आदर्श महिला/१ सीता
पहला आख्यान
सीता
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सीता
[ १ ]
आजकल जिस स्थान का नाम तिरहुत (तीरभुक्ति) है वह, पहले समय में, मिथिला या विदेह नाम से पुकारा जाता था। वहाँ सीरध्वज और कुशध्वज नाम के दो राजकुमारों ने जन्म लिया। जेठे भाई सीरध्वज राजसिंहासन पर बैठकर, पुत्र की भाँति, प्रजा का पालन करने लगे। राज-पाट के साथ-साथ उनके चरित्र और हृदय की उन्नति भी खूब हुई थी। अधिक धर्म-विश्वास और हृदय की उन्नति से वे राजा होकर भी ऋषियों की बराबरी के हो गये थे। उनके प्रेम-पूर्ण हृदय की ममता पाकर प्रजा खूब प्रसन्न रहती थी। राजा सीरध्वज प्रजा के पिता-समान थे। इससे वे "जनक" के साथ राजर्षि की पदवी पाकर 'राजर्षि जनक'*[१] कहलाते थे।
राज-काज में लगे रहने पर भी जनक धर्मशास्त्र की चर्चा करते थे। उनका दरबार केवल विचार-कार्य और प्रजा की नालिश-फ़र्याद फैसला करने में ही अपने कर्तव्य की समाप्ति नहीं समझता था। राजा जनक की धर्म-पिपासा मिटाने के लिए बहुतसे शास्त्र-ज्ञानी ऋषि सभासदरूप से राज-दरबार की शोभा बढ़ाते थे। उनका दरबार एक ओर विचारालय और दूसरी ओर धर्म-मन्दिर के समान समझा जाता था। उस दरबार में बहुतसे ऋषि-मुनि आकर राजा जनक के साथ धर्म-चर्चा और ब्रह्म-मीमांसा करने में पवित्र आनन्द का अनुभव करते थे।
सीता राजर्षि जनक को लड़की थी। एक बार राजर्षि जनक ने कुरुक्षेत्र में आकर कुरु-जांगल में एक यज्ञ का अनुष्ठान किया। पहले, राजा लोग यज्ञ-भूमि को हल से इस कारण जोतते थे कि यज्ञानल में पृथ्वी के भीतर के दूषित पदार्थ आदि जलकर यज्ञाग्नि की पवित्रता को कहीं नष्ट न कर दें। इसलिए राजा जनक सोने के हल से वहाँ की ज़मीन जोतने लगे। अचानक हल के सामने एक बहुत सुन्दर कन्या दीख पड़ी। उस समय हल जोतने से निकली हुई कन्या पर फूलों की वर्षा होने लगी। इस असम्भव घटना को देखकर राजर्षि जनक विस्मय से सोच ही रहे थे, इतने में आकाश-वाणी हुई-'हे राजा! तुम इस कन्या को लेकर बेटी की तरह पालो-पोसो। इस अपूर्व सुन्दरी कन्या से तुम्हारा मङ्गल होगा; इससे जगत् का विशेष कल्याण होगा; इससे तुम्हारा कुछ विन्न नहीं होगा। तुम इस कन्या-रत्न को देवता का प्रसाद-अपने भविष्य-मङ्गल की पूर्व-सूचना-समझना!' राजा जनक ने बड़े आदर से उस कन्या को लिया और हल से उत्पन्न हुई कन्या का नाम सीता रक्खा। (अद्भुत रामायण, आठवाँ सर्ग)
राजर्षि जनक के स्नेह से वह कुमारी द्यौज के चन्द्रमा की तरह
दिन-दिन बढ़ने लगी। बालिका की उस हृष्ट-पुष्ट देह में रमणी-स्वभाव-सुलभ नम्रता इस तरह चमकने लगी जैसे वर्षा के बादल में बिजली चमकती है। बेटी के कोमल शरीर में मानो किसी अशरीरी देवता की झलक देखकर राजा जनक ने प्रण किया--मेरे घर में रक्खे हुए शिव-धनुष पर जो वीर प्रत्यञ्चा चढ़ा सकेगा उसी को मैं यह कन्या-रत्न दान करूँगा।
उस शिव-धनुष के विषय में एक इतिहास है---एक बार प्रजापति दक्ष ने बड़ा भारी यज्ञ ठाना। वे अपने दामाद महादेव से प्रसन्न नहीं थे। इससे उस यज्ञ में उन्होंने महादेव को न्यौता नहीं दिया। एक तरह से महादेव का अपमान करना ही, उनके ठाने हुए, उस यज्ञ का मुख्य मतलब था। दक्ष की बेटी सती, न्यौता न आने पर भी, पिता के यज्ञ में गई। वहाँ पिता के मुँह से स्वामी की निन्दा सुनकर उसने शरीर-त्याग किया। देवता लोग इस शिव-रहित यज्ञ में गये थे। इस कारण शिव क्रोधाग्नि से एक धनुष बनाकर देवताओं को मारने पर उद्यत हुए। क्रुद्ध महादेव की विकट मूर्ति देखकर देवता लोग डर के मारे, उनको शान्त करने के लिए, जब स्तुति करने लगे तब महादेव ने सन्तुष्ट होकर वह विशाल धनुष देवताओं को दे दिया। देवताओं से उस धनुष को मिथिलापति राजा जनक के पूर्वपुरुष देवरात ने* पाया था। तब से वह मिथिलापति की राजधानी में ही रक्खा था।
सीताजी बड़ी ही रूपवती थी। उनके रूप पर मुग्ध होकर बहुतेरे राजपुत्र जनक के घर आते थे। किन्तु प्रायः सभी राजा जनक की भीषण प्रतिज्ञा से अपमानित होकर लौट जाते थे: मानो दारुण भाग्य उन लोगों को व्यङ्ग करके बिदा कर देता था। लङ्का-
- इक्ष्वाकु के बाद ७ वीं पीढ़ी।
पति रावण भी एक दिन सीता के रूप-गुण की प्रशंसा सुनकर, उन्हें पाने की इच्छा से, आया था; किन्तु धनुष को चढ़ाने जाकर हास्यास्पद हुआ। रावण अपने भाग्य की इस हँसी को नहीं समझ सका। सीता की मोहिनी मूर्ति उसके मानस-नेत्र के सामने नाचने लगी मानो सर्व-नाश कोई सुन्दर मूर्ति धरकर उसकी आँखों के सामने चमकने लगा।
[ २ ]
अयोध्या-नरेश राजा दशरथ एक दिन दरबार में बैठे थे, इतने में महर्षि विश्वामित्र ने वहाँ आकर राजा को आशीर्वाद दिया। महाराज के प्रणाम करने पर विश्वामित्र ने कहा---राजन्! तपोवन में राक्षस-राक्षसियों के उत्पात से मुनियों को निर्विन यज्ञ करना कठिन हो गया है। महाराज! मैंने एक यज्ञ करने का संकल्प किया है; किन्तु राक्षस-राक्षसियों का उत्पात सोचकर उसकी सफलता में मुझे सन्देह होता है। आप क्षत्रिय राजा हैं। दुखी का दुख दूर करके राज-धर्म का पालन कीजिए।
महाराज ने पूछा--"इस विषय में महर्षि की क्या आज्ञा है?"विश्वामित्र ने कहा---आपके दो पुत्र, राम और लक्ष्मण, धनुर्विद्या में बहुत निपुण हैं मानो लाक्षात् धनुर्वेद ने राम-लक्ष्मण रूप से अवतार लिया है। इसलिए आप राक्षस-राक्षसियों के उपद्रव से यज्ञ की रक्षा करने के लिए राम और लक्ष्मण को मेरे साथ कर दीजिए। यज्ञ पूरा होते ही वे राजधानी को लौट आवेंगे।
राजा दशरथ ने दुःखित मन से राम-लक्ष्मण को जाने दिया।
रामचन्द्र और लक्ष्मण महर्षि विश्वामित्र के साथ निबिड़ वन से होकर जाते थे। इतने में देखा कि ताड़का नाम की राक्षसी मुँह
फैलाकर उन्हें खाने के लिए आकाश-मार्ग ले आ रही है। राम ने विश्वामित्र की आज्ञा से उसको मार डाला। इस प्रकार बहुतसे राक्षसों को मारकर रामचन्द्र ने विश्वामित्र का यज्ञ पूरा किया।
महर्षि विश्वामित्र ने राजा जनक की प्रतिज्ञा सुनी थी। वे मन ही मन समझते थे कि जनक की कन्या इन वीर-श्रेष्ठ रामचन्द्र के ही योग्य है। इससे वे राम-लक्ष्मण को साथ लेकर राजा जनक के यहाँ पहुँचे। रामचन्द्र ने राजा जनक की प्रतिज्ञा सुनकर उस धनुष को देखने की इच्छा प्रकट की। विश्वामित्र ने उन्हें धनुष दिखा दिया। रामचन्द्र ने उस धनुष को बाँयें हाथ से उठाकर उस पर गुण चढ़ाया। फिर तीर लगाकर छोड़ते समय गुण खींचकर उसे तोड़ डाला। यह देख दर्शकगण रामचन्द्र की बारम्बार प्रशंसा करने लगे। वधू के वेष में सीता ने मुसकुराते हुए रामचन्द्र के गले में जयमाल डाल दी। उनके उस मिलन के पवित्र मुहूर्त में अमरावती का आनन्द बिजली की तरह खेल गया; मानो नन्दनकानन के पारिजात-कुसुम के निर्मल हास्य के साथ, उनके हास्य का वदलौवल हो गया। नील-समुद्र में स्वच्छ-सलिला नदी आ मिली।
राजा दशरथ राजर्षि जनक की सादर अभ्यर्थना से, भरत और शत्रुघ्न सहित, मिथिला में आये। राजा जनक ने सीता के साथ रामचन्द्र का, उर्मिला के साथ लक्ष्मण का और भाई कुशध्वज की दो लड़कियों---माण्डवी और श्रुतकीर्ति---से भरत और शत्रुघ्न का व्याह कर दिया।
महाराज दशरथ बड़े आदर-मान के साथ राजा जनक के यहाँ कई दिन रहकर पुत्र और पुत्र-बधुओं सहित अयोध्या को लौट रहे थे कि परशुराम ने उन लोगों का रास्ता रोककर कहा---"राम! तुमने हमारे गुरु महादेव का धनुष तोड़कर घमण्ड प्रकट किया है,
इसलिए मैं तुम्हारी शक्ति की परीक्षा लेना चाहता हूँ।" रामचन्द्र ने बाण चलाकर जब परशुराम के हाथ के कुठार को व्यर्थ कर दिया तब परशुराम लज्जित होकर महेन्द्र पर्वत पर तपस्या करने चले गये।
[ ३ ]
महाराज दशरथ पुत्र और पुत्र-वधुओं को साथ लेकर अयोध्या लौट आये। राजधानी में आनन्द की धारा बह चली, मानो प्रकृति देवी ने आनन्द में मग्न होकर सैकड़ों धाराओं में आनन्द का स्रोत बहाया हो। राज-पुत्रगण विवाह के पवित्र आमोद में समय बिताने लगे। युवराज रामचन्द्र, सब विषयों में, प्रजा के अधिकतर प्यारे हो चले। उनके सद्व्यवहार, मधुर वचन और अपूर्व ममता ने प्रजा को मंत्र की तरह मोह लिया।
महाराज दशरथ ने बुढ़ापे में योग्य पुत्र रामचन्द्र को, युवराज-पद पर अभिषिक्त करने की इच्छा से, उसकी तैयारी की। अभिषेक का दिन नियत हुआ। प्राणप्यारे रामचन्द्र के राजा बनने की बात सोचकर प्रजा मन ही मन प्रसन्न होकर राजतिलक के दिन की बाट जोहने लगी। सारी राजधानी में मंगल-पताकाएँ फहराने क्या लगीं, मानो हवा से बातें करके सर्वत्र राज्याभिषेक की खबर फैलाने लगीं। शहनाई की सुन्दर रागिनी मानो राज-महल में आनन्द की मन्दाकिनी-धारा बहा रही थी। किन्तु विधाता के चक्र से शहनाई के गीत ने अचानक शोकयुक्त सुर अलापकर अयोध्या-वासियों को शोकाकुल कर दिया।
सम्बरासुर से करने में महाराज दशरथ बाण से घायल होकर मरने के बराबर हो गये थे। मॅझली रानी कैकेयी की सेवा-शुश्रूषा से स्वस्थ होकर वे उसे दो वर देने को तैयार हुए। कैकेयी ने
कहा---"जब आपके ऐसा पति, रामचन्द्र के ऐसा पुत्र और ऐसी राज-भक्त प्रजा है तब मुझे और क्या चाहिए?" दशरथ के आग्रह करने पर कैकेयी ने कहा---'अच्छा, यह मेरी थाती रहे; जब ज़रूरत होगी, माँग लूँगी।" राजा इसी से सन्तुष्ट हो गये।
आज युवराज रामचन्द्र के राज्याभिषेक के संवाद से नागरिक प्रजा के आनन्द की सीमा नहीं है। राज-महल तो आनन्द की लहरों से एक ऐश्वर्यमय नाटक-घर के समान शोभा पा रहा है। सर्वत्र आनन्द उमड़ सा रहा है। ऐसे समय एक कुब्जा दासी के जी में इतनी जलन क्यों है? सर्वत्र आनन्द और तृप्ति पूर्ण-भाव से बह रही है किन्तु इस अभागिनी का हृदय दुःख और अतृप्ति की आग में क्यों जल रहा है? वह और कोई नहीं, कैकेयी के नैहर की दासी कूबरी मन्थरा थी।
कूट-बुद्धि और ओछे मन के मनुष्य जगत् के किसी भले काम
को अच्छी नज़र से नहीं देख सकते। कूबरी दासी मन्थरा भी रामचन्द्र के राज्याभिषेक में न जाने कितना अनर्थ देखने लगी। उसने सोचा कि राम राजा होंगे तो कैकेयी को राज-माता के अधीन होना पड़ेगा! भरत राजा के भाई रहकर उदासी से दिन काटेंगे। इतने दिन से जिसको रानियों में सिरमौर देखती हूँ, उसको अब राजा की सौतेली माँ के रूप में कैसे देखूँगी। यह सोचकर उसका हृदय टूक-टूक हो रहा था। उसने झटपट कैकेयी के पास जाकर कहा---"अजी भोलीभाली रानी! कुछ सोचा भी है कि आगे तुम्हारा क्या हाल होगा?" सीधी-सादी कैकेयी, दासी की इस बात का मतलब न समझकर, उसका मुँह ताकने लगी। मन्थरा बोली---'राम राजा होते हैं।" सुनते ही कैकेयी ने अत्यन्त प्रसन्न होकर अपने गले का, मोतियों का, हार उतारकर उसे पारितोषिक दिया। मन्थरा ने कैकेयी का
बहुत तिरस्कार करके वह हार दूर फेंक दिया। कैकेयी धीरे-धीरे गहरे सन्देह में डूबने लगी। वह सोचने लगी कि मामला क्या है।
कैकेयी का स्वभाव बड़ा सरल और सुन्दर था, किन्तु शायद बुद्धि स्वभाव के समान नहीं थी। इसलिए वह सहज ही कुटिल मन्थरा के हाथ की कठपुतली बन गई। उसने अपनी मर्यादा का विचार न कर दासी के बहकाने से रानीपन छोड़ दिया। मन्थरा की सलाह से उसके सरल स्वभाव में गरल घुस गया। कैकेयी ने सोचा कि सच तो है, राम से मेरा भरत किस बात में घट कर है? सात-पाँच सोचकर रानी राजा से थाती-स्वरूप दो वर लेने की इच्छा से सँभलकर बैठ गई। मन्थरा ने सलाह दी कि इस तरह राजा का मन हाथ न आवेगा। आँसू टपकाना, भूमि पर लोटना और जेवर उतार फेंकना ही स्वामी को सीधे रास्ते लाने का बढ़िया उपाय है। कैकेयी प्रफुल्ल-मुख को आँसुओं से भिगाकर और ज़ेवर उतारकर लेटने के कमरे में धरती पर लोट गई। मन्थरा 'तीर लगा है' समझकर वहाँ से हँसी-खुशी से चली गई।
तिलक की सब व्यवस्था करने के बाद महाराज दशरथ ने, महल में जाकर देखा कि कौशल्या, पुत्र के कल्याण के लिए पूजा कर रही है और कैकेयी के कमरे में जाकर देखा कि वह, हवा से गिरे हुए केले के पेड़ की तरह, धरती पर पड़ी हुई है। आज, इस आनन्द के दिन प्यारी रानियों के बदन पर आनन्द की झलक देखकर राजा प्रसन्न होने की बात सोचते थे किन्तु यह क्या! यह क्या बला आई, सोचकर, रह-रहकर, बूढ़े का दम फूलने लगा।
बहुत मनाने पर कैकेयी ने कहा---महाराज! आप सत्यव्रत हैं। आपने बहुत दिनों से मुझे दो वर देने की प्रतिज्ञा कर रक्खी है। मैं आज वह वर लेना चाहती हूँ। महाराज दशरथ ने कहा---"इसी के लिए इतनी रूठी हो? तुम जो माँगोगी वही दूँगा।" राजा को क्या पता था कि सुगन्धित फूलों के भीतर ऐसा प्राणहारी विषधर सर्प छिपा बैठा है।
कैकेयी ने कहा---
"सुनहु प्राणपति भावत जी का। देहु एक वर भरतहि टीका॥
दूसर वर मांगों कर जोरी। पुरवहु नाथ कामना मोरी॥
तापल वेश विशेष उदासी। चौदह वर्ष राम वनवासी॥
राजा दशरथ सुनते ही मूर्च्छित हो गये। बड़े कष्ट से होश-हवास सँभालकर वे कहने लगे--"दुष्टे! तुम कोई दूसरा वर माँगो। जो राम जगत् को प्यारे हैं, जो भरत से भी तुम पर अधिक भक्ति दिखलाते हैं और जो राम सव सद्गुणों के भूषणस्वरूप हैं उन लोकाभिराम रामचन्द्र ने तुम्हारा ऐसा क्या बिगाड़ा है? तुम उनका सर्वनाश चाहती हो। राजा ने कैकेयी को बहुत कुछ समझाया। कभी विनय-वचन से, कभी सादर वाक्य से और कभी तिरस्कार करके उसे अपनी इच्छा त्यागने के लिए कहा। किन्तु कैकेयी ने, किसी तरह, अपना हठ नहीं छोड़ा। दशरथ ने सोचा कि कैकेयी का हृदय रेगिस्तान है, वह समवेदना के आँसू से भला क्यों तर होगा? वह तो उसमें सूख ही जायगा। यह सोचकर राजा रह- रहकर मूर्च्छित होने लगे।
धीरे-धीरे सब बातें राम के कानों तक पहुँचीं। वे पिता की प्रतिज्ञा पालने को तैयार हुए। वन जाने की इच्छा प्रकट करके वे माता का दर्शन करने चले। दासी ने कहा कि रानी पूजा घर में हैं। रामचन्द्र ने पूजा-घर में जाकर माता के चरण छुए। देवता की ओर ध्यान लगाये हुए कौशल्या ने, विशेष आनन्द प्रकट करके, रामचन्द्र को आशीर्वाद दिया। राम ने कहा---माता! तुमको अभी मालूम नहीं है कि आज की खुशी रंज में बदल गई। मैं आज राज-सिंहासन पाने के बदले और एक कठिन परीक्षा में पड़ा हूँ। इस परीक्षा में स्वार्थ की आहुति देकर परार्थ को ऊँचा आसन देना होगा। तुम्हारी पवित्र चरण-रज मेरे जीवन की ग्लानि दूर करके मेरे हृदय को बलवान् बनावे, तुम्हारा स्नेह-कवच मुझे आज कर्म के युद्ध में जय दे; ऐसा आशीर्वाद दो।
कौशल्या ने कुछ नहीं समझा। रामचन्द्र ने माता को सब हाल सुना दिया। सुनकर कौशल्या, पागल की तरह, हाहाकार करती हुई बेहोश हो गई।
बड़ी-बड़ी कोशिशों से राम-लक्ष्मण ने उन्हें चेत कराया। कौशल्या रामचन्द्र को वन जाने से मना करने लगीं। किन्तु रामचन्द्र, ने कहा---माता! मैं राज्य छोड़कर वन नहीं जाऊँगा तो पिता का वचन न रहेगा। पिता का मान रखना, और सत्य पालना, पुत्र का अवश्य कर्तव्य है। मेरे वन न जाने से पिता का सत्य-भङ्ग होगा। माँ! मैं तुम्हारे पवित्र गर्भ से जन्म लेकर क्या ऐसा नीच हूँगा? तुच्छ वनवास का इतनासा क्लेश क्या सहन न कर सकूँगा? माँ! हमारे पिता तुम्हारे भी गुरु हैं, इसलिए तुम भी इस विषय को ज़रा सोच-समझ लो।
रामचन्द्र की ये बात सुनकर कौशल्या आँसुओं की धारा बहाने लगीं। वे किसी तरह ऐसे कठोर विषय में सम्मति न दे सकीं।
रामचन्द्र ने समझा-बुझाकर कौशल्या का ढाढ़स दिया। अन्त में वे माता की आज्ञा लेकर प्रियतमा सीता के पास गये।
सीता ने सब हाल सुनकर रामचन्द्र के साथ वन जाने की इच्छा प्रकट की। रामचन्द्र सीता को, किसी तरह, साथ नहीं
ले जाना चाहते थे। इससे सीता ने उनसे कहा--आर्यपुत्र! आप पण्डित हैं, शूर हैं, वीरवर हैं; आप मुझे राजधानी में रहने के लिए जो कुछ कहते हैं, सो सब प्रेम की अन्धी दृष्टि से। जो-जो दुर्घटनायें देखते हैं, वे कभी आपके योग्य नहीं। आपका यह उपदेश मेरे अनुकूल कर्तव्य नहीं है। आपके साथ, छाया की तरह, वन में जाना ही मेरा काम है। दम्पति में एक के सुख-दुःख में दूसरे का सुख-दुःख ऐसा मिला हुआ है जो अलग नहीं हो सकता। जहाँ इसमें कसर है वहाँ दाम्पत्य-धर्म सराहने योग्य है कि नहीं, इसका विचार आप ही के ऊपर है। स्वामी ही स्त्री का सर्वस्व है---स्वामी का सुख-दुःख ही स्त्री का सुख-दुःख है। फिर स्त्री सन्तम स्वामी के लिए छाया है, प्यासे स्वामी के लिए ठण्डा जल है। क्या आप मुझे ऐसी ओछी समझते हैं कि मैं आपके केवल सुख की संगिनी हूँ? दुःख के समय क्या मैं आपके दुख को स्वीकार कर आपको प्रसन्न नहीं कर सकती? स्वामी का साथ ही स्त्री के लिए राजपद है। क्या आप मुझको ऐसे गौरव के स्थान से हटाना चाहते हैं?
रामचन्द्र ने सीता से प्रेम-पूर्वक कहा--प्राणप्यारी! तुमने मेरे सामने जो दाम्पत्य-धर्म कहा, उसे मैं जानता हूँ। मैं जानता हूँ कि स्त्री ही स्वामी के, तपे हुए जीवन में शरद-मंद-सुगन्ध वायु की तरह, सब कष्ट मिटा देती है। किन्तु लावण्य-लतिके! वनवास के कठिन क्लेश से जब तुम्हारी देह धूल में मुरझाई हुई लता की तरह कुम्हला जायगी, जब तुम्हारे ये महावर से रँगे हुए सुकोमल चरण
कुश के गड़ने से व्यथित होंगे, जब वन में घूमनेवाले राक्षसों के डर से तुम्हारा---खिले हुए कमल के समान--मुँह सूख जायगा तब यह शोक उपजानेवाला दृश्य मुझसे देखा न जायगा। प्रियतमे! तुम्हारा यह प्रेम-पवित्र मुँह मेरे जीवन-आकाश का पूर्ण चन्द्र है, दुर्भाग्य-
राहु-द्वारा उसके ग्रसे जाने पर मुझे जो कष्ट होगा उसकी कल्पना करने से भी मुझे भय होता है। मैं अपनी इच्छा से अपना कलेजा निकालकर फेंक दे सकता हूँ किन्तु तुम्हारा कोई कष्ट मैं नहीं देख सकता। इसी से कहता हूँ कि तुम माताजी के पास, उनकी हताशा में आशा की तरह, रहकर मेरा आनन्द बढ़ाओ।
सीता ने सुनकर मान से कहा--आर्य-पुत्र! आपने क्या मुझे
विलास की ही चीज़ समझा है? यह समझा है कि मैं आपके जीवन सुख की ही संगिनी हूँ? क्या आप मुझे दुःख में संगिनी नहीं देखना चाहते? क्या आप नहीं जानते कि स्त्री का जन्म स्वामी के सुख-दुःख से मिला हुआ होता है? स्वामी साथ हो तो जंगली जानवरों से भरा हुआ वन ही साध्वी स्त्री के लिए नन्दन-वन है; आपसे आप उपजे हुए वन-फल ही उसके लिए राजभोग हैं; शीतल नदी-नीर ही उसके लिए सुवासित पीने की सामग्री है; घास ही उसके लिए अनमोल कोमल शय्या और जंगली फूलों की सुगन्ध ही उसके लिए विलास-सामग्री है। आपकी सेवा करने से मुझे जो तृप्ति होगी वैसी तृप्ति राजधानी का अपार सुख भोगकर भी न होगी। इसलिए आप मुझे अपने साथ ले चलें। आप ही साक्षात् राजश्री हैं। आपके वन में जाने से वह वन ही आपके तेज से स्वर्ग-समान हो जायगा और यह राजधानी, भयंकर प्रेतपुरी की तरह, मेरे लिए अशान्तिदायक हो जायगी। आपका मधुर मिलन ही मेरे लिए स्वर्ग-सुख है, और आपकी विरह-यन्त्रणा मेरे लिए हलाहल विष है। आप मुझे छोड़कर वन को न जाइए। नाथ! मैं आपके साथ वन को चलकर आपके क्लेश का कारण नहीं हूँगी। आपका पवित्र संग ही मेरे जीवन की कामना है। यदि मैं आपके साथ वन में घूमते-घूमते सूर्य की तेज़ किरणों से थक जाऊँगी तो आपका यह प्रेम-पवित्र मुँह
देखकर तृप्त हुँगी। आपको देखकर मैं सारा कष्ट भूल जाऊँगी। प्रभो! आप मुझे छोड़कर वन को न जायँ।
रामचन्द्र ने, वन जाने को तैयार, सीता देवी को वनचर राक्षस आदि के उपद्रव की बातें बताकर रोकना चाहा; किन्तु यह नहीं सोचा कि सीता क्षत्राणी हैं, वे राजाओं के भयदायक शिव-धनुष तोड़नेवाले की सहधर्मिणी हैं, वे ताड़का को मारनेवाले की वीर-पत्नी हैं, वे क्षत्रिय-विध्वंसी परशुराम का गर्व हरनेवाले की धर्म-पत्नी हैं।
सीता ने कहा---प्राणनाथ! आपने वीरता कं प्रण में जयी होकर मुझे पाया है। आज आपके मुँह से भीरुता की ऐसी-ऐसी बाते क्यों निकलती हैं? आप वीर हैं, पुरुष हैं, शास्त्रों के जाननेवाले हैं,--क्या आप मेरी रक्षा नहीं कर सकेंगे? आप मुझे राक्षसों का डर क्यों दिखाते हैं। आप ही ने तो, कुमार अवस्था में, ताड़का आदि का नाश करके विश्वामित्र का यज्ञ पूर्ण कराया था! आप ही ने तो शिव-धनुष तोड़कर मुझे प्रात किया था! आप ही ने तो गर्वीले परशुराम का कुठार व्यर्थ किया था! मैं राक्षस से डरूँगी? हे पुरुष-रत्न मुझे यह डर मत दिखाओ। स्त्री की रक्षा करना स्वामी का मुख्य कर्तव्य है, यह भूल मत जाओ।
अब रामचन्द्र सीता को साथ लेने में आना-कानी नहीं कर सके। भ्रातृ-भक्त लक्ष्मण भी रामचन्द्र के साथ वन जाने को तैयार हुए। सुमित्राजी लक्ष्मण के वन जाने का समाचार सुनकर तनिक भी दुखित नहीं हुई। उन्होंने राम के हाथ में लक्ष्मण को सौंपकर कहा-बेटा लक्ष्मण! राम को पिता-तुल्य, सीता देवी को मेरे समान और घोर वन-भूमि को अयोध्या समझना। *
- रामं दशरथं विद्धि मां विद्धि जनकात्मजाम्।
अयोध्यामटवीं विद्धि गच्छ तात यथासुखम्॥
राम-लक्ष्मण ने वन के योग्य वेष धारण किया। रामचन्द्र के
जिस मस्तक पर बड़े मोल का राज-मुकुट शोभा पाता उसी मस्तक पर आज जटाजूट है! जो पवित्र शरीर रोली-चन्दन की सुगन्ध से स्निग्ध और बहुमूल्य वस्त्र तथा गहनों से सुशोभित होता उसी पर आज चीर-वस्त्र है! राजकुमार ने आज सत्य के सामने सब विलास-सामग्री को बलि देकर वैराग्य लिया; केवल सीता देवी ने सास के अनुरोध से रानी का वेष नहीं छोड़ा। इसके बाद वे लोग पिता और माताओं के पैर छूकर और दूसरे गुरुजनों को प्रणाम करके राजधानी से निकल पड़े। आगे राम, बीच में सीता और पीछे लक्ष्मण चलते थे; उस समय ऐसा प्रतीत होता था मानो राज्य के मङ्गल और शान्ति के पीछे-पीछे साक्षात् धनुर्वेद भी जा रहा है।
आज वन के रास्ते में ये तीनों यात्री कैसे हैं? मानो भविष्य में मनुष्य-जाति को त्याग और संयम सिखाने के लिए इन तीन श्रेष्ठ मूर्तियों ने, भविष्य आशा को हृदय में रखकर, पृथ्वी के सारे दुःखों को अङ्गीकार किया है। जन्म से ही सुख में पले हुए सूर्यवंश के गौरव-पुञ्ज दोनों राजकुमार और सती सुकुमारी सीता देवी दीन वेष में वन को जा रही हैं! दोनों राजकुमार कसरत और लड़ाई में दुःख की कठोर मूर्ति से अपरिचित नहीं हैं किन्तु जो सीता देवी पिता के स्नेह में पलीं, जिन राजवधू ने अयोध्या में कभी पलँग से नीचे पैर नहीं रक्खा, जो वीर स्वामी की शान्ति हैं, वही कुसुम-समान कोमल सीताजी आज वन को जा रही हैं! उनके सुन्दर चरण आज धूल से लिपट रहे हैं। आज वे रामचन्द्र की बाहु के सहारे धीरे-धीरे चल रही हैं।
धीरे-धीरे वे लोग गङ्गा-किनारे पहुँचे । गङ्गा-तट के विशाल वन
में प्रकृति देवी मानो सौन्दर्य की सैकड़ों भेंटें लेकर सत्य की धुन के
पक्के रामचन्द्र के कर्तव्यपरायण हृदय को प्रोति के शान्त शीतल
जल से सींचने के लिए तत्पर हुई। सीता और लक्ष्मण के साथ
रामचन्द्र वनवास का क्लेश भूलकर प्रकृति का खुला सौन्दये देख
पुलकित हुए । वनदेवी भौरों से गुञ्जायमान पुष्पों से शोभित हरे-हरे पत्ते हिलाकर रामचन्द्र की अभ्यर्थना करने लगी। रामचन्द्र गङ्गा का सुन्दर दृश्य देखकर पुलकित हो गये।
वहाँ से वे चित्रकूट गये । पत्थर के शरीरवाला चित्रकूट मानो सूर्यवंश-कमलिनी सीता देवी को ढाढ़स देने के लिए तैयार हुआ। वह अपने शिखर के जङ्गल-वृक्षों का श्यामल सौन्दर्य, वन-लता की कमनीयता और सिर चूमनेवाली मेघमाला का मोहन दृश्य लेकर मानो उन लोगों का स्वागत करने लगा।
चित्रकूट के ऊपर से बहनेवाले झरने मधुर कलरव से सीता देवी को सान्त्वना देने की चेष्टा करने लगे। सीताजी चित्रकूट पर रामचन्द्र का आदर और प्यार पाकर मानो सारे दुःखों को भूल गई। रामचन्द्र के साहचर्य, लक्ष्मण की भक्ति और प्रकृति के उस बिना माँगे हुए उपहार को पाकर सीता देवी अयोध्या का सुख भूल गई।
इधर रामचन्द्र आदि के वन जाने से अयोध्यावासी बहुत दुःखित हुए । राजा दशरथ ने तो पुत्र-शोक से प्राण ही छोड़ दिया। इस लमय भरत राजधानी में न थे। वे भाई शत्रुन के साथ ननिहाल गये थे। पिता के मरने का समाचार पाकर भरत अयोध्या में आये। वे पिता का क्रिया-कर्म करके रामचन्द्र को लौटा लाने के लिए राजधानी से रवाना हुए।
उस समय रामचन्द्र, सीता और लक्ष्मण-सहित, चित्रकूट पर थे । भरत रामचन्द्रजी के पैरों में गिरकर, माता के इस ओछे काम लिए, क्षमा माँगने लगे । भरतजी, यह सोचकर कि मेरी माता ने ओछी बुद्धि के कारण ऐसा अनर्थ किया है, बहुत लज्जित होते हुए रामचन्द्र को अयोध्या लोटा ले जाने का उपाय करने लगे। किन्तु रामचन्द्र ने किसी तरह लौटना मंजूर नहीं किया। लाचार भरत रामचन्द्रजी की खड़ाऊँ सिरपर रखकर के लोटे और अयोध्या के बाहर नन्दीग्राम में खड़ाऊँ को राजसिंहासन पर थापकर राज-काज चलाने लगे।
भरत के लौट जाने पर रामचन्द्र दण्डक वन को गये । सती- शिरामणि सीता निराश प्राणपति को ढाढ़स देने के लिए वन-फूलों से अपना सिंगार करती। आखेट से थके हुए रामचन्द्र का पसीना सीता के डुलाये हुए पंखे से सूख जाता। कलकल' शब्द करनेवाली नदी के दोनों किनारे, प्रकृति के भोलेभालं बच्चे की तरह, विचरा करते। कभी-कभी स्वामी की सोहागिनी अपना जूड़ा जंगली फूलों से सजाकर जब वनदेवी के समान शोभा पाती तब ऐसा जान पड़ता कि अयोध्या की राजलक्ष्मी ने दण्डक वन में एक नया राज्य फैलाया है। लक्ष्मण ने वहाँ, रहने-योग्य एक स्थान चुनकर, कुटी बनाई। सीता देवी स्वामी के साथ उसी में रहने लगी। लक्ष्मण रात को उस कुटी के सामने पहरा दिया करते थे।
सीता, प्रकृति के लाडले शिशु की तरह. सीधे स्वभाव की थीं। गोदावरी का तट उनकी क्रीड़ा का आँगन हो गया। उनकी कुटी के चारों ओर बहुतसे जङ्गली फूल खिलकर उस स्थान को सुगन्धित कर देते थे। कोयल की कुहुक सुनकर सीता की नींद टूटती। जंगली जानवर उनकी सखी बन गये थे। ओस से भीगे हुए पुष्प-दल शस्य के झुके हुए गुच्छे, काँस के फूलों से शोभायमान गोदावरी-तट सीता देवी को अनेक प्रकार से तृप्त करते थे। इस प्रकार, सीता ने प्रकृति के साथ हेलमेल कर लिया। प्रकृति देवी ने भी, मानो सुन्दरता के सैकड़ों उपहार देकर, सीता देवी के सुख की गृहस्थी सजा दी। सीता वन में विचरनेवाली हरिणियों का आदर करतीं; मीठी बोलीवाले कितने ही पक्षी उनकी कुटी के पास वृक्ष की डालियों पर बैठकर चहकते; सौन्दर्य में भूली हुई सीता अपनापा भुलाकर उनके गले से अपना गला मिलाकर गीत गाने लगतीं। वन-देवी की वन-वीणा का स्वर, माना किसी अनिश्चित मायालोक से आकर, सीता को पुलकित कर देता। सीता कभी गोदा- वरी के कमल-वन में देवाङ्गनाओं की जल-केलि देखतीं; कभी स्वामी के साथ पहाड़ पर बैठकर कितनी ही कहानियाँ सुनतीं; कभी लताओं में भौरों की गुज्जार सुनकर पुलकित होतीं और कभी मुनि-कन्याओं के साथ गप-शप किया करतीं। इस प्रकार उन्होंने एक सुख की गृहस्थी बना ली।
इस नई गृहस्थी में आकर सीता देवी अयोध्या का राज-सुख भूल गईं। क्यों न भूल जातीं? सैकड़ों प्रकार की खटपट से भरा हुआ, तरह-तरह के स्वार्थों से दूषित, सीमा-बद्ध राज-महल क्या सदा शान्तिमय उदार असीम वनभूमि से घटिया नहीं है? सुगन्ध पूर्ण सुन्दर जंगली फूल, प्रकृति से शिक्षा पाये हुए पक्षियों के कलरव और पवित्र स्वभाववाली तापस-कुमारियों के वहनपा ने उनको वनवास का क्लेश भुला दिया।
किन्तु सीता का यह सुख बहुत दिनों तक नहीं रहा। विनोद के इस रङ्ग-मञ्च पर दुःख का दृश्य अचानक आ जमा।
रावण की बहन शूर्पनखा दण्डक वन में रहती थी। खर-दूषण के अधीन चौदह हज़ार राक्षस भी वहाँ निवास करते थे। एक दिन शूर्पनखा वन में घूमती हुई रामचन्द्र के आश्रम के पास आ पहुँची और रामचन्द्र का मोहन रूप देखकर लट्टू हो गई। जब रामचन्द्र ने पापिनी की व्याह-कामना पूरी नहीं की तब वह क्रूरा शूर्पनखा सीता देवी को ही, रामचन्द्र का प्रेम पाने में, बाधक समझकर उन्हें खाने दौड़ी। राक्षसी का यह भाव देखकर सीता डर गईं। उनका खिले हुए कमल सा मुँह सूख गया। लक्ष्मण ने पापिनी को उचित दण्ड दिया—उन्होंने उस अभागिनी के नाक-कान काट लिये।
अभागिनी के अपमान से खर और दूषण ने रामचन्द्र पर चढ़ाई की परन्तु सेना-सहित दोनों मारे गये। अब रामचन्द्र दण्डकारण्य में राक्षसों के लिए भयानक काल के समान बनकर रहने लगे।
नाक-कान कटी पापिनी शूर्पनखा ने प्रतिहिंसा की आग में
जल-भुनकर रावण के पास जा अपनी दुर्दशा की बात कही। रावण, बहन के इस अपमान से, घी पाकर धधकती हुई आग की तरह जलने लगा और यह सोचकर वह क्रोध के मारे काँपने लगा कि उस तुच्छ आदमी ने त्रिलोकी को जीतनेवाले रावण की बहन का ऐसा अपमान किया। शूर्पनखा ने रावण से कहा-महाराज! मैंने वन में घूमते-घूमते, राम के पास, एक बड़ी सुन्दर स्त्री को देखकर सोचा कि यह मनुष्य राम के योग्य नहीं; किन्तु यह तो देवता और असुरों पर हुकूमत करनेवाले त्रिलोक-प्रसिद्ध मेरे भाई रावण को गोद में ही शोभा पाने योग्य है। खिले हुए फूल को देवता के चरणों पर कौन नहीं चढ़ाता? मैं इसी मतलब से वहाँ गई थी कि उस स्त्री को लाकर तुम्हें सौंपूँ। वंस, इसी से पापी राम ने मेरी यह दुर्गति कर डाली। मेरे साथी खर और दृषण मेरी सहायता करने गये थे, वे मारे गये। तुम अपने को तीनों लोकों का जीतनेवाला सनझकर गर्व तो करते हो; किन्तु अब दण्डक वन तुम्हारे अधिकार में नहीं। तुम्हारी एक-मात्र बहन का इस प्रकार अपमान हुआ है। मैं पञ्चवटी में सीता, राम और लक्ष्मण और पास ही माया-मृग (रङ्गीन)—पृ॰ १९
- ↑ * वैवस्वत मनु के पुत्र इक्ष्वाकु के बाद की २३वीं पीढ़ी। इनके पिता का नाम ह्रस्वरोमा था। विष्णुपुराण ५वाँ अध्याय।