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आकाश-दीप/बनजारा

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आकाश-दीप
जयशंकर प्रसाद
बनजारा

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ११७ से – १२३ तक

 





बनजारा

धीरे-धीरे रात खिसक चली, प्रभात के फूलों से तारे चू पड़ना चाहते थे। विन्ध्य की शैलमाला में गिरि-पथ पर एक झुण्ड बैलों का बोझ लादे आता था। साथ के वनजारे उनके गले की घण्टियों के मधुर स्वर में अपने ग्राम-गीतों का आलाप मिला रहे थे। शरद ऋतु की ठण्ड से भरा हुआ पवन उस दीर्घ पथ पर किसी को खोजता हुआ दौड़ रहा था।

वे बनजारे थे। उनका काम था सरगुजा तक के जङ्गलों में जाकर व्यापार की वस्तु क्रय-विक्रय करना। प्रायः बरसात छोड़ कर वे आठ महीने यही उद्यम करते। उस परिचित पथ में चलते हुए वे अपने परिचित गीतों को कितनी ही बार उन पहाड़ी

चट्टानों से टकरा चुके थे। उन गीतों में आशा, उषालम्भ, वेदना और स्मृतियों की कचट, ठेस और उदासी भरी रहती।

सब से पीछेवाले युवक ने अभी अपने आलाप को आकाश में फैलाया था, उसके गीत का अर्थ था---

"मैं बार-बार लाभ की आशा से लादने जाता हूँ; परन्तु हे उस जङ्गल की हरियाली में अपने यौवन को छिपानेवाली कोल कुमारी! तुम्हारी वस्तु बड़ी महँगी है! मेरी सब पूँजी भी उसको क्रय करने के लिये पर्य्याप्त नहीं। पूँजी बढ़ाने के लिये व्यापार करता हूँ; एक दिन धनी होकर आऊँगा; परन्तु विश्वास है कि तब भी तुम्हारे सामने रङ्क ही रह जाऊँगा!"

आलाप लेकर वह जङ्गली वनस्पतियों की सुगन्ध में अपने को भूल गया। यौवन के उभार में नन्दू अपरिचित सुखों की ओर जैसे अग्रसर हो रहा था। सहसा बैलों की श्रेणी के अग्रभाग में हलचल मची। तड़ातड़ का शब्द, चिल्लाने और कूदने का उत्पात होने लगा। नन्दू का सुख-स्वप्न टूट गया, "बापरे डाका!"---कहकर वह एक पहाड़ी गहराई में उतरने लगा। गिर पड़ा, लुढ़कता हुआ नीचे चला। मूर्छित हो गया।

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हाकिम परगना और इञ्जीनियर का पड़ाव अधिक दूर न था। डाका पड़नेवाला स्थान दूसरे ही दिन भीड़ से भर गया। गोडै़त और सिपाहियों की दौड़-धूप चलने लगी। एक छोटी-सी

पहाड़ी के नीचे, फूस की झोपड़ी में, उषा की किरनों का गुच्छा सुनहले फूल के सदृश झलने लगा था। अपने दोनों हाथों पर झुकी हुई एक साँवली-सी युवती उस आहत पुरुष के मुख को एक टक देख रही थी। धीरे-धीरे युवती के मुख पर मुस्कुराहट और पुरुष के मुख पर सचेष्टता के लक्षण दिखलाई देने लगे। पुरुष ने आँखें खोल दीं। युवती पास ही धरा हुआ गरम दूध उसके मुँह में डालने लगी। और युवक पीने लगा।

युवक को उतनी चोट नहीं थी, जितना वह भय से आक्रान्त था। वह दूध पीकर स्वस्थ हो चला था; उठने की चेष्टा करते हुए पूछा---"मोनी, तुम हो!"

"हाँ चुप रहो।"

"अब मैं चंङ्गा हो गया हूँ, कुछ डरने की बात नहीं।" अभी युवक इतना ही कह पाया था कि एक कोल-चौकीदार की क्रूर आँखें उस झोपड़ी में झाँकने लगीं। युवती ने उसे देखा। चौकीदार ने हँसकर कहा---"वाह मोनी! डाका भी डलवाती हो और दया भी करती हो! बताओ तो कौन-कौन थे; साहब पूछ रहे हैं!"

मोनी की आँखें चढ़ गई। उसने दाँत पीसकर कहा---"तुम पाजी हो! जाओ, मेरी झोपड़ी में से निकल जाओ!"

"हाँ यह कहो, तो तुम्हारा मन रीझ गया है इस पर, यह तो कभी-कभी तुम्हारा प्याज मेवा लेने आता था न!"---चौकीदार ने कहा। घायल बाघिनी-सी वह तड़प उठी। चौकीदार कुछ सहमा। परन्तु वह पूरा काइयाँ था, अपनी बात का रुख बदल कर वह युवक से कहने लगा---"क्यों जी तुम्हारा भी तो लूटा गया है, कुछ तुम्हें भी चोट आई हैं! चलो साहब से अपना हाल कहो। बहुत से माल का पता लगा है; चलकर देखो तो!"

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"क्यों मोनी। अब जेल जाओगी न ? बोलो; अब से भी अच्छा है। हमारी बात मान जाओ।"---चौकीदार ने पड़ाव से दूर हथकड़ी से जकड़ी हुई मोनी से कहा। मोनी अपनी आँखों की स्याही सन्ध्या की कालिमा में मिला रही थी। पेड़ों की उस झुरमुट में दूर वह बनजारा भी खड़ा था। एक बार मोनी ने उसकी ओर देखा, उसके ओठ फड़क उठे। वह बोली---"मैं किसी को नहीं जानती, और नहीं जानती थी कि उपकार करने जाकर यह अपमान भोगना पड़ेगा!" फिर जेल की भीषणता स्मरण करके वह दीनता से बोली---"चौकीदार! मेरी झोपड़ी और सब पेड़ ले लो; मुझे बचा दो?"

चौकीदार हँस पड़ा। बोला---मुझे वह सब न चाहिये; बोलो तुम मेरी बात मानोगी, वही......"

मोनी ने चिल्लाकर कहा---"नहीं, कभी नहीं!"

नर-पिशाच चौकीदार ने बेदर्द होकर कई थप्पड़ लगाये, पर

मोनी न रोई न चिल्लाई। वह हठी लड़के की तरह उस मारनेवाले का मुँह देख रही थी।

हाकिम परगना एक अच्छे सिविलियन थे। वे कैम्प से टहलने के लिये गये थे; नन्दू ने न जाने उनसे हाथ जोड़ते हुए क्या कहा, वे उधर ही चल पड़े जहाँ मोनी थी।

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सब बातें समझकर साहब ने मोनी की हथकड़ी खोलते हुए चौकीदार की पीठ पर दो-तीन बेत जमाये, और कहा---"देख बदमाश! आज तो तुझे छोड़ता हूँ, फिर इस तरह का कोई काम किया, तो तुझसे चक्की ही पिसवाऊँगा। असली डाकुओं का पता लगाओ।"

मोनी पड़ाव से चली गई। और नन्दू अपना बैल पहचानकर ले चला। वह फिर बराबर अपने उस व्यापार में लगा रहा।

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कई महीने बाद---

एक दिन फिर प्याज-मेवा लेने की लालच में नन्दू उसी मोनी की झोपड़ी की ओर पहुँचा। वहाँ जाकर उसने देखा---झोपड़ी से सब पत्ते के छावन तितर-बितर होकर बिखर रहे हैं और पत्थर के ढोंके अब-तब गिरना चाहते हैं। भीतर कूड़ा है, "जहाँ वह पहले जंगली वस्तुओं की ढेर देखा करता था। उसने पुकारा---मोनी! कोई उत्तर न मिला। नन्दू लौटकर अपने पथ पर आने लगा। सामने देखा---पहाड़ी नदी के तट पर बैठी हुई मोनी को! वह हँसता हुआ फूल कुम्हिला गया था, अपने दोनों पैर नदी में डाले बैठी थी। नन्दू ने पुकारा---'मोनी!' वह फिर भी कुछ न बोली। अब वह पास आ गया। मोनी में देखा। एक बार उसके मुँह पर कुछ तरावट-सी दौड़ गई, फिर सहसा कड़ी धूप निकल आने पर एक बौछार की गीला भूमि जैसे रूखी हो जाती है, वैसे ही उसके मुँह पर धूल उड़ने लगी।

नन्दू ने पूछा---"मोनी! प्याज-मेवा है?"

मोनी ने रूखेपन से कहा---"अब मै नहीं बटोरती नन्दू! बेचने के लिये नहीं इकट्ठा करती।"

नन्दू ने पूछा---"क्यों अब क्या हो गया?"

"जंगल में वही सब तो हम लोगों के भोजन के लिये है, उसे बेच दूँगी, तो खाऊँगी क्या?"

"और पहले क्या था?"

"वह लोभ था; व्यापार करने की, धन बटोरने की इच्छा थी।"

"अब वह इच्छा क्या हुई।"

"अब मैं समझती हूँ कि सब लोग न तो व्यापार कर सकते हैं और न तो सब वस्तु बाजार में बेची जा सकती है।"

"तो मैं लौट जाऊँ?" "हाँ, लौट जाओ; जब तक ओस की बूँदों से ठंडी धूल तुम्हारे पैरों में लगे उतने ही समय में अपना पथ समाप्त कर लो!"

“मैं लादना छोड़ दूँगा मोनी!"

"ओह! यह क्यों? मैं इस पहाड़ी पर निस्तब्ध प्रभात में घंटियों के मधुर स्वर की आशा में अनमनी बैठी रहती हूँ। वह पहुँचने का, बोझ उतारने के व्याकुल विश्राम का अनुभव करके सुखी रहती हूँ। मैं नहीं चाहती कि किसी को लादने के लिए मैं बोझ इकट्ठा करूँ! नन्दू!"

नन्दु हताश था। वह अपने बैल की खाली पीठ पर हाथ धरे चुपचाप अपने पथ पर चलने लगा।


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