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अयोध्या का इतिहास/८—अयोध्या और जैनधर्म

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प्रयाग: हिंदुस्तानी एकेडमी, पृष्ठ ११० से – ११५ तक

 

 

आठवाँ अध्याय।
अयोध्या और जैन-धर्म।

आदि पुराण जैन-धर्म का बड़ा प्रामाणिक ग्रन्थ है।[] इसमें लिखा है कि विश्व की कर्मभूमि में अयोध्या पहिला नगर है। इसके सूत्रधार इन्द्रदेव थे और इसे देवताओं ने बनाया था। पहिले मनुष्य की जितनी आवश्यकतायें थीं उन्हें कल्पवृक्ष पूरी किया करता था। परन्तु जब कल्प-वृक्ष लुप्त हो गया तो देवपुरी के टक्कर की अयोध्या पुरी पृथ्वी पर बनाई गई।

अध्याय १ में हमने दो और जैन-ग्रन्थों से अयोध्या की महिमा का उल्लेख किया है और मूल संस्कृत वर्णन पूरा-पूरा-उपसंहार में दिया हुआ है। इतनी बड़ाई तो महर्षि वाल्मीकि ने भी नहीं की।

आदि पुराण के अनुसार अयोध्या के पहिले राजा ऋषभदेव थे जिनको आदिनाथ भी कहते हैं। यही पहिले तीर्थकर भी थे। ऋषभदेष जी के पुत्र भरत चक्रवर्ती हुये जिनसे यह देश भारतवर्ष या भरतखण्ड कहलाता है। इस पर हमने अपने विचार अध्याय ७ में लिखे हैं।

आदिनाथ को लेकर २४ तीर्थकर हुये। जैन-लोगों का विश्वास है कि सब तीर्थंकर काल-क्रम से अयोध्या में जन्म लेते और यहीं राज्य करते हैं, केवल पाँच ही तीर्थो का यहां अन्तिम कल्प में जन्म लेना एक अनोखी बात हुई है। ऋषभदेव जी के निर्वाण का समय जैन-प्रन्थों के अनुसार आज से ४१३४५२, ६३०, ३०८, २०३, १७७७४९५१२, १९९९९९९९९९९९९९९९९९९९९९९९१९९९९९९६०४७३ (७६ अंक) वर्ष पर्व माना गया है । पंचागों में सृष्टि की आदि से सं० १९८७ के आरम्भ तक १९५५८८५०२८ वर्ष बीते हैं। इन दोनों में आकाश पाताल का अन्तर है। इससे प्रकट है कि ऋषभदेव जी का जन्म किसी पहिले के कल्प में हुआ था ।

२४ तीर्थंकरों के नाम निम्नलिखित हैं:-

आदिनाथ-इन्हें ऋषभदेव भी कहते हैं राजा नाभि और रानी मेरु देवी के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

अजितनाथ-राजा जिनशत्रु और रानी विजया के पुत्र इक्ष्वाकु-वंशी।

सम्भवनाथ-राजा जितारि और रानी सेना के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

अभिनन्दन नाथ-राजा सम्बर और रानी सिद्धार्थी के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

सुमतिनाथ–राजा मेद्य और रानी मंगला के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

पद्मप्रभ-राजा श्रीधर और रानी सुषीमा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

सुपार्श्वनाथ–राजा प्रतिष्ठ और रानी पृथ्वी के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

चन्द्रप्रभ-राजा महासेन और रानी लक्ष्मणा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

९ सुविधनाथ—राजा सुग्रीव और रानी रमा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१० शीतलनाथ—राजा दृढ़रथ और रानी सुस्नन्दा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

११ श्रीअंशनाथ—राजा विष्णु और रानी विष्णा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१२ वसुपूज्य—राजा बसु पूज्य और रानी जया के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१३ विमलनाथ—राजा कृत वर्मा और रानी श्यामा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१४ अनन्तनाथ—राजा सिंहसेन और रानी सुयना के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१५ धर्मनाथ—राजाभानु और रानी सुहृता के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१६ शान्तिनाथ—राजा विश्वसेन और रानी अचिरा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१७ कुन्तनाथ—राजा सूर और रानी श्री के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१८ अरनाथ—राजा सुदर्शन और रानी देवी के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

१९ मल्लिनाथ—राजा कुंभ और रानी पार्वती के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

२० मुनिसुव्रत—राजा सुमित्र और रानी पद्मावती के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

२१ नमिनाथ—राजा विजय और रानी प्रिया के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

२२ नेमिनाथ—राजा समुद्रविजय और रानी शिवा के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

२३ पार्श्वनाथ—राजा अश्वसेन और रानी वामादेवी के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

२४ महावीर या वर्द्धमान—राजा सिद्धार्थ और रानी तृशला के पुत्र, इक्ष्वाकु-वंशी।

इनमें से पाँच तीर्थंकरों की जन्म-भूमि अयोध्या मानी जाती है। और उन्हीं के नाम के पांच मन्दिर अब तक अयोध्या में विद्यमान हैं।

१ आदिनाथ का मन्दिर[]—यह मन्दिर स्वर्गद्वार के पास मुराई टोले में एक ऊँचे टीले पर है जो शाहजूरन के टीले के नाम से प्रसिद्ध है।

२ अजितनाथ का मन्दिर—यह मन्दिर इटौआ (सप्तसागर) के पश्चिम में है। इसमें एक मूर्ति और शिलालेख है। यह मन्दिर सं० १७८१ में नवाब शुजाउद्दौला के खजानची केसरीसिंह ने नवाब की आज्ञा से बनवाया था।

३ अभिनन्दननाथ का मन्दिर—सराय के पास है। यह भी उसी समय का बना है।

४ सुमन्तनाथ का मन्दिर—रामकोट के भीतर है। इसमें अवध गजेटियर के अनुसार पार्श्वनाथ की दो और नेमिनाथ की तीन मूर्तियाँ हैं।

५ अनन्तनाथ का मन्दिर—यह मन्दिर गोलाघाट नाले के पास एक ऊँचे टीले पर है और इसका दृश्य बढ़ा मनोहर है।

इन मन्दिरों में तीर्थंकरों के चरण-चिह्न बने हैं और इनके दर्शन को दूर दूर के जैन आया करते हैं। नवम्बर से मार्च तक यात्री कुछ अधिक आते हैं।

वाल्मीकीय रामायण और पुराणों के अनुसार जो वंशावली हमने अध्याय ७ में दी है उसमें किसी तीर्थंकर के पिता का नाम नहीं है। भागवत पुराण, चतुर्थ स्कन्द में लिखा है कि स्वायम्भू मनु और शतरूपा के दो पुत्र थे, प्रियव्रत और उत्तानपाद। उत्तानपाद का लड़का ध्रुव था जिसकी कथा संसार में प्रसिद्ध है। उसकी राजधानी विठूर के पास थी।

प्रियव्रत के रथ-चक्र से सात लीकै बनी जो सात समुद्र हुये और उन्हीं समुद्रों के बीच में जम्बू सक्ष, कुश, शाल्मलि, क्रौञ्ज, शाक और पुष्कर द्वीप उत्पन्न हुये। राजा प्रियव्रत के सात बेटे थे[] अग्नीध्र, उध्मजिह्व, यज्ञवाहु, हिरण्यरेता, घृतपृष्ठ, मेधातिथि और वीतिहोत्र और कन्या ऊर्जस्वती थी जो शुक्राचार्य को व्याही थी। वही ऊर्जस्वती राजा ययाति की रानी देवयानी की माँ थी।

प्रियव्रत के पीछे उनका बड़ा बेटा अग्नीन्ध्र जम्बूद्वीप का राजा हुआ। उसने एक अप्सरा के साथ विवाह किया जिससे नौ बेटे हुये, नामि [], किंपुरुष, हरिवर्ष, इलावृत, रम्यक, हिरण्यमय, कुरुभद्राश्व और केतुमाल। नवों भाई पृथिवी के भिन्न-भिन्न भागों के राजा हुये जो उन्हीं के नाम से कहलाये। अमीन्ध्र के परलोक जाने पर नवों भाइयों ने मेरु की नौ कन्याओं से विवाह किया । बड़ी मेरुदेवी नाभि को ब्याही गई। मेरुदेवी के बहुत दिनों तक कोई लड़का न हुआ। तब नाभि भक्ति पूर्वक यज्ञ करने लगे। उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें दर्शन दिया और अध्याय १२ में लिखा जायगा कि राजा सुहेलदेव ने सैयद सालार मसऊद ग़ाज़ी को परास्त किया था। जनश्रुति यह है कि सुहेल देव श्रावस्ती का राजा था। सुहेलदेव के विनाश की विचित्र कथा अवध गज़ेटियर[] ने लिखी है उसका सारांश यह है:—

"सुहेलदेव के कुल में सूर्यास्त हो जाने पर कोई भोजन नहीं करता था। एक दिन आखेट से बड़ी देर में लौटा। सूर्य अस्त हो रहा था। सुहेलदेव की भ्रातृबधू परम सुन्दरी थी। सुहेलदेव ने उसे कोठे पर भेज दिया कि सूर्य देव उसकी शोभा पर मोहित हो कर ठहर जायें। सूर्यदेव स्त्री की शोभा पर मुग्ध हो गये और स्तम्भित रह गये। राजा ने भोजन कर लिया। हमारे देश में छोटे भाई की स्त्री को देखना महापाप है। राजा को इस घटना पर बड़ा आश्चर्य हुआ और कौतुक देखने को वह भी कोठे पर चढ़ गया। बधू को देखते ही राजा के मन में पाप समा गया परन्तु स्त्री सती थी उसने न माना। राजा ने उसे बन्दीघर में डाल दिया। स्त्री राजकुमारी थी। उसके पिता राजा ने श्रावस्ती पर चढ़ाई कर दी और सुरङ्ग लगा कर अपनी बेटी को निकाल ले गया। उसके जाते ही राजप्रसाद भी गिर पड़ा और सुहेलदेव उसी से दब कर मर गया।" उसके कोई उत्तराधिकारी न था और बिना राजा के राजधानी भी उजड़ गयी।

इस कथा से हमको इतना ही प्रयोजन है कि जैन ही सूर्यास्त होने पर भोजन नहीं करते। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि श्रावस्ती का अन्तिम राजा जैन था।

  1. यह ग्रन्थ विक्रम संवत की आठवीं शताब्दी में लिखा गया था और सं॰ १९७३ में छपा। इसके, रचयिता जिगसेनाचार्य थे। थोड़े दिन हुये प्रसिद्ध विद्वान् मि॰ चंपत राय जैन ने इसका अंगरेज़ी अनुवाद भी छपाया है उसका नाम Founder of Jainism है।
  2. इस मन्दिर के नष्ट होने का इतिहास अध्याय १२ में है।
  3. विष्णु पुराण में इनके दस पुत्र लिखे हैं, इनमें तीन योगपरायण हुये।
  4. विष्णुपुराण के अनुसार नाभि को दक्षिण भारत का राज मिला था।
  5. Oudh Gazetteer, Vol. I, page 607.