अयोध्या का इतिहास/२— उत्तर कोशल और अयोध्या की स्थिति

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दुसरा अध्याय।
उत्तरकोशल और अयोध्या की स्थिति।

किसी जगह का इतिहास जानने से पहिले उसकी स्थिति जानना परमावश्यक है। इस लिये पुराने कोशलदेश और अयोध्या—पुरानी और नई—दोनों का कुछ वर्णन लिखते हैं।

अयोध्या उत्तरकोशल की राजधानी थी। उत्तरकोशल के नाम ही से एक दूसरे कोशल का ध्यान आता है। पाणिनि के एक सूत्र में कोसल[१] शब्द आया है।

वृद्धकोसलाजादाभ्यङ् । ४ । १ ॥ १७१ ॥

बंबई के सुप्रसिद्ध विद्वान् डाक्टर रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर ने अपनी History of the Deccan (दक्षिण के प्राचीन इतिहास) में लिखा है कि विन्ध्य पर्वत के पास के देश का नाम कोशल था। वायु-पुराण में लिखा है कि रामचन्द्र जी के पुत्र कुश कोशल देश में विन्ध्यपर्वत पर कुशस्थली या कुशावती नाम की राजधानी में राज करते थे। यही कालिदास की भी कुशावती प्रतीत होती है क्योंकि कुश को अयोध्या जाते समय विन्ध्यगिरि को पार करना पड़ता था और गङ्गा को भी:—

व्यलंघयद् विन्ध्यमुपायनानि पश्यम्पुलिन्दैरुपपादितानि।
तीर्थे तदीये गजसेतुबन्धात् प्रतीपगामुत्तरतोऽथगङ्गाम्।

—रघुवंश १६ सर्ग

रत्नावली में लिखा है कि कोशल देश के राजा विन्ध्यगिरि से घिरे हुये थे।

विन्ध्यदुर्गावस्थितस्य कोशलनृपतेः [अंक ५]

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ह्यानच्वांग भी कलिङ्ग से कोशल देश को गया था। इससे स्पष्ट है कि न केवल एक कोशल देश दक्षिण में भी था। परन्तु उसी कोशल देश का राजा पुलिकेशिन प्रथम की शरण में भी गया था। उस देश का नाम केवल 'कोशल' लिखा है।

उत्तरकोशल की भी वही दशा है। कालिदास ने उसे कई बार उत्तर-कोशल कहा है जैसे रघुवंश के पांचवें सर्ग में।'

पितुरनन्तरमुत्तरकोशलान्।

रघुवंश के दसवें सर्ग में भी :—

श्लाघ्यं दधत्युत्तरकोशलेन्द्राः।

आनन्दरामायण और तुलसीदास को दूसरे कोशल का पता ही नहीं। भागवत पुराण में उसे कोशला और उत्तर कोशला दोनों लिखा है। पंचम स्कन्ध के १९ वें अध्याय के श्लोक ८ में तथा नवम स्कन्ध के दसवें अध्याय के श्लोक ४२ में इस देश को उत्तरकोशला कहा है।

भजेत रामं भनुजाकृतिं हरिं।
य उत्तराननयत् कोशलान्दिवम्॥

धुवंत उत्सरासंगां पतिं वीक्ष्य चिरागतम्।
उतराः कोसला माल्यैः किरंतो ननृतुःमुदा॥

नवम स्कन्ध के दसवें अध्याय के बीसवें श्लोक में राम को कोशलेश्वर कहा है।

इस देश की मिथिला के सदृश अतीत काल से कोई सीमा निश्चित है। साधारणतः यह माना जाता है कि इसका प्रसार घाघरा से गङ्गा तक था। कुछ विद्वानों का मत है कि घाघरा नदी के उत्तर भाग को उत्तरकोशल कहते थे यद्यपि साकेत का फैलाव गङ्गा तक था। राम और उनके पीछे अयोध्या के कुछ गुप्तवंशीय राजाओं ने बड़े बड़े साम्राज्य पर राज किया है। राजा दिलीप के संबंध में भी कहा जाता है कि उसने पृथ्वी पर एक नगरी के समान राज किया था जिसके चारों ओर समुद्र [  ]की खाई और उत्तुङ्ग पर्वत जिसके क़िले की दीवारें थीं। श्रावस्ती कोशल देश की राजधानी थी। प्रतापगढ़ जिले के तुशारनविहार भी जिसे कर्नल वोस्ट ने साकेत कहा है कोशल देश में था।

वाल्मीकि ने का रामायण के प्रारम्भ में कोशल इस प्रकार वर्णन केया है।

कोसलो नाम विदितःस्फीतो जनपदो महान्।
निविष्टः सरयूतीरे प्रभृतधनधान्यवान्॥

अर्थात् कोशल सरयू के किनारे एक धन-धान्यवान देश था, "निविष्टं" शब्द से ज्ञात होता है कि यह देश सरयू के दोनों किनारों पर था।

कनिंघम का कहना है कि कोशल का प्राचीन देश सरयू अथवा घाघरा द्वारा दो प्रान्तों में विभक्त था; उत्तरीय भाग को उत्तर कोशल और दक्षिण भाग को बनौध कहते थे। फिर इन दोनों के और दो भाग थे बनौध में पच्छिम राठ और पूरब राठ थे और उत्तरकोशल में राप्ती के दक्षिण में गौड़ और राप्ती या जिसे अवध में रावती कहते हैं उसके उत्तर को कोशल कहते थे। इनमें से कुछ के नाम पुराणों में भी पाये जाते हैं जैसे वायुपुराण में लिखा है कि रामचन्द्र जी के पुत्र लव कोशल में राज करते थे; और मत्स्य, लिङ्ग और कूर्म पुराणों में लिखा है कि श्रावस्ती गौड़ में थी। ये परस्परविरुद्ध कथन उसी क्षण समुचित गति से समझ में आजाते हैं जब हम जानते हैं कि गौड़ उत्तरकोशल का एक भाग था और श्रावस्ती के ग्बंडहर भी गौड़ में (जिसे अब गोंडा कहते हैं,) मिले हैं। इस प्रकार अयोध्या घाघरा के दक्षिण में बनौध या अवध की राजधानी थी और श्रावस्ती घाघरा के उत्तर में उत्तरकोशल की राजधानी थी।

खानच्चांग ने इस देश की परिधि ४००० ली (६६७ मील वतलाई है। कनिंघम के कथन की हम आगे चलकर आलोचना करेंगे। [  ]अभी हमारे लिये इतना ही कहना काफी है कि कोशलराज्य की उत्तरीय सीमा हिमालय तक थी।

जब हम वा॰ रामायण अयोध्या काण्ड को देखते हैं तब हम अयोध्या के निर्माता मनु की इक्ष्वाकु की बताई हुई दक्षिणी सीमा का पता पाते है। स्यन्दिका जिसे आज-कल सई कहते हैं इस राज्य की दक्षिणी सीमा थी। यह नदी प्रतापगढ़ में बहती है और इलाहाबाद, फैजाबाद रेलवे लाइन को फैजाबाद से ६१ वें मील पर काटती है। इस प्रकार राज्य की चौड़ाई ८ योजन हो जाती है। एक योजन कुछ कम ८ मील का होता है। हमें कोई भी ऐसा प्रमाण नहीं मिला जिससे हम कनिघम के कथन का अनुमोदन कर सकें कि घाघरा के उत्तर का देश कोशल कहलाता था। सई और गङ्गा के बीच का प्रान्त बाद में मिलाया गया होगा क्योंकि वाल्मीकि ने साफ-साफ कहा है कि सई और गङ्गा के बीच के ग्राम कुछ अन्य राजाओं और कुछ निषादराज के राज्य में थे। गुह निषादराज एक स्वाधीन राजा था यद्यपि उसने कहा है कि;

नहि रामात् प्रियतरो ममास्ति भुवि कश्चनः।
से बढ़कर मेरा और कोई प्रिय नहीं है"

पूर्व और पश्चिम की सीमा निर्धारण करना उतना सुगम नहीं है। मालूम होता है कि मिथिला और कोशल के बीच में और कोई राज्य नहीं था। बौद्धधर्म के दीघनिकाय और सुमगंलविलासिनी श्रादि ग्रन्थों के अनुसार १९०६ के[२] रायल एशियाटिक सुसाइटी के जर्नल में शाक्यों की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार किया गया है––

("औकाकु इक्ष्वाकु) से तीसरं नृप के बहिष्कृत पुत्रों ने जाकर हिमालय पर्वत पर कपिलवसु (कपिलवस्तु) नाम नगरी बसाई। कपिल ऋषि ने जो बुद्धदेव के पूर्वावतार माने जाते हैं उन्हें यह भूमि (बसु वस्तु) बताई थी। कपिल मुनि इन्हें हिमालय की तराई में सकसन्ध [ मानचित्र ]  [  ] या सकवनसन्ध में सागोन के जगंल में एक पर्णकुटी में दिखाई दिये थे। नगरी बसाकर उन्होंने कपिल की पर्णकुटी के स्थान पर एक महल भी बनाया और कपिल ऋषि के लिये उसी के पास एक दूसरे स्थान पर कुटी बना दी”।

ये इक्ष्वाकुओं के तीसरे राजा विकुक्षि हो सकते हैं। इससे प्रकट है कि सारे उत्तरीय भारतवर्ष में इक्ष्वाकु के वंशज ही जहाँ-तहाँ राजा थे, एक कोशल में, दूसरे कपिलवस्तु में, तीसरे विशाला में और चौथे मिथिला में। कपिलवस्तु का वर्णन रामायण में नहीं है। संभव है कि वह उस समय रहा ही न हो; यदि रहा भी हो तो कहीं हिमालय के कोने में। यदि वह और कहीं इधर उधर रहा होता तो वाल्मीकि उसका वर्णन अवश्य करते। इस प्रकार हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि कोशल देश की पूर्वीय सीमा गण्डक नदी थी और देश का पूर्वीय भाग सरयू के किनारे-किनारे सरयू और गङ्गा के संगम तक विस्तृत था। यहाँ पर यह कह देना उचित जान पड़ता है कि विश्वामित्र को बक्सर में सिद्धाश्रम को जाते समय रास्ते में कोई और राज्य नहीं मिला था। बृहत्संहिता में मध्यप्रदेश के राज्यों में केवल पांचाल, कोशल, विदेह और मगध ही का उल्लेख है। विशाला मिथिला के दक्षिण-पश्चिम कोने में थी। इस से हम कह सकते हैं कि उत्तर कोशल देश की सीमा सई के किनारे-किनारे गोमती के संगम तक थी। बीच में राजा गाधि का राज्य था। यह राज्य यद्यपि कन्नौज का राज्य कहलाता था, तथापि इसके आधीन गाजीपुर और बक्सर नगरों के आस-पास का देश भी था। इस सीमा की रेखा फिर एक विशाल वन में से होती हुई बलिया के समीप सरयू और गङ्गा के संगम तक जाती है और फिर वहाँ से मुड़ कर उत्तर की ओर गण्डक से मिलती है।

कोशल देश की पश्चिमी सीमा पांचाल देश से मिली हुई थी जो बाद में दो भागों में विभक्त हो गया; उत्तरीय प्रान्त की राजधानी

[ १० ]अहिछत्र थी और दक्षिणी भाग में कम्पिला मुख्य नगर था। कभी-कभी यह विचार भी होता है कि कदाचित् रामगङ्गा ही कोशला की पश्चिमी सीमा रहो हो क्योंकि रामगङ्गा के नाम ही से उसका रामचन्द्र जी के साथ सम्बन्ध होने का अनुमान होता है। परन्तु हम अवध की ही आजकल की पश्चिमी सीमा से कोशला की भी पश्चिमी सीमा मिला कर संतुष्ट हो जायगे।

कनिंघम का कहना है कि उत्तरकोशल घाघरा के उत्तरीय प्रदेश को कहते थे। अवध गजेटियर ने उसे राप्ती के ही उत्तर तट तक सीमाबद्ध कर दिया है। किन्तु जब हमें स्पष्ट मालूम है कि उत्तरकोशल का राज्य श्रावस्ती से तुशारनविहार तक विस्तृत था और विन्ध्यगिरि में एक दक्षिण कोशल भी था तो यही विचार होता है कि उत्तरकोशल घाघरा नदी के दोनों किनारों पर था और घाघरा उत्तर का प्रदेश गौड़ कहलाता था। परगना रामगढ़ गौरा में अभी तक गोंडा बस्ती और गोरखपुर के जिले थे। अयोध्या के उत्कर्ष के बाद प्रतीत होता है कि इस भाग का महत्व बढ़ गया था। कहा जाता है कि लव ने अपनी राजधानी श्रावस्ती और उनके ज्येष्ठ भ्राता कुश ने अपनी राजधानी कुश भवनपुर अयोध्या से दक्षिण में २० कोस दूर गोमती के किनारे बनाई थी।

उत्तरकोशल की सीमा निश्चित हो गई। अब हम इसकी मुख्य नदी घाघरा (सरयू) का पहिले वर्णन करकं इस देश का दिग्दर्शन करा के राजधानी का वर्णन करेंगे।

भक्तलोग सरयू को मानसनन्दिनी और वसिष्ठ-कन्या कहते हैं। मानस-नन्दिनी से यह अभिप्राय है कि यह नदी मानस सरोवर से निकली है और वसिष्ठ-नन्दिनी का अर्थ यह है कि महर्षि वसिष्ठ जी की तपस्या से इसका प्रादुर्भाव हुश्रा। वसिष्ठ सूर्य-वंश के थे इस कारण वसिष्ठ-कन्या की महिमा भगोरथ-कन्या (गङ्गा) से बढ़ कर है। [ ११ ]घाघरा की उत्पत्ति घुरघुर शब्द से बतायी जाती है।

"श्रीनारायण जगतपति जगहित जगत अधार।
धारो वपु बाराह जब श्रादि पुरुष अवतार॥
शब्द घुरघुरा तब भयो घाघर सरित प्रवाह।"

परन्तु हमको सरयू से प्रयोजन है जिसका नाम ऋग्वेद में भी आया है।

अवध प्रान्त में यह नदी नैपाल से निकल कर बहराइच में आती है। अल्मोड़े में इसे सरयू ही कहते हैं। बहराइच में तीस कोस बहकर कौड़ियाला से मिल जाती है परन्तु इस बात का प्रमाण मिला है कि सरयू पहिले कौड़ियाला से भिन्न धारा में बहती हुई घाघरा में गिरती थी। कहते हैं कि एक अंगरेज ने जो लट्ठों का व्यापार करता था सरयू की धारा टेढ़ी मेढ़ी देखकर उसे कौड़ियाला में मिला दिया। पुरानी धारा अब भी छोटी सरयू के नाम से प्रसिद्ध है और बहराइच से एक मील हटकर बहती है और बहराइच से निकल कर गोंडा जिले में घाघरा में गिरती है। इस संगम का वर्णन आगे किया जायगा।

सरयू घाघरा के संगम के बाद यह नदी घाघरा ही के नाम से प्रसिद्ध है; केवल अयोध्या में इसे सरयू कहते हैं।

अब हम इसी नदी के दोनों तटों पर उत्तरकोशल के आधुनिक खंडों में जो प्रसिद्ध स्थान है उनका वर्णन करेंगे।

लखनऊ––यह आजकल के अवध प्रान्त का सब से बड़ा नगर है और गोमती के तट पर बसा है। लखनऊ लक्ष्मणवती या लक्ष्मणपुर का अपभ्रंश है और प्रसिद्ध है कि इसे लक्ष्मण जी ने बसाया था। मेडिकल कालेज के पास अब भी एक स्थान लछमन-टीला कहलाता है।

बाराबंकी––इस जिले में कोटवा लिखने योग्य स्थान है, यद्यपि उसका रामायण या अयोध्या के इतिहास से संबंध नहीं है। यहाँ भगवद्भक्त जगजीवनदास हुये थे जिनसे जगजीवनदासी पंथ चला। [ १२ ]

बहराइच––यह पहिले गन्धर्ववन का भाग था और कुछ लोगों का विश्वास है कि बहराइच ब्रह्मयज्ञ का अपभ्रंश है। किसी किसी का यह भी कथन है कि यहाँ पहिले "भर" बसते थे। यह भी सुना गया है कि बहराइच "बहरे आसाइश"[३] का बिगड़ा रूप है। यह पहिले सूर्य-पूजन का केन्द्र था और यहीं बालार्क का मन्दिर और कुण्ड था और इसी जगह पर सैयद सालार ग़ाजी मसऊद (बाले मियाँ) पीछे से गाड़े गये थे।

कहते हैं कि बाले मियाँ की कन के नीचे अब भी बालार्क कुण्ड है जिसका जल मोरियों द्वारा निकलता है और उससे कोढ़ी और अन्धे अच्छे हो जाते हैं।

इस जिले में एक और पवित्र स्थान है जिसको सीताजोहार कहते हैं।

गोंडा'––सम्भव है कि यह गौड़ ब्राह्मणों का आदि स्थान रहा हो। ब्राह्मणों को दो श्रेणियां हैं, (१) पञ्च गौड़ (२) पञ्च द्राविड़।

पञ्चगौड़ में कान्यकुब्ज, गौड़, मैथिल, उत्कल और सारस्वत ब्राह्मण हैं।

सारस्वताः कान्यकुब्जाः गौड़मैथिलिकोत्वलाः।
पञ्च गौड़ा इति ख्याताः विन्यस्योत्तरवासिनः॥

यह ध्यान में रखने की बात है कि केवल एक ही श्रेणी के ब्राह्मण इस जिले में अथवा परगना रामगढ़ गौड़ा में पाये जाते हैं। इन्हें सरयूपारीण कहते हैं जो कान्यकुब्जों की एक स्वतंत्र शाखा है और कहा जाता है कि इन्हें भगवान रामचन्द्र जी इस देश में लाये थे। गौड़ ब्राह्मणों, गौड़ राजपूतों एवं गौड़ कायस्थों को संख्या बहुत कम है और कम से कम गौड़ ब्राह्मण तो अपने को पश्चिम भारत के ही अधिवासी मानते हैं। [ १३ ]

यह भी कथा प्रसिद्ध है कि जब राजा मानसिंह बिसेन ने गोंडे को अपनी राजधानी बनाया तो सिवाय गोंडों के वहाँ उस जङ्गल में और कोई न था। यह भी कहा जाता है कि किसी समय उत्तर भारत का अधिकांश भाग गोंड जाति के लोगों से बसा हुआ था। यह भी संभव है कि अन्य लोगों ने जो वहाँ आकर बाद में बसे हों उन्हीं का नाम धारण कर लिया हो। महाभारत के समय यहाँ टाँगों नाम की एक जाति असती थी जो यहाँ से घोड़े ले जाकर अन्य प्रान्तों के श्रीमान पुरुषों को भेंट किया करती थी। अब उस जातिविशेष का लोप हो गया है परन्तु पहाड़ी छोटे टट्टू अब भी टाँगन कहलाते हैं।

एक बात और भी ध्यान देने योग्य है कि बङ्गाल का भी एक नाम गौड़ है और राजा आदि-मुर को जो उत्तर भारत से ब्राह्मणों और कायस्थों को ले गये थे, पश्चगौड़ेश्वर कहते थे। परन्तु यह नाम बङ्गाल सूबे को नवीं शताब्दी तक नहीं दिया गया था। पञ्चगौड़ से तात्पर्य उन भागों से था जिनमें उस समय का बङ्गाल विभक्त था अर्थात्उ त्तरराढ़, दक्षिणराढ़ इत्यादि।

"सहेट महेट" भी गोंडा जिले के अन्तर्गत है। यह प्राचीन श्रावस्ती नगर का भग्नावशेष है जिसको भगवान रामचन्द्र जी के पुत्र लवजी ने अपनी राजधानी बनाया था। इस नगर ने बौद्धधर्म का एक केन्द्र बन-कर पीछे बड़ा महत्व प्राप्त किया था। कुछ काल पीछे श्रावस्ती नगर उजड़ गया। अब इसके खंडहर बलरामपुर से पश्चिम छः कोस पर सहेट-महेट के नाम से प्रसिद्ध हैं। यह नगर राप्ती और सीरगी नदी के बीच सात मील तक उजड़ा पड़ा हुआ है। किले की जगह पर एक ऊँचा टीला उसके पास मौजूद है जिसकी चोटी पर जैनियों का एक मन्दिर बना है और उसको 'प्रोडामार' कहते है। जनश्रुति है, सूर्यवंशी शाक्यकुल के राजा यहाँ राज्य करते थे। वे दो भाई थे। बड़े भाई का नाम सहेट और छोटे का नाम महेट था। उनकी जाति सरावगी [ १४ ]में यह चलन है कि सूर्यास्त के पीछे भोजन नहीं करते। एक दिन बड़े भाई सहेट सूर्यास्त के समय मृगया से लौटे। उनके छोटे भाई की स्त्री दिव्या कोठे पर खड़ी थीं, उसके बदन के प्रकाश से उजाला हो रहा था। राजा ने यह समझ कर कि अभी सूर्यास्त नहीं हुआ है भोजन कर लिया। जब वह दिव्या वहाँ से हट गयी तब राजा को मालूम हुआ कि रात बहुत बीत चुकी है। उन्होंने अपने सन्देह को प्रकट किया तब सेवकों ने असली हाल उनसे कहा। अनन्तर राजा ने अनुजबधू को देखने की उत्कट लालसा प्रकट की, परन्तु कार्य्य धर्म-विरुद्ध था। तुरंत पृथ्वी फट गई और राजा का सम्पूर्ण परिवार उसमें समा गया और नगर उलट गया।

महाकवि कालिदास ने लिखा है कि महाराजा दिलीप जब यात्रा करते हुये गुरु वसिष्ठ के आश्रम को गये तब मार्ग में घोषों ने उन्हें ताज़ा मक्खन अर्पण किया। यह आश्रम हिमायल पर्वत पर कहीं था और वहाँ ग्वालों की आबादी रही होगी जो अब ग्वारिच परगने के नाम से प्रसिद्ध है। लोगों का यह भी विश्वास है कि यहाँ पाण्डव राजा विराट की गायों की रक्षा करते थे।

इस जिले के सरयू और घाघरा के संगम पर वाराहक्षेत्र है। लोग कहते हैं कि इसी स्थान पर विष्णु जी ने वाराह अवतार धारण किया था, यद्यपि इस प्रतिष्ठा को प्राप्त करने के लिये अन्य तीन स्थान भी दावा करते हैं, तथापि इसमें संदेह नहीं है कि यही शूकरक्षेत्र है जहाँ श्रीगोस्वामी तुलसीदास जी ने रामायण की कथा अपने गुरु से सुनी थी।

इसके बीच में पसका गाँव है जहाँ एक मन्दिर बना हुआ है और उसमें वाराह भगवान की मूर्ति स्थापित है। इसीके निकट संगम है, जिसको त्रिमोहानी कहते हैं। यहाँ सरयू और घाघरा मिली हैं और पौष भर यहाँ कल्पवास होता है, एवं पूर्णिमा को बड़ा मेला लगता है। दूसरी त्रिमोहानी केराघाट पर है जहाँ टेढ़ी और घाघरा का संगम है। [ १५ ]यहाँ यमद्वितीया को भी स्नान होता है। इस जगह फलाहारी बाबा ने एक मन्दिर बनवाया है। उनका कथन है कि श्रीहनुमान जी का जन्मस्थल यही है।

गोंडा जिले में एक और छोटा तीर्थ है जिसे मनोरामा कहते हैं। यहाँ महाराज दशरथ ने अश्वमेध यज्ञ किया था। महाभारत के शल्यपर्व में लिखा है कि यहाँ उद्दालक मुनि के पुत्र ने जब वे अयोध्या में यज्ञ करते थे, मनोरामा के नाम से देवी सरस्वती का आह्वान किया था। इससे स्पष्ट है कि यह मनोरामा एक नदी का नाम है और उन ऋषियों का दिया हुआ है जो पश्चिम से महाराज दशरथ को यज्ञ कराने आये थे।

गोंडे के उत्तर-पश्चिम ७ कोस पर मनोरामा ताल है जहाँ उद्दालक मुनि की मूर्ति विद्यमान है। इस तीर्थ में कार्तिकी पूर्णिमा को गोंडा जिले का बड़ा मेला होता है। जो लोग अयोध्या जी नहीं जा सकते वे यहीं आते हैं। इसी स्थान पर उद्दालक मुनि के पुत्र नचिकेता ने समागत मुनियों और ऋषियों को नासिकेत पुराग सुनाया था। इसी ताल से मनोरामा नदी निकली हुई है जो गर्मियों में सूख जाती, बरसात में खूब बढ़ती और सरयू में गिरती है। इसी नदी पर दूसरा मेला होता है और यह तीर्थ मनवर मखोड़ा के नाम से प्रसिद्ध है। यह अयोध्या जी से सरयू पार करके ४ कोस पर सिकंदरपुर के पास है। यहाँ चैत्र की पूर्णिमा को नहान लगता है और अयोध्या-वासी संत महन्त पधारते हैं।

गोंडा ज़िले में अत्यन्त प्रसिद्ध स्थान देवीपाटन का मन्दिर है। यद्यपि रामायण में इसकी चर्चा नहीं हैं तथापि इसके विषय में कुछ लिखना आवश्यक है। कहते हैं कि राजा कर्ण ने इसे बनवाया था। कर्ण को एक राजा ने यहाँ पड़ा हुआ पाया था। और पुत्रहीन होने के कारण उसने उसे पुत्र के समान पाला था। राजा विक्रमादित्य ने [ १६ ]इस मन्दिर का जीर्णोद्धार किया। गोरखनाथ जी के शिष्य रत्ननाथ ने भी इस मन्दिर को बनवाया। मन्दिर के वामपक्ष पर हिन्दी में गोरखनाथ जी का नाम खुदा हुआ है। सबसे पीछे औरङ्गजेब के राजत्वकाल में तुलसीपुर के राजा ने इसे बनवाया। इस स्थान पर एक जगह कुँवाँ बना हुआ है।[४]

कहते हैं कि सती जी जब जल गईं और शिवजी उनकी लोथ को कंधे पर डालकर पूर्व से पश्चिम की ओर दौड़े तो उनके अङ्ग जहाँ-जहाँ गिरे वहाँ-वहाँ देवी जी का एक स्थान सिद्धपीठ हो गया। यहाँ भवानी की दक्षिण भुजा गिरी थी इसीसे इसका नाम देवीपाटन पड़ा। "पाटन" का अर्थ भुजा है।

गोंडा ज़िले के निम्नलिखित स्थान भी जानने योग्य हैं—

सोहागपुर—गोंडे के उत्तर है। यह च्यवन[५] ऋषि की तपस्थली है। चमदई (चमनी) नदी इनके नाम से प्रकट हुई है। कन्नौज के राजा कुश ने अपनी कन्या इन्हें व्याह दी थी और देव-वैद्य अश्विनी-कुमारों ने इन्हें युवावस्था प्रदान की थी। मुनि ने इन्द्र से बारह दिन के लिये जाड़े में वर्षा माँग ली थी; माघान्त में छः दिन और फाल्गुनारम्भ में छः दिन। इसको च्यवनहार या च्यवन-बरहा कहते हैं।

पारासराय—यह पराशर जी की तपस्थली है किन्तु अब एक चबूतरा ही रह गया है। [ १७ ] 

बसती—इस ज़िले में प्रचीन राज्य कपिलवस्तु का एक अंश शामिल है। इस समय "पिपरहवा" कपिलवस्तु का भग्नावशेष बताया जाता है। परन्तु कुछ विद्वानों के मत से नैपाल की तराई में स्थित तिलौरा कोट ही प्राचीन कपिलवस्तु है। इसमें सन्देह नहीं कि लुम्बिनीबारा जहाँ भगवान बुद्ध पैदा हुये थे और जिसका वर्णन ह्वान्‌च्वांग ने किया है, नेपाल को तराई में है। अब इसको "रुमिनेदई" कहते हैं और यह अंगरेज़ी सरहद से चार मील उत्तर है।

जमथा—परशुराम जी के पिता जमदग्नि ऋषि की तपस्थली है।

सिंगिरिया—यह परसपुर के निकट है। पुत्रेष्टि यज्ञ के समय ऋष्यशृंग यहीं टिके थे।

गोरखपुर—इसी ज़िले में कुशीनगर (कसिया) है जहाँ बुद्ध जी को निर्वाण प्राप्त हुआ था। चार वर्ष हुये यहाँ की भूमि खोदी गयी थी और जो कुछ प्राप्त हुआ था लखनऊ के अजायब घर में रक्खा है।

सीतापुर—इसी ज़िले में नैमिषारण्य तीर्थ है जहाँ अट्ठासी हज़ार ऋषि रहते थे और सूत जी पुराण सुनाते थे। यहीं भगवान् रामचन्द्र जी ने अश्वमेध यज्ञ किया था और उनके पुत्र कुश और लव जी ने महर्षि वाल्मीकि-रचित रामायण की कथा सुनाई थी। यहाँ से कुछ दूर पर वह स्थान बताया जाता है जहाँ महारानी सीता जी पृथ्वी में प्रवेश कर गई थीं। महाभारत के शल्य-पर्व में लिखा है कि यहीं ऋषियों ने सरस्वती का कञ्चनाक्षी नाम से आह्वान किया था। अब इस स्थान पर बहुत से ताल हैं जिनमें सब से प्रसिद्ध चक्रतीर्थ है। यहाँ ललिता देवी का मन्दिर है।

नैमिष से मिसरिख छः मील है। यहाँ सरकारी तहसील है और राजा दधीच का मन्दिर है। किसी समय राजा यहाँ तप करते थे और देवलोक में देवासुर संग्राम हो रहा था। असुरों ने देवताओं को हरा दिया था। ब्रह्मा ने देवताओं से कहा कि जब तक दधीच की हड्डियों का [ १८ ]न बनेगा तब तक तुम जीत नहीं सकते। देवताओं ने उनसे प्रार्थना करके उन्हें राजी किया। मरने से पहिले राजा ने सब तीर्थों का जल एक कुण्ड में डलवा दिया। इससे उस स्थान का नाम मिश्रित पड़ा। पीछे लोग उसे मिसरिख कहने लगे।

सुलतानपुर—कहते हैं कि यह प्राचीन नगर राम के पुत्र कुश के द्वारा बसाया गया था और उसे कुसपुर या कुशभवनपुर भी कहते थे। कनिंघम ने इसी स्थान को ह्वाननच्वांग का कुशभवनपुर कहा है। ह्वाननच्वांग कहता है कि उसके समय में वहाँ पर एक नष्टप्राय अशोक का स्तूप था और बुद्ध ने वहाँ ६ मास तक उपदेश दिया था। आजकल भी सुलतानपुर के उत्तर पश्चिम में ५ मील की दूरी पर महमूदपुर नामक ग्राम में बौद्ध मठों के खँडहर मिलते हैं। प्राचीन नगर को अलाउद्दीन ख़िलजी ने नष्ट कर दिया था।

गोमती के किनारे पर सुलतानपुर के पास ही, सिविल लाइन के बाद ही एक स्थान है जिसे सीता-कुण्ड कहते हैं जहाँ सीता जी ने अपने पति के साथ वन जाते समय स्नान किया था।

फैज़ाबाद—अयोध्या को छोड़कर इस ज़िले में चारों ओर रामचरित संबंधी तीर्थ हैं।

नंदिग्राम—जहाँ भरत जी १४ वर्ष तापस वेष में रहे थे।

तारड़ीह—वन-यात्रा में पहिले दिन श्रीरामचन्द्र तमसा तट-पर यही टिके थे। इसी से कुछ दूर पूर्व तमसा-तट पर वाल्मीकि का आश्रम था।

वारन—यहाँ एक बाजार और एक ताल है। यहाँ महाराज दशरथ के हाथी रहते थे (वारण-हाथी) और यहीं सरवन मारा गया था। वारन ताल तमसा (मड़हा) का एक भाग है। इसका पूरा वर्णन हमारी छपाई अयोध्या कांडकी भूमिका में है।

अब ज़िले भर के और रामायण-संबंधी स्थानों के वर्णन करने की कुछ आवश्यकता नहीं। इसलिये अब हम अयोध्या, अवध, साकेत [ १९ ]या विशाखा का वर्णन करेंगे। मेजर (अब कर्नल) वास्ट का कथन है कि यद्यपि साकेत कोशल में था, परन्तु परताबगढ़ का तुसारन विहार साकेत है। पुरातत्त्ववेत्ताओं ने चीनी यात्री ह्वानच्वांग के लिखे भ्रमात्मक स्थानों के नाम और उनकी परस्पर दूरी जान कर अयोध्या को लखनऊ, कुरसी (बाराबंकी), सुजानकोट (उन्नाव), डौंडियाखेड़ा (उन्नाव) से मिलाया है। किन्तु हम कनिंघम से सहमत हो कर यही मानने को तैयार हैं कि अयोध्या विशाखा, (पिसोकिया), साकेत (साची) आदि पर्यायवाची हैं। हम ह्वानच्वांग के आयुतो को भी अयोध्या ही मानते हैं। आगे हम कर्नल वास्ट के तर्कों का उत्तर देने का प्रयत्न करेंगे।

सब से प्रथम कर्नल वास्ट ने कालिदास को उद्‌धृत किया है और यह दिखाने का प्रयत्न किया है कि मल्लिनाथ की टीका रहते भी साकेत का मतलब अयोध्या से नहीं था। इसके विपरीत हमें यही कहना है कि कालिदास के अनुसार साकेत और अयोध्या एक ही हैं।

पुरमविशदयोध्यां मैथिलीदर्शिनीनाम्।
(रघुवंश, दशम सर्ग, ९६ श्लोक)।
साकेतनार्योऽञ्जलिभिः प्रणेमुः।
(रघुवंश, षोडश सर्ग, १३ श्लोक)।

अब हम यदि कर्नल साहब का कथन सत्य मान लें तो यह भी मानना पड़ेगा कि राम के विवाह के समय की राजधानी बदल कर तुसारन विहार (साकेत) चली गई थी जब वे वन से लौटे। जैनों के प्रथम तीर्थङ्कर ऋषभदेव आदिनाथ साकेत के राजा नाभि और मेरु देवी के पुत्र थे। जैन लोग बड़ी श्रद्धा से विश्वास करते हैं कि आदिनाथ अयोध्या ही में उत्पन्न हुये थे, और उनके स्मरणार्थ बनाये गये मन्दिर को शाहजूरान के टीले के पास बताते हैं जो हमारे घर से २०० गज़ की दूरी पर है।

परन्तु इससे बढ़कर एक बात जो हमारी राय के पक्ष में है वह बुद्ध जी के दतून के पेड़ का स्थान है। बुद्ध जी ने जब साकेत [ २० ](साची या पिसोकिया) में थे एक दतून का पेड़ लगाया था जो छः या सात फुट ऊँचा बढ़ा और जिसे फ़ाहियान और ह्वानच्वांग दोनों ने देखा था।

साची के संबंध में फ़ाहियान कहता है "नगर के दक्षिण द्वार से निकल कर सड़क के पूर्व में एक स्थान है जहाँ बुद्ध देव ने कटीले वृक्ष की एक डौंगी तोड़ कर भूमि में लगा दी थी जहाँ वह सात फुट तक बढ़ी और फिर न घटी न बढ़ी"। यह कथा बिल्कुल उसी के अनुकूल है जो ह्वानच्वांग ने विशाखा के संबंध में कही है कि राजधानी के दक्षिण में और मार्ग की बाईं ओर (अर्थात पूर्व में जैसा फ़ाहियान ने कहा था) एक छः या सात फुट ऊँचा वृक्ष था जो पवित्र समझा जाता था जो न घटता था और न बढ़ता था। यही बुद्धदेव का प्रख्यात दतून का वृक्ष था।

कहा जाता है बुद्धदेव ने साकेत में १६ वर्ष तक निवास किया था। हनुमानगढ़ी के बाद जब हम अयोध्या से फैज़ाबाद की ओर पक्की सड़क पर चलते हैं तो मार्ग की बाईं ओर दतून कुण्ड पड़ता है। यद्यपि सर्वसाधारण का विश्वास है और अयोध्या-माहात्म्य में भी लिखा है कि इस कुण्ड पर भगवान् रामचन्द्र दतून किया करते थे, तथापि विचार यही होता है कि कदाचित् यही स्थान है जहाँ बुद्धदेव ने दतून का वृक्ष लगाया था या जहाँ पर पास ही सरोवर खोदा गया था जिसमें भगवान् बुद्धदेव मुँह धोया करते थे और जो आजकल भी वृक्ष के सूख जाने पर भगवान् बुद्धदेव के अयोध्या के निवास का स्मारक है।

संभव है दक्षिण द्वार हनुमानगढ़ी के पास था। हनुमानगढ़ी से सरयू तक की दूरी एक मील से कुछ अधिक है, किन्तु नदी की गति बदलती रहती है और यात्री (ह्वानच्वांग) के समय में वह कुछ और उत्तर की ओर बहती रही हो। अभी मेरी याद में इस नदी ने बस्ती और गोंडे के ज़िलों की हजारों एकड़ भूमि काट डाली है और वही भूमि अयोध्या में मिल गई है।

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ह्वानच्वांग कहता है कि पिसोकिया की परिधि लगभग १६[६] ली थी। इतना स्थान, एक शक्तिशाली राज्य की राजधानी के लिये कदापि काफी नहीं था। मेरा विश्वास है कि यह परिधि रामकोट की है जिसका आगे वर्णन किया जायगा। डाक्टर फूरर का वचन है कि गोंडे के आदमी इस दतून के वृक्ष को चिलबिल का पेड़ बताते हैं जो छः या सात फुट से आगे नहीं बढ़ता। यह करौंदा भी हो सकता है जिसकी दतूनें आजकल भी अवध में और विशेष कर लखनऊ में काम आती हैं।

यहाँ यह भी बताना अयोग्य न होगा कि दतून के बढ़ने में कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कानपुर ज़िले में घाटमपुर की तहसील से एक मील की दूरी पर एक महंत का कई मंजिल का मकान है जिसमें एक नीम का पेड़ एक दतून से निकला हुआ है जिसे एक साधु ने २०० वर्ष पूर्व लगाया था। इन बातों से कदापि यह मेरा मतलब नहीं है कि मेरे कथन से किसी को दुःख हो। समाधान यों भी हो सकता है कि बुद्धदेव भी विष्णु के अवतार थे।

कनिघंम कहते हैं कि अयोध्या की प्राचीन नगरी जैसा कि रामायणी में लिखा है सरयू नदी के किनारे थी। कहा गया है कि उसका घेर १२ योजन या लगभग १०० मील था। किन्तु हमें इसके बदले १२ कोस या २४ मील ही पढ़ना चाहिये। संभव है कि उस प्राचीन नगर को उपवनों के सहित माना हो। पश्चिम में गुप्तारघाट से[६] लेकर पूर्व में रामघाट तक की दूरी सीधी छः मील है और हम भी यही समझते हैं कि उसका घेर १२ कोस ही का रहा हो। आजकल भी यहाँ के निवासी कहते हैं कि नगर की पश्चिमी सीमा गुप्तारघाट तक और पूर्वी विल्वहरि तक थी। दक्षिणी सीमा भदरसा के पास भरतकुण्ड तक बतायी जाती है। वह भी छः कोस है।

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आइने अकबरी में नगरी की लम्बाई १४८ कोस और चौड़ाई ३२ कोस है। इसका अभिप्राय घाघरा के उत्तर के अवध प्रान्त से है। ह्वानच्वांग ने इस प्रदेश का घेर ४००० ली या ६६७ मील बताया है।

कनिंघम के २४ मील के कथन की पुष्टि में एक बात और है कि अयोध्या की परिक्रमा जो कि प्राचीन धार्मिक नगर की सीमा मानी जा सकती है, १४ कोस अर्थात २८ मील या किसी किसी के अनुसार २४ मील की ही है। इस परिक्रमा के भीतर फैज़ाबाद का शहर और आस-पास के गाँव भी आ जाते हैं जैसा कि नक़्शे में दिखाया जायगा। यह बसी हुई बस्ती की सीमा हो सकती है, किन्तु यह कदापि वाल्मीकि की प्राचीन नगरी का घेर नहीं था।

अयोध्या मनु ने निर्मित की थी और वह १२ योजन लम्बी थी और ३ योजन चौड़ी थी। वह सरयू से वेदश्रुति तक फैली हुई थी तो वह वेदश्रुति अयोध्या से २४ मील की दूरी पर होनी चाहिये। इसे आजकल विसुई कहते और यह सुलतानपुर ज़िले से निकल कर आजकल भी फैज़ाबाद ज़िले की सीमा बनाती हुई इलाहाबाद-फैज़ाबाद रेलवे लाइन को खुजरहट स्टेशन से दो मील की दूरी पर काटती हुई अकबरपुर के पास मड़हा से मिल जाती है और वहाँ से इसे टोंस (तमसा) कहते हैं।

अब पूर्वी और पश्चिमी सीमा के संबंध में यदि हम फैज़ाबाद ज़िले के नक़शे की ओर देखें तो मालूम होगा कि इसमें घाघरा के किनारे-किनारे की भूमि जो कभी २५ मील से अधिक चौड़ी नहीं है, आज़मगढ़ से बाराबंकी तक लगभग ८० मील तक फैली हुई है। कनिंघम जिन्होंने कदाचित् रामायण भी नहीं देखा, आइने अकबरी को उद्धृत करते हैं। और फिर ब्राह्मणों की अत्युक्ति पर दो चार बातें कह कर मान लेते हैं कि नगरी आस-पास के भागों को लेकर १२ योजन लम्बी थी। इसमें [ २३ ]तो आजकल का लखनऊ शहर भी आ जायगा और फिर साधारण के विश्वास से लक्ष्मणपुरी (लखनऊ) अयोध्या का पश्चिम द्वार हो जायगी। यह भी कहा जाता है कि इस नगर का पूर्व द्वार फैज़ाबाद ज़िले में आजमगढ़ की सीमा पर बिड़हर में था, किन्तु नगरी की पश्चिमी सीमा बड़ी कठिनाई से निश्चित समझी जा सकती है।

 

  1. कोशल और कोसल दोनों रुप शुद्ध हैं।
  2. J R.A.S., 1906.
  3. Ocean of comfort.
  4. इसके बारे में लोग कहते हैं कि यहाँ से नव ग्रह और नक्षत्र अपने अपने स्थानों पर दिखाई देते हैं। सम्भव है कि यहाँ किसी समय मानमन्दिर रहा हो। यह मन्दिर जब बहुत प्रसिद्ध हुआ तब औरङ्गजेब ने एक सैनिक को भेज कर इसे तोड़वा डाला। "भगवती-प्रकाश" नामक ग्रन्थ में लिखा है कि वह सैनिक मारा गया और जहाँ वह गाड़ा गया उसे "शूर-वीर" कहते हैं।
  5. इन्हीं के जवान होने के लिये "च्यवनप्राश" दवा बनायी गयी थी।
  6. ६.० ६.१ चीनी नाप एक ली अँग्रेजी /मील के बराबर है।,