अद्भुत आलाप/१८—अंध-लिपि

विकिस्रोत से

[ १३५ ]

१८––अंध-लिपि

मनुष्य को परमेश्वर ने जितनी इंद्रियाँ दी हैं, आँख सबमें प्रधान है। आँख न रहने से जीवन भारभूत हो जाता है। बिना आँखों के मनुष्य प्रायः किसी काम का नहीं रहता। एक इंद्रिय के न रहने से, अथवा उसके निरुपयोगी हो जाने से, अन्य इंद्रियों में से एकआध इंद्रिय अधिक चेतनता दिखाने और अपने काम को विशेष योग्यता से करने लगती है। इसी से जो मनुष्य चक्षु रिंद्रिय-हीन हो जाता है, उसकी स्पर्श-शक्ति प्रबल हो उठती है। स्पर्श-ज्ञान के प्राबल्य की सहायता से अंधा आदमी स्पर्श से ही दृष्टि का भी कुछ-कुछ काम कर लेता है। तथापि अंधता के कारण उसका जीवन फिर मी कंटकमय ही रहता है। अतएव निराश, दीन और दुखी अंधों को पढ़ाने-लिखाने की जिसने युक्ति निकाली, वह धन्य है।

योरप और अमेरिका में अंधों के अनेक स्कूल हैं, और हज़ारों अंधे पढ़-लिखकर कितने ही उपयोगी काम-धंधे करने लगे हैं। कोई [ १३६ ]शिक्षक है, कोई लेखक है। कोई गाने-बजाने का व्यवसाय करता है। कोई कुछ, कोई कुछ। जो लोग इस तरह का कोई काम नहीं करते, वे भी पढ़ने-लिखने में लगे रहते हैं। अतएव उनका मनोरंजन हुआ करता है, और जीवन भारभूत नहीं मालूम होता।

बड़ी खुशी की बात है, अब इस देश के कलकत्ते और मदरास आदि दो-चार प्रसिद्ध प्रसिद्ध नगरों में भी अंधों को शिक्षा देने का प्रबंध हो गया है। वहाँ पाठशालाएँ खुल गई हैं, जिनमें लिखने-पढ़ने के सिवा कला-कौशल आदि को भी शिक्षा अंधों को दी जाती है।

अंधों को पढ़ाने के लिये पहले जिस तरह के ऊँचे उठे हुए अँगरेज़ी अक्षर काम में लाए जाते थे, उनसे अंधों की शिक्षा में बहुत बाधा पहुँचती थी। कई तरह के 'टाइप' ईजाद किए गए। पर सबमें, और दोषों के सिवा, सबसे बड़ा दोष यह था कि अंधे उनको पढ़ तो लेते थे, पर लिख न सकते थे। लोगों का पहले यह खयाल था कि बहरों का जैसे बहुत ज़ोर से बोलने पर ही शब्द सुनाई पड़ता है, वैसे ही अंधों को बड़े-ही-बड़े अक्षरों का स्पर्श-ज्ञान हो सकता है। अक्षर या टाइप जितने ही बड़े होंगे, उतना ही अधिक सुबीता अंधों को होगा, परंतु यह उनको भूल थी। दृष्टि-हीन हो जाने से अंधों का स्पर्श-ज्ञान इतना तेज़ हो जाता है कि वे उठे हुए बहुत छोटे-छोटे टाइप भी उँगली से छूकर पहचान सकते हैं। यही नहीं, किंतु रेशमी रूमाल के भीतर उँगलियों को रखकर भी वे अक्षर पहचान सकते हैं। [ १३७ ] अंधों को पढ़ाने में जिस तरह के टाइपों या अक्षरों से आजकल काम लिया जाता है, उनका नाम बेली-टाइप है। फ्रांस में पेरिस नगर के निवासी लुई ब्रेली-नाम के एक अंधे ने, १८३६ ई० में, पहलेपहल इनका प्रचार किया। उसकी निकाली हुई वर्ण-माला इतनी सरल है कि बहुत ही थोड़ी मेहनत से उसे अंधे सीख सकते हैं। उसे वे पढ़ भी सकते हैं और लिख भी सकते हैं। सिर्फ़ दो ही चार हफ्ते की मेहनत से अंधे इसे सीख जाते हैं, और इसमें लिखी हुई किताबें वे उतनी ही आसानी और शीघ्रता से पढ़ लेते हैं, जितनी शीघ्रता से चक्षुष्मान् आदमी पढ़ सकते हैं।

अंधों की इस अक्षर-मालिका को वर्ण-माला नहीं, किंतु बिंदु-माला कहना चाहिए। यह माला ६३ प्रकार के बिंदुओं के मेल से बनती है। तीन-तीन बिंदुओं—सिफ़रों—की दो सतरें बनाई जाती हैं। वे सतरें एक के आगे दूसरी, बराबर, रक्खी जाती हैं। प्रत्येक सतर के बिंदु एक दूसरे के नीचे रक्खे जाते हैं। इन्हीं बिदुओं में से कुछ बिंदु काग़ज़ के ऊपर जरा ऊँचे उठा दिए जाते हैं। इन उठे हुए बिंदुओं का क्रम जुदा-जुदा होता है, और प्रत्येक बिंदु-समूह से एक वर्ण, अथवा बहुत अधिक काम में आनेवाले एक शब्द, का ज्ञान होता है। कोई-कोई बिंदु-समूह ऐसा है, जिससे एक वर्ण का भी बोध होता है और एक शब्द का भी। इस प्रकार दो अर्थों के देनेवाले बिदु-समूहों से जहाँ जैसा अर्थ, मुहावरे के अनुसार, अपेक्षित होता है, वहाँ [ १३८ ] वैसा ही निकाल लिया जाता है। कहने की ज़रूरत नहीं, यह बिंदु-वर्णावली अँगरेज़ी-वर्णो की ज्ञापक है। इस बिंदु-मालिका में जितने बिंदु बड़े-बड़े हैं, वे सब काग़ज पर उभड़े हुए हैं। उन पर उँगली रखते ही अंधे जान जाते हैं कि ये किस अक्षर या शब्द के ज्ञापक हैं। प्रत्येक अक्षर के ज्ञापक इसी बिंदु-मालिका को पास-पास रखने से शब्द बन जाते हैं। प्रत्येक वर्णों के बीच कुछ कम, और प्रत्येक शब्द के बीच कुछ अधिक, जगह छोड़ दी जाती है, जिसमें एक शब्द दूसरे से मिल न जाय। वैज्ञानिक विषयों की इबारत लिखने में कुछ कठिनता होती है, क्योंकि टेढ़ी-मेढ़ी संज्ञाएँ, रेखाएँ और शकलें इस बिंदु-मालिका के द्वारा नहीं बनाई जा सकतीं। परंतु अंधों के लिये विज्ञानवेत्ता या शास्त्री होने को अभी वैसी ज़रूरत भी नहीं है। अभी तो उनके लिये ऐसी किताबों की ज़रूरत है, जिनसे उनका मनोरंजन हो, और जिन्हें पढ़कर वे अपना समय अच्छी तरह काट सकें, और साथ-ही-साथ अपने ज्ञान की भी कुछ वृद्धि कर सकें। इस बिंदु-वर्णावली में इबारत लिखने के लिये एक ख़ास क़िस्म का ढाँचा दरकार होता है। उसी पर काग़ज लगा दिया जाता है। अंधे उसे बड़ी सफ़ाई से लिख लेते हैं। कितनी ही पढ़ी-लिखी स्त्रियाँ इस वर्णावली में किताबें लिख-लिखकर अंधों को नज़र करती हैं।

ब्रेली की बनाई हुई इस नई बिंदु-माला का प्रचार इंगलैंड में हुए अभी बहुत दिन नहीं हुए। १८७२ ईस्वी में डॉक्टर आरमिटेज [ १३९ ] नाम के एक विद्वान् ने इसका पहलेपहल प्रचार किया। परंतु इसका अब इतना प्रचार हो गया है कि इसकी बदौलत आजकल हजारों अंधे वहाँ शिक्षा पा रहे हैं। अंधों के लिये कितने ही स्कूल खुल गए हैं। यही नहीं, किंतु एक पुस्तकालय भी है। उसे कुमारी पार्था आरनल्ड-नामक एक जन्मांध स्त्री ने, कुमारी हाउडन-नामक एक अन्य स्त्री की सहायता से, स्थापित किया था। इसकी स्थापना हुए लगभग २५ वर्ष हुए। अब यह लंदन के वेज़वाटर-नामक मुहल्ले में है। इस पुस्तकालय का वर्णन नारो अलेगजांडर नाम की एक स्त्री ने, एक अँगरेज़ी सामयिक पुस्तक में, बड़ी ही मनोरंजक रीति से किया है। इस पुस्तकालय की सरपरस्त इंगलैंड के राजकुल की एक महिला महोदया हैं। इसमें जो पुस्तकें हैं, वे अंधों को पढ़ने के लिये दी जाती हैं।

अँगरेज़ी की जो पुस्तकें अंधों को लिये तैयार की जाती हैं, उन्हें पहले आँखवाले आदमी को अंधों की लिपि में नक़ल करना पड़ता है। इसके बाद उनकी जितनी कापियाँ दरकार होती हैं, उतनी अंधे कर लेते हैं। पहली कापी आँखवाले किसी आदमी को ज़रूर करनी पड़ती है। सुनते हैं, अंधों पर कृपा करके जो लोग इस तरह की पुस्तकें नक़ल करते हैं, उनको यह काम बुरा नहीं मालूम होता। वे इसे बड़े चाव से करते हैं। ज़रा अभ्यास भर उनको हो जाना चाहिए। फिर अंध-लिपि में पुस्तकें नक़ल करने में उनका जी नहीं ऊबता। उससे उलटा उनका मनोरंजन होता है। [ १४० ] अंध-लिपि में पुस्तकें नक़ल करने में जगह बहुत खर्च होती है। अँगरेज़ी के छोटे-छोटे पाँच-पाँच, छ-छ आने के जो उपन्यास बिकते है, उनकी नक़ल करने में एक-एक पुस्तक की आठ-आठ, दस-दस जिल्दें हो जाती हैं। और, जिल्द भी छोटी नहीं—११ इंच चौड़ी और १४ इंच लंबी। बाइबिल की जो नक़ल इस लिपि में की गई है, उसकी ३५ जिल्दें हुई हैं, गिबन नाम के प्रसिद्ध इतिहासकार ने रोम का जो इतिहास अँगरेज़ी में लिखा है, वह ५० जिल्दों में समाप्त हुआ है। शेक्सपियर के नाटकों की कापी करने में भी इतनी ही जिल्दें लिखनी पड़ी हैं।

अंध-लिपि में लिखी गई एक जिन्द में ७५ पन्ने रहते हैं, और उसकी क़ीमत कोई ११ रुपए होती है। ऐसो एक जिल्द की नक़ल करने के लिये कोई ८ रुपए लिखाई दी जाती है। यह काम अक्सर अंधे ही करते हैं, और खासा रुपया कमाते हैं। बाक़ी के तीन रुपए काग़ज और जिल्द-बँधाई वगैरह में खर्च होते हैं। इस प्रकार गिबन के रोमन-इतिहास की क़ीमत कोई साढ़े पाँच सौ रुपए होती है। ऐसी क़ीमती किताबें बेचारे अंधों को सहज में मिलना मुश्किल बात है। इसी मुश्किल को दूर करने के लिये हैम्सटेड में पुस्तकालय खोला गया था। इस पुस्तकालय की कुछ ही दिनों में इतनी तरक़्क़ी हुई कि इसके लिये एक बहुत बड़ी जगह दरकार हुई, और हैम्सटेड से उठाकर उसे वेज़-वाटर-नामक स्थान को लाना पड़ा। इस समय कोई ८००० जिल्द पुस्तकें उसमें विद्यमान हैं। प्रतिवर्ष कम-से-कम ५०० [ १४१ ] नई जिल्दें उसमें रक्खी जाती हैं। ग्रेट-ब्रिटेन में सब मिलाकर ३८,००० अंधे हैं। उनमें से ५०० अंधे इस पुस्तकालय के मेंबर हैं। और, कोई एक सौ आदमी अंध लिपि में पुस्तकें नकल करने में लगे हुए हैं। जो लोग इस पुस्तकालय के मेंबर होते हैं, उन्हें साल में ३० रुपए के क़रीब चंदा देना पड़ता है। हरएक मेंबर एक महीने में ८ जिल्द पुस्तकें पा सकता है। परंतु जो मेंबर बहुत ग़रीब हैं, उनके लिये चंदे का निर्ख ४ रुपए साल तक कम कर दिया गया है। ग़रीब अंधे ४ रुपए साल देने से महीने में ४ जिल्दें पढ़ने के लिये पाते हैं।

इँगलैंड में अंधों के लिये स्त्रियाँ अक्सर पुस्तकें नकल करती हैं। इसे वे पुण्य का काम समझती हैं। और, सचमुच ही यह पुण्य का काम है। धन-संपन्न विलायती स्त्रियों को हास-विलास, घूमने-फिरने और नाच-तमाशा देखने या दावत उड़ाने के सिवा और काम बहुधा कम रहता है। अतएव उनमें से जो परोपकार करना और दीन-दुखियों को सहायता देना चाहती हैं, वे अंधों की मदद करती हैं। वे अच्छी-अच्छी पुस्तकें नक़ल करके अंधों के पुस्तकालय में रखने के लिये भेजती हैं। प्रतिदिन सिर्फ़ दो घंटे इस काम में खर्च करने से एक साल में चार-पाँच जिल्दों की एक खासी पुस्तक नक़ल हो जाती है। अंध-लिपि सीखने में न बहुत समय दरकार है और न बहुत मेहनत। कुछ ही हफ़्ते थोड़ा-थोड़ा अभ्यास करने से लोग इस लिपि में अच्छी तरह पुस्तकें नक़ल करने लगते हैं। [ १४२ ] अंधों में शिक्षा की अब इतनी उन्नति हो गई है कि उन्होंने दो साप्ताहिक समाचार-पत्र निकालने शुरू किए हैं। एक का नाम है 'वीकली समरी', दूसरे का 'ब्रेली वीकली'। इनके संपादक, लेखक और समाचारदाता सब अंधे ही हैं। वर्तमान राजनीतिक, सामाजिक और धार्मिक विषयों में इँगलैंड और अमेरिका के सामयिक पत्रों और पत्रिकाओं में जो उत्तमोत्तम लेख निकलते हैं, वे काटकर अलग एक पुस्तक में रक्खे जाते हैं। फिर वह पुस्तक अंध-लिपि में नक़ल की जाती है। और अंधों के पुस्तकालय में रक्खी जाती है। उसे अंधे बड़े चाव से पढ़ते हैं, और दुनिया में क्या हो रहा है, इसे अच्छी तरह जानकर अपने समाचार-पत्रों में अपने विचार प्रकट करते हैं, मुख्य-मुख्य बातों की आलोचना करते हैं, और कभी-कभी ऐसे-ऐसे लेख निकालते हैं, जिन्हें पढ़कर चक्षुष्मान् आदमियों को आश्चर्य होता है। अंधों ने इँगलैंड में एक क्लब भी स्थापित किया है। उसके मेंबर, अमेरिका और योरप के भिन्न-भिन्न देशों में रहनेवाले अंधों से 'एस्परांटो' भाषा में पत्र-व्यवहार करते हैं। अंधों पर कनाडा, आस्ट्रेलिया और अमेरिका की गवर्नमेंटों की विशेष कृपा है। इन देशों में अंधों के पत्र आदि डाक द्वारा मुफ़्त भेजे जाते हैं।

अंधों को संगीत से स्वभाव ही से कुछ अधिक प्रेम होता है। यह बात हमने इस देश के अंधों में भी देखी है। कई अंधों को हमने बहुत अच्छा तबला और सितार बजाते और गाते देखा [ १४३ ] है। अंधों की इस स्वाभाविक शक्ति को उत्तेजना देने के लिये इंगलैंड में संगीत की भी पुस्तकें अंध-पुस्तकालय में रक्खी जाती हैं। इस कला में तो कोई-कोई अंधे आँखवाले आदमियों को भी मात करते हैं। विलायत में कुमारी लूकस नाम की एक जन्मांध स्त्री है। वह संगीत में बहुत ही प्रवीण है। कुछ दिन हुए, एक पाठशाला में संगीताध्यापक की जगह खाली हुई। उसके लिये अनेक पुरुष उम्मेदवारों ने अर्ज़ियाँ दी। कौन उस जगह के लिये अधिक योग्य है, इसकी जाँच के लिये सबकी परीक्षा हुई। परीक्षा का फल यह हुआ कि कुमारी लूकस का नंबर सबसे ऊँचा आया। अतः वह जगह उसी को मिली।

अंधों का स्पर्श-ज्ञान जैसे बहुत बढ़ा-चढ़ा होता है और उनके अंधेपन की थोड़ी-बहुत कसर उससे निकल जाती है, वैसे ही उनकी स्मरण-शक्ति भी विलक्षण होती है। विवेचना-शक्ति भी उनकी बहुत सूक्ष्म होती है। अँगरेज़ी में डिकिंस के उपन्यास प्रसिद्ध हैं। एक दफ़े एक अंधा इनमें से एक उपन्यास नक़ल कर रहा था। उसमें एक जगह लिखा था कि उपन्यास का नायक एक शहर में जून के महीने में शाम को अपनी मा से बातचीत कर रहा था। परंतु दो-तीन अध्यायों के बाद उसी के विषय में फिर उसे यह लिखा हुआ मिला कि एक हफ़्ते वहाँ रहकर जून की दूसरी तारीख को वह अन्यत्र चला गया। इसे पढ़कर अंधा फ़ौरन बोल उठा कि यह तारीख ग़लत है। जून का एक हफ़्ता एक जगह व्यतीत करके उसी महीने की दूसरी [ १४४ ] तारीख़ को वह मनुष्य अन्यत्र नहीं पहुँच सकता! इस पुस्तक की सैकड़ों आवृत्तियाँ छप चुकी हैं। परंतु तब तक उसके प्रकाशकों में से किसी का भी ध्यान इस ग़लती की तरफ़ नहीं गया। इस पुस्तक को लाखों आदमियों ने पढ़ा होगा। परंतु, संभव है, किसी पढ़ने वाले को भी यह ग़लती न खटकी हो। खटकी एक अंधे को!

अंधों को शिक्षा देना बड़े पुण्य का काम है। क्या कभी वह दिन भी आवेगा, जब इस देश के अंधों को भी पढ़ाने-लिखाने का यथेष्ट प्रबंध होगा?

दिसंबर, १९०६