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अद्भुत आलाप/१७—पाताल-प्रविष्ट पांपियाई-नगर

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अद्भुत आलाप
महावीर प्रसाद द्विवेदी

लखनऊ: गंगा ग्रंथागार, पृष्ठ १३० से – १३५ तक

 

१७—पाताल-प्रविष्ट पांपियाई-नगर

किसी समय विसूवियस पहाड़ के पास, इटली में, एक नगर पांपियाई नाम का था। रोम के बड़े-बड़े आदमी इस रमणीय नगर में अपने जीवन का शेषांश व्यतीत करते थे। हरएक मकान चित्र-कारियों से विभूषित था। इंद्र-धनुष के समान तरह-तरह के रंगों से रँगी हुई दूकानें नगर की शोभा को और भी बढ़ा रही थीं। हर सड़क के छोर पर छोटे-छोटे तालाब थे, जिनके किनारे भगवान् मरीचिमाली के उत्ताप को निवारण करने के लिये यदि कोई पथिक थोड़ी देर के लिये बैठ जाता था, तो उसके प्रानंद का पार न रहता था। जब लोग रंग-बिरंगे कपड़े पहने हुए किसी स्थान पर जमा होते थे, तब बड़ी चहल-पहल दिखाई देती थी।

कोई-कोई संगमरमर की चौकियों पर, जिन पर धूप से बचने के लिये पर्दे टँगे हुए थे, बैठे दिखाई पड़ते थे। उनके सामने सुसज्जित मेजों पर नाना प्रकार के स्वादिष्ट भोजन रक्खे जाया करते थे। गुलदस्तों से मेज़ें सजी रहती थीं। यह कहना अत्युक्ति न होगा कि वहाँ का छोटे-से-छोटा भी मकान सुसज्जित महलों का मान भंग करनेवाला था। वहाँ का झोपड़ा भी महल नहीं स्वर्ग था। यहाँ पर हम केवल एक ही मकान का थोड़ा-सा हाल लिखते हैं। उससे ज्ञात हो जायगा कि पांपियाई उस समय उन्नति के कितने ऊँचे शिखर पर आरूढ़ था। पांपियाई में घुसते ही एक मकान दृष्टिगोचर होता था। उसकी बाहरी दालान रमणीय खभों की पंक्ति पर सधी हुई थी। दालान के भीतर घुसने पर एक बड़ा लंबा-चौड़ा कमरा मिलता था। वह एक प्रकार का कोश-गृह था। उसमें लोग अपना-अपना बहुमूल्य सामान जमा करते थे। वह सामान लोहे और ताँबे के संदूक़ों में रक्खा रहता था। सिपाही चारो तरफ़ पहरा दिया करते थे। रोमन देवताओं की पूजा भी इसी में हुआ करती थी। इस कमरे के बराबर एक और भी कमरा था। उसमें मेहमान ठहराए जाते थे। उसी में कचहरी थी। इससे भी बढ़कर एक गोल कमरा था। उसके फ़र्श में संगमरमर और संगमूसा की पच्चीकारी का काम था। दीवारों पर उत्तमोत्तम चित्र अंकित थे। इस कमरे में पुराने इतिहास और राज्य-संबंधी काग़ज़ात रहते थे। यह कमरा बीच से लकड़ी के पर्दो से दो भागों में बँटा हुआ था। दूसरे भाग में मेहमान लोग भोजन करते थे।

इसके बाद देखनेवाला यदि दक्षिण की तरफ़ मुड़ता, तो एक और बहुत बड़ा सजा हुआ कमरा मिलता। उसमें सोने का प्रबंध था। कोचें बिछी हुई थीं। उन पर तीन-तीन फ़ीट ऊँचे रेशमी गद्द पड़े रहते थे। इसी कमरे में, दीवार के किनारे-किनारे, अलमारियाँ लगी थीं। उनमें बहुमूल्य रत्न और प्राचीन काल की अन्यान्य आश्चर्य-जनक चीज़ें रक्खी रहती थीं।

इस मकान के चारो तरफ़ एक बड़ा ही मनोहारी बाग़ीचा था। जगह-जगह पर फ़व्वारे अपने सलिल-सीकर बरसाते थे। उनकी बूँदें बिल्लौर के समान चमकती हुई भूमि पर गिर-गिर-कर बड़ा ही मधुर शब्द करती थीं। फ़व्वारों के किनारे-किनारे माधवी-लताएँ कलियों से परिपूर्ण शरद् ऋतु की चाँदनी का आनंद देती थीं। फ़व्वारों के कारण दूर-दूर तक की वायु शीतल रहती थी। जहाँ-तहाँ सघन वृक्षों की कुंजें भी थीं।

आगे चलकर गर्मियों में रहने के लिये एक मकान था, जिसे हम मदन-विलास कह सकते हैं। पाठक, कृपा करके इसके भी दर्शन कर लीजिए। इसकी भी सजावट अपूर्व थी। इसमें जो मेज़ें थीं, वे देवदारु की सुगंधित लकड़ी की थीं। उन पर चाँदी-सोने के तारों से तारकशी का काम था। सोने-चाँदी की रत्न-जटित कुर्सियाँ भी थीं। उन पर रेशमी झालरदार गद्दियाँ पड़ी हुई थीं। कभी-कभी मेहमान लोग इसमें भी भोजन करते थे। भोजनोपरांत वे चाँदी के बर्तनों में हाथ धोते थे। इसके बाद बहुमूल्य शराब, सोने के प्यालों में, उड़ती थी। पानोत्तर माली प्रसून-स्तवक मेहमानों को देता था, और सुमन-वर्षा होती थी। अंत में नृत्य प्रारंभ होता था। इसी गायन-वादन के मध्य में इत्र-पान होता था, और गुलाब-जल की वृष्टि होती थी। ये सब बातें अपनी हैसियत के मुताबिक़ सभी के यहाँ होती थीं। त्योहार पर तो सभी ऐसा करते थे।

एक दिन कोई त्योहार मनाया जा रहा था। वृद्ध, युवा, बालक, स्त्रियाँ, सभी आमोद-प्रमोद में मग्न थे। इतने में अंक-स्मात् विसूवियस से धुआँ निकलता दिखाई दिया। शनैः शनैः धुएँ का ग़ूबार बढ़ता गया। यहाँ तक कि तीन घंटे दिन रहे ही चारो ओर अंधकार छा गया। सावन-भादों की काली रात-सी हो गई। हाथ को हाथ न सूझ पड़ने लगा। लोग हाहाकार मचाने और त्राहि-त्राहि करने लगे। जान पड़ा कि प्रलय आ गया। जहाँ पहले धुआँ निकलना शुरू हुआ था, वहाँ से चिनगारियाँ निकलने लगीं। लोग भागने लगे। परंतु भागकर जाते भी तो कहाँ? ऐसे समय में निकल भागना नितांत असंभव था। अँधेरा ऐसा घनघोर था कि भाई बहन से, स्त्री पति से, मा बच्चों से बिछुड़ गई। हवा बड़े वेग से चलने लगी। भूकंप हुआ। मकान धड़ाधड़ गिरने लगे। समुद्र में चालीस-चालीस गज़ ऊँची लहरें उठने लगीं। वायु भी गर्म मालूम होने लगी, और धुआँ इतना भर गया कि लोगों का दम घुटने लगा। इस महाघोर संकट से बचने के लिये लोग ईश्वर से प्रार्थना करने लगे। पर सब व्यर्थ हआ।

कुछ देर में पत्थरों की वर्षा होने लगी, और जैसे भादों में गंगाजी उमड़ चलती हैं, वैसे ही गरम पानी की तरह पिघली हुई चीज़ें ज्वालामुखी पर्वत से बह निकलीं। उन्होंने पांपियाई का सर्वनाश आरंभ कर दिया। मेहमान भोजन-गृह में, स्त्री पति के साथ, सिपाही अपने पहरे पर, क़ैदी क़ैदखाने में, बच्चे पालने में, दूकानदार तराज़ू हाथ में लिए ही रह गए। जो मनुष्य जिस दशा में था, वह उसी दशा में रह गया।

मुद्दत बाद, शांति होने पर, अन्य नगर-निवासियों ने वहाँ आकर देखा, तो सिवा राख के ढेर के और कुछ न पाया। वह राख का ढेर खाली ढेर न था; उसके नीचे हज़ारों मनुष्य अपनी जीवन-यात्रा पूरी करके सदैव के लिये सो गए थे।

हाय, किस-किसके लिये कोई अश्रु-पात करे! यह दुर्घटना २३ अगस्त, ७९ ईस्वी की है। १९४५ वर्ष बाद जो यह जगह खोदी गई, तो जो वस्तु जहाँ थी, वहीं मिली।

यह प्रायः सारा-का-सारा शहर पृथ्वी के पेट से खोद निकाला गया है। अब भी कभी-कभी इसमें यत्र-तत्र खुदाई होती है, और अजूबा अजूबा चीज़ें निकलती हैं। पांपियाई मानो दो हज़ार वर्ष के पुराने इतिहास का चित्र हो रहा है। दूर-दूर से दर्शक उसे देखने जाते हैं।

ऑक्टोबर, १९११