अयोध्या का इतिहास/उपसंहार/(ध) ओयूटो (अयोध्या)
उपसंहार (ध)
ओयूटो (अयोध्या)[१]
इस राज्य का क्षेत्रफल ५००० ली और राजधानी का क्षेत्रफल २० ली है। यहां पर अन्न बहुत उत्पन्न होता है तथा सब प्रकार के फल-फूलों की अधिकता है। प्रकृति कोमल तथा सह्य और मनुष्यों का आचरण शुद्ध और सुशील है। यहां के लोग धार्मिक कृत्य से बड़ा प्रेम रखते हैं, तथा विद्याभ्यास में विशेष परिश्रम करते हैं। सम्पूर्ण देश भर में कोई १०० संघाराम और ३०० साधु हैं, जो हीनयान और महायान दोनों सम्प्रदायों की पुस्तकों का अध्ययन करते हैं। कोई दस देवमन्दिर हैं जिनमें अनेक पंथों के अनुयायी (बौद्धधर्म के विरोधी) निवास करते हैं, परन्तु उनकी संख्या थोड़ी है।
राजधानी में एक प्राचीन संघाराम है। यह वह स्थान है जहां पर वसुवंधु बोधिसत्व ने कई वर्ष के कठिन परिश्रम से अनेक शास्त्र, हीनयान और महायान दोनों सम्प्रदाय-विषयक निर्माण किये थे। इसके पास ही कुछ उजड़ी पुजड़ी दीवारें अब तक वर्तमान हैं। ये दीवारें उस मकान की हैं जिसमें वसुवन्धु बोधिसत्व ने धर्म के सिद्धान्तों को प्रकट किया था तथा अनेक देश के राजाओं, बड़े आदमियों, श्रमणों और ब्राह्मणों के उपकार के निमित्त धर्मोपदेश किया था।
नगर के उत्तर ४० ली दूर गङ्गा[२] के किनारे एक बड़ा संघाराम है जिसके भीतर अशोक राजा का बनवाया हुआ एक स्तूप २०० फीट ऊंचा है। यह वह स्थान है जहां पर तथागत भगवान ने देवसमाज के उपकार के लिये तीन मास तक धर्म के उत्तमोत्तम सिद्धान्तों का विवेचन किया था। स्मारकस्वरूप स्तूप के निकट बहुत से चिह्न गत चारों बुद्धों के उठने बैठने आदि के पाये जाते हैं।
संघाराम के पश्चिम ४-५ ली दूर एक स्तूप है जिसमें तथागत भगवान् के नख और बाल रक्खे हैं। इस स्तूप के उत्तर एक संघाराम उजड़ा हुआ पड़ा है। इस स्थान पर श्रीलब्ध शास्त्री ने सौत्रान्तिक सम्प्रदायसम्बन्धी विभाषाशास्त्र का निर्माण किया था।
नगर के दक्षिण-पश्चिम ५-६ ली की दूरी पर एक बड़ी आम्रवाटिका में एक पुराना संघाराम है। यह वह स्थान है जहां असङ्ग वोधिसत्व ने विद्याध्ययन किया था। फिर भी उसका अध्ययन जब परिपूर्णता को नहीं पहुंचा तब वह रात्रि में मैत्रेय वोधिसत्र के स्थान को जो स्वर्ग में था, गया और वहां पर योगधर्म शास्त्र, महायान सूत्रालङ्कार टीका, मद्यान्त विभङ्ग शास्त्र आदि को उसने प्राप्त किया और अपने गूढ़ सिद्धान्तों को जो अध्ययन से प्राप्त हुये थे समाज में प्रकट किया।
आम्रवाटिका से पश्चिमोत्तर दिशा में लगभग १०० क़दम की दूरी पर एक स्तूप है जिसमें तथागत भगवान के नख और बाल रक्खे हैं। इसके निकट ही कुछ पुरानी दीवारों की बुनियाद है। यह वह स्थान है जहां पर वसुबन्धु बोधिसत्व तुषितस्वर्ग से उतर कर असङ्ग बोधिसत्व को मिला था। असङ्ग बोधिसत्व गन्धार प्रदेश का निवासी था। बुद्ध भगवान के शरीरावसान के पाच सौ वर्ष पीछे इसका जन्म हुआ था। तथा अपनी अनुपम प्रतिभा के बल से वह बहुत शीघ्र बौद्ध सिद्धान्तों में ज्ञानवान हो गया था। प्रथम यह महीशासक सम्प्रदाय का सुप्रसिद्ध अनुयायी था परन्तु पीछे से इसका विचार बदल गया और यह महायान समुदाय का अनुगामी बन गया। इसका भाई वसुबन्धु सर्वास्तिवाद समुदाय का सूक्ष्मबुद्धि भक्त, दृढ़विचार और अक्षम प्रतिभा के लिये उसकी बहुत ख्याति थी। असङ्ग का शिष्य बुद्धसिंह जिस प्रकार बड़ा बुद्धिमान और सुप्रसिद्ध हुआ उसी प्रकार उसके गुप्त और उत्तम चरित्रों की थाह भी किसी को नहीं मिली।
ये दोनों या तीनों महात्मा प्रायः आपस में कहा करते थे कि हम सब लोग अपने चरित्रों को इस प्रकार सुधार रहे हैं कि जिसमें मृत्यु के बाद मैत्रेय भगवान के सामने बैठ सकें। हम में से जो कोई प्रथम मृत्यु को प्राप्त हो कर इस अवस्था को पहुँचे (अर्थात् मैत्रेय के स्वर्ग में जन्म पावे) वह एक बार वहां से लौट कर अवश्य सूचना देवेगा कि हम उसका वहां पहुँचा मालूम कर सकें।
सब से पहिले बुद्धसिंह का देहान्त हुआ। तीन वर्ष तक उसका कुछ समाचार किसी को मालूम नहीं हुआ। इतने में वसुबन्धु बोधिसत्व भी स्वर्गगामी हो गया। छः मास इसको भी व्यतीत हो गये परन्तु इसका भी कोई समाचार किसी को विदित नहीं हुआ। जिन लोगों का विश्वास नहीं था वह अनेक प्रकार की बातें बना कर हंसी उड़ाने लगे कि वसुबन्धु और बुद्धसिंह का जन्म नीच योनि में हो गया होगा इसी से कुछ दैवी चमत्कार नहीं दिखाई पड़ता।
एक समय अङ्ग बोधिसत्व रात्रि के प्रथम भाग में अपने शिष्यों को बता रहे थे कि समाधि का प्रभाव अन्य पुरुषों पर किस प्रकार होता है, उसी समय अकस्मात् दीपक की ज्योति ठंढी हो गई और उसके स्थान में बड़ा भारी प्रकाश फैल गया। फिर ऋषिदेव आकाश से नीचे उतरा और मकान की सीढ़ियों पर चढ़ कर असङ्ग के निकट आया और प्रणाम करने लगा। असङ्ग बोधिसत्व ने बड़े प्रेम से पूछा कि तुम्हारे आने में क्यों देर हुई? तुम्हारा अब नाम क्या है? उत्तर में उसने कहा "मरते ही मैं तुषित स्वर्ग में मैत्रेय भगवान के भीतरी समाज में पहुँचा और वहां एक कमल के फूल में उत्पन्न हुआ। शीघ्र ही कमल पुष्प के खोले जाने पर मैत्रेय ने बड़े शब्द से मुझसे कहा, "ऐ महाविद्वान! स्वागत, हे महाविद्वान स्वागत! इसके उपरान्त मैंने प्रदक्षिणा कर के बड़ी भक्ति से उनको प्रणाम किया और फिर अपना वृत्तान्त कहने के लिये सीधा यहां चला आया। असङ्ग ने पूछा "और बुद्धसिंह कहां है?" उसने उत्तर दिया "जब मैं मैत्रय भगवान की प्रदक्षिणा कर रहा था उस समय मैंने उसको बाहिरी भीड़ में देखा था, वह सुख और आनन्द में लिप्त था। उसने मेरी ओर देखा तक नहीं फिर क्या उम्मीद की जा सकती है कि वह यहां तक अपना हाल कहने आवेगा?" असङ्ग ने कहा "यह तो तय हो गया, परन्तु अब यह बताओ कि मैत्रेय भगवान् का स्वरूप कैसा है? और कौन से धर्म की शिक्षा वह देते हैं।" उसने उत्तर दिया कि "जिहा और शब्दों में इतनी सामर्थ्य नहीं है जो उनकी सुन्दरता का बखान किया जा सके। मैत्रेय भगवान् क्या धर्म सिखाते हैं उसके विषय में इतना ही यथेष्ट है कि उनके सिद्धान्त हम लोगों से भिन्न नहीं हैं। बोधिसत्व की सुस्पष्ट बचनावली ऐसी शुद्ध कोमल और मधुर है जिसके सुनने में कभी थकावट नहीं होती और न सुननेवाले की कभी तृप्ति ही होती है।"
असङ्ग बोधिसत्व के भग्नस्थान से लगभग ४० ली उत्तर-पश्चिम चल कर हम एक प्राचीन संघाराम में पहुँचे जिसके उत्तर तरफ़ गंगा नदी बहती हैं। इसके भीतरी भाग में ईंटों का बना हुआ एक स्तूप लगभग १०० फीट ऊँचा खड़ा है। यही स्थान है जहां पर वसुबन्धु बोधिसत्व को सर्वप्रथम महायान सम्प्रदाय के सिद्धान्तों के अध्ययन करने की अभिलाषा उत्पन्न हुई थी। उत्तरी भारत से चल कर जिस समय वसुबन्धु इस स्थान पर पहुँचा उस समय असङ्ग बोधिसत्व ने अपने अनुयायियों को उससे मिलने के लिये भेजा और वे लोग इस स्थान पर आकर उससे मिले। असङ्ग का शिष्य जो बोधिसत्व के द्वार के बाहर लेटा था, वह रात्रि के पिछले पहर में दशभूमि सूत्र का पाठ करने लगा। वसुबन्धु उसको सुन कर और उसके अर्थ को समझ कर बहुत विस्मित हो गया। उसने बड़े शोक से कहा कि यह उत्तम और शुद्ध सिद्धान्त यदि पहले से मेरे कान में पड़ा होता तो मैं महायान सम्प्रदाय की निन्दा कर के अपनी जिह्वा को क्यों कलङ्कित कर पाप का भागी बनता? इस प्रकार शोक करते हुये उसने कहा कि अब मैं अपनी जिह्वा को काट डालूंगा। जिस समय छुरी लेकर वह जिह्वा काटने के लिये उद्यत हुआ उसी समय उसने देखा कि असङ्ग बोधिसत्व उसके सामने खड़ा है और कहता है कि "वास्तव में महायान-सम्प्रदाय के सिद्धान्त बहुत शुद्ध और परिपूर्ण हैं; सब बुद्धदेवों ने जिस प्रकार इसकी प्रशंसा की है उसी प्रकार सब महात्माओं ने इसको परिवर्द्धित किया है। मैं तुमको इसके सिद्धान्त सिखाऊंगा। परन्तु तुम खुद इसके तत्व को अब समझ गये हो और जब इसको समझ गये और इसके महत्व को मान गये तब क्या कारण है कि बुद्ध भगवान की पुनीत शिक्षा के प्राप्त होने पर भी तुम अपनी जिह्वा को काटना चाहते हो। इससे कुछ लाभ नहीं है ऐसा मत करो। यदि तुमको पछतावा है कि तुमने महायान सम्प्रदाय की निन्दा क्यों की तो तुम अब उसी जबान से उसकी प्रशंसा भी कर सकते हो। अपने व्यवहार को बदल दो और नवीन ढंग से काम करो यही एक बात तुम्हारे करने योग्य है। अपने मुख को बन्द कर लेने से अथवा शाब्दिक शक्ति को रोक देने से कुछ लाभ नहीं होगा।" यह कहकर वह अन्तर्ध्यान हो गया।
वसुबन्धु ने उसके बचनों की प्रतिष्ठा करके अपनी जिह्वा काटने का विचार परित्याग कर दिया और दूसरे ही दिन से असङ्ग बोधिसत्व के पास जाकर महायान सम्प्रदाय के उपदेशों का अध्ययन करने लगा। इसके सिद्धान्तों को भली भांति मना करके उसने एक सौ से अधिक सूत्र महायान सम्प्रदाय की पुष्टि के लिये लिखे जो कि बहुत प्रसिद्ध है और सर्वत्र प्रचलित हैं।
यहां से पूर्व दिशा में ३००ली चलकर गंगा के उत्तरी किनारे पर हम 'आयोमुखी' को पंहुचे।