अयोध्या का इतिहास/उपसंहार/(छ) चन्द्रवंश-यदु वंश

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उपसंहार (छ)
चन्द्रवंश
यदुवंश

१ मनु
२ इला
३ पुरूरवस्
४ आयुष्
५ नहुष
६ ययाति
७ यदु
८ क्रोष्टु
९ वृजिनीवत
१० स्वाहि
११ रुषगु (रशादु या रशेकु)
१२ चित्ररथ
१३ शशविंदु
१४ पृथुयशस् (पृथुश्रवा)
१५ पृथुकर्मन् ( पृथुधर्मन् )
१६ पृथुञ्जय
१७ पृथुकीर्ति
१८ पृथुदान
१९ पृथुश्रवस्
२० पृथुसत्तम

[ २१६ ]

२१ अन्तर
२२ सुयज्ञ
२३ उशनस्
२७ रुक्म,
२४ सिनेयु
२५ मरुत्त
२६ कम्बलवर्हिष्
२७ रुक्म (कवच)
२८ परावृट् (पुरु १)
२९ ज्यामघ
३० विदर्भ
३१ क्रथ
३२ कुन्ति
३३ धृष्टि
३४ निर्वृति
३५ विदूरथ
३६ दशार्ह
३७ व्योमन्
३८ जीमूत
३९ विकृति
४० भीमरथ
४१ नवरथ
४२ दशरथ
४३ शकुनि
४४ करंभ
४५ देवरात
४६ देवक्षत्र

[ २१७ ]

४७ मधु
४८ कुरूवंश
४९ अनु
५० पुरुद्वत्
५१ पुरुहोत्र
५२ अंशु
५३ सत्व
५४ सात्वत
५५ अन्धक
५६ कुकुर
५७ वृष्णि
५८ धृति
५९ कपोतरोमन्
६० तिलोमन्
६१ तित्तरि
६२ तैत्तिरि
६३ नल
६४ अभिजित
६५ पुनवर्सु
६६ आहुक
६७ उग्रसेन
६८ कंस
६९ (श्री कृष्ण)

 

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नहुष का वंश[१]

२४—चन्द्रवंश में यदि आगे राजगद्दी का अधिकारी किसी का वंश हुआ तो राजकुमार नहुष का वंश हुआ। इसका विवरण इस प्रकार है।

महाराज ययाति

नहुष के छः पुत्र हुये, यति, ययाति, संयाति, आयति, वियति और कृत। इनमें से राजकुमार यति ने देखा कि पुरुष राजलक्ष्मी में पड़कर माया में फंस जाता है । वह इस आत्मा का ज्ञान नहीं कर सकता। इस कारण उसने राज्य की इच्छा ही नहीं की। उसका विवाह सूर्यवंशी राजा ककुत्स्थ की कन्या गो से हुआ। राजकुमार संयाति ब्रह्म की उपासना में लगकर उसी में मग्न हो गया। ययाति का विवाह उशना (शुक्राचार्य) की कन्या देवयानी और असुर राजा वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्टा से हुआ। देवयानी के गर्भ से यदु और तुर्वसु पैदा हुये और शर्मिष्ठा से द्रह्म्ु, अनु और पूरु पैदा हुये।

नहुष नाग

राजा नहुष स्वयं बड़े प्रतापी राजा हुये थे। उन्होंने सम्पूर्ण पृथ्वी का विजय किया।[२] उन्होंने अपने वाहुबल से इतना यश प्राप्त किया था कि देव लोगों ने भी इन्हें अपना प्रधान राजा बना कर इन्द्र का पद दे दिया। परन्तु इतना उच्चासन पाकर नहुष को मद आ गया। उन्होंने सोचा कि मैं इन्द्र के पद पर पहुँच गया हूँ, मैं इन्द्र की पत्नी शची का भी भोग करूँ। उसको लाने के लिये राजा नहुष पालकी पर सवार हो कर चले [ २१९ ]तब सप्तर्षियों ने उनकी पालकी उठाई। उनमें अगस्त्य कुछ मन्द मन्द चलते थे। उनको तेज चलाने के लिये मद में आकर नहुष ने “सर्प सर्प" कहा । बस अगस्य कुपित होकर बोले "स्वयं सर्प हो जात्रो।" इस प्रकार वह राजा अजगर हो कर स्वर्ग से गिर गया।

पुराणकार की इस कथा का एक ऐतिहासिक गूढ़ार्थ निकलता है। वह यह है कि राजा नहुष अपने वाहुबल से निःसन्देह बड़ा भारी राजा हो गया। यहां तक कि प्रसिद्ध महर्षि लोग भी उसकी सेवा करना अपना अहोभाग्य समझते थे। परन्तु उसके मदोन्मत्त हो जाने पर अगस्त्य ने उसे साम्राज्य पद से च्युत करके जंगलों में प्रवास का दण्ड दिया। वह वाधित हो कर नागवंशियों में जा मिला और नाग कहाने लगा। इस बात का प्रमाण ग्रीक इतिहासलेखक हेरोडोटस के लेख से भी मिलता है। उसने मिसर या इजिपृ के प्राचीन इतिहास में लिखा है कि वहाँ का प्राचीन राजा डायोनिसस था जो पूर्व देश से आकर रहा। वहाँ उसने बड़ी भारी विजय की और वहाँ के लोगों को जो बहुत असभ्य थे खेती बाड़ी करने तथा नगर बसाने की शिक्षा दी और सभ्य बनाया, इत्यादि। में हेरोडोटस का डायोनिसस देव नहुष ही प्रतीत होता है।

अस्तु, इस प्रकार नहुष के अजगर या नाग बनकर राज्य से भ्रष्ट हो जाने पर ययाति ही राजगद्दी पर बैठा। ययाति भी बड़ा प्रसिद्ध राजा हुआ। इस के राज्य के चिन्ह अभी तक भी भारत में विद्यमान हैं।

ययातिनगर का अवशेष

जयपुर रियासत में साम्भर झील के तट पर साम्भर नगर बसा हुआ है। वहां दो तालाब और दो मन्दिर हैं, एक शर्मिष्ठा का और दूसरा देवयानी का। वहाँ से ११ मील पर ययाति के यौवनपुर की स्थिति है। जोबरेन का ठिकाना ययाति का यौवनपुर ही है। इस नगरी का भग्नावशेष केवल एक थम्भामात्र अभी तक शेष है जो वहां के मैदान में जोबन के बिल्कुल समीप कुछ किसानों की झोपड़ी के समीप गड़ा [ २२० ]हुआ है। कहते हैं यह थम्भा प्राचीन नगर के द्वारस्थान पर है और ५०० वर्ष पूर्व यहाँ का दृश्य बहुत ही सुन्दर था। पास ही माता का मन्दिर है। यह एक पर्वत पर है। पहिले इस पर्वत से बहुत सुन्दर सुन्दर झरने निकलते थे। वहाँ का दृश्य बहुत ही रमणीक था, अब भी वह पहाड़ी कम सुन्दर नहीं। इस स्थान के पहाड़ में कई प्राचीन इमारतों के भग्नावशेष विद्यमान हैं जिनको देखने से प्रतीत होता है कि यहां पहिले विशाल भवन बने थे।[३]

दिग्विजय

रुद्रमहाराज ने भक्ति से प्रसन्न होकर राजा ययाति को अत्यन्त दिव्य प्रकाशमान सुवर्ण का रथ[४] और दो अक्षय तूणीर (तर्कस) दिये थे। इन तर्कसों में के वाण कभी समाप्त नहीं होते थे। ययाति ने उसी रथ पर चढ़कर सम्पूर्ण पृथ्वी का विजय किया। ययाति का प्रताप भी अपने पिता नहुष से कम नहीं था। देव दानव और मानव भी उसके मुकाबले पर न ठहर सके।

राजा ययाति के भोगविलास से न तृप्त होकर अपने पुत्रों से जवानी मांगने की कथा प्रसिद्ध है। संभव है कि सब से छोटा पुत्र [ २२१ ]उनका आज्ञाकारी था और उसकी मां छोटी रानी शर्मिष्ठा के आग्रह से उसे राज मिला जिसका उदाहरण रामायण में है। जांच से यह विदित होता है कि पूरु को प्रतिष्ठानपुर मिला, परन्तु यदुवंशी भी राज से वर्जित न थे।

१३—शशविन्दु सूर्यवंशी युवनाश्व का समकालीन इसकी बेटी विन्दुमती चैत्ररथी जिसके कई भाई थे, युवनाश्व १ के पुत्र मान्धाता को ब्याही थी।

३०—विदर्भ ने दक्षिण में विदर्भराज्य स्थापित किया। चेदी के राजा भी इसी के वंशज थे। इसकी बेटी अयोध्या के राजा सगर को ब्याही थी।

४७—मधु को पार्जिटर महाशय मथुरा का मधु मानते हैं।

 

  1. जयसवाल जाति के इतिहास से प्रकाशक की आज्ञा से उद्धृत।
  2. उसने दस्युनों को मारकर ऋषियों से भी कर लेना शुरू किया था और उसमें यशस्वी होकर उनसे अपनी सेवा भी कराई। देवताओं को जीतकर उसने उनका इन्द्रासन भी ले लिया। महाभारत आदिपर्व ७५।३०।
  3. मैं स्वंय इस स्थान पर १ मास रहा हूँ और सब स्थान अपनी आँखों देखे हैं। —लेखक।
  4. ययाति का रथ उसके बाद पुरुवंश के राजाओं के पास रहा और कुरुवंश की सम्पत्ति बना। यह बराबर जनमेजय तक चला आया। एक बार जनमेजय उस रथ पर चढ़कर मदमत्त होकर जा रहा था कि मार्ग में गार्ग्य नामक एक ब्राह्मण का बालक रथ के नीचे आकर कुचल गया। उसी ब्राह्मण के शाप से जनमेजय के हाथ से वह रथ निकल गया। फिर इन्द्र को प्रसन्न कर के वृहदय ने यह रथ पाया। भीम ने उसे मार कर श्री कृष्ण को वही रथ दिया। इस प्रकार वह रथ सदा धनवती राजाओं के पास रहा।