अयोध्या का इतिहास/उपसंहार/(च) हनूमान्

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उपसंहार (च)
हनूमान

हनूमानजी श्रीरघुनाथ जी के परमभक्त बड़े वीर और बड़े ज्ञानी थे। इनके जन्म की कथा वाल्मीकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड में यों लिखी है कि जब सीताजी की खोज करते-करते वानरसेना समुद्र-तट पर पहुंची तो अथाह जल देख कर सब घबरा गये। अङ्गद ने धीरज धरके उनसे कहा कि यह समय विक्रम का है विषाद का नहीं। विषाद से पुरुष का तेज नष्ट हो जाता है और तेजह़ीन पुरुष का कोई काम सिद्ध नहीं होता। तुम लोग हमें यह बताओ कि तुममें से कौन वीर समुद्र फाँद सकता है? इस पर अनेक वानर बोल उठे किसी ने कहा कि हम तीस योजन फाँद सकते हैं, किसी ने कहा चालीस योजन; जाम्बवान ने नव्वे योजन फाँदने का बल बताया। इस पर अङ्गद ने कहा कि समुद्र की चौड़ाई सौ योजन है, सो हम फाँदने को तो फाँद जायँगे किन्तु यह निश्चय नहीं है कि लौट भी सकेंगे। जाम्बवान् बोला कि आप सब के स्वामी हैं, आप को न जाना चाहिये। इस पर अङ्गद ने उत्तर दिया कि न हम जायँ और न कोई जाय तो हम लोगों को यहीं मर जाना चाहिये, क्योंकि सुग्रीव की आज्ञा है कि बिना सीताजी की खोज लगाये हमको मुँह न दिखाना। जब यह बातें हो रही थीं तो हनूमानजी एकान्त में चुप बैठे थे। जाम्बवान ने कहा कि तुम चुप-चाप क्यों बैठे हो? तुम्हारी भुजाओं में इतना बल है जितना गरुड़ के पंखों में है। तुम्हारी माता अञ्जना पहिले पुञ्जिकस्थला-नाम अप्सरा थीं; वह ऋषि के शाप के कारण वानर हो गई और कुञ्जर नाम वानर-श्रेष्ठ के घर में जन्मी; उनका विवाह केशरी के साथ हुआ था। एक बार वर्षा ऋतु में वह एक पहाड़ पर घूम रही थीं कि पवन ने उनका अञ्चल [ २१० ]उड़ा दिया। अञ्जना ने कहा कि हमारा पतिव्रत-धर्म कौन नष्ट करना चाहता है? इस पर पवन ने उत्तर दिया कि तुम्हारा पतिव्रत-धर्म भङ्ग न होगा। हमारे संसर्ग से तुम महासत्व, महातेजस्वी और महापराक्रमी पुत्र जनोगी। वही पुत्र तुम हो। जब तुम बालक ही थे, तुमने वन में सूर्य्य को उदय होते ही देख कर यह समझा कि फल है, और उसके खाने को दौड़े थे। इस पर इन्द्र ने तुम्हारे ऊपर वज्र प्रहार किया और तुम्हारी बाई हनु (डाढ़) टूट गई। तब से तुम्हारा नाम हनूमान पड़ा। [१]

ब्रह्मपुराण में यह कथा विशेष विस्तार के साथ दी हुई है।

गोदावरी और फेना (पेनगङ्गा) के संगम पर एक बड़ा तीर्थ है[२] जिसमें स्नान दान करने से पुनर्जन्म नहीं होता। इस तीर्थ के अनेक नाम हैं, वृषाकपि, हनूमत, मार्जार और अब्जक। यह तीर्थ गोदावरी के दक्षिण तट पर है और इसकी कथा यह है।

"केशरी के दो स्त्रियाँ थीं, अञ्जना और अद्रिका। दोनों पहिले अप्सरायें थीं। शाप के बस अञ्जना का मुँह वानर का सा हो गया था और अद्रिका का बिल्ली का सा। दोनों अञ्जन पर्वत पर रहती थीं। एक बार अगस्त्य मुनि वहाँ पहुँचे। दोनों ने उनकी पूजा की और मुनि ने प्रसन्न हो कर दोनों को एक एक पुत्र का वर दिया। दोनों उसी पर्वत पर नाचती गाती रहीं। वहीं वायुदेव और निर्ऋतिदेव पहुँच गये। वायु के संसर्ग से अञ्जना के हनूमान पुत्र हुये और निति के संयोग से अद्रिका के अद्रि नाम पिशाचराज पुत्र हुआ। पीछे गोदावरी में स्नान करने से दोनों की शाप-निवृत्ति हुई। जहाँ अद्रि ने अञ्जना को नहलाया। उस तीर्थ का नाम प्रांजन और पैशाच पड़ा और जहाँ हनूमानजी [ २११ ]ने अद्रिका को स्नान कराया था वह मार्जार, हनूमत और बृषाकपि के नामों से प्रसिद्ध हुआ।[३]

वृषाकपि का अर्थ है जिसका संबन्ध वृषकपि से हो और वृषाकपि की कथा अध्याय १२९ में ही हुई है।

"दैत्यों का पूर्वज बड़ा बलवान हिरण्य, तपस्या के वल से देवताओं का अजेय हो गया था। उसका बेटा महाशनि भी बड़ा बली था। उसने एक युद्ध में इन्द्र को हाथी में बाँध कर अपने पिता को भेंट कर दिया। पिता ने इन्द्र को बन्द रक्खा। पीछे महाशनि ने वरुण पर चढ़ाई कर दी परन्तु वरुण देव ने उसे अपनी बेटी देकर संधि कर ली। इन्द्र के बँध जाने से देवता बहुत दुखी हुये और विष्णु से सहायता माँगी। विष्णु ने उत्तर दिया कि वरुणदेव की सहायता के बिना हम कुछ नहीं कर सकते। तब देवता वरुण के पास गये। वरुण के कहने से महाशनि ने इन्द्र को छोड़ तो दिया परन्तु उनको बहुत फटकारा और उनसे कहा कि तुम वरुण को आज से गुरु मानो। इन्द्र मुंह लटकाये अपने घर आये और इन्द्राणी से अपनी दुर्दशा कही। इन्द्राणी ने कहा कि हिरण्य हमारा चचा था तो भी हम अपने चचेरे भाई की मृत्यु का उपाय बताती हैं। तपस्या और यज्ञ से सब कुछ हो सकता है। तुम दंडकवन से शिव और विष्णु की आराधना करो, इन्द्र ने शिव की पूजा की। शिव ने कहा कि हम अकेले कुछ नहीं कर सकते। तुम विष्णु की पूजा करो। तब इन्द्र इन्द्राणी ने आपस्तम्ब के साथ गोदावरी के दक्षिण तट पर गोदावरी और फेना के संगम पर विष्णु भगवान की आराधना की। शिव और विष्णु के प्रसाद से जल में से शिव विष्णु दोनों का स्वरूप धारण किये हुये अर्थात् चक्रपाणि और शूलधर दोनों, एक पुरुष उत्पन्न हुआ। उसने [ २१२ ]रसातल में जाकर महाशनि को मारा। यह इन्द्र का प्यारा मित्र अजक वृषाकपि कहलाया।

वृषाकपि अरिन्दम का नाम अध्याय ७० में उन लोगों के साथ भी आया है जिन्होंने गोदावरीतट पर तीर्थ स्थापन किये थे।

विचारने से यह ध्वनित होता है कि वृषाकपि और हनुमन्त एक ही थे।[४] वृषाकपि का अर्थ है पुलिंग बन्दर। तो क्या हनूमान जी ऐसे ही बन्दर थे जैसे आजकल अयोध्या आदि नगरों में उपद्रव करते हैं। जो ऐसे ही थे तो क्या कारण है जो आजकल कोई बन्दर ज्ञानी नहीं निकलता?

हम तो यह समझते हैं कि हनूमान जी और उनके सैनिक दक्षिण देश के निवासी थे। आजकल के विज्ञान से यह सिद्ध होता है कि हजारों बरस पहिले दक्षिण भारत का प्रान्त अफ़्रीका से मिला हुआ था। पीछे धरती बैठ जाने से अरब सागर बन गया, अफ्रीका के हबशियों का मुंह बन्दरों से बहुत मिलता जुलता है। दोनों की चिपटी नाक, दबै मत्थे और थूथन की भांति आगे निकले हुये मुंह अब भी देखे जाते हैं। क्या इस बात के मानने में कोई आपत्ति हो सकती है कि ये वानर उन्हीं हबशियों के भाई हों जो अफ़्रीका में अब तक बसे हैं और भारत में नष्ट हो गये या वर्णसंकर होकर यहां के निवासियों में मिल गये। इसमें एक शंका हो सकती है कि रामायण के बन्दर पिंगल वर्ण थे और अफ्रीका के हबशी काले होते हैं परन्तु यह आबहवा का प्रभाव है।

अब रहा नाम हनूमन्त । जो हम यह मान लें कि हनूमान और उनके सैनिक प्राचीन द्रविड़ थे तो संभव है कि रावण की भांति हनूमान भी किसी टामिल शब्द का संस्कृत रूप हो और जब हनूमान शब्द बना तो उसकी उत्पत्ति दिखाने को इन्द्र के बज्र से दाढ़ी टूटने की कथा गढ़ी [ २१३ ]गई। इस कथा से भी यह ध्वनित होता है कि हनूमान जी पहले ऐसे कुरूप न थे। दाढ़ टूट जाने से मुँह बन्दर का सा हो गया। ऐसी ही वृषाकपि भी किसी द्रविड़ शब्द का संस्कृत अनुवाद हो सकता है क्योंकि यह तो सिद्ध ही है कि बानर गोदावरी के दक्षिण के रहनेवाले थे जहां कनाड़ी या टामील भाषा बोली जाती है। हम इस विषय में १९१३ के जर्नल रायल एशियाटिक सोसाइटी से प्रसिद्ध विद्वान मिस्टर पार्जिटर का मत उद्धृत करते हैं।

वृषा पुलिंग के लिये द्रविड़ शब्द 'आण' है और यह शब्द कन्नाड़ी और टामील और मड्यालम् तीनों भाषाओं में बोला जाता है। तिलगू में इसके बदले मग और पोटु बोलते हैं। कपि बन्दर के लिये इन चारों भाषाओं में दो शब्द हैं, १ कुरंगु, २ मंडी। बन्दरवाची शब्द कुरंगु टामील भाषा का है, शेष तीनों में कुरंग हिरन को कहते हैं। मड़यालम इस शब्द के दो रूप हैं कुरंग=हिरन, और कुरन्नु=बन्दर[५]। टामील भाषा में मंडी विशेष कर बंदरिया को कहते हैं।मड़याडम में मंडी काले मुँह के बन्दरों के अर्थ में बोला जाता है। कनाड़ी और तिलगू में मंडी संयुक्त शब्दों में हिन्दी "लोग " के अर्थ में आता है। यह अर्थ विचारने के योग्य है। कन्नाड़ी में बन्दर के लिये दो शब्द हैं, कांटि और तिम्मा और दोनों नये हैं। यह बात सर्वसम्मत है कि टामील में प्राचीन शब्द बहुत हैं।

अब आण और मंडी को मिलाने से वृषाकपि के अर्थ का द्राविड़ शब्द बन जाता है और वृषाकपि उसका संस्कृतानुवाद होता है।

आणमंडि का संस्कृत रूप हुआ हनुमंत। द्रविड़ शब्दों के संस्कृत रूप बनाने में बहुधा एक "ह" पहले जोड़ दिया जाता है। इसके कई [ २१४ ]उदाहरण मिस्टर पार्जिटर ने दिये हैं। जैसे टामील भाषा में इडुम्बी का अर्थ है "गर्बीली स्त्री"। यही नाम उस स्त्री का था जो संस्कृत में हिडिम्बा कहलाई।

आजकल हनूमान को टामील में अनुमण्डम कहते हैं जिससे प्रकट है कि टामील में संस्कृत का "ह" गिर जाता है।

इससे यह सिद्ध होता है कि श्री हनूमान दक्षिण देश के प्राचीन निवासी थे और उनका असली नाम आणमंडी था जिसका अक्षरार्थ लेकर संस्कृत में वृषाकपि[६] बनाया गया और संस्कृत रूप हनुमंत हुआ।

हम यहां इतना और कहना चाहते हैं कि प्राचीन यूरप में एक असभ्य लड़ाकी जाति बंडल (Vandal) थी जिसके आक्रमणों से रोम-साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया। बन्दर और बंडल शब्द बहुत कुछ मिलते जुलते हैं। बच्चे बहुधा बन्दर को बंडल कहते हैं।

  1. वाल्मीकीय रामायण किष्किन्धा काण्ड ६६।
  2. यह संगम अकोला के दक्षिण निज़ामराज में है।
  3. ब्राह्म पुराण अध्याय ८४।
  4. क्योंकि हनूमान के संसर्गसे वह वृषाकपितीर्थ कहलाया।
  5. बन्दर के लिये संस्कृत में शाखामृग शब्द का प्रयोग इसका उदाहरण है।
  6. आधुनिक संस्कृत में वृषाकपि के अनेक अर्थ हैं, इन्द्र, शिव, विष्णु आदि।