अद्भुत आलाप/एक ही शरीर में अनेक आत्माएँ

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७-एक ही शरीर में अनेक आत्माएँ

एक ही शरीर में दो या दो से अधिक व्यक्तियों का जो बोध होता है, और उसके समय-समय पर जो अद्भुत उदाहरण पाए जाते हैं, वे आजकल के विद्वानों के लिये अजीव तमाशे मालूम पड़ते हैं। अमेरिका के हारवर्ड और एल-विश्वविद्यालय के दो अध्यापकों ने बीसवीं सदी की इस नई खोज में बहुत श्रम किया है। उन्होंने इस विषय पर एक पुस्तक लिखी है। उनका कथन है कि एक ही शरीर में भिन्न-भिन्न आत्माओं की स्थिति कोई खेल नहीं; किंतु वह मानसिक शक्ति ही का रूपांतर है। इस विषय में वे यों लिखते हैं---"एक शरीर में अनेक पुरुषों की सत्ता का बोध कोई नई बात नहीं; वह सबमें होनी चाहिए; क्योंकि अनेक क्षणिक बोधों के समुदाय का नाम मन है।"

ये लोग अपने प्रस्ताव की जाँच आजकल प्रत्यक्ष उदाहरणों
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के द्वारा कर रहे हैं। बहुत से लोग इसको एक मनमौजी और बेतुकी बात समझते हैं। मेरी भी यही राय है। जो उदाहरण इन लोगों ने दिए हैं, उन्हें सर्व-साधारण को हृदयगम कराने के लिये यह लेख लिखा जा रहा है।

पादरी हाना का उदाहरण

जितने उदाहरण दिए गए हैं, उनमें सबसे अधिक उपयोगी हाना साहब का एक उदाहरण है; क्योंकि उसमें कही गई बातें मानस-शास्त्र-वेत्ताओं ने अपनी आँखों देखी हैं, और यह उदाहरण हाल ही में हुआ है। उसमें समय भी अधिक नहीं लगा। हाना साहब का पहला इतिहास लोग भली भाँति जानते थे, और वह अब तक जीवित भी हैं। फिर वह एक पढ़े लिखे आदमी हैं।

१५ एप्रिल, सन् १८९७ ईस्वी की शाम को गाड़ी पर घर लौटते समय टामस कारसन हाना-नामक पादरी गाड़ी से गिर पड़े। उनके सिर में बहुत चोट आई। वह पढ़े-लिखे, धर्मात्मा और कार्य-तत्पर पादरी हैं। उनके नाना डॉक्टर थे, और पिता इँगलैंड छोड़कर अमेरिका में बसनेवालों में से थे। गाड़ी से गिरने तक जो कुछ उनके विषय में मालूम है, उससे यही ज़ाहिर होता है कि वह किसी तरह के रोगी या सनकी न थे।

गिरने का परिणाम

गिरने के बाद हाना साहब बेहोशी की दशा में उठाए गए। साँस बहुत धीमी चलती थी, और जीवन प्रायः समाप्त हो
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गया-सा जान पड़ता था। तीन डॉक्टरों ने समझा कि वह मर जायँगे। उनको होश में लाने की कोशिश की गई। वह एका- एक उठ बैठे, और पास के एक डॉक्टर को उन्होंने ढकेलने की चेष्टा की। डॉक्टरों ने समझा कि सरसाम हो गया है, इसलिये वह चारपाई पर बाँध दिए गए। जब वह चित लेटे, तब बंधन खोल दिए गए। उस समय हाना साहब अजीब तरह से ताकने लगे। न तो वह कुछ बोलते थे, और न लोगों की बोली ही समझते थे। अब यह हुआ कि हाना साहब तो ग़ायब हो गए, और एक बच्चे की आत्मा उनके शरीर में प्रविष्ट हो गई। वह न केवल अपने आप ही को भूल गए, किंतु मामूली चीज़ों के नाम भी भूल गए। उन्हें न कुछ समझ पड़ता था, न बोल आता था, न बोझ आदि का ज्ञान होता था। वह हाथ-पाँव उठाना और खाना-पीना आदि सभी भूल गए। सारांश यह कि पुराने हाना साहब बिलकुल ही लुप्त हो गए, और एक सद्योजात बालक उनकी जगह पर आ गया।

बालक

और बातों में तो हाना साहब बालक ही के समान हो गए, पर उनकी बुद्धि वैसी दुर्बल न थी। स्वभाव में तो यह नया जीव लुप्त हुए हाना ही के समान था। उसकी स्मरण-शक्ति भी तेज़ थी, और उसमें नक़ल करने की ताक़त भी खूब थी। पीछे से उसने अपनी मानसिक शक्ति के विषय में जो कुछ स्मरण करके कहा, वह ध्यान देने योग्य है। [ ७१ ]पहले तो कमरे की सब चीज़ें हाना साहब को तसवीर के समान आँख के सामने लटकतो-सी जान पड़ीं। मानो वे उनकी आँख ही का अंश हैं। उनको रंग का तो बोध हुआ, पर दूरी और मुटाई का बोध न हुआ। पहले उन्होंने आँखें खोलीं; फिर हाथ हिलाए; फिर सिर हिलाया। यह देखकर एक डॉक्टर वहाँ से खिसका, पर हाना ने समझा, डॉक्टर का खिसकना उनके हाथ चलाने का फल है। इतने में जब बिना हाथ हिलाए उन्होंने डॉक्टर को हटते देखा, तव उन्हें आश्चर्य हुआ। तब उन्हें बोध हुआ कि ऐसी भी चीज़ें हैं, जो मुझसे संबंध नहीं रखतीं, और बिना मेरे हिल-डुल सकती हैं। कुछ देर बाद हाना को मालूम होने लगा कि वे तीनो डॉक्टर मुझसे भिन्न हैं, पर हैं एक ही व्यक्ति। अतएव यदि मैं इनमें से एक को जोत लूँ, तो तीनो मेरे वश में हो जायँगे। पर वह, हाथ-पैर कैसे उठाना होता है, यही भूल गए थे। इस कारण विवश होकर वह पड़ रहे।

शिक्षा

हाना ने डॉक्टरों को बातें करते सुना, पर वह उनकी बातों को समझ न सके। वह उनके शब्दों की नकल करने लगे। यह देखकर सब लोग हँस पड़े। दूसरे दिन फिर उन्होंने तीस-चालीस शब्दों की नकल की। तीसरे दिन उनको नासपाती दिखाई गई, और उसका नाम बतलाया गया। तब उन्होंने नासपाती कहना सीखा। वह, बार-बार नासपाती, नासपाती कहते थे। इससे लोग उन्हें नासपाती ला देते थे। उसे वह खा लेते
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थे; पर नासपाती के साथ खाने की और कोई चीज़ न आती थी। यह उन्हें बुरा लगता। वह नासपाती का छिलका तक खाने लगे। यह देखकर उनको सिखाना पड़ा कि नासपाती में वह क्या खायँ, और क्या न खायँ।

कमरे की दीवार पर लटकती हुई एक तसवीर को छूने की चेष्टा करने पर हाना साहब को दूरी का ज्ञान हुआ। उन्होंने आईने में मुँह देखकर उसे छूने की चेष्टा की। आईना उन्हें चिकना जान पड़ा। इस पर उनको बहुत आश्चर्य हुआ। आईने को उन्होंने उलट दिया। पर जब उनको अपना मुँह न पकड़े मिला, तब उन्होंने समझा कि वह कोई ऐसा चित्र है, जो हट सकता है।

बालक हाना को यह समझते कुछ समय लगा कि और लोग मुझसे भिन्न हैं। पुरुष-स्त्री का भेद भी उन्हें नहीं ज्ञात था। एक बार एक बच्चे को देखकर उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह समझते थे कि लोग उन्हीं के समान बड़े होते हैं। वह अपने को अल्पवयस्क समझते थे। अपनी माता से उन्हें कुछ भी स्नेह न था।

हाना के शरीरस्थ इस बालक ने शब्द-उच्चारण करना शीघ्र सीख लिया। एक ही सप्ताह में वह थोड़ा-सा पढ़ने भी लगा, पर जो कुछ उसने पढ़ा, उसे दुबारा ही सीखना पड़ा। उसे ईश्वर और अपने पिता का ज्ञान न था। कुछ दिन बाद उसने एक पत्र लिखा। उसमें कोई गलती न थी। जो शब्द एक बार वह सुनता था, उसे भूलता न था। [ ७३ ]

पुराने हाना

अब प्रश्न यह है कि पहले हाना कहाँ गए? क्या दूसरे हाना कोई नए पुरुष थे, जो पहले हाना के शरीर में रहने आए थे। उन दोनो में सिर्फ़ इतना ही संबंध था, जितना शरीर खाली घर में टिकनेवाले बेगाने आदमी और घर के मालिक में होता है। एक तमाशा देखिए। पुराना हाना सपना देखने लगा, और जब उसने अपने सपने सुनाए, तब उसके पिता ने देखा कि वे सपने उसकी युवावस्था में देखी गई चीज़ों के संबंध में थे। उसने सपने में देखे हुए स्थानों के नाम बतलाए, पर यह बात वह न जान सका कि वे स्थान उसने पहले भी कभी देखे थे या नहीं। इस प्रकार अनेक पुराने स्वाप्निक संकेत पाने पर पहले हाना के पाने के लिये यत्न प्रारंभ किए गए। पहला हाना यहूदी भाषा जानना था; पर दूसरा नहीं जानता था--यहूदी भाषा में एक पद्य का पूर्वार्ध उसे सुनाया गया। इस पर वह एकाएक बोल उठा-'हाँ, मुझे यह स्मरण है।' फिर वह आद्योपांत पूरा पद्य सुना गया। पर तुरंत ही सब पद्य वह फिर भूल गया। लोगों ने पूछा कि तुम्हें क्या मालूम पड़ा। उसने कहा, मैं बहुत डर गया था। ऐसा बोध होता था कि कोई दूसरा उसके ऊपर अधिकार जमा रहा है। उसने कहा, मैं नहीं जानता--मैं क्या बक गया। कुछ समझ नहीं सका। कुछ काल के अनंतर एक पद्द जिसे वह पहले अक्सर गाया करता था, पढ़ा गया। इस पर उसने दो नाम लिए। पर वे किसके नाम हैं, यह बात
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वह न बतला सका। पता लगाने से मालूम हुआ कि ये नाम उन स्त्रियों के हैं, जिनके सामने उसने, तीन वर्ष पहले, यह गीत गाया था। इससे यह ज़ाहिर हो गया कि पहला हाना मर नहीं गया था, किंतु कहीं सो रहा था।

पहले हाना का पुनर्जीवन

कुछ दिन बाद हाना साहब न्यूयार्क भेजे गए। वहाँ उनके शरीर के भीतर सोए हुए व्यक्ति को अच्छी तरह जगाने का यत्न होने लगा। वह एक होटल में ठहराए गए। होटल ख़ूब सजा था। मनोहर बाजे बज रहे थे। गाना भी हो रहा था। तीन घंटे के अनंतर वह सो गए। जब वह उठे, अपने भाई से उन्होंने पूछा कि मैं कहाँ हूँ। दूसरा हाना ग़ायब हो गया; और पहला हाना फिर प्रकट हुआ। छ हफ़्ते पहले गाड़ी से गिरने की बात को छोड़कर बीच की और सब बातों का उन्हें कुछ भी ज्ञान नहीं रहा। उन्होंने समझा, मुझे कल ही चोट लगी थी। और रात-भर मैं सोया था। शाम को उसने तंबाकू पी थी। उसकी गंध उसे मुँह में मालूम हुई। इस पर उसे आश्चर्य हुआ, क्योंकि पहले हाना ने बरसों से तंबाकू नहीं पी थी। कोई ४५ मिनट तक तो यह दशा रही। पीछे वह फिर सो गया। जागने पर पहला हाना ग़ायब हो गया, और दूसरा फिर शरीर में प्रविष्ट हो आया।

हानाओं में परस्पर लड़ाई

४५ मिनट तक हाना २६ वर्ष के स्मरणवाला पुरुष रहा,
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पर बाद में वह छ सप्ताह के ज्ञानवाला-मात्र शेष रह गया। डॉक्टरों ने तरह-तरह की दवाइयों का प्रयोग करना आरंभ किया। एक बार उन्होंने थोड़ी-सी भाँग पिला दी। रात-भर सोने के अनंतर पहला हाना फिर जागा। उसको ठहराने की अनेक चेष्टाएँ हुईं। कुछ काल तक वह सोया। जब बह जागा, तब दूसरा हाना हो गया। उसे लोग नाट्यशाला में ले गए, और शराब पिलाई। फिर पहला हाना जागा। कुछ काल तक वह रहा। एक बार उसे गाड़ी पर चढ़ाकर लोग गिरजाघर ले जाते थे कि वह गाड़ी ही पर कुछ सो-सा गया, और दूसरा हाना होकर उठा। यों ही कभी पहला, कभी दूसरा हाना प्रकट होता रहा। अंत में उसका जी घबरा उठा। उसे उसका जीवन बोझ मालूम होने लगा। कभी कुछ, कभी कुछ होते रहने से हाना व्याकुल हुए। वह यह भी स्थिर न कर सके कि वह पहले या दूसरे हाना होकर रहें, क्योंकि दो में से एक तो होना ही पड़ेगा। पर उन्हें इससे उतना क्लेश न होता था, जितना कि एक दशा में दूसरी-दूसरी दशा का स्मरण करने से होता था। वह चाहते थे कि दूसरी का स्मरण न हो, पर होता ज़रूर था।

अंतिम परिणाम

एक कारण कठिनाई का और था कि पहला हाना जिन लोगों को जानता था, दूसरा उन्हें पहचानता भी न था। दूसरे ने जिनसे प्रतिज्ञा की थी पहला उनके नाम से भी वाक़िफ़ था। वे दोनो मानो किसी व्यवसाय में साझी के समान थे। कुछ काल
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एक साझी काम चलाता था, कुछ काल दूसरा। दोनो का एक ही शरीर में रहना पहले तो असंभव-सा प्रतीत हुआ, पर कुछ समय बीतने पर दोनो एक ही में रह गए, और बीच के समय की त्रुटि भी न बोध होने लगी। अर्थात् उनका यह संस्कार जाता रहा कि हमें छ सप्ताह सोते बीते। वे समझने लगे कि हम दो आदमी एक ही घर में रहते हैं, और यह भी उन्हें स्मरण होने लगा कि हमारा अमुक समय अमुक दशा में बीता।

एंसेलबूर्न का उदाहरण

हाना की कथा से इसमें इतना हो भेद है कि इसमें दो व्यक्तियों ने एक शरीर में रहकर परस्पर एक दूसरे को नहीं जाना।

१७ जनवरी, सन् १८८७ को रीड्स-नामक शहर के निवासी एंसेलबूर्न ने एक बैंक से कई हज़ार रुपए कुछ ज़मीन खरीदने के लिये निकाले, और उन्हें लेकर वह एक गाड़ी पर सवार हुए। उस समय से लेकर १४ मार्च तक उनका क्या हुआ, कुछ पता नहीं चला। वह ख़ुद हो नहीं जान सके। एक आदमी ने, जिसने अपना नाम ए० जे० ब्राउन बतलाया, एंसेलबूर्न के शरीर को अमेरिका पहुँचाया, और उन रुपयों से मिश्री का गोदाम खोला। १४ मार्च को ए० जे० ब्राउन ग़ायब हो गया, और एंसेलबूर्न सोकर उठा। वहाँ वह कैसे आया, यह उसे विदित न था। उसे बैंक से रुपए लेकर चलने तक की सिर्फ़ याद थी। उसका वजन प्रायः १० सेर कम हो गया था। लोगों ने पहले तो उसे पागल समझा, पर पीछे से घर पहुंचाया। [ ७७ ]
तीन साल बाद उस पर हिपनाटिज्म अर्थात् प्राण-परिवर्तन की प्रक्रिया की गई। तब ए० जे० ब्राउन लौट आया। उसने कहा कि मेरा गोदाम क्या हुआ? मैं एंसेलबूर्न और उनकी बीवी को नहीं जानता। यह क्या बात है, किसी की समझ में न आई! अंत तक एंसेलबूर्न और ए० जे० ब्राउन ने परस्पर एक दूसरे को नहीं पहचाना। हिपनाटिजम की सहायता से ही ए० जे० ब्राउन प्रकट और लुप्त होते रहे।

एक कसेरे का उदाहरण

सन् १९०४ में डॉक्टर पासवन ने एक अख़बार में लिखा कि कुछ दिन हुए, एक धनवान् कसेरा एक दिन शाम को हवा खाने के लिये निकला, और एकाएक ग़ायब हो गया। दो वर्ष बाद एक और देश में एक कसेरा अपने औज़ार फेककर चौंक पड़ा। उसने कहा, मैं यहाँ कैसे आया? मेरा यह नाम कैसे पड़ा? मैं तो अमुक आदमी हूँ, जो दो वर्ष पहले खो गया था। दो वर्ष तक कौन प्रेत उस पर सवार था, कुछ नहीं मालूम हुआ। इन दो वर्षों की बातें उसे बिलकुल याद नहीं।

डॉक्टर डाना के घादमी का उदाहरण

सन् १८६४ की 'साइकालॉजिकल रिव्यू' नामक पुस्तक में डॉक्टर डाना ने एक रोगी का हाल लिखा है कि वह एक बार धुएँ के कारण बेहोश हो गया। जब होश में आया, तब हाना के समान वह एक बालक की-सी बुद्धि का आदमी हो गया। उसे तीन महीने तक लिखना-पढ़ना सीखना पड़ा। तीन महीने
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बाद उसकी स्त्री उसके आरोग्य होने से निराश होकर चिल्लाकर रो उठी। बस, उसी रात को उसके सिर में दर्द हुआ, और वह सो गया। सबेरे वह पूर्ववत् हो गया। उसे उस बालक का स्मरण बिलकुल जाता रहा। उस बालक ने तीन महीने में हाना की अपेक्षा पढ़ना-लिखना कुछ कम सीखा।

सैलो-नामक कुमारी का उदाहरण

बोस्टन के डॉक्टर नार्टन प्रिंस लिखते हैं कि एक सुशिक्षिता और कम बोलनेवाली कुमारी स्त्री पर उन्होंने प्राण-परिवर्तन की क्रिया का प्रयोग किया। परिवर्तित दशा में उसने अपनी आँखें मली, और चाहा कि वे खुल जायँ। आँखें खुल गईं, और वे एक दूसरे ही व्यक्ति के अधीन बोध हुई। वह व्यक्ति अपना नाम सैली बताने लगी। यह नई व्यक्ति बड़ी नटखट और चिबिल्ली थी। पुस्तकों से यह घृणा प्रकट करती थी। पर प्रयुक्त स्त्री धर्मात्मा और सच्चरित्र था। पहले सैली कुछ ही मिनट ठहरती थी, पर पीछे से वह कई दिनों तक ठहरने लगी। सैली प्रयुक्त स्त्री के हृदय के भाव सब जानती थी। उसकी चिट्ठियों के आशय लिखकर वह रख जाती, और उसके रक्खे हुए टिकट चुरा लेती थी। कभी-कभी उसकी जेब में वह मकड़ी का जाला या साँप को केंचुली रख देती थी। सैली न केवल उसके भावों को ही जान लेती थी, किंतु उसके भावों पर अधिकार भी रखती थी, और उसके साथ बुरी-बुरी दिल्लगी करके उसे क्लेश पहुँचाया करती थी। [ ७९ ]

टूई और सिपाही के उदाहरण

अमेरिका में एक विद्या-व्यसनी कुमारिका थी। उसने पढ़ने में बहुत श्रम किया। इससे १८ वर्ष की उम्र में उसकी तबियत बिगड़ गई। वह रोगी हो गई। कुछ दिन बाद उसके ऊपर टूई-नामक एक स्त्री प्रकट होने लगी। वह रोगी थी। पर टूई प्रसन्न चित्त और बलिष्ट मालूम होती थी। टूई मनमाना आती-जाती थी। जाते समय वह पत्र लिखकर रख जाती थी, जिससे उस रोगी कुमारिका का चित्त टूई के चले जाने पर भी प्रसन्न रहता था। कुछ दिन बाद टूई ने कहा, मैं चली जाऊँगी, और वाय-नामक एक व्यक्ति मेरे स्थान पर आवेगा। बाय आया। वह उन दोनो से परिचित हो गई। पर टूई और वाय तभी तक ठहरे, जब तक वह यथेष्ट आरोग्य नहीं हुई।

ऐसे ही एक सिपाही की कथा है, जो भिन्न-भिन्न व्यक्ति होकर दो-तीन दफ़े फ़ौज में भरती हुआ, और होश में आ जाने पर भाग जाने का अपराधी ठहराया गया। पर अब और ऐसी कथाएँ देने की ज़रुरत नहीं। इस विषय के उदाहरण बहुत हुए। जिस पुस्तक के आधार पर यह लेख लिखा जाता है, उसके कर्ता की अब राय सुनिए।

ग्रंथकर्ता की राय

ग्रंथकर्ता की राय में मनुष्य का मन एक चीज़ नहीं। आत्मा से वह पृथक् है। वह 'अहं' का बोधक नहीं। अनेक क्षणिक
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बोधों के यथोचित योग को हम व्यक्ति या जन या आप कहते हैं। हमारी उपमा बाज़ार मे दी जा सकती है। सवेरे के बाज़ार की दशा शाम को और ही कुछ हो जाती है। बाज़ार तो वही रहता है, पर वहाँ आदमी और आ जाते है। इसी प्रकार हमारे बोधों का परिवर्तन होता रहता है। उन पर एक व्यक्तित्व उसी तरह रहता है, जैसे मनुष्य-जाति पर उसका एक जातित्व। इंद्रियों से अनुस्यूत तंतुओं और भावों के संपर्क से मानसिक क्रियाओं की उत्पत्ति होती है।

ग्रंथकार का आशय एक उदाहरण से और स्पष्ट हो जायगा। मन या व्यक्ति को एक स्वतंत्र राज्य समझी। जैसे स्वतंत्र राज्य में बहुत आदमी रहते हैं, पर उनका समुदाय मिलकर वह एक ही है, उसी प्रकार क्षणिक बोध अनेक हैं, पर उन सबका समुदाय मन एक ही है। राज्य के भिन्न-भिन्न विभाग और अधिकारी अनेक हैं। मानसिक बोधों के विभाग और दशाएँ भी अनेक हैं। जब तक राज्य के आधारभूत अधिकारी यथास्थित हैं, तब तक एक राज्य है। पर जब अधिकारियों में परिवर्तन होता है, तब वे उस राज्य को पूर्ववत् नहीं रहने देते। वे नए-नए नियम बनाते हैं, और वही राज्य और प्रकार का हो जाता है। इसी तरह मानसिक बोधों के समुदाय में परिवर्तन होने पर मनुष्य भिन्न व्यक्ति-सा प्रतीत होता है। जैसे राज्य में अधिकारियों का परिवर्तन प्रकृत अवस्था में न होकर विद्रोह या शत्रु के आक्रमण आदि होने पर होता है, वैसे ही मानसिक व्यक्ति
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का परिवर्तन भी प्रकृत अवस्था में न होकर रोग, चोट, प्राण-परिवर्तन की क्रिया अथवा नशीली चीज़ों के प्रयोग आदि से होता है।

सच क्या है?

लेखकों के कथन में कुछ सत्य ज़रूर है, पर वे उसे बहुत अधिक खींच ले गए हैं। यदि उनका कहना सत्य मान लिया जाय, तो अपढ़ गँवारों का विदेशी भाषा बोलना जैसा कि कभी-कभी देखने में आया है, कैसे ठीक होगा? मन ने जिन बोधों को कभी नहीं पाया, वे (विदेशी भाषा बोलना आदि) कैसे व्यक्त हो सकते हैं। हिपनाटिज्म अर्थात् प्राण-परिवर्तन की क्रिया से ऐसी अनेक प्रकार की विलक्षण बातें देखने में आई हैं। लंदन में एक बार हिपनाटिज्म की क्रिया से प्रयुक्त एक मनुष्य ने एक लेख लिखा। उसे कोई न पढ़ सका। अजायब-घर में भी किसी से एक अक्षर भी न पढ़ा गया। कुछ दिन बाद एक जापानी ने उसे बहुत पुरानी जापानी-भाषा का लेख बतलाया, और पढ़कर उसका अनुवाद कर दिया। अब यदि मन बोधों का समुदाय है, तो यह पुरानी जापानी लंदन के आदमी ने कब, कहाँ और कैसे पढ़ी? बहुत-सी दशाओं में देखी हुई चीज़ हो देख पड़ती है, यह निश्चय-पूर्वक नहीं कहा जा सकताः पर सर्वदा ऐसा ही होता है। अदल-बदलकर प्रकट होनेवाले व्यक्तियों में भी ग्रंधकार का सिद्धांत संघटित नहीं होता। ऊपर जो उदाहरण दिए गए हैं, उनमें मन को अनेक बोधों का समुदाय
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न मानकर ऐसा मानना चाहिए कि मनुष्य एक जीवधारी है, उममें मन भी एक इद्रिय है। वही सब बोधों को ग्रहण करता है। यदि ऐसा न माना जाय, तो सैकड़ों फ़ोटो उतारनेवाले फ़ोटो- ग्राफ़र को भी फ़ोटोग्राफ़ीं का समुदाय कहना चाहिए। पर फ़ोटो- ग्राफ़र फ़ोटोग्राफ़ी का समुदाय नहीं है, किंतु उनको एकत्र करने वाला है। इसी तरह मन बोधों का समुदाय नहीं, किंतु ग्रहण करनेवाला है। दो व्यक्तियों के होने का कोई पक्का प्रमाण नहीं। हाना के उदाहरण से इतना ही सिद्ध होता है कि चोट लगने से मन अपनी पूर्व-संगृहीत भावनाओं को स्मरण नहीं कर सकता, क्योंकि भावना-ग्राहक तंतुओं में विकार पैदा हो जाता है। यही बात बाक़ी के उदाहरणों का भी कारण है। संस्कार मन को होता है, और संस्कारों के चित्र भी मन ही पर उठते हैं। प्रयोजन पड़ने पर उनका स्मरण जाता रहता है। ध्यान देकर देखी हुई वस्तु बहुत समय बीतने पर भी याद आ जाती है। चोट आदि लगने से मन में विकार पैदा हो जाता है। इससे मन हाना के समान, बिलकुल बालक का-सा, हो जाता है। और, प्रायः सब सांसारिक बातें, हाथ-पैर हिलाना आदि, उसे फिर से सीखना पड़ता है। मन पर संस्कारों के चित्र-से बने रहते हैं। चित्त के संयोग से चित्र प्रत्यक्ष हो जाते हैं।

बिना पुराने संस्कार के कोई बात स्मरण नहीं हो सकती। उपर जो जापानी लेख का उदाहरण दिया गया है, उस विषय में, यदि पूरा पता लगाया जाय, तो मालूम होगा कि हिपनाटिज्म
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करनेवाला या प्रयुक्त जन अवश्य किसी समय पुरानी जापानी भाषा जाननेवाले से मिला होगा।

मई, १९०६