सामग्री पर जाएँ

आकाश-दीप/वैरागी

विकिस्रोत से
आकाश-दीप
जयशंकर प्रसाद
वैरागी

इलाहाबाद: भारती भंडार, पृष्ठ ११३ से – ११६ तक

 





वैरागी

पहाड़ की तहलटी में एक छोटा-सा समतल भूमि खंड था। मौलसिरी, अशोक, कदम और आम के वृक्षों का एक हरा-भरा कुटुम्ब उसे आबाद किये हुए था। दो-चार छोटे-छोटे फूलों के पौदे कोमल मृत्तिका के थालों में लगे थे। सब आद्र और सरस थे। तपी हुई लू और प्रभात का मलय-पवन, एक क्षण के लिये इस निभृत कुंज में विश्राम कर लेते! भूमि लिपी हुई स्वच्छ, एक तिनके का कहीं नाम नहीं, और सुन्दर वेदियों और लता-कुंजों से अलंकृत थी।

यह एक वैरागी की कुटी थी, और तृण-कुटीर---उस पर लतावितान, कुशासन और कम्बल, कमंडल और बल्कल उतने

ही अभिराम थे, जितने किसी राज-मन्दिर में कला-कुशल शिल्पी के उत्तम शिल्प।

एक शिलाखण्ड पर वैरागी पश्चिम की ओर मुँह किये ध्यान में निमग्न था। अस्त होनेवाले सूर्य की अन्तिम किरणें उसकी बरौनियो में घुसना चाहती थीं, परन्तु वैरागी अटल, अचल था। बदन पर मुसकिराहट और अंग पर ब्रह्मचर्य्य की रूक्षता थी। यौवन की अग्नि निर्वेद की राख से ढँकी थी। शिलाखण्ड के नीचे ही पगडण्डी थी। पशुओं को झुण्ड उसी मार्ग से पहाड़ी गोचर-भूमि से लौट रहा था। गोधूलि मुक्त गगन के अंक में आश्रय खोज रही थी। किसी ने पुकार---"आश्रय मिलेगा?"

वैरागी का ध्यान टूटा। उसने देखा, सचमुच मलिन-वसना गोधूलि उसके आश्रम में आश्रय मॉग रही है। अंवल छिन्न बालो की लटें, फटे हुए कम्बल के समान माँसल वक्ष और स्कन्ध को ढँकना चाहती थीं। गैरिक वसन जीर्ण और मलिन। सौंदर्य्य-विकृत आँखें कह रही थीं कि, उन्होंने उमंग की रातें जगते हुए बिताई हैं। वैरागी अकस्मात् ऑधी के झोंके में पड़े हुए वृक्ष के समान तिलमिला गया। उसने धीरे से कहा..."स्वागत अतिथि। आओ।"

रजनी के घने अन्धकार में तृण-कुटीर, वृक्षावली, जगजगाते हुए नक्षत्र, धुँधले चित्रपट से सदृश प्रतिभासित हो रहे थे। स्त्री अशोक के नीचे वेदी पर बैठी थी, वैरागी अपने कुटीर के द्वार पर। स्त्री ने पूछा---"जब तुमने अपना सोने का संसार पैरों से ठुकरा दिया, पुत्र-मुख-दर्शन का सुख, माता का अंक, यश-विभव, सब छोड़ दिया, तब इस तुच्छ भूमिखण्ड पर इतनी ममता क्यों? इतना परिश्रम, इतना बल किस लिये?"

"केवल तुम्हारे-जैसे अतिथियों की सेवा के लिये। जब कोई आश्रय-हीन महलों से ठुकरा दिया जाता है, तब उसे ऐसे ही आश्रय-स्थान अपने अक में विश्राम देते हैं। मेरा परिश्रम सफल हो जाता है,---जब कोई कोमल शय्या पर सोनेवाला प्राणी इस मुलायम मिट्टी पर थोड़ी देर विश्राम करके सुखी हो जाता है।"

"कब तक तुम ऐसा किया करोगे?"

"अनन्त काल तक प्राणियों की सेवा का सौभाग्य मुझे मिले!"

"तुम्हारा आश्रय कितने दिनों के लिये है?"

"जब तक उसे दूसरा आश्रय न मिले।"

"मुझे इस जीवन में कहीं आश्रय नहीं, और न मिलने की संभावना है।"

"जीवन-भर?"---आश्चर्य से वैरागी ने पूछा।

"हाँ।"---युवती के स्वर में विकृति थी।

"क्या तुम्हारे ठंड लग रही है?"---वैरागी ने पूछा।

"हाँ।"---उसी प्रकार उत्तर मिला।

वैरागी ने कुछ सूखी लकड़ियाँ सुलगा दीं। अन्धकार-प्रदेश में

दो-तीन चमकीली लपटें उठने लगीं। एक धुँधला प्रकाश फैल गया। वैरागी ने एक कम्बल लाकर स्त्री को दिया। उसे ओढ़ कर वह बैठ गई। निर्जन प्रान्त में दो व्यक्ति। अग्नि-प्रज्वलित पवन ने एक थपेड़ा दिया। वैरागी ने पूछा---"कब तक बाहर बैठोगी?"

"रात बिता कर चली जाऊँगी, कोई आश्रय खोजूँगी; क्योंकि यहाँ रह कर बहुतों के सुख में बाधा डालना ठीक नहीं। इतने समय के लिये कुटी में क्यों आऊँ?"

वैरागी को जैसे बिजली का धक्का लगा। वह प्राणपण से बल संकलित करके बोला---"नहीं-नहीं, तुम स्वतन्त्रता से यहाँ रह सकती हो।"

"इस कुटी का मोह तुमसे नहीं छूटा। मैं उसमें समभागी होने का भय तुम्हारे लिये उत्पन्न करूँगी।"---कह कर स्त्री ने सिर नीचा कर लिया। वैरागी के हृदय में सनसनी हो रही थी। वह न-जाने क्या करने जा रहा था, सहसा बोल उठा---

"मुझे कोई पुकारता है, तुम इस कुटी को देखना!"---यह कह कर वैरागी अन्धकार में विलीन हो गया। स्त्री अकेली रह गई है।

पथिक लोग बहुत दिन तक देखते रहे कि एक पीला मुख उस तृण-कुटीर से झाँक कर प्रतीक्षा के पथ में पलक-पाँवड़े बिछाता रहा।