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आँधी/८-विजया

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आँधी
जयशंकर प्रसाद
विजया

इलाहाबाद: लीडर प्रेस, पृष्ठ ९२ से – ९४ तक

 
विजया

कमल का सब रुपया उड़ चुका था सब सम्पत्ति बिक चुकी थी। मित्रों ने खूब दलाली की न्याय जहाँ रखा वहीं धोखा हुआ। जो उसके साथ मौज मंगल में दिन बिताते थे रातों का आंनद लेते थे वह भी उसकी जेब टटोलते थे। उन्होंने कहीं पर कुछ भी बाकी न छोड़ा। सुखभोग के जितने आविष्कार थे साधन भर सबका अनुभव लेने का उत्साह बढ़ चुका था।

बच गया था एक रुपया ।

युवक को उमत्त आंनद लेने की बड़ी चाह थी। वाधाविहीन सुख लूटने का अवसर मिला था सब समाप्त हो गया। आज वह नदी के किनारे चुपचाप बैठा हुआ उसी की धारा में विलीन हो जाना चाहता था। उस पर किसी की चिता जल रही थी जो दूसरों संध्या में आलोक फैलाना चाहती थी। आकाश में बादल थे उनके बीच में गोल रुपये के समान चंद्रमा निकलना चाहता था। वृक्षों की हरियाली में गांव के दीप चमकने लगे थे । कमल ने रुपया निकाला। उस एक रुपये से कोई विनोद न हो सकता। वह मित्रों के साथ नहीं जा सकता था। उसने सोचा इसे नदी के जल में विसर्जन कर दूँ। साहस न हुआ वही अतिम रुपया था। वह स्थिर दृष्टि से नदी की धारा देखने लगा कानों से कुछ सुनाई न पड़ता था देखने पर भी दृष्य का अनुभव नही-वह स्तब्ध था जड़ था मूक था हृदयहीन था।

मा कुलता दिला दे-दछमी देखने जाऊँगा। मेर लाल ! मैं कहा से ले आऊँ-पेट भर अन्न नहीं मिलता-नहीं नहीं रो मत- मैं ले आऊँगी पर कैसे ले आऊँ ? हा उस छलिया ने मेरा सवस्व लूटा और कहीं का न रखा। नहीं नहीं मुझे एक लाल है | कंगाल का एक अमूल्य लाल ! मुझे बहुत है। चलँगी जैसे होगा एक कुरता खरीदूंगी। उधार लूंगी। दशमी-विजयादशमी के दिन मेरा लाल चिथड़ पहन कर नहीं रह सकता।

पास ही जाते हुए मां और बेटे की बात कमल के कान में पड़ी। वह उठ कर उसके पास गया । उसने कहा---सुदरी।

बाबूजी !-याश्चर्य से सुंदरी ने कहा । बालक ने भी स्वर मिला कर कहा–बाबूजी!

कमल ने रुपया देते हुए कहा-सुदरी यह एक ही रुपया बचा है इसको ले जाओ । न चे को कुरता खरीन लेना। मैंने तुम्हारे साथ बड़ा अन्याय किया है क्षमा करोगी?

बचे ने यि फैला रिया-मुरी ने उसका नहा हाथ अपने हाथ म समेट कर कहा नहीं मेर बचे के कुरते स अधिक आवश्यकता श्रापके पेट के लिए है । मैं सब हाल जानती हूँ।

मेरा आज श्रत होगा अब मुझे आवश्यकता नहीं-ऐसे पापी का जीवन रख कर क्या होगा । सुदरी । मैंने तुम्हारे ऊपर बड़ा अत्याचार किया है क्षमा करोगी ! श्राह ! इस अतिम रुपये को लेकर मुझे क्षमा कर दो। यह एक ही सार्थक हो जाय !

आज तुम अपने पाप का मूय दिया चाहते हो-वह भी एक रुपया ?

और एक फूटी कौड़ी भी नहीं है सुदरी ! लाखों उड़ा दिया है- मैं लोभी नहीं हूँ।

विधवा के सर्वस्व का इतना मूल्य नहीं हो सकता । मुझे धिक्कार दो मुझ पर थूको । इसकी आवश्यकता नहीं--समाज से डरो मत । अयाचारी समाजा पाप कह कर कानों पर हाथ रखकर चिल्लाता है वह पाप का शब्द दूसरों को सुनाई पड़ता है पर वह स्वयं नहीं सुनता । आओ चलो हम उसे दिखा दें कि यह भ्रान्त है। मैं चार आने का परिश्रम प्रतिदिन करती हूँ। तुम भी सिल्वर के गहनें माँज कर कुछ कमा सकते हो। थोड़े से परिश्रम से हम लोग एक अच्छी गृहस्थी चला लेंगे । चलो तो।

सुंदरी ने दृढता से कमल का हाथ पकड़ किया।

बालक ने कहा- चलो न बाबूजी।

कमल ने देखा-चादनी निखर आई है। बादल हट गये हैं। आपत्य स्नेह हृदय में समुद्र सा उमड़े उठा। उसने बालक के हाथ में रुपया रख कर उसे गोद में उठा लिया।

सम्पन्न अवस्था की विलास वासना अभाव के थपेड़े-से पुण्य में परिणत हो गई । कमल पूर्वकथा विस्मय होकर क्षण भर में स्वस्थ हो गया । मन हल्का हो गया । बालक उसकी गोद में था। सुंदरी पास मे वह विजया दशमी का मेला देखने चला।

विजया के आशीर्वाद के समान चांदनी मुस्करा रही थी।