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अयोध्या का इतिहास/४—आज-कल की अयोध्या

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प्रयाग: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ४४ से – ५३ तक

 

 

चौथा अध्याय
आजकल की अयोध्या।

अंगरेज़ी राज्य में अयोध्या पाँच छः हज़ार की आबादी का एक छोटा सा नगर सरयू नदी के बायें तट पर बसा है। इसका अक्षांश २६° २७′ उत्तर और देशान्तर लन्दन से ८२° १५′ पूर्व और बनारस से ७′ ३०″ पश्चिम है। परन्तु धार्मिक विचार से फ़ैज़ाबाद के अतिरिक्त और कई गाँव भी इसी के अन्तर्गत हैं। यह बात परिक्रमा से सिद्ध होती है जो किसी नगर की सीमा जानने के लिये सबसे उत्तम प्रमाण है।

यह परिक्रमा कार्तिक सुदी नवमी को की जाती है और सरयू के किनारे पर स्वर्गद्वार से आरम्भ होती है। यद्यपि परिक्रमा और कहीं से भी आरम्भ की जा सकती है, किन्तु जहाँ से आरम्भ की जाय वहीं अन्त होना चाहिये। स्वर्गद्वार से चल कर नदी के किनारे किनारे यात्री सात मील तक जाता है और वहाँ से मुड़ कर शाहनिवाजपूर और मुकारमनगर[] में से होता हुआ दर्शननगर में सूर्यकुण्ड पर ठहरता है। यह दर्शननगर बाजार के पास राजा दर्शन सिंह का बनाया हुआ सूर्य भगवान का सुन्दर सरोवर है। दर्शननगर से वह पश्चिम की ओर कोसाहा, मिर्ज़ापूर और बीकापूर से होता हुआ जनौरा को जाता है जो फ़ैज़ाबाद–सुल्तानपूर सड़क पर है।

यह गाँव अयोध्या से दक्षिण–पश्चिम में ७ मील पर और फ़ैज़ाबाद से दक्षिण की ओर १ मील पर है। इस गाँव में एक पक्का सरोवर है जिसे गिरिजाकुण्ड कहते हैं और एक शिवमन्दिर है। यह अयोध्या में एक पवित्र स्थान माना जाता है और बहुत से यात्री यहाँ प्रतिवर्ष कार्तिक में परिक्रमा करते हुये पूजा करने जाते हैं।

इसे जनौरा (जनकौरा का अपभ्रंश) इस लिये कहते हैं कि जब महाराज जनक अयोध्या आते थे तो यहीं ठहरते थे। क्योंकि बेटी के घर हिन्दूलोग पानी तक नहीं पीते। इस गाँव में सूर्यवंशी ठाकुर रहते हैं जो अपने को रामचन्द्र जी के वंशज समझते हैं। उनके पूर्व-पुरुष कुलू पर्वत (पंजाब) से लाये गये थे। कहा जाता है कि जब राजा विक्रमादित्य ने अयोध्या को फिर से निर्माण कराना आरम्भ किया तो पण्डितों ने उन्हें रामचन्द्र जी के वंशजों को यज्ञ में भाग लेने के लिये बुलाने की सलाह दी थी। अन्यथा यज्ञ हो ही नहीं सकता था।

जनौरा से यात्री खोजनपुर और सिविल-लाइन के बीच से होता हुआ घाघरा के तट पर निर्मलीकुण्ड जाता है और वहाँ से गुप्तारघाट होता हुआ परिक्रमा को वहीं समाप्त कर देता है जहाँ से उसे आरम्भ करता है। इस प्रकार अयोध्या नगर की स्थिति निश्चित हुई।

अब हम अयोध्या के कुछ ऐतिहासिक स्थानों का वर्णन करेंगे। इन में सबसे अधिक उल्लेखनीय स्थान रामकोट (रामचन्द्र जी का दुर्ग) है। दुर्ग के भीतर बहुत अधिक भूमि है और प्राचीन पुस्तकों में लिखा है कि इस दुर्ग में २० फाटक थे और प्रत्येक फाटक पर रामचन्द्र जी के मुख्य मुख्य सेनापति रक्षक थे। इन गढ़-कोटों के नाम भी वही थे और हैं जो इन के रक्षकों के थे। इस दुर्ग के भीतर ८ राजप्रासाद थे जहाँ राजा दशरथ, उनकी रानियाँ और उनके बेटे रहते थे। अयोध्या माहात्म्य में निम्नलिखित अंश रामकोट के वर्णन में लिखा है।

"राजप्रासाद के मुख्य फाटक पर हनुमान जी का वास था और उनके दक्षिण में सुग्रीव और उसीके निकट अंगद रहते थे। दुर्ग के दक्षिण द्वार पर नल नील रहते थे और उनके पास ही सुषेण। पूर्व की ओर 'नवरत्न' नामक एक मन्दिर था और उसके उत्तर में गवाक्ष रहते थे। दुर्ग के पश्चिम द्वार पर दधिवक्र थे और उनके निकट शतवलि और कुछ दूर पर गन्धमान्दन, ऋषभ, शरभ और पनस थे। दुर्ग के उत्तर द्वार पर विभीषण रहते थे और उनके पूर्व में उनकी स्त्री सरमा थी। उसके पूर्व में विघ्नेश्वर थे और उसके पूर्व में पिण्डारक रहते थे। उसके पूर्व में वीरमत्तगजेन्द्र का वास था। पूर्वीय भाग में द्विविद रहते थे और उसके उत्तर-पश्चिम में बुद्धिमान मयन्द रहते थे, दक्षिणी भाग में जाम्बवान और उनके दक्षिण में केसरी। यही दुर्ग की चारों ओर से रक्षा करते थे।"

इनमें से आज-कल ४ ही बचे हैं, हनुमान गढ़ी, सुग्रीव टीला, अङ्गदटीला और मत्तगजेन्द्र, जिसे सर्वसाधारण मातगेंड कहते हैं। हनुमान गढ़ी अब चार कोटवाला छोटा सा दुर्ग दिखाई पड़ता है। यह गढ़ी आसिफ़ुद्दौला के मन्त्री टिकैतराय के द्वारा पुराने स्थान पर बनी थी और एक बड़ी मूर्त्ति स्थापित की गयी थी। प्राचीन छोटी मूर्त्ति उसीके आगे स्थापित है।

अयोध्या प्रधानतः वैरागियों का घर है और हनुमान-गढ़ी उनका दृढ़ दुर्ग है। गढ़ी के वैरागी निर्वाणी अखाड़े के हैं और चार पट्टियों में विभक्त हैं। साधारण पढ़े लिखे हिन्दुस्तानी समझते हैं कि वैरागी लोग बड़े उद्दण्ड होते हैं और उनका एक उद्देश्य खाओ पियो और मस्त रहो है, किन्तु बात ऐसी नहीं है। चेलों को पहिले बड़ी सेवा और तपस्या करनी पड़ती है। उनका प्रवेश १६ वर्ष की अवस्था में होता है यद्यपि ब्राह्मणों और राजपूतों के लिये वह बन्धन नहीं रहता। इन्हें और और भी सुविधायें हैं जैसे इन्हें नीच काम नहीं करना पड़ता। पहिली अवस्था में चेले को "छोरा" कहते और उस ३ वर्ष तक मन्दिर और भोजन के छोटे छोटे बर्तन धोने को मिलते हैं, लकड़ी लाना होता है और पूजा-पाठ करना होता है। दूसरी अवस्था भी तीन वर्ष की होती है और इसमें उसे "बन्दगीदार" कहते हैं। इसमें उसे कुँये से पानी लाना पड़ता है, बड़े बड़े बर्तन माजने पड़ते हैं, भोजन बनाना पड़ता है और पूजा भी करनी पड़ती है। इसको इतने ही समय में (३ वर्ष) तीसरी अवस्था आरम्भ होती है जिसमें इसे "हुड़दंगा" कहते हैं। इसमें इसे मूर्तियों को भोग लगाना पड़ता है, भोजन  

हनुमानगढ़ी

बाँटना पड़ता है जो दोपहर को मिलता है, पूजा करना पड़ता है और निशान या मन्दिर की पताका ले जाना पड़ता है। दसवें वर्ष में चेला उस अवस्था को जाता है जिसे "नागा" कहते हैं। इस समय वह अयोध्या छोड़ कर अपने साथियों के साथ भारतवर्ष के समस्त तीर्थों और पुण्य स्थानों का परिभ्रमण करने जाता है। यहाँ भिक्षा ही उसकी जीविका रहती है। लौट कर वह पाँचवी अवस्था में प्रवेश करता है और अतीत हो जाता है।

इस अवस्था में वह मृत्युपर्य्यन्त रहता है। अब इसे सिवाय पूजा-पाठ के कुछ काम नहीं करना पड़ता और उसे भोजन और वस्त्र मिलता है।

इससे स्पष्ट है कि वैरागी का काम बेकारी नहीं है। उस नियम से धार्मिक-साधना करनी पड़ती है। वैरागी सदा से हिन्दू-धर्म के रक्षक रहे हैं, इन्हें परिवार का कोई बन्धन नहीं रहता और अपने धर्म के लिये जान देने को तैयार रहते हैं। लखनऊ म्यूज़ियम के एक चित्र से मालूम होता है कि हरद्वार में वैरागियों ने अकबर का कैसा विरोध किया था। सन् १८५५ ई॰ में अयोध्या में जब हिन्दू और मुसल्मानों में बड़ा झगड़ा हो गया था और मुसल्मानों ने गढ़ी पर धावा भी किया था जिसे वे नष्ट-भ्रष्ट करना चाहते थे तो वैरागी ही थे जिन्होंने उन्हें पीछे हटा दिया था। इन्होंने वही वीरता का काम तब भी किया था जब कुछ ही दिन बाद अमेठी के मौलवी अमीरअली ने धावा करने का फिर से प्रयत्न किया था। ये सदा से अपने धर्म के रक्षक रहे हैं और इन्हीं ने अयोध्या को नष्ट होने से बचाया है। ये सिवाय देश के शासक और किसी से नहीं दबते, किन्तु जब दबाव हटा लिया जाता है तो फिर से स्वतन्त्र हो जाते हैं और दूसरे अवसरों पर ये उतने ही शान्त रहते हैं जैसे ईश्वर की सेवा में दत्तचित्त और कोई दूसरी धार्मिक संस्था वाले। उनमें अनेक ऊँचे कुल के हैं, बहुत से रिटायर्ड डिप्टी कलेक्टर और सबार्डिनेट जज हैं। आजकल जो सबसे बड़े महात्मा हैं उनका शुभनाम श्रीसीतारामशरण भगवान् प्रसाद है। वे रिटायर्ड डिप्टी इन्सपेक्टर आफ़ स्कूल्स हैं। कविकुलदिवाकर सुधारक और भक्त-शिरोमणि तुलसीदास अयोध्या के स्मार्त्त वैष्णव थे। अभी मेरी याद में पन्ना रियासत के भूतपूर्व दीवान जानकीप्रसाद जो बाद में रसिकविहारी कहे जाते थे अयोध्या में आकर रहे और वैरागी होकर कनकभवन के महन्त हो गये। इन्हीं में से एक बाबा रघुनाथदास थे जो मेरे पिता के गुरु थे और जिन्होंने मेरा विद्यारम्भ कराया था; इन्हें भारतवर्ष के भिन्न भिन्न प्रान्तों के लाखों हिन्दू देवता समझ कर पूजते थे। बाबा युगलानन्यशरण और उनके चेले बाबा जानकीवरशरण दोनों संस्कृत और फ़ारसी के बड़े विद्वान् थे और बाबा युगलानन्यशरण जी बड़े कवि भी थे।

हम कह चुके हैं कि वैरागियों के कई अखाड़े हैं। "इन सातों अखाड़ों के नियमित क्रम हैं जिसके अनुसार ये बड़े बड़े मेलों और ऐसे ही अवसरों पर चलते हैं। पहिले दिगम्बरी रहते हैं, फिर उनके बाद निर्वाणी दाहिनी ओर, और निर्मोही बाईं ओर, तीसरी पंक्ति में निर्वाणियों के पीछे खाकी दाहिनी ओर, और निरालम्बी बाईं ओर। और निर्मोहियों के पीछे संतोषी और महानिर्वाणी। हर एक के आगे और पीछे कुछ स्थान ख़ाली रहता है।"

वैरागियों के इस संक्षिप्त वर्णन से तात्पर्य केवल यही है कि आजकल नवशिक्षित युवकों में वैरागियों के प्रति जो कुविचार फैला हुआ है दूर हो जाय कि ये हरामख़ोर हैं और अन्धविश्वासी हिन्दू-जनता के दान से जीते हैं और उसे ही ठगते हैं। प्रत्येक संस्था में बुरे भी होते हैं किन्तु मैं विश्वास के साथ बिना प्रतिवाद के भय से कह सकता हूँ कि अयोध्या के वैष्णव वैरागी जैसा कि वे भगवान् रामचन्द्र के भक्त हैं वैसे उतने त्यागी संयमी भी हैं जितने संसार भर की और भी किसी धार्मिक संस्थाओं के पुरुष होंगे। मैं यह वह कर किसी का अपमान कदापि नहीं करना चाहता।  

जन्मस्थान (बाबर) की मसजिद

दूसरे और तीसरे कोट सुग्रीव-टीला और अङ्गद-टीला (कबीर-पर्वत) है। दोनों गढ़ी के दक्षिण में हैं। जेनरल कनिंघम का कथन है कि सुग्रीव-टीला उसी स्थान पर है जहाँ ह्वानच्वांग के अनुसार मणिपर्वत के दक्षिण पश्चिम में ५०० फ़ुट की दूरी पर एक बड़ा बौद्ध मठ था। पाँच सौ फ़ुट आगे वह स्तूप था जहाँ बुद्ध के नख और केश रक्खे गये थे। कनिंघम यह भी मानते हैं कि रामकोट और मणिपर्वत से कोई सम्बन्ध था और इन खण्डहरों का भी रामकोट से प्रत्यक्ष सम्बन्ध है।

इसके बाद दूसरा महत्व का स्थान जन्मस्थान है जहाँ बाबर ने १५२८ में एक मसजिद बनवाई थी जो आज तक उसके नाम से प्रसिद्ध है। जिस स्थान पर मन्दिर बना था उसे लोग यज्ञवेदी कहते हैं। कहा जाता है कि दशरथ ने यहीं पुत्रेष्ठि-यज्ञ किया था। हम अपने बाल्य-काल में यहाँ से जले चावल खोदा करते थे।

विक्रमादित्य द्वारा अयोध्या के जीर्णोद्धार की चर्चा हो चुकी है। यह बात दन्तकथाओं के भी अनुकूल है और ऐतिहासिक अन्वेषणों से भी पता चलता है कि विक्रमादित्य के पहिले अयोध्या की दशा नष्टप्राय थी। क्योंकि यह सर्वसम्मत है कि कालिदास इन्हीं विक्रमादित्य के समय में हुये थे और वे इनकी सभा के नवरत्नों में से एक रत्न थे। हम यह मानते हैं कि रघुवंश के १६वें सर्ग में जो कुश के द्वारा अयोध्या की प्रतिष्ठा पुनः स्थापित करने की चर्चा है वह कदाचित् गुप्तों की राजधानी उज्जैन से (पाटलिपुत्र से नहीं) हटा कर चन्द्रगुप्त द्वितीय द्वारा अयोध्या ले जाने की बात है[] और यज्ञवेदी वही स्थान है, जहाँ यज्ञ हुआ था जब कि चावल और घी का आज का सा चढ़ा भाव नहीं था। यज्ञवेदी भगवान् रामचन्द्र का जन्म स्थान हो सकती है, किन्तु यह मेरा दृढ़मत है कि चन्द्रगुप्त द्वितीय विक्रमादित्य ने भी से फिर से इसे यज्ञ करा कर पवित्र किया था। रामचन्द्र जी के पुराने मन्दिर में थोड़ा ही हेर फेर हुआ है। मसजिद में जो मध्य का गुम्बज है वह प्राचीन मन्दिर ही का मालूम होता है और बहुत से स्तम्भ भी अभी ज्यों के त्यों खड़े हैं। ये सुदृढ़ काले कसोटी के पत्थर के बने हुये हैं। खम्भे सात से आठ फ़ुट तक ऊँचे हैं, और नीचे चौकोर हैं और मध्य में अठकोने।

उस झगड़े के बाद जिसका वर्णन अध्याय १४ में है, हिन्दुओं ने मसजिद का आँगन ले लिया और वहाँ एक वेदी बनवा दी। अब एक दीवार खींच दी गई है जिससे कि मसजिद के नमाज पढ़ने वाले मुसलमानों और बाहर वेदी पर पूजा करने वाले हिन्दुओं में झगड़ा न हो।

वेदी के पास ही कनकभवन है जिसे सीता जी का महल कहते हैं। वहाँ पर सीताराम की दो प्रतिमायें प्राचीन हैं। भगवान् रामचन्द्र की प्रतिमा को कनकभवन-विहारी कहते हैं और यह प्रतिमा अयोध्या की इस ढङ्ग की मूर्त्तियों में सब से सुन्दर है। हमारे लड़कपन में यह छोटा सा मन्दिर था किन्तु अब टीकमगढ़ बुन्देलखण्ड के महाराज ने बहुत रुपया व्यय करके एक विशाल मन्दिर बनवा दिया है।

अब हम प्राचीन नगर के ऐतिहासिक मन्दिर त्रेता के ठाकुर पर आते हैं। इसे कूलू (पंजाब) के राजा ने जो जनौरा के ठाकुरों के जैसा कि ऊपर कहा गया है पूर्वपुरुषों में से थे, प्राचीन भग्नावशेष मन्दिर के स्थान पर बनवाया था और फिर इन्दौर की प्रख्यात रानी अहिल्याबाई ने उसमें कुछ सुधार किये थे। कहते हैं कि नौरंगशाह की टूटी हुई मसजिद रामदर्बार के स्थान से बनवाई गई थी। किन्तु फिर किसी ने इस मन्दिर को नहीं बनवाया।

सरयू के तटपर सब से पहिले पश्चिम की ओर लक्ष्मण जी का मन्दिर और लछमन घाट मिलता है, जहाँ कहते हैं कि लक्ष्मण जी ने स्वर्गारोहण किया। मन्दिर में जो मूर्त्ति है वह लक्ष्मण जी के गोरे रंग की नहीं है किन्तु ५ फ़ुट ऊँची चतुर्भुजी काले पत्थर की बनी हुई है। यह सामने के कुण्ड में मिली थी और माना यह गया कि यह काली जी की  

नागेश्वरनाथ का मन्दिर

मूर्त्ति है। किन्तु उसके हाथ में चक्र है इससे यह अनुभव हुआ कि वह लक्ष्मण जी की ही मूर्त्ति है, क्यों कि लक्ष्मण धरा के आधार शेष के अवतार हैं और शेष कृष्ण वर्ण हैं। नागपञ्चमी के अवसर पर अयोध्या के निवासी अन्य किसी नाग की पूजा न करके यहीं भगवान् शेष के अवतार लक्ष्मण जी को लावा (खील) चढ़ाते हैं।

फिर सुन्दर घाट और पत्थर की सीढ़ियों पर चलते हुये, जिन्हें राजा दर्शनसिंह ने बनाया था हम नागेश्वरनाथ जी के ऐतिहासिक मन्दिर पर पहुँचते हैं। इसी मूर्त्ति के द्वारा और सरयू के द्वारा विक्रमादित्य ने अयोध्या का पता लगाया था। यह शिवजी को बहुत पुरानी मूर्त्ति है। कहते हैं कि भगवान् रामचन्द्र के पुत्र कुश ने इसे स्थापित किया था। कुश का अंगद (बाँह का भूषण) सरयू में गिर पड़ा था और वह पाताल में चला गया जहाँ नागलोक के राजा की कन्या ने उसे उठा लिया। महाराज कुश ने नागों को नष्ट करना चाहा तब महादेवजी इन दोनों में मेल कराने आये थे। कुश ने उनसे प्रार्थना की कि आप यहीं रहें और यह नियम करा दिया कि बिना नागेश्वरनाथ की पूजा किये किसी यात्री को अयोध्या आने का फल न होगा।

नागेश्वरनाथ जी के पास ही उत्तर की ओर गली में एक ओर देखने योग्य मन्दिर है। वहाँ एक ही काले पत्थर में चारों भाइयों की मूर्त्तियाँ खुदी हैं और बीच में सीता जी की मूर्ति है। कथा प्रसिद्ध है कि बाबर ने जन्म स्थान का मन्दिर नष्ट कर दिया तो हिन्दू इसे उठा लाये थे। इसका सविस्तार वर्णन अध्याय १३ में है।

फिर बड़ी सड़क पर आ जायँ तो हमें बहुत से मन्दिर मिलेंगे। यहीं विक्टोरिया पार्क है, जिसमें राजराजेश्वरी विक्टोरिया की मूर्त्ति एक मण्डप के नीचे स्थापित है। कुछ बायें पर पुराना स्कूल है, जिसे महाराज की कचहरी कहते हैं। इसमें हमने प्रारंभिक शिक्षा पाई थी। फिर दाहिनी ओर काशी के सुप्रसिद्ध रईस राजा मोतीचन्द के पितामह भीखूमल का मन्दिर है और उसके आगे हमारी सुसराल का मन्दिर सीसमहल है। यह मन्दिर रायदेवी प्रसाद जी ने नव्वे वर्ष हुये बनवाया था। महाराज अयोध्या नरेश के नायब राय राघोप्रसाद जी के समय तक यह मन्दिर अयोध्या के सुप्रसिद्ध मन्दिरों में गिना जाता था। आजकल इसकी दशा शोचनीय है।

इससे कुछ दूर आगे चलकर पुलीस स्टेशन (कोतवाली) है और कुछ दूर दक्षिण शृंगारहाट नाम का बाज़ार है। और उसके पश्चिम महाराज अयोध्यानरेश का महल (राजसदन) और बाग हैं। बाग के दक्षिण भाग में एक सुन्दर शिवालय है। इसे ८० वर्ष हुये राजा दर्शनसिंह ने बनवाया था और इसीलिये दर्शनेश्वर का मन्दिर कहलाता है। अवध गज़ेटियर लिखता है आजकल अवध भर में इससे बढ़कर सुन्दर शिवालय नहीं है।[] यह मन्दिर बढ़िया चुनार के पत्थर का बना हुआ है और बहुत सा नक़शी काम मिर्ज़ापूर में बनकर यहाँ लाया गया था। शिवलिंग नर्मदा के पत्थर का है। इसका दाम २५०) दिया गया था। संगमर्मर की मूर्तियां जयपूर से मंगाई गई थीं। पहिले यह विचार था कि नेपाल से घंटा मंगवाकर यहाँ लटकाया जाय। परन्तु घंटा राह ही में टूट गया। तब उसी नमूने का घंटा अयोध्या में बनवाया गया। वह भी स्थानीय कारीगरी का अच्छा नमूना है।

राजसदन के दक्षिण खुले मैदान में "तुलसी चौरा" है जहाँ साढ़े-तीन सौ वर्ष पहिले गोस्वामी तुलसीदास जी रहते थे और जहाँ चैत्र शुल्क ९ संवत १९३१ को रामचरितमानस प्रकाश किया गया था। यहाँ से एक मील से कुछ कम की दूरी पर दक्षिण में मणिपर्वत है। जेनरल कनिंघम का कथन है कि मणिपर्वत ६५ फ़ुट ऊँचा टूटी फूटी ईंटों और कंकड़ों का टीला है। सर्वसाधारण उसे आजकल "ओड़ा 

अयोध्यानरेश का राजसदन।
दर्शनेश्वरनाथ का मन्दिर पीछे बाग़ में देख पड़ता है।

झार" या "झौवा झार" कहते हैं जिससे यह सूचित होता है कि रामकोट के बनानेवाले मजदूरों के टोकरों का झाड़न है। जेनरल कनिंघम का यह कहना है कि यह २०० फ़ुट ऊँचे एक स्तूप का भग्नावशेष है और वहीं बना हुआ है जहाँ बुद्धदेव ने अपने ६ वर्ष के निवास में धर्म का उपदेश दिया था। उनका अनुमान है कि नीचे की भूमि शायद बौद्धों के समय के पूर्व की हों और पक्का स्तम्भ अशोक ने बनवाया था। किन्तु हिन्दुओं का विश्वास है कि जब लक्ष्मण जी को शक्ति लग गई और हनुमान जी उस शक्ति के घात से लक्ष्मण को बचाने के लिये संजीवन मूल लेने हिमालय गये और पर्वत को लेकर लौट रहे थे तो उसका एक ढोंका यहीं गिर पड़ा था। दूसरा कथन यह भी है जैसा ऊपर लिखा जा चुका है कि जब रामकोट के मज़दूर काम कर चुकते तो अपनी टोकरियों का झाड़न यहीं फेंक देते थे जिसका ढेर यही मणिपर्वत है।

हम दतून-कुंड का वर्णन कर ही चुके हैं। दूसरा ऐतिहासिक स्थान सोनखर है। रघुवंश के पाठक जानते ही हैं कि रघु को एक ब्राह्मण को बहुत सा सुवर्ण देना था जब कि उनका कोश खाली हो चुका था। उन्होंने ठान लिया कि कुबेर पर चढ़ाई कर के उससे इतना सुवर्ण प्राप्त कर लेना चाहिये। कुबेर ने डर के मारे रात में यहीं सुवर्ण की वर्षा कर दी।

अयोध्या में नवाब वज़ीरों के राज से आजतक हज़ारों मन्दिर बने और नित नये बनते जाते हैं। इनका सविस्तर वर्णन श्री अवध की झाँकी में दिया जायगा जो तैयार हो रही है।

 

  1. इसका नाम नक़शे में मुहतरिमनगर है।
  2. इसका पूरा वर्णन अध्याय १० में है।
  3. Oudh Gazetteer Vol. I, page 12.