किसी चीज़ की भावना करो। उसने एक चीज़ की तसवीर की भावना करनी चाही। सफ़ेद काग़ज़ का एक मोटा तख्ता दीवार पर लगा दिया गया। कंबरलैंड साहब ने उस आदमी का हाथ अपनी कलाई पर रक्खा, और उससे कहा कि तुम काग़ज़ की तरफ देखो, और भावना करो कि तुम उस पर अपनी भावित वस्तु की तसवीर खींच रहे हो। उसने वैसा ही किया। वह उधर उसकी भावना करने लगा, यह इधर हाथ में पेंसिल लेकर उस भावना का चित्र उतारने लगे। एक मिनट में यह परीक्षा

पूरी हो गई। देखा गया, तो मालूम हुआ कि वह चित्र सड़कों पर गड़े हुए एक लालटेन का था। उसी की भावना उस मनुष्य ने की थी; परंतु उसे सोचते समय उसके ब्रैकेट का ख़याल बाल उसे नहीं रहा था। इससे साहब ने जो तसवीर बनाई, उसमें भी ब्रैकेट न था। उनकी इस अद्भुत शक्ति को देखकर सब लोग हैरत में आ गए। इनके सिवा और भी कई प्रमाण उन्होंने अपने अंतर्ज्ञान के दिए।

योरप के धन-कुबेर राथस् चाइल्ड के यहाँ एक दिन जलसा था। हमारे स्वर्गीय राजेश्वर एडवर्ड सप्तम भी उसमें शरीक थे। कंबरलैंड साहब भी वहाँ उस समय हाज़िर थे। राजेश्वर ने उनके अंतर्ज्ञान की परीक्षा करनी चाही! उन्होंने लंका में मारे गए एक वेपूँछ के हाथी की भावना की। कंबरलैंड ने तत्काल ही उसका चित्र खींच दिया, पर पूँछ उन्होंने नहीं बनाई। पूछने पर मालूम हुआ कि राजेश्वर ने पूछ की भावना ही नहीं की थी, क्योंकि वह उस हाथी के थी ही नहीं।

हमारे राजेश्वर की महारानी अलेगज़ंडरा एक दफ़े डेनमार्क में अपने पिता के यहाँ थीं। वहाँ भी किसी मौक़े पर कंबरलैंड साहब पहुँचे। महारानी ने महल के किसी दूसरे हिस्से में रक्खे हुए एक फ़ोटो की भावना की, और यह चाहा कि कंबरलैंड साहब उसे वहाँ से उठा लाएँ। साहब ने कहा बहुत अच्छा। वह ग्रीस के शाहज़ादे जार्ज के साथ फौरन वहाँ गए, और उस फ़ोटो को लाकर उन्होंने उसे महारानी के हाथ में दे दिया। इस अलोकिक शक्ति को देखकर सब लोग स्तंभित-से हो गए। एक दफ़े रूस के ज़ार ने एक रूसी शब्द की भावना की। कंबरलैंड साहब रूसी भाषा बिलकुल ही नहीं जानते, परंतु उस शब्द को उन्होंने तद्वत् लिख दिया।

कंबरलैंड साहब ने ऐसे ही अनेक राजा-महाराजा और धनी-मानी आदमियों के मन की बातें बतलाकर, लिखकर, चित्र द्वारा खींचकर अपनी अद्भुत अंतर्ज्ञान-विद्या की सत्यता को सिद्ध कर दिखाया है।

मूक प्रश्नों का उत्तर देने और मन की बात बतलाने में केरल-प्रांत के ज्योतिषियों का इस देश में बड़ा नाम रहा है। सुनते हैं, अब भी वहाँ इस विद्या के अच्छे-अच्छे पंडित पाए जाते हैं। और भी कहीं-कहीं ऐसे-ऐसे अंतर्ज्ञानियों का नाम सुन पड़ता है। शाही ज़माने में लखनऊ में भी इस तरह के आदमी थे, जो दूसरे के मन का हाल बतला देते थे। कोई २० वर्ष हुए, हमारे मित्र बाबू सीताराम को लखनऊ में ऐसा ही एक वृद्ध मनुष्य मिला था। वह इनसे बिलकुल अपरिचित था। परंतु वह इनका पुराना इतिहास सब बतला गया, और इनके मन की बातों को उसने इस तरह सही सही कहा, मानो वह इनके हृदय के भीतर घुसकर उनको मालूम कर आया हो। लोगों का विश्वास अब इस विद्या से उठता जाता है, क्योंकि इसके अंदर धूर्तता अक्सर छिपी हुई मिलती है।

एप्रिल, १९०५