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अयोध्या का इतिहास/३— प्राचीन अयोध्या

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तीसरा अध्याय।

प्राचीन अयोध्या।

(क) वाल्मीकि रामायण में अयोध्या का वर्णन।

महर्षि वाल्मीकि जी की रामायण को देखने से यही सिद्ध होता है कि अयोध्या उस समय में मर्त्यलोक की अमरावती थी, अमरावती क्या—यदि अमरावती से बढ़कर कोई पुरी भूमण्डल पर थी तो अयोध्या थी। जो कुछ यहाँ विभूति या सुखसामग्री थी, उसका अत्यन्त प्रभाव था। जिस दैवी सम्पत्ति के कारण अयोध्या की शास्त्रों में भूयसी प्रशंसा की गई है उसका वर्णन करना हमारे आज के लेख का उद्देश्य नहीं है, केवल अयोध्या की उस मानुषी सम्पत्ति को दिखाना चाहते हैं जिसे लिखे पढ़े लोग नवीन समझे हुये हैं।

यह भूमण्डल की सबसे पहली लोकप्रसिद्ध राजधानी स्वयं आदिराज महाराज मनु जी ने बसाई थी। यह दैर्घ्य (लम्बाई) में बारह योजन और विस्तार (चौड़ाई) में तीन योजन थी। सुतरां, अयोध्या अड़तालीस कोस लम्बी और बारह कोस विस्तृत (चौड़ी) थी। जैसा कि महर्षि वाल्मीकि जी ने रामायण के बालकाण्ड में वर्णन किया है।

"अयोध्या नाम तत्रास्ति नगरी लोकविश्रुता।
मनुना मानवेन्द्रेण पुरैव निर्मिता स्वयम्॥
आयता दश च द्वे च योजनानि महापुरी।
श्रीमती त्रीणि विस्तीर्णा नानासंस्थानशोभिता॥"
ऊपर जो अयोध्या की लम्बाई चौड़ाई का वर्णन है उस में नगरमात्र का समझना चाहिये। 'राजमहल' वा 'राजदुर्ग' इस से भिन्न था। महर्षि ने दूसरी जगह लिखा है :—
"सा योजने द्वे च भूयः सत्यनामा प्रकाशते॥"

  अर्थात् द्वादश योजन लम्बी और तीन योजन विस्तृत महापुरी में दो योजन परिखादि द्वारा विशेष सुरक्षित हो "अयोध्या" (जिसे शत्रु जीत न सके) के नाम को अधिक सार्थक करता था। राजधानी अयोध्या पुरी के चारों ओर प्रकार (कोट) था। प्राकार के ऊपर नाना प्रकार के 'शतघ्नी' आदि सैकड़ों यन्त्र (कल) रक्खे हुये थे। इससे यह सिद्ध होता है कि उस समय में तोप की तरह क़िले के बचाने के लिये कोई यन्त्र विशेष होता था। 'शतघ्नी' को यथार्थ तोप कहने में हमें इस लिये सङ्कोच है कि उससे पत्थर फेंके जाते थे। बारूद से काम कुछ न था। महर्षि वाल्मीकि बारूद का नाम भी नहीं लेते। यद्यपि किसी किसी जगह टीकाकारों ने 'अग्निचूर्ण' वा 'और्व्व' के नाम से बारुद को मिलाया है, पर उसका हमने प्रकृति में कुछ भी उपयोग नहीं पाया। अस्तु।

कोट के नीचे जल से भरी हुई परिखा (खाई) थी। पुरी के उत्तर भाग में सरयू का प्रवाह था। सुतरां, उधर परिखा का कुछ भी प्रयोजन न था। उधर सरयू का प्रबल प्रवाह ही परिखा का काम देता था, किन्तु नदी के तट पर भी सम्भव हैं कि नगरी का प्राकार हो। नदी के तीन और जो खाईं थी अवश्य वह जल से भरी रहती थी। क्योंकि नगरी के वर्णन के समय महर्षि वाल्मीकि ने उसका 'दुर्गगम्भीर-परिखा' यह विशेषण दिया है। टीकाकार स्वामी रामानुजाचार्य्य ने इसकी व्याख्या में कहा है कि "जलदुर्गेण गम्भीय अगाधा परिखा यम्याम्"। इससे समझ में आता है कि जलदुर्ग से नगरी की समस्त परिखा अगाध जल से परिपूर्ण रहती थी। सुतरां, इन परिखाओं में जल भरने के लिये जलदुर्ग किसी तरह का कौशल था। इस विषय में कुछ सन्देह नहीं।

  संभव है कि नगरी के चारों ओर चार द्वार थे। सब द्वारों का नाम भी अलग अलग रक्खा गया होगा, किन्तु हमें एक द्वार के सिवाय और किसी द्वार का नाम नहीं मिलता। नगरी के पश्चिम ओर जो द्वार था उसका नाम था "वैजयन्तद्वार"। शत्रुघ्न सहित राजकुमार भरत जब मातुलालय (मामा के घर) गिरिव्रज नगर से अयोध्या में आये थे तब इसी द्वार से प्रविष्ट हुये थे। यथा—

"द्वारेण वैजयन्तेन प्राविशञ्छान्तवाहनः"।

नगरी से जो पूर्व की ओर द्वार था, उसी से विश्वामित्र के साथ राम-लक्ष्मण सिद्धाश्रम वा मिथिला नगरी को गये थे। किन्तु दक्षिण का द्वार राम-लक्ष्मण और सीता की विषादमयी स्मृति के साथ अयोध्यावासियों को चिरकाल तक याद रहा था। क्योंकि इसी द्वार से रोती हुई नगरी को छोड़ कर राम-लक्ष्मण और सीता दण्डक-वन को गये थे। और इसी द्वार से रघुनाथ जी की कठोर आज्ञा के कारण जगज्जननी किन्तु मन्दभागिनी सीता को लक्ष्मण वन में छोड़ कर आये थे। उत्तर की ओर जो द्वार था उसके द्वारा पुरवासी सरयू-तट पर आया जाया करते थे।

इस प्रकार अयोध्या 'कोट खाई' से घिर कर सचमुच 'अयोध्या' हो रही थी। पर हमारी अयोध्या की इन पुरानी बातों को दो चार व्यूहलर और वेबर आदि दुराग्रही विलायती पण्डित सहन नहीं करते। उनके लिये यह असह्य और अन्याय की बात हो रही है कि जब उनके पितर वनचरों के समान गुज़ारा कर रहे थे उस समय हिन्दुओं के भारतवर्ष पूर्ण सभ्यता और आनन्द का डंका बज रहा था! लाचारी से हमारी पुरानी बातों का इन्हें खण्डन करना पड़ता है। लण्डन नगर का चाहे जितना विस्तार हो, 'पेरिस' चाहे जितनी बड़ी हो, यह सब हो सकता है, किन्तु अयोध्या का अड़तालीस कोस में बसना सब झूठ है! इतना ही नहीं, एक साहब ने कहा है, कि अयोध्या के चारों ओर कोट को जगह काठ का बाड़ा बना हुआ था, जैसा अब भी जंगली लोग पशुओं से बचने के लिये जंगल में खड़ा कर लिया करते हैं। इसके सिवाय और सब ब्राह्मणों की कल्पना है!

वेबर को इस पर भी सन्तोष वा विश्वास नहीं हुआ कि "हिन्दुओं के पूर्वजों के पास एक बाड़ा भी रहा हो"। उसने लिख मारा "न अयोध्या हुई और न कोई राम! सब कविकल्पना है"। सीता को हल से जुती हुई धरती की रेखा और आर्य्यों की खेती ठहराई है, और रामचन्द्र तथा बलराम जी (अर्थात् हलभृत् और सीतापति) को एक ही ठहरा कर यह निगमन निकाला है कि लुटेरों से प्रजा को खेती की जो बलराम जी ने रखवाली की इस बात का रूपक बाँध कर रामायण में यों लिखा है कि सीता को राक्षस ने हर लिया और पीछे से सीता के पति रामचन्द्र ने ढूँढ़कर उन्हें राक्षसों से छुड़ा लिया।

वेबर के विचारों की दुर्बलता वा निरंकुशता हम अपने दूसरे लेखों में दिखावेंगे। यहाँ केवल उन हिन्दू-कुलाङ्गारों से निवेदन है जो वेबर आदि को पुरातत्ववेत्ता मान कर उनके पीछे-पीछे अन्धकार में चले जा रहे हैं। वे एक बार रामायण को देखें और फिर विलायत वालों की धृष्टता की परीक्षा करें कि कितना अर्थ का अनर्थ कर रहे हैं। बाँस लकड़ी आदि का जो अयोध्या का दुर्बल प्राकार बता रहे हैं वे अयोध्या के रामायण में इन विशेषणों की ओर ध्यान दें—'बहुयन्त्रायुधवती' 'शतघ्नी-शतसङ्कुला'।

अयोध्या नगरी की सड़कों और गलियों के सुन्दर और स्पष्ट वर्णन से कौन कह सकता है कि वह किसी बात में कम रही होगी? नगर के चारों ओर सैर करने की सड़क थी जिसका नाम 'महापथ' लिखा है। राजप्रासाद (राजमहल नगरी के मध्य भाग में किसी जगह था) के चार द्वार थे। इन द्वारों (दरवाजों) से सर्व्वपण्य-शोभित मार्ग पुरी में चारों ओर जाते थे, इनका नाम 'राजमार्ग' अर्थात् सरकारी सड़क था। राजमार्ग और गलियों से नगर के मुहल्लों का विभाग हो रहा था। महापथ और राजमार्ग सब प्रतिदिन छिड़का जाता था। खाली जल ही से नहीं, सुगन्धित पुष्पों की भी मार्ग में वृष्टि होती थी; जिससे पुरी सुवासित रहती थी।

मुक्तपुष्पावकीर्णेन जलसिक्तेन नित्यशः।

नगरी में जब कोई विशेष उत्सव होता तब सर्वत्र चन्दन के जल का छिड़काव होता और कमल तथा उत्पल सब जगह शोभित किये जाते थे। मार्ग और सड़कों पर रात्रि के समय दीपक वा प्रकाश का कुछ राजकीय प्रबन्ध था कि नहीं, इसका कुछ स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता, किन्तु उत्सव के समय उसकी विशेष व्यवस्था होती थी; इस विषय में स्पष्ट प्रमाण मिलता है। राम-राज्याभिषेक की पहिली रात्रि को सब मार्गों में दीपक-वृक्ष (झाड़) लगाये गये थे और खूब रोशनी हुई थी। यथा—

प्रकाशीकरणार्थञ्च निशागमनशङ्कया।
दीपवृक्षांस्तथा चक्रुरनुरथ्यासु सर्व्वशः॥

ऐसे उत्सव के समय मार्ग के दोनों ओर पुष्पमाला, ध्वजा और पताका भी लगाई जाती थी और सम्पूर्ण मार्ग 'धूपगन्धाधिवासित' भी किया जाता था। राजमार्ग (सड़क) की दोनों ओर सुन्दर सजी-सजाई नाना प्रकार की दुकानें शोभायमान थीं। इसके सिवाय कहीं उच्च अट्टालिका, कहीं 'सुसमृद्ध चारु दृश्यमान' बाग था, कहीं 'चैत्यभूमि,' कही वाणिज्यागार और कहीं भूधर-शिखर-सम देवनिकेतन पुरी की शोभा बढ़ा रहे थे। कहीं सूतमागध वास करते, कहीं सर्वप्रकार शिल्पनिपुण (कारीगर) दृष्टिगोचर होते और कहीं पुरस्त्रियों की नाट्यशाला सुशोभित थी। कोई कोई स्थान हाथी घोड़े और ऊँटों से भरा था। किसी स्थान में सामन्त राजगण, कहीं वेदवित् ब्राह्मण लोग और कहीं ऋषिमण्डल निवास कर रहे थे। कहीं स्त्रियों का क्रीड़ागार, कहीं गुप्तगृह और कहीं साप्तभौमिक भवन विद्यमान था। कहीं विदेशीय वणिक जन कहीं वारमुख्या (गणिका) बस रही थीं। कहीं आम्रवन, कहीं पुष्पोद्यान और कहीं गोचारण भूमि दिखाई पड़ती थी। किसी स्थान से निरन्तर मृदङ्ग वीणा आदि मधुर ध्वनि आती थी, कहीं सहस्रों नरसिंह सैनिक 'गुफा' की तरह अयोध्या की रक्षा कर रहे थे। महर्षि वाल्मीकि कहते हैं, कि अयोध्या-वासी धर्म्मपरायण, जितेन्द्रिय, साधु और राजभक्त थे, चार वर्ण के लोग अपने अपने धर्म में स्थित थे। सभी लोग हृष्ट, पुष्ट, तुष्ट, अलुब्ध और सत्यवादी थे। अयोध्या के पुरुष कामी, कदर्य और नृशंस नहीं थे और नारी सब धर्मशीला और पतिव्रता थीं। अयोध्या के वीर पुरुष भी राजा के विश्वासपात्र और सरल थे। कम्बोज बाल्हीक, सिन्धु और वनायु देश से अयोध्या में अश्व आया करते और विंध्य, हिमालय से महापद्म ऐरावत प्रभृति भद्रमन्द और मृगजातीय नाना प्रकार के हस्ती। हाय! अब इनकी सत्यता पर विश्वास भी नहीं रहा! योगीश्वर वाल्मीकि की कविता केवल कल्पनामात्र समझी गई। पाठक! पुरानी अयोध्या का यही चित्र हैं।

[सं॰ १९०० के सुदर्शन से संपादक स्वर्गीय पं॰ माधवप्रसाद मिश्र के भाई पं॰ राधाकृष्ण मिश्र की आज्ञा से उद्‌धृत।]

 

 

(ख) और प्राचीन ग्रन्थों में अयोध्या का वर्णन

कालिदास का वर्णन—कालिदास ने रघुवंश के आदि में अयोध्या का वर्णन नहीं किया, यद्यपि अपने आश्रयदाता चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के साथ अयोध्या आये थे। उस समय महाकवि ने अयोध्या की उजड़ी दशा देखी थी जिसका वर्णन उन्होंने सर्ग १६ में किया है। इसीसे हमें कुछ अयोध्या की समृद्धि का पता लगता है। अयोध्या की अधिष्ठात्री देवी महाराज कुश से कहती है—

वस्वौकसारामभिभूय साऽहं
सौराज्यवद्धोत्सवया विभूत्या।[]
निशासु भास्वत्कलनूपुराणां[]
यः संचरो भूदभिसारिकाणाम्॥
स राजपथः . . . .

आस्फालितं यत्प्रमदाकराग्रेः[]
मृदंगधीरध्वनिमन्वगच्छत्।
तदम्भः. . . .
सोपानमार्गेषु च येष रामाः[]
निक्षिप्तवत्यश्चरणान् सरागान्।
चित्रद्विपाः पद्मवनावतीर्णाः[]
करेणुभिर्दत्तमृणालभंगाः।
स्तम्भेषु योषित् प्रतियातनानाम्॥[]
उत्क्रान्तवर्णाक्रमधूसराणाम्।
आवर्ज्य शाखाः सदयं च यासाम्।[]

पुष्पाण्युपात्तानि विलासिनीभिः॥
(ता) उद्यान लताः॥
वलिक्रियावर्जितसैकतानि।[]
...सरयूजलानि॥

परन्तु उसी समय का बना हुआ एक महाकाव्य और है जिसके आदि ही में अयोध्या का वर्णन है। इस ग्रन्थ का नाम जानकीहरण है और इसका निर्माता कवि कुमारदास है। यह ग्रन्थ सिंहल देश में मिला और स्वर्गीय धर्मागमनाथ स्थविरपाद ने उसे तीस वर्ष हुये सिंहली अक्षरों में छपवाया था।

"सिंहल में कुमारदास के लिये एक गलत धारणा है। यहाँ कहते हैं कि कालिदास के नए मित्र कुमारदास सिंहल के राजा थे। लेकिन महावंश में किसी सिंहल-राज का नाम कुमारदास नहीं पाया जाता। न यहाँ के पुराने इतिहास-ग्रन्थों में जानकीहरण ऐसे प्रौढ़ ग्रन्थ के रचयिता किसी महाकवि राजा का नाम आता है। सिंहल के राजा सभी बौद्ध थे। इसलिये भी जानकीहरण पर काव्य लिखना संदिग्ध समझा जाता है। यहाँ यह भी कहा जाता है कि कालिदास ने स्वयं इस काव्य को लिखकर कुमारदास के नाम से प्रसिद्ध कराया। वास्तविक बात यह जान पड़ती है—कालिदास और राजा कुमारदास दोनों घनिष्ट मित्र थे। यह राजा कविता-प्रेमी भी था। किन्तु राजा के नाम में अनुप्रास के ही लिये 'दास' जोड़ा गया है। वस्तुतः यह कुमार सिंहल का राजा कुमार धातुसेन (५१५—२४ ई॰) न हो कर 'गुप्त-साम्राट्' कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य (४१३–५५ ई॰) था। नाम की समानता से ऐसी भ्रान्ति स्वाभाविक है।"[]

हम अध्याय १० में दिखायेंगे कि महाकवि कालिदास गुप्तवंशी राजा चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य के आश्रित थे। कुमारगुप्त महेन्द्रादित्य उसका बेटा था। जानकीहरण काव्य[१०] रघुवंश के पीछे लिखा गया जैसा कि इस श्लोक से प्रकट है।

जानकीहरणं कर्तुं रघुवंशे स्थिते सति।
कविः कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमः॥

जानकीहरण महाकाव्य में आदि ही में अयोध्या का वर्णन है। इसके कुछ अंश नीचे उद्धृत किये जाते हैं:—

आसीदवन्यामतिभोगभाराद्दिवोऽवतीर्णा नगरीव दिव्या।
क्षत्रानलस्थानशमी समृद्ध्या पुरामयोध्येति पुरी परार्ध्या॥

[अयोध्या पुरी क्षत्रियों के तेज की शमी धनधान्य से पूरित, एक दिव्य नगरी ऐसी जान पड़ती थी मानों भोग के भार से स्वर्ग से पृथिवीतल पर उतरी थी।]

कृत्वापि सर्वस्य मुदं समृद्ध्या हर्षाय नाभूदभिसारिकाणाम्।
निशासु या काञ्चनतोरण्स्थरत्नांशुभिर्भिन्नतमिस्रराशिः॥

[वह अपनी समृद्धि से सब को सुख देकर अभिसारिकाओं को दुख देती थी क्योंकि उसके सुनहरे फाटकों में जड़े हुये रत्नों के प्रकाश से अँधेरा छट जाता था।]

स्वबिम्बमालोक्य ततं ग्रहाणामादर्शभित्तौ कृतबन्भ्यघातः।
रथ्यासु यस्यां रदिनः प्रमाणं चक्रुर्मदामोदमरिद्विपानाम्॥

[अयोध्या के घर सब ऐसे पदार्थ के बने थे कि उनकी दिवारें दर्पण सी चमकती थीं। उस पर हाथी अपना प्रतिबिंब देखकर टक्कर मारते थे परन्तु जब उनमें से मद न निकलता था तो अपनी भूल समझ जाते थे।

यत्र क्षत्तोद्धृंहिततामसानि रक्ताश्मनीलोपलतोरणानि।
क्रोधप्रमोदौ विदधुर्विभाभिर्नारीजनस्य भ्रमतो निशासु॥

[(यहाँ फिर अभिसारिकार का वर्णन है।) रात को जो स्त्रियाँ अपने उपपतियों के पास जाने को निकलती थीं उन्हें कभी सुख होता था कभी क्रोध, क्योंकि लाल और काले पत्थर के फाटकों में लाल पत्थर की चमक से अँधेरा छँट जाता था और काले पत्थरों से अँधेरा बढ़ जाता था।]

कुमारगुप्त की राजधानी अयोध्या थी और यह सम्भव नहीं कि साम्राट् अपनी राजधानी की झूठी बड़ाई करता। हम यह समझते हैं कि उसने उस समय की अयोध्या का वर्णन किया।

यह तो हुई सनातनधर्मियों की बात, अध्याय ८ में यह दिखाया जायगा कि अयोध्या जैनों का भी तीर्थ है। कलकत्ते के प्रसिद्ध विद्वान् और रईस बाबू पूरनचन्द नाहार ने हमारे पास दो जैनग्रंथों से उद्धृत करके अयोध्या का वर्णन भेजा है। एक धनपाल की तिलकमंजरी (Edited by Pandit Bhavadatta Sastri and Kashi Nath Pandurang Paraba ànd published by Tuka Ram Javaji, Bombay) से लिया गया है और दूसरा हेमचन्द्राचार्य कृत त्रिष्टष्टिशला का पुरुष चरित से। हमने पूरे पूरे दोनों उपसंहार में दे दिये हैं।

तिलकमंजरी का ग्रंथकार अयोध्या की प्रशंसा में मस्त हो गया है। जैसे महाकवि कालिदास ने अयोध्या के मुँह से कहलाया है कि मैंने कैलास को भी अपनी विभूति से अभिभूत कर दिया वैसे ही धनपाल आदि ही में कहते हैं कि अयोध्या की रमणीयता से सारा सुरलोक निरस्त हो गया था। . . . यह भारतवर्ष के मध्यभाग का अलंकार स्वरूप थी। इसके चारों ओर ऊँचा कोट था इसके आगे जलभरी गहरी खाईं थी जिसे मनोरथों से भी कोई लाँघ नहीं सकता था और जिसमें ऊँचे कोट की परछाई पड़ने से ऐसा जान पड़ता था मानों मैनाक की खोज में हिमालय समुद्र में घुसा हुआ है। इत्यादि।'

हेमचन्द्र जी अन्हलवाड़े के कुमारपाल सोलङ्की के गुरु थे। वे कहते हैं कि इंद्रदेव की आज्ञा से कुवेर ने १२ योजन चौड़ी और ९ योजन लंबी विनीता पुरी बनायी जिसका दूसरा नाम अयोध्या भी था और उसे अक्षय्य धनधान्य और वस्त्र से भर दिया। . . . उसके घरों के आँगनों में मोती चुनकर स्वस्तिका बनती थी—वहाँ जलकेलि में स्त्रियों के हार टूटने से घर की वावलियाँ ताम्रपर्णी[११] सी लगती थीं जहाँ चन्द्रमणि की भित्तियों से रात को इतना जल गिरता था कि सड़कों की धूर बैठ जाती थी . . . विनीता नाम की पुरी जम्बूद्वीप के भरतखंड में पृथिवी की शिरोमणि थी।

परन्तु जैन-धर्म का सब से प्रामाणिक ग्रन्थ आदिपुराण है। इस ग्रंथ को विक्रम संवत की आठवीं शताब्दी में जिन सेनाचार्य ने संस्कृत में रचा था। इसमें अयोध्या का वर्णन बारहवें अध्याय में दिया हुआ है।[१२]

तौ दम्पती तदा तत्र भोगैकरसतां गतौ।
भोगभूमिश्रियं साक्षाच्चक्रतुर्वियुतावपि॥६८॥

ऋषभदेव जी (आदिनाथ) के माता पिता मरुदेवी और राजा नाभि इसमें भोगभूमि से वियुक्त होने पर बड़े आनन्द से रहे।

तस्यामलंकृते पुण्ये देशे कल्पाङ्घ्निपात्थये।
तत्पुण्यैमुहुराहूतः पुरहूतः पुरीं दधात्॥६९॥

[कल्पवृक्ष के नष्ट होने पर उस देश में जिसे उन दोनों ने अलंकृत किया था उन्हीं के पुण्यों से आहूत होकर इन्द्र ने पुरी रची।]

सुरा ससंभ्रमा सद्यः पाकशासनशासनात्।
तां पुरीं परमानन्दाद् व्यधुः सुरपुरीनिभा॥७०॥

[देवताओं ने तुरन्त बड़े चाव से इन्द्र की आज्ञा पाकर एक पुरी बनायी जो देवपुरी के समान थी।]

स्वर्गस्येव प्रतिच्छन्दं भूलोकेऽस्मिन्निधित्सुभिः।
विशेषरमणीयैव निर्ममे साऽमरैः पुरी॥७१॥

[देवताओं ने यह पुरी ऐसी रमणीय बनायी कि भूलोक में स्वर्ग का प्रतिबिंब हो।]

स्वस्वर्गस्त्रिदशावासस्स्वल्प इत्यवमन्यते।
परः शतजनावासभूमिका तान्तु ते व्यधुः॥७२॥

[देवताओं ने अपने रहने की जगह का अपमान किया क्योंकि यह त्रिदशावास (अक्षरार्थ तीस जनों के रहने का स्थान) था[१३] इससे उन्होंने सैकड़ों मनुष्यों के रहने की जगह बनायी।]

इतस्तूतश्च विक्षिप्तानानीयानीय मानवान्।
पुरीं निवेशयामासुर्विन्यासैः विविधैः सुराः॥७३॥

[इधर उधर बिखरे मनुष्यों को इकट्ठा करके देवों ने यह नगर बसाया और इसे सजा दिया।]

नरेन्द्रभवनञ्चास्या सुरैर्मध्ये विवेशितम्।
सुरेन्द्रनगरस्पर्धि परार्ध्यविभवान्वितम्॥७४॥

[देवों ने इस पुरी के बीच में राजा का प्रासाद बनाया इसमें असंख्य धन भर दिया जिससे यह इन्द्र के नगर की टक्कर का हो गया।]

सूत्रामा सूत्रधारोऽस्या शिल्पिनः कल्पजा सुराः।
वास्तुजातामही कृत्स्ना सोद्यानास्तु कथम्पुरी॥७५॥

[अयोध्या सबसे बड़ी पुरी क्यों न हो जब इन्द्र इसके सूत्रधार थे, कल्प के उत्पन्न देव कारीगर थे और सारी पृथिवी से जो सामान चाहा सो लिया।]

संचस्कुरुश्च तां वप्रप्राकारपरिखादिभिः।
अयोध्या न परं नाम्ना गुणेनाप्यरिभिः सुराः॥७६॥

[फिर देवों ने कोट और खाई से इसे अलंकृत किया। और अयोध्या केवल नाम ही से नहीं अयोध्या थी बैरियों के लिये भी अयोध्या[१४] थी।]

साकेतरुढिरयप्स्या श्लाघ्यैव सुनिकेतनैः।
स्वनिकेत इवाह्वातुंसाकूतेः केतवाहुभिः॥७७॥

[इसको साकेत इस लिये कहते थे कि इसमें अच्छे अच्छे मकान थे, उन पर झंडे फहराते थे जिससे जान पड़ता था कि देवताओं को नीचे बुला रहे हैं।]

सुकोशलोतिविख्यातिं सादेशाभिख्यया गता।
विनीतजनताकीर्णा विनीतेति च सा मता॥७८॥

[इसका नाम सुकोशल इस कारण था कि उसी नाम के देश का प्रधान नगर था और विनीत जनों के रहने से इसका विनीता नाम पड़ा।] इन वाक्यों से अत्युक्ति हो परन्तु किसी को क्या पड़ी थी कि निरा झूठ लिख डालता।  

(ग) सूर्यवंश के अस्त होने के पीछे की अयोध्या

अयोध्या कितनी बार बसी और कितनी बार उजाड़ हुई, इसका हिसाब करना सहज नहीं है। सच पूछिये तो भगवान् श्रीरामचन्द्र की लीला-संवरण के बाद ही अयोध्या पर विपत्ति आई। कोशलराज के दो भाग हुये। श्रीरामचन्द्र के ज्येष्ठ कुमार महाराज कुश ने अपने नाम से नई राजधानी "कुशावती" बनाई और छोटे पुत्र लव ने "शरावती" वा "श्रावस्ती" की शोभा बढ़ाई। राजा के बिना राजधानी कैसी? अयोध्या थोड़े ही दिनों पीछे आप से आप श्रीहीन हो गई। अयोध्या के दुर्दशा के समाचार सुन महाराज कुश फिर अयोध्या में आये और कुशावती ब्राह्मणों को दानकर पूर्वजों की प्यारी राजधानी और उनकी जन्म-भूमि अयोध्या ही में रहने लगे।

कविकुल-कलाधर महाकवि कालिदास ने रघुवंश काव्य के १६ वें सर्ग में कुशपरित्यक्ता अयोध्या का वर्णन अपनी ओजस्विनी अमृतमयी लेखनी से किया है जिसको पढ़कर आज दिन भी सरस रामभक्तों का हृदय द्रवीभूत होता है। यद्यपि महाकवि ने यह उस समय का पुराना चित्र उतारा है, पर हाय! हमारे मन्द अदृष्ट से वर्तमान में भी तो वही वर्तमान है। भेद है तो यही है कि उस समय भगवती अयोध्या की पुकार सुननेवाला एक सूर्यवंशी विद्यमान था। अब वह भी नहीं रहा।

जड़ जीव कोई सुने या न सुने। परन्तु अयोध्या की वह हृदयविदारिणी पुकार सरयू के कल कल शब्द के साथ "हा राम! हा राम!" करती हुई अभी तक आकाश में गूँज रही है। उस प्राचीन दृश्य को विगत जीव हिन्दु-समाज भूले तो भूल सकता है, परन्तु अयोध्या की अधिष्ठात्रीदेवी किस प्रकार भूल सकती है।

महाभारत के महासमर तक[१५] अयोध्या बराबर सूर्य्यवंशियों की राजधानी रही। उस युद्ध में कुमार अभिमन्यु के हाथ से अयोध्या का सूर्य्यवंशी महाराज 'बृहद्दल' मारा गया। इसके बाद इस राज्य पर ऐसी तबाही आई कि अयोध्या बिल्कुल उजड़ गई। सूर्य्यवंश अन्धकार में लीन हो गया। इस वंश के लोग दूसरे के अधीन हुए। प्राणों का मोह बढ़ा और स्वाधीनता नष्ट हुई। उदयपुर के धर्मात्मा राणा, जोधपुर के रणबंके राठोड़ और जयपुर के प्रतापी कछवाह इसी सूर्य्यवंश महावृक्ष की बची बचाई शाखा के अवशिष्ट हैं।

महाभारत तक का वृत्तान्त पुराणों में मिलता है और पीछे का कुछ वृत्तान्त जाना नहीं जाता कि अयोध्या में कब क्या हुआ और किसने क्या किया। परन्तु शाक्यसिंह बुद्धदेव के जन्म से फिर अयोध्या का पता चलता है और कुछ कुछ वृत्तान्त भी मिलता है। कारण बुद्धदेव कपिलवस्तु में उत्पन्न हुये, श्रावस्ती में रहे और कुशीनगर वा कुशीनर में निर्वाण को प्राप्त हुए। यह सब स्थान कोशल देश में विद्यमान थे। बुद्धमत के ग्रन्थों से जाना जाता है कि उन दिनों कोशल वा अवध की राजधानी का राज सिंहासन 'श्रावस्ती' में था जिसको श्रीरामचन्द्रदेव के कनिष्ठ पुत्र लव ने 'शरावती' के नाम से बसाकर अपनी राजधानी बनाया था।[१६] इसीका नाम जैनों के प्राकृत-ग्रन्थों में 'सावत्थी' है। अब यह अयोध्या के पास उत्तर दिशा में महाराज बलरामपुर के इलाके, गोंडा के ज़िले में उजड़ी हुई पड़ी है। वहाँवाले इसे "सहेट-महेट" कहते हैं। ईसा की सप्तम शताब्दी में 'ह्वान्‌च्वांग' नामक प्रसिद्ध बौद्ध यात्री भारतवर्ष में आया था। उसने अयोध्या के साथ श्रावस्ती और कपिलवस्तु आदि की भी यात्रा पुस्तक में वर्णन की है। उसीके अनुसार अलेकज़ण्डर कनिंघाम साहेब ने "सहेट-महेट" के खंडहर खुदाकर अनेक ऐतिहासिक बातों का पता लगाया जिनका वर्णन हम किसी दूसरे लेख में करेंगे।

बौद्धों के समय यद्यपि अयोध्या अवध की राजधानी थी, तथापि उसकी दशा ऐसी खराब न थी जैसी पीछे मुसल्मानों के समय हुई। तब तक पुराने राजमन्दिर और सुन्दर देवस्थान तोड़े नहीं गये थे और न अयोध्यावासी ब्राह्मणों का रक्त बहाया गया था। चीनयात्री के लेख से भी अयोध्या की पिछली दशा सुन्दर ही प्रतीत होती है। ईस्वी सन् से ५७ वर्ष पहिले श्रावस्ती के बौद्ध राजा को जीत कर उज्जैन के प्रसिद्ध महाराज विक्रमादित्य ने आर्य्य-राजधानी अयोध्या का जीर्णोद्धार किया।[१७] पुराने मन्दिर देवालय और स्थान सब परिष्कृत किये गये और अनेक नवीन मन्दिर भी बनावाये गये। वह प्रसिद्ध मन्दिर जिसको बादशाह बाबर ने सन् १५२६ ई॰ में तोड़कर भगवान् रामचन्द्रदेव की जन्मभूमि पर मसजिद खड़ी की, इन्हीं महाराज विक्रम ने बनवाया था। यदि अब तक वह मन्दिर विद्यमान रहता तो न जाने उससे कैसी कैसी ऐतिहासिक वृत्तान्तों का पता लगता।

श्रावस्ती ने आठ सौ वर्ष तक स्वतन्त्रता का सुख भोगा। अन्त को वह भी जननी अयोध्या के समान पराधीन हो दूसरों का मुँह देखने लगी। कभी पटने के प्रतापशाली राजाओं ने इसे अपनाया और कभी कन्नौजवालों ने निज राजधानी की सेवा में इसे नियुक्त किया। अपने लोग चाहे कितने ही बुरे क्यों न हों अन्त को अपने अपने ही हैं। अपना यदि मारे भी तो भी छाया में रखता है। बौद्धों और जैनों के समय पहिले की सी बात न थी तो भी अयोध्या की इस समय दशा मुसल्मानों के राज्य से लाख गुनी अच्छी थी। क्योंकि दूसरों की राजधानी होने की अपेक्षा अपनों की दासी होना भी भला था, परन्तु विधाता को इतने पर भी संतोष नहीं हुआ इसके लिये और भी भयङ्कर समय उपस्थित कर दिया। प्रथम तो रघुवंशियों के विरह से यह आप ही मर रही थी दूसरे परस्पर की फूट ने इसे और भी हताश कर दिया था। वह घाव अभी तक सूखने भी न पाये थे जो राम-वियोग से इसके अर्चनीय और वन्दनीय शरीर में होने लगे थे, अकस्मात् महमूद गज़नवी के भाञ्जे सैयद़ सालार ने इस पर चढ़ाई कर 'जले पर नून' का सा असर किया। इसी सालार ने काशी के वृद्ध महाराज 'बनार' को धोखे से नष्ट कर काशी का स्वाधीन सुख अपहरण किया और इसीने अयोध्या को चौपट किया। कई लड़ाइयों बाद सन् १०३३ में यह सालार हिन्दुओं के हाथ से बहराइच में मारा गया। 'गाज़ी मियाँ' के नाम से आजकल यही 'सालार' मूर्ख और पशुप्राय जीवित हिन्दुओं से पूजा करवा रहा है।

"किमाश्चर्य्यमतःपरम्।"

सन् १५२६ ई॰ में बाबर ने हिन्दुस्तान पर चढ़ाई की और दो वर्ष पीछे अर्थात् सन् १५२८ में अयोध्या के एक मात्र अवशिष्ट 'रामकोट' मन्दिर को विध्वंस कर रघुवंशियों की जन्म-भूमि पर अपने नाम से मसजिद बनवाई जो सही सलामत आजतक उसी तरह साभिमान खड़ी हुई है। मुसल्मान इतिहास-लेखकों ने बाबर को शान्त और दयालु बादशाह लिखा है; किन्तु बाबर की बर्बरता और अन्याय के हमारे पास अनेक प्रमाण हैं जिनको हम मर कर भी नहीं भूल सकते! अकबर के समय में धर्मप्रिय हिन्दुओं ने 'नागेश्वरनाथ' और चन्द्रहरि आदि देवों के दस पाँच मन्दिर ज्यों त्यों कर फिर बनवा लिये थे जिनको औरङ्गजेब ने तोड़ उनकी जगह मसजिद खड़ी की। सन् १७३१ ई॰ में दिल्ली के बादशाह ने अवध के झगड़ालू क्षत्रियों से घबरा कर अवध का 'सूबा' सआदत खाँ को दिया तब से नवाबी की जड़ जमी।

अवध की नवाबी का बीज सआदत खाँ ने बोया था। मनसूर अली खाँ उपनाम सफदरजंग के समय वह अङ्कुरित और पल्लवित हुआ। नव्वाब शुजाउद्दौला ने उसे परिवर्द्धित कर फल पाया। मनसूर अली खाँ के समय से अवध की राजधानी फ़ैज़ाबाद हुई। (फ़ैज़ाबाद वर्तमान अयोध्या से ३ मील पश्चिम ओर है)। अयोध्या की राजश्री फ़ैज़ाबाद के नाम से विख्यात हुई। यहाँ के मुसल्मान मुर्दों के लिये अयोध्या 'करबला' हुई, मन्दिरों के स्थान पर मसजिदों और मक़बरों का अधिकार हुआ, साधु सन्यासी और पुजारियों की जगह मुल्ला मौलवी और क़ाज़ी जी आरूढ़ हुये। अयोध्या का बिल्कुल स्वरूप ही बदल गया। ऐसी ऐसी आख्यायिका और मसनवी गढ़ी गईं जिनसे यह सिद्ध हो कि मुसल्मान औलिये फ़क़ीरों का यहाँ 'क़दीमी' अधिकार है। अब तक भी अयोध्या में 'मणिपर्वत' के पास नवाबी समय का दृश्य दिखलाई देता है। इसी समय नवाब सफ़दर जंग के कृपापात्र सुचतुर दीवान नवलराय ने अयोध्या में 'नागेश्वर नाथ महादेव' का वर्तमान मन्दिर बनवाया।

दिल्ली की बादशाही के कमज़ोर होने से अवध की नवाबी स्वतन्त्र हुई। दक्षिण में मरहठों का जोर बढ़ा। पंजाब में सिक्ख गरजने लगे। सबको अपनी अपनी चिन्ता हुई। प्राणों के लाले पड़ गये। इसी उलटफेर और अन्धाधुन्ध के समय में हिन्दू-सन्यासियों ने अयोध्या में डेरा आ डाला। शनैः शनैः सरयू के तट पर साधुओं की झोपड़ी पड़ने लगीं। शनैः शनैः रामनाम की गूँज व मृदु मधुर ध्वनि से अयोध्या की वनस्थली गूँजने लगी। शाही परवानगी से छोटे छोटे मन्दिर बनने लगे। धीरे धीरे गोसाईं और स्वामियों के अनेक अखाड़े आ जमे और जहाँ तहाँ भस्मधारी हृष्ट-पुष्ट परमहंस और वैरागी दृष्टिगोचर होने लगे। अपने अपने नेता व गुरु की अधीनता में अलग अलग 'छावनी' के नाम सेइ नकी जमात की जमात रहने लगी। ये लोग आजकल के बैरागियों की तरह वृथा पुष्ट और विषयासक्त न थे। भगवद्भजन के साथ साथ भगवती अयोध्या के उद्धार की भी इन्हें चिंता थी। इस लिये कुश्ती करना, हथियार बाँधना और विपत्ति के समय अपने बचाने को मुसल्मानों से लड़ना झगड़ना भी इनका कर्तव्य कार्य्य था।

यदि उस समय गुसाईं और बैरागियों में परस्पर ईर्ष्या और कलह की जगह प्रेम और सौहार्द होता तो ये लोग अपने किये हुये पुरुषार्थ के फल से वञ्चित न होते। यदि उस समय इन्हें सिक्खगुरु गोविन्दसिंह जैसा एक महाप्राण दूरदर्शी धर्मगुरु मिलता, तो ये लोग भी खाली भिखमंगे न होकर सिक्खों की तरह एक हिन्दू रियासत का कारण होते; पर विधाता को यह स्वीकार न था। इस लिये दरिद्र भारत में इनके द्वारा भिक्षुकों ही की संख्या वृद्धि हुई। नवाब आसिफ़ुद्दौला के दीवान राजा टिकैतराय ने उस समय इनको बहुत कुछ सहारा दिया था। शाही खर्च से गढ़ीनुमा छोटे छोटे दृढ़तर कई मन्दिर भी बनवा दिये थे। प्रसिद्ध मन्दिर हनुमान गढ़ी भी इसी समय 'गढ़ी' के आकार में हुआ था। नवाब वाज़िदअली शाह के समय अयोध्या में सब मिला कर तीस मन्दिर तैयार हो गये थे। अब कई सौ मन्दिर बन गये और प्रतिवर्ष इनकी संख्या बढ़ती ही चली जा रही है। परन्तु अभी तक अयोध्या में गृहस्थों का निवास नहीं हुआ। गृहस्थों के बिना पुरी कैसी, तथापि दिन दूनी रात चौगुनी अयोध्या की वाह्य शोभा बढ़ रही है, यह क्या कम आनन्द की बात है?

[सं १९०० के सुदर्शन के संपादक स्वर्गीय पं॰ माधवप्रसाद मिश्र के भ्राता पं॰ राधाकृष्ण मिश्र की आज्ञा से उद्धृत।]

 

  1. मैं सुराज संपदा जनाई।
    मानी लघु कैलास बढ़ाई॥

  2. निशि महँ बजत नुपुरुन धारी।
    चलीं जहाँ पिय खोजन नारी॥

    अभिसारिका का लक्षण नायिकाभेद में यह है—

    कान्तार्थिनी तु या याति संकेतं साऽभिसारिका।

    अभिसारिका उसे कहते हैं जो अपने कान्त की खोज में संकेत (किसी नियत स्थान) को जाय। महाकवि कालिदास ने तो लिखा ही है आगे जानकीहरण महाकाव्य में भी अभिसारिकाओं का वर्णन है। हमारे पाठक यह न समझें कि यह सूर्यवंश की राजधानी के अयोग्य है। समृद्ध नगर में सब तरह के लोग रहते हैं। राजधानी जिसमें—

    रिधि सिधि सम्पति नदी सुहाई।
    उमगि अवध अंबुधि कहँ आई॥

    योगी यतियों का निवास न था और न हो सकता था। नपुंसकों और यतियों से समृद्ध नगर नहीं बनता।
  3. लागत तरुनिहाथ जहँ नीरा।
    बज्यो मृदङ्ग समान गंभीरा॥

  4. जिन सीढ़िन पर सिन्धुर गामिनि।
    डारत रंगि चरन वरभामिनि॥

  5. बने चित्र महँ नाग विशाला।
    लहत प्रिया सन मृदुल मृनाला॥

  6. खंभन मांहि चित्र तरुनिन के।
    धूमिल भये रँग अब तिनके॥

  7. जाकी डार झुकाय संभारी।
    तोरत फूल रहीं सुकुमारी॥

  8. वेदि विहीन होइ सरितीरा।
    बिन सुगन्ध चूरन सुचि नीरा॥

    (रघुवंश भाषा, सर्ग १६)

  9. सरस्वती भाग ३१ संख्या ६ पृष्ठ ६८२ विद्यालंकार कालेज सीलोन के श्रीराहुल सांकृत्यायन के लेख से उद्धृत।
  10. यह ग्रंथ हमको इलाहाबाद म्यूनिसिपलिटी के विद्वान् इकज़िक्युटिव अफ़सर पंडित ब्रजमोहन व्यास की कृपा से प्राप्त हुआ है।
  11. लंका जहाँ अब तक मोती निकलते हैं।
  12. यह लेख पंण्डित अजित प्रसाद जी एम्॰ ए॰, एल-एल॰ बी॰, अडवोकेट के भेजे हुये लेख के आधार पर है।
  13. यह त्रिदश पर श्लेष है त्रिदश=देवता=तीस।
  14. जिसे कोई जीत न सके।
  15. और उसके कई पीढ़ी पीछे तक।—लेखक
  16. यह भी ठीक नहीं। श्रावस्ती राजा श्रावस्त की बसाई थी।
  17. हमारी जान में यह भी ठीक नहीं है।