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अयोध्या का इतिहास/७—पुराणों में अयोध्या

विकिस्रोत से

प्रयाग: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ६२ से – १०९ तक

 

 

सातवाँ अध्याय।
पुराणों में अयोध्या
(क) सूर्यवंश

अयोध्या सूर्यवंशी राजाओं की राजधानी है। इस राजवंश में विचित्रता यह है कि और जितने राजवंश भारत में हुये उनमें यह सबसे लम्बा है। आगे जो वंशावली दी हुई है उसमें १२३ राजाओं के नाम हैं जिनमें से ९३ ने महाभारत से पहिले और ३० ने उसके पीछे राज्य किया। जब उत्तर भारत के प्रत्येक राज्य पर शकों, पह्लवों और काम्बोजों के आक्रमण हुये और पश्चिमोत्तर और मध्य देश के सारे राज्य परास्त हो चुके थे तब भी कोशल थोड़ी ही देर के लिये दब गया था और फिर संभल गया। कोई राजवंश न इतना बड़ा रहा न अटूट क्रम से स्थिर रहा जैसा कि सूर्यवंश रहा है और न किसी की वंशावली ऐसी पूर्ण है, न इतनी आदर के साथ मानी जाती है। प्रसिद्ध विद्वान पाजिंटर साहेब का मत है कि पूर्व में पड़े रहने से कोशलराज उन विपत्तियों से बचा रहा जो पश्चिम के राज्यों पर पड़ी थीं। हमारा विचार यह है कि सैकड़ों बरस तक कोशल के शासन करनेवाले लगातार ऐसे शक्तिशाली थे कि बाहरी आक्रमणकारियों को उनकी ओर बढ़ने का साहस नहीं हुआ और इसी से उनकी राजधानी का नाम "अयोध्या" या अजेय पड़ गया। पूर्व में रहने अथवा युद्ध के योग्य अच्छी स्थिति से उनका देश नहीं बचा। महाभारत ऐसा सर्वनाशी युद्ध हुआ जिससे भारत की समृद्धि, ज्ञान, सभ्यता अदि सब नष्ट हो गये और उसके पीछे भारत में अन्धकार छा गया। सब के साथ सूर्यवंश की भी अवनति होने लगी और जब महापद्मनन्द के राज में या उसके कुछ पहिले क्रान्ति हुई तो कोशल शिशुनाक राज्य के अन्तर्गत हो गया। महाभारत में भी कोशलराज ने अपनी पुरानी प्रतिष्ठा के योग्य कोई काम नहीं कर दिखाया जिसका कारण कदाचित् यही हो सकता है कि जरासन्ध से कुछ दब गया था।

बेण्टली साहेब ने ग्रहमंजरी के अनुसार जो गणना की है उससे इस वंश का आरम्भ ई॰ पू॰ २२०४ में होना निकलता है। मनु सूर्यवंश और चन्द्रवंश दोनों के मूल-पुरुष थे। सूर्यवंश उनके पुत्र इक्ष्वाकु से चला और चन्द्रवंश उनकी बेटी इला से। मनु ने अयोध्या नगर बसाया और कोशल की सीमा नियत करके इक्ष्वाकु को दे दिया। इक्ष्वाकु उत्तर भारत के अधिकांश का स्वामी था क्योंकि उसके एक पुत्र निमि ने विदेह जाकर मिथिलाराज स्थापित किया दूसरे दिष्ट या नेदिष्ट ने गण्डक नदी पर विशाला राजधानी बनाई। प्रसिद्ध इतिहासकार डंकर ने महाभारत की चार तारीख़ें मानी हैं, ई॰ पू॰ १३००, ई॰ पू॰ ११७५, ई॰ पू॰ १२०० और ई॰ पू॰ १४१८, परन्तु पार्जिटर उनसे सहमत नहीं हैं और कहते हैं कि महाभारत का समय ई॰ पू॰ १००० है। उनका कहना है कि अयुष, नहुष और ययाति के नाम ऋग्वेद में आये हैं; ये ई॰ पू॰ २३०० से पहिले के नहीं हो सकते। रायल एशियाटिक सोसाइटी के ई॰ १९१० के जर्नल में जो नामावली दी है उनके अनुसार चन्द्रवंश का अयुष, सूर्यवंश के शशाद का समकालीन हो सकता है और ययाति अनेनस् का। पाजिटर महाशय का अनुमान बेण्टली के अनुमान से मिलता जुलता है। परन्तु महाभारत का समय अब तक निश्चित नहीं हुआ। राय बहादुर श्रीशचन्द्र विद्यार्णव ने "डेट अव महाभारत वार" (Date of Mahabharata War) शीर्षक लेख में इस प्रश्न पर विचार किया है और उनका अनुमान यह है कि महाभारत ईसा से उन्नीस सौ बरस पहिले हुआ था।

अब हम सूर्यवंशी राजाओं के नाम गिनाकर उनमें जो प्रसिद्ध हुये उनका संक्षिप्त वृत्तान्त लिखते हैं।  

अयोध्या के सूर्यवंशी राजा
(महाभारत से पहिले)

मनु
इक्ष्वाकु
शशाद
ककुत्स्थ
अनेनस्
पृथु
विश्वगाश्व
आर्द्र
युवनाश्व १म
१०श्रावस्त
११वृहदश्व
१२कुवलयाश्व
१३दृढ़ाश्व
१४प्रमोद
१५हर्यश्व १म
१६निकुम्भ
१७संहताश्व
१८कृशाश्व
१९प्रसेनजित
२०युवनाश्व २य
२१मान्धातृ

२२पुरुकुत्स[]
२३त्रसदस्यु
२४सम्भूत
२५अनरण्य
२६पृषदश्व
२७हर्यश्व २य
२८वसुमनस्
२९तृधन्वन्
३०त्रैयारुण
३१त्रिशंकु
३२हरिश्चन्द्र
३३रोहित
३४हरित
३५चंचु (चंप, भागवत के अनुसार)
३६विजय
३७रुरुक
३८वृक
३९बाहु
४०सगर
४१असमञ्जस्
४२अंशुमत्
४३दिलीप १म
४४भगीरथ
४५श्रुत

४६नाभाग
४७अम्बरीष
४८सिंधुद्वीप
४९अयुतायुस्
५०ऋतुपर्ण
५१सर्वकाम
५२सुदास
५३कल्माषपाद
५४अश्मक
५५मूलक
५६शतरथ
५७वृद्धशर्मन्
५८विश्वसह १ म
५९दिलीप २ य
६०दीर्घबाहु
६१रघु
६२अज
६३दशरथ
६४श्रीरामचन्द्र
६५कुश
६६अतिथि
६७निषध
६८नल
६९नभस्
७०पुण्डरीक
७१क्षेमधन्वन्

७२देवानीक
७३अहीनगु
७४पारिपात्र
७५दल
७६शल
७७उक्थ
७८वज्रनाभ
७९शंखन
८०व्युषिताश्व
८१विश्वसह २य
८२हिरण्यनाभ
८३पुष्य
८४ध्रुवसन्धि
८५सुदर्शन
८६अग्निवर्ण
८७शीघ्र
८८मरु
८९प्रथुश्रुत
९०सुसन्धि
९१अमर्ष
९२महाश्वत
९३विश्रुतवत्
९४बृहद्वल[]

बृहत्क्षय
उरुक्षय
वत्सद्रोह (या वत्सव्यूह)
प्रतिव्योम
दिवाकर
सहदेव
ध्रुवाश्व (या वृहदश्व)
भानुरथ
प्रतीताश्व (या प्रतीपाश्व)
१०सुप्रतीप
११मरुदेव (या सहदेव)
१२सुनक्षत्र
१३किन्नराश्व (या पुष्कर)
१४अन्तरिक्ष

१५सुषेण (या सुपर्ण या सुवर्ण
या सुतपस्)

१६सुमित्र (या अमित्रजित्)
१७बृहद्रज (भ्राज या भारद्वाज)
१८धर्म (या वीर्यवान्)
१९कृतञ्जय
२०व्रात
२१रगञ्जय
२२सजंय

२३शाक्य
२४ क्रुद्धोद्धन या शुद्धोदन
२५ सिद्धार्थ

२६ राहुल (या रातुल, बाहुल) लांगल या पुष्कल)

२७ प्रसेनजित (या सेनजित)
२८ क्षुद्रक (या विरुधक)

२९ कुलक (क्षुलिक, कुन्दक, कुडव, रणक)

३० सुरथ
३१ सुमित्र[]

 

 

क (१) प्रसिद्ध राजाओं के संक्षिप्त इतिहास

मनु

महाकवि कालिदास ने लिखा है:—

वैवखतो मनुर्नाम माननीयो मनीषिणाम्।
श्रासीन्महीभृतामाद्यः प्रणवश्च्छन्दसामिव॥

रघुवंश सर्ग १॥


"रह्यो आदिनृप बिबुधजन माननीय मनुनाम।
वेदन महँ ओंकार सम दिनकरसुत गुनधाम॥

रघुवंश भाषा स॰ १॥

इन्हीं ने कोसल देश बसाया और अयोध्या को उसकी राजधानी बनाया। मत्स्यपुराण में लिखा है कि अपना राज अपने बेटे को सौंप कर मनु मलयपर्वत पर तपस्या करने चले गये। यहाँ हजारों वर्ष तक तपस्या करने पर ब्रह्मा उनसे प्रसन्न होकर बोले "बर मांग"। राजा उनको प्रणाम करके बोले, "मुझे एक ही बर मांगना है। प्रलयकाल[]में मुझे जड़चेतन सब की रक्षा की शक्ति मिले"। इसपर 'एवमस्तु' कहकर ब्रह्मा अन्तर्धान हो गये और देवताओं ने फूल बरसाये।

इसके अनन्तर मनु फिर अपनी राजधानी को लौट आये। एक दिन पितृतर्पण करते हुये उनके हाथ से पानी के साथ एक नन्ही सी मछली गिर पड़ी। दयालु राजा ने उसे उठाकर घड़े में डाल दिया। परन्तु दिन रात में वह नन्ही सी मछली इतनी बड़ी हो गयी कि घड़े में न समायी। मनु ने उसे निकाल कर बड़े मटके में रख दिया परन्तु रात ही भर में मछली तीन हाथ की हो गयी और मनु से कहने लगी आप हमपर दया कीजिये और हमें बचाइये। तब मनु ने उसे मटके में से निकाल कर कुयें में डाल दिया। थोड़ी देर में कुआं भी छोटा पड़ गया तब वह मछली एक बड़े तलाब में पहुँचा दी गयी। यहाँ वह योजन भर लम्बी हो गई तब मनु ने उसे गंगा[] में डाला। वहाँ भी बढ़ी तो महासागर भेजी गयी, फिर भी उसकी बाढ़ न रुकी तब तो मनु बहुत घबराये और कहने लगे "क्या तुम असुरों के राजा हो? या साक्षात् बासुदेव हो जो बढ़ते बढ़ते सौ योजन के हो गये। हम तुम्हें पहचान गये, तुम केशव हृषीकेश जगन्नाथ और जगद्धाम हो।"

भगवान् बोले "तुमने हमें पहचान लिया। थोड़े ही दिनों में प्रलय होने वाली है जिसमें बन और पहाड़ सब डूब जायेंगे। सृष्टि को बचाने के लिये देवताओं ने यह नाव बनायी है। इसीमें स्वेदज, अण्डज, उद्भिज और जरायुज रक्खे जायँगे। तुम इस नाव को ले लो और आनेवाली विपत्ति से सृष्टि को बचाओ। जब तुम देखना कि नाव बही जाती है तो इसे हमारे सींग में बाँध देना। दुखियों को इस संकट से बचाकर तुम बड़ा उपकार करोगे। तुम कृतयुग में एक मन्वन्तर राज करोगे और देवता तुम्हारी पूजा करेंगे।"

मनु ने पूछा कि प्रलय कब होगी और आप के फिर कब दर्शन होंगे। मत्स्य भगवान् ने उत्तर दिया कि "सौ वर्ष तक अनावृष्टि होगी, फिर काल पड़ेगा और सूर्य की किरणें ऐसी प्रचंड होंगी कि सारे जीव जन्तु भस्म हो जायेंगे . . . फिर पानी बरसेगा और सब जलथल हो जायगा। उस समय हम सींगधारी मत्स्य के रूप में प्रकट होंगे। तुम इस नाव में सब को भर कर इस रस्सी से हमारे सींग में बाँध देना।" यह कह कर भगवान् तो अन्तर्धान हो गये और मनु योगाभ्यास करने लगे। . . .

ईसाइयों की इंजील में प्रलय का जो वर्णन है उसका संक्षेप उत्पत्ति की पुस्तक से नीचे उद्धृत किया जाता है।

अध्याय ६। ५। ६,७,८

"ईश्वर ने देखा कि पृथिवी पर पाप बढ़ा और मनुष्य का ध्यान पाप ही पर रहा।

"तब ईश्वर पछताया कि हमने पृथिवी पर मनुष्य क्यों बनाया, और वह दुखी हुआ।

"तब ईश्वर ने कहा कि जिस मनुष्य को हमने बनाया उसका नाश कर देंगे, मनुष्य पशु पक्षी कीड़े मकोड़े सब का। हम सब को बनाकर पछता रहे हैं।

"परन्तु ईश्वर की कृपा दृष्टि नूह पर थी।

***

"नूह ईश्वर के साथ चला करता था।

"नूह के तीन बेटे थे शैम, हैम और जाफ़त।

***

"तब ईश्वर ने नूह से कहा कि . . . तुम गोफर (?) लकड़ी की नाव बनाओ और भीतर बाहर राल पोत दो।

"नाव ३०० हाथ लम्बी हो, ५० हाथ चौड़ी हो और ३० हाथ ऊँची हो।

***

"हम पृथिवी पर जलप्रलय करेंगे।

"परन्तु तुम्हारे साथ हमारा अहदनामा (अभिसन्धि) होगा तुम नाव में अपनी स्त्री अपने बेटों और बहुओं के साथ बैठ जाना।

मांसधारी जो जीव हैं स्त्री और पुरुष दो दो को अपने साथ जीता रखना।

अध्याय ७

अड़तालीस दिन रात पृथिवी पर पानी बरसा . . . और १५० दिन तक पृथिवी जल में मग्न रही।

नाव ऊपर तैरा की

सारे जीव मर गये। नूह अकेला जीता रहा और जो उसके साथ नाव पर थे वे भी जीते रहे।

फिर ईश्वर ने हवा चलाई और पानी बन्द हुआ।

मुसलमानों में इस प्रलय की कथा ईसाइयों की कथा से मिलती-जुलती है। भेद इतनाही है कि अल्लाहताला ने नूह को संसार में इस्लाम धर्म सिखाने भेजा था। परन्तु काफ़िरों ने उनकी एक न सुनी और कठिन परिश्रम करने पर भी केवल ८० मनुष्य मुसलमान हुये। शेष उनके उपदेश के समय अपने कान बन्द कर लेते थे और कपड़ा ओढ़ लेते थे। पुस्तक पढ़ने से विदित होता है कि जिन लोगों को नूह पैग़म्बर उपदेश देते थे सब मूर्त्तिपूजक थे और नूह उनकी मूर्त्तियों की निन्दा करते तो वह लोग कहते थे कि हम अपनी मूर्त्तियों को न छोड़ेंगे और पत्थरों की पूजा में अपने सिरों को फोड़ेगें। तुम सच्चे हो तो हमें दिखाओ कि अल्लाह कैसे दंड देता है। नूह ने तब निरास हो कर अल्लाहताला से बिनती की कि तू इन काफ़िरों को ग़ारत कर। उनकी बिनती सुनकर अल्लाहताला ने कहा कि हम इस जाति को प्रलय से नष्ट कर देंगे और तुमको और तुम्हारी "उम्मत"[] को नाव में रखकर बचा लेंगे। उसी समय जिबरईल को आज्ञा दी गई कि साज का पेड़ बोया जाय। २० वर्ष में पेड़ बड़ा हो गया तब नूह ने जिबरईल के कहने से उसके तख़्ते चीरे और नाव बनायी और तख़्तों के जोड़ पर क़ीर (قیر राल) लगा दी। नाव बन जाने पर जिबरईल ने पशु पक्षी के जोड़े इकट्ठा किये और नाव में भरे। नूह, उनके तीन बेटे और बहुयें और उनकी उम्मत के लोग नाव पर सवार हुये। . . . . उसी समय ४० दिन तक पानी बरसा और सारे काफ़िर और उनके घर बार डूब गये। तब अल्लाह के हुकुम से नूह की नाव जूदी पहाड़ की चोटी पर ठहरी ……… इत्यादि।[]

हमने इस पौराणिक आख्यान को यहाँ कई प्रयोजनों से लिखा है। एक तो यह है कि प्रलय को अनेक जाति और धर्म के लोग मानते हैं जैसे :—

१—चीनवालों में फ़ोही (Fohi) का प्रलय।
२—असीरियावालों का चिसुथ्रस (Xisuthrus)।
३—मेक्सिको का प्रलय।
४—यूनानवालों का डुकेलियन (Deucalion) और अगिगीज़ (Ogyges)।

इससे जान पड़ता है कि प्रलय अवश्य हुआ। मत्स्यपुराण में जो इसी अवतार का प्रधान ग्रन्थ है मत्स्य भगवान् ने वैवस्वत मनु को दर्शन दिये थे। वैवस्वत मनु पृथिवी के पहिले राजा थे और उन्होंने अयोध्या नगर बसाया। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि मत्स्य भगवान् ने अयोध्या ही में मनु को दर्शन दिये। मुसलमान लोग तो यहाँ तक मानते हैं कि अयोध्या में थाने के पीछे नूह की क़बर है और उसमें नूह ही के साथ उनकी किश्ती के चार तख़्ते भी दफ़न हैं।

दूसरी विचित्र बात मत्स्यपुराण में यह देखी कि मनु-वैवस्वत वाले प्रलय के पीछे जब नई सृष्टि हुई तो मनु स्वायम्भू का जन्म हुआ यद्यपि वैवस्वत मनु सातवें मनु माने जाते हैं। मनु-वैवस्वत ने सब को बचाया था। वह कहाँ गये? हमारी समझ में मत्स्यपुराण स्वायम्भू मनु की स्थिति को संदेह के आवर्त में डाल रहा है। दूसरी सृष्टि भी वैवस्वत मनु ही से चली।

जब यह सिद्ध है कि वैवस्वत मनु कम से कम इस देश के पहिले राजा थे तो अब यह प्रश्न उठता है कि यह देश भरतखंड या भारत[] वर्ष क्यों कहलाता है?

मनु के कई सन्तान मानी जाती हैं परन्तु मुख्य दो ही हैं। एक इक्ष्वाकु पुत्र, दूसरी इला पुत्री। इक्ष्वाकु से सूर्यवंश चला जिसने उत्तर भारत पर अपना अधिकार जमाया। इक्ष्वाकु का एक बेटा अयोध्या में रहा, दूसरा कपिलवस्तु का राजा हुआ, तीसरे ने विशाला में राज स्थापित किया और चौथा निमि मिथिलाधिपति बना। चन्द्र के पुत्र बुध के संयोग से इला के पुरूरवस पुत्र हुआ जिसने आजकल के इलाहाबाद के सामने गंगा के उत्तर-तट पर प्रतिष्ठानपूर को अपनी राजधानी बनाया।

सूर्यवंश में इक्ष्वाकु के बाद तिरसठवीं पीढ़ी में महाराज दशरथ हुये। इनके चार बेटों में से एक का नाम भरत था। भरत को अपने नाना से केकय देश मिला था परन्तु वे कभी भारत के सम्राट न थे। इससे भरतखंड के भरत नहीं हो सकते।

चन्द्रवंश में अवश्य भरत नाम का एक प्रतापी राजा हुआ है परन्तु यह पुरूरवस के बहुत पीछे हुआ। यह भरत दुष्यन्त का बेटा था और इसकी माँ राजर्षि विश्वामित्र की बेटी शकुन्तला थी। महाभारत में लिखा है :—

भरताद् भारतीकीर्तिर्ये नेदं भारतं कुलम्।
अपरे ये च वै पूर्वे भरता इति विश्रुताः॥
भरतस्यान्वये तेहिं देवकल्पा महौजसः।

"भरत ही से भारती कीर्ति हुयी जिस से भरतवंश चला और भी जो भरत पहिले हो गये हैं सब भरत के वंश के हैं।

इसके प्रतिकूल श्रीमद्‍भागवत में लिखा है :—

प्रियव्रतो नाम सुतो मनोः स्वायंभुवस्य यः।
तस्याग्नीध्रस्ततो नाभि ऋषभ स्तत् सुत:स्मृतः॥
तमाहु वासुदेवांशं मोक्षधर्म विवक्षया।
श्रवतीर्ण पुत्रशतं तस्यासीद् ब्रह्मपारगम्॥
तेषां वै भरतो ज्येष्टो नारायणपरायणः।
विख्यातं वर्ष मेतत्तन्नाम्रा भारतमुत्तमम्॥

इसकी पुष्ठि ब्रह्माण्डपुराण पूर्वभाग अनुषंग पाद अध्याय १४ में देखिये।

ऋषभाद् भरतो जज्ञे वीरः पुत्रशताग्रजः।
सोऽमिषिच्यार्षभः पुत्रम्महाप्रव्रज्जया स्थितः॥
हिमाद्रे: दक्षिणं वर्षे भरताय न्यवेदयत्।
तस्मातु भारतं वर्षे तस्य नाम्ना विदुबुधाः॥

"ऋषभ देवजी के सौ बेटे हुये जिनमें वीर भरत जेठे थे। ऋषभ देवजी भरत को राज देकर तपस्या करने चले गये। उन्होंने भरत को हिमालय के दक्षिण का देश दिया था। इसी से विद्वान लोग उसे भारतवर्ष कहते हैं"

और पुराणों की जांच से कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। कहीं कहीं एक ही पुराण में दो बातें एक दूसरे के प्रतिकूल लिखी हैं। वायुपुराण प्रथम खंड अध्याय ४५ में लिखा है;

उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमवद्दक्षिणञ्च यत् ॥७५॥
वर्षे यदुभारतं नाम यत्रेयं भारती प्रजा।

भरणाञ्च प्रजानां वै मनुर्भरत उच्यते।
निरुक्त वचनाच्चैव वर्षं तद्‌भारतं स्मृतम्॥७६॥[]

"समुद्र के उत्तर और हिमाचल के दक्षिण देश का नाम भारत है वहीं भारती प्रजा रहती है। प्रजा के भरण पोषण करने के कारण मनु ही भरत कहलाता है। निरुक्त का भी यही बचन है और इसी से भारतवर्ष नाम प्रसिद्ध है।"

इसमें सब से बड़ा प्रमाण निरुक्त का है। निरुक्तकार कहता है:—

भरतः आदित्यस्तस्य भा भारती

इस विषय पर सुप्रसिद्ध इतिहास मर्मज्ञ श्रीयुत विन्हा मणि विनायक वैद्य जी ने अपने विचार "हिन्दू भारत का उत्कर्ष" नामक ग्रन्थ के परिशिष्ट में प्रकट किये हैं। हम उनसे अनेक बातों में सहमत नहीं हैं। परन्तु इस विषय में उनके विचार की पुष्टि और प्रमाणों से होती है। हम वैद्य जी के ग्रन्थ का कुछ अंश उद्धृत करते हैं:—

"पुराण परम्परा बता रही है कि हिन्दुस्तान का भारतवर्ष नाम जिस भरत के कारण पड़ा वह दुष्यन्तपुत्र भरत नहीं किन्तु उससे सहस्रों वर्ष पूर्व उत्पन्न हुआ मनु का प्रपौत्र अथवा साक्षात् मनु ही था। वायु और मत्स्यपुराणों में निरुक्त का जो हवाला दिया है वह साधारण है। . . . ऋग्वेद में जिन भरतों का बार बार उल्लेख है वे उक्त भरत के ही वंशज थे, दुष्यन्त-पुत्र के नहीं। ऋग्वेद संहिता में भरतों का नाम तीसरे और चौथे मण्डल में बार बार आया है। इन मण्डलों में सुदास त्रित्सु के सम्बन्ध में यह नाम आया है और छठे मण्डल में इनका सम्बन्ध दिवोदास राजा से बताया गया है।" (भाग २ पृष्ठ ९५)। इस उल्लेख के ऋग्वेद सूक्त हमने देखे। उनसे पहिली बात यह जान पड़ी कि भरतों के पुरोहित वसिष्ठ थे। पुराण परम्परा के अनुसार वसिष्ठ सूर्यवंशी क्षत्रियों के पुरोहित थे, चन्द्रवंशियों के नहीं। . . .

एक और ऋचा भी बड़े काम की है,

प्रप्नायमग्निर्भरतस्य शृण्वे।
अभियः पूरुं पृतनासु तस्थौ॥

"भरत की वही अग्नि है जिसने पुरु का पराभाव किया था।"

इसमें भरत शकुन्तला का पुत्र है तो उसकी अग्नि ने उसके लकड़दादा के नगड़दादा पुरु को कैसे परास्त किया! ऋग्वेद को ध्यान से पढ़ने से यह सिद्ध हो जायगा कि भरत प्राचीन आदि राजा था> उसके वंशज भी भरत या भारत कहलाते थे। उसने इस देश के आदिम निवासियों को जीत कर अपना राज्य स्थापन किया।

इस के अतिरिक्त जैनधर्म की जनश्रुति है। आदिनाथ या ऋषभदेव जी सूर्यवंशी थे और उनकी जन्मभूमि अयोध्या है। पुराणों में ऋषभदेव भी स्वायंभू मनु के वंशज कहे जाते हैं परन्तु यहाँ स्वायंभू मनु भी वैवस्वत मनु बने जाते हैं और मत्स्यपुराण ने स्वायंभू मनु की स्थिति ही संदिग्ध कर दी है।

अब देखना चाहिये कि—

मनु पहिले राजा थे, भरत पहिले राजा थे।
मनु ने अयोध्या बसाई, भरत की जन्मभूमि अयोध्या है
मनु वैवस्वत सूर्यवंशी थे, भरत सूर्यवंशी थे।
सूर्यवंश के पुरोहित वसिष्ठ थे, भरतों के पुरोहित वसिष्ठ थे।

निरुक्त में भरत का अर्थ सूर्य है जिसका अर्थ यह हो सकता है कि सूर्यवंशी थे। वायुपुराण में भरत ही मनु कहा गया है।

इन प्रमाणों से हम यह निश्चित करते हैं कि मनु उपनाम भरत हिन्दुस्तान के पहिले राजा थे और उन्हीं के नाम से यह देश भरतखंड या भारतवर्ष कहलाता है। धृष्ट—इसके वंश में धार्ष्टक हुये जिन्होंने वाह्लीक[१०] में अपना राज्य जमाया।

नारिष्यन्त—इसके विषय में मत भेद है। अनेक पुराणों में इसके बेटे शक कहलाते हैं। श्री मद्भागवत् के अनुसार इसीसे अग्निवेषीय ब्राह्मणों की उत्पत्ति हुई।

पृषध्न या (पृषघ्न)—इसने अपने गुरु च्यवन की एक गाय मारी, इससे पतित हो गया था।

शर्य्याति—इसको कहीं कहीं शर्याति भी कहते हैं। इसके पुत्र आवर्त से आवर्त राजवंश चला। शर्य्याति की बेटी सुकन्या भार्गव च्यवन को ब्याही थी। आवर्त की राजधानी कुशस्थली थी जो पीछे द्वारका (द्वारावती) के नाम से प्रसिद्ध हई। यह वंश बहुत दिनों तक नहीं चला। विष्णुपुराण अंश ४ अध्याय २ में लिखा है कि पुण्यजन नाम राक्षसों ने कुशस्थली नष्ट कर दी और आवर्त वंशवाले वहाँ से भागकर अनेक देशों में जा बसे। हैहय वंशियों में भी एक वर्ग शर्यातों का था। इस वंश का अंतिम राजा रैवत था जिसकी बेटी रेवती बलराम को ब्याही गई।

वेण—इसका नाम मत्स्यपुराण में कुशनाभ है, और कहीं प्रांशु भी है। इसका कुछ और विवरण नहीं मिलता।

(२) इक्ष्वाकु—मनु का सब से बड़ा बेटा। पुराणों में लिखा है कि इक्ष्वाकु के सौ बेटे थे, जिनमें विकुक्षि, निमि और दंड प्रधान थे। सौ बेटों में से शकुनि-प्रमुख, पचास भाइयों ने उत्तरापथ में राज्य स्थापित किये और यशाति प्रधान अड़तालीस दक्षिणापथ के राजा हुये।

विकुक्षि अयोध्या के सिंहासन पर बैठा, निमि ने मिथिलाराज स्थापन किया और उससे विदेह (जनक) वंश चला।

दंड इक्ष्वाकु के बेटों में सबसे छोटा था। वह अनपढ़ निकला और उसने अपने बड़े भाइयों का साथ न किया इससे उसके शरीर में तेज न रहा। पिता ने उसका नाम दंड रक्खा और उसे विन्ध्याचल और शैवल के बीच का देश का राज दिया। दंड ने वहां मधुमान् नाम नगर बसाया और शुक्राचार्य को अपना पुरोहित बनाया। राजा दंड ने बहुत दिनों तक निष्कण्टक राज किया। एक बार चैत के महीने में राजा दंड शुक्राचार्य के आश्रम को गया। वहां वह शुक्राचार्य की ज्येष्ठा कन्या अरजा को देखकर उस पर मोहित हो गया। अरजा ने उत्तर दिया कि यदि तुम हमको चाहते हो तो हमारे पिता से कहो। परन्तु उस कामान्ध राजा ने न माना और उसके साथ बलात्कार किया। अरजा रोती हुई शुक्राचार्य की राह देखती रही और जब वह आये तो उसने सारा वृत्तान्त कहा। शुक्राचार्य ने क्रोधित होकर श्राप दिया और सात दिन इतनी धूल बरसी कि दंड का सौ कोस का राज्य उसके परिवार समेत नष्ट होगया। तभी से उस स्थान का नाम दंडकारण्य पड़ा।[११]

(३) शशाद—इसका पहिला नाम विकुक्षि था। एक बार इसने यज्ञ के लिये जो पशु मारे गये थे उनमें से एक शश (खरहा) भूनकर खा लिया इससे इसका नाम शशाद पड़ गया। बौद्ध ग्रन्थों में लिखा है कि तीसरे इक्ष्वाकुवंशी राजा (ओक्काकु-विकुक्षि) के देश निकाले लड़कों ने हिमालय की तरेटी में जाकर कपिल मुनि की बताई हुई धरती (बथु वस्तु) पर कपिलवथु (कपिलवस्तु) नगर बसाया था। कपिल मुनि बुद्धदेव के एक अवतार थे और हिमालय तट पर एक तालाब के किनारे शकसन्द या शकवनसन्द में कुटी बनाकर रहते थे।

(४) ककुत्स्थ—शशाद का पुत्र परंजय हुआ। एक बार देवासुर संग्राम में इसने इन्द्ररूपी बैल के ककुत् (डील) पर बैठकर असुरों को परास्त किया; तबसे यह ककुत्स्थ कहलाया।[१२]

(९) पृथु—महाभारत में लिखा है कि पृथु ने सबसे पहले धरती चौरस की इसी से यह पृथ्वी कहलाती है। हरिवंश में इससे कुछ भिन्न लिखा है और कुमारसम्भव में भी इसका उल्लेख है। इस काव्य में पृथ्वी गाय है, इससे देवताओं ने हिमालय को बछरा बना कर चमकते रत्न और औषधियाँ दुही थीं। ऐसा समझ में आता है कि पृथु ही ने धरती पर हल चलाना सिखाया था जैसा कि ईरानियों में जमशेद ने किया था।

(१०) श्रावस्त—इसने श्रावस्ती नगरी बसाई जिसका भग्नावशेष, बलरामपुर से बहराइच जानेवाली सड़क पर राप्ती के किनारे अब भी महेत के नाम से प्रसिद्ध है।

(१२)—कुवलयाश्व—इसने उज्जालक समुद्र के पास धुंधुराक्षस को मारा इसी से यह धुंधुमार नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध में इसके बहुत से बेटे मारे गये थे।

(२०) युवनाश्व द्वितीय—इसने पौरव वंश के राजा मतिनार की बेटी गौरी के साथ विवाह किया। यह शक्तिशाली राजा था। (वंशावली उपसंहार से उद्धृत)

(२१) मान्धाता—यह बड़ा प्रतापी राजा था। इसके विषय में विष्णुपुराण में लिखा है कि "जहां से सूर्य उदय होता है और जहाँ अस्त होता है उसके अन्तर्गत सारी पृथ्वी युवनाश्व के बेटे मान्धाता की है।" यह राजर्षि था। हम ऊपर लिख चुके हैं कि ऋग्वेद ८,४३,९ का यही ऋषि है।

महाभारत में लिखा है कि मान्धाता ने गन्धार देश के चन्द्रवंशी राजा को मारा था। यह राजा द्रुह्यकुल का अङ्गार था। पञ्जाब पर मान्धाता का अधिकार हो जाने के कारण कान्यकुब्ज और पौरव क्या आणव भी उसका लोहा मान गये थे।

मान्धाता नाम की विचित्र व्याख्या विष्णु पुराण में दी हुई है। युवनाश्व के कोई पुत्र न था। इससे वह दुखी होकर मुनियों के आश्रम में रहता था। कुछ दिन बीतने पर मुनियों ने दया करके युवनाश्व की पुत्रप्राप्ति के लिये यज्ञ किया। वह यज्ञ आधी रात को पूरा हुआ। मुनि लोग यज्ञ का मंत्रयुक्त जल-कलस वेदी के बीच में रखकर सो गये। इतने में युवनाश्व प्यासा होकर वहीं पहुँचा। उसने मुनियों को तो जगाया नहीं परन्तु मंत्रयुक्त जल पीलिया। यह जल युवनाश्व की रानी के पीने के लिये था। इससे जब मुनि लोग जागे तो पूछने लगे कि इस जल को किसने पिया। राजा ने कहा मैंने इसे अनजाने पी लिया है। मुनि बोले यह तुमने क्या किया यह जल तो तुम्हारी रानी के लिये था।

जल के प्रभाव से युवनाश्व ही के गर्भ रह गया और पूरे दिन होने पर उसकी दाहिनी कोख फाड़कर बालक निकला और राजा न मरा। लड़का तो हो गया अब यह पलै कैसे? तब इन्द्र' देव कहने लगे 'हम इसकी धाय का काम करेंगे (माँ धास्यति) और उन्होंने अपनी आदेश की उँगली बालक के मुँह में डाल दी। बालक उस उँगली में से अमृत चूसकर चट पट सयाना हो गया। हम समझते हैं कि मान्धातृ नाम की उत्पत्ति सार्थक करने के लिये यह कथा गढ़ी गई है। नगर और राजसी ठाट बाट निरंतर भोग विलास से जब सन्तान न हुई तो बन में जाकर रहने से स्वाभाविकता कुछ आ जाती है। इसी उपाय से दिलीप ने रघु ऐसा पुत्र पाया था।

महाभारत में यह भी लिखा है कि मान्धाता के राज्य में पृथ्वी धन धान्य से भरी पुरी थी। उसके यज्ञ मंडपों से सारी पृथ्वी व्याप्त थी। उसने यमुना के तट पर सौमिक और साहदेवी यज्ञ किये और कुरुक्षेत्र में भी यज्ञ किया। उसने अनावृष्टि के समय पानी भी बरसाया था।

इस राजा के विषय में विष्णुपुराण में एक बड़ी रोचक कथा लिखी है। जिसका सारांश यह है :–

मान्धाता की रानी बिन्दुमती चैत्ररथी यदुवंशी राजा शशविन्दु[१३] की बेटी थी। उससे पुरुकुत्स, अंबरीष और मचुकुन्द नाम तीन बेटे और पचास बेटियाँ हुईं। इन्हीं दिनों सौभिरि नाम ऋषि बारह बरस जलवास करके सिद्ध हो गये थे। उसी जल में संमद नाम एक बड़ा मगरमच्छ रहता था। उसके बहुत से कच्च बच्च, नाती, पोते उसके चारों ओर खेला करते थे और वह बहुत प्रसन्न रहा करता था। सौभिरिजी समाधि छोड़ कर नित्य उसका यह सुख देखकर सोचने लगे यह मगरमच्छ धन्य है, ऐसी योनि में जन्म लेकर भी यह हमारे मन में बड़ी स्पृहा उत्पन्न करता है। हम भी इसी की तरह बेटे पोतों के साथ खेलैंगे। ऐसा विचार करके सौभिरि जी कन्या मांगने मान्धाता के पास पहुँचे। राजा ने उनका यथोचित सत्कार किया। तब सौभिरि ने उनसे कहा कि "हम अपना विवाह करना चाहते हैं। आप हमें अपनी एक बेटी दीजिये। हमारी बात न टालिये। संसार में अनेक राजकुलों में अनेक लड़कियाँ हैं। आपका कुल सबसे बढ़कर है।" सौभिरि की बातें सुन राजा बड़ी चिन्ता में पड़ गया। एक ओर तो मुनि का पानी में पड़ा हुआ सड़ा गला बुड्‌ढ़ा शरीर और दूसरी ओर उनके शाप का डर। राजा की यह दशा देख कर मुनि बोले "आप क्यों खिन्न हैं? हमने कोई ऐसी बात नहीं कही जो करने की नहीं है। आप अपनी बेटियाँ किसी न किसी को तो देहींगे। एक मुझे दे दीजिये मैं कृतार्थ हो जाऊँगा।" राजा ने हाथ जोड़ कर कहा कि "कन्या अच्छे कुल के जिस वर को चाहे उसी को दे दी जाती है। यह बात कभी हमारे ध्यान में आई नहीं थी कि आप ऐसी प्रार्थना करेंगे। ऐसी दशा में मुझे क्या करना चाहिये यही सोच रहा हूँ।" मुनि समझ गये कि हमको इसी रीति से उत्तर दिया जाता है क्योंकि बुड्‌ढे मनुष्य को स्त्रियाँ कब चाहेंगी न कि कन्या! और राजा से कहने लगे "अच्छा तो है, आप अपनी कुल की रीति कीजिये और महल के कंचुकी के साथ हमें अपनी कन्याओं के पास भेज दीजिये। कोई कन्या हमको पसन्द करे तो उसका हमारे साथ विवाह कर दीजिये, नहीं तो हमको बुढ़ापे में इस वृथा उद्योग से क्या काम।" मान्धाता मुनि के शाप के डर से मान गये और प्रतीहारों के साथ मुनि को कन्या-महल में भेज दिया। वहां पहुँचते ही मुनि ने अपने योगबल से ऐसी मोहनी मूर्ति धारण करली कि जब प्रतीहारों ने कन्याओं को सूचना दी कि "तुम्हारे पिता ने इन मुनि जी को तुम्हारे पास इसलिये भेजा है कि यदि इन्हें कोई कन्या अपना पति बरै तो हम उसको इनके साथ ब्याह देंगे "क्योंकि हम इनसे ऐसी प्रतिज्ञा कर चुके हैं" तो सारी कन्यायें आपस में लड़ने लगीं और कहने लगी" मैंने इनको बरा, मैंने इनको बरा, तुम सब हट जाओ मैंने इनको सबसे पहले बर लिया।" एक बोली "यह मेरे ही योग्य बर है," दूसरी ने कहा "जैसे घर में घुसे वैसे ही मैंने इनको बरा, तुम सब व्यर्थ झगड़ा करती हो।" प्रतीहार ने यह चरित्र देखकर राजा से कहा और अपनी बात के धनी राजा ने अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार अपनी पचासों बेटियां मुनि को ब्याह दीं।

मुनि उनको लेकर अपने आश्रम में आये और अपने योगबल से विश्वकर्मा को बुलाकर पचास महल बनवाये जिनमें प्रत्येक के साथ उपवन और सुन्दर पक्षियों से भरे जलाशय थे। फिर नन्द नाम निधि को आज्ञा दी कि सारे महलों को वस्तु रत्नादि सुख की सामग्री से भर दो। राजकन्यायें उनमें सुख से रहने लगीं और प्रत्येक के साथ पचास रूप धारण करके मुनि रहते थे।

एन दिन राजा मान्धाता को यह चिन्ता हुई कि मेरी बेटियां सुखी हैं या दुखी और मुनि के आश्रम को गये। वहां देखते क्या हैं कि उनकी बेटियों के लिये स्फटिक के महल बने हैं जिनके चारो ओर बारा तड़ाग हैं।

राजा एक कन्या के घर में गये और उसे गले लगाकर पूछा, "बेटी तुम्हें किसी बात का दुख तो नहीं है। मुनि तुम से अनुराग करते हैं। कभी तुम्हें अपनी जन्म भूमि की सुधि आती है;" बेटी ने कहा, "पिताजी यहां किसी बात का दुख नहीं है यों तो जन्म भूमि को कोई कैसे भूल सकता है। दुख केवल इसी बात का है कि मेरे पति मेरे ही पास रहते हैं मेरी और बहिनों के पास नहीं जाते।" राजा दूसरी कन्या के पास गये तो उसने भी यही बात कही। यह सुनकर राजा तीसरी के घर गये उसने भी यही कहा। ऐसे ही औरों के मुंह से सुनकर अत्यन्त विस्मित होकर राजा एकान्त में बैठे तपस्वी सौभिरि के पावों पर गिर पड़े और कहने लगे हमने आपकी सिद्धि का प्रभाव देखा। राजा प्रसन्न होकर राजधानी को लौट गये यहां कुछ दिनों में सौभिरि के पचास राजकन्याओं से डेढ़ सौ बेटे हुये। सन्तान देखकर मुनि जी ममताजाल में फंस गये। कभी सोचते कि मेरे बच्चे कब पाँव पाँव चलेंगे। कब सयाने होंगे? कब इनका ब्याह होगा? कभी वह भी दिन आयेगा कि हम इनके भी बच्चे देखेंगे, और ज्यों ज्यों उनके मनोरथ पूरे होते जाते थे, त्यों त्यों नये नये मनोरथ उठ खड़े होते थे। कुछ दिन पीछे मुनि को ज्ञान हुआ और उनकी आँखें खुल गई। उस समय उन्होंने जो बातें कहीं उससे स्पष्ट है कि माया मोह में फंसे मनुष्य का चित्त ईश्वर में नहीं लग सकता। और सब छोड़ छाड़ कर भगवद् भजन करने लगे।

मान्धाता के तीन बेटे थे, पुरुकुत्स, अम्बरीष और मुचुकुन्द। मुचुकुन्द ने विन्ध्य और ऋक्ष पर्वतों के बीच में नर्मदा के किनारे माहिष्मती नगरी बसाई। उसकी एक राजधानी ऋक्ष पर्वत के नीचे पुरिका भी थी।

(२२) पुरुकुत्स—इस राजा के समय में मौनेय नाम के गन्धर्वों ने नर्मदा के तट पर नागकुल को परास्त करके उनका धन लूट लिया था। नागों ने पुरुकुत्स से सहायता मांगी और पुरुकुत्स ने गन्धवों को नष्ट कर दिया। इसपर नागराज ने प्रसन्न हो कर अपनी बेटी नर्मदा उस को ब्याह दी।

पुरुकुत्स की बेटी पुरुकुत्सा कान्यकुब्ज के राजा कुश को ब्याही थी। और राजा गाधि की माँ थी। (उपसंहार)

(२५) अनरण्य—रावण ने दिग्विजय करके इसका वध किया था।[१४] जिस स्थान पर लड़ाई हुई थी वह अयोध्या से १४ मील पश्चिम रौनाही के[१५] नाम से प्रसिद्ध है। परन्तु इससे यह न समझना चाहिये कि रावण ने कभी अयोध्या पर अधिकार थोड़े दिनों के लिये भी जमाया हो। यह स्मरण रखना चाहिये कि कई पीढ़ी पीछे श्रीरामचन्द्रजी ने लंका को जीत कर इसका बदला ले लिया।

(३०) त्रय्यारुण—इसके राज्य में एक दुखदाई घटना हुई। इसका बेटा सत्यव्रत जवानी की उमंग में विवाह के समय एक ब्राह्मणकन्या को हर ले गया। अपराध ऐसा घोर न था परन्तु उसके पिता ने उसे चांडाल बना कर घर से निकाल दिया। कुलगुरु वसिष्ठ सब जानते थे, परन्तु राजा से कुछ न बोले और सत्यव्रत सदा केलिये अयोध्या छोड़ कर श्वपचों के बीच में झोपड़ी बना कर रहने लगा। परन्तु वसिष्ठ से जलता रहा क्योंकि वसिष्ट जानते थे कि राजकुमार का अपराध ऐसा धोर नहीं था जो उसे ऐसा दंड दिया जाता और राजा को समझा बुझा कर उसे बुला लेते। परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वसिष्ठ ने जानबूझ कर मौन साधा। राजा भी पुत्रवियोग से दुखी हो कर बन को चला गया और वसिष्ठ ने कोशलराज और रनवास तक अपने शासन में रक्खा। वसिष्ठ के सहायक ब्राह्मण ही थे। जिससे विदित होता है कि क्षत्रियों या सभासदों का उनसे मेल न था। राज पुरोहित के हाथ में चला गया। यह समय इक्ष्वाकुवंशियों के लिये बड़े संकट का था। इसके बाद बारह वर्ष तक अनावृष्टि हुई। उस समय विश्वामित्र अपने स्त्री, बच्चे कोशल देश के एक तपोवन में छोड़ कर सागरानूप में तपस्या करने चले गये थे जिससे उन्हें ब्राह्मणत्व प्राप्त हो जाय। यह भी कहा जाता है कि विश्वामित्र की स्त्री ने अकाल में अपने बचों के प्राण बचाने के लिये अपने दूसरे बेटे गालव को बेंच डालना स्वीकार कर लिया। सत्यव्रत उनके पास पहुंचा और लड़के को लेकर उसका भरण पोषण करने लगा। बच्चे के पालन पोषण में उसके दो प्रयोजन थे, एक बच्चे पर दया, दूसरे विश्वामित्र को प्रसन्न करना। दुखी सत्यव्रत के लिये विश्वामित्र के अनुग्रह का पात्र बनना अत्यन्त उपयोगी था, क्योंकि एक तो विश्वा-मित्र कान्यकुब्ज के राजा थे, दूसरे ब्राह्मण बन रहे थे। इसी विचार से सत्यव्रत ने विश्वामित्र के कुटुम्ब का पालन अपने सिर लिया और शिकार करके उनको भोजन देता और उनकी और अपनी योग्यता के अनुसार उनका आदर करता था; क्योंकि बाप के बन को चले जाने पर वह राजपद का अधिकारी होगया था। जब अकाल ने प्रचंड रूप धारण किया तो सत्यव्रत ने अपने और विश्वामित्र के कुटुम्ब के पालन करने को वसिष्ठ का एक पशु मारडाला। इसपर वसिष्ठ ने क्रुद्ध होकर उसे तीन पापों का अपराधी बताकर उसका त्रिशंकु नाम रख दिया।

बारह वर्ष बीतने पर विश्वामित्र मुनि होकर लौटे और सत्यव्रत से कहा कि वर मांगो। विश्वामित्र ने उसे सिंहासन पर बैठा दिया और वसिष्ठ के विरोध की उपेक्षा करके यज्ञ किया। इससे प्रकट है कि वसिष्ट को सेना से या जनता से कोई सहायता न मिली यद्यपि इतने दिनों शासन की बाग उन्हीं के हाथ में थी और ज्यों ही सत्यव्रत के अधिकार के समर्थन के लिये विश्वामित्र ने जो राजा भी थे और ब्राह्मणत्व भी प्राप्त कर चुके थे, उठ खड़े हुये वसिष्ठ का बल नष्ट हो गया। वसिष्ठ के हाथ से राज तो जाता ही रहा राजा की पुरोहिताई भी गई। अब बदला लेने के लिये उन्होंने कहा कि विश्वामित्र ब्राह्मण हुये ही नहीं परन्तु अन्त में विश्वामित्र ही की जीत रही।

(३१) त्रिशंकु—त्रिशंकु का चरित्र वाल्मीकीय रामायण वालकण्ड सर्गः ५७, ६० में दिया हुआ है जिसका सारांश यह है; इक्ष्वाकुवंशी राजा त्रिशंकु की यह अभिलाषा हुई कि हमको सदेह देवताओं की परमगति मिले। उसने अपना विचार वसिष्ठ से कहा। वसिष्ठ ने कहा कि यह हमारे बस की बात नहीं। यह उत्तर पाकर त्रिशंकु दक्षिण को चला गया जहाँ वसिष्ट के बेटे तप कर रहे थे और उनसे अपनी मनोकामना कही। वसिष्ठ पुत्रों ने कहा कि जब तुमसे कुलगुरु ने कह दिया कि यह नहीं होतुम हमारे पास क्यों आये हो। इसपर रुष्ट होकर त्रिशंकु ने कहा कि तुम नहीं करते तो हम दूसरे के पास जाते हैं। राजा की ऐसी बातें सुनकर ऋषिपुत्रों ने उसे शाप दिया कि तुम चाण्डाल हो जाओ। इस दशा में वह विश्वामित्र के पास गया जिसके कुटुम्ब का उसने आपत्काल में भरण पोषण किया था। विश्वामित्र ने उसपर दया की और कहा कि हम तुम्हारे लिये यज्ञ करेंगे और सब ऋषियों को निमंत्रण दिया। वसिष्ठ-पुत्र न आये और उन्हें विश्वामित्र ने शाप दे दिया। यज्ञ में देवता भी न आये; इसपर विश्वामित्र ने त्रिशंकु को अपने तपोबल से स्वर्ग की ओर उठा दिया। इन्द्र ने उससे कहा कि तुम स्वर्ग में नहीं रह सकते और उसे गिरा दिया।तब विश्वामित्र ने कहा कि तुम ठहरे रहो। तब से दक्षिण की ओर आकाश में सिर नीचे वह लटका हुआ है। उसी की राल से कर्मनासा नदी निकली है। [१६] इसका यही ऐतिहासिक अर्थ हो सकता है कि विश्वामित्र ने दक्षिण आकाश में एक नक्षत्र का नाम त्रिशंकु रखकर उसको अमर कर दिया। त्रिशंकु की रानी केकय-वंश की राजकुमारी थी।

(३२) हरिश्चन्द्र—श्रीरामचन्द्र से पहिले अयोध्या के जितने राजा हुये उनमें हरिश्चन्द्र सब से प्रसिद्ध हैं। उनकी सत्यप्रियता ऐसी थी की उसके लिये अपनी प्यारी से प्यारी वस्तु त्याग देने में उन्हें संकोच न हुआ इसी विषय पर अनेक हिन्दी नाटक बन गये जो अत्यन्त लोक प्रिय हैं। पौराणिक कथा का आधार वैदिक उपाख्यान पर है और वह प्रचलित कथा से भिन्न है। इससे हम फिर रायल एशियाटिक सोसाइटी के १९१७ के जर्नल से मिस्टर पार्जिटर के विचार उद्धृत करते हैं। इसमें उन्होंने कथा की ऐतिहासिक मात्रा पर अपना मत प्रकट किया है।

'राजा हरिश्चन्द्र के कोई पुत्र न था। उन्होंने नारद के कहने से वरुणदेव से प्रार्थना की कि मेरे पुत्र हो तो तुम्हें बलि चढ़ा हूँ। वरुण ने उनका मनोरथ पूरा कर दिया और रोहित का जन्म हो गया। वरुण तुरन्त ही अपनी भेंट मांगी। देवता से लड़का इस लिये मांगना कि जनमते ही लड़का वलिदान कर दिया जाय एक अनोखी बात है परन्तु ऐसे धार्मिक विषय में यह बात असंभव है कि राजा ने अपने कुलगुरु वसिष्ठ से मंत्र न लिया हो । वसिष्ठ इस प्रतिज्ञा को जानते तो थे ही परन्तु लड़का पैदा हो गया और कुछ बोल नहीं । राजा, वरुण को श्राज्ञा टालता रहा और यह ठहरा कि जब रोहित सोलह बरस का हो जाय और क्षत्रियों की सजावट से सज जाय तो उसका बलिदान हो। इससे प्रत्यक्ष है कि किसी पुजारी ने वरुण के नाम से इस आग्रह के साथ रोहित की बलि मांगी थी और यह भी कोई न मानेगा कि राजा इतने दिनों वसिष्ठ से पूछे बिना टाल मटोल करता रहा। इससे यह अनुमान होता है कि वसिष्ठ का इसमें स्वार्थ था। नहीं तो क्या कारण है कि वरुण को मनाने का न कोई प्रयत्न किया गया न राजा को बचाने का और वरुण के पुजारी की इस मांग का समर्थन होता रहा कि रोहित का बध किया जाय।

जब रोहित सोलह बरस का हुआ और क्षत्रियों की सजधज से सजा तो राजा ने अपनी प्रतिज्ञा उसे सुनाई। रोहित ने न माना और बन को चला गया। उसके जाने पर राजा बीमार पड़ गया। रोहित ने सुना तो बरस बीतने पर अपने पिता को देखने आया परन्तु फिर समझा बुझा कर बन को लौटा दिया गया। यह चरित कई बरस तक होता रहा, और छठे साल फिर रोहित बन को लौट गया। ऐसी सलाह कभी मित्रभाव से नहीं दी जा सकती। एक राजकुमार को जो अयोध्या में सब तरह के सुख में पला था और अपने बाप का इकलौता बेटा था, इस तरह से घर से निकलवा देना और उसके संकट कटने का कोई प्रतीकार न करना उसको चिढ़ाना न था तो क्या था? बहकानेवाला देवराज इन्द्र कहा जाता है परन्तु देवराज वसिष्ठ ही का नाम हो सकता है। वसिष्ठ ने त्रिशंकु के बनवास में बारह बरस राज किया था अब फिर राज करना चाहते थे। रोहित मार डाला जाता या सदा बनवास भोगता दोनों का फल एक ही था। बरन इस बार वसिष्ठ का पक्ष प्रबल था क्योंकि बेचारे रोहित की दशा सत्यव्रत की दशा से बुरी थी। सत्यव्रत को केवल देश निकाला दिया गया था, रोहित के तो प्राण ही देवता को समर्पित हो चुके थे। छठे या सातवें बरस फिर रोहित बन को चला गया। वहाँ उसने देखा कि अजीगत अपनी स्त्री और तीन पुत्रों के साथ भूखों मर रहा है। रोहित ने सौ गायें देकर दूसरे लड़के शुनःशेप को मोल ले लिया और उसको लेकर अयोध्या पहुंचा। राजा हरिश्चन्द्र ने तब यह प्रस्ताव किया कि रोहित के बदले शुनःशेप बलिदान कर दिया जाय और वरुण ने मान लिया। इसमें संदेह नहीं कि रोहित को किसी उपाय से अपने प्राण बचाने की चिन्ता लगी रही और उसने इस आपद्ग्रस्त ब्राह्मणकुल को देखा तो उसे डूबते का सहारा मिल गया । उसे तुरन्त यह सूझा कि अपने बदले मरने को एक लड़का मोल ले ले और उन लोगों ने अपनी विपत्ति के मारे उसकी बात मान भी ली। इससे उस कुटुम्ब का एक मनुष्य मरता था नहीं तो सब भूखों मर जाते । अब रोहित को अपने पिता के पास रहने में कोई बाधा न थी यद्यपि इन्द्र के बहकाने का कारण जैसा पहिले था उसमें कुछ कमी न हुई थी। वरुणदेव ने रोहित के बदले शुनःशेप की बलि स्वीकार कर ली क्योंकि ब्राह्मण की बलि क्षत्रिय की बलि से श्रेष्ठ ही थी। अब वसिष्ठ का बलिदान से कोई प्रयोजन न रह गया। शुनःशेप के आ जाने से बात ही और हो गई। नरबलि से अब कोई प्रयोजन सिद्ध न होता था। परन्तु इस बात को कहता कौन? कहने से भांडा फूट जाता। अब यही हो सकता था कि यज्ञ प्रारम्भ कर दिया जाय, सब रीतियाँ की जॉय और किसी उपाय से जना दिया जाय कि वरुणदेव बिना बलिदान ही संतुष्ट होगये और शुनःशेप छोड़ दिया जाय। चाल तो चली नहीं इससे वसिष्ठ ने यही उचित समझा कि यज्ञ में कोई काम न करें। यह भी उचित था कि राजा भी प्रसन्न कर लिया जाय प्रतिकूल इतने दिनों तक यह चरित्र होता रहा। शुनःशेप ने पुष्कर जाकर अपने मामा विश्वामित्र[१७] से अपने बचाने को कहा और विश्वामित्र उसके साथ अयोध्या चले गये, क्योंकि विश्वामित्र को लोगों ने ब्राह्मण स्वीकार कर लिया था। जब यज्ञ होने लगा तो बलि के लिये शुनःशेप को किसी ने यूप में बाँधना भी स्वीकार न किया। इससे प्रकट है कि यह बलि किसी को अपेक्षित'न थी, यहाँ तक कि वह लोग भी न चाहते थे जो रोहित के प्राणों के गाहक थे। विश्वामित्र ने कहा कि सुर मुनि इसकी रक्षा करें। शुनःशेप का बलिदान आदि ही से नाममात्र को था। वह छोड़ दिया गया और विश्वामित्र ने उसे अपना पुत्र मान लिया।

(३३) रोहित—कहा जाताहै कि इसने रोहित (रोहितास)*[१८] नगर बसाया था।

(३९) वाहु—यह हैहयों और तालजंघो से पराजित होकर स्त्री समेत और्व भार्गव के तपोवन को चला गया और वहीं मर गया। उसकी रानी के उसी बनवास में सगर नाम पुत्र हुआ जिसको और्व ने शिक्षा दी।

(४०) सगर—यह बड़ा प्रतापी राजा था। उसने पहले तो हैहयों और तालजंघों को मार भगाया फिर शकों, यवनो, पारदों और पह्नवों को परास्त किया। यह लोग वसिष्ठ की शरण आये। वसिष्ठ ने इनको जीवनमृतप्राय कर दिया और सगर से कहा कि इनका पीछा करना निष्फल है। राजा सगर ने कुलगुरु की आज्ञा से इनके भिन्न वेष कर दिये, यवनों के मुंडित शिर शकों को श्रद्ध मुण्डित पारदों को प्रलम्बमान-केशयुक्त और पह्नवों को श्मश्रुधारी बना दिया। यह लोग म्लेच्छ होगये।

सगर के एक रानी विदर्भगज कुमारी केशिनी और एक कश्यप की बेटी सुमति भी थी। सगरने विदर्भ पर भी आक्रमण किया, परन्तु विदर्भराज ने अपनी बेटी केशिनी उसे देकर सन्धि कर ली। केशिनी के एक बेटा असमंजस हुआ और सुमति के साठ हजार पुत्र हुये। असमंजस का लड़का अंशुमान था । सगर ने अश्वमेधयज्ञ के लिये घोड़ा छोड़ दिया। इन्द्र ने उसे चुरा कर वहाँ बाँध दिया जहाँ कपिल मुनि तपस्या करते थे।[१९] सगर के बेटे घोड़े के रक्षक थे; पृथिवी खोदते वहीं पहुंचे और घोड़ा कपिल के पास देखकर बोले, 'यही चोर है, इसे मारो'। इस पर कपिल ने आँख उठा कर ज्योंही उनकी ओर देखा त्योंही सगर के सब लड़के भस्म होगये। सगर ने यह समाचार सुनकर अपने पोते अंशुमान को घोड़ा छुड़ाने के लिये भेजा। अंशुमान उसी राह से चलकर जो उसके चचाओं ने बनाई थी कपिल के पास गया। उसके स्तव से प्रसन्न होकर कपिल मुनि ने कहा कि “लो यह घोड़ा और अपने पितामह को दो;" और यह बर दिया कि "तुम्हारा पोता स्वर्ग से गंगा लायेगा। उस गंगा-जल के तुम्हारे चचा की हड्डियों में लगते ही सब तर जायेंगे ।" घोड़ा पाकर सगर ने अपना यज्ञ पूरा किया और जो गड्ढा उसके बेटों ने खोदा था उसका नाम सागर रख दिया । हम इससे यह अनुमान करते हैं कि सगर के बेटे सब से पहले बंगाल की खाड़ी तक पहुंचे थे और समुद्र को देखा था।

(४४) भगीरथ—यह राजा गंगाजी को पृथिवी पर लाया था; इसीसे गंगा जी को भागीरथी कहते हैं। क्या गंगानो पहिले नहर ही के रूप में थीं?

(४७) अम्बरीष—इनकी कथा श्रीमद्भागवतमें दी हुई है और उसी के आधार पर नाभाजी ने भक्तमाल में लिखी है। हम उसे ज्यों का त्यों श्री संतशिरोमणि श्री सीतारामशरण भगवान् प्रसाद उपनाम रूप कला जी के तिलक से उद्धृत करते हैं। राजा अंबरीष भगवान के बड़े भक्त थे। एक समय द्वादशी के दिन महाराज के यहां दुर्वासा जी आये। महाराजा ने नमस्कार विनय के अनन्तर भोजन के लिये प्रार्थना की। ऋषि जी ने कहा कि स्नान कर आवें तो भोजन करें। इतना कहकर स्नान को गये। परन्तु उस दिन द्वादशी दो ही दंड थी। राजा ने विचार किया कि त्रयोदशी में पारण न करने से शास्त्राज्ञा उल्लंधित होगी। तब ब्राह्मणों ने कहा कि किंचित्-मात्र जल पी लीजिये। राजा ने ऐसा ही किया। दुर्वासा जी आये और अनुमान से जाना कि इन्होंने जल पिया है। फिर तो अत्यन्त क्रोध करके अपनी जटा को भूमि में पटक के महाविकराल “कालकृत्या" उत्पन्न करके उससे कहा कि "इस राजा को भस्म करदे"। इतने पर भी श्री अम्बरीष जी हाथ जोड़, दुर्वासा की प्रसन्नता की अभिलाषा में खड़े ही रहे । "श्री-सुदर्शनचक्र जी" जो श्रीप्रभु की आज्ञानुसार राजा की रक्षार्थ सदा समीप ही रहा करते थे, दुर्वासा के दुःखदायी क्रोध से दुःखित हो के उस कालाग्नि कृत्या को अपने तेज से जला के राख कर दिया और ब्राह्मण की ओर भी चले । यह देख दुर्वासा जी भागे और चक्रतेज से अत्यन्त विकल हुये।

महाभारत में लिखा है कि राजा अम्बरीष अमित पराक्रमा थ। उन्होंने अकेले दस हजार राजाओं के साथ युद्ध किया था और समस्त पृथ्वी पर अपना आधिपत्य फैलाया था।

लिङ्ग पुराण में लिखा है कि महाराजा अम्बरीष अत्यन्त विष्णुभक्त थे; राज्य भार मन्त्रियों को देकर उन्होंने बहुत दिनों तक विष्णु भगवान की आराधना की! भगवान विष्णु उनकी भक्ति की परीक्षा और वर देने के लिये इन्द्र का रूप धारण कर उनके समीप उपस्थित हुये। परन्तु विष्णुभक्त अम्बरीष ने इन्द्र से कोई भी वर नहीं माँगा और बोले, मैं न तो आपको प्रसन्न करने के लिये तपस्या करता हूँ और न मैं आप का दिया हुश्रा वरही चाहता हूँ आप अपने स्थान को जाइये ! मेरे प्रभु नारायण हैं और उन्हीं को मैं नमस्कार करता हूँ।" इससे विष्णु प्रसन्न हुए और अपने रूप से उनके सामने प्रकट हुए।

महाराज अम्बरीष की अत्यन्त सुन्दरी एक कन्या थी, जिसका नाम सुन्दरी थी। यह कन्या विवाह के योग्य होगई थी। एक समय देवर्षि नारद और पर्वत किसी कार्यवश अम्बरीष के पास आये थे। उन दोनों ने अम्बरीष की कन्या से विवाह करने की अपनी अपनी अभिलाषा प्रकट की। अम्बरीष बोले, श्राप दोनों महामुनि हैं, कन्या को अर्पण करना हमारे बस की बात नहीं है। अतएव आप लोग और किसी दिन आवें, कन्या जिसके वरमाला डाल दे, वही उससे व्याह करले। नारद ने अम्बरीष का विष्णुभक्त जानकर और विष्णु के समीप जाकर सब बातें कहीं, और पर्वत का मुख वानर के समान बनाने के लिये भी कहा। विष्णु ने नारद की प्रार्थना स्वीकृत की। परन्तु पर्वत से इस विषय में कुछ कहने के लिये मना किया। थोड़ी देर के बाद पर्वत भी विष्णु भगवान के समीप पहुंचे और उन्होंने भी नारद के समान ही विनती की। विष्णु ने इनकी भी बातें मानली; और कह दिया कि इस विषय में नारद से कुछ न कहना । समय आ पहुंचा, दोनों मुनि विवाह की इच्छा से अम्बरीष के यहाँ पहुंचे। अम्बरीष ने अपनी कन्या से कहा कि तुम जाकर इनमें से पति वरण कर लो। कन्या अम्बरीष की आज्ञा से वरमाला लेकर उनके सामने गयी। कन्या स्वयं राधा थीं। उन्होंने कृष्ण से व्याह करने के लिये तपस्या करके अम्बरीष के यहाँ जन्म ग्रहण किया था। श्रीमती मुनियों के पास जाकर अत्यन्त डर गयीं। अम्बरीष के कारण पूछने पर श्रीमती बोली “यहाँ न तो नारद हैं और न पर्वत ही हैं, दो आदमी देखे तो जाते हैं परन्तु उनका मुँह वानरों का सा है।" यह सुन कर राजा को अत्यन्त विस्मय हुआ। उन दोनों के बीच एक तीसरा सुन्दर पुरुष बैठा था। श्रीमती ने उसी को वरमाला पहना दी। वरमाला पहनाने पर श्रीमती अदृश्य हो गयीं, ये तीसरे पुरुष साक्षात भगवान थे। भगवान ने साक्षात् श्रीमती को अन्तर्द्वान कर दिया। इससे दोनों मुनियों को बड़ा झोध हुआ। वे कहने लगे "अम्बरीष ने माया रच कर हम लोगों को धोखा दिया। अतएव अम्बरीष, तुम अन्धकार से घिर जाओगे। तुम अपने शरीर को भी नहीं देख सकोगे।" अम्बरीष की रक्षा के लिये विष्णु का सुदर्शनचक्र उपस्थित हुआ, विष्णुचक्र अन्धकार को दूर कर मुनियों के पीछे दौड़ा। मुनि चारों ओर घूमते फिरे परन्तु विष्णुचक्र से रक्षा पाने का कोई उपाय उन्हें नहीं सूझा। अन्त में विष्णु के समीप उपस्थित हो कर, उन्होंने क्षमा प्रार्थना की। तब विष्णु ने सुदर्शन को निवृत्त किया। उन दोनों मुनियों ने प्रतिज्ञा की कि हम लोग कभी विवाह न करेंगे।[२०]

५०-ऋतुपर्ण—निषध के राजा नल ने बाहुक बनकर इसी के यहाँ रथ हाँकने की नौकरी की थी। ऋतुपर्ण ने जुये का खेलना नल को सिखाया जिससे उसने अपना हारा राज-पाट सब फिर अपने भाई से ले लिया और उससे घोड़ा हाँकना सीखा।

५३-मित्रसह या कल्माषद—इस राजा के इतिहास का कुछ अंश अवंद माहात्म्य में दिया हुआ है, जिसका संक्षेप हमने अपने अंग्रेजी हिस्ट्री ऑफ़ सिरोहीराज (History of Sirohi Raj) में दिया है। यहाँ फिर वसिष्ठ जी आ जाते हैं। कल्माषद एक दिन शिकार खेल रहा था जब उससे वसिष्ठ के बेटे शक्तृ से भेंट हुई। राजा ने शक्तृ से कहा कि तुम हमारे आगे से हट जाओ। शक्त ने क्रुद्ध हो कर राजा को शाप दिया कि तू राक्षस हो जा। राक्षस होते ही कल्माषद शक्स और उसके भाइयों को खा गया। विष्णु पुराण की कथा इसके कुछ भिन्न है। उसमें लिखा है कि राजा ने एक बाघ मारा था जिसने राजा से कहा था कि मैं तुम से बदला लूंगा और राजा के यज्ञ की समाप्ति पर रसोइयाँ बनाकर उसने वसिष्ठ के आगे नरमांस परोस दिया। इस पर वसिष्ठ ने राजा को शाप दिया कि तुम राक्षस हो जाओ। राजा का कुछ दोष न था इसलिये उसने भी वसिष्ठ को शाप देना चाहा परन्तु उसकी रानी दमयन्ती ने उसे मना किया और कहा कि कुलाचार्य को शाप देना अनुचित है और राजा मान गया। पीछे राजा नं ऋतुकाल में दयिता-संगत एक ब्राह्मण को देखा और उसको पकड़ लिया। ब्राह्मणी ने बिनती करके उसको छुड़ाना चाहा परन्तु राजा ने उसे मार डाला।

५४ अश्मक—इसने यौदन्य नामक नगर बसाया था।

५५ मूलक—विष्णु, पुराण में लिखा है कि जब परशुराम ने पृथ्वी को निःक्षत्रिया करना चाहा तो स्त्रियों ने इसकी रक्षा की । इसलिये इसका "नारी-कवच" नाम पड़ा । यह समझ में नहीं आता कि पृथ्वी निःक्षत्रिया कब और कैसे हुई । राम भार्गव और अर्जुन हैह्य में लड़ाई अवश्य हुई थी परन्तु मूलक से नौ पीढ़ो नीचे इक्ष्वाकु वंशी श्रीरामचन्द्र जी ने राम भार्गव का मान मन्द किया था।

५९ दिलीप द्वितीय खट्वाँग—यह भगवद्भक्त था। इसने देवासुर संग्राम में असुरों का जीता और जब देखा कि इसकी आयु एक मुहूर्त ही और बची है तो फिर अपने देश को लौट आया और विष्णु भगवान् का भ्यान करके उन्हीं में लवलीन हो गया।

हरिवंश में लिखा है कि अयोध्या के इक्ष्वाकु वंशी राजा हर्यश्व ने मधुदैत्य की बंटी मधुमती के साथ अपना विवाह कर लिया। इस पर उसके बड़े भाई ने उस निकाल दिया और वह अपने ससुराल चला गया। यहाँ उसके ससुर ने अपने बेटे लवण के लिये मधुवन छोड़ कर उसे अपना सारा राज दे दिया। तब हर्यश्व ने गिरिवर में जिसे आजकल गोवर्द्धन कहते हैं, एक महल बनवाया और नर्त्त राज्य स्थापित करके उसमें अरुप जिसे अनूप भी कहते हैं मिला लिया । हर्यश्व का बेटा यदु था; उसकी तीसरी पीढ़ी में भीम हुआ । भीम के समय में श्रीरामचन्द्र ने लवण को वध करके उसके दुर्ग मधुवन के सर करने को शत्रुघ्न को भेजा था। शत्रुघ्न ने यमुना के तट पर मथुरा नगरी बसाई । परन्तु शत्रुघ्न के चले जाने पर भीम ने उसे अपने राज्य में मिला लिया जो उसकी संतान में वसुदेव तक के पास रहा । यह हर्यश्व कौन था, हमारी वंशावली में हर्यश्व दो हैं एक, १५ हर्यश्व १, और दूसरा २७ हर्यश्व २, दोनों श्रीरामचन्द्र जी से कई पीढ़ी ऊपर हैं। हरिवंश की बात मानी जाय तो हर्यश्व से चौथी पीढ़ी उतर कर भीम श्रीरामचन्द्र का समकालीन ठहरता है। हरिवंश का हर्यश्व वंशावली का हर्यश्व २ माना जाय तो मधु की बेटी की पाँचवीं पीढ़ी और उसका बेटा लवण हर्यश्व २ से उतर कर सैंतीसवीं पीढ़ी में श्रीरामचन्द्र के समकालीन होता है। इससे जान पड़ता है कि हरिवंश का हर्यश्व दिलीप का भाई था जिसने नाम मात्र को राज किया और मधु के साथ संबंध करने के कारण अयोध्या से निकाल दिया गया। [२१]

हर्यश्वश्च महातेजा दिव्ये गिरि वरोत्तमे।
निवेशयामासपुरं वासार्थममरोपमः॥
श्रावत नाम तद्राष्टं सुराष्ट्र गोधनायुतम्।
अचिरेणैव कालेन समृद्ध म्प्रत्यपथत॥
अनूपविषय श्चैव वेलावनविभूषितम्।

(हरिवंश अध्याय १४)।

६१ रघु—यह बड़ा प्रतापी राजा था और दिग्विजय कर के जिसका वर्णन रघुवंश के चौथे सर्ग में है, सह्य, वंग, कलिंग, पांड्य, केरल, अप- रान्तक, पारसीहूण कम्बोज, उत्सव संकेत और प्रागज्योतिष देशजीते। पारसीक ईरानवासी थे इससे विदित है कि रघु ने भारत के बाहर के भी देश जीत लिये थे। रघु के दिग्विजय की व्याख्या उपसंहार (क) में दी हुई है।

६२ अज—इनका विवाह विदर्भकुल की राजकुमारी इन्दुमती के साथ हुआ था। जब ये अयोध्या से विदर्भ को जा रहे थे तो रास्ते में इन्हें एक गन्धर्व से जुभ्मकास्त्र मिला। यह एक विचित्र हथियार था जिसके चलाने से बैरी की सेना बेसुध हो जाती थी और बिना वध किये ही बैरी जीत लिया जाता था। भारतवर्ष में जीव नष्ट करने के सामग्री की कमी नहीं है, परन्तु बिना जीव मारे कार्य सिद्ध हो जाना भी एक लाभ समझा जाता है। ऐसा ही एक अस्त्र श्रीरामचन्द्र को विश्वामित्र ने दिया था।

६३ दशरथ—यह भी बड़े प्रतापी राजा थे। इनके तीन रानियाँ थीं। एक कौशल्या जो सम्भवतः दक्षिण कोशल की राजकुमारी थीं, दूसरी मगध की राजकुमारी सुमित्रा और तीसरी केकय देश की कैकेयी। कैकेयी के विवाह की कथा कुछ रोचक है इससे यहाँ लिखी जाती है।

"इसी समय केकय देश के राजा अश्वपति परिवार समेत कुरुक्षेत्र की यात्रा को आये थे। वहीं महाराज दशरथ ने उनकी परम सुन्दरी कन्या देखी और उनसे यह प्रस्ताव किया कि इसका विवाह हमारे साथ कर दो। कन्या का नाम पुस्तकों में दिया हुआ नहीं है, परन्तु केकय राजवंश की होने से वह संसार में कैकेयी नाम से प्रसिद्ध हुयी। यद्यपि उस राजवंश की और राजकुमारियाँ भी सूर्यवंशी राजाओं को व्याही जा चुकी थीं। कैकेयी और अश्वपति दोनों ने उत्तर दिया कि विवाह इस शर्त पर हो सकता है कि इस संबंध से जो लड़का हो वही राज्य का उत्तराधिकारी हो। महाराज दशरथ ने यह शर्त स्वीकार कर ली और विवाह हो गया। यह शर्त नयी न थी । महाभारत में लिखा है कि जब राजा शान्तनु ने सत्यवती के साथ विवाह करना चाहा तो सत्यवती और उसके पिता दासराज ने भी ऐसी ही शर्त की थी और उसी के आग्रह से शान्तनु के बेटे देवव्रत ने जो पीछे से भी भीष्म कहलाये राज्य का दावा छोड़ दिया और अपना विवाह तक न किया जिससे कोई और दावादार न खड़ा हो जाय।

यद्यपि महाकवि कालिदास ने नहीं लिखा परन्तु महाभारत में ऐसी ही शर्त शकुन्तला ने भी दुष्यन्त के साथ की थी।

पीछे देवासुर संग्राम में और राजाओं के साथ महाराज दशरथ इन्द्र की सहायता काे गये थे और कैकेयी को भी अपने साथ लेते गये थे। यह लड़ाई दण्डकवन में शम्बरासुर के वैजयन्तम नगर में हुई थी। शम्बरासुर बड़ा मायावी था। ऐसा भारी संग्राम हुआ कि राक्षसों ने सोते हुये पुरुषों को भी घायल कर दिया और घायलों को मार डाला। महाराज दशरथ भी असुरों के अखों से घायल होकर मूर्छित हो गये थे। उस समय कैकेयी उनको समर-भूमि से हटा ले गयी और उनकी संवा शुश्रूषा की। एक दूसरी लड़ाई में महाराज दशरथ फिर घायल हो गये थे और शीत से व्याकुल थे वहाँ भी कैकेयी ने उनके प्राण बचाय थे। इन दोनों कार्यों से सन्तुष्ट होकर राजा ने कैकयी का दो वर दिये थे। कैकेयी ने उत्तर दिया कि दोनों वर हमारे श्राप थाती की भाँति रखिये जब प्रयोजन होगा माँग लूँगी।

कौशल्या से श्रीरामचन्द्र जी का जन्म हुआ। सुमित्रा के दो बेटे लक्ष्मण और शत्रुन थे और कैकयी के एक लड़का भरत हुआ। जब लड़के सयान हुये और महाराज दशरथ ने सर्वसम्मति से ज्येष्ठ पुत्र श्रीरामचन्द्र काे युबराज बनाना चाहा तो रानी कैकेयी ने दोनों बरों के आधार पर अपने बेटे भरत के लिये राज तो मांगा ही, श्रीगमचन्द्र काे चौदह वर्ष का बनवास दिला दिया। उस समय भरत अपने नानिहाल में थे। श्रीरामचन्द्रजी का विवाह मिथिला के राजा जनक-वंशी सीरध्वज की बेटी श्री सीता जी के साथ हुआ था। उनके भाई लक्ष्मण ने भी कहा कि हम साथ चलेंगे। सब को समझा बुझा कर श्रीरामचन्द्र जी, सीताजी और लक्ष्मण के साथ वन को चले गये। राजा दशरथ पुत्र-शोक में मर गये और भरत ने नानिहाल से आकर राज्य करना स्वीकार न किया और श्रीरामचन्द्र को फिर अयोध्या लौटा लाने को चित्रकोट गये जहाँ श्रीरामचन्द्र जी उन दिनों रहते थे। श्रीरामचन्द्र जी ने न माना। तब भरत नगर के बाहर कुटी बनाकर रहे और वहीं से राज-काज देखा।

६४ श्रीरामचन्द्र—मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान के सब से बड़े अवतार, आदर्श राजा माने जाते हैं। इनकी कथा ऐसी प्रसिद्ध है कि उसके यहाँ लिम्बन का कुछ प्रयोजन नहीं। लड़कपन ही में इन्होंने राजा गाधि के पुत्र विश्वामित्र के यज्ञ की रक्षा की थी। इनका विवाह मिथिलापति जनक की बंटी श्रीसीता जी के साथ हुआ। पीछे पिता का वचन प्रमाण करने का वन का चल गये। वहाँ सीता हर ले जाने के कारण दक्षिण की असभ्य जातियों से मेल करके लंका के राजा रावण को मार कर उसका राज उसके भाई को दे दिया और सीता समेत फिर अयोध्या लौटकर ऐसा अच्छा राज किया जिससे आजकल भी जिस राज में सब तरह का सुख हो, उस रामराज कहते हैं। कुछ विजय से और कुछ मामा से पाकर श्रीरामचन्द्र सारे भारत के साम्राट थे और स्वर्ग जाने से पहिले उन्होंने अपना राज अपने दो बेटों और ६ भतीजों में इस तरह बाँट दिया था :-

बेटे—१ कुश—विन्ध्याचल के तट में दक्षिण कोशल, जिसकी राजधानी कुशावती थी। यह राज इन्हें संभवतः नानिहाल से मिला था क्योंकि कौशल्या यहीं की राजकुमारी थीं। कोई कोई द्वारका को और कुछ पंजाब में कसूर को भी कुशावती मानते हैं।

२—लव—उत्तर कोशल में शरावती। पंजाब के लाहौर को भी लव का बसाया हुआ मानते हैं

भतीजे—(लक्ष्मण के बेटे)—३ अंगद को हिमालय की तरेटी में अंगदराज।

४ चन्द्रकेतु को चन्द्रचक्र—हिमालय की तरेटी में।

५ (भरत के बेटे) तक्ष—को तक्षशिला जो संभवतः केकय देश में था जो नाना से मिला था—तक्षशिला के खंडहर रावलपिंडी जिले में है।

६ पुष्कल—को पुष्करावती, यह भी गान्धार देश (केकयदेश) में था।

७ शत्रुघ्र के पुत्र शूरसेन—(बहुश्रुति) को मथुरा।

८ सुवाहु—को विदिशा (आज कल का मिलसा)।

अयोध्या उजाड़ दी गई थी, कदाचित् भाइयों में तकरार के डर से।

६५ कुश—परन्तु भाइयों ने सहमत होकर कुश को सम्राट माना और उन्होंने अयोध्या को फिर से बसाया।

८२ हिरण्यनाभ-यह योग—दर्शन के आचार्य महायोगीश्वर जैमिनी का शिष्य था और इसी से याज्ञवल्क्य ने योग सीखा।[२२] यही हिरण्यनाभ सामवेद का भी प्राचार्य था।

यहाँ उसको कोशल्य लिखा है जिससे स्पष्ट है कि वह कोशला का राजा था।

९४ वृहद्वल—इसको महाभारत में अर्जुन के पुत्र अभिमन्यु ने मार डाला।[२३]

महाभारत के पीछे कोशला के राजाओं की नामावली में चार नाम देख कर कुछ आश्चर्य होता है।

२३ शाक्य—यही बुद्धदेव के कुल का भी नाम।

२४ शुद्धोदन—बुद्धदेव के पिता का भी नाम।

२५ सिद्धार्थ—बुद्धदेव ही का नाम, बुद्ध होने से पहिले।

२६ राहुल—बुद्धदेव के बेटे का नाम।

इसमें संदेह नहीं कि कपिलवस्तु कोशल देश के अन्तर्गत था परन्तु इस बात का कोई प्रमाण नहीं मिलता कि श्रावस्ती में जहाँ इस समय राजधानी अयोध्या से उठ कर चली गई थी, कभी कपिलवस्तु के राजाओं ने राज किया। महावीर तीर्थकर के पिता इक्ष्वाकुवंशी सिद्धार्थ थे परन्तु वे विशाला के रहने वाले थे। ऐसा अनुमान किया भी जाय तो उसका खंडन यों हो जाता है कि प्रसंनजित जिसने तक्षशिला के विद्यालय में शिक्षा पाई थी, बुद्धदेव के पास गया था और उनसे कहा था कि लिच्छवी राजा और मगध के बिंबिसार दोनों मेरे मित्र हैं। प्रसेनजित का विस्तार सहित वर्णन अध्याय ९ में दिया हुआ है।

उसका बेटा क्षुद्रक (सं० २८) बौद्ध ग्रन्थों में विरूधक कहलाता है, कदाचित् इसलिये कि बौद्धों से विरोध रखता था। यह शाक्यों के वध के लिये इतिहास में प्रसिद्ध है।

कुछ विद्वानों का मत है कि अन्तिम राजा सुमित्र महापद्मनन्द के समय की क्रान्ति में ई० पू० ४२२ में मारा गया था। परन्तु जिस शिला-लेख का वर्णन अध्याय ७ पर है उसके अनुसार कम से कम ५० बरस पहिले सूर्यवंश का अन्त हो गया था।

जापान के सुप्रसिद्ध विद्वान् आर० किमोरा कुछ दिन हुये भारत में आये थे। उनका विचार है कि जापानी भारतवासियों की सन्तान हैं। यह बात बड़ी मनोरञ्जक है। जापानी मिकाडो को अम्मा की सन्तान मानते हैं क्योंकि पहिले मिकाडो की उत्पत्ति अम्मा में मानी जाती है और अम्मा ईश्वर का अवतार था। क्या इस अनुमान से विशेष आपत्ति हो सकती है कि अम्मा राम ही का अपभ्रंश है? जापानी मिकाडो को सूर्यवंशी मानते हैं। इससे इस विचार की ओर भी पुष्टि हुई जाती है कि मिकाडो की उत्पत्ति उसी सूर्यवंश से हुई जिसमें श्रीरामचन्द्र ने अवतार लिया था।

यह कहना कठिन है कि यहाँ से लोग जापान कब गये। गोआ के प्रोफेसर पाण्डुरङ्ग पिसुलेंकर ने सिद्ध कर दिया है कि अयोध्या के क्षत्रिय तिब्बत और श्यामदेश गये और वहाँ राजधानियाँ स्थापित की। उनके श्राविष्कार एक फ्रांसीसी पत्र में छपे हैं । इस पत्र में यहाँ तक लिखा है कि भारतवासियों ने अमरीका को भी आबाद किया था।[२४]

 

 

मणिपर्वत

 

सातवाँ अध्याय।
(ख) शिशुनाक, नन्द, मौर्य और शुङ्गवंशी राजा।

शिशुनाक—अयोध्या में शिशुनाक वंशी राजाओं के शासन का प्रमाण बहुत ही सूक्ष्म है परन्तु इसको छोड़ना उचित नहीं। अवध गजेटियर जिल्द १ पृष्ठ १० में मणिपर्वत के वर्णन में लिखा है:—

मगध का राजा नन्दवर्द्धन-महाराज मानसिंह ने हमको बार-बार विश्वास दिलाया है कि इसी शताब्दी में इसी टोले में एक शिला लेख गड़ा हुआ मिला था। उसमें लिखा था कि यहाँ किसी समय में राजा नन्दवर्द्धन का राज था और उसी ने यह स्तूप बनवाया था। महाराज ने यह भी कहा था कि बादशाह नसीरुद्दीन के समय में यह शिला लेख लखनऊ भेजा गया था और शाहगंज में इसकी एक नकल भी थी परन्तु न मूल का पता लगा न नक़ल का।

उसी की टिप्पणी में यह लिखा है:—

इसके पीछे अयोध्या के विद्वान् पण्डित उमादत्त ने इस कथन का समर्थन किया और यह कहा कि हमने तीस, चालीस वर्ष हुये इस शिला लेख का अनुवाद किया था। उसकी प्रतिलिपि भी खो गई और वे यह नहीं बता सकते कि इसमें क्या लिखा था।

महाराज मानसिंह या पण्डित उमादत्त जी (पण्डित उमापति त्रिपाठी) की बातों को विश्वास न करने का कोई कारण नहीं है। हमारे लड़कपन में पण्डित जी श्री अवध के एक प्रसिद्ध महात्मा थे और न महाराज को और न उनको झूठी बात कहने का कोई प्रयोजन हो सकता है, विशेष करके जब नन्दवर्द्धन के विषय में यह बात प्रसिद्ध है कि उसने अयोध्या में सनातन धर्म को नष्ट करके एक वर्णहीन धर्म स्थापित किया जिसे जनता ने ग्रहण कर लिया, मणिपर्वत के विषय में पौराणिक जनश्रुति का समूलोच्छेदन करता है ।

इतिहास में नन्दवर्द्धन (नन्दिवर्द्धन) दो हैं, पहिला प्रद्योत कुल का पाँचवाँ राजा जो ई० पू० ७८२ में मरा और दूसरा शिशुनाक वंश का नयाँ राजा जो ई० पू० ४६५ में मरा। हमारे मत में मणि-पर्वत का बनाने वाला शिशुनाक वंशी नन्दिवर्द्धन है। अजातु-शत्रु ने भगवान बुद्धदेव से दीक्षा ली थी इससे उसके उत्तराधिकारी भी बौद्धधर्मावलम्बी रहे होंगे और इनमें एक में न केवल सनातन धर्म को दबाया वरन् एक बड़ा स्तूप भी बनवाया जो अबतक विद्यमान है।

नन्द—नन्दिवर्द्धन के उत्तराधिकारी को महापद्मनन्द ने मार डालाऔर ई० पू० ४२२ से नन्दवंश चला। कोशल देश भी इन्हीं के अधिकार में चला गया। महापद्मनन्द ने ८८ वर्ष राज किया। जव पिता का शासनकाल बाहुत बड़ा होता है तो बंटे बहुत दिन तक राज नहीं कर सकते। महापद्मनन्द के आठ बेटों ने केवल १२ वर्ष राज किया। आठवें बेटे को ई० पू० ३२२ में चाणक्य ने मार डाला और चन्द्रगुप्त मौर्य को सिंहासन पर बैठा दिया।

मौर्य—पहिले तीन मौर्य सारे भारतवर्ष के साम्राट् थे और आज-कल का अफगानिस्तान भी उन्हीं के शासन में था। अशोक के पीछे चौथा राजा शालिसूक था। गर्गसंहिता में लिखा है कि इसके शासन-काल में दुष्ट यवन साकेत, पाञ्चाल और मथुरा जीत कर पट्टन तक पहुँचे थे। यह आक्रमण केवल लूट-पाट के अभिप्राय से था और देश पर आँधी की भाँति उड़ गया ।

मौर्य वंश ने ई० पू० ३२२ से ई० पू० १८५ तक १३७ वर्ष राज किया। उन्हीं की सेना का सेनापति पुष्पमित्र अपने स्वामी को मार कर आप राजा बन बैठा।

शुङ्ग—पुष्पमित्र शुङ्गवंशी था और उससे शुङ्ग गज की नेव पड़ी। वह सनातन धर्म का कट्टर पक्षपाती था और इसी से उसने बौद्धों को सताया। प्रसिद्ध है कि उसने पूर्व मगध से पश्चिम के जालंधर (पञ्जाब) तक मठ जला दिये और बौद्ध भिक्षु मार डाले। उसने कई अश्वमेध यज्ञ किये जिसमें एक का उल्लेख मालविकाग्निमित्र नाटक में है। इस नाटक का नायक पुष्यमित्र का बेटा अग्निमित्र है जो अपने पिता के जीवन काल में विदिशा का राजा था। प्रसिद्ध भाष्यकार, पातञ्जलि इसी के एक अश्वमेध यज्ञ में पुरोहित था।[२५]

अयोध्या का शासन सूदूर पाटलिपुत्र से होता था तो भी यह उस समय बड़ा समृद्धि नगर था और इसी कारण ई॰ पू॰ १५४ में यूनानी राजा मिनान्दर ने इस पर आक्रमण किया। कठोर युद्ध हुआ और यूनानी राजा को अपने देश लौट जाना पड़ा। इसका भी उल्लेख पातञ्जलि ने किया है।[२६]

पुष्यमित्र के पीछे अग्निमित्र ने आठ वर्ष राज किया और उसके पीछे पाठ और राजा हुये जिन्होंने सब मिला कर ५८ वर्ष पृथ्वी भोगी।

थोड़े दिन हुये अयोध्या में एक शिला लेख श्रीमती महारानी साहिबा के प्रैवेट सेक्रेट्री और भाषा के सुप्रसिद्ध कवि बाबू जगन्नाथदास रत्नाकर को मिला था।[२७] उसमें जो लिखा है उसका अनुवाद यह है

दो दो अश्वमेध करनेवाले सेनापति पुष्यमित्र के छटे।

(?) कोशलाधिप धन (देव) ने अपने पिता फल्गुदेव के लिये यह महल बनवाया।

धनदेव का नाम पाटलिपुत्र के दस शुङ्गवंशी राजाओं में नहीं है। कोशलाधिप उपाधि से विदित होता है कि धन (देव) केवल कोशल का राजा था और उसकी राजधानी अयोध्या थी न कि श्रावस्ती।

  1. विष्णुपुराण के अनुसार मान्धातृ का बेटा अंबरीष था उसका पुत्र हारीत हुआ जिससे हारीतआं गिरस् नाम क्षत्रियकुल चला।
  2. इसे अभिमन्यु ने मारा था (महाभारत द्रोणपर्व)।
  3. अंतिम राजा महानन्द की राजक्रान्ति में मारा गया।
     
    Sacred Books of the Hindus, Matsya Purana.
  4. प्रलय की कथा हिन्दू, मुसल्मान, ईसाई सब के धर्मग्रन्थों में है। हमने इसे इस कारण यहाँ लिखा है कि श्री अवध की झांकी में वह स्थान बताया जायगा जहाँ मनु ने मस्य भगवान् के दर्शन पाये थे।
  5. यह गंगा रामगंगा (सरयू) है क्योंकि गंगा राजा भगीरथ की लाई हुई हैं और भगीरथ मनु से चौवालीसवीं पीढ़ी में थे।
  6. उम्मत — اُمَّت
  7. यह अंश मजीदी प्रेस कानपुर की छपी रौज़तुल् असफ़िया के आधार पर लिखा गया है।
  8. श्रीमद्‍भागवत में इस देश का नाम अजनाभवर्ष है।
  9. Vayu-Purana, edited by Rajendralal Mitra and published by the Asiatic Society of Bengal, page 347.
  10. वाह्लीक आजकल बलख़ के नाम से प्रसिद्ध है।
  11. बा॰ रा॰ ७, ८०, ८१ इस कथा को निर्मूल न समझना चाहिये। गोंडे के ज़िले में राजा सुहेलदेव बड़े प्रसिद्ध बीर थे जिन्होंने सैयद सालार (ग़ाज़ीमियाँ) को परास्त किया था। उनके राज्य का एक अंश सुहेलवा का धन कहलाता है और उनके विनाश की भी कथा कुछ ऐसी ही है।
  12. यह पौराणिक कथा है। पहाड़ पर अब तक मनुष्य के कन्धे पर सवार होकर शिकार खेलते हैं। किसी कारण से इन्द्र के कन्धे पर सवार होकर बैरी को मारने की घात लगी हो तो पीछे इन्द्र का बैल बन जाना कोई बड़ी बात नहीं है।
    काशीनागरी प्रचारिणी पत्रिका भाग १० अङ्क १ व २ में राय कृष्णदास जी ने ककुत्स्थ शब्द की व्याख्या यों की है:—
    "वेदों में इंद्र को राष्ट्र का अधिष्ठात्री देवता माना है"।
    वैदिक साहित्य के उन मंत्रों अथवा स्थलों में जिनका संबंध राजशास्त्र से है इस बात का चार बार संकेत है। इसी से राजा के अभिषेक को ऐंद्र महाभिषेक कहते थे। (ऐरेत्तय ८,१५)।
    पुराणों में भी राज्य ऐन्द्रपद कहा जाता है और राज्य करने के लिये जब राजा का वरण किया जाता था तो यह मंत्र पढ़ा जाता था,

    त्वाविशो पृणतां राज्याय त्वामिमाः प्रदिशः पंच देवीः।
    वर्ष्मन् राष्ट्रस्य ककुदि श्रमस्व ततो न उग्रो विभजा वसिन॥

    (अथर्ववेद ३, ४, २)

    अर्थात—तुम्हें विश् (=जनता राष्ट्र) राज्य करने के लिये वरण करें (चुनें)। ये पाँच देदीप्यमान दिशाऐँ तुम्हें राज्य के लिये वरण करें। राष्ट्र के ककुद (डील पर) (अर्थात् ऊँचे स्थान पर, 'आला मुक़ाम' पर) बैठो और ऊर्जस्विता पूर्वक विभव का वितरण करो।

    ककुदं सर्व भूतानां धनस्थो नात्र संशयः।
    महाभारत, शान्तिपर्व ८९, ३०।
    इक्ष्वाकु वंश्यः ककुंद नृपाणाम्,

    (रघुवंश ६, ७, १।)

    अस्तु यह 'राष्ट्रस्य ककुदि' पद हमारे बड़े काम का है क्योंकि इससे ककुत्स्थ शब्द का प्राकृत अर्थ लगा जाता है। ऐक्ष्वाकों का जब से राष्ट्र (= उसके अधिष्ठातृ देवता इन्द्र) का अधिपति होने के लिये राज्य पर बैठने के लिये उसके ककुद पर सवार होने के लिये (मिलाइए हिन्दी मुहाविरा 'सिर पर सवार होना') वरण हुआ तब से वे ककुत्स्थ पद से अभिहित हुये। और उन्हीं के वंशधर काकुत्स्य कहे जाने लगे।

  13. शशविन्दु का वंश उपसंहार में लिखा है।
  14. वा॰ रा॰ ७० १९ ऐतिहासिक दृष्टि से यह बात असंभव है कि एकही रावण अनरण्य का मारनेवाला भी हो और चालीस पीढ़ी पीछे श्रीरामचन्द्र के हाथ से मारा जाय। मिस्टर पार्जिटर ने रायल एशियाटिक सोसाईटी के १९१४ के जर्नल पृष्ठ २८५ में यह लिखा है कि रावण तामिल शब्द इरैवण का संस्कृत रूप है जिसका अर्थ है राजा, स्वामी, ईश्वर। मड़याड़म में राजा को इड़ान कहकर संबोधन करते हैं। कन्नाडी में ऐड़े स्वामी का बोधक है। इससे प्रगट है कि इरैवण के संस्कृत रूप रावण का अर्थ केवल राजा है और लंका के राजा इसी नाम से संस्कृत ग्रन्थों में लिखे जाते थे।
  15. जैन शिक्षा लेखों में रौनाही रत्नपुर कहलाता है। संभव है कि रौनाही इसी का बिगड़ा रूप हो। रत्नपुर प्राकृत रअणउर—रौनाही।
  16. * वसिष्ठ और विश्वामित्र के भाड़े का एक स्थान इसी के पास है। इसका वर्णन उपसंहार (घ) में है।
  17. रामायण में लिखा है कि विश्वामित्र पुष्कर ही में मेनका के साथ बारह बरस रहे थे।
  18. यह नगर बिहार प्रान्त में है। इसका किला बहुत प्रसिद्ध है।
    +यदुवंशी क्षत्रिय हैहय वंशियों की राजधानी माहिष्मती थी। इस कुल का सबसे प्रसिद्ध राजा कार्तवीर्य अर्जुन हुआ था जिसे परशुराम ने मारा था।
  19. कपिल की तपस्या की जगह बङ्गाल की खाड़ी में उसी स्थान पर है जहाँ गङ्गा समुद्र में गिरती है।
  20. यही कथा गोस्वामी तुलसीदास जी ने बालकाण्ड में विश्वमोहिनी स्वयंवर के रूप से वर्णन की है।
    + महाभारत में यह कथा बड़े विस्तार के साथ लिखी है पर वा. रा. में कुछ भेद करके दी हुई है। (आदि पर्व १७६)।
  21. Growe's Mathura District Memoir, page 287.
  22. *विष्णु पुराण अंश ४ अध्याय ४।
  23. +महाभारत की लड़ाई में कोशलराज के कुछ लोग पाण्डवों की ओर से बड़े कुछ कौरवों की ओर से। इससे यह अनुमान किया जाता है कि उस समय कोशवराज के दो खंड हो गये थे। एक पूर्वी दूसरा पश्चिमी । पूर्वी कोशल के राजा जरासन्ध के डर से भाग कर दक्षिण को चले गये और पश्चिमी कोशल का राजा वृहदूवल था।
  24. * Hindustan Review, vol. xxv, page 61. स्थाम देश में राजधानो का नाम अयोध्यापुर था।
  25. पुष्यमित्रं याजयाम:।
  26. अरुण्द् यवन: साकेतम्।
  27. इसका वर्णन काशी नागरीप्रचारिणी पत्रिका में दिया हुआ हैं।