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अद्भुत आलाप/परलोक से प्राप्त हुए पत्र

विकिस्रोत से
अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ ५९ से – ६८ तक

 

६-परलोक से प्राप्त हुए पत्र

एक जमाना वह था, जब कानपुर से कलकत्ते चिट्टी का पहुँचना मुश्किल था, पर यदि पहुँचती भी थी, तो महीनों लग

जाते थे। अब गवर्नमेंट के सुप्रबंध की बदौलन पाँच मिनट में वहाँ खबर पहुँचती है। पुराने जमाने का मुक़ाबला आजकल से करने पर जमीन-आसमान का अंतर देख पड़ता है। परंतु रेल और तार का प्रचार हुए बहुत दिन हो गए। इससे इन बातों को दखकर अब विशेष आश्चर्य नहीं होता। हाँ, एक बात सुनकर हमारे पाठकों को शायद आश्चर्य हो। वह बात पृथ्वी से परलोक तक तार लग जाना है। यह अवश्य तार है, पर खबरें इससे आने लगी हैं। यदि इसी तरह उन्नति होती गई---और इस उन्नति के जमाने में ऐसा होना ही चाहिए---तो शायद किसी दिन परलोक तक रेल भी खुल जाय, और डाकखाने खुलकर वहाँ और यहाँ के डाकखानों का मेल हो जाय। नई अध्यात्मविद्या चाहे जो करे।

इँगलैंड से एक मासिक पुस्तक निकलती है। उसका नाम है ब्रॉड व्यूज़ ( Broad views )। उसमें एक लेख अध्यात्मविद्या पर निकला है। उसका सारांश हम नीचे देते हैं। लेख का अधिकांश परलोकवासी लॉर्ड कारलिंग फ़र्ड के भेजे हुए पत्र हैं। 'ब्रॉड व्यूज़' के संपादक ने पढ़नेवालों को विश्वास दिलाया है कि ये पत्र जाली नहीं, सच्चे हैं।

आयलैंड में लॉर्ड कारलिंग फ़र्ड एक प्रसिद्ध राजकीय पुरुष हो गए। १८९८ ईस्वी में उनकी मृत्यु हुई । वह पार्लियामेंट के मेंबर और ट्रेजरी ( ख़ज़ाने ) के लॉर्ड रह चुके थे। मरने के बाद उन्होंने अपने कुटुंब की एक स्त्री द्वारा परलोक से

खबरें भेजनी शुरू की। इस स्त्री को अध्यात्म-विद्या का शौक़ था। वह बहुत अच्छी 'पात्र' थी। उसके शरीर में परलोकगत आत्माएँ प्रवेश करके इस लोकवालों से बातचीत करती थीं। कुछ दिन तक तो इस स्त्री के द्वारा लाट साहब खबरें भेजते रहे। कुछ दिन में एक और स्त्री की 'पात्रता' को उन्होंने पसंद किया। इस विषय में इस स्त्री की शक्ति खूब बढ़ी-चढ़ी थी। सात वर्ष तक लाट साहव की चिट्ठियाँ आती रहीं, और इस नए 'पात्र' के हाथों से लिखी जाती रहीं। लाट साहब के कुटुंब की जिस स्त्री के पास ये पत्र थे, उसने 'ब्रॉड न्यूज़' के संपादक को उन्हें प्रकाशित करने के लिये अनुमति दे दी। इससे वे अब प्रकाशित किए जा रहे हैं। संक्षेप में, उनमें कही गई बातें, सुनिए---

जिन बातो को मैं पृथ्वी पर, पंचभूतात्मक शरीर में रहकर, नहीं जान सका, उन्हें अब मैंने जान लिया है। मैं अब परमानंद में मग्न हूँ। पृथ्वी पर मैं सोया था; अब मैं जाग रहा हूँ। मुझे सख़्त अफ़सोस है, मैंने अपना मानव-जीवन स्वार्थ और बुरी बातों में व्यर्थ खो दिया। अपार दुखों से मेरा जीवन भार-भूत हो गया था। मेरी बुद्धि भ्रष्ट हो गई थी। निराशा मुझ पर छाई हुई थी।

जब मैं पिछली बातें याद करता हूँ, मुझे बड़ा दुःख होता है। मेरी स्वार्थ-बुद्धि बेहद बढ़ी हुई थी। परंतु अब मैं इस लायक़ हो गया हूँ कि पुरानी भूलों का निराकरण कर सकूँ। मुझे अभी बहुत कुछ करना है। मेरा भविष्य आशा और आनंद से भरा हुआ है। भविष्य में मैं अपनी अनेक महत्त्वाकांक्षाओं को पूरा करने की आशा रखता हूँ।

मनुष्य-जीवन को एक तरह का स्कूल समझना चाहिए, परंतु जिस अवस्था में मैं अब हूँ, उसकी बात बिलकुल ही भिन्न है। जो बातें पृथ्वी पर स्वप्न-सी मालूम होती थीं, वे यहाँ करतलामलकवत् हो रही हैं। जीवन क उद्देश्य, शिक्षण और फल का ज्ञान यहाँ अच्छी तरह होता है। जितने सत्कर्म और सदुद्देश्य हैं, वे यहाँ पूरे तौर पर सफल हो सकते हैं। परमात्मा की सृष्टि की रचना और उद्देश्य आदि यहाँ समझ में आने लगते हैं। पृथ्वी पर इन बातों का समझना कठिन था।

मुझे यह बात अब अच्छी तरह मालूम हो गई है कि आदमी की ज़िदगी सिर्फ़ उसी के फायदे के लिये नहीं। उसे समझना चाहिए कि जो कुछ संसार में है, वह सब उसी का है; ओर वह खुद भी संसार ही का एक अंश है। इन बातों को ध्यान में रखकर उसे सब काम करने चाहिए। स्वार्थ से कर्तव्य की हानि होती है। कर्तव्य-विधात हा का दूसरा नाम स्वार्थ है। संसार बहुत विस्तृत है। जो अपना कर्तव्य करना चाहते हैं, संसार में उनके लिये काम-ही-काम है। विश्व-रूप ईश्वर ही में सब कुछ है। जो कुछ है, उसे उसी के अंतर्गत समझना चाहिए। भिन्न भाव रखना अज्ञानता का चिह्न है। मैं और मेरा पिता (परमेश्वर) भिन्न-भिन्न नहीं, एक ही हैं। "सर्वं खल्विदं ब्रह्म।" मेरी दृष्टि अब बहुत विस्तृत हो गई है। मैं अपने सामने अनंत ज्ञान-राशि देखकर घबरा रहा हूँ। जो चीजें मुझे अनंत, आश्चर्य-पूर्ण और अंधकारमय मालूम होती थीं, वे मुझे अब वैसी नहीं मालूम होतीन। उनको अब मैं बख़ूबी देख सकता हूँ, और उन्हें समझ भी सकता हूँ।

पृथ्वी पर ७० वर्ष की उम्र पाकर आदमी इन सब बातों को नहीं जान सकता।

आध्यात्मिक विषयों में अनेक बातें गुप्त हैं। मनुष्य उन सबको नहीं जान सकता। आत्मा ईश्वर का अश है। वह मनुष्य-शरीर से भिन्न है। वह अपना अस्तित्व अलग ही रखती है। वह अनादि है। वह हमेशा आगे की ओर बढ़ती है, पीछे की ओर नहीं। वह धीरे-धीरे अपनी उन्नति करती जाती है, और अपनी शांति और अनुभव को बढ़ाती रहती है। मनुष्य का मन और आत्मा तभी उन्नत होते है, जब जीवन के अनेक झंझटों को वे धैर्य के साथ सह लेते हैं, और उनको पार करके आगे निकल जाते हैं।

परमात्मा की असीमता का अंदाज़ा बहुत कम आदमियों को है। उसकी सीमा नहीं। वह सब तरफ़ है। कोई जगह उससे खाली नहीं। इस विश्व का कोई अंश ऐसा नहीं, जो उसके अंतर्गत न हो। जो सुख या दुख हमको मिलता है, वह इसलिये कि उससे हम कुछ-न-कुछ शिक्षा ले सकें।

यह मनुष्य-शरीर अनेक जन्म-मरणों का फल है। लोग

व्यर्थ इधर-उधर दौड़ा करते हैं। उनको खबर ही नहीं कि जिसकी उन्हें खोज है, वह उन्हीं के हृदय में है।

यहाँ पर बैठा हुआ मैं अपने को उसी रूप में देख रहा हूँ, जो मेरा यथार्थ रूप है। हम सब पूर्ण परमात्मा के एक अंश हैं। यह बात मैंने यहाँ आने पर जानी। आदि-अंत की भावना मनुष्य की कल्पना है। न कभी किसी चीज़ का आदि था, और न किसी चीज का अंत ही है। मुझे इस बात का पता नहीं कि कभी किसी लोक या ग्रह की उत्पत्ति एकदम हो गई हो। जितनी चीज़ें हैं, सब क्रम-विकास-पूर्वक एक स्थिति से दूसरी स्थिति को पहुँची हैं।

जो प्राणी पृथ्वी पर ख़ूब आराम से थे, और अनेक प्रकार के सुखैश्वर्य जिन्होंने भोगे थे, उनकी गिनती सर्वोत्तम और सर्वोच्च आत्माओं में नहीं। सर्वोच्च वे हैं, जिनकी अग्नि-परीक्षा हो चुकी हैं, और जिन्होंने जीवन-मार्ग में अनेक आपदाओं को झेला है।

उच्च-नीच, अमीर-गरीब, स्त्री-पुरुष होने का कारण है। ये भेद व्यर्थ नहीं। और-और कारणों के सिवा इस कारण से भी परमात्म-ज्ञान का विकास प्राणियों के हृदय में हो सकता है।

पुनर्जन्म को लोग जैसा समझते हैं, वैसा नहीं। पुनर्जन्म का मतलब 'पीछे जाना' नहीं है। उसका मतलब हमेशा आगे जाना है। प्रत्येक जन्म में प्राणी पहले जन्म की अपेक्षा, कम-से-कम, एक क़दम ज़रूर आगे बढ़ता है। कुछ--न-कुछ जरूर सीखता है। मृत्यु से लोग घबराते क्यों हैं? वह एक स्थिति-परिवर्तन-मात्र है-एक स्थिति से दूसरी स्थिति में जाना-मात्र है। जिसको लोग मृत्यु कहते हैं, उसके बाद अब भी मैं वही मनुष्य हूँ, जैसा पहले था। हाँ, मेरा पार्थिव अंश वहीं पृथ्वी पर रह गया है, लेकिन जिसके कारण उस अंश का संयोग मुझसे हुआ था, वह बना हुआ है। मृत्यु का आना तक मुझे नहीं मालूम हुआ। मैं मानो सो गया, और जब जागा, तब मैंने अपने को अपने अनेक मित्रों के पास पाया, जिनको मैंने समझा था कि फिर कभी न मिलेंगे।

मैं नहीं बतला सकता कि मैं किस लोक में हूँ। लोक-विषयक किसी प्रश्न का उत्तर मैं नहीं दे सकता। मैं सिर्फ़ इतना ही कह सकता हूँ कि 'अहमस्मि' (मैं हूँ )।

यहाँ समय का कोई हिसाब नहीं। कब सूर्य उदय होता है, कब अस्त; कब रात होती है, कब दिन; इन बातों की ख़बर यहाँ किसी को नहीं। जहाँ तक मैंने देखा, सूर्य यहाँ नहीं। उसकी यहाँ जरूरत भी नहीं।

बहुधा देखा जाता है कि जो प्राणी जिस कुटुंब से संबंध रखता है, उसी में उसका पुनर्जन्म होता है। पर मैं यह नहीं कह सकता कि कितने दिन बाद पुनर्जन्म होता है। यहाँ पर कितनी ही अवस्थाएँ मुझसे बहुत अधिक उन्नत हैं। उन तक मैं नहीं पहुँच सकता। कितनी ही मुझसे भी गिरी हुई अवस्थाएँ हैं। उनका बयान सुनकर मैं काँप उठता हूँ। आत्म-लोक पार्थिव-

लोक के बीच में कहना चाहिए। मर्त्य और अमर्त्य एक दूसरे को रगड़ते हुए जाते हैं, यह सुनकर जरूर आश्चर्य होगा। पर बात ऐसी ही है।

पूर्वोक्त लाट साहब ने जो चिट्ठियाँ परलोक से भेजी हैं, उनकी कुछ बातों का यह सिर्फ़ संक्षेप है। मूल लेख में न जाने क्या- क्या लिखा है। इंजीनियर, कारीगर, नए-नए आविष्कार करनेवाले, जनरल, कर्नल, सिपाही इत्यादि सबकी बातें हैं। पार्लियामेंट, पार्लियामेंट के मेंबर, आयलैंड की प्रजा-पालन-नीति आदि का भी ज़िक्र है। इन पत्रों को पढ़ने से यह मालूम होता है कि मृत लाट साहब शायद 'थियॉसफ्रिस्ट' थे, क्योंकि जन्म-मरण, लोक-परलोक, पाप-पुण्य, स्वर्ग-नरक आदि का वर्णन जो इन चिट्टियों में है, वह बहुत अंश में 'थियॉसफ़ी' के सिद्धांतों से मिलता है। शायद अब तक इन बातों का यथार्थ ज्ञान औरों को नहीं था। इन पेचीदा प्रश्नों को हल करने का पुण्य इसी समाज के महात्माओं के भाग्य में था।

एक और मासिक पुस्तक में एक आत्मा के कुछ प्रश्नोत्तर जपे हैं। उनको भी हम यहाँ पर देते हैं---

प्रश्न---तुम कौन हो?

उत्तर---मैं एक अज्ञात आत्मा हूँ। मेरी उम्र ३३ वर्ष की है। दक्षिणी आफ्रिका के कोलेजों-नगर में मेरा शरीर छूटा था। मैं दफ़न नहीं किया गया। लड़ाई के बाद मेरा शरीर एक गढ़े में पड़ा रह गया। मैं आकाश में घूम रहा हूँ। मुझे कष्ट है, क्योंकि

मेरी अंत्येष्टि-क्रिया नहीं हुई। और अब मेरा शरीर ढ़ूँढ़ने से नहीं मिल सकता।

प्र०--तुम कहाँ पैदा हुए थे?

उ०--लिकनशायर में।

प्र०--तुमने कैसे जाना कि तुम नरक जाओग? क्या किसी ने तुमसे ऐसा कहा है?

उ०--क्योंकि एक बहुत ही भयावनी शक्ति मुझे वहाँ ले जाने को खींच रही है। मैं जानता हूँ, मेरी आत्मा वहाँ ज़रूर गुम हो जायगी। नरक में बर्फ़ नहीं; पर वहाँ के कष्ट बर्फ़ से भी अधिक पीड़ा-जनक हैं।

प्र०--यदि तुम सचमुच आत्मा हो, तो तुमको दुःख क्यों मिलता है?

उ०--मुझे सब बातें वैसी ही मालूम होती हैं, जैसी पृथ्वी पर मालूम होती थीं। मेरा शरीर एक प्रकार का खोखला है; मेरा आत्मतत्त्व उसी में भरा हुआ है। स्याही यदि दावात से अलग कर दी जाती है, तो भी वह स्याही ही बनी रहती है। इसी तरह मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति भी पूर्ववत् बनी रहती है। मुझे खेद है, मैं तुमसे अब फिर बातचीत न कर सकूँगा।

प्र०--क्या तुम फिर न आ सकोगे?

उ०--'पात्र' के द्वारा आने में बहुत कष्ट होता है; आने के लिये जितनी शक्ति दरकार होती है, उतनी नहीं मिलती।

प्र०--'पात्र' किसे कहते हैं? उ०--'पात्र' उस पार्थिव मनुष्य को कहते हैं, जो अपनी शक्तियों और इंद्रियों को कुछ काल के लिये हम लोगों को दे देता है।

प्र०--किस तरह वह इन चीज़ों को दे सकता है?

उ०--उस अज्ञेय परमात्मा में विश्वास के बल पर। इटली के रोमनगर में यह प्रश्नोत्तर हुआ था।

जून, १९०६