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अयोध्या का इतिहास/उपसंहार/(क) अयोध्या में सोलंकी राजा

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प्रयाग: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ १८२ से – १८६ तक

 

 

उपसंहार (क)
अयोध्या के सोलङ्की राजा

सोलङ्की जिन्हें इक्षिण में चालूक्य और चौलूक्य कहते हैं साधारणतः अग्निकुल कहलाते हैं जिनकी उत्पत्ति आबू पर्वत पर वसिष्ठ के अग्निकुण्ड से हुई थी। परन्तु रायबहादुर महामहोपाध्याय पंडित गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने अपने सिरोहीराज के इतिहास में लिखा है कि सोलङ्की अयोध्या से पहिले दक्षिण को गये और इसके प्रमाण में हमारा ध्यान एक संस्कृत और पुराने कनाडी दानपत्र पर आकर्षित किया है जो इंडियन ऐन्टीक्वेरी[] में छपा है। यह दानपत्र शाका ९४४ (ई॰ सन् १०२२-२३) के पीछे का है। और इसका दाता राज-राज द्वितीय है जिसका उपनाम विष्णुवर्द्धन भी था। राज-राज द्वितीय भाद्र मास की कृष्ण द्वितीया को बृहस्पति के दिन सिंहासन पर बैठा जब कि सूर्य सिंहराशि में था। इस दानपत्र में राजा राजराज ने गुढ्ढवाड़ी विषय में कोरू मिल्ली गाँव भारद्वाज गोत्र और आपस्तम्ब सूत्र के ब्राह्मण चीड़मार्य को दान किया था। हम आगे उस दानपत्र के कुछ श्लोक उद्धृत करते हैं।

ॐ श्रीधाम्नः पुरुषोत्तमस्य महतो नारायस्यप्रभो।

र्नाभीपङ्करहाद्बभूव जगतः स्रष्टा स्वयंभूस्ततः॥
जक्षे मानस सूनु रत्रिरिति यः तस्मान्मुने रत्रितः।
सोमो वंशकरस् सुधांशुरुदितः श्रीकंठ चूड़ामणिः॥
तस्मादासीत् सुधासूते र्बुधो बुधनुतस्ततः।

जातः पुरूरवा नाम चक्रवर्ती सविक्रमः॥

तस्मादायुरयुषो नहुषः ततो य (या) तिश्चक्र-
वर्ती वंशकर्ता ततः पूरुरिति चक्रवर्ती।
ततो जन्मेजयोऽश्वमेध[] त्रितयस्य कर्ता,
ततः प्राचिश[] स्तस्मात् सैन्ययातिः[] ततो।
हयपति (:) ततस्सार्वभो (भौ) मस्ततो,
जयसेनः ततो महाभौमः तस्माद्देशानकः।
ततः क्रोधाननः ततो देवकिः देवके रिभुका:,
तस्माद् ऋक्षकः। ततो मतिवर [] स्संत्र्याग।
याजी सरस्वतीनदीनाथः ततः कात्याय-
नः कात्यायनान्नीलः ततो दुष्यन्तः तत।
श्रार्यो गङ्गायमुनातीरे यद् विम्च्छन्नान्नि खाय,
यूपान् ऋमशः कृत्वा तथाश्व मेधा (म) नामा।
महाकर्म भरत इति यो लभत। ततो भरताद्भू-
मात्युः तस्मात् सुहोत्रः ततो [] हस्ती ततो।
विरोचनः तम्मादजामिलः ततस्संवरणः,
तस्य च तपनसुताया तपत्याश्च सुधन्वा।
ततः परीक्षित् ततो भीसलेनः ततः प्रदी-
पनः तस्माच्छान्तनुः ततो विचित्रवीर्यः।
ततः पाण्डुराजः ततः आर्यापुत्रास्तस्य,
धर्मराज भीमार्जुन नकुल सहदेवाः पञ्चेन्द्रियवत्।

 

पञ्चस्युर्विषयप्रहिण स्तत्र,[]
येनादाहि विजित्य खाण्डव मठे गाण्डीविना वज्रिणम्।
युद्धेपाशुपतास्त्र मन्धकरिपोश्चालाभि दैत्यानबहून्,
इन्द्रार्द्धासनमध्यरोहि जयिना यत् कालिकेयादिकान्।
हत्वास्वैरमकारि वंशविपिनच्छेदः कुरूणां विभोः,
ततोऽर्जुनादभिमन्युः तत परीक्षितः ततो जम्मेजयः।
ततः क्षेमकः ततो नरवाहनः ततः शतानीकः तस्मादुदयनः,
ततः परम् तत् प्रभृतिष्वविच्छिन्न संतानेष्वयो।
भ्या सिंहासनमासीनेष्व एकाद्नषष्टि चक्रवर्तिषु,
तवंश्यो विजयादित्यो नाम राजा प्रविजिगीषया।
दक्षिणापथं गत्वा[] त्रिलोचनपल्लवमधिक्षिप्य,
दैव दुरीहया लोकान्तरमगमत्।. . . .


अपिच सूर्यान्यये सुरपति प्रतिमः प्रभावः,
श्री राजराज इतियो जगतिव्यराजत्।
नाथः समस्त नरनाथकिरीट कोटि-
रत्नप्रभा पटलपाटलपादपीठः।

(अनुवाद)

"श्रीधाम पुरुषोत्तम नारायण के नाभी कमल से स्वयंभू ब्रह्मा का जन्म हुआ। उनसे मानस पुत्र अत्रिजन्मे। उन मुनि से चन्द्र की उत्पत्ति हुई जिससे चन्द्रवंश चला। उस अमृत के उत्पन्न करनेवाले चन्द्र से बुध हुआ, जिसे देवता नमस्कार करते हैं। उससे चक्रवर्ती वीर पुरूरवा का जन्म हुआ। उसका बेटा आयुष, उसका नहुप्, उससे चक्रवर्ती ययाति हुआ जिससे अनेक वंश चले। उससे पूरु चक्रवर्ती हुआ। उसका बेटा जन्मेजय हुआ जिसने तीन अश्वमेध यज्ञ किये, उससे प्राविश, उससे सैन्ययाति, उससे हयपति, उससे सार्वभौम, उससे जयसेन, उससे महाभौम, उससे देशानक हुश्रा। उससे क्रोधानन, उससे देवकि, उससे त्ररभुक, उससे त्ररक्षक, उससे सत्रयाग करनेवाला मतिवर, जो सरस्वती नदी का स्वामी था, उससे कात्यायन हुश्रा। कात्यायन से नील, नील से दुष्यन्त हुआ। उसका पुत्र भरत हुश्रा जिसने गंगा यमुना के किनारे अविच्छिन्न यूप गाड़ कर यज्ञ किये। भरत से भूमान्यु, उससे सुहोत्र उससे हस्ति हुआ। उससे विरोचन, उससे अजामिल, उससे संवरण, उससे और तपन की बेटी तपनी से सुधन्वा, उससे परीक्षित उससे भीमसेन, उससे प्रदीपन, उससे शान्तनु, उससे विचित्रवीर्य हुआ। उससे पाण्डुराज, उससे धर्मराज, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव, पाँच इन्द्रियों के समान पाँच विषयों[] के ग्रहण करनेवाले हुये।

गांडीव धनुष धारण करनेवाले अर्जुन ने खाण्डव बन जला दिया, और अन्धक रिपु इन्द्र से पाशुपत अस्त्र पाकर बहुत से दैत्य मारे, और इन्द्र के साथ आधे आसन पर बैठा जिसने कालिकेय आदि को जीतकर कौरवों का वंश नष्ट कर दिया।

अर्जुन का बेटा अभिमन्यु हुआ, अभिमन्यु का परीक्षित, परीक्षित से जन्मेजय, उससे क्षेमक, उससे नरवाहन, उससे शतानीक, उससे उदयन। “उसके पीछे उसकी अविच्छिन्न सन्तान कम साठ पीढ़ी तक अयोध्या के सिंहासन पर विराजी। उसी कुल का विजयादित्य नाम राजा दिग्विजय की इच्छा से दक्षिणापथ को गया, वहाँ उसने त्रिलोचन पल्लव पर चढ़ाई की और मारा गया . . .।"

इसके बाद दानपत्र में लिखा है कि विजयादित्य की रानी के गर्भ था। रानी की एक ब्राह्मण ने रक्षा की, पुत्र उत्पन्न हुआ। बड़े होने पर पुत्र ने जिसका नाम विष्णुवर्द्धन था। कदंबों और गान्धों को जीत लिया, और नर्मदा से सेतु तक का राजा बन बैठा। इसके बाद विमलादित्य तक पूर्वीय चालुक्य राजाओं के नाम गिनाये गये हैं।

तब सूर्यवंशी राज राजप्रभाव में इन्द्र के समान पृथिवी पर राजा हुआ जिसके पाद पीठ पर सारे राजाओं के मुकुटों के रत्नों की ज्योति पड़ती थी।

उसका बेटा बड़ा प्रतापी राजेन्द्र चोल था। राजेन्द्र चोल की बहिन विमलादित्य को ब्याही थी।

इससे निकलता है कि चोलराजा सूर्यवंशी थे। इस दानपत्र में सोलंकियों को ५९ पीढ़ी तक अयोध्या में राज करना लिखा है।

इसकी पुष्टि बिल्हणकृत विक्रमाङ्कदेवचरित के निम्नलिखित श्लोकों से होती है।

प्रसाध्य तं रावणमध्युवास यां मैथिलीशः कुलराजधानीम्।
ते क्षत्रिया स्तामवदातकीर्ति पुरीमयोध्यां विदधुनिवासम्॥
जिगीषवः कोपि विजित्य विश्वं विलास दीक्षा रसिकाः क्रमेण।
चक्रुः पदं नागरखंडचुम्बि पूगगुमायां दिशि दक्षिणस्याम्॥

"जिस अयोध्यापुरी को सँवार कर श्री रामचन्द्र जी रावण को मारकर रहे थे उसी में (चालुक्य) क्षत्रिय जा कर बस। वहाँ एक पुरुष विश्व को जीत कर दक्षिण देश में आये।"

परन्तु इन लेखों से यह पता नहीं चलता कि अयोध्या में सोलंकी राज कब रहा। इसकी जाँच आगे की खोज से विद्वान कर सकेगे। इसी से हमने यह प्रसंग उपसंहार में रख दिया है।

  1. Indian Antiquary, Vol, XIV, pp. 50 55.
  2. जन्मेजय प्रथम।
  3. प्राचिन्वत और वंशावली के अनुसार।
  4. आगे के अनेक नाम और वंशावलियों में नहीं हैं।
  5. मतिनर।
  6. अभिमन्यु की जगह भूमन्यु कहीं कहीं है।
  7. इस वंशावली में वंश के राजाओं का क्रम सूचित नहीं होता।
  8. सूर्यवंशी दक्षिण में कब गये इसका पता नहीं लगता।
  9. विषय का अर्थ देश का एक भाग भी है।